इसबगोल की जैविक खेती

इसबगोल एक महत्त्वपूर्ण नकदी व औषधीय फसल है. इसबगोल को स्थानीय भाषा में घोड़ा जीरा भी कहते हैं. विश्व की कुल पैदावार की 80 फीसदी इसबगोल की पैदावार भारत में होती है. इस की खेती मुख्य रूप से राजस्थान व गुजरात में की जाती है. इसबगोल को मुख्यतया दानों के लिए उगाया जाता है, पर इस का कीमती भाग इस के दानों पर पाई जाने वाली भूसी है, जिस की मात्रा बीज के भार की 27-30 फीसदी तक होती है.

इसबगोल के भूसी रहित बीजों का इस्तेमाल पशुओं व मुरगियों के लिए आहार बनाने में किया जाता है.

साथ ही, इसबगोल का इस्तेमाल आयुर्वेदिक, यूनानी और एलोपैथिक इलाजों में किया जाता है. इस के अलावा इस का इस्तेमाल रंगाईछपाई, आइसक्रीम, ब्रेड, चौकलेट, गोंद और सौंदर्य प्रसाधन उद्योगों में भी होता है.

उन्नत किस्में

आरआई 89 : यह किस्म राजस्थान की पहली उन्नत किस्म है. इस के पौधों की ऊंचाई 30-40 सैंटीमीटर होती है. यह 110-115 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की उपज 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरआई 1 : सूखे और कम सूखे इलाकों के लिए मुनासिब इस किस्म के पौधों की ऊंचाई 29-47 सैंटीमीटर होती है. यह 115-120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 12-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

जलवायु व जमीन

इसबगोल के लिए ठंडी व शुष्क जलवायु अच्छी मानी जाती है. बीजों के अच्छे अंकुरण के लिए 20-25 डिगरी सैल्सियस के बीच का तापमान अच्छा माना जाता है. इस के पकने की अवस्था पर साफ, सूखा व धूप वाला मौसम बहुत अच्छा रहता है. पकाव के समय बारिश होने पर इस के बीज सड़ने लगते हैं और बीजों का छिलका फूल जाता है. इस से इस की पैदावार व गुणवत्ता में कमी आ जाती है. इस की खेती के लिए दोमट, बलुई मिट्टी, जिस में पानी के निकलने की अच्छी व्यवस्था हो, अच्छी रहती है.

खेत की तैयारी

खरीफ फसल की कटाई के बाद खेत की 2-3 बार जुताई कर के मिट्टी को भुरभुरी बनाएं और फसल से ज्यादा पैदावार लेने के लिए 5-6 टन सड़ी गोबर की खाद या 3 टन सड़ी देशी खाद व फसल के अवशेष 3 टन प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलाएं. जैव उर्वरकों के रूप में 5 किलोग्राम पीएसबी व 5 किलोग्राम एजोटोबेक्टर प्रति हेक्टेयर की दर से 100 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद में मिला कर खेत में डालें.

बीज दर व बोआई

इसबगोल का बीज बहुत छोटा होता है. इसे क्यारियों में छिटक कर मिट्टी में मिलाना चाहिए. इस के फौरन बाद सिंचाई कर देनी चाहिए. इस प्रकार छिटक कर बोआई करने के लिए 4-5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है.

बीजोपचार : इसबगोल की जैविक खेती के तहत फसल को तुलासिया रोग से बचाने के लिए बीजों में नीम, धतूरा व आक की सूखी मिश्रित पत्तियों (1:1:1) से बना पाउडर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से मिलाएं.

Isabgolखरपतवारों की रोकथाम

इसबगोल में 2-3 निराइयों की जरूरत होती है. पहली निराई बोआई के तकरीबन 20 दिनों बाद व दूसरी निराई 40-45 दिनों बाद कर के फसल को खरपतवारों से बचाएं. इस से तुलासिया रोग का हमला भी कम होता है.

सिंचाई

इसबगोल में बोआई के समय, उस के 8 दिनों, 30 दिनों व 65 दिनों बाद सिंचाई करने से अच्छी उपज हासिल होती है.

इसबगोल की फसल में क्यारी विधि के बजाय फव्वारा विधि द्वारा 6 सिंचाइयां (बोआई के समय और 8, 20, 40, 55 व 70 दिनों बाद) करने से अच्छी उपज मिलती है.

कीट व रोग

रोगग्रस्त फसल के अवशेषों को खेत से बाहर कर के नष्ट कर देना चाहिए. गरमी में गहरी जुताई कर के खेत खाली छोड़ें. फसल चक्र अपनाएं यानी बारबार एक ही खेत में इसबगोल की खेती न करें. स्वस्थ, प्रमाणित व रोगरोधी किस्मों का चयन करें.

खेत में इस्तेमाल की जाने वाली गोबर की खाद अच्छी तरह से सड़ी हुई होनी चाहिए. खेत में ट्राइकोडर्मा कल्चर 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की अंतिम जुताई के समय मिलाएं. इसबगोल की जैविक खेती में नीम, धतूरा, आक की सूखी पत्तियों के पाउडर को 1:1:1 के अनुपात में मिला कर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें.

फसल को रोगों व मोयले से बचाने के लिए 12 पीले चिपचिपे पाश यानी फैरोमौन ट्रैप प्रति हेक्टेयर लगाएं. दीमक से बचाव के लिए जमीन में बेवेरिया बेसियाना या मोटाराइजियम (मित्र फफूंद) 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मिलाएं. पर्णीय छिड़काव के रूप में नीम की पत्तियों का अर्क, धतूरा (10 फीसदी) व गौमूत्र (10 फीसदी) का इस्तेमाल मृदरोमिल आसिता और मोयले की रोकथाम के लिए करें. जरूरत के मुताबिक दोबारा छिड़काव करें.

कटाई, मड़ाई व ओसाई

इसबगोल में 25 से 125 तक कल्ले निकलते हैं. पौधों में 60 दिनों बाद बालियां निकलना शुरू होती हैं. तकरीबन 115-130 दिनों में फसल पक कर तैयार हो जाती है.

फसल पकने पर सुनहरी पीली बालियां गुलाबीभूरी हो जाती हैं और बालियों को दबाने पर दाने बाहर आ जाते हैं.

