गोबर के गमले और ईंटें

पशुपालन से देश में काफी लोग जुड़े हैं और यह आमदनी का अच्छा जरीया भी बन रहा है. पशुपालन से दूध का कारोबार करने के साथ ही गोबर से खाद बनाई जाती रही है, लेकिन अब गोबर से गमले, ईंटें व दूसरी चीजें भी बनाई जा रही हैं, जो पशुपालकों की आमदनी तो बढ़ाती हैं, साथ ही साथ पर्यावरण के लिए यह अच्छा है.

गायभैंस जैसे पशुओं का चारा मुख्यत: पेड़पौधे ही होते हैं. गोबर उस चारे के न पचने वाले अवशेष हैं, जिन में कार्बनिक पदार्थ शामिल होते हैं.

हरियाणा गौवंश अनुसंधान केंद्र में गोबर में चिकनी मिट्टी, चूना पाउडर व अन्य चीजों को मिला कर गमले व ईंटें तैयार करने का काम हो रहा है.

गोबर का गमला

गोबर से बना गमला प्राकृतिक रूप से काफी उपयोगी है, जिसे मशीन से बनाया जाता है. इस गमले की खासीयत यह है कि इस में मिट्टी भर कर पौधे को लगा कर कहीं भी रख सकते हैं. चाहे तो पूरे गमले को पौधे सहित जमीन में भी दबा कर लगा सकते हैं. इस से गमले में लगे पौधे की अच्छी बढ़वार भी होगी.

गोबर से बना गमला एक प्राकृतिक उत्पाद है, जिस से इस गमले में लगे पौधे को गोबर के खाद का भी फायदा मिलता है.

गोबर से बने गमलों के इस्तेमाल से पौलीथिन के इस्तेमाल में भी कमी आ सकती है. जरूरी है लोगों में प्रकृति के प्रति जागरूकता लाने की.

गोबर से ईंटें बनाना

हरियाणा गौवंश अनुसंधान केंद्र का कहना है कि ऐसी ईंटें वजन में हलकी होती हैं और घर के अंदर के तापमान को नियंत्रित करती हैं. इन ईंटों में आग भी नहीं लगती.

इस अनुसंधान केंद्र ने ईंटों को वैज्ञानिक जांच व प्रमाणिकता के लिए एनएबीएल प्रयोगशाला में भेजा है. अगर सबकुछ ठीक रहा, तो यह अपनेआप में बेहतर विकल्प होगा.

कम खर्च में तैयार होती नाडेप खाद

आज देश के अनेक किसान खेती में जैविक तरीके अपना रहे हैं. जैविक खाद बनाने के अनेक तरीके हैं, जिन्हें हमारे देश में अपनाया जाता है.

इन सब तरीकों में जैविक खाद बनाने की नाडेप विधि भी खास है. जैविक कंपोस्ट बनाने की इस नापेड विधि को महाराष्ट्र के किसान नारायण देवराव पंढरी ने विकसित किया.

उन्हीं के नाम पर इस कंपोस्ट का नाम नाडेप रखा गया.

नाडेप कंपोस्ट की खूबी है कि इसे बनाने के लिए कम गोबर का इस्तेमाल होता है. शेष खेती का कूड़ाकरकट, कचरा, पत्ते व मिट्टी पशुमूत्र आदि ही इसे बनाने के काम में लाया जाता है.

यह खाद 90 से 120 दिन में तैयार हो जाती है. इस कंपोस्ट में जैविक रूप से नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश के अलावा अनेक सूक्ष्म पोषक तत्त्व पाए जाते हैं जो हमारी खेती में अच्छी पैदावार के लिए बहुत उपजाऊ होते हैं.

नाडेप कंपोस्ट बनाने के लिए औसतन 12 फुट लंबाई, 5 फुट चौड़ाई और 3 फुट गहराई का टांका यानी ईंटों से बनाया गया चारदीवारी वाला टैंक, जिस में जगहजगह हवा के आनेजाने के लिए छेद छोडे़ जाते हैं, बनाया जाता है. इस में लगभग 3 से 4 माह की अवधि में उम्दा किस्म का कंपोस्ट तैयार हो जाता है.

नाडेप बनाने के लिए सामान

खेती का बचाखुचा कचरा, जिस में पत्तियां, घासफूस, फसल अवशेष, सागसब्जियों के छिलके वगैरह लगभग 1,500 किलोग्राम, पशु का गोबर लगभग 300-400 किलोग्राम, छनी हुई खेत की मिट्टी लगभग 10-12 टोकरे, इस के अलावा पशु का मूत्र 2-3 बालटी और जरूरत के मुताबिक पानी. अगर खेती के अवशेष गीले और हरे हैं तो कम पानी की जरूरत होगी. सूखे अवशेष होने पर लगभग 400 से 500 लिटर पानी चाहिए.

नाडेप कंपोस्ट बनाने का तरीका

किसी छायादार जगह का चुनाव करें और उस जगह को एकसार कर के  इस के ऊपर ईंटों से तय आकार का एक आयताकार व हवादार ढांचा बनाएं. इस से खाद जल्दी पकेगी, क्योंकि जीवाणुओं को हवा से औक्सीजन भरपूर मात्रा में मिल जाती है और कई प्रकार की बेकार गैसें बाहर निकल जाती हैं.

आयताकार ढांचे के अंदरबाहर की दीवारों को गोबर से लीप कर सुखा लें. इस के बाद टांके के अंदर सतह पर सब से पहले पहली तह 6 इंच तक हरे व सूखे पदार्थों जैसे घास, पत्ती, छिलकों, डंठल, खरपतवार वगैरह की बिछाएं. अगर नीम पत्तियां उपलब्ध हों तो इस में मिलाना फायदेमंद रहता है. नीम का इस्तेमाल अनेक जैविक कीटनाशकों में होता है.

दूसरी तह में 4-5 किलोग्राम गोबर को 100 लिटर पानी व 5 लिटर गौमूत्र में घोल बना कर पहली परत के ऊपर इस तरह छिड़कें कि पूरे घासपत्ते वगैरह भीग जाएं. इस के बाद गोबर की एक इंच की परत लगाएं.

तीसरी परत 1 इंच ऊंचाई की सूखी छनी हुई मिट्टी की लगाएं, फिर उस मिट्टी को पानी छिड़क कर अच्छी तरह गीला कर दें.

इस प्रकार क्रम को दोहराते हुए आयताकार ढांचे को उस की ऊंचाई से 1-2 फुट ऊपर तक झोपड़ीनुमा आकार की तरह भर दें. तकरीबन 7-8 परतों में यह भर जाता है. अब इसे मिट्टी व गोबर की पतली 2 इंच की तह से लीप दें.

7 से 15 दिनों में आयताकार ढांचे में डाली हुई सामग्री ठसक कर 1-1.5 फुट तक नीचे आ जाती है. तब पहली भराई के क्रम की तरह ही फिर से इसे इस की ऊंचाई से डेढ़ फुट तक भर कर गोबर व मिट्टी के घोल से लीप दें.

100-120 दिनों में हवा के छिद्रों में देखने पर अगर खाद का रंग गहरा भूरा हो जाता है तो नाडेप खाद तैयार है. इसे मोटे छेद वाली छलनी से छान कर उपयोग में लाया जा सकता है.

लाभ : इस तरीके में कम गोबर से अच्छी जीवाणुयुक्त, पोषक तत्त्वों से भरपूर खाद बनाई जा सकती है.

कम खर्च में ही उत्तम नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश व दूसरे पोषक तत्त्वों से भरपूर खाद बड़ी मात्रा में तैयार हो सकती है.

जगहजगह पर बिखरा हुआ कूड़ाकचरा व खरपतवार को एक जगह इकट्ठा कर के खाद में बदला जा सकता है इस से प्रदूषण भी नहीं होता है.

नाडेप खाद बनाने का यह सब से सरल तरीका है, जिसे किसान थोडे़ समय में ही अपना कर लाभ कमा सकते हैं

इस प्रकार की खाद जमीन में जीवों की तादाद में बढ़वार कर के कार्बन की मात्रा को बढ़ाती है.

इस प्रकार की खाद को ईंटों की जगह पर लकडि़यों से भी तैयार कर सकते हैं.

इस से किसान रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक दवाओं के जाल से बाहर निकल सकता है.

उपरोक्त बताया गया तरीका पक्का नाडेप तरीका है. ढांचा बनाने के लिए ईंटों का इस्तेमाल होता है. कम खर्च में यह काम लकडि़यों द्वारा भी किया जा सकता है.

लकड़ी से बनाया जाने वाला नाडेप

यह नाडेप जमीन पर बनाए गए पक्के नाडेप की तरह ही बनाते हैं, किंतु इस में पक्की ईंटों की जगह बांस या लकड़ी का प्रयोग किया जाता है. लकड़ी से इस को बनाते समय हवा के लिए स्थान इस में अपनेआप ही रहता है, फिर इस में पक्के नाडेप की तरह घासफूस से भराई करते हैं. खाद का पूरा निर्माण काम व इस को निकालने वगैरह का काम पक्के नाडेप की तरह ही होता है. यह नाडेप से बहुत ही सस्ता बनता है.

सावधानियां

* नाडेप खाद के लिए ढांचे को छायादार जगह पर बनाएं.

* ढांचा बनाते समय छेद जरूर रखें, क्योंकि सूक्ष्म जीवाणुओं के लिए हवा का आनाजाना जरूरी होता है और कार्बन डाई औक्साइड व दूसरी गैसों के निकलने के लिए रास्ता चाहिए.

* नमी का खास खयाल रखें. पानी का छिड़काव समयसमय पर करते रहें.

* आयताकार ढांचे के ऊपरी भाग में दरारें आने पर समयसमय पर मिट्टी या गोबर से लिपाई कर दें.

* तैयार कंपोस्ट का भंडारण छायादार जगह पर बोरियों में करें. नमी के लिए बीच में कभीकभार हलके पानी का छिड़काव कर सकते हैं.

