सांप हमारे मित्र भी हैं

राजस्थान के जोधपुर जिले के वाइल्ड लाइफर शरद पुरोहित सांपों के व्यवहार के बारे में बताते हैं, ‘‘ मुझे बचपन से ही सांपों ने अपनी ओर आकर्षित किया. मैं ने हमेशा ही इन्हें असहाय पाया. सांपों के कहीं भी दिखाई दे जाने पर इन्हें मार दिए जाने की परंपरा ने मुझे भीतर तक झंझोर दियाहै. उन की इसी अनदेखी के चलते न जाने कब मेरा स्वाभाविक स्नेह इन्हें जिंदगी देने की वजह बन गया.’’

दुनियाभर में सांपों की 3,400 प्रजातियां हैं. इन में से तकरीबन 2,000 तो भारत में ही पाई जाती हैं. चूंकि मेरे काम का क्षेत्र पश्चिमी राजस्थान है, इसलिए मैं ने यहीं पाई जाने वाली प्रजातियों पर ज्यादा काम किया है. तकरीबन 25 ऐसी प्रजातियां हैं, जो राजस्थान में मिल जाती हैं. इन में से कुछ ही सांप जहरीले और घातक होते हैं.

आम लोगों की जिंदगी और किसानों के लिए सांपों का होना क्यों जरूरी है? जैव संतुलन में चूहे इनसानी जिंदगी में सब से बड़े घाटे का सौदा हैं. वे हमारे सब से बड़े दुश्मन हैं. ये चूहे हर साल खाद्यान्न का एक बड़ा हिस्सा चट कर जाते हैं. सांप इन चूहों के सब से बड़े दुश्मन हैं, इसलिए सांपों का सरंक्षण किया जाना बेहद जरूरी है.

सांपों की प्रजातियों में 3 सांप ऐसे भी हैं, जो हमारे लिए घातक हैं, वह भी मुठभेड़ हो जाने पर या छू लेने भर से, वरना खुद से हमला करना इन की फितरत नहीं.

मेरा अनुभव कहता है कि हमारी असावधानी से ही हमारी जानें जाती हैं. कोबरा, करैत, वाइपर ये कुछ ऐसे सांप हैं, जिन से हमारी जान जोखिम में पड़ सकती है.

कोबरा

यह सांप हमारे घरों के आसपास रहना ज्यादा पसंद करता है. यह बहुत ही समझदार  होता है. पहले तो यह हमें सचेत करता है. एकदम हमला नहीं करता. हमारे द्वारा दूरी बनाए रहने तक हम से दूर जाने की कोशिश करता है.

करैत

यह सांप बहुत ही घातक है. अकसर रात को निकलने वाला यह सांप ठंडक से बचने के लिए इनसानी इलाकों के नजदीक चला आता है और नींद में सोए हुए बेकुसूर लोग इस का शिकार बनते हैं. इस के दंश यानी काटने के निशान बहुत सूक्ष्म होते हैं. इस वजह से इस की पहचान बड़ी मुश्किल से हो पाती है.

लोगों में एक गलतफहमी है कि एक पीवणा सांप भी होता है, उस का जिम्मेदार भी यही होता है, लेकिन यह भी बिना छेड़े, हम से दूर भागना पसंद करता है.

वाइपर

इस सांप को शुष्क इलाकों का राजा कहते हैं. यह घातक और विषैला सांप है. यह सांप छोटीछोटी झाड़ियों और मिट्टी में रहना ज्यादा पसंद करता है. करीब जाने पर यह फुंफकारता है. इस की फुंफकार बहुत डरावनी होती है. आम आदमी इसे सुनते ही दूर हट जाता है.

इस की खराबी या अवगुण यह है कि यह बिना छेड़े ही हम पर हमला कर सकता है. इस से दूर रहना ही बचाव है. आम भाषा में इसे ‘भांडी’ यानी ‘पूंछ कटी’ भी कहते हैं.

वाइपर चूहों का बड़ा शिकारी है. जैसलमेर और बाड़मेर जैसे सीमांत इलाकों में इस के डसने की सब से ज्यादा खबरें मिलती हैं.

शहरी इलाकों में है इन का राज

शहरी इलाकों या पुराने शहरी इलाकों में ‘सैंड बोआ’, ‘ग्लोसी बेलिड’, ‘अर्थ बोआ’, ‘वर्मस्नेक’, ‘कोबरा’ जैसे सांप सब से ज्यादा पाए जाते हैं, जो बरसात के दिनों में ज्यादा सक्रिय दिखते हैं.

गांवों और कसबों में बसे खेतों की बात करें, तो ‘सिंड अवल हैडेड’, ‘रैड स्पाटेड’, ‘ब्लैक हैडेड रौयल स्नेक’, ‘एफ्रो एशियन सैंड स्नेक’, ‘कैट स्नेक’, ‘रैट स्नेक’, ‘वुल्फ स्नेक’ जैसे सांप अधिक मिलते हैं.

तो बचाव किस तरह हो

सर्प व्यवहार विशेषज्ञ शरद पुरोहित बताते हैं कि हम क्या करें, जब ये हमारे सामने हों. ऐसे सवाल अकसर ही पूछे जाते हैं. मेरा जवाब होता है, बस अपनी नजरें उन पर जमाए रहें. अगर ये खुली जगह पर हैं तो खुद ही चले जाएंगे और यदि घर में निकल आए हैं तो आप का फर्ज बनता है, कि बिना कोई हलचल किए, बहादुरी दिखाने की कोशिश किए बगैर किसी माहिर सांप विशेषज्ञ की मदद ले कर इन का पुनर्वास सुनिश्चित किया जाए.

इन को भूल कर भी बिना पहचान किए छूने की कोशिश से बचें. लाठी, चिमटा, टोंग वगैरह से प्रहार इन के लिए घातक साबित हो सकता है, ये जितने ताकतवर दिखाई पड़ते हैं, उस से ज्यादा कमजोर इन की हड्डियां और सिर होते हैं. रैस्क्यू के बाद ये जी नहीं पाते, यथासंभव प्रबंधन होना चाहिए, हैंडलिंग बिलकुल भी न करें.