Isabgolफसल के पूरी तरह पकने के 1-2 दिन पहले ही फसल को काट लेना चाहिए. कटाई सुबह के समय करें, जिस से बीजों के बिखरने का डर न रहे. कटी हुई फसल को 2-3 दिन खलिहान में सुखा कर जीरे की तरह झड़का लें व निकले हुए बीजों की सफाई कर के व सुखा कर बोरियों में भर कर सूखी व ठंडी जगह पर भंडारण करें.

उपज व उपयोगी भाग

इसबगोल की औसत उपज 9-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. इस की भूसी की मात्रा बीज के भार की 30 फीसदी होती है, जो सब से कीमती व उपयोगी भाग है. बाकी 65 फीसदी गोली, 3 फीसदी खली और 2 फीसदी खारी होती है. भूसी के अलावा सभी भाग जानवरों को खिलाने के काम आते हैं.

बड़े काम की खेती की मशीनें

पशु ताकत का इस्तेमाल खेती के कामों में दिनोंदिन कम हो रहा है, जिस के चलते इंजन, ट्रैक्टर, पावर टिलर व मोटरों का इस्तेमाल बढ़ रहा है, लेकिन ऐसा कहना ठीक होगा कि देश में सभी पावर साधनों का इस्तेमाल होता रहेगा.

खेती की मशीनों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए एक लंबी योजना तैयार कर के उसे लागू करना होगा. मौजूदा संसाधनों व सामाजिक और माली हालात को ध्यान में रखते हुए छोटे किसानों को सही फार्म मशीनरी के चुनाव पर ज्यादा बल देना होगा. देश के ज्यादातर किसान छोटे किसानों की कैटीगरी में आते हैं, जो ज्यादा पावर वाले व कीमती ट्रैक्टरों को नहीं खरीद सकते.

अगर बीज की बोआई और रोपाई वैज्ञानिक तरीके से की जाए तो पैदावार में औसतन 15 फीसदी की बढ़वार होती है. अगर खरपतवार की रोकथाम, कटाईमड़ाई, सिंचाई और धान या गेहूं व दलहनी फसलों की मड़ाई में वैज्ञानिक तकरीकों को अपनाया जाए तो पैदावार में काफी बढ़ोतरी हो सकती है.

मशीनीकरण व पावर के इस्तेमाल से पैदावार का सीधा संबंध है. भारतीय खेती में पशु पावर और खेतिहर मजदूर शामिल हैं. फिर भी छोटे व मध्यम दर्जे के किसानों के लिए यह पावर पूरी नहीं है. अगर प्रति हेक्टेयर मुहैया पावर को देखा जाए तो विकसित देशों के मुकाबले अभी भी हम काफी पिछड़े हुए हैं.

आधुनिक फार्म मशीनरी के इस्तेमाल से ज्यादातर खेतों से साल में कम से कम 2 फसलें लेना मुमकिन हो गया है. इस के साथसाथ बढि़या मशीनों, बीज व खाद को सही गहराई और दूरी पर डाल कर किसान पैदावार बढ़ाने में काबिल हो सकते हैं. प्रसार व ट्रेनिंग की कमी से किसानों में खेती की मशीनों के प्रति जानकारी की कमी, समय पर बैंकों से लोन हासिल न होना और अच्छी फार्म मशीनरी का समय पर मुहैया न होना वगैरह कुछ ऐसी वजहें हैं, जिन से फार्म मशीनरी का फायदा किसानों को नहीं मिल पा रहा है.

खेती में मशीनों की बढ़ती हुई मांग को देखते हुए ज्यादातर मशीनरी बनाने वाले किसानों को अच्छे ट्रैक्टर व फार्म मशीनरी मुहैया कराने में मददगार हो रहे हैं. किसानों के लिए आधुनिक फार्म मशीनरी मुहैया कराने व मशीनों की मरम्मत व देखभाल की सुविधा देने के लिए पूरे देश में ग्रामीण कारीगर हैं. इन ग्रामीण कारीगरों को मरम्मत की आधुनिकतम सुविधा मुहैया कराने की जरूरत है.

खेती की पैदावार बढि़या मशीनों से कई गुना बढ़ाई जा सकती है जो ताकत का जरीया, अच्छे काम, काम करने वाले की थकान में कमी को ध्यान में रख कर मुमकिन हो सकता है. बहुत सी सरकारी व प्राइवेट कंपनियां और विश्वविद्यालय लगातार फार्म मशीनरी में सुधार का काम कर रहे हैं जो कि इनसानी थकान को कम व भविष्य में खेती के काम को पूरी तरह मशीनी तरीके से करने के लिए प्रतिबद्ध हैं.

बढि़या मशीनों द्वारा कम समय, पैसा, मेहनत और ऊर्जा का इस्तेमाल कर असरदार तरीके से कम थकान व बिना किसी नुकसान के खेती के काम को अंजाम दिया जा सकता है.

Machineहालांकि किसान बढि़या बीज, खाद, फसल हिफाजत के तरीके, सिंचाई व ताकत का इस्तेमाल कर के पैदावार को बढ़ा रहे हैं, लेकिन अभी भी खेती की मशीनों का इस्तेमाल जानकारी की कमी में कम ही कर रहे हैं. नई व बढि़या मशीनों का इस्तेमाल कर के फसलों की पैदावार को काफी तक बढ़ाया जा सकता है.

हमारे देश में खेत छोटेछोटे हैं. खेतों का आकार छोेटा होने की वजह से किसान बड़ीबड़ी व ज्यादा कीमती मशीनें खरीदने और उन का इस्तेमाल करने में नाकाम हैं.

फार्म मशीनरी का इस्तेमाल खेत और दूसरी बातों पर निर्भर करता है. बीज, खाद व कैमिकल बहुत ही खर्चीले तरीके हैं, जिन का इस्तेमाल कर के पैदावार ज्यादा की जाती है.

इस बात को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी हो गया है कि सुधरे व विकसित फार्म मशीनरी का इस्तेमाल किया जाए जो कि बीजों की बोआई की दर पर जरूरत के मुताबिक कंट्रोल व खेत में बोआई समय से करें.

इनसान व पशु पावर स्रोत पर निर्भरता को कम करने के लिए यह जरूरी है कि खेती के कामों को पूरा करने के लिए आधुनिक फार्म मशीनरी का इस्तेमाल किया जाए.

