कम खर्च में तैयार होती नाडेप खाद

आज देश के अनेक किसान खेती में जैविक तरीके अपना रहे हैं. जैविक खाद बनाने के अनेक तरीके हैं, जिन्हें हमारे देश में अपनाया जाता है.

इन सब तरीकों में जैविक खाद बनाने की नाडेप विधि भी खास है. जैविक कंपोस्ट बनाने की इस नापेड विधि को महाराष्ट्र के किसान नारायण देवराव पंढरी ने विकसित किया.

उन्हीं के नाम पर इस कंपोस्ट का नाम नाडेप रखा गया.

नाडेप कंपोस्ट की खूबी है कि इसे बनाने के लिए कम गोबर का इस्तेमाल होता है. शेष खेती का कूड़ाकरकट, कचरा, पत्ते व मिट्टी पशुमूत्र आदि ही इसे बनाने के काम में लाया जाता है.

यह खाद 90 से 120 दिन में तैयार हो जाती है. इस कंपोस्ट में जैविक रूप से नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश के अलावा अनेक सूक्ष्म पोषक तत्त्व पाए जाते हैं जो हमारी खेती में अच्छी पैदावार के लिए बहुत उपजाऊ होते हैं.

नाडेप कंपोस्ट बनाने के लिए औसतन 12 फुट लंबाई, 5 फुट चौड़ाई और 3 फुट गहराई का टांका यानी ईंटों से बनाया गया चारदीवारी वाला टैंक, जिस में जगहजगह हवा के आनेजाने के लिए छेद छोडे़ जाते हैं, बनाया जाता है. इस में लगभग 3 से 4 माह की अवधि में उम्दा किस्म का कंपोस्ट तैयार हो जाता है.

नाडेप बनाने के लिए सामान

खेती का बचाखुचा कचरा, जिस में पत्तियां, घासफूस, फसल अवशेष, सागसब्जियों के छिलके वगैरह लगभग 1,500 किलोग्राम, पशु का गोबर लगभग 300-400 किलोग्राम, छनी हुई खेत की मिट्टी लगभग 10-12 टोकरे, इस के अलावा पशु का मूत्र 2-3 बालटी और जरूरत के मुताबिक पानी. अगर खेती के अवशेष गीले और हरे हैं तो कम पानी की जरूरत होगी. सूखे अवशेष होने पर लगभग 400 से 500 लिटर पानी चाहिए.

नाडेप कंपोस्ट बनाने का तरीका

किसी छायादार जगह का चुनाव करें और उस जगह को एकसार कर के  इस के ऊपर ईंटों से तय आकार का एक आयताकार व हवादार ढांचा बनाएं. इस से खाद जल्दी पकेगी, क्योंकि जीवाणुओं को हवा से औक्सीजन भरपूर मात्रा में मिल जाती है और कई प्रकार की बेकार गैसें बाहर निकल जाती हैं.

आयताकार ढांचे के अंदरबाहर की दीवारों को गोबर से लीप कर सुखा लें. इस के बाद टांके के अंदर सतह पर सब से पहले पहली तह 6 इंच तक हरे व सूखे पदार्थों जैसे घास, पत्ती, छिलकों, डंठल, खरपतवार वगैरह की बिछाएं. अगर नीम पत्तियां उपलब्ध हों तो इस में मिलाना फायदेमंद रहता है. नीम का इस्तेमाल अनेक जैविक कीटनाशकों में होता है.

दूसरी तह में 4-5 किलोग्राम गोबर को 100 लिटर पानी व 5 लिटर गौमूत्र में घोल बना कर पहली परत के ऊपर इस तरह छिड़कें कि पूरे घासपत्ते वगैरह भीग जाएं. इस के बाद गोबर की एक इंच की परत लगाएं.

तीसरी परत 1 इंच ऊंचाई की सूखी छनी हुई मिट्टी की लगाएं, फिर उस मिट्टी को पानी छिड़क कर अच्छी तरह गीला कर दें.

इस प्रकार क्रम को दोहराते हुए आयताकार ढांचे को उस की ऊंचाई से 1-2 फुट ऊपर तक झोपड़ीनुमा आकार की तरह भर दें. तकरीबन 7-8 परतों में यह भर जाता है. अब इसे मिट्टी व गोबर की पतली 2 इंच की तह से लीप दें.

7 से 15 दिनों में आयताकार ढांचे में डाली हुई सामग्री ठसक कर 1-1.5 फुट तक नीचे आ जाती है. तब पहली भराई के क्रम की तरह ही फिर से इसे इस की ऊंचाई से डेढ़ फुट तक भर कर गोबर व मिट्टी के घोल से लीप दें.

100-120 दिनों में हवा के छिद्रों में देखने पर अगर खाद का रंग गहरा भूरा हो जाता है तो नाडेप खाद तैयार है. इसे मोटे छेद वाली छलनी से छान कर उपयोग में लाया जा सकता है.

लाभ : इस तरीके में कम गोबर से अच्छी जीवाणुयुक्त, पोषक तत्त्वों से भरपूर खाद बनाई जा सकती है.

कम खर्च में ही उत्तम नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश व दूसरे पोषक तत्त्वों से भरपूर खाद बड़ी मात्रा में तैयार हो सकती है.

जगहजगह पर बिखरा हुआ कूड़ाकचरा व खरपतवार को एक जगह इकट्ठा कर के खाद में बदला जा सकता है इस से प्रदूषण भी नहीं होता है.

नाडेप खाद बनाने का यह सब से सरल तरीका है, जिसे किसान थोडे़ समय में ही अपना कर लाभ कमा सकते हैं

इस प्रकार की खाद जमीन में जीवों की तादाद में बढ़वार कर के कार्बन की मात्रा को बढ़ाती है.

इस प्रकार की खाद को ईंटों की जगह पर लकडि़यों से भी तैयार कर सकते हैं.

इस से किसान रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक दवाओं के जाल से बाहर निकल सकता है.

उपरोक्त बताया गया तरीका पक्का नाडेप तरीका है. ढांचा बनाने के लिए ईंटों का इस्तेमाल होता है. कम खर्च में यह काम लकडि़यों द्वारा भी किया जा सकता है.

लकड़ी से बनाया जाने वाला नाडेप

यह नाडेप जमीन पर बनाए गए पक्के नाडेप की तरह ही बनाते हैं, किंतु इस में पक्की ईंटों की जगह बांस या लकड़ी का प्रयोग किया जाता है. लकड़ी से इस को बनाते समय हवा के लिए स्थान इस में अपनेआप ही रहता है, फिर इस में पक्के नाडेप की तरह घासफूस से भराई करते हैं. खाद का पूरा निर्माण काम व इस को निकालने वगैरह का काम पक्के नाडेप की तरह ही होता है. यह नाडेप से बहुत ही सस्ता बनता है.