कुछ इलाकों में इन्हें देखते ही मार देने का रिवाज है. मेरा मानना है, चूंकि यह किसानों के परम मित्र हैं, इन्हें सम्मान दिया जाना जरूरी है. ये हमारे जीने की वजह हैं, हमारी जिंदगी में इन की उपयोगिता भी बराबर की है.

सांप को पलकें नहीं दीं, इन्हें सुनाई नहीं देता, इन के हाथपैर, सींग नहीं होते, महज मुंह और रेंगने के लिए पूरा शरीर धरती से चिपकाए रहते हैं. इन की फुंफकार या सर्र की आवाज ही एक हथियार है जो संकट में इन की हिफाजत करती है. अगर यह खुद को फंसा हुआ पाएंगे तो ही आक्रामक होंगे, मुठभेड़ करेंगे. ऐसे सांप जो घातक नहीं हैं, उन्हें खेतों, गोदामों वगैरह में घूमने दें. ये आप को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाएंगे.

तकरीबन 3,000 से भी ज्यादा सांपों की जिंदगी बचा चुके शरद पुरोहित कहते हैं, ‘‘अकसर देखता हूं कि मेरे पहुंचने से पहले ही इन से कोई छेड़खानी हुई हो तो यह सांप आक्रामक नजर आते हैं. इस के उलट अगर माहौल शांत रहा हो तो ऐसा लगता है मानो सांप बहुत कहने में लगता है और खुद ही रैस्क्यू का हिस्सा बन हमारा सहयोगी हो जाता है.

‘‘मुझे ये सांप बेहद शरीफ, सुंदर और आकर्षक लगने के साथसाथ असहाय लगते हैं. रेस्क्यू करने के शुरुआती दिनों में पहलेपहल मेरा परिवार बहुत घबराता था, पर अब वे सहयोगी हैं. हर साल वन विभाग द्वारा इस तरह की कार्यशालाओं का आयोजन किया जाता है.

‘‘मैं जिज्ञासुओं को इन सांपों की पहचान, रैस्क्यू और बाइट प्रबंधन के तरीकों पर ट्रेनिंग देता हूं.  शहर के कई नौजवानों को मैं ने अपने साथ वालंटियर की तरह तैयार कर रखा है. मैं इस काम को वैज्ञानिक तरीके से करने की बारीकियां इन नौजवानों को सिखला रहा हूं.

‘‘कालेज, स्कूल समेत कई विभागों को मैं ने अपनी इस जागरूकता मुहिम में शामिल किया है, पत्रपत्रिकाओं के जरीए भी मेरा प्रयास जारी है.

‘‘खुशी की बात है कि अब मुझे जैसे कुछ जागरूक नौजवानों की बात का असर रंग दिखा रहा है, खासकर जोधपुर में अब कोई इन सांपों को मारता नहीं है.

हर साल जुलाई से अक्तूबर माह तक हम नौजवानों की टीम ‘यूथ अरण्य’ दिनरात मुफ्त सेवा देती रहती है. पर, अफसोस इस बात का है कि प्रशासन इस विषय को कभी आपदा प्रबंधन का हिस्सा नहीं मानता, जबकि यह एक जरूरी काम है कि इनसान और जानवर दोनों बचे रहें, सुरक्षित रहें.

‘‘हमारी जैसी कोशिशें शायद पूरे देश में जारी हैं. सुझाव  है कि सरकारी अस्पतालों में भी इस तरह की एक कार्यशाला रखी जाए और इन की पहचान संबंधी समझ को आम लोगों में गहरे उतारा जाए, को समझाया  जाए. आपातकाल में इन के संबंधित चित्र डिसप्ले हों, ताकि इन के डसने से पीडि़तों को तुरंत इलाज मिल सके.’’

 

सीआरपीएफ के मेन्यू में अब मिलेट्स

रांची : बेहतर स्वास्थ्य, पोषण और ऊर्जा के लिए अब केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल यानी सीआरपीएफ के झारखंड सैक्टर के जवानों और अधिकारियों के भोजन मेन्यू में स्माल मिलेट्स यानी श्रीअन्न भी शामिल किए जाएंगे. स्माल मिलेट्स में आयरन, सूक्ष्म पोषक तत्वों, प्रोटीन और फाइबर की मात्रा गेहूंचावल की तुलना में अधिक रहती है. इसी उद्देश्य से सीआरपीएफ के 10 जवानों के एक दल ने बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के सामुदायिक विज्ञान विभाग में स्माल मिलेट्स के गुणों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और इस से बनने वाले विभिन्न प्रोसैस्ड पदार्थों की निर्माण प्रक्रिया की विधिवत जानकारी प्राप्त करने के लिए तीन दिनों का प्रशिक्षण प्राप्त किया.

सामुदायिक विज्ञान विभाग की अध्यक्ष डा. रेखा सिन्हा और एसआरएफ बिंदु शर्मा ने उन्हें मिलेट्स से तैयार होने वाले विभिन्न उत्पाद जैसे चावल, रोटी, दलिया, खिचड़ी, हलवा, बिसकुट, कुकीज, केक, लड्डू, सेवई, चाऊमीन, मैक्रोनी आदि बनाने की तकनीकी जानकारी दी और विभिन्न मशीनों की कार्यप्रणाली, क्षमता और अनुमानित कीमत के बारे में बताया.

पार्टी कमांडर शिव नारायण किस्कू के नेतृत्व में सीआरपीएफ प्रशिक्षणार्थियों का एक दल आया था.
संयुक्त राष्ट्र के निर्णयानुसार वर्ष 2023 को पूरी दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है. श्रीअन्न में मड़ुआ, गुंदली, बाजरा, कंगनी, सावां, कोदो, कुटकी, चेना, हरी कंगनी आदि शामिल हैं.

विभागाध्यक्ष डा. रेखा सिंह ने बताया कि सीआरपीएफ के आईजी ने कुछ दिन पहले विभाग का भ्रमण किया था और यहां से मड़ुवा कुकीज खरीद कर ले गए थे. इस के स्वाद और गुणों से प्रभावित हो कर उन्होंने अपने दल को प्रशिक्षण के लिए भेजा और कहा कि आवश्यकता के अनुसार वहां मिलेट्स के प्रसंस्कृत उत्पादों के निर्माण के लिए छोटेछोटे प्लांट भी लगाए जाएंगे.