साल 2000-01 में पशु पावर 16.38 फीसदी तक कम हुई व मशीनी पावर में 83.62 की बढ़ोतरी साल 1971-72 के मुकाबले में हुई है. प्रति हेक्टेयर खेती के मजदूरों की संख्या में 0.82-1.44 फीसदी की बढ़वार हुई है, लेकिन फिर भी प्रति हेक्टेयर खेती के मजदूरों की प्रति घंटे पिछले सालों में कई फसलों के लिए कमी पाई गई है.

यह अनुमानित किया गया है कि कुल ऊर्जा का 66-80 फीसदी हिस्सा ग्रामीण इलाकोें में घरों की देखभाल और 16-25 फीसदी खेती उत्पादन में इस्तेमाल होता है.

बिजली विभाग ने कुल बिजली का तकरीबन 85 फीसदी गांवों को मुहैया किया है. खेती में मशीनीकरण का हिस्सा तकरीबन 9-10 फीसदी तक है. खेती हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है जो कि कुल पैदावार का तकरीबन 25 फीसदी है.

पिछले 10 दशकों में फार्म मशीनरी का इस्तेमाल बहुत ही ज्यादा हुआ है. आज के समय में तकरीबन 126 लाख से अधिक ट्रैक्टर, लगभग 9650 कंबाइन, 38.8 लाख से अधिक थ्रेशर व 168 लाख से अधिक सिंचाई के पंप हैं. फार्म मशीनरी कई खेती के कामों जैसे जुताई, बोआई, फसल हिफाजत व गहाई, जोकि तकरीबन 41 फीसदी, 30 फीसदी, 35 फीसदी तक हर किसी के लिए है.

इन बातों को ध्यान में रखते हुए यह बहुत जरूरी है कि बढि़या फार्म मशीनरी को गंवई इलाके में खेती के कामों के लिए इस्तेमाल किया जाए, जिस से उत्पादकता को ज्यादा व फसलों की पैदावार में लगने वाले माली बजट को कम किया जाए.

सरकार द्वारा छोटे और मध्यम कैटीगरी के फार्म मशीनरी बनाने वाले को काफी सुविधाएं दी जा रही हैं. कईर् निर्माता किसानों के लिए ट्रेनिंग का भी प्रावधान रखते हैं, जिस से किसानों को फार्म मशीनरी के इस्तेमाल, देखभाल और मरम्मत की जानकारी हो सके.

सांप हमारे मित्र भी हैं

राजस्थान के जोधपुर जिले के वाइल्ड लाइफर शरद पुरोहित सांपों के व्यवहार के बारे में बताते हैं, ‘‘ मुझे बचपन से ही सांपों ने अपनी ओर आकर्षित किया. मैं ने हमेशा ही इन्हें असहाय पाया. सांपों के कहीं भी दिखाई दे जाने पर इन्हें मार दिए जाने की परंपरा ने मुझे भीतर तक झंझोर दियाहै. उन की इसी अनदेखी के चलते न जाने कब मेरा स्वाभाविक स्नेह इन्हें जिंदगी देने की वजह बन गया.’’

दुनियाभर में सांपों की 3,400 प्रजातियां हैं. इन में से तकरीबन 2,000 तो भारत में ही पाई जाती हैं. चूंकि मेरे काम का क्षेत्र पश्चिमी राजस्थान है, इसलिए मैं ने यहीं पाई जाने वाली प्रजातियों पर ज्यादा काम किया है. तकरीबन 25 ऐसी प्रजातियां हैं, जो राजस्थान में मिल जाती हैं. इन में से कुछ ही सांप जहरीले और घातक होते हैं.

आम लोगों की जिंदगी और किसानों के लिए सांपों का होना क्यों जरूरी है? जैव संतुलन में चूहे इनसानी जिंदगी में सब से बड़े घाटे का सौदा हैं. वे हमारे सब से बड़े दुश्मन हैं. ये चूहे हर साल खाद्यान्न का एक बड़ा हिस्सा चट कर जाते हैं. सांप इन चूहों के सब से बड़े दुश्मन हैं, इसलिए सांपों का सरंक्षण किया जाना बेहद जरूरी है.

सांपों की प्रजातियों में 3 सांप ऐसे भी हैं, जो हमारे लिए घातक हैं, वह भी मुठभेड़ हो जाने पर या छू लेने भर से, वरना खुद से हमला करना इन की फितरत नहीं.

मेरा अनुभव कहता है कि हमारी असावधानी से ही हमारी जानें जाती हैं. कोबरा, करैत, वाइपर ये कुछ ऐसे सांप हैं, जिन से हमारी जान जोखिम में पड़ सकती है.

कोबरा

यह सांप हमारे घरों के आसपास रहना ज्यादा पसंद करता है. यह बहुत ही समझदार  होता है. पहले तो यह हमें सचेत करता है. एकदम हमला नहीं करता. हमारे द्वारा दूरी बनाए रहने तक हम से दूर जाने की कोशिश करता है.

करैत

यह सांप बहुत ही घातक है. अकसर रात को निकलने वाला यह सांप ठंडक से बचने के लिए इनसानी इलाकों के नजदीक चला आता है और नींद में सोए हुए बेकुसूर लोग इस का शिकार बनते हैं. इस के दंश यानी काटने के निशान बहुत सूक्ष्म होते हैं. इस वजह से इस की पहचान बड़ी मुश्किल से हो पाती है.

लोगों में एक गलतफहमी है कि एक पीवणा सांप भी होता है, उस का जिम्मेदार भी यही होता है, लेकिन यह भी बिना छेड़े, हम से दूर भागना पसंद करता है.

वाइपर

इस सांप को शुष्क इलाकों का राजा कहते हैं. यह घातक और विषैला सांप है. यह सांप छोटीछोटी झाड़ियों और मिट्टी में रहना ज्यादा पसंद करता है. करीब जाने पर यह फुंफकारता है. इस की फुंफकार बहुत डरावनी होती है. आम आदमी इसे सुनते ही दूर हट जाता है.

इस की खराबी या अवगुण यह है कि यह बिना छेड़े ही हम पर हमला कर सकता है. इस से दूर रहना ही बचाव है. आम भाषा में इसे ‘भांडी’ यानी ‘पूंछ कटी’ भी कहते हैं.

वाइपर चूहों का बड़ा शिकारी है. जैसलमेर और बाड़मेर जैसे सीमांत इलाकों में इस के डसने की सब से ज्यादा खबरें मिलती हैं.