किसान राजाराम को मिला ‘महिंद्रा रिचेस्ट फार्मर औफ इंडिया अवार्ड’

नई दिल्ली: भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, पूसा, नई दिल्ली के मेला ग्राउंड में आयोजित एक भव्य समारोह में ‘महिंद्रा मिलेनियर फार्मर औफ इंडिया अवार्ड 2023’ में छत्तीसगढ़ के डा. राजाराम त्रिपाठी को केंद्रीय पशुपालन मंत्री पुरषोत्तम रूपाला ने देश के सब से अमीर किसान की ट्रौफी दे कर सम्मानित किया और उन्हें ‘भारत के सब से अमीर किसान‘ के खिताब से नवाजा.

इस अवसर पर केंद्रीय पशुपालन मंत्री पुरषोत्तम रूपाला ने कहा कि देश के किसान अब समृद्धि की राह पर चल पड़े हैं, इन सफल प्रगतिशील करोड़पति किसानों के बारे में जान कर हम सब को बड़ी प्रसन्नता हुई है. डा. राजाराम त्रिपाठी जैसे उद्यमी किसान देश के किसानों के लिए रोल मौडल हैं.

इस अवसर पर ब्राजील के राजदूत ने डा. राजाराम त्रिपाठी को अपने देश में आमंत्रित करते हुए ब्राजील यात्रा का टिकट भी प्रदान किया. इस अवसर पर ब्राजील के उच्चाधिकारी, नीदरलैंड के कृषि सलाहकार माईकल, संयुक्त अरब अमीरात के राजदूत, आईसीएआर के निदेशक, कृषि जागरण की प्रमुख एमसी डोमिनिक, शाइनी डोमिनिक डा. पीसी पंत, ममता जैन, पीसी सैनी, हर्ष राठौर, आशुतोष पांडेय हिंदुस्तान के साथ ही देशभर के कृषि वैज्ञानिक, कृषि क्षेत्र के उद्योगपति और सैकड़ों की तादाद में अलगअलग राज्यों से पधारे प्रगतिशील किसान व कृषि उद्यमी मौजूद थे.

अवार्ड मिलने के बाद डा. राजाराम त्रिपाठी ने कहा कि वह अपना यह अवार्ड मां दंतेश्वरी हर्बल समूह के सभी साथियों और बस्तर के अपने आदिवासी भाइयों को अर्पित करते हैं. वे अपने समूह की आमदनी का पूरा हिस्सा बस्तर के आदिवासी भाइयों के विकास में ही खर्च कर रहे हैं और आगे इन के विकास के लिए एक ट्रस्ट बना कर अपनी सारी खेती को उस के साथ जोड़ कर उन की बेहतरी के लिए अपनी आखिरी सांस तक काम करते रहेंगे.

यों तो जैविक खेती और औषधीय पौधों की खेती के पुरोधा माने जाने वाले डा. राजाराम त्रिपाठी आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. बीएससी (गणित), एलएलबी के साथ हिंदी साहित्य, अंग्रेजी साहित्य, इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान सहित 5 विषयों में एमए और डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त डा. राजाराम त्रिपाठी को देश का सब से ज्यादा शिक्षित किसान माना जाता है. खेती में नएनए नवाचारों के साथ ही ये आज भी पढ़ाई कर रहे हैं और इन दिनों ये सामाजिक विज्ञान में स्नातकोत्तर की परीक्षा दे रहे हैं. इन्हें हरित योद्धा, कृषि ऋषि, हर्बल किंग, फादर औफ सफेद मूसली आदि की उपाधियों से नवाजा जाता है. मिसाइलमैन एपीजे अब्दुल कलाम ने इन्हें ‘‘हर्बलमैन औफ इंडिया‘‘ की उपाधि दी थी.

देश के सब से पिछड़े भाग बस्तर में पिछले 30 सालों की उन की कठिन तपस्या व संघर्षों के बारे में यह दुनिया बहुत कम जानती है. बस्तर के एक बेहद पिछड़े क्षेत्र, कुख्यात झीरम घाटी वाले दरभा विकास खंड के गांव ‘ककनार‘ में जन्मे और वहीं पलेबढ़े डा. राजाराम त्रिपाठी का बचपन बस्तर के जंगलों में आदिवासी सखाओं के साथ गाय चराते और खेती करते बीता है. ये अपने गांव से प्रतिदिन 50 किलोमीटर साइकिल चला कर पढ़ने के लिए जगदलपुर आते थे. इन्होंने अपने बूते देश की विलुप्त हो रही दुर्लभ वनौषधियों के संरक्षण और संवर्धन के लिए बस्तर, कोंडागांव में लगभग 30 साल मेहनत कर के तकरीबन 10 एकड़ का जैव विविधता से भरपूर एक जंगल उगा कर वनौषधियों के लिए प्राकृतिक रहवास में ही ‘‘इथिनो मैडिको गार्डन‘‘ यानी  ‘‘दुर्लभ वनौषधि उद्यान‘‘  विकसित कर दिखाया है, जहां आज 340 से ज्यादा प्रजातियों की 5,100 दुर्लभ वनौषधियां फलफूल रही हैं.

Dr. Rajaramप्रगतिशील किसान डा. राजाराम त्रिपाठी की कुछ विशेष उपलब्धियां:-

– डा. राजाराम त्रिपाठी के नेतृत्व में ‘‘मां दंतेश्वरी हर्बल‘‘ को आज से 22 साल पहले देश के पहले ‘‘सर्टिफाइड और्गैनिक स्पाइस एंेड हब्र्स फार्मिंग का अंतर्राष्ट्रीय प्रमाणपत्र हासिल करने का गौरव प्राप्त है.

– 2 दशकों से अपने मसालों और हर्बल उत्पादों का यूरोप, अमेरिका आदि देशों में निर्यात में विशिष्ट गुणवत्ता नियंत्रण हेतु ‘राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड‘ भारत सरकार द्वारा ‘बैस्ट ऐक्सपोर्टर’ का अवार्ड भी मिल चुका है.

– डा. राजाराम त्रिपाठी 2 दर्जन से ज्यादा देशों की यात्रा कर के वहां की कृषि एवं विपणन पद्धति का अध्ययन कर चुके हैं.

– डा. राजाराम त्रिपाठी ने भारत सरकार के सर्वोच्च शोध संस्थान सीएसआईआर और आईएचबीटी के साथ करार कर जीरो कैलोरी वाली ‘स्टीविया‘ की बिना कड़वाहट और ज्यादा मिठास वाली प्रजाति के विकास करने और इस की पत्तियों से शक्कर से 250 गुना मीठी स्टीविया की ‘जीरो कैलोरी शक्कर‘ बनाने का  करार किया है.

– डा. राजाराम त्रिपाठी ने जैविक पद्धति से देश के सभी भागों में विशेष रूप से गरम क्षेत्रों में न्यूनतम देखभाल में परंपरागत प्रजातियों से ज्यादा उत्पादन और बेहतर गुणवत्ता देने वाली काली मिर्च की नई प्रजाति ‘‘मां दंतेश्वरी काली मिर्च-16, पीपली की नई प्रजाति ‘‘मां दंतेश्वरी पीपली-16‘‘ एवं स्टीविया की नई प्रजाति ‘‘मां दंतेश्वरी स्टीविया-16’’ आदि नई प्रजातियों को विकसित किया है और बड़ी संख्या में किसान इन का फायदा उठा रहे हैं. इस की सराहना स्पाइस बोर्ड के वैज्ञानिकों और देश के कृषि विशेषज्ञों ने भी की है.

– डा. राजाराम त्रिपाठी देश के पहले ऐसे किसान हैं, जिन्हें देश के सर्वश्रेष्ठ किसान होने का अवार्ड अब तक 4 बार, भारत सरकार के अलगअलग कृषि मंत्रियों के हाथों मिल चुका है.

– अब तक 7 लाख से अधिक लहलहाते पेड़ उगाने वाले डा. राजाराम त्रिपाठी को आरबीएस ‘अर्थ हीरो‘ (एक लाख की पुरस्कार राशि), ग्रीन वारियर यानी हरित योद्धा अवार्ड सहित कई अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड और प्रतिष्ठित राष्ट्रीय अवार्ड मिल चुके हैं.

– हालफिलहाल डा. राजाराम त्रिपाठी के मार्गदर्शन में ‘‘मां दंतेश्वरी फार्म एंेड रिसर्च सैंटर‘‘ द्वारा 40 लाख रुपए में तैयार होने वाले एक एकड़ के ‘पौलीहाउस‘ का ज्यादा टिकाऊ, प्राकृतिक, सस्ता और हर साल पौलीहाउस से ज्यादा फायदा देने वाला सफल और बेहतर विकल्प ‘‘नैचुरल ग्रीनहाउस‘‘ कोंडागांव मौडल महज ‘‘डेढ़ लाख रुपए‘‘ में. जी हां, 40 लाख रुपए के पौलीहाउस का विकल्प महज डेढ़ लाख रुपए में तैयार किया है. किसानों की आमदनी को कई गुना बढ़ाने वाले इस मौडल ने तो पूरे देश में तहलका मचा दिया है. इसे देश की खेती का ‘‘गेमचेंजर‘‘ माना जा रहा है. साथ ही, इस नैचुरल ग्रीनहाउस को ‘‘क्लाइमेटचेंज‘‘ के खिलाफ सब से कारगर हथियार माना जा रहा है.

– डा. राजाराम त्रिपाटी के द्वारा स्थापित ‘मां दंतेश्वरी हर्बल समूह‘ के साथ अब इन परिवारों की दूसरी पीढ़ी भी कंधे से कंधा मिला कर पसीना बहा रही है. इस नव युवा पीढ़ी की अगुआई कर रही इन की बिटिया अपूर्वा त्रिपाठी, जो कि 25 लाख रुपए का पैकेज ठुकरा कर बस्तर की आदिवासी महिला समूहों के साथ मिल कर उगाए गए विशुद्ध प्रमाणित जैविक जड़ीबूटियों, मसालों और उत्कृष्ट खाद्य उत्पादों की श्रंखला ‘‘एमडी-बोटैनिकल्स‘‘  ब्रांड के जरीए एक विश्वसनीय वैश्विक ब्रांड का तमगा हासिल कर चुकी हैं. इन के बस्तरिया उत्पाद अब ‘फ्लिपकार्ट‘ और ‘अमेजन‘ पर ट्रेंड कर रहे हैं.