उन्होंने आगे कहा कि अभी कई मिलेट्स बाजार में महंगे मिल रहे हैं, किंतु जैसेजैसे मांग बढ़ेगी, किसान दूसरी फसलें छोड़ कर उन के उत्पादन में लगेंगे और उत्पादकता बढ़ने से आने वाले समय में इन की कीमतों में स्वत: कमी आएगी.

मधुमक्खीपालन से किसानों को फायदा

मधुमक्खीपालन से किसानों को दोहरा फायदा होगा. एक तो मधुमक्खीपालन से तैयार होने वाले शहद और मोम की बिक्री से अतिरिक्त आमदनी होगी और दूसरी फसल का उत्पादन भी बेहतर होगा.

मधुमक्खीपालन से शहद, मोम, रौयल जैली में दूसरे कई उत्पाद किसान हासिल कर सकते हैं जो उन की आमदनी बढ़ाने के लिए मददगार साबित होते हैं.

वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक डाक्टर आनंद सिंह का कहना है कि पारंपरिक फसलों में प्राकृतिक मार के चलते कई बार फसल खराब होने से किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है.

ऐसे में मधुमक्खीपालन के जरीए किसान अपनी पैदावार और आमदनी को बढ़ा सकते हैं. किसान एपीकल्चर यानी मधुमक्खीपालन की ट्रेनिंग ले कर और इसे अपना कर दोहरा फायदा ले सकते हैं.

Honeyदुनिया में मधुमक्खियों के तकरीबन 20,000 प्रकार हैं. इन में से केवल 3 प्रकार की मधुमक्खी ही शहद बना पाती हैं. आमतौर पर मधुमक्खी का जो छत्ता होता है, उस में एक रानी मक्खी होती है. इस रानी मक्खी के अलावा छत्ते में कई हजार श्रमिक मक्खी और कुछ नर मधुमक्खी भी होती हैं. मधुमक्खी श्रमिक मधुमक्खियों की मोम ग्रंथि से निकलने वाले मोम से अपना घर बनाती हैं, जिसे आम भाषा में शहद का छत्ता कहा जाता है.

मधुमक्खीपालन में रखें खास ध्यान

विशेषज्ञों के मुताबिक, मधुमक्खियां अपने कोष्ठक का इस्तेमाल अंडे सेने और भोजन इकट्ठा करने के लिए करती हैं, इसलिए किसानों को मधुमक्खीपालन के समय कुछ बातों का ध्यान रखने की जरूरत है.

दरअसल, मधुमक्खी छत्ते के ऊपरी भाग का इस्तेमाल शहद जमा करने के लिए करती हैं. ऐसे में किसानों को यह चाहिए कि छत्ते के अंदर परागण इकट्ठा करने, श्रमिक मधुमक्खी, डंक मारने वाली मधुमक्खियों के अंडे सेने के कोष्ठक बने होने चाहिए. कुछ मधुमक्खियां खुले में अकेले छत्ते बनाती हैं, जबकि कुछ अन्य मधुमक्खियां अंधेरी जगहों पर कई छत्ते बनाती हैं. मधुमक्खीपालन में उपकरणों की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है. ऐसे में किसानों को एपीकल्चर के विशेषज्ञ या फिर ऐसे किसान से टे्रनिंग ले कर मधुमक्खीपालन को अपनाना चाहिए जो इस की अच्छी जानकारी रखता हो.

खाद्यान्न जरूरतों के मामले में भारत सरप्लस

रांची : कृषि, पशुपालन एवं सहकारिता विभाग के सचिव और बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति अबूबकर सिद्दीकी ने कृषि वैज्ञानिकों का आह्वान किया है कि वे जलवायु के अनुकूल खेती पर अपना अनुसंधान प्रयास केंद्रित करें.

उन्होंने यह भी कहा कि अपनी खाद्यान्न जरूरतों के मामले में भारत सरप्लस है, लेकिन बायोसेफ्टी, पोषण सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निबटने के लिए अब भी बहुत काम करने की जरूरत है.

वह भारतीय आनुवंशिकी एवं पौधा प्रजनन सोसाइटी, नई दिल्ली के रांची चैप्टर द्वारा बिरसा कृषि विश्वविद्यालय में ‘फसल सुधार के लिए पौधा विज्ञान की चुनौतियां, अवसर एवं रणनीतियां’ विषय पर आयोजित दोदिवसीय राष्ट्रीय सैमिनार को संबोधित कर रहे थे. उन्होंने कहा कि जो लोग अपने ज्ञान को साझा नहीं करते, उन के ज्ञान की कोई उपयोगिता नहीं रह जाती है, इसलिए वैज्ञानिकों को पढ़ना, सुनना, देखना, विश्लेषण करना और नवोन्मेष (इनोवेशन) करना सतत जारी रखना चाहिए. ज्ञानकौशल की गति और गुणवत्ता दुनिया के साथ मिला कर रखना होगा, तभी हम प्रतिस्पर्धा और रोजगार बाजार में टिक पाएंगे.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सहायक महानिदेशक (खाद्य एवं चारा फसलें) डा. एसके प्रधान ने कहा कि देश में इस वर्ष 330 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ, जो वर्ष 2030 का लक्ष्य था यानी इस मोरचे पर हम 7 वर्ष आगे हैं, किंतु इस से हमें आत्मसंतुष्ट नहीं होना है. मक्का और मिलेट्स उत्पादन का वर्तमान स्तर 37 और 15 मिलियन टन है, जिसे वर्ष 2047 तक बढ़ा कर क्रमशः 100 मिलियन टन एवं 45 मिलियन टन करना है. बायोफ्यूल के लिए भी मक्का फसल की जरुरत है. उत्पादन वृद्धि का भावी लक्ष्य भी हमें कम पानी, कम उर्वरक, कम रसायन और कम भूमि का प्रयोग करते हुए हासिल करना होगा.