शहरी इलाकों में है इन का राज

शहरी इलाकों या पुराने शहरी इलाकों में ‘सैंड बोआ’, ‘ग्लोसी बेलिड’, ‘अर्थ बोआ’, ‘वर्मस्नेक’, ‘कोबरा’ जैसे सांप सब से ज्यादा पाए जाते हैं, जो बरसात के दिनों में ज्यादा सक्रिय दिखते हैं.

गांवों और कसबों में बसे खेतों की बात करें, तो ‘सिंड अवल हैडेड’, ‘रैड स्पाटेड’, ‘ब्लैक हैडेड रौयल स्नेक’, ‘एफ्रो एशियन सैंड स्नेक’, ‘कैट स्नेक’, ‘रैट स्नेक’, ‘वुल्फ स्नेक’ जैसे सांप अधिक मिलते हैं.

तो बचाव किस तरह हो

सर्प व्यवहार विशेषज्ञ शरद पुरोहित बताते हैं कि हम क्या करें, जब ये हमारे सामने हों. ऐसे सवाल अकसर ही पूछे जाते हैं. मेरा जवाब होता है, बस अपनी नजरें उन पर जमाए रहें. अगर ये खुली जगह पर हैं तो खुद ही चले जाएंगे और यदि घर में निकल आए हैं तो आप का फर्ज बनता है, कि बिना कोई हलचल किए, बहादुरी दिखाने की कोशिश किए बगैर किसी माहिर सांप विशेषज्ञ की मदद ले कर इन का पुनर्वास सुनिश्चित किया जाए.

इन को भूल कर भी बिना पहचान किए छूने की कोशिश से बचें. लाठी, चिमटा, टोंग वगैरह से प्रहार इन के लिए घातक साबित हो सकता है, ये जितने ताकतवर दिखाई पड़ते हैं, उस से ज्यादा कमजोर इन की हड्डियां और सिर होते हैं. रैस्क्यू के बाद ये जी नहीं पाते, यथासंभव प्रबंधन होना चाहिए, हैंडलिंग बिलकुल भी न करें.

कुछ इलाकों में इन्हें देखते ही मार देने का रिवाज है. मेरा मानना है, चूंकि यह किसानों के परम मित्र हैं, इन्हें सम्मान दिया जाना जरूरी है. ये हमारे जीने की वजह हैं, हमारी जिंदगी में इन की उपयोगिता भी बराबर की है.

सांप को पलकें नहीं दीं, इन्हें सुनाई नहीं देता, इन के हाथपैर, सींग नहीं होते, महज मुंह और रेंगने के लिए पूरा शरीर धरती से चिपकाए रहते हैं. इन की फुंफकार या सर्र की आवाज ही एक हथियार है जो संकट में इन की हिफाजत करती है. अगर यह खुद को फंसा हुआ पाएंगे तो ही आक्रामक होंगे, मुठभेड़ करेंगे. ऐसे सांप जो घातक नहीं हैं, उन्हें खेतों, गोदामों वगैरह में घूमने दें. ये आप को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाएंगे.

तकरीबन 3,000 से भी ज्यादा सांपों की जिंदगी बचा चुके शरद पुरोहित कहते हैं, ‘‘अकसर देखता हूं कि मेरे पहुंचने से पहले ही इन से कोई छेड़खानी हुई हो तो यह सांप आक्रामक नजर आते हैं. इस के उलट अगर माहौल शांत रहा हो तो ऐसा लगता है मानो सांप बहुत कहने में लगता है और खुद ही रैस्क्यू का हिस्सा बन हमारा सहयोगी हो जाता है.

‘‘मुझे ये सांप बेहद शरीफ, सुंदर और आकर्षक लगने के साथसाथ असहाय लगते हैं. रेस्क्यू करने के शुरुआती दिनों में पहलेपहल मेरा परिवार बहुत घबराता था, पर अब वे सहयोगी हैं. हर साल वन विभाग द्वारा इस तरह की कार्यशालाओं का आयोजन किया जाता है.

‘‘मैं जिज्ञासुओं को इन सांपों की पहचान, रैस्क्यू और बाइट प्रबंधन के तरीकों पर ट्रेनिंग देता हूं.  शहर के कई नौजवानों को मैं ने अपने साथ वालंटियर की तरह तैयार कर रखा है. मैं इस काम को वैज्ञानिक तरीके से करने की बारीकियां इन नौजवानों को सिखला रहा हूं.

‘‘कालेज, स्कूल समेत कई विभागों को मैं ने अपनी इस जागरूकता मुहिम में शामिल किया है, पत्रपत्रिकाओं के जरीए भी मेरा प्रयास जारी है.

‘‘खुशी की बात है कि अब मुझे जैसे कुछ जागरूक नौजवानों की बात का असर रंग दिखा रहा है, खासकर जोधपुर में अब कोई इन सांपों को मारता नहीं है.

हर साल जुलाई से अक्तूबर माह तक हम नौजवानों की टीम ‘यूथ अरण्य’ दिनरात मुफ्त सेवा देती रहती है. पर, अफसोस इस बात का है कि प्रशासन इस विषय को कभी आपदा प्रबंधन का हिस्सा नहीं मानता, जबकि यह एक जरूरी काम है कि इनसान और जानवर दोनों बचे रहें, सुरक्षित रहें.

‘‘हमारी जैसी कोशिशें शायद पूरे देश में जारी हैं. सुझाव  है कि सरकारी अस्पतालों में भी इस तरह की एक कार्यशाला रखी जाए और इन की पहचान संबंधी समझ को आम लोगों में गहरे उतारा जाए, को समझाया  जाए. आपातकाल में इन के संबंधित चित्र डिसप्ले हों, ताकि इन के डसने से पीडि़तों को तुरंत इलाज मिल सके.’’

 

मधुमक्खीपालन से किसानों को फायदा

मधुमक्खीपालन से किसानों को दोहरा फायदा होगा. एक तो मधुमक्खीपालन से तैयार होने वाले शहद और मोम की बिक्री से अतिरिक्त आमदनी होगी और दूसरी फसल का उत्पादन भी बेहतर होगा.

मधुमक्खीपालन से शहद, मोम, रौयल जैली में दूसरे कई उत्पाद किसान हासिल कर सकते हैं जो उन की आमदनी बढ़ाने के लिए मददगार साबित होते हैं.

वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक डाक्टर आनंद सिंह का कहना है कि पारंपरिक फसलों में प्राकृतिक मार के चलते कई बार फसल खराब होने से किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है.

ऐसे में मधुमक्खीपालन के जरीए किसान अपनी पैदावार और आमदनी को बढ़ा सकते हैं. किसान एपीकल्चर यानी मधुमक्खीपालन की ट्रेनिंग ले कर और इसे अपना कर दोहरा फायदा ले सकते हैं.

Honeyदुनिया में मधुमक्खियों के तकरीबन 20,000 प्रकार हैं. इन में से केवल 3 प्रकार की मधुमक्खी ही शहद बना पाती हैं. आमतौर पर मधुमक्खी का जो छत्ता होता है, उस में एक रानी मक्खी होती है. इस रानी मक्खी के अलावा छत्ते में कई हजार श्रमिक मक्खी और कुछ नर मधुमक्खी भी होती हैं. मधुमक्खी श्रमिक मधुमक्खियों की मोम ग्रंथि से निकलने वाले मोम से अपना घर बनाती हैं, जिसे आम भाषा में शहद का छत्ता कहा जाता है.

मधुमक्खीपालन में रखें खास ध्यान

विशेषज्ञों के मुताबिक, मधुमक्खियां अपने कोष्ठक का इस्तेमाल अंडे सेने और भोजन इकट्ठा करने के लिए करती हैं, इसलिए किसानों को मधुमक्खीपालन के समय कुछ बातों का ध्यान रखने की जरूरत है.

दरअसल, मधुमक्खी छत्ते के ऊपरी भाग का इस्तेमाल शहद जमा करने के लिए करती हैं. ऐसे में किसानों को यह चाहिए कि छत्ते के अंदर परागण इकट्ठा करने, श्रमिक मधुमक्खी, डंक मारने वाली मधुमक्खियों के अंडे सेने के कोष्ठक बने होने चाहिए. कुछ मधुमक्खियां खुले में अकेले छत्ते बनाती हैं, जबकि कुछ अन्य मधुमक्खियां अंधेरी जगहों पर कई छत्ते बनाती हैं. मधुमक्खीपालन में उपकरणों की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है. ऐसे में किसानों को एपीकल्चर के विशेषज्ञ या फिर ऐसे किसान से टे्रनिंग ले कर मधुमक्खीपालन को अपनाना चाहिए जो इस की अच्छी जानकारी रखता हो.

दुनिया की सब से बड़ी जंगल सफारी

चंडीगढ़: हरियाणा में वाटर स्पोट्र्स गतिविधियों के साथसाथ अब पर्यटक हौट एयर बैलून सफारी का भी मजा उठा सकेंगे. मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने पिछले दिनों गेट वे औफ हिमाचल कहे जाने वाले पिंजौर में हौट एयर बैलून सफारी का शुभारंभ किया गया. उन्होंने स्वयं हरियाणा विधानसभा अध्यक्ष ज्ञान चंद गुप्ता और स्कूल शिक्षा और विरासत एवं पर्यटन मंत्री कंवर पाल के साथ सब से पहले हौट एयर बैलून सफारी की सवारी की.

इस अवसर पर मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने कहा कि पहली सफारी का अनुभव बेहद अच्छा रहा और सुरक्षा की दृष्टि से भी यह काफी सुरक्षित है. हौट एयर बैलून संचालित करने वाली कंपनी ने सुरक्षा सर्टिफिकेट प्राप्त किए हुए हैं. उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में हौट एयर बैलून सफारी की शुरुआत होने से न केवल पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि रोजगार के अवसर भी मिलेंगे.

Safariउन्होंने कहा कि हरियाणा में पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं और राज्य सरकार लगातार पर्यटन गतिविधियां बढ़ा रही है. उन्होंने बताया कि इस हौट एयर बैलून सफारी की व्यावहारिकता को देखते हुए राज्य सरकार कंपनी को 2 साल के लिए वीजीएफ के तौर पर 72 लाख रुपए देगी. कंपनी की ओर से इस का रेट 13,000 रुपए प्रति व्यक्ति प्रति राइड निर्धारित किया गया है.

मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने यह भी कहा कि हरियाणा अब वाटर स्पोट्र्स और साहसिक खेल गतिविधियों की ओर अग्रसर हो रहा है. सरकार द्वारा मोरनी हिल्स के पास टिक्करताल क्षेत्र में भी पैराग्लाइडिंग, वाटर स्पोट्र्स एक्टिविटी, जेट स्कूटर, पैरा सेल्लिंग और ट्रेकिंग जैसे एडवेंचर खेलों की शुरुआत की गई है. इस के अलावा ट्रैक, माउंटेन बाइकिंग ट्रैक और कई अन्य गतिविधियों की भी पहचान की गई है. साथ ही, मोरनी हिल्स में इकोटूरिज्म को बढ़ाने के लिए वन विभाग को भी जोड़ा गया है.

अरावली क्षेत्र को भी पर्यटन की दृष्टि से किया जा रहा विकसित

मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने आगे कहा कि राज्य सरकार शिवालिक पर्वत क्षेत्र के साथसाथ अरावली क्षेत्र को भी पर्यटन के रूप में विकसित कर रही है. हरियाणा में विश्व के पर्यटकों को अपनी ओर लुभाने के लिए बड़े पैमाने पर रोडमैप तैयार किए जा रहे हैं. इसी कड़ी में राज्य सरकार द्वारा अरावली पर्वत श्रृंखला में पड़ने वाले गुरुग्राम व नूंह जिलों की 10,000 एकड़ भूमि पर दुनिया का सब से बड़ा जंगल सफारी पार्क विकसित किया जा रहा है. इस से अरावली पर्वत श्रृंखला को संरक्षित करने में मदद मिलेगी, वहीं दूसरी ओर गुरुग्राम व नूंह क्षेत्रों में पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा.