– यह भी उल्लेखनीय है कि बस्तर स्थित इनके हर्बल-फार्म जिसे ये किसान की प्रयोगशाला कहते हैं, पर अब तक माननीय महामहिम  राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम आजाद राज्यपाल श्री दिनेश नंदन सहाय मुख्यमंत्री श्री अजीत जोगी, अमेरिका, नीदरलैंड, इंग्लैंड, दक्षिण अफ्रीका, इथोपिया सहित विश्व के विभिन्न देशों के कई माननीय मंत्रीगण, प्रतिनिधि गण, उच्चाधिकारी तथा वैज्ञानिक पधार चुके हैं।

– देश के हजारों प्रगतिशील किसानों, स्कूलों के बच्चों और मैडिसिनल प्लांट के शोधार्थियों, वैज्ञानिकों, नवउद्यमी युवाओं के लिए इस किसान की प्रयोगशाला यानी ‘‘मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म और रिसर्च सैंटर फार्म‘‘ पर निरंतर आनाजाना लगा रहता है.

– वर्तमान में डा. राजाराम त्रिपाठी ‘‘नैशनल मैडिसिनल प्लांट बोर्ड‘‘ आयुष मंत्रालय, भारत सरकार के सदस्य हैं. साथ ही, भारत सरकार के ‘‘भारतीय गुणवत्ता संस्थान यानी बीआईएक की ‘‘कृषि मशीनरी तकनीकी अप्रूवल कमेटी‘‘ के भी सदस्य हैं.

– डा. राजाराम त्रिपाठी ‘‘सैंट्रल हर्बल एग्रो मार्केटिंग फेडरेशन औफ इंडिया (चाम्फ) ूूू.बींउ.िवतह ‘‘ जो कि जैविक किसानों का देश का सब से बड़ा संगठन है, उस के चेयरमैन हैं.

– डा. राजाराम त्रिपाठी को हाल ही में देश के अग्रणी 223 किसान संगठनों के द्वारा बनाए गए ‘‘एमएसपी गारंटी-किसान मोरचा‘‘ का ‘मुख्य राष्ट्रीय प्रवक्ता‘ भी बनाया गया है.

– डा. राजाराम त्रिपाठी वर्तमान में देश के सब से 45 किसान संगठनों के पूरी तरह से गैरराजनीतिक मंच, ‘अखिल भारतीय किसान महासंघ ( आईफा)‘ के ‘राष्ट्रीय संयोजक‘ के रूप में देशभर के किसानों की सशक्त आवाज के रूप में जाने जाते हैं.

– खेतीकिसानी में झंडे गाड़ने से इतर आदिवासी बोली, भाषा और उन की संस्कृति के संरक्षण के लिए डा. राजाराम त्रिपाठी का काम देशभर में उन की अलग पहचान बनाता है. इन के द्वारा लिखी किताबों में ‘‘बस्तर बोलता भी है‘‘ और ‘‘दुनिया इन दिनों‘‘  की गणना देश की चर्चित कृतियों में होती है. विगत एक दशक से दिल्ली से प्रकाशित हो रही जनजातीय सरोकारों की मासिक पत्रिका ‘‘ककसाड़‘‘ के जरीए छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की विलुप्त हो रही बोली, भाषा, संस्कृति और सदियों के संचित अनमोल परंपरागत ज्ञान को संजोने, व बढ़ाने के काम में अथक जुटे ‘‘कृषि ऋषि‘‘ डा. राजाराम त्रिपाठी को लोक संस्कृति का चलताफिरता ध्वजावाहक कहा जाना भी अतिशयोक्ति न होगा. इन का काम बहुआयामी है. इन के बारे में अगर और अधिक जानना हो, तो कृपया गूगल पर जाएं, गूगल बाबा की लाइब्रेरी में इन के ऊपर हजारों पेज आप को मिल जाएंगे.

खेती के लिए खास जीवाणु खाद

आज के समय में खेती  की पैदावार बढ़ाने के लिए कैमिकल खादों और दवाओं का जम कर इस्तेमाल किया जाता है, जिस से दिनप्रतिदिन खेत की मिट्टी की सेहत खराब हो रही है और पर्यावरण को भी अच्छाखासा नुकसान पहुंच रहा है.

दवाओं और कैमिकल खादों के इस्तेमाल से आबोहवा को जहरीली होने से बचाने के लिए सुरक्षित और स्वस्थ भोजन की बढ़ती मांग को ध्यान में रखते हुए जैविक खेती एक खास विकल्प के रूप में उभरी है.

ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत की केवल 30 फीसदी खेती लायक जमीन में, जहां सिंचाई के साधन मुहैया हैं, कैमिकल खादों का उपयोग होता है और बाकी 70 फीसदी जमीन में जो कि बारिश पर निर्भर है, बहुत कम मात्रा में कैमिकल खाद उपयोग की जाती है.

इन इलाकों में किसान जैविक खादों का उपयोग करते हैं, जो कि उन के अपने खेत या अपने घरेलू संसाधनों से मिलते हैं या उन के इलाकों में मौजूद होते हैं.

जीवाणु खाद जैविक खेती का एक अहम हिस्सा है. जीवाणु खाद एक विशेष या लाभदायक जीवाणुओं के समूह की बड़ी आबादी है, लाखों की तादाद में इन को एक खास तरीके में मिलाया जाता है, जिन्हें पौधों की जड़ों पर या मिट्टी में डालने से इन की क्रियाओं द्वारा पोषक तत्त्व पौधों को आसानी से मिल जाते हैं और जमीन में जरूरी जीवाणुओं की तादाद बढ़ती है. इस से जमीन की सेहत में सुधार होता है और खेती के लिए अनेक फायदेमंद जरूरी तत्त्वों में सुधार करता है.

खेती में पौधों की पैदावार बढ़ाने में यह सहायक होता है. इस के अलावा माइकोराजा, फास्फेट, जिंक और तांबे की उपलब्धता और शोषित करने में सुधार करती है.

कहने का मतलब यह है कि खेत को यह उपजाऊ बनाता है और जो खेती को नुकसान पहुंचाने वाले तत्त्व हैं, उन का सफाया करता है.

पोषक तत्त्वों की मौजूदगी के मुताबिक ही जीवाणु खाद को 3 कैटीगरी में बांटा गया है. जैसे कि नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटैशियम.

अघुलनशील जिंक को घुलनशील जिंक में बदलने वाले जीवाणुओं को भी जीवाणु खाद की कैटीगरी में रखा गया है. जीवाणु जो कि जीवाणु खाद या टीके के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं, एक विशेष माध्यम में मिलाए जाते हैं और जीवाणु खाद/टीका, पाउडर या तरल अवस्था में होती है. पाउडर जीवाणु खाद के लिए अधिकतर लिग्नाइट, कोयला पाउडर या पीट माध्यम का उपयोग किया जाता है. तरल जीवाणु खाद हमेशा निलंबित माध्यम में होती है, जो कि जीवाणुरहित प्लास्टिक बोतलों में पैक की जाती है.

टीके की मात्रा : 10 किलोग्राम बीज के लिए एक टीका (50 मिलीलिटर) काफी है. यदि 1 एकड़ जमीन में बीज की मात्रा 10 किलोग्राम है तो प्रति 10 किलोग्राम बीज के लिए एक टीके का इस्तेमाल करें और यदि बीज की मात्रा 1 एकड़ के लिए 10 किलोग्राम से कम है, तब भी एक टीका लगाना चाहिए.

गेहूं के लिए 4-5, धान के लिए 5 और आलू जैसी फसलों के लिए 10 एजोटीका की जरूरत होती है. फास्फोटीका की जरूरत भी इसी मात्रा में होती है.

इसी प्रकार दलहनी फसलों में बीज की मात्रा के मुताबिक जितने राइजोटीका की जरूरत होती है, उतने ही फास्फोटीका की जरूरत होती है.

यदि गेहूं में मोल्या रोग की शिकायत है, तो इस में फास्फोटीका के साथ बायोटीका (एजोटोबैक्टर एचटी 54) लगाना जरूरी है. इस में अलग से एजोटीका लगाने की जरूरत नहीं है.

यदि कपास में जड़ गांठ रोग है, तो इस में एजोटीका और फास्फोटीका के साथ बायोटीका (ग्लूकोनोअसिटोबैक्टर 35-47) लगाना जरूरी है.

टीका उपचारित करने का तरीका : बीजोपचार के लिए 50 ग्राम गुड़ को 250 मिलीलिटर पानी में घोल कर बीजों पर डालें और बीजों को चिपचिपा कर लें. अब टीके की बोतल खोल कर बीजों पर डालें और बीजों को अच्छे से मिलाएं. इन उपचारित बीजों को छाया में सुखा कर बीजाई कर दें.

अगर किसी कीटनाशक दवा का इस्तेमाल करना हो तो उस दवा को 12 से ले कर 24 घंटे पहले इस्तेमाल कर के बीजों को टीके से उपचार करें. जिन फसलों की रोपाई की जाती है, उन की रोपाई करने से पहले पौधों की जड़ों को टीके में डुबो कर उपचारित किया जा सकता है.

जीवाणु खाद/टीके के लाभ

* जीवाणु खाद या टीका लगाने से पौधे स्वस्थ रहते हैं और 5-15 फीसदी तक पैदावार में बढ़ोतरी होती है.

* एजोटीका के लगाने से 20-25 फीसदी तक यूरिया की बचत की जा सकती है.

* एजोटीका के जीवाणु जड़ों द्वारा फैलने वाले फफूंदी जैसे पादपीय रोगों को फैलने से रोकते हैं.

* टीका उपचारित करने से बीजों की अंकुरण क्षमता तेज हो जाती है.

* प्राकृतिक रूप से क्षारीय मिट्टी में फास्फोटीका और फास्फेट के संयुक्त उपचार से फसल पर लाभकारी असर होता है.

सावधानियां

जीवाणु खाद या टीका प्रयोग करते समय इन सावधानियों का ध्यान रखना चाहिए:

* टीके को धूप में नहीं रखना चाहिए.

* टीके को अगर ज्यादा समय तक रखना हो तो फ्रिज में या ठंडी जगह पर रखें.