सावधानियां

* नाडेप खाद के लिए ढांचे को छायादार जगह पर बनाएं.

* ढांचा बनाते समय छेद जरूर रखें, क्योंकि सूक्ष्म जीवाणुओं के लिए हवा का आनाजाना जरूरी होता है और कार्बन डाई औक्साइड व दूसरी गैसों के निकलने के लिए रास्ता चाहिए.

* नमी का खास खयाल रखें. पानी का छिड़काव समयसमय पर करते रहें.

* आयताकार ढांचे के ऊपरी भाग में दरारें आने पर समयसमय पर मिट्टी या गोबर से लिपाई कर दें.

* तैयार कंपोस्ट का भंडारण छायादार जगह पर बोरियों में करें. नमी के लिए बीच में कभीकभार हलके पानी का छिड़काव कर सकते हैं.

गाजरघास की बनाएं खाद

गाजरघास, जिसे कांग्रेस घास, चटक चांदनी, कड़वी घास वगैरह नामों से भी जाना जाता है, न केवल किसानों के लिए, बल्कि इनसानों, पशुओं, आबोहवा व जैव विविधता के लिए एक बड़ा खतरा बनती जा रही है. इस को वैज्ञानिक भाषा में पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस कहते हैं.

ज्यादा फसल लेने के चक्कर में कैमिकल खादों का ज्यादा इस्तेमाल करने से इनसान की सेहत व आबोहवा पर होने वाला असर किसी से छिपा नहीं है. उस से मिट्टी की उर्वरा कूवत में भी लगातार गिरावट आती जा रही है. कैमिकल खादों का आबोहवा व इनसान पर होने वाला असर देखते हुए जैविक खादों का महत्त्व बढ़ रहा है. ऐसे में गाजरघास से जैविक खाद बना कर हम आबोहवा को महफूज करते हुए इसे आमदनी का जरीया भी बना सकते हैं, लेकिन किसान ऐसा करने से डरते हैं.

क्यों डरते हैं किसान? : सर्वे में पाया गया है कि किसान गाजरघास से कंपोस्ट खाद बनाने में इसलिए डरते हैं कि अगर गाजरघास कंपोस्ट का इस्तेमाल करेंगे तो खेतों में और ज्यादा गाजरघास हो जाएगी.

दरअसल हुआ यह कि कुछ किसानों से जब गाजरघास से अवैज्ञानिक तरीके से कंपोस्ट खाद बना कर इस्तेमाल की गई, तो उन के खेतों में ज्यादा गाजरघास हो गई. इस में हुआ यह कि इन किसानों ने फूलों सहित गाजरघास से नाडेप तकनीक द्वारा कंपोस्ट खाद बना कर इस्तेमाल की. इस से उन के खेतों में ज्यादा गाजरघास हो गई.

इस के अलावा उन गांवों में, जहां गोबर से खाद खुले हुए टांकों यानी गड्ढों में बनाते हैं, जब फूलों सहित गाजरघास को खुले गड्ढों में गोबर के साथ डाला गया तो भी इस खाद का इस्तेमाल करने पर खेतों में ज्यादा गाजरघास हो गई.

कृषि वैज्ञानिकों ने अपने तजरबों में पाया कि नाडेप तकनीक द्वारा खुले गड्ढों में फूलों सहित गाजरघास से खाद बनाने पर इस के छोटे बीज खत्म नहीं हो पाते हैं. एक तजरबे में नाडेप तकनीक द्वारा गाजरघास से बनी हुई केवल 300 ग्राम खाद में ही 350-500 गाजरघास के पौधे अंकुरित होते हुए पाए गए. यही वजह है कि किसान गाजर घास से कंपोस्ट बनाने में डरते हैं. पर, अगर वैज्ञानिक तकनीक से गाजरघास से कंपोस्ट बनाई जाए तो यह एक महफूज कंपोस्ट खाद है.

खाद बनाने का तरीका : वैज्ञानिकों द्वारा हमेशा यही सलाह दी जाती है कि कंपोस्ट बनाने के लिए गाजरघास को फूल आने से पहले उखाड़ लेना चाहिए. बिना फूल वाली गाजरघास का कंपोस्ट खाद बनाने में इस्तेमाल बिना किसी डर के नाडेप तकनीक या खुला गड्ढा तकनीक द्वारा किया जा सकता है.

गाजरघास के सर्दीगरमी के प्रति असंवेदनशील बीजों में सुषुप्तावस्था न होने की वजह से एक ही समय में फूल वाले और बिना फूल के गाजरघास के पौधे खेतों में पैदा होते हैं.

निराईगुड़ाई करते समय फूल वाले पौधों को उखाड़ना भी जरूरी हो जाता है. फिर भी किसानों को गाजरघास को कंपोस्ट बनाने में इस्तेमाल करने के लिए यह कोशिश करनी चाहिए कि वे उसे ऐसे समय उखाड़ें, जब फूलों की मात्रा कम हो. जितनी छोटी अवस्था में गाजरघास को उखाड़ेंगे, उतनी ही ज्यादा अच्छी कंपोस्ट खाद बनेगी और उतनी ही फसल की उत्पादकता बढ़ेगी.

Compostऐसे बनाएं खाद : अपने खेत में थोड़ी ऊंचाई वाली जगह पर, जहां पानी जमा न हो,  3×6×10 फुट (गहराई × चौड़ाई × लंबाई) आकार का गड्ढा बना लें. अपनी सहूलियत और खेत में गाजरघास की मात्रा के मुताबिक लंबाईचौड़ाई कम कर सकते हैं, लेकिन गहराई 3 फुट से कम नहीं होनी पाएंगे.

*           अगर मुमकिन हो सके तो गड्ढे की सतह और साइड की दीवारों पर पत्थर की चीपें इस तरह लगाएं कि कच्ची जमीन का गड्ढा एक पक्का टांका बन जाए. इस का फायदा यह होगा कि कंपोस्ट के पोषक तत्त्व गड्ढे की जमीन नहीं सोख पाएगी.

*           अगर चीपों का इंतजाम न हो पाए, तो गड्ढे के फर्श और दीवार की सतह को मुगदर से अच्छी तरह पीट कर समतल कर लें.

*           खेतों की फसलों के बीच से, मेंड़ों और आसपास की जगहों से गाजरघास को जड़ के साथ उखाड़ कर गड्ढे के पास इकट्ठा कर लें.

*           गड्ढे के पास ही 75 से 100 किलोग्राम कच्चा गोबर, 5-10 किलोग्राम यूरिया या रौक फास्फेट की बोरी, 1 या 2 क्विंटल भुरभुरी मिट्टी और एक पानी के ड्रम का इंतजाम कर लें.

*           तकरीबन 50 किलोग्राम गाजरघास को गड्ढे की पूरी लंबाईचौड़ाई में सतह पर फैला लें.