Safariअग्रोहा में भी मिली खुदाई की अनुमति, राखीगढ़ी की तर्ज पर अग्रोहा को किया जाएगा विकसित
मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने आगे बताया कि ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण राखीगढ़ी में भी म्यूजियम बनाया जा रहा है. साथ ही, अब राखीगढ़ी की तर्ज पर अग्रोहा में भी खुदाई की अनुमति मिल चुकी है. इस से इस क्षेत्र में पुरातात्विक विरासत को पहचान मिलेगी. इस के अलावा ढोसी के पहाड़ को भी तीर्थस्थल के रूप में विकसित किया जा रहा है. यहां पर रोपवे की शुरुआत की गई है. यहां पर चवन ऋषि जैसे महान तपस्वी हुए हैं, इसलिए इस की अपनी आध्यात्मिक पहचान भी है. इस के अलावा यहां एयरो स्पोट्र्स को बढ़ावा देने के लिए भी पैराग्लाइडिंग की संभावनाओं का अध्ययन किया जा रहा है.

इस अवसर पर एडीजीपी सीआईडी आलोक मित्तल, पंचकूला के उपायुक्त सुशील सारवान, डीसीपी सुमेर प्रताप सिंह, अतिरिक्त उपायुक्त वर्षा खंगवाल, पूर्व विधायक लतिका शर्मा सहित अन्य अधिकारी मौजूद थे.

सेहत के लिए फायदेमंद है मोटा अनाज

चंडीगढ़: राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ‘मोटे अनाज का उपयोग स्वस्थ मानव जीवन व सुरक्षित पर्यावरण’ विषय पर तीनदिवसीय राष्ट्रीय सैमिनार आयोजित किया गया, जिस में हरियाणा के राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय ने शिरकत की.

उन्होंने भोजन में मोटे अनाज के उपयोग पर बल देते हुए कहा कि मोटा अनाज सेहत के लिए अत्यंत फायदेमंद है, इसलिए इसे अपने दैनिक भोजन में जरूर शामिल करें.

राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय ने कहा कि हरियाणा सरकार मोटा अनाज विशेषकर बाजरा की पैदावार बढ़ाने पर जोर दे रही है और इस दिशा में किसान को समृद्ध करने के लिए बाजरे को भावांतर भरपाई योजना में शामिल किया गया है. प्रदेश में बाजरे की खेती को बढ़ावा देने के लिए पहले कदम के रूप में, इस वर्ष भिवानी जिला में एक पोषक-अनाज अनुसंधान केंद्र बनाया जा रहा है.

Milletsउन्होंने बताया कि मोटे अनाज का प्रयोग कई तरह की बीमारियों, जिन में शुगर, ब्लडप्रेशर, हार्ट, किडनी, कैंसर आदि शामिल हैं, से बचाव हो सकता है. राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय ने कहा कि जब तक भोजन में अनाज नहीं बदलेंगे, तो देश का स्वास्थ्य नहीं बदल सकता है, इसलिए मोटे अनाज का प्रयोग हमें बड़े पैमाने पर करना होगा.

राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय ने आगे कहा कि मोटे अनाज को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है और संयुक्त राष्ट्र ने भी भारत के आग्रह पर मोटे अनाज को ‘अंतर्राष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष‘ के रूप में घोषित किया है. मोटे अनाज को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने के इस अभियान में केंद्र सरकार की ओर से इसी वर्ष इसे प्रोत्साहित करने का फैसला किया गया है और केंद्र ने एक नई योजना ‘श्रीधान्य‘ की शुरुआत की है.

समकलित खेती पर पांचदिवसीय प्रशिक्षण

अविकानगर (राजस्थान): भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के संस्थान केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान, अविकानगर, तहसील मालपुरा, जिला टोंक (राजस्थान) के दक्षिण क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र, माननावनूर जिला- कोडईकनाल राज्य-तमिलनाडु  द्वारा राज्य के पहाड़ी जिलों के एससी तबके के किसानों को अनुसूचित जाति उपयोजना के माध्यम से किसानवैज्ञानिक संवाद द्वारा समकलित खेती पर पांचदिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया गया.

वैज्ञानिक संवाद एवं स्थापना दिवस के कार्यक्रम मे मुख्य अतिथि संस्थान के निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर, प्रशासनिक अधिकारी भीम सिंह, माननावनूर सैंटर के प्रभारी डा. पी थिरूमुरुगान, वैज्ञानिक डा. एस. जगवीरा पांडेयन एवं केंद्र के समस्त कर्मचारियों द्वारा कार्यक्रम में हिस्सा लिया गया.

कार्यक्रम में पधारे मुख्य अतिथि निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर एवं अन्य अतिथि का केंद्र द्वारा दक्षिण परंपरा से स्वागतसत्कार किया गया.

Farmingकार्यक्रम को संबोधन करते हुए निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर ने सभी को समेकित खेती की ओर जाने का निवेदन करते हुए कहा कि इस से सालभर परिवार की आजीविका बनी रहेगी.

उन्होंने जानकारी देते हुए यह भी बताया कि आप भेड़, खरगोश, गाय आदि पशुओं के पालन के साथ ही सब्जी, फल और मसाले का और्गैनिक तरीके से उत्पादन कर के अच्छी आमदनी ले सकते हैं.

डा. अरुण कुमार तोमर ने आगे कहा कि आप उत्तरी भारत के हिमाचल प्रदेश के किसानों की बागबानी, सब्जी और टूरिस्ट आधारित पारिवारिक आजीविका से सीख कर कुछ अपने फार्मिंग सिस्टम को ऐसी दिशा देने की जरूरत है.

इस अवसर पर तमिलनाडु राज्य के किसानों के खरगोश मांस संगठन के साथ एमओयू किया गया, जिस से अविकानगर संस्थान की खरगोशपालन उन्नत तकनीकी को राज्य के पहाड़ी क्षेत्र के सभी तबके के लोगों तक पहुंचाया जाएगा.

केंद्र के कार्यालय प्रभारी डा. पी. थिरूमुरुगान ने बताया कि अनुसूचित जाति के  तबके के किसानों को तमिलनाडु राज्य की कृषि और पशुपालन संस्थान के साथ उन्नत खेती और पशुपालन पर भ्रमण और लेक्चर्स करवाया जाएगा.

’ग्रीन कान्हा रन का आयोजन’

उदयपुर: 19, नवंबर, 2023. जलवायु परिवर्तन के चलते दिनोंदिन आबोहवा में अनेक बदलाव आ रहे हैं, जिन के प्रति सजग रहना जरूरी है. इसी कड़ी में पर्यावरण की सुरक्षा और वृक्षारोपण के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए हार्टफुलनेस संस्थान की ओर से ग्रैन्यूल्स ग्रीन कान्हा रन का आयोजन पिछले दिनों फतेह सागर में आयोजित किया गया. इस रन का आयोजन कान्हा शांति वनम के साथ ही विश्व के अनेक देशों में आयोजित किया गया था.