* टीका खरीदते समय यह ध्यान रखें कि यह 2 या 3 महीने से ज्यादा पुराना न हो.

* टीका उसी फसल के लिए प्रयोग करें, जो टीके की बोतल पर लिखी हो.

* उपचारित बीज को छाया में सुखा कर शीघ्र बीजाई कर दें. टीका उसी दिन लगाएं, जिस दिन बीजाई करनी हो.

ज्यादा जानकारी के लिए किसान अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र के विशेषज्ञों से भी सलाह ले सकते हैं.

(यह जानकारी हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय से मिली जानकारी के अनुसार दी गई है.)

रसायनों का संतुलित प्रयोग कृषि में लाभकारी

हिसार: वर्तमान समय में कृषि में उपयोग किए जा रहे फफूंदनाशकों और कीटनाशकों के प्रति कीटों और खरपतवारों में प्रतिरोधकता का विकास कृषि उत्पादों की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा बना हुआ है. इस स्थिति से निबटने के लिए नई जैव रासायनिक क्रिया को प्रदर्शित करने वाले नए उत्पादों के विकास की अत्यधिक आवश्यकता है.

यह विचार चैधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर काम्बोज ने व्यक्त किए. वे नोबल पुरस्कार विजेता फ्रांसीसी महिला वैज्ञानिक मैरी क्यूरी की याद में विश्वविद्यालय के मौलिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय के रसायन विज्ञान विभाग व कैंपस स्कूल के सयुक्ंत तत्वावधान में आयोजित रसायन पखवाड़ा के अंतिम दिन ‘किसानों के लिए रसायन विज्ञान’ कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि बोल रहे थे.

कुलपति प्रो. बीआर काम्बोज ने कहा कि लगभग आधी सदी से जैविक रसायन का उपयोग कृषि में खाद्य उत्पादन को बढ़ाने और फसल सुरक्षा के लिए हो रहा है. इन रसायनों का संतुलित प्रयोग कृषि में स्थिरता के लिए जरूरी है.

उन्होंने आगे कहा कि कृषि में कई ज्वलंत मुद्दे हैं, जिन का समाधान रसायन विज्ञान में नवाचार कर के किया जा सकता है.

इन मुद्दों में से एक कृषि में जहरीला धातु संदूषण है. आर्सेनिक, कैडमियम, सीसा और पारा जैसी धातुओं के उच्च स्तर के संपर्क में आने से मनुष्य में गंभीर सेहत संबंधी समस्याएं पैदा होती हैं, जबकि दूसरी ओर लोहा, बोरान और तांबा पौधों के विकास के लिए आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्व हैं. इसलिए ऐसी धातुओं का पता लगाने के लिए उन्नत विश्लेषणात्मक रसायन विज्ञान तकनीकों का उपयोग कर के समयसमय पर किसानों के खेतों से ऐसी जानकारी एकत्र करने की आवश्यकता है.

Fertilizersकुलपति बीआर काम्बोज ने रसायन वैज्ञानिकों से यह भी कहा कि उन के अनुसंधान किसानों के कल्याण के लिए केंद्रित होने चाहिए. जैसे, कम साइटोटौक्सिसिटी वाले नए रोगाणुरोधी और नेमाटीसाइडल का विकास, कृषि रसायन व्यवहार और खतरों की पहचान, कृषि अपशिष्ट के उपयोग के लिए प्रक्रियाओं का विकास, हरित रसायन अनुसंधान और नैनोकण विकास आदि.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि यह प्रशंसा की बात है कि हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के रसायन विज्ञान विभाग द्वारा इन विषयों को अपने अनुसंधान कार्यक्रमों में प्राथमिकता दी गई है.

हरियाणा राज्य उच्च शिक्षा परिषद के सदस्य प्रो. ओम प्रकाश अरोड़ा ने इस कार्यक्रम के विषय को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि हरित क्रांति से पहले भारत को अमेरिका से अनाज मंगाना पड़ता था, लेकिन कृषि वैज्ञानिकों के योगदान से अब हम दूसरे देशों को भी अनाज भेज रहे हैं. उस समय पैदावार बढ़ाने के लिए रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग किया जाता था, जो कि समय की जरूरत थी. लेकिन अब हम जैविक व प्राकृतिक खेती को अपना कर गुणवत्ता से परिपूर्ण अनाज की पैदावार की तरफ भी ध्यान दे रहे हैं.

उन्होंने कहा कि रसायन विज्ञान का फसलों की उपज बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है. बच्चों को किताबी जानकारी के साथसाथ व्याहवारिक जानकारी हासिल करने के लिए उन्होंने प्रेरित किया. उन्होंने हमारे देश के महापुरुषों पर भी प्रकाश डाला.

इस से पूर्व मौलिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. नीरज कुमार ने स्वागत भाषण देते हुए कहा कि विश्वविद्यालय के कैंपस स्कूल के सहयोग से आयोजित किए गए रसायन विज्ञान पखवाड़ा के दौरान भाषण प्रतियोगिता, प्रश्नोत्तरी और वर्किंग मौडल प्रदर्शनी जैसे कार्यक्रम आयोजित किए गए, जिन में स्कूलों और कालेज के विद्यार्थियों ने उत्साहपूर्वक हिस्सा लिया.

कार्यक्रम को रसायन विज्ञान विभाग के अध्यक्ष डा. रजनीकांत शर्मा ने भी संबोधित किया. कार्यक्रम के अंत में कैंपस स्कूल की निदेशक संतोष कुमारी ने धन्यवाद प्रस्ताव प्रस्तुत किया. मंच का संचालन पीएचडी छात्रा सुचेता छाबड़ा ने किया. इस अवसर पर विश्वविद्यालय के सभी महाविद्यालयों के अधिष्ठाता, निदेशक, विभागाध्यक्ष, वैज्ञानिक, विद्यार्थी व कर्मचारी मौजूद रहे.

ये रहे प्रतियोगिताओं के नतीजे

इस कार्यक्रम के तहत आयोजित की गई प्रतियोगिताओं के नतीजे इस प्रकार रहे: भाषण प्रतियोगिता: प्रथम पुरस्कार रिद्धी ने प्राप्त किया, जबकि द्वितीय पुरस्कार रितु और तृतीय पुरस्कार हिमांशी ने जीता. एप्रिसिएशन पुरस्कार प्रिया व अलांशा को मिला. इंटर कालेज प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता में गवर्नमेंट पीजी कालेज, हिसार की रेणुका भारद्वाज, मुस्कान व पंकज प्रथम, जबकि इंदिरा चक्रवर्ती सामुदायिक विज्ञान महाविद्यालय की गुंजन, रेणु व प्रतिभा को द्वितीय पुरस्कार मिला, वहीं हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि महाविद्यालय से नमन, अर्पित कंबोज व प्रिया यादव तीसरे स्थान पर रहे.

इंटर कालेज वर्किंग मौडल प्रदर्शनी में कृषि महाविद्यालय के अंकित गावड़ी व कल्पना यादव प्रथम, ओडीएम महिला कालेज, मुकलान की मुस्कान व दीप्ति द्वितीय और मौलिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय की खुशबू व पुजा देवी तृतीय स्थान पर रहीं.

अंतरविद्यालय प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता में सेंट एंथोनी स्कूल के लक्ष्य, देव मलिक व दिव्यांशी प्रथम, सिद्धार्थ इंटरनेशनल स्कूल के रचित मेहरा, राघव व कनिष्का द्वितीय और दि आर्यन स्कूल के प्रणव, अर्नव गांधी व सात्विकी रेहपड़े तृतीय स्थान पर रहे.

इंटर स्कूल वर्किंग मौडल प्रदर्शनी में: ओपी जिंदल मौडर्न स्कूल के नमन व गुन्मय को ‘प्रकृति से भविष्य तक’ विषय पर प्रथम पुरस्कार मिला, वहीं दि आर्यन स्कूल के आदित्य व दीपिका को ‘वेस्ट मैनेजमेंट’ विषय पर द्वितीय, जबकि डीएवी पुलिस पब्लिक स्कूल, हिसार की इशिका व अनु को तृतीय पुरस्कार मिला.

इसी प्रकार दि श्रीराम यूनिवर्सल स्कूल की समृद्धि व अनिंदया, सेंट मैरी स्कूल, हिसार की मनु सुनंदन व नंदिता और दिल्ली पब्लिक स्कूल, हिसार के अभय व शिवम को एप्रिसिएशन पुरस्कार मिला.

रबी फसल : खाद प्रबंधन और देखभाल

खाद्यान्न आपूर्ति में रबी फसलों का अच्छा खासा योगदान है, क्योंकि वे कुल सालाना खाद्यान्न उत्पादन में तकरीबन 40 फीसदी योगदान करती हैं. उस में गेहूं व सरसों की खास भागीदारी होती है.

इस में कोई शक नहीं कि फसल उत्पादन में खाद और उर्वरकों का अहम रोल होता है. फसल की बढ़वार के लिए जरूरी पोषक तत्त्वों का सही मात्रा में मुहैया होना जरूरी होता है. मिट्टी इन सभी पोषक तत्त्वों की सही मात्रा में आपूर्ति करने में असमर्थ होती है व हर फसल को पोषक तत्त्वों की अलगअलग मात्रा की जरूरत होती है. साथ ही, ज्यादा पैदावार देने वाली किस्मों में पोषक तत्त्वों की मांग कुछ ज्यादा होती है.

इन पोषक तत्त्वों की आपूर्ति के लिए कार्बनिक व कैमिकल खाद डालने की जरूरत होती है. लेकिन किसानों द्वारा अकसर गलत तरीके से खेती करना, गलत मिट्टी प्रबंधन, कैमिकल खादों की पूरी मात्रा न देना व जैविक खादों का कम इस्तेमाल करना वगैरह होता है, जिस के चलते फसल के उत्पादन पर बुरा असर पड़ता है.

दूसरी तरफ रबी सीजन में नाइट्रोजन वाली कैमिकल खादों, जैसे यूरिया, डीएपी वगैरह की बाजार में उपलब्धता काफी कम हो जाती है और जो मुहैया होती है, उसे महंगे दामों में खरीदना पड़ता है. इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि खादों का संतुलित मात्रा में सही समय पर इस्तेमाल किया जाए.