*           5-7 किलोग्राम गोबर को 20 लिटर पानी में घोल बना कर उस का गाजरघास की परत पर छिड़काव करें.

*           इस के ऊपर 500 ग्राम यूरिया या 3 किलोग्राम रौक फास्फेट का छिड़काव करें.

*           ट्राइकोडर्मा विरिडि या ट्राइकोडर्मा हार्जीनिया नामक कवक के कल्चर पाउडर को 50 ग्राम प्रति परत के हिसाब से डाल दें. इस कवक कल्चर को डालने से गाजरघास के बड़े पौधों का अपघटन भी तेजी से हो जाता है और कंपोस्ट जल्दी बनती है.

*           इन सब मिलाए हुए अवयवों को एक परत या लेयर मान लें.

*           इसी तरह एक परत के ऊपर दूसरी, तीसरी और अन्य परत तब तक बनाते जाएं, जब तक गड्ढा ऊपरी सतह से एक फुट ऊपर तक न भर जाए. ऊपरी सतह की परत इस तरह दबाएं कि सतह गुंबद के आकार की हो जाए. परत जमाते समय गाजरघास को अच्छी तरह दबाते रहना चाहिए.

*           यहां पर गाजरघास को जड़ से उखाड़ कर परत बनाने को कहा गया है. जड़ से उखाड़ते समय जड़ों के साथ ही काफी मिट्टी आ जाती है. अगर आप महसूस करते हैं कि जड़ों में मिट्टी ज्यादा है, तो 10-12 किलोग्राम भुरभुरी मिट्टी प्रति परत की दर से डालनी चाहिए.

*           अब इस तरह भरे गड्ढे को गोबर, मिट्टी, भूसा वगैरह के मिश्रण से अच्छी तरह बंद कर दें. 5-6 महीने बाद गड्ढा खोलने पर अच्छी खाद हासिल होती है.

*           यहां बताए गए गड्ढे में 37 से 42 क्विंटल ताजा उखाड़ी गाजरघास आ जाती है, जिस से 37 से 45 फीसदी तक कंपोस्ट हासिल हो जाती है.

कंपोस्ट की छनाई : 5-6 महीने बाद भी गड्ढे से कंपोस्ट निकालने पर आप को महसूस हो सकता है कि बड़े व मोटे तनों वाली गाजरघास अच्छी तरह से गली नहीं है, पर वास्तव में वह गल चुकी होती है. इस कंपोस्ट को गड्ढे से बाहर निकाल कर छायादार जगह में फैला कर सुखा लें.

हवा लगते ही नम व गीली कंपोस्ट जल्दी सूखने लगती है. थोड़ा सूख जाने पर इस का ढेर बना लें. अगर अभी भी गाजरघास के रेशे वाले तने मिलते हैं, तो इस के ढेर को लाठी या मुगदर से पीट दें. जिन किसानों के पास बैल या ट्रैक्टर हैं, वे उन्हें इस के ढेर पर थोड़ी देर चला दें. ऐसा करने पर घास के मोटे रेशे व तने टूट कर बारीक हो जाएंगे, जिस से और ज्यादा कंपोस्ट हासिल होगी.

इस कंपोस्ट को 2-2 सैंटीमीटर छेद वाली जाली से छान लेना चाहिए. जाली के ऊपर बचे ठूंठों के कचरे को अलग कर देना चाहिए. खुद के इस्तेमाल के लिए बनाए कंपोस्ट को बिना छाने भी इस्तेमाल किया जा सकता है. इस तरह हासिल हुई कंपोस्ट को छाया में सुखा कर प्लास्टिक, जूट के बड़े या छोटे थैलों में भर कर पैकिंग कर दें.

पोषक तत्त्व : कृषि वैज्ञानिकों ने अपने तजरबों में यह पाया है कि गाजरघास से बनी कंपोस्ट में पोषक तत्त्वों की मात्रा गोबर खाद से दोगुनी और केंचुआ खाद के बराबर होती है. इसलिए गाजरघास से कंपोस्ट बनाना उन का एक अच्छा विकल्प है.

इन बातों पर दें खास ध्यान

*           गड्ढा छायादार, ऊंची और खुली हवा वाली जगह में, जहां पानी का भी इंतजाम हो, बनाएं.

*           गाजरघास को हर हाल में फूल आने से पहले ही उखाड़ना चाहिए. उस समय पत्तियां ज्यादा होती हैं और तने कम रेशे वाले होते हैं. खाद का उत्पादन ज्यादा होता है और खाद जल्दी बन जाती है.

*           गड्ढे को अच्छी तरह से मिट्टी, गोबर व भूसे के मिश्रण के लेप से बंद करें. अच्छी तरह बंद न होने पर ऊपरी परतों में गाजरघास के बीज मर नहीं पाएंगे.

*           एक महीने बाद जरूरत के मुताबिक गड्ढे पर पानी का छिड़काव करते रहें. ज्यादा सूखा महसूस होने पर ऊपरी परत पर सब्बल वगैरह की मदद से छेद कर पानी अंदर भी डाल दें. पानी डालने के बाद छेदों को बंद कर देना चाहिए.

ऐसे बनाएं भरपूर कंपोस्ट

आज के सघन खेती के युग में जमीन की उपजाऊ शक्ति को बनाए रखने के लिए समन्वित तत्त्व प्रबंधन पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है. इस के तहत प्राकृतिक खादों का प्रयोग बढ़ रहा है. इन प्राकृतिक खादों में गोबर की खाद, कंपोस्ट और हरी खाद मुख्य है.

ये खाद मुख्य तत्त्वों के साथसाथ गौण तत्त्वों से भी भरपूर होती हैं. गोबर का प्रयोग ईंधन के रूप में (70 फीसदी) होने के कारण इस से बनी खाद कम मात्रा में उपलब्ध होती है. हरी खाद और अन्य खाद भी कम मात्रा में प्रयोग होती है, इसलिए जैविक पदार्थ का प्रयोग बढ़ाने के लिए खाद बनाने के लिए कंपोस्ट का तरीका अपनाना चाहिए.

कंपोस्ट बनाने के लिए फसलों के अवशेष, पशुशाला का कूड़ाकरकट के अलावा गांव व शहरी कूड़ाकरकरट वगैरह को एक बड़े से गड्ढे में गलाया और सड़ाया जाता है.

जरूरी सामग्री : फसल के अवशेष व कूड़ाकरकर 80 फीसदी, गोबर (10-15 दिन पुराना) 10 फीसदी, खेत की मिट्टी 10 फीसदी, ढकने के लिए पुरानी बोरी या पौलीथिन और पानी. इस के अलावा छायादार जगह पर या पेड़ के नीचे गड्ढा बनाएं.