Surplus Foodसोसाइटी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं भारतीय बीज विज्ञान संस्थान, मऊ (उत्तर प्रदेश) के निदेशक डा. संजय कुमार ने अपने औनलाइन संबोधन में कहा कि भारत में दुनिया की लगभग 18 फीसदी आबादी रहती है, किंतु इस के पास विश्व का केवल 2.4 फीसदी भूमि संसाधन और 4 फीसदी जल संसाधन उपलब्ध है, इसलिए भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें अपनी फसल प्रजनन और बीज प्रजनन नीतियों, योजनाओं और रणनीतियों में बदलाव लाना होगा.

शुरू में स्वागत भाषण करते हुए आयोजन सचिव और बीएयू के आनुवंशिकी एवं पौधा प्रजनन विभाग की अध्यक्ष डा. मणिगोपा चक्रवर्ती ने सोसाइटी के रांची चैप्टर की गतिविधियों और उपलब्धियों पर प्रकाश डाला.

आयोजन हाईब्रिड मोड में किया जा रहा है, जिस में देश के विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों और कृषि उद्योगों से आनुवंशिकी, पौधा प्रजनन, पादप जैव प्रौद्योगिकी, फसल दैहिकी, बीज प्रौद्योगिकी, बागबानी एवं सब्जी विज्ञान से जुड़े डेढ़ सौ से अधिक कृषि वैज्ञानिक औफलाइन एवं औनलाइन मोड में भाग लिया. औनलाइन भाग लेने वालों में बीएयू के पूर्व कुलपति डा. एमपी पांडेय, डा. ओंकार नाथ सिंह और बीएचयू के स्कूल औफ बायोटैक्नोलौजी के पूर्व प्रोफैसर डा. बीडी सिंह शामिल हैं.

कृषि सचिव ने इस अवसर पर बीएयू के आनुवंशिकी एवं पौधा प्रजनन विभाग के पूर्व अध्यक्ष डा. जेडए हैदर एवं डा. वायलेट केरकेट्टा और पूर्व अनुसंधान निदेशक डा. ए. वदूद को उन के विशिष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया. सोसाइटी की कोषाध्यक्ष डा. नूतन वर्मा ने धन्यवाद ज्ञापन किया.

कैसे करें फूलों का उत्पादन

रांची : बिरसा कृषि विश्वविद्यालय में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सहयोग से चल रही फूलों से संबंधित अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना की जनजातीय उपयोजना के तहत बागबानी विभाग में ‘व्यावसायिक पुष्पोत्पादन तकनीक’ विषय पर एकदिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया गया.

इस में रांची जिला के नगड़ी प्रखंड के चिपरा पंचायत के 2 गांवों- कोलांबी और पंचडीहा की 30 किसान महिलाओं ने भाग लिया. ये महिलाएं झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी द्वारा गठित कृषक समूह की अगुवा शांति तिर्की, नीतू तिर्की और किसान मित्र फूलमनी खलखो के नेतृत्व में आई थीं.

कार्यक्रम को संबोधित करते हुए बीएयू के अनुसंधान निदेशक डा. पीके सिंह ने कहा कि झारखंड में कृषि संबंधी अधिकांश काम महिलाएं ही करती हैं, इसलिए फूलों की खेती के परिदृश्य में भी वे बड़े बदलाव ला सकती हैं. झारखंड की जरूरत का अधिकांश फूल भी दूसरे राज्यों से आता है, इसलिए इस राज्य में फूलों के उत्पादन और लाभकारी विपणन की काफी संभावनाएं हैं.

उन्होंने प्रशिक्षण के दौरान अर्जित ज्ञान का व्यावहारिक उपयोग करने की सलाह किसान महिलाओं को दी.

बागबानी विभाग की डा. पूनम होरो, डा. शुभ्रांशु सेनगुप्ता, डा. सविता एक्का, डा. सुप्रिया सुपल सुरीन और डा. अब्दुल माजिद अंसारी ने प्रशिक्षणार्थियों को गेंदा, ग्लेडियोलस, जरबेरा और गुलाब की वैज्ञानिक खेती, उत्पादन क्षमता, झारखंड के लिए उपयुक्त उन्नत प्रभेदों, फसल संरक्षण तकनीक आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी.

दुनिया की सब से बड़ी जंगल सफारी

चंडीगढ़: हरियाणा में वाटर स्पोट्र्स गतिविधियों के साथसाथ अब पर्यटक हौट एयर बैलून सफारी का भी मजा उठा सकेंगे. मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने पिछले दिनों गेट वे औफ हिमाचल कहे जाने वाले पिंजौर में हौट एयर बैलून सफारी का शुभारंभ किया गया. उन्होंने स्वयं हरियाणा विधानसभा अध्यक्ष ज्ञान चंद गुप्ता और स्कूल शिक्षा और विरासत एवं पर्यटन मंत्री कंवर पाल के साथ सब से पहले हौट एयर बैलून सफारी की सवारी की.

इस अवसर पर मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने कहा कि पहली सफारी का अनुभव बेहद अच्छा रहा और सुरक्षा की दृष्टि से भी यह काफी सुरक्षित है. हौट एयर बैलून संचालित करने वाली कंपनी ने सुरक्षा सर्टिफिकेट प्राप्त किए हुए हैं. उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में हौट एयर बैलून सफारी की शुरुआत होने से न केवल पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि रोजगार के अवसर भी मिलेंगे.

Safariउन्होंने कहा कि हरियाणा में पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं और राज्य सरकार लगातार पर्यटन गतिविधियां बढ़ा रही है. उन्होंने बताया कि इस हौट एयर बैलून सफारी की व्यावहारिकता को देखते हुए राज्य सरकार कंपनी को 2 साल के लिए वीजीएफ के तौर पर 72 लाख रुपए देगी. कंपनी की ओर से इस का रेट 13,000 रुपए प्रति व्यक्ति प्रति राइड निर्धारित किया गया है.

मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने यह भी कहा कि हरियाणा अब वाटर स्पोट्र्स और साहसिक खेल गतिविधियों की ओर अग्रसर हो रहा है. सरकार द्वारा मोरनी हिल्स के पास टिक्करताल क्षेत्र में भी पैराग्लाइडिंग, वाटर स्पोट्र्स एक्टिविटी, जेट स्कूटर, पैरा सेल्लिंग और ट्रेकिंग जैसे एडवेंचर खेलों की शुरुआत की गई है. इस के अलावा ट्रैक, माउंटेन बाइकिंग ट्रैक और कई अन्य गतिविधियों की भी पहचान की गई है. साथ ही, मोरनी हिल्स में इकोटूरिज्म को बढ़ाने के लिए वन विभाग को भी जोड़ा गया है.

अरावली क्षेत्र को भी पर्यटन की दृष्टि से किया जा रहा विकसित

मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने आगे कहा कि राज्य सरकार शिवालिक पर्वत क्षेत्र के साथसाथ अरावली क्षेत्र को भी पर्यटन के रूप में विकसित कर रही है. हरियाणा में विश्व के पर्यटकों को अपनी ओर लुभाने के लिए बड़े पैमाने पर रोडमैप तैयार किए जा रहे हैं. इसी कड़ी में राज्य सरकार द्वारा अरावली पर्वत श्रृंखला में पड़ने वाले गुरुग्राम व नूंह जिलों की 10,000 एकड़ भूमि पर दुनिया का सब से बड़ा जंगल सफारी पार्क विकसित किया जा रहा है. इस से अरावली पर्वत श्रृंखला को संरक्षित करने में मदद मिलेगी, वहीं दूसरी ओर गुरुग्राम व नूंह क्षेत्रों में पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा.

Safariअग्रोहा में भी मिली खुदाई की अनुमति, राखीगढ़ी की तर्ज पर अग्रोहा को किया जाएगा विकसित
मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने आगे बताया कि ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण राखीगढ़ी में भी म्यूजियम बनाया जा रहा है. साथ ही, अब राखीगढ़ी की तर्ज पर अग्रोहा में भी खुदाई की अनुमति मिल चुकी है. इस से इस क्षेत्र में पुरातात्विक विरासत को पहचान मिलेगी. इस के अलावा ढोसी के पहाड़ को भी तीर्थस्थल के रूप में विकसित किया जा रहा है. यहां पर रोपवे की शुरुआत की गई है. यहां पर चवन ऋषि जैसे महान तपस्वी हुए हैं, इसलिए इस की अपनी आध्यात्मिक पहचान भी है. इस के अलावा यहां एयरो स्पोट्र्स को बढ़ावा देने के लिए भी पैराग्लाइडिंग की संभावनाओं का अध्ययन किया जा रहा है.

इस अवसर पर एडीजीपी सीआईडी आलोक मित्तल, पंचकूला के उपायुक्त सुशील सारवान, डीसीपी सुमेर प्रताप सिंह, अतिरिक्त उपायुक्त वर्षा खंगवाल, पूर्व विधायक लतिका शर्मा सहित अन्य अधिकारी मौजूद थे.

समकलित खेती पर पांचदिवसीय प्रशिक्षण

अविकानगर (राजस्थान): भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के संस्थान केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान, अविकानगर, तहसील मालपुरा, जिला टोंक (राजस्थान) के दक्षिण क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र, माननावनूर जिला- कोडईकनाल राज्य-तमिलनाडु  द्वारा राज्य के पहाड़ी जिलों के एससी तबके के किसानों को अनुसूचित जाति उपयोजना के माध्यम से किसानवैज्ञानिक संवाद द्वारा समकलित खेती पर पांचदिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया गया.

वैज्ञानिक संवाद एवं स्थापना दिवस के कार्यक्रम मे मुख्य अतिथि संस्थान के निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर, प्रशासनिक अधिकारी भीम सिंह, माननावनूर सैंटर के प्रभारी डा. पी थिरूमुरुगान, वैज्ञानिक डा. एस. जगवीरा पांडेयन एवं केंद्र के समस्त कर्मचारियों द्वारा कार्यक्रम में हिस्सा लिया गया.

कार्यक्रम में पधारे मुख्य अतिथि निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर एवं अन्य अतिथि का केंद्र द्वारा दक्षिण परंपरा से स्वागतसत्कार किया गया.

Farmingकार्यक्रम को संबोधन करते हुए निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर ने सभी को समेकित खेती की ओर जाने का निवेदन करते हुए कहा कि इस से सालभर परिवार की आजीविका बनी रहेगी.

उन्होंने जानकारी देते हुए यह भी बताया कि आप भेड़, खरगोश, गाय आदि पशुओं के पालन के साथ ही सब्जी, फल और मसाले का और्गैनिक तरीके से उत्पादन कर के अच्छी आमदनी ले सकते हैं.

डा. अरुण कुमार तोमर ने आगे कहा कि आप उत्तरी भारत के हिमाचल प्रदेश के किसानों की बागबानी, सब्जी और टूरिस्ट आधारित पारिवारिक आजीविका से सीख कर कुछ अपने फार्मिंग सिस्टम को ऐसी दिशा देने की जरूरत है.

इस अवसर पर तमिलनाडु राज्य के किसानों के खरगोश मांस संगठन के साथ एमओयू किया गया, जिस से अविकानगर संस्थान की खरगोशपालन उन्नत तकनीकी को राज्य के पहाड़ी क्षेत्र के सभी तबके के लोगों तक पहुंचाया जाएगा.

केंद्र के कार्यालय प्रभारी डा. पी. थिरूमुरुगान ने बताया कि अनुसूचित जाति के  तबके के किसानों को तमिलनाडु राज्य की कृषि और पशुपालन संस्थान के साथ उन्नत खेती और पशुपालन पर भ्रमण और लेक्चर्स करवाया जाएगा.