उदयपुर केंद्र समन्वयक डा. राकेश दशोरा ने बताया कि सुबह 7.30 बजे फतेह सागर की पाल पर देवली छोर से 2 किलोमीटर की दौड़ का आयोजन किया गया.

ग्रैन्यूल्स ग्रीन कान्हा रन के यूथ समन्वयक दीपक मेनारिया ने बताया कि इस दौड़ में डा. राजेश भारद्वाज, एडिशनाल एसपी (विजिलेंस), उदयपुर, सलोनी खेमका सीईओ, नगरनिगम उदयपुर, पुनीत शर्मा, डायरेक्टर, प्लानिंग उदयपुर, डा. एचपी गुप्ता, शल्य चिकित्सक, डा. उमा ओझा, सेवानिवृत्त प्रो. आरएनटी, मधु मेहता, जोनल कार्डिनेटर हार्टफुलनेस, नरेश मेहता, प्रशिक्षक आशा शर्मा, महेश कुलघुडे, मोहन बोराणा, डा. सुबोध शर्मा पूर्व डीन मात्स्यिकी महाविद्यालय के साथ ही लगभग 100 से अधिक प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया.

इस इवेंट की श्रेणियों में 2 किलोमीटर, 5 किलोमीटर, 10 किलोमीटर व 21 किलोमीटर की दूरी तय की गई, जिस में अलगअलग लोगों ने हिस्सा लिया.

’कृषि पीएचडी के लिए 6 दिसंबर तक आवेदन’

हिसार: चैधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार में विभिन्न पीएचडी कार्यक्रमों में दाखिले के लिए आवेदन प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने बताया कि आवेदन की प्रक्रिया 6 दिसंबर, 2023 तक जारी रहेगी.

उन्होंने जानकारी देते हुए आगे बताया कि पीएचडी कार्यक्रमों में दाखिला एंेट्रेंस टैस्ट में हासिल मैरिट के आधार पर होगा. औनलाइन आवेदन फार्म एवं प्रोस्पैक्टस विश्वविद्यालय की वैबसाइट पर उपलब्ध है.

उन्होंने यह भी कहा कि आवेदन करने से पहले और कांउसलिंग के समय आने से पूर्व उम्मीदवार प्रोस्पैक्टस 2023-24 में दिए गए दाखिला संबंधी सभी हिदायतों व नियमों को अच्छी तरह से पढ़ लें.

सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार के लिए आवेदन की फीस 1,500 रुपए है, जबकि अनुसूचित जाति, पिछड़ी जाति, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग, पीडब्ल्यूडी (दिव्यांग)के उम्मीदवारों के लिए 375 रुपए होगी. इस के अलावा उपलब्ध सीटों की संख्या, महत्वपूर्ण तिथियां, न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता, दाखिला प्रक्रिया आदि संबंधी सभी जानकारियां विश्वविद्यालय की वैबसाइट पर उपलब्ध प्रोस्पैक्टस में मौजूद है.

उन्होंने उम्मीदवारों को दाखिला संबंधी नवीनतम जानकारियों के लिए विश्वविद्यालय की वैबसाइट  ींन.ंब.पद ंदक ंकउपेेपवदे.ींन.ंब. पद पर नियमित रूप से चेक करते रहने को कहा है.

पीएचडी प्रोग्राम में दाखिले की ये होगी प्रक्रिया

स्नातकोत्तर शिक्षा अधिष्ठाता डा. केडी शर्मा ने बताया कि विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों में पीएचडी में दाखिला कौमन ऐंट्रेंस टैस्ट के आधार पर होगा. कृषि महाविद्यालय में एग्रीकल्चरल इकोनोमिक्स, एग्रोनोमी, इंटोमोलौजी, एग्रीकल्चरल ऐक्सटेंशन एजुकेशन, हार्टिकल्चर, नेमोटोलौजी, जैनेटिक्स ऐंड प्लांट ब्रीडिंग, प्लांट पेथोलौजी, सीड साइंस एवं टैक्नोलौजी, सौयल साइंस, वेजीटेबल साइंस, एग्री. मेटीयोरोलौजी, फोरैस्ट्री, एग्री बिजनैस मैनेजमेंट व बिजनैस मैनेजमेंट विषय शामिल हैं, जबकि मौलिक एवं मानविकी महाविद्यालय में कैमिस्ट्री, बायोकैमिस्ट्री, प्लांट फिजियोलौजी, एनवायरमेंटल साइंस, माइक्रोबायोलौजी, जूलौजी, सोशियोलौजी, स्टैटिक्स, फिजिक्स, मैथमैटिक्स व फूड साइंस एंड टैक्नोलौजी विषयों में दाखिले होंगे.

इसी प्रकार बायोटैक्नोलौजी महाविद्यालय में मोलिक्यूलर बायोलौजी ऐंड बायोटैक्नोलौजी, बायोइनफर्मेटिक्स विषय शामिल होंगे. सामुदयिक विज्ञान महाविद्यालय में फूड्स %

मसूर की फसल को कीट व बीमारियों से बचाएं

माहू

मसूर में आमतौर पर माहू सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला कीड़ा है. यह कीट 45 से 50 दिन की अवस्था में पौधों का रस चूसता है, जिस से पौधे कमजोर हो जाते हैं. उपज में 25 से 30 फीसदी तक की कमी हो जाती है.

यह कीट पौधों का रस चूसने के साथसाथ अपने उदर से एक चिपचिपा पदार्थ भी छोड़ता है, जिस से पत्तियों पर काले रंग की फफूंद पैदा हो जाती है. साथ ही, पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया प्रभावित होती है.

प्रबंधन

* फसल की बोआई समय से करने से इस का प्रकोप कम होता है.

* फसल में नाइट्रोजन का ज्यादा इस्तेमाल न करें.

* माहू का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे ट्रैप का इस्तेमाल करें, जिस से माहू ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं.

* परभक्षी कौक्सीनेलिड्स या सिरफिड या फिर क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर 50,000-10,0000 अंडे या सूंड़ी प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.