Compostकंपोस्ट बनाने की विधि : कंपोस्ट बनाने के लिए गड्ढे की लंबाई 1 मीटर, चौड़ाई 1 मीटर और गहराई 1 मीटर होनी चाहिए. गड्ढे की लंबाई, चौड़ाई व गहराई फसल अवशेष पर भी निर्भर है.

* सब से नीचे 12-15 सैंटीमीटर मोटी भूसे की परत लगाते हैं.

* भूसे की परत के ऊपर 10-12 सैंटीमीटर मोटी गोबर की परत लगाई जाती है.

* गोबर की परत के ऊपर 30-45 सैंटीमीटर मोटी फसल अवशेष या कूड़ाकरकट की परत लगाते हैं.

* इस के ऊपर 3-4 सैंटीमीटर की मोटी मिट्टी की परत लगाई जाती है.

* सब से ऊपर 5-6 सैंटीमीटर की मोटी गोबर की परत लगाई जाती है.

* एक महीने के बाद इस को उलटपलट कर देते हैं.

* नमी की मात्रा सामग्री में 60-70 फीसदी होना जरूरी है.

* इस तरह कंपोस्ट 3 महीने में तैयार हो जाती है.

* इस कंपोस्ट में नाइट्रोजन 0.8 से 1.0 फीसदी, फास्फोरस

0.6-0.8 फीसदी और पोटाश 0.8-1.0 फीसदी होती है.

कंपोस्ट के इस्तेमाल से लाभ

* इस के इस्तेमाल से मिट्टी में जैविक पदार्थ की मात्रा में बढ़ोतरी होती है.

* जरूरी तत्त्वों की संतुलित मात्रा में उपलब्धि होती है.

* मिट्टी व पानी का संरक्षण अधिक होता है.

* पौधों की जड़ों के लिए उचित वातावरण बनता है और इन की बढ़ोतरी अच्छी होती है.

* फसल अवशेष का सदुपयोग होता है.

* पशुशाला के कूड़ेकरकट का उपयोग कंपोस्ट बनाने में इस्तेमाल होता है.

* यह एक प्रदूषणरहित प्रक्रिया है.

* कंपोस्ट खाद की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए रौक फास्फेट डाल कर फास्फोरसयुक्त कंपोस्ट भी बना सकते हैं.

फास्फोरसयुक्त खाद बनाने की विधि

घासफूस, खरपतवार, फसल अवशेष 400 किलोग्राम. पशुओं का गोबर 300 किलोग्राम. रौक फास्फेट 100-150 किलोग्राम.

* बताई गई सामग्री को फावड़े या कस्सी से अच्छी तरह मिलाएं और पानी से नमी की मात्रा 60-70 फीसदी तक रखें.

* इस मिश्रण को 4 फुट चौड़े, 10 फुट लंबे व 3 फुट गहरे गड्ढे में डालें.

* 20 दिन बाद मिश्रण को उलटपलट कर व जरूरत के मुताबिक पानी डालें. इस प्रक्रिया को 50 दिन बाद फिर दोहराएं.

* 90 दिन बाद जैविक खाद बन कर तैयार हो जाएगी. इस में 0.8 से 1.0 फीसदी नाइट्रोजन, 3-4 फीसदी फास्फोरस व 0.5 फीसदी पोटाश.

* इस तरह से तैयार 2 टन जैविक खाद 60 किलोग्राम फास्फोरस के बराबर होती है.

धान की पराली से जैविक खाद बनाएं 

हरियाणा में ज्यादातर किसान धान की पराली को आग लगा कर खत्म कर देते हैं. इस से कि हवा खराब हो जाती है और जमीन के लाभदायक जीवजंतु भी खत्म हो जाते हैं.

अगर किसान धान की पराली को इकट्ठा कर उस से खाद बनाएं और खेतों में 10 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालें तो इस से जमीन की उर्वरा शक्ति भी बढ़ेगी और नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की खाद भी कम मात्रा में डालनी पड़ेगी और किसान भाइयों को रासायनिक खाद की बचत भी होगी.

बनाने की विधि

* सब से पहले अपने खेत में धान की पराली को इकट्ठा करें, फिर 1,000 लिटर पानी में एक किलोग्राम यूरिया डाल कर घोल बनाएं और इस घोल में 10 ग्राम एसपरजीलस अवामोरी नामक फफूंद डालें जो कि सूक्ष्म जीव विज्ञान विभाग, चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार से मिल जाएगी.

* अब धान की पराली का एकएक गट्ठर उठाएं और घोल में 3 मिनट के लिए डुबो दें और फिर निकाल कर एक ढेर बनाते जाएं जो कि 1.5 मीटर चौड़ा, 1.5 मीटर ऊंचा हो और जिस की लंबाई पराली की मात्रा के मुताबिक रखी जा सकती है. इस तरह पराली का ढेर बनाने के बाद इसे मोटी पौलीथिन की शीट से ढक दें.

* ऊपर बनी धान की पराली के ढेर में पानी की मात्रा 60-70 फीसदी 3 महीने तक बनाए रखें, एक महीने के बाद धान की पराली को उलटपलट कर दें और फिर से पौलीथिन की शीट को ढक दें. तकरीबन 3 महीने में खाद बन कर तैयार हो जाएगी.

* इस विधि से तैयार 1 टन खाद में 12-14 किलोग्राम नाइट्रोजन, 6-7 किलोग्राम फास्फोरस और 19-22 किलोग्राम पोटाश होती है.

पौधशाला प्रबंधन: अच्छी सेहत के लिए जरूरी बातें

पौधशाला किसी पौधे की अच्छी सेहत के लिए बहुत जरूरी होती है, जिस में वह खूब पनपती और किसान का उत्पादन बढ़ाती है. पौधशाला में पौध तैयार करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए :

* समय से ही खेत की जुताई कर के उस में गोबर, कंपोस्ट व बालू मिला कर अच्छी तरह तैयार कर लें.

* पौधशाला की क्यारी बनाते समय ध्यान रखें कि वह जमीन से 6-8 सैंटीमीटर उठी हो और चौड़ाई 80-100 सैंटीमीटर ही रखें.

* पौधशाला में ट्राइकोडर्मा व गोबर की खाद का मिश्रण अच्छी तरह से मिलाएं.

* जीवाणु आधारित स्यूडोसैल की 25 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से मिट्टी में मिला कर बोआई करें.

* पौधशाला में बीजों की बोआई करते समय बीज से बीज व लाइन से लाइन व बीज की गहराई का खास ध्यान रखें.

* पौधों को जमने के बाद ट्राइकोडर्मा 10 ग्राम एक लिटर पानी में घोल बना कर तैयार करें और समय पर छिड़काव करें.

* पौधशाला में पौधे उखाड़ते समय सही नमी होनी चाहिए.