ज्यादातर किसान नाइट्रोजन व फास्फोरस वाली कैमिकल खादों के इस्तेमाल पर तो ज्यादा ध्यान देते हैं, लेकिन पोटाश वाली खादों को नजरअंदाज करते हैं, जो गलत है. नाइट्रोजन व फास्फोरस की तरह पोटाश की भी पूरी मात्रा खेतों में डालनी चाहिए. इस से पौधों की पानी की उपयोग करने की कूवत बढ़ने के चलते पैदावार में बढ़वार होती है.

इस के अलावा रबी की कुछ फसलों, जैसे गेहूं को सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की ज्यादा मात्रा में जरूरत होती है, इसलिए मिट्टी में इन का भी जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल किया जाना चाहिए.

Rabiवैसे, 3 साल में एक बार जैविक खादों का इस्तेमाल जरूर करना चाहिए. रबी में बोई जाने वाली खास फसलों, जैसे गेहूं, जौ, सरसों, आलू, मटर, मसूर, लहसुन, प्याज वगैरह में खाद व उर्वरक का इस्तेमाल आगे बताए जा रहे तरीकों से करें. खाद व उर्वरकों की मात्रा मिट्टी के उपजाऊपन व पिछली फसलों में किए गए कृषि प्रबंधन पर निर्भर करती है.

गेहूं : यह रबी सीजन की सब से खास फसल होने के साथ ही अनाज वाली अहम फसल है. इस फसल पर नाइट्रोजन की कमी का सब से ज्यादा उलटा असर पड़ता है, जिस के चलते कल्ले कम बनते हैं. मैदानी इलाकों में सिंचित खेतों में आमतौर पर 120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस व 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करना चाहिए. आधा नाइट्रोजन व पूरा फास्फोरस व पोटाश आखिरी जुताई के समय खेत में मिला देना चाहिए.

यदि हो सके तो इन्हें बोते समय कूंड़ों में 3 से 5 सैंटीमीटर की गहराई में डालें. बाकी बचा नाइट्रोजन 2 बराबर भागों में कल्ले निकलते समय व बालियां बनते समय सिंचाई के बाद डालें. फास्फोरस की सुलभता को बढ़ाने के लिए 200 ग्राम पीएसबी कल्चर को 3 लिटर पानी में मिला कर प्रति 10 किलोग्राम बीज को उपचारित करें.

असिंचित हालत में 40-60 किलोग्राम नाइट्रोजन की पूरी मात्रा बोआई के समय 10-15 सैंटीमीटर तक गहराई में कतारों में डालें. हरी खाद या दलहनी फसल लेने के बाद गेहूं बोने पर नाइट्रोजन की तकरीबन 80 से 100 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर दें.

पूर्वोत्तर राज्यों के पहाड़ी इलाकों की असिंचित मिट्टियों में 40:20:20 की दर से 40 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश इस्तेमाल करें. जिन इलाकों में डीएपी का लगातार इस्तेमाल किया जाता है, वहां पर 30 किलोग्राम गंधक का इस्तेमाल फायदेमंद रहता है. ज्यादातर गेहूं उत्पादित राज्यों में सूक्ष्म पोषक तत्त्वों, जैसे जिंक, लोहा, तांबा व मैंगनीज की कमी भी पाई जा रही है, इसलिए इन की पूर्ति के लिए भी उर्वरकों का इस्तेमाल करें.

यदि वहां पिछली बोई गई फसल में जस्ता उर्वरक नहीं डाला गया है, तो जस्ते की कमी को दूर करने के लिए सामान्य मिट्टी में 20-25 किलोग्राम व ऊसर मिट्टी में 40-45 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर जिंक सल्फेट बोआई के समय डालना चाहिए या 0.5 फीसदी जिंक सल्फेट यानी 5 किलोग्राम जिंक सल्फेट+ 2.5 किलोग्राम चूना 1,000 लिटर पानी में घोल बना कर खड़ी फसल पर छिड़काव कर सकते हैं. लोहे की पूर्ति के लिए भी लगभग यही दर रखें.

जैविक गेहूं उत्पादन करना चाहें, तो 8-10 टन गोबर की खाद या कंपोस्ट, 5-10 टन वर्मी कंपोस्ट, 2 किलोग्राम पीएसबी व 2-3 टन नीम या अरंडी की खली को मिला कर प्रति हेक्टेयर खेत में आखिरी जुताई के समय मिला दें.

पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु वगैरह राज्यों की क्षारीय मिट्टी में ज्यादातर नाइट्रोजन, कैल्सियम व जिंक की कमी पाई जाती है. इसलिए 150 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन की अमोनियम सल्फेट द्वारा पूर्ति करना फायदेमंद होता है. यूरिया से ऐसा करने पर नाइट्रोजन का नुकसान वाष्पीकरण द्वारा ज्यादा होता है. यदि ऐसा करते हैं, तो गोबर की खाद या हरी खाद का इस्तेमाल जरूर करें.

फास्फोरस की पूर्ति के लिए सिंगल सुपर फास्फेट का इस्तेमाल ज्यादा फायदेमंद होता है. जिंक के जरीयों को जिप्सम के साथ देना ज्यादा फायदेमंद होता है.

खरीफ की फसल के बाद बोई गई हरी खाद, जैसे ढैंचा, सनई वगैरह को खेत में मिलाने से गेहूं की पैदावार में बढ़वार होती है. पूर्वोत्तर राज्य केरल, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड की अम्लीय मिट्टी में बोआई से 15-25 दिन पहले 2-4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर चूना मिला दें व नाइट्रोजन की पूर्ति के लिए कैल्सियम अमोनियम नाइट्रेट. फास्फोरस के लिए सिंगल या ट्रिपल सुपर फास्फेट और पोटाश के लिए म्यूरेट औफ पोटाश का इस्तेमाल करना ज्यादा फायदेमंद होता है.

जौ : इस फसल में असिंचित व सूखे के हालात में आमतौर पर खादों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है. लेकिन सिंचित इलाकों में 4-5 टन गोबर की खाद या कंपोस्ट, 40-60 किलोग्राम नाइट्रोजन व 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करना चाहिए, जबकि असिंचित इलाकों में 20 से 40 किलोग्राम नाइट्रोजन बोआई के समय 8-10 सैंटीमीटर तक गहराई में डालें. सिंचित हालत में नाइट्रोजन की आधी व फास्फोरस की पूरी मात्रा आखिरी जुताई के समय और बाकी बचा नाइट्रोजन पहली सिंचाई के बाद छिड़क कर दें.

लेकिन ध्यान रहे, ज्यादा नाइट्रोजन के इस्तेमाल से दानों से बनने वाले खाद्य व पेय पदार्थ, जैसे बीयर वगैरह की क्वालिटी पर बुरा असर पड़ता है. जस्ते की कमी वाली मिट्टियों में 10-15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर जिंक सल्फेट का इस्तेमाल बोआई से पहले करें.

मक्का : वैसे तो मक्का खरीफ की खास फसल है, लेकिन यह हमारे देश में रबी सीजन में भी खूब उगाई जाती है. खासकर उन इलाकों में, जहां पाला नहीं पड़ता है. मक्का की पैदावार में खाद व उर्वरक अहम रोल अदा करते हैं.

रबी में बोई गई मक्का में नाइट्रोजन की उपयोग कूवत खरीफ मक्का के मुकाबले ज्यादा होती है. आमतौर पर संकर व संकुल किस्मों में 120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस व 40 किलोग्राम पोटाश तत्त्व की प्रति हेक्टेयर जरूरत होती है और लोकल किस्मों में नाइट्रोजन की दर 40-60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है.

नाइट्रोजन की एकतिहाई व फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा को आखिरी जुताई के समय खेत में मिला दें. बाकी बचे नाइट्रोजन की मात्रा को 2 भागों में बांट कर पहली जब फसल घुटनों तक ऊंची हो जाए और दूसरी, नर मंजरी निकलने पर कतारों से 20 सैंटीमीटर की दूरी पर देना ज्यादा फायदेमंद होता है.

जिंक की कमी वाली मिट्टियों में 15 से 20 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर आखिरी जुताई के समय खेत में मिला दें या जिंक सल्फेट के 0.2 फीसदी घोल का एक हफ्ते के अंतर पर 2-3 बार खड़ी फसल पर छिड़काव करें.

गन्ना : मक्का की तरह गन्ना भी रबी सीजन में देश के कई इलाकों में बोया जाता है. इस की अच्छी पैदावार के लिए कंपोस्ट या सही गोबर की खाद 15 से 20 टन और 3-4 टन नीम की खली का पाउडर प्रति हेक्टेयर बोआई से तकरीबन 15 दिन पहले खेत में मिला दें. आमतौर पर इस को 120 से 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस व 60 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की जरूरत होती है.

नाइट्रोजन की आधी व फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा को बोआई से पहले कूंड़ों में डाल दें व बाकी बची नाइट्रोजन को 2 भागों में बांट कर कल्ले फूटते समय व कल्ले फूटने के 45 दिन बाद छिड़क कर दें.

पेड़ी की फसल में नौलख फसल के मुकाबले ज्यादा नाइट्रोजन की जरूरत होती है, क्योंकि पेड़ी गन्ने की जड़ कमजोर होने की वजह से इस को ज्यादा ले नहीं पाती है. इसलिए पेड़ी गन्ने में नाइट्रोजन की 25 फीसदी से ज्यादा मात्रा का इस्तेमाल करना चाहिए. नाइट्रोजन के लिए सामान्य मिट्टी में अमोनियम सल्फेट, क्षारीय मिट्टी में यूरिया व अम्लीय मिट्टी में 20 से 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट व 10 किलोग्राम सल्फर प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करना फायदेमंद होता है.

सरसों, तोरिया व राई : रबी सीजन में गेहूं के बाद सरसों, तोरिया व राई खास फसलें हैं. इन फसलों में तेल की क्वालिटी के लिए गंधक का इस्तेमाल बहुत जरूरी होता है. मैदानी इलाकों की सिंचित हलकी मिट्टियों में 120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस, 30 किलोग्राम पोटाश व 40 किलोग्राम गंधक, जबकि असिंचित मिट्टी में 40 से 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम गंधक का इस्तेमाल करना चाहिए. नाइट्रोजन की आधी व अन्य तत्त्वों की पूरी मात्रा को आखिरी जुताई के समय खेत में मिला दें व बाकी बचे नाइट्रोजन को बोआई के तकरीबन 40 दिन बाद छिड़क कर दें.