’ग्रीन कान्हा रन का आयोजन’

उदयपुर: 19, नवंबर, 2023. जलवायु परिवर्तन के चलते दिनोंदिन आबोहवा में अनेक बदलाव आ रहे हैं, जिन के प्रति सजग रहना जरूरी है. इसी कड़ी में पर्यावरण की सुरक्षा और वृक्षारोपण के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए हार्टफुलनेस संस्थान की ओर से ग्रैन्यूल्स ग्रीन कान्हा रन का आयोजन पिछले दिनों फतेह सागर में आयोजित किया गया. इस रन का आयोजन कान्हा शांति वनम के साथ ही विश्व के अनेक देशों में आयोजित किया गया था.

उदयपुर केंद्र समन्वयक डा. राकेश दशोरा ने बताया कि सुबह 7.30 बजे फतेह सागर की पाल पर देवली छोर से 2 किलोमीटर की दौड़ का आयोजन किया गया.

ग्रैन्यूल्स ग्रीन कान्हा रन के यूथ समन्वयक दीपक मेनारिया ने बताया कि इस दौड़ में डा. राजेश भारद्वाज, एडिशनाल एसपी (विजिलेंस), उदयपुर, सलोनी खेमका सीईओ, नगरनिगम उदयपुर, पुनीत शर्मा, डायरेक्टर, प्लानिंग उदयपुर, डा. एचपी गुप्ता, शल्य चिकित्सक, डा. उमा ओझा, सेवानिवृत्त प्रो. आरएनटी, मधु मेहता, जोनल कार्डिनेटर हार्टफुलनेस, नरेश मेहता, प्रशिक्षक आशा शर्मा, महेश कुलघुडे, मोहन बोराणा, डा. सुबोध शर्मा पूर्व डीन मात्स्यिकी महाविद्यालय के साथ ही लगभग 100 से अधिक प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया.

इस इवेंट की श्रेणियों में 2 किलोमीटर, 5 किलोमीटर, 10 किलोमीटर व 21 किलोमीटर की दूरी तय की गई, जिस में अलगअलग लोगों ने हिस्सा लिया.

’कृषि पीएचडी के लिए 6 दिसंबर तक आवेदन’

हिसार: चैधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार में विभिन्न पीएचडी कार्यक्रमों में दाखिले के लिए आवेदन प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने बताया कि आवेदन की प्रक्रिया 6 दिसंबर, 2023 तक जारी रहेगी.

उन्होंने जानकारी देते हुए आगे बताया कि पीएचडी कार्यक्रमों में दाखिला एंेट्रेंस टैस्ट में हासिल मैरिट के आधार पर होगा. औनलाइन आवेदन फार्म एवं प्रोस्पैक्टस विश्वविद्यालय की वैबसाइट पर उपलब्ध है.

उन्होंने यह भी कहा कि आवेदन करने से पहले और कांउसलिंग के समय आने से पूर्व उम्मीदवार प्रोस्पैक्टस 2023-24 में दिए गए दाखिला संबंधी सभी हिदायतों व नियमों को अच्छी तरह से पढ़ लें.

सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार के लिए आवेदन की फीस 1,500 रुपए है, जबकि अनुसूचित जाति, पिछड़ी जाति, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग, पीडब्ल्यूडी (दिव्यांग)के उम्मीदवारों के लिए 375 रुपए होगी. इस के अलावा उपलब्ध सीटों की संख्या, महत्वपूर्ण तिथियां, न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता, दाखिला प्रक्रिया आदि संबंधी सभी जानकारियां विश्वविद्यालय की वैबसाइट पर उपलब्ध प्रोस्पैक्टस में मौजूद है.

उन्होंने उम्मीदवारों को दाखिला संबंधी नवीनतम जानकारियों के लिए विश्वविद्यालय की वैबसाइट  ींन.ंब.पद ंदक ंकउपेेपवदे.ींन.ंब. पद पर नियमित रूप से चेक करते रहने को कहा है.

पीएचडी प्रोग्राम में दाखिले की ये होगी प्रक्रिया

स्नातकोत्तर शिक्षा अधिष्ठाता डा. केडी शर्मा ने बताया कि विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों में पीएचडी में दाखिला कौमन ऐंट्रेंस टैस्ट के आधार पर होगा. कृषि महाविद्यालय में एग्रीकल्चरल इकोनोमिक्स, एग्रोनोमी, इंटोमोलौजी, एग्रीकल्चरल ऐक्सटेंशन एजुकेशन, हार्टिकल्चर, नेमोटोलौजी, जैनेटिक्स ऐंड प्लांट ब्रीडिंग, प्लांट पेथोलौजी, सीड साइंस एवं टैक्नोलौजी, सौयल साइंस, वेजीटेबल साइंस, एग्री. मेटीयोरोलौजी, फोरैस्ट्री, एग्री बिजनैस मैनेजमेंट व बिजनैस मैनेजमेंट विषय शामिल हैं, जबकि मौलिक एवं मानविकी महाविद्यालय में कैमिस्ट्री, बायोकैमिस्ट्री, प्लांट फिजियोलौजी, एनवायरमेंटल साइंस, माइक्रोबायोलौजी, जूलौजी, सोशियोलौजी, स्टैटिक्स, फिजिक्स, मैथमैटिक्स व फूड साइंस एंड टैक्नोलौजी विषयों में दाखिले होंगे.

इसी प्रकार बायोटैक्नोलौजी महाविद्यालय में मोलिक्यूलर बायोलौजी ऐंड बायोटैक्नोलौजी, बायोइनफर्मेटिक्स विषय शामिल होंगे. सामुदयिक विज्ञान महाविद्यालय में फूड्स %

शरदकालीन गन्ने की वैज्ञानिक खेती

शरदकालीन गन्ने की खेती जो किसान भाई करना चाहते हैं तो इस के लिए सही समय अक्तूबरनवंबर माह का होता है. गन्ना घास समूह का पौधा है. इस का इस्तेमाल बहुद्देश्यीय फसल के रूप में चीनी उत्पादन के साथसाथ अन्य मूल्यवर्धित उत्पादों जैसे कि पेपर, इथेनाल और दूसरे एल्कोहल से बनने वाले कैमिकल, पशु खाद्यों, एंटीबायोटिक्स, पार्टीकल बोर्ड, जैव उर्वरक व बिजली पैदा करने के लिए कच्चे पदार्थ के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

गन्ने को खासतौर पर व्यापारिक चीनी उत्पादन करने वाली फसल के रूप में इस्तेमाल में लाया जाता है, जो कि दुनिया में उत्पादित होने वाली चीनी के उत्पादन में तकरीबन 80 फीसदी योगदान देता है. गन्ने की खेती दुनियाभर में पुराने समय से ही होती आ रही है, पर 20वीं सदी में इस फसल को एक नकदी फसल में रूप में पहचान मिली है.

भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि आधारित होने के चलते गन्ने का इस में खासा योगदान है. गन्ने के क्षेत्र, उत्पादन व उत्पादकता में भारत दुनियाभर में दूसरे नंबर पर है. वर्तमान में गन्ना उत्पादन में भारत की विश्व में शीर्ष देशों में गिनती होती है. वैसे, ब्राजील व क्यूबा भी भारत के तकरीबन बराबर ही गन्ना पैदा करते हैं. भारत में 4 करोड़ किसान रोजीरोटी के लिए गन्ने की खेती पर निर्भर हैं और इतने ही खेतिहर मजदूर निर्भर हैं.

गन्ने के महत्त्व को इसी बात से समझा जा सकता है कि देश में निर्मित सभी प्रमुख मीठे उत्पादों के लिए गन्ना एक प्रमुख कच्चा माल है. इतना ही नहीं, इस का इस्तेमाल खांड़सारी उद्योग में भी किया जाता है.

उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, पंजाब, हरियाणा मुख्य गन्ना उत्पादक राज्य हैं. मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और असम के कुछ इलाकों में भी गन्ना पैदा किया जाता है, लेकिन इन राज्यों में उत्पादकता बहुत कम है. इस के अलावा महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और गुजरात में भी गन्ने का उत्पादन किया जाता है.

कुल उत्पादित गन्ने का 40 फीसदी हिस्सा चीनी बनाने में इस्तेमाल किया जाता है. उत्तर प्रदेश देश की कुल गन्ना उपज का 35.8 फीसदी, महाराष्ट्र, 25.4 फीसदी और तमिलनाडु 10.3 फीसदी पैदा करते हैं यानी ये तीनों राज्य देश के कुल गन्ना उत्पादन का 72 फीसदी उत्पादन करते हैं.

गन्ने के बीज का चयन करते समय यह ध्यान रखें कि गन्ना बीज उन्नत प्रजाति का हो, शुद्ध हो व रोगरहित होना चाहिए. गन्ने की आंख पूरी तरह विकसित और फूली हुई हो. जिस गन्ने का छोटा कोर हो, फूल आ गए हों, आंखें अंकुरित हों या जड़ें निकली हों, ऐसा गन्ना बीज उपयोग न करें.

शरदकालीन गन्ने की बोआई के लिए अक्तूबर माह का पहला पखवाड़ा सही है. बोआई के लिए पिछले साल सर्दी में बोए गए गन्ने के बीज लेना अच्छा रहेगा. बोने से पहले खेत की तैयारी के समय ट्राईकोडर्मा मिला हुआ प्रेसमड गोबर की खाद 10 टन प्रति हेक्टेयर का प्रयोग जरूर करें.

कैसे बचाएं कीटों से

जिन खेतों में दीमक की समस्या है या फिर पेड़ी अंकुर बेधक कीटों की समस्या ज्यादा होती है, वहां पर इस की रोकथाम के लिए क्लोरोपाइरीफास 6.2 ईसी 5 लिटर प्रति हेक्टेयर या फ्लोरैंटो नीपोल 8.5 ईसी 500 से 600 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर का 1,500 से 1,600 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

गन्ने की खेती के लिए जैव उर्वरक : शोध के बाद वैज्ञानिकों ने पाया है कि गन्ने की खेती के लिए जैव उर्वरक काफी फायदेमंद साबित होते हैं. सही माने में देखा जाए तो जैविक खाद लाभकारी जीवाणुओं का ऐसा जीवंत समूह है जिन को बीज जड़ों या मिट्टी में प्रयोग करने पर पौधे को अधिक मात्रा में पोषक तत्त्व मिलने लगते हैं. साथ ही, मिट्टी की जीवाणु क्रियाशीलता व सामान्य स्वास्थ्य में भी बढ़वार देखी गई है.

गन्ने की खेती के लिए जीवाणु वातावरण में मौजूद नाइट्रोजन स्तर का प्रवर्तन कर उसे पौधों के लायक बना देते हैं. साथ ही, यह पौधे के लिए वृद्धि हार्मोन बनाते हैं. अकसर देखा गया है कि एसीटोबैक्टर, एजोटोबैक्टर, एजोस्पिरिलम वगैरह ऐसे जीवाणु हैं, जो गन्ने की खेती को फायदा पहुंचाते हैं.

जैविक खाद के बेअसर होने की वजह : प्रभावहीन जीवाणुओं का उपयोग, जीवाणु तादाद में कम होना, अनचाहे जीवाणुओं का ज्यादा होना, जीवाणु खाद को उच्च तापमान या सूरज की रोशनी में रखना, अनुशंसित विधि का ठीक से प्रयोग न करना, जीवाणु खाद को कैमिकल खाद के साथ प्रयोग करना, इस्तेमाल के समय मिट्टी में तेज तापमान या कम पानी का होना, मिट्टी का ज्यादा क्षारीय और अम्लीय होना, फास्फोरस और पोटैशियम की अनुपलब्धता और मिट्टी में जीवाणुओं व वायरस का अधिक होना भी उत्पादन को प्रभावित करता है.

कितनी करें सिंचाई : यह बात सही है कि जैविक खाद कैमिकल खाद की जगह नहीं ले सकती, लेकिन किसान अगर दोनों का सही मात्रा में अपनी खेती में इस्तेमाल करते हैं, तो माली फायदे के साथ में पानी भी दूषित नहीं हो सकेगा.