* रोपाई के एक दिन पहले पौधों को ट्राइकोडर्मा 10 ग्राम प्रति लिटर पानी के हिसाब से खेत में छायादार जगह पर एक फुट गहरा गड्ढा खोद कर उस में पौलीथिन शीट बिछा कर नाप कर पानी भर दें और जरूरत के मुताबिक ट्राइकोडर्मा मिला लें, फिर उस में पौध के गुच्छे बना कर रातभर खड़ा कर दें, जिस से निकट भविष्य में फसल में रोग लगने का डर खत्म हो जाता है.

जैविक खेती से सुधरे जमीन की सेहत

हरित क्रांति के बाद उत्पादन बढ़ाने के लिए कैमिकल खादों और कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल किया गया. इस से उत्पादन तो बढ़ा, पर प्राकृतिक असंतुलन भी बढ़ता चला गया. पेड़पौधों के साथसाथ इनसानों में भी तरहतरह की बीमारियां पनपने लगी हैं, मिट्टी ऊसर होती जा रही है और खेती से उपजने वाली चीजों की क्वालिटी भी खराब हो रही है. ऐसी स्थिति में जैविक खेती का महत्त्व और भी बढ़ जाता है.

खेती की ऐसी प्रक्रिया जिस में उत्पादन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले निवेशों के आधार पर जीव अंश से उत्पादित हो और पशु, इनसान और जमीन की सेहत को टिकाऊ बनाते हुए स्वच्छता के साथ पर्यावरण को भी पोषित करे, जैविक खेती कही जाएगी.

यानी जैविक खेती एक ऐसा तरीका है, जिस में कैमिकल खादों, कीटनाशकों और खरपतवारनाशियों के बजाय जीवांश खाद पोषक तत्त्वों (गोबर की खाद, कंपोस्ट, हरी खाद, जीवाणु कल्चर, जैविक खाद वगैरह) जैवनाशियों (बायोपैस्टीसाइड) व बायोएजेंट जैसे क्राईसोपा वगैरह का इस्तेमाल किया जाता है, जिस से न केवल जमीन की उपजाऊ कूवत लंबे समय तक बनी रहती है, बल्कि पर्यावरण भी प्रदूषित नहीं होता. साथ ही, खेती की लागत घटने व उत्पाद की क्वालिटी बढ़ने से किसानों को ज्यादा फायदा भी मिलता है.

जैविक खेती को अपनाने के लिए पशुपालन को बढ़ावा देना होगा. अगर हमारा पशुधन अच्छा, स्वस्थ और अधिक नहीं है तो जैविक खेती संभव नहीं है. जैविक खेती में देशी खादें जैसे गोबर की खाद, नाडेप कंपोस्ट, वर्मी कंपोस्ट व हरी खादों का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना चाहिए.

जैविक खेती की प्रक्रिया :

जैविक खेती के लिए हमेशा गरमी में जुताई करना, उस के बाद उस में हरी खाद की बोआई करना जरूरी रहता है. खेत की तैयारी पशुओं द्वारा पशुचालित यंत्रों से करनी चाहिए.

जैविक उर्वरक प्रयोग विधि

बीज का उपचार : 200 ग्राम नाइट्रोजन स्थरीकरण के लिए (एजोटोबैक्टर/ राइजोबियम) जैव उर्वरक और 200 ग्राम पीएसबी जैव उर्वरक 300 से 400 मिलीलिटर पानी में अच्छी तरह मिला लें. इस?घोल में 50 ग्राम गुड़ भी घोल लेते हैं, ताकि बीजों पर घोल अच्छी तरह से चिपक जाए.

इस घोल को 10-12 किलोग्राम बीज पर डाल कर हाथ से तब तक मिलाएं, जब तक कि सभी बीजों पर एकसमान परत न चढ़ जाए. अब इन बीजों को छायादार और हवादार जगह पर सूखने के लिए रख दें.

अम्लीय या क्षारीय मिट्टी वाली जमीन के लिए किसानों को यह सलाह दी जाती है कि जैव आधारित बीजों को 1 किलोग्राम बुझा चूना अम्लीय मिट्टी में या जिप्सम पाउडर क्षारीय मिट्टी द्वारा उपचारित करें.

जड़ का उपचार :

1 किलोग्राम से 2 किलोग्राम नाइट्रोजन स्थरीकरण जैव उर्वरक (एजोटोबैक्टर/एजोस्पाइरिलम) और पीएसबी जैव उर्वरक को सही पानी (5-10 लिटर या 1 एकड़ में लगाई जाने वाली पौध की मात्रानुसार) का घोल बनाएं. बाद में रोपाई की जाने वाली पौध की जड़ों को इस घोल में 20-30 मिनट तक रोपाई करने से पहले डुबो कर रखें.

धान की रोपाई के लिए खेत में एक क्यारी (2 मीटर×1.5 मीटर×0.15 मीटर) बनाएं. इस क्यारी को 5 सैंटीमीटर तक पानी से भर दें और इस में 2 किलोग्राम एजोस्पाइरिलम और 2 किलोग्राम पीएसबी डाल कर धीरेधीरे मिलाएं. इस के बाद रोपे जाने वाले पौधों की जड़ों को 8-10 घंटे के लिए डुबो कर रख दें और रोपाई करें.

मिट्टी का उपचार :

2-4 किलोग्राम एजोटोबैक्टर या एजोस्पाइरिलम और 2-4 किलोग्राम पीएसबी 1 एकड़ के लिए सही है. इन दोनों तरह के जैव उर्वरकों को 2-4 लिटर पानी में अलगअलग मिला कर 50-100 किलोग्राम कंपोस्ट के अलगअलग ढेर बना कर उन पर छिड़काव करें और दोनो ढेरों को अलगअलग मिला कर पूरी रात के लिए छोड़ दें. 12 घंटे बाद दोनों ढेरों को आपस में अच्छी तरह मिला लें.

अम्लीय मिट्टी के लिए 25 किलोग्राम बुझा चूना इस ढेर के साथ मिला लें. फल वृक्षों के लिए हर जड़ के पास खुरपी की मदद से इस मिश्रण को पेड़ के चारों ओर डाल दें. बोई जाने वाली फसलों के लिए पूरे खेत में बोआई से पहले इस मिश्रण को अच्छी तरह छिड़क दें और यह काम शाम के समय जब गरमी कम हो, तब करें.

बोआई के लिए यथासंभव जैविक बीज का इस्तेमाल करते हुए जैविक विधि या जैव उर्वरकों से बीज शोधन कर के बीज की बोआई पशुचालित यंत्र जैसे बैलचालित सीड ड्रिल या नाई चोंगा वगैरह से करना चाहिए. गोमूत्र, बीजामृत, दही वगैरह से भी बीज शोधन कर सकते हैं.