फास्फोरस व गंधक की उपलब्धता बढ़ाने के लिए बीजों को पीएसबी, थायोबेसिलस या फ्यूजेरियम स्पिसीज कल्चर से उपचारित करें व फास्फोरस उर्वरकों को पौधे के जड़ इलाके में दें.

उर्वरकों में अमोनियम सल्फेट व सिंगल सुपर फास्फेट का इस्तेमाल ज्यादा फायदेमंद होता है, क्योंकि ये नाइट्रोजन, फास्फोरस के साथ ही गंधक व कैल्सियम की भी भरपाई करते हैं.

गंधक की पूर्ति के लिए क्षारीय मिट्टी में गंधक या आयरन पाइराइट और गंधक की कमी वाली मिट्टियों में अमोनियम सल्फेट का इस्तेमाल फायदेमंद होता है.

यदि खरीफ की फसल में जिंक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं किया गया है, तो 10 से 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर का इस्तेमाल बोआई के समय करें. ऊसर मिट्टी में बोआई के समय ढाई क्विंटल जिप्सम का इस्तेमाल करने से जरूरी गंधक की पूर्ति हो जाती है. असम वगैरह राज्यों के सिंचित मैदानी भागों में 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस व 40 किलोग्राम पोटाश की मात्रा दें.

असिंचित पहाड़ी इलाकों में 65 किलोग्राम नाइट्रोजन व 35 किलोग्राम फासफोरस प्रति हेक्टेयर डालें. साथ ही, चूना 4-5 क्विंटल व बोरेक्स 5-10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बोने से 15 दिन पहले खेत में मिलाना फायदेमंद होता है.

आलू : आलू की फसल को दूसरी फसलों के मुकाबले पोषक तत्त्वों की ज्यादा मात्रा में जरूरत होती है. सामान्य मिट्टियों में खेत तैयार करते समय 25-30 टन गोबर की अच्छी तरह सड़ी हुई खाद व 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 100 किलोग्राम फास्फोरस व 100 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर जरूरत होती है. नाइट्रोजन की आधी, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा को खेत तैयार करते समय डालें व नाइट्रोजन की बाकी आधी मात्रा को मिट्टी चढ़ाते समय दें.

जलोढ़ मिट्टियों में 180-240 किलोग्राम नाइट्रोजन, 80 से 100 किलोग्राम फास्फोरस व 100 से 150 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करें.

पहाड़ी इलाकों की अम्लीय मिट्टियों में 150 से 180 किलोग्राम नाइट्रोजन, 150 से 180 किलोग्राम फासफोरस व 150 से 200 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करें.

अम्लीय मिट्टियों में कैल्सियम की उपलब्धता बढ़ाने के लिए 2.5 टन चूना प्रति हेक्टेयर का इस्तेमाल फायदेमंद होता है. नीम की खली 20 टन प्रति हेक्टेयर समावेश मिट्टी की भौतिक दशा सुधारने के साथ ही दीमक से भी बचाता है. डीएपी की जगह पर सिंगल सुपर फास्फेट का इस्तेमाल ज्यादा ठीक रहता है. जस्ते की पूर्ति के लिए 20 से 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट बोआई के समय कूंड़ों में डालें.

रबी में बोई जाने वाली दलहनी फसलों में चना, मटर, मसूर, राजमा खास फसलें हैं. इन फसलों की खासीयत यह होती है कि इन की जड़ों की ग्रंथियों में आबोहवा की नाइट्रोजन को इकट्ठा करने की कूवत होती है. इसलिए इन में नाइट्रोजन की जरूरत दूसरी फसलों के मुकाबले कम होती है.

नाइट्रोजन की उपलब्धता बढ़ाने के लिए जैव उर्वरक, जैसे राईजोबियम कल्चर का 150 से 200 ग्राम को समुचित पानी से प्रति 3-4 किलोग्राम बीज उपचारित कर के 10 मिनट तक छाया में सुखाने के बाद शाम के समय बोआई करनी चाहिए. जड़ग्रंथियों में राईजोबियम सूक्ष्मजीवों की सक्रियता बढ़ाने के लिए 1-1.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मोलिब्डेनम को आखिरी जुताई के समय मिलाएं.

मटर : मटर की फसल से ज्यादा पैदावार हासिल करने के लिए खेत की आखिरी जुताई के समय 20 टन गोबर की खाद या कंपोस्ट के साथ ही 25-30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50-60 किलोग्राम फास्फोरस व 40-45 किलोग्राम पोटाश की जरूरत होती है. नाइट्रोजन की आधी व फास्फोरस की पूरी मात्रा को बोआई से पहले अच्छी तरह मिट्टी में मिला दें. बाकी बचे नाइट्रोजन को 25-30 दिन बाद टौप ट्रैसिंग के रूप में देना चाहिए.

दलहनी फसलों में जस्ते की कमी का दूसरी फसलों के मुकाबले ज्यादा उलटा असर पड़ता है.

Rabiचना व चिकपी : सिंचित खेतों में गोबर की खाद या कंपोस्ट 4-5 टन और 15-20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20-60 किलोग्राम फास्फोरस व 20-25 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए. असिचिंत खेतों में देर से बोआई करने पर 2 फीसदी यूरिया व पोटैशियम क्लोराइड का छिड़काव फूल आने के समय करने पर पैदावार में बढ़ोतरी होती है. नाइट्रोजन व फास्फोरस की एकसाथ पूर्ति के लिए 100 से 150 किलोग्राम डीएपी व गंधक के लिए 100 किलोग्राम जिप्सम का इस्तेमाल सर्वोत्तम होता है. धान/चना फसल चक्र वाले इलाकों में जस्ता की कमी व जलाक्रांत इलाकों में लोहे की कमी पाई जाती है. ऐसे खेतों में 10-25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की मिट्टी में मिलाएं व 0.5 फीसदी आयरन सल्फेट के घोल का खड़ी फसल पर छिड़काव करें.

मसूर : सामान्य सिंचित मिट्टियों में 4-5 टन सड़ी गोबर की खाद या कंपोस्ट व 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश तत्त्व का प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करना चाहिए. असिंचित खेतों में इस की आधी मात्रा डालनी चाहिए. इस के साथ ही जस्ते की कमी को पूरा करने के लिए 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर बोआई से पहले खेत में डालें. जिन इलाकों में गंधक की कमी हो, वहां 2.5 क्विंटल जिप्सम प्रति हेक्टेयर का इस्तेमाल फायदेमंद होता है.

राजमा : इस में नाइट्रोजन की जरूरत दूसरी दलहनी फसलों के मुकाबले में काफी ज्यादा होती है. आमतौर पर 100 से 200 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 से 60 किलोग्राम फास्फोरस व 40 से 60 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर का इस्तेमाल करना चाहिए.

ऐसे बनाएं भरपूर कंपोस्ट

आज के सघन खेती के युग में जमीन की उपजाऊ शक्ति को बनाए रखने के लिए समन्वित तत्त्व प्रबंधन पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है. इस के तहत प्राकृतिक खादों का प्रयोग बढ़ रहा है. इन प्राकृतिक खादों में गोबर की खाद, कंपोस्ट और हरी खाद मुख्य है.

ये खाद मुख्य तत्त्वों के साथसाथ गौण तत्त्वों से भी भरपूर होती हैं. गोबर का प्रयोग ईंधन के रूप में (70 फीसदी) होने के कारण इस से बनी खाद कम मात्रा में उपलब्ध होती है. हरी खाद और अन्य खाद भी कम मात्रा में प्रयोग होती है, इसलिए जैविक पदार्थ का प्रयोग बढ़ाने के लिए खाद बनाने के लिए कंपोस्ट का तरीका अपनाना चाहिए.

कंपोस्ट बनाने के लिए फसलों के अवशेष, पशुशाला का कूड़ाकरकट के अलावा गांव व शहरी कूड़ाकरकरट वगैरह को एक बड़े से गड्ढे में गलाया और सड़ाया जाता है.

जरूरी सामग्री : फसल के अवशेष व कूड़ाकरकर 80 फीसदी, गोबर (10-15 दिन पुराना) 10 फीसदी, खेत की मिट्टी 10 फीसदी, ढकने के लिए पुरानी बोरी या पौलीथिन और पानी. इस के अलावा छायादार जगह पर या पेड़ के नीचे गड्ढा बनाएं.

Compostकंपोस्ट बनाने की विधि : कंपोस्ट बनाने के लिए गड्ढे की लंबाई 1 मीटर, चौड़ाई 1 मीटर और गहराई 1 मीटर होनी चाहिए. गड्ढे की लंबाई, चौड़ाई व गहराई फसल अवशेष पर भी निर्भर है.

* सब से नीचे 12-15 सैंटीमीटर मोटी भूसे की परत लगाते हैं.

* भूसे की परत के ऊपर 10-12 सैंटीमीटर मोटी गोबर की परत लगाई जाती है.

* गोबर की परत के ऊपर 30-45 सैंटीमीटर मोटी फसल अवशेष या कूड़ाकरकट की परत लगाते हैं.

* इस के ऊपर 3-4 सैंटीमीटर की मोटी मिट्टी की परत लगाई जाती है.

* सब से ऊपर 5-6 सैंटीमीटर की मोटी गोबर की परत लगाई जाती है.

* एक महीने के बाद इस को उलटपलट कर देते हैं.

* नमी की मात्रा सामग्री में 60-70 फीसदी होना जरूरी है.

* इस तरह कंपोस्ट 3 महीने में तैयार हो जाती है.

* इस कंपोस्ट में नाइट्रोजन 0.8 से 1.0 फीसदी, फास्फोरस

0.6-0.8 फीसदी और पोटाश 0.8-1.0 फीसदी होती है.

कंपोस्ट के इस्तेमाल से लाभ

* इस के इस्तेमाल से मिट्टी में जैविक पदार्थ की मात्रा में बढ़ोतरी होती है.