जैविक खाद का इस्तेमाल करना किसानों के लिए हितकारी ही नहीं, लाभकारी भी होगा. उष्णकटिबंधीय इलाकों में पहले 35 दिनों तक हर 7वें दिन, 36 से 110 दिनों के दौरान हर 10वें दिन, बेहद बढ़वार की अवस्था के दौरान 7वें दिन और पूरी तरह पकने की अवस्था के दौरान हर 15 दिन बाद सिंचाई की जानी चाहिए. इन दोनों को बारिश होने के मुताबिक अनुकूलित करना पड़ता है. गन्ने की खेती में तकरीबन 30 से 40 सिंचाइयों की जरूरत पड़ती है.

कम पानी में कैसे हो खेती

गन्ना एक से अधिक पानी की जरूरत वाली फसल है. एक टन गन्ने के उत्पादन के लिए तकरीबन 250 टन पानी की जरूरत होती है. वैसे तो बिना उत्पादन में कमी लाए पानी की जरूरत को अपनेआप में कम नहीं किया जा सकता है, मगर सिंचाई के लिए पानी की जरूरत में कमी पानी को उस के स्रोत से पाइपलाइन के द्वारा खेत जड़ क्षेत्र तक ला कर रास्ते में होने वाले रिसाव के कारण नुकसान को रोक कर या फिर सूक्ष्म सिंचाई विधियों को अपना कर लाई जा सकती है.

जब पानी की कमी के हालात हों, तब हर दूसरे हफ्ते में पानी से सिंचाई की जा सकती है या फिर मल्च का प्रयोग कर के पानी की जरूरत में कमी लाई जा सकती है. सूखे के हालात में 2.5 फीसदी यूरिया, 2.5 फीसदी म्यूरेट औफ पोटाश के घोल को पाक्षिक अंतराल पर 3 से 4 बार छिड़काव कर उस के प्रभाव को कम किया जा सकता है.

पानी के सही प्रयोग के लिए टपक सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त रखना बेहद जरूरी है. इस के लिए समयसमय पर पानी की नालियों के अंत के ढक्कन खोल कर इन में से पानी को तेजी से बह कर साफ करें. टपक प्रणाली के अंदर की सतह पर जमे पदार्थ को हटाने के लिए 30 फीसदी हाइड्रोक्लोरिक एसिड को इंजैक्ट करें. जब सिंचाई के पानी का स्रोत नदी, नहर और खुला कुआं वगैरह हों, तो व्यक्ति कवच वगैरह के लिए 1 पीपीएम ब्लीचिंग पाउडर से  साफ करना चाहिए. एसिड उपचार और साफ करते समय यह पानी की क्वालिटी पर निर्भर करती है.

Sugarcane

उन्नत प्रजातियां

जल्दी पकने वाली प्रजातियां : कोषा 681, कोषा 8436, कोषा 90265, कोषा 88230, कोषा 95435, कोषा 95255, कोषा 96258, कोसे 91232, कोसे 95436, कोएच 92201, कोजा 64 प्रमुख हैं.

मध्यम और देर से पकने वाली प्रजातियां : कोशा 7918, कोशा 8432, कोशा 767, कोशा 8439, कोशा 88216, कोशा 90269, कोशा 92263, कोशा 87220, कोशा 87222, कोशा 97225, कोपंत 84212, कोपंत 90223, यूपी 22, यूपी 9529, कोसे 92234, कोसे 91423, कोसे 95427, कोसे 96436 खास हैं.

सीमित सिंचित इलाकों के लिए : कोशा 767, कोशा 802, कोशा 7918, कोशा 8118 व यूपी 5 वगैरह हैं.

जलभराव वाले इलाकों के लिए : कोशा 767, कोशा 8001, कोशा 8016, कोशा 8118, कोशा 8099, कोशा 8206, कोशा 8207, कोशा 8119, कोशा 95255, कोसे 96436, यूपी 1, कोशा 9530 वगैरह हैं.

ऊसर जमीन के लिए : को 1158, कोशा 767 खास हैं.

गन्ने के साथ लें दूसरी फसल भी

गन्ने की शुद्ध फसल में गन्ने की बोआई 75 सैंटीमीटर और आलू, राई, चना, सरसों के साथ मिलवां फसल में 90 सैंटीमीटर की दूरी पर बोना चाहिए. एक आंख का टुकड़ा लगाने पर प्रति एकड़ 10 क्विंटल बीज लगेगा. 2 आंख के टुकड़े लगाने पर 20 क्विंटल बीज लगेगा.

पौलीबैग यानी पौलीथिन के उपयोग से बीज की बचत होगी और ज्यादा उत्पादन मिलेगा. बीजोपचार के बाद ही बीज बोएं. 205 ग्राम अर्टन या 500 ग्राम इक्वल को 100 लिटर पानी में घोल कर उस में तकरीबन 25 क्विंटल गन्ने के टुकड़े उपचारित किए जा सकते हैं.

जैविक उपचार प्रति एकड़ 1 लिटर एसीटोबैक्टर प्लस 1 लिटर पीएसबी का 100 लिटर पानी में घोल बना कर रासायनिक बीजोपचार के बाद गन्ने के टुकड़ों को सूखने के बाद सही घोल में 30 मिनट तक डुबो कर उपचार करने के बाद ही बोआई करें.

गन्ने को भी दें खादउर्वरक : गन्ने में खादउर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी जांच के आधार पर जरूरत के मुताबिक पोषक तत्त्वों का उपयोग कर के उर्वरक खर्च में बचत कर सकते हैं. अगर मिट्टी जांच न हुई हो तो बोआई के समय प्रति हेक्टेयर 60 से 75 किलोग्राम नाइट्रोजन, 70 से 80 किलोग्राम फास्फोरस, 20 से 40 किलोग्राम पोटाश व 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट का इस्तेमाल करना चाहिए.

गन्ने की लगाई तकरीबन 10 फीसदी फसल खराब होने की मुख्य वजह फसल को दी गई खाद के साथ पोटाश की सही मात्रा का उपलब्ध न होना है.

शोधों से पता चला है कि गन्ने की खेती में अच्छी पैदावार हासिल करने के लिए प्रति एकड़ तकरीबन 33 किलोग्राम पोटाश की जरूरत होती है, इसलिए गन्ने की खेती में पोटाश का प्रयोग जरूर करें.