खाद :

जैविक खेती अपनाने के लिए गोबर की खाद का इस्तेमाल करना चाहिए. गोबर की खाद सड़ी होनी चाहिए. यदि खेत में कच्चा गोबर डाल देते हैं तो उस से फायदे की अपेक्षा नुकसान हो जाता है. इस से खेतों में दीमक का प्रकोप बढ़ जाता . गोबर की सड़ी खाद को फसल बोने से पहले आखिरी जुताई के समय मिट्टी में मिला देनी चाहिए.

पोषक तत्त्वों की पूर्ति के लिए जीवांशों से बनी खाद का इस्तेमाल करना चाहिए. जैसे मलमूत्र, खून, हड्डी, चमड़ा, सींग, फसल अवशेष, खरपतवार से बनने वाली खादें या वर्मी कंपोस्ट, नाडेप कंपोस्ट, काउपैट पिट कंपोस्ट वगैरह का इस्तेमाल करना चाहिए और जैव उर्वरकों से जमीन का शोधन जरूर करना चाहिए.

सिंचाई और खरपतवार नियंत्रण :

पशुचालित यंत्रों जैसे बैलचालित सैंट्रीफ्यूगल पंप, सोलर पंप, नहर वगैरह से सिंचाई करनी चाहिए. खरपतवार पर नियंत्रण हाथ से निराईगुड़ाई कर के या पशु या इनसान से चलने वाले यंत्रों का इस्तेमाल कर के करनी चाहिए.

कीटों से हिफाजत :

कीटों से हिफाजत के लिए गोमूत्र, नीम, धतूरा, लहसुन, मदार, मिर्च, अदरक वगैरह से बनने वाले कीटनाशकों या जैविक कीटनाशियों जैसे ट्राइकोग्राम कार्ड, बावेरिया बेसियाना, बीटी, एनपीवी वायरस, मित्र कीट, फैरोमौन ट्रैप व पक्षियों को बुलाने वगैरह एकीकृतनाशी जीव प्रबंधन की विधियां अपना कर करनी चाहिए.

रोगों से रक्षा :

रोगों से रक्षा के लिए ट्राइकोडर्मा द्वारा जैविक बीज शोधन करना चाहिए. जमीन शोधन के लिए माइकोराजा, वैसिलस, स्यूडोमोनास वगैरह जैविक रोग नियंत्रकों का इस्तेमाल करना चाहिए और नियमित निगरानी के साथ खेत की मेंड़ों को खरपतवार मुक्त रखना चाहिए.

कटाई, मड़ाई और भंडारण :

फसल की कटाई, मड़ाई इनसान या बैलचालित यंत्रों का इस्तेमाल कर के करनी चाहिए और इन्हीं का इस्तेमाल कर के उत्पादों को खलिहान तक लाने व ले जाने के लिए और दूसरे परिवहन के लिए करना चाहिए.

भंडारण के लिए अनाज को खूब अच्छी तरह सुखा कर नीम की पत्ती या नमक या राख वगैरह मिला कर साफ जगह पर या भूसा वगैरह में भंडारित करना चाहिए.

फसलचक्र और बहुफसल प्रणाली :

फसल चक्र सिद्धांत का इस्तेमाल करने से फसलों में रोग व कीड़े कम लगते हैं और जमीन की उर्वरता बनी रहती है. साथ ही, पोषक तत्त्वों का सही प्रबंधन और उपयोग होता है.

जैसे उथली जड़ वाली फसलों के बाद गहरी जड़ वाली फसलें मटर, गेहूं के बाद अरहर, सरसों वगैरह.

अधिक खाद के बाद कम खाद लेने वाली फसलें जैसे आलू के बाद प्याज, गन्ना के बाद जौ वगैरह.

फलदार के बाद बिना फलीदार फसलें जैसे मूंग के बाद गेहूं, मटर के बाद धान वगैरह.

अधिक निराईगुड़ाई करने के बाद कम निराईगुड़ाई वाली फसलें जैसे मक्का के बाद जौ, चना वगैरह.

मिश्रित फसलोत्पादन जैविक खेती का मूल आधार है. इस में कई तरह की फसलों को एकसाथ मिश्रित रूप में या अलगअलग समय पर एक ही जमीन पर बोया जाता है.

हर मौसम में ध्यान रखना होगा कि दलहनी फसलें तकरीबन 40 फीसदी में बोई जाएं. मिश्रित फसलोत्पादन से न केवल बेहतर प्रकाश संश्लेषण होता है, बल्कि विभिन्न पौधों के बीच पोषक तत्त्वों के लिए होने वाली मांग को भी नियंत्रित किया जा सकता है.

नोट : उपरोक्त विधियां जैविक खेती की वास्तविक प्रक्रिया हैं, लेकिन किसान को तुरंत इस तरह से जैविक खेती करने में समस्या आ सकती है. इसलिए जुताई, बोआई, सिंचाई, परिवहन, कटाई, मड़ाई वगैरह में पशुचालित यंत्रों की जगह किसान डीजल से चलने वाले यंत्र या बिजली से चलने वाले यंत्रों का इस्तेमाल कर सकते हैं. लेकिन किसी भी तरह कैमिकल दवा का सीधा इस्तेमाल फसल पर या उत्पादित उत्पाद पर नहीं करना चाहिए. जैविक खेती टिकाऊ खेती का आधार है, पर यह पशुपालन पर आश्रित है.

जैविक खेती से लाभ

*           जमीन की सेहत सुधरती है.

*           पशु, इनसान और लाभदायक सूक्ष्म जीवों की सेहत सुधरती है.

*           पर्यावरण प्रदूषण कम होता है.

*           पशुपालन को बढ़ावा मिलता है.

*           टिकाऊ खेती का आधार बनता है.

*           गांव, कृषि और किसान की पराधीनता कम होती है, जिस से वे स्वावलंबी बनते हैं.

*           उत्पादों का स्वाद और गुणवत्ता बढ़ती है

*           पानी की खपत कम होती है.

*           रोजगार में बढ़ोतरी होती है और पशु और इनसानी मेहनत का उपयोग बढ़ता है.

*           रसायनों का दुष्प्रभाव पशु, पक्षी, इनसान, जमीन, जल, हवा वगैरह पर कम होता है.

पशु की सेहत का रखें खयाल

हमारे देश के ज्यादातर किसान खेती करने के साथसाथ गायभैंस भी पालते हैं, जिस से उन्हें अलग से अच्छीखासी कमाई होती है. गायभैंसों से ज्यादा दूध लेना ही हर किसान का मकसद होता है, लेकिन कुछ किसान ही अपनी गायभैंसों से अच्छा दूध ले पाते हैं. और उन की गायभैंसें भी सेहतमंद नहीं रहती हैं.