* जरूरी तत्त्वों की संतुलित मात्रा में उपलब्धि होती है.

* मिट्टी व पानी का संरक्षण अधिक होता है.

* पौधों की जड़ों के लिए उचित वातावरण बनता है और इन की बढ़ोतरी अच्छी होती है.

* फसल अवशेष का सदुपयोग होता है.

* पशुशाला के कूड़ेकरकट का उपयोग कंपोस्ट बनाने में इस्तेमाल होता है.

* यह एक प्रदूषणरहित प्रक्रिया है.

* कंपोस्ट खाद की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए रौक फास्फेट डाल कर फास्फोरसयुक्त कंपोस्ट भी बना सकते हैं.

फास्फोरसयुक्त खाद बनाने की विधि

घासफूस, खरपतवार, फसल अवशेष 400 किलोग्राम. पशुओं का गोबर 300 किलोग्राम. रौक फास्फेट 100-150 किलोग्राम.

* बताई गई सामग्री को फावड़े या कस्सी से अच्छी तरह मिलाएं और पानी से नमी की मात्रा 60-70 फीसदी तक रखें.

* इस मिश्रण को 4 फुट चौड़े, 10 फुट लंबे व 3 फुट गहरे गड्ढे में डालें.

* 20 दिन बाद मिश्रण को उलटपलट कर व जरूरत के मुताबिक पानी डालें. इस प्रक्रिया को 50 दिन बाद फिर दोहराएं.

* 90 दिन बाद जैविक खाद बन कर तैयार हो जाएगी. इस में 0.8 से 1.0 फीसदी नाइट्रोजन, 3-4 फीसदी फास्फोरस व 0.5 फीसदी पोटाश.

* इस तरह से तैयार 2 टन जैविक खाद 60 किलोग्राम फास्फोरस के बराबर होती है.

धान की पराली से जैविक खाद बनाएं 

हरियाणा में ज्यादातर किसान धान की पराली को आग लगा कर खत्म कर देते हैं. इस से कि हवा खराब हो जाती है और जमीन के लाभदायक जीवजंतु भी खत्म हो जाते हैं.

अगर किसान धान की पराली को इकट्ठा कर उस से खाद बनाएं और खेतों में 10 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालें तो इस से जमीन की उर्वरा शक्ति भी बढ़ेगी और नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की खाद भी कम मात्रा में डालनी पड़ेगी और किसान भाइयों को रासायनिक खाद की बचत भी होगी.

बनाने की विधि

* सब से पहले अपने खेत में धान की पराली को इकट्ठा करें, फिर 1,000 लिटर पानी में एक किलोग्राम यूरिया डाल कर घोल बनाएं और इस घोल में 10 ग्राम एसपरजीलस अवामोरी नामक फफूंद डालें जो कि सूक्ष्म जीव विज्ञान विभाग, चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार से मिल जाएगी.

* अब धान की पराली का एकएक गट्ठर उठाएं और घोल में 3 मिनट के लिए डुबो दें और फिर निकाल कर एक ढेर बनाते जाएं जो कि 1.5 मीटर चौड़ा, 1.5 मीटर ऊंचा हो और जिस की लंबाई पराली की मात्रा के मुताबिक रखी जा सकती है. इस तरह पराली का ढेर बनाने के बाद इसे मोटी पौलीथिन की शीट से ढक दें.

* ऊपर बनी धान की पराली के ढेर में पानी की मात्रा 60-70 फीसदी 3 महीने तक बनाए रखें, एक महीने के बाद धान की पराली को उलटपलट कर दें और फिर से पौलीथिन की शीट को ढक दें. तकरीबन 3 महीने में खाद बन कर तैयार हो जाएगी.

* इस विधि से तैयार 1 टन खाद में 12-14 किलोग्राम नाइट्रोजन, 6-7 किलोग्राम फास्फोरस और 19-22 किलोग्राम पोटाश होती है.

घरआँगन में सब्जियां

अच्छी सेहत के लिए खाने में रोजाना ताजा फलसब्जियां खानी चाहिए, पर तेजी से बढ़ती महंगाई की वजह से फल और सब्जियों के दाम भी आसमान छूने लगे हैं. इस के चलते हमारी खुराक में रोज फलसब्जियों की कमी होती जा रही है. बाजार में मिलने वाली सब्जियों व फलों में खतरनाक कैमिकलों व रंगों के इस्तेमाल की कहानी भी हमें आएदिन सुनने को मिलती है.

वैज्ञानिकों के मुताबिक, हमें पर्याप्त पोषण के लिए रोजाना 300 ग्राम सब्जियां खानी चाहिए, जबकि अभी हम महज 50 ग्राम सब्जियां ही ले पा रहे हैं. इस से बचने का सब से अच्छा उपाय है कि हम अपनी जरूरतों के मुताबिक कुछ फलसब्जियां खुद उगाएं. इस से न केवल सेहत सुधरेगी, बल्कि हमें बाजार के मुकाबले अच्छी और साफसुथरी फलसब्जियां भी खाने को मिलेंगी. तजरबों से यह बात साबित हो चुकी है कि पौधों के उगाने व उन की देखभाल करने से हमारा तनाव कम होता है और खुशी मिलती है.

बढ़ती हुई आबादी ने खेती की जमीन को काफी कम किया है. शहरों में तेजी से आबादी बढ़ी  है, जिस से लोगों के रहने की जगह में भी कमी होने लगी है. बहुमंजिला इमारतों व शहरी आवासों में फलसब्जियों को उगाने के लिए जरा भी जगह नहीं मिल पा रही है.

अब हमें गमलों, बालकनी, आंगन, बरामदा, लटकने वाली टोकरियों या घरों की छतों पर, जहां कहीं भी खुली धूप और हवा मिल सकती हो और पानी की सहूलियत हो, पौधे उगाने की तकनीक का सहारा लेना चाहिए. अगर आप ने थोड़ी सी भी सावधानी बरती, तो आसानी से कम जगह में पौधे उगा कर किचन गार्डन का आनंद उठा सकते हैं.

कैसी हो जगह : आप अपने घर या आसपास की कोई भी खाली जगह, जो खुली हो, का चुनाव कर सकते हैं. पौधों के लिए सुबह की धूप बहुत जरूरी होती है. साथ ही, उस जगह पर पानी देने और ज्यादा पानी को निकालने की सहूलियत होनी चाहिए. ऐसी जगहों में घर के आंगन, छत, बालकनी, खिड़कियों के किनारे वगैरह शामिल हो सकते हैं.

पौधे लगाने की तैयारी : अगर पौधों को छत पर सीधे लगाना है, तो मिट्टी की परत 25-30 सैंटीमीटर मोटी होनी चाहिए.

छत पर मिट्टी डालने से पहले नीचे पौलीथिन की मोटी तह बना कर चारों ओर ईंटों से दबा दें, ताकि पानी और सीलन से छत महफूज रहे. उपजाऊ मिट्टी में सड़ी गोबर की खाद व बालू मिला कर अच्छी तरह तह बना दें.

Home Gardenगमलों में पौधे लगाने के लिए : पौधों के आकार व फसल के मुताबिक ही गमलों के आकार का चुनाव किया जाना चाहिए. पपीते जैसे बड़े पौधों के लिए कम से कम 75 सैंटीमीटर ऊंचे और 45 सैंटीमीटर चौड़े ड्रम को इस्तेमाल में लाना चाहिए. टमाटर, मिर्च जैसे पौधों के लिए 30×45 सैंटीमीटर आकार वाले मिट्टी के गमले अच्छे होते हैं.

सीमेंट या प्लास्टिक के गमलों से बचना चाहिए. गमलों के अलावा लकड़ी या स्टील के चौड़े बौक्स, ड्रम, प्लास्टिक के बड़े डब्बे या जूट की छोटी बोरियों में मिट्टी भर कर भी पौधों को लगाया जा सकता है.

मिट्टी डालने से पहले गमले या डब्बों में नीचे की सतह पर छेद बना कर पत्थर के टुकड़ों से ढक देना चाहिए. पौध लगाने से पहले हमें मिट्टी में सड़ी गोबर की खाद व बालू, मिट्टी के बराबर अनुपात में मिला कर भर लेना चाहिए. नीम की खली, पत्ती व जानवरों की खाद या वर्मी कंपोस्ट का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

पौधों का चुनाव : छत पर बगिया में पौधे लगाते समय मौसम, धूप व जगह वगैरह पर खासा ध्यान दिया जाना चाहिए. कम धूप वाली जगह या छायादार जगह पर पत्तीदार व जड़ वाली सब्जियां जैसे पालक, धनिया, पुदीना, मेथी, मूली वगैरह लगाई जा सकती है, जबकि फल देने वाले पौधे जैसे टमाटर, बैगन, मिर्च, शिमला मिर्च, सेम, स्ट्राबेरी, पपीता, केला, रसभरी और नीबू खुले व अच्छी धूप वाली जगह में लगाए जाने चाहिए. छत या गमलों के लिए फसलों की खास किस्मों का चुनाव करना चाहिए.

देखभाल : शुरू में पौधों को एकदूसरे के नजदीक लगाना चाहिए और बाद में घने पौधों में उचित दूरी बनाने के लिए बीच से कमजोर और बीमार पौधों को निकाल देना चाहिए.

बेल या फैलने वाले पौधों जैसे लौकी, तुरई, करेला, सेम वगैरह को सहारा दे कर ऊपर या दीवार पर चढ़ाना चाहिए. टमाटर, बैगन, मिर्च को भी सहारा दे कर ऊपर ले जाना चाहिए और पौधों को नीचे फैलने से रोकना चाहिए. समयसमय पर पौधों में हलका पानी देते रहना चाहिए.

छत पर व गमलों में पौधों का रंग पीला पड़ना एक आम समस्या है. अकसर धूप की कमी और पानी की अधिकता से पौधे पीले पड़ते हैं. अगर गमलों में उग रहे पौधों को पर्याप्त धूप न मिल रही हो, तो उन्हें दिन में खुली धूप में रखें. बाद में उन्हें अंदर करें.

पौधों की खुराक के लिए वर्मी कंपोस्ट, जैविक खाद, गोबर की खाद वगैरह को समयसमय पर पौधों में डालते रहें या फिर उसे मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें. अच्छे पोषण के लिए पानी में घुलने वाले एनपीके की उचित मात्रा भी दी जा सकती है.

सरकारी नौकरी छोड़  किसानी से कमाए लाखों

जैविक खेती की दौड़ में  नौकरीपेशा भी कूद पड़े हैं. नए तौरतरीकों से इन किसानों ने न केवल खेती शुरू की, बल्कि आमदनी भी अच्छीखासी कर रहे हैं. यह एक ऐसे नौकरीपेशा किसान की कहानी है, जिस ने हिस्से में आए जमीन के छोटे से टुकड़े को ही अपनी आजीविका का साधन बना लिया.

बात मध्य प्रदेश के सतना जिले के महज 700 की आबादी वाले गांव पोइंधाकला की है. यहां के किसान अभयराज सिंह ने परिवार की चिंता किए बिना 17 साल पहले सहकारी समिति की सरकारी नौकरी छोड़ दी. बंटवारे में आई एक हेक्टेयर जमीन को इस लायक बनाया कि इस में अनाज या फिर फलदार पौधे उग सकें.

वे बताते हैं कि सहकारी समिति में सेल्समैन की नौकरी करते समय उचित मूल्य की 5 दुकानों का जिम्मा था. इस के बाद भी तनख्वाह वही 15,000 रुपए, इस से पत्नी और 2 बच्चों का गुजारा ही चल पा रहा था. उन्हें आगे कोई भविष्य नहीं दिखाई दे रहा था. सो, साल 2005 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी. बंटवारे में मिली जमीन में फलों की खेती शुरू की.

पारिवारिक बंटवारे में मिली 0.72 हेक्टेयर की छोटी सी जमीन में पपीते लगाए. साथ ही, सब्जियां भी. पर पपीते ने दूसरे साल ही साथ छोड़ दिया. इस में चुर्रामुर्रा रोग लग गया था. इस रोग के कारण पत्तियां सूख गईं और फल नहीं आए.

50 रुपए में लाए थे पौधे

Lemonअभयराज सिंह बताते हैं कि साल 2008 में उन्होंने नीबू के महज 20 पौधे लगाए थे. आज 300 पेड़ हैं. तब उन के महज 50 रुपए ही खर्च हुए थे. नीबू का पेड़ तैयार होने में तकरीबन 3 साल लग जाते हैं, इसलिए इंटरक्रौपिंग के लिए गन्ना भी लगा दिया था. इस से यह फायदा हुआ कि परिवार के सामने भरणपोषण का संकट नहीं आया. जब नीबू के पेड़ तैयार हो गए, तो इंटरक्रौपिंग बंद कर दी. उन 20 पेड़ों से तब तकरीबन 25,000 से 30,000 रुपए कमाए थे.

बिना ट्रेनिंग तैयार किया 300 पेड़ों का बगीचा

अभयराज सिंह कहते हैं कि नीबू एक ऐसा पेड़ है, जिसे बाहरी जानवरों और पक्षियों से कोई खतरा नहीं है. चिडि़या भी आ कर बैठ जाती हैं, पर कभी चोंच नहीं मारती हैं. गांव के आसपास भी आम के बगीचे हैं, जिन में बंदर भी आते हैं. इस से पपीता, गन्ना और हरी सब्जियों को खतरा रहता है, पर नीबू को छूते तक नहीं हैं, इसलिए खेती करना आसान हुआ.

आज पूरा बाग तैयार है. यहां जितने पेड़ हैं, कलम विधि से तैयार किए गए हैं. यह काम भी उन्होंने खुद किया है. इस के लिए कोई ट्रेनिंग नहीं ली है.

साल में 2-3 लाख की आमदनी

सालाना उत्पादन के बारे में अभयराज सिंह बताते हैं कि नीबू के एक पेड़ में 3,000 से 4,000  फल आते हैं. इस हिसाब से 300 पेड़ों में तकरीबन एक लाख नीबू आते हैं. उन की अगर एक रुपए भी कीमत लगाई जाए, तो एक लाख रुपए होती है.

वे यह भी बताते हैं कि गांव से तकरीबन 16 किलोमीटर दूर सतना शहर है, जहां वे अपनी उपज बेचते हैं. खुली मंडियों की जगह शहर के 6 होटलों और इतने ही ढाबों में सप्लाई है. यहां पैसा फंसने की गुंजाइश कम है, इसलिए ज्यादातर होटलों और ढाबों को ही नीबू सप्लाई करते हैं. इस के अलावा दुकान वाले भी डिमांड करते हैं. इस से तकरीबन सालभर सप्लाई जारी रहती है.

इंटरक्रौपिंग भी अपनाई

नौकरी छोड़ किसानी से आजीविका चलाने के लिए अभयराज सिंह के पास यही एकमात्र जमीन है, इस के अलावा कुछ नहीं. वे आय बढ़ाने के लिए इंटरक्रौपिंग का सहारा ले रहे हैं. नीबू से बची क्यारियों में केला, अमरूद के पेड़ तैयार कर रहे हैं. केला और अमरूद तैयार भी हैं. इस के अलावा हलदी, शहतूत, बरसीम आदि भी हैं, जिस से रोजमर्रा के खर्चों के लिए कोई दिक्कत नहीं आती.

प्राकृतिक खेती पर प्रशिक्षण

उदयपुर : 4 नवंबर, 2023. महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के अनुसंधान निदेशालय में संस्थागत विकास कार्यक्रम के अंतर्गत ‘‘प्राकृतिक खेती से स्थायित्व कृषि एवं पारिस्थितिकी संतुलन” पर 2 दिवसीय प्रशिक्षण का समापन हुआ. इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में डा. एसके शर्मा, सहायक महानिदेशक, मानव संसाधन, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली ने अपने उद्बोधन में कहा कि प्राकृतिक कृषि की महत्ता को देखते हुए प्राकृतिक खेती पर स्नातक छात्रों के लिए विशेष पाठ्यक्रम पूरे राष्ट्र में आरंभ किया जा रहा है.

उन्होंने आगे कहा कि प्राकृतिक खेती से मृदा स्वास्थ्य एवं पारिस्थितिकी संतुलन अच्छा रहेगा, जिस से कृषि में स्थायित्व आएगा. इस के लिए सभी विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों, शिक्षकों, विषय विशेषज्ञों एवं विद्यार्थियों के लिए प्रशिक्षण आयोजित किए जा रहे हैं.

उन्होंने यह भी बताया कि महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय का प्राकृतिक खेती में वृहद अनुसंधान कार्य एवं अनुभव होने के कारण यह विशेष दायित्व विश्वविद्यालय को दिया गया है.

विदित है कि राजस्थान कृषि महाविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए गोविंद वल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के सस्य विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष एवं आचार्य डा. महेंद्र सिंह पाल ने विद्यार्थियों को प्राकृतिक कृषि में सस्य क्रियाएं एवं प्राकृतिक खेती के उद्देश्य दृष्टि एवं सिद्धांत पर अपना उद्बोधन दिया.

प्राकृतिक खेती के विषय में पूरे विश्व की दृष्टि भारत की ओर है. ऐसे में पूरे विश्व से वैज्ञानिक एवं शिक्षक प्रशिक्षण के लिए भारत आ रहे हैं. ऐसे में हमारा नैतिक दायित्व बनता है कि हम उत्कृष्ट श्रेणी के प्रशिक्षण आयोजित करें.

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि डा. पीके सिंह, परियोजना प्रभारी आईडीपी, नाहेप ने रसायनों के अविवेकपूर्ण उपयोग से होने वाली आर्थिक, पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य को होने वाली हानियों के बारें में बताया.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि सभी को खाद्य सुरक्षा प्रदान करना एवं प्रकृति व पारिस्थितिक कारकों को कृषि में समावेश कर के ही पूरे कृषि तंत्र को ‘‘शुद्ध कृषि’’ में रूपांतरित किया जा सकता है.

डा. पीके सिंह ने कहा कि प्राकृतिक खेती को अपनाने के साथसाथ हमें बढ़ती आबादी के लिए पर्याप्त खाद्य उत्पादन को दृष्टि में रखना चाहिए.

Organic Farmingडा. एसएस शर्मा, अधिष्ठाता, राजस्थान कृषि महाविद्यालय, उदयपुर ने कहा कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने प्राकृतिक खेती के महत्व को देखते हुए एवं इसे कृषि में स्थापित करने के लिए पाठ्यक्रम का निर्माण किया गया है, जिसे पूरे राष्ट्र में प्राकृतिक कृषि का 180 क्रेडिट का पाठ्यक्रम स्नातक विद्यार्थियों को पढ़ाया जाएगा.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि प्राकृतिक खेती को सफल रूप में प्रचारित व प्रसारित करने के लिए सब से पहले जरूरत है कि इस की गूढ़ जानकारी को स्पष्ट रूप से अर्जित किया जा सके, अन्यथा जानकारी के अभाव में प्राकृतिक खेती को सफल रूप से लागू करना असंभव होगा.

डा. एसएस शर्मा ने बताया कि इस प्राकृतिक खेती के पाठ्यक्रम के द्वारा स्नातक छात्र तैयार होंगे, जो किसानों तक इसे सही रूप में प्रचारित करेंगे.

उन्होंने प्राकृतिक खेती पर विभिन्न अनुसंधान परियोजनाएं चालू करने की आवश्यकता पर जोर दिया, वहीं डा. अरविंद वर्मा, निदेशक अनुसंधान एवं कोर्स डायरेक्टर ने अतिथियों का स्वागत किया. साथ ही, प्राकृतिक खेती एवं जैविक खेती के बारे में विद्यार्थियों को विस्तृत रूप से बताया.

डा. अरविंद वर्मा ने विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए कहा कि प्राकृतिक खेती में प्रक्षेत्र पर उपलब्ध संसाधनों का पूर्ण उपयोग किया जाता है, जबकि जैविक खेती में रसायनमुक्त जैविक पदार्थों का बाहर से समावेश किया जा सकता है. उन्होंने बताया कि प्राकृतिक खेती में जीवामृत एवं बीजामृत के साथ नीमास्त्र एवं ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया जाता है.