गायभैंस के ब्याते समय देखभाल :

आमतौर पर गायभैंसें ब्याने में आधा घंटे से ले कर 3 घंटे तक का समय लेती हैं. अगर गायभैंसें ब्याने में इस से ज्यादा समय लें, तो फौरन पशु चिकित्सक को बुला कर दिखाएं.

अगर गाय या भैंस का नवजात बच्चा (बछिया, बछड़ा या कटिया, कटरा) पैदा होने के 30 सैकंड बाद भी सांस लेना शुरू नहीं करता है तो उसे कृत्रिम सांस (आर्टिफिशियल सांस) दिलाएं. नवजात बच्चे की छाती को धीरेधीरे दबाएं और पिछले हिस्से को उठा लें. ऐसा करने से बच्चा सांस लेना शुरू कर देगा.

नवजात बच्चा पैदा होने के 2-3 घंटे बाद पहला गोबर करता है. अगर नवजात बच्चा पैदा होने के 2-3 घंटे बाद गोबर नहीं करता है, तो उसे 30 मिलीलिटर अरंडी का तेल पिला दें.

नवजात बच्चे के जिस्म पर (ब्याने के फौरन बाद) लगा लसलसा पदार्थ आमतौर पर मां (गाय या भैंस) चाट कर साफ कर देती है. अगर लसलसा पदार्थ नवजात बच्चे की मां चाट कर ठीक से साफ नहीं करती है तो ऐसी हालत में उसे साफ, सूखे कपड़े से पोंछ दें.

आमतौर पर गायभैंसें ब्याने के 2-4 घंटे बाद जेर गिरा देती हैं, लेकिन कभीकभी वे 8-12 घंटे तक का समय जेर गिराने में लेती हैं.

अगर गायभैंसें ब्याने के 8-12 घंटे बाद भी जेर नहीं डालती हैं तो इस का मतलब जेर रुक गई है. ऐसी हालत में फौरन पशुओं के डाक्टर या किसी माहिर से बच्चेदानी में फ्यूरिया जैसी दवा डलवाएं.

अगर गायभैंसें ब्याने के 30 घंटे बाद भी जेर नहीं गिराती हैं, तो पशुओं के डाक्टर से उसे निकलवाएं. ब्याई गई गाय या भैंस को पहले 5 दिनों तक 100 मिलीलिटर बच्चेदानी की सफाई वाली दवा दिन में 2 बार पिलाएं.

बच्चे (बछिया, बछड़ा या कटिया या कटरा) के पैदा होते ही उस की टुंडी यानी नाभि पर एंटीसैप्टिक यानी टिंचर आयोडीन, डेटोल या हलदी पाउडर लगाएं.

पैदा हुए बच्चे को खीस (पेवसी/पहला दूध) जल्द ही पिला दें. खीस की खुराक बच्चे के जिस्म के 1/10वें हिस्से के बराबर रखें यानी 10 किग्रा के बच्चे को 1 लिटर खीस पीने को दें और 30 किग्रा के बच्चे को 3 लिटर खीस पिलाएं.

यह खीस बच्चे के लिए बहुत ही पौष्टिक आहार है. खीस में ऐसी खासीयत होती है, जो बच्चे को बीमारियों से बचाती है. यह बच्चे में बीमारी से लड़ने की कूवत पैदा करती है. खीस पिलाने से बच्चा बचपन से ही तंदुरुस्त रहता है.

बीमार से बचाव :

अक्तूबनवंबर माह में सर्दी पड़ना शुरू हो जाता है, ऐसे में बच्चे और उस की मां को सर्दी से बचाएं. बच्चे को सेहतमंद रखने के लिए और कब्ज से बचाने के लिए समयसमय पर 30-40 मिलीलिटर अरंडी का तेल पिलाते रहें.

जब बच्चे की उम्र 3 महीने की हो जाए तो उसे खुरपकामुंहपका बीमारी से बचाव का टीका लगवाएं. 6 महीने से ज्यादा उम्र वाले पशुओं को खुरपकामुंहपका, गलघोंटू और लंगरिया बीमारियों को रोकने वाला टीका लगवाएं.

चारा और पूरक आहार :

गाय और भैंस को हर 3 लिटर व ढाई लिटर दूध के हिसाब से 1 किलोग्राम राशन दें. जो गायभैंसें दूध नहीं दे रही हैं, उन्हें हर दिन 1 किलोग्राम राशन देना चाहिए.

गायभैंसों को 70 फीसदी हरा चारा और 30 फीसदी सूखा चारा देना चाहिए. तकरीबन 100 किलोग्राम वजन वाली गाय को 2.5 किलोग्राम और भैंस को 3 किलोग्राम सूखी खुराक की जरूरत होती है. इस में दोतिहाई चारा और एकतिहाई दाना देना चाहिए.

हरे चारे में कम से कम 11-12 फीसदी प्रोटीन होना चाहिए और दाने में 18-20 फीसदी प्रोटीन जरूरी है. सभी पशुओं को संतुलित मात्रा में प्रोटीन देना जरूरी होता है.

पशुओं को संतुलित मात्रा में चारादाना दिन में 2 बार 8-10 घंटे के अंतराल पर दें. इस के अलावा 2 बार साफ ताजा पानी पीने को दें.

6 महीने की गाभिन गाय को 1 किलोग्राम व 6 महीने की गाभिन भैंस को डेढ़ किलोग्राम राशन (दाना) अलग से दें.

दुधारू पशुओं को रोजाना कम से कम 5 किलोग्राम हरा चारा जरूर दें. सर्दी के मौसम में बरसीम सब से अच्छा हरा चारा होता है.

पशु के राशन में 2 फीसदी मिनरल मिक्सचर जरूर मिलाएं.

पशुओं से ज्यादा दूध लेने और उन को लंबे समय तक सेहतमंद बनाए रखने के लिए उन्हें संतुलित मात्रा में चारादाना (राशन) देना जरूरी होता है. संतुलत राशन में खनिज लवण के साथ पोषक तत्त्व, प्रोटीन, विटामिन वगैरह तय मात्रा में रखे जाते हैं.

संतुलित आहार (राशन) बनाने का फार्मूला न्यूट्रीशन ऐक्सपर्ट से संपर्क कर के हासिल करें. संतुलित राशन घर पर भी बना सकते हैं. राशन बनाने में उम्दा क्वालिटी का अनाज (जई, जौ, गेहूं, ज्वार वगैरह), तेल, खली (सरसों, मूंगफली वगैरह की खली), ग्वारमील, शीरा, नमक, मिनरल मिक्सचर व विटामिनों का संतुलित मात्रा में इस्तेमाल किया जाता है.

एडवांस डेरी फार्म पर पूरक आहार (सप्लीमैंट्री राशन) दिया जाता है. पूरक आहार खिलाने से पशु के जिस्म में आई कमियां दूर हो जाती हैं और वह लंबे समय तक सेहतमंद व दुधारू बना रहता है. पूरक आहार में मिनरल मिक्सचर, फीड एडिटिव, बाईपास प्रोटीन, बी कांप्लैक्स वगैरह को शामिल किया जाता है. बहुत सी प्राइवेट कंपनियां पूरक आहार बाजार में बेचती हैं, तो उन की पूरी जानकारी हासिल कर के अपने पशु को पूरक आहार खिलाएं.

पशुओं का कीड़ों से बचाव :

छोटे या जवान पशुओं को बाहरी और अंदरूनी कीड़े काफी नुकसान पहुंचाते हैं. अंदरूनी कीड़े जैसे फीताकृमि, गोलकृमि, वगैरह पशु के पेट में रह कर उस का आहार व खून पीते हैं, वहीं बाहरी कीड़े जैसे जूं, किल्ली, पिस्सू माइट वगैरह पशु के बाहरी जिस्म पर रहते हैं और उस का खून चूसते हैं. बाहरी और अंदरूनी दोनों ही कीड़े पशु को कमजोर बना देते हैं, जिस के चलते पशु की दूध देने की कूवत कम होती जाती है और पशु समय से पहले ही कमजोर व बीमार हो कर मर सकता है.

पशुओं के अंदरूनी कीड़ों को मारने के लिए कीड़ेमार दवा जैसे फेंटास, एल्बोमार, पैनाखुर वगैरह की सही मात्रा पशु चिकित्सक से पूछ कर दें. वहीं बाहरी कीड़ों को मारने के लिए ब्यूटाक्स दवा की 2 मिलीलिटर मात्रा को 1 लिटर पानी में घोल कर पशु के शरीर पर अच्छी तरह से पोंछा लगाएं, पर दवा लगाने से पहले पशु के मुंह पर मुचका जरूर बांध दें, ताकि पशु दवा को चाट न सके.

बनाएं गोबर से खाद :

पशुओं के गोबर का इस्तेमाल उपले यानी ईंधन बनाने में कतई न करें. गड्ढा खोद कर उस में गोबर डालें और गोबर की खाद तैयार करें. जिन पशुपालकों के पास खेती की जमीन नहीं है, वे गोबर की खाद गड्ढे में तैयार कर उसे अच्छे दामों पर बेच सकते हैं. जैविक खेती में गोबर की सड़ी खाद की काफी मांग रहती है.

नस्ल का चुनाव :

दूध उत्पादन के लिए हमेशा दुधारू नस्ल के पशु ही पालें. गाय में साहीवाल, हरियाणा, करनस्विस, करनफ्रिज वगैरह और भैंस में मुर्रा, मेहसाना वगैरह नस्लें माली नजरिए से फायदेमंद साबित होती हैं.

दुधारू पशु (गायभैंस) खरीदने से पहले उस की नस्ल, दूध देने की कूवत वगैरह की जांच जरूर करनी चाहिए. पशु की वंशावली का रिकौर्ड भी जरूर देखना चाहिए यानी उस की मां, नानी, परनानी वगैरह कितना दूध देती थीं. इस के अलावा आप अपने इलाके और सुविधाओं के आधार पर ही पशु का चुनाव करें.

कैसी हो पशुशाला?

पशुशाल हमेशा ऐसी जगह बनाएं, जहां बारिश का पानी नहीं भरता हो. जगह हवादार व साफसुथरी होनी चाहिए. पशुशाला का फर्श पक्का खुरदरा रखें. गोबर को पशुशाला से उठा कर दूर खाद के गड्ढे में डालें. पशुशाला से पानी की निकासी का भी सही बंदोबस्त रखें.

पशुशाला के आसपास गंदा पानी जमा न होने दें. पशुशाला में मक्खीमच्छर से बचाव का भी इंतजाम करें. पशुओं को सर्दी, गरमी व बरसात से बचाने के लिए पशुशाला में पुख्ता इंतजाम करें.

ध्यान रखें कि पशुओं को किसी भी तरह की परेशानी न हो. सर्दी के मौसम में पशुशाला में बिछावन के लिए भूसा, लकड़ी का बुरादा, पेड़ों की सूखी पत्तियां या गन्ने की सूखी पत्तियों का इस्तेमाल करें. बिछावन गीला होने के बाद उसे गोबर के साथ उठा कर खाद के गड्ढे में डाल दें. हर रोज सूखा बिछावन ही इस्तेमाल में लाएं.

इन बातों का खयाल रखें

* पशुओं को अफरा बीमारी से बचाने के लिए 1 लिटर मीठे तेल में 200 ग्राम काला नमक, 100 ग्राम मीठा खाने वाला सोडा, 30 ग्राम अलवाइन व 20 ग्राम हींग मिला कर दें. अफरा से बचाव के लिए जरूरत से ज्यादा बरसीम, खड़ा गेहूं व ज्यादा राशन न खिलाएं.

* पशुओं को थनैला बीमारी से बचाने के लिए पशुशाला को हमेशा साफसुथरा रखें व हवादार रखें. समयसमय पर थनैला के लिए दूध की जांच करते रहें.

* थनैला की जांच के लिए 1 कप पानी में 1 चम्मच सर्फ घोलें व 5 चम्मच दूध में 1 चम्मच यह घोल मिला दें.

अगर दूध जैल बन जाए तो समझ लें कि पशु को थनैला हो गया है. थनैला होने पर फौरन पशुओं के डाक्टर से इलाज कराएं.

* थनैला से बचाव के लिए पशु का दूध निकालने से पहले व बाद में थनों को साफ पानी से धोएं और साफ व सूखे कपड़े से पोंछ दें. दूध दुहने वाले के हाथ के नाखून हमेशा कटे होने चाहिए. पशुशाला आरामदायक होनी चाहिए.

* हमेशा उन्नत नस्ल की गायभैंसें पालें. मादा को गाभिन कराने के लिए अच्छी नस्ल के सांड़ के वीर्य से कृत्रिम गर्भाधान कराएं.

* कटियाबछिया को समय पर गाभिन कराने के लिए उन के खानपान पर खास ध्यान दें, ताकि वे सही वजन हासिल कर सकें.

* समय पर बछिया/कटिया को संक्रामक गर्भपात से बचाने वाला टीका लगवाएं. पशु को पेट के कीड़े मारने के लिए हर 6 महीने में 1 बार कीड़े मारने वाली दवा दें.

* जब कटिया या बछिया का वजन 250 किलोग्राम हो जाए, तो उन को समय पर गाभिन होने के लिए 50 ग्राम खनिज मिश्रण 1 चम्मच कोलायडल आयोडीन और 125 ग्राम अंकुरित अनाज 2 महीने तक दें. कटियाबछिया की सफाई का पूरा ध्यान रखें.