* नीम का अर्क 5 फीसदी या 1.25 लिटर नीम का तेल 100 लिटर पानी में मिला कर छिड़कें.

* बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

* इंडोपथोरा व वरर्टिसिलयम लेकानाई इंटोमोपथोजनिक फंजाई (रोगकारक कवक) का माहू का प्रकोप होने पर छिड़काव करें.

* जरूरी होने पर इमिडाक्लोप्रिड 200 एसएल/0.5 मिलीलिटर प्रति लिटर, थियोमेथोक्सम 25 डब्लूजी/1-1.5 ग्राम प्रति लिटर या मेटासिस्टौक्स 25 ईसी 1.25-2.0 मिलीलिटर प्रति लिटर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

कर्तन कीट (एग्रोटिस एप्सिलान)

यह कीट मसूर के अलावा सोलेनियसी परिवार के पौधों और कपास व दलहनी फसलों पर भी हमला करता है. यह रात के वातावरण में निकल कर नर व मादा संभोग कर के पत्तियों पर अंडे देते हैं. इन की जीवनचक्र क्रिया वातावरण के हिसाब से 1-2 महीने में पूरी होती है. इस की सूंड़ी जमीन में मसूर के पौधे के पास मिलती है और जमीन की सतह से पौधे और इस की शाखाओं के 30-35 दिन की फसल में काटती है.

प्रबंधन

* खेतों के पास प्रकाश प्रपंच 20 फैरोमौन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगा कर प्रौढ़ कीटों को आकर्षित कर के नष्ट किया जा सकता है, जिस की वजह से इस की संख्या को कम किया जा सकता है.

* खेतों के बीचबीच में घासफूस के छोटेछोटे ढेर शाम के समय लगा देने चाहिए. रात में जब सूंडि़यां खाने को निकलती हैं, तो बाद में इन्हीं में छिपेंगी, जिन्हें घास हटाने पर आसानी से नष्ट किया जा सकता है.

* प्रकोप बढ़ने पर क्लोरोपायरीफास 20 ईसी 1 लिटर प्रति हेक्टेयर या नीम का तेल 3 फीसदी की दर से छिड़काव करें.

सैमीलूपर (प्लूसिया ओरिचेल्सिया)

इस कीट की सूंडि़यां हरे रंग की होती हैं, जो पीठ को ऊपर उठा कर यानी अर्धलूप बनाती हुई चलती हैं, इसलिए इसे सैमीलूपर कहा जाता है. यह पत्तियों को कुतर कर खाती है.

एक मादा अपने जीवनकाल में 400-500 तक अंडे देती है. अंडों से 6-7 दिन में सूंडि़यां निकलती हैं जो 30-40 दिन तक सक्रिय रह कर पूर्ण विकसित हो जाती हैं.

पूर्ण विकसित सूंडि़यां पत्तियों को लपेट कर उन्हीं के अंदर प्यूपा बनाती हैं, जिन से 1-2 हफ्ते बाद सुनहरे रंग का पतंगा बाहर निकलता है.

प्रबंधन

* खेतों की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करनी चाहिए और रोग व कीट प्रतिरोधी जातियों की बोआई करनी चाहिए.

* बीज को कीटनाशी व फफूंदनाशकों से उपचार कर लेना चाहिए.

* खेत में 20 फैरोमौन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं.

* खेत में परजीवी पक्षियों के बैठने के लिए 10 ठिकाने प्रति हेक्टेयर के अनुसार लगाएं.

* प्रकोप बढ़ने पर क्लोरोपायरीफास 20 ईसी 1 लिटर प्रति हेक्टेयर या नीम का तेल 3 फीसदी की दर से छिड़काव करें.

बीमारियों की रोकथाम

उकठा

यह भूमिजनित बीमारी है. बोआई के 20 से 25 दिन के बाद इस बीमारी के प्रकोप से पौधे पीले पड़ने शुरू हो जाते हैं. पौधों का ऊपरी भाग एक तरफ  ?ाक जाता है और अंत में मुर?ा कर पौधा मर जाता है.

उकठा बीमारी से बचाने के लिए उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए. साथ ही, पुरानी फसलों के अवशेषों को मिट्टी में दबा देना चाहिए. खेतों के आसपास सफाई रखें.

रोकथाम

* उकठा बीमारी की रोकथाम के लिए सदैव रोगरोधी प्रजातियों की बोआई करनी चाहिए. जिन क्षेत्रों में यह बीमारी बारबार आती हो, वहां पर 3 से 4 वर्षा तक मसूर की फसल नहीं लेनी चाहिए.

* इस के अलावा बीजों को बोने से पहले थाइरम नामक फफूंदीनाशक से उपचारित करना लाभकारी पाया गया है.

* आजकल उकठा बीमारी के नियंत्रण के लिए पर्यावरण हितैषी ट्राइकोडर्मा नाम फफूंद का प्रयोग भी लाभकारी सिद्ध हो रहा है, जो नियंत्रण के रूप में विभिन्न मृदाजनित बीमारियों की रोकथाम के लिए उपयोगी है.

रतुआ

इस बीमारी में फरवरी या इस के बाद तनों व पत्तियों पर गुलाबी से भूरे रंग के धब्बे बनने लगते हैं, जो बाद में काले पड़ने लगते हैं.

रोकथाम

* इस की रोकथाम के लिए रोगरोधी किस्मों जैसे पंत एल-236, पंत एल-406 व नरेंद्र मसूर-1 का प्रयोग करना चाहिए.

* कटाई के उपरांत रोगग्रसित पौधों को इकट्ठा कर जला देना चाहिए.

* इस के अतिरिक्त बीमारी का अधिक प्रकोप होने पर डाइथेन एम-45 का 0.2 फीसदी घोल का 12 से 15 दिन के अंतराल पर आवश्यकतानुसार छिड़काव करें.

चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू)

आमतौर पर इस बीमारी के लक्षण फसल बोआई के 80 से 90 दिन बाद पत्तियों की निचली सतह पर छोटेछोटे सफेद धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं, जो बाद में सफेद चूर्ण के रूप में पूरी पत्ती, तने और फलियों पर फैल जाते हैं. ज्यादा संक्रमण की हालत में पौधों में हरे रंग की कमी क्लोरोसिस हो जाती है.

रोकथाम

*  रोगग्रस्त पौधों के अवशेषों को इकट्ठा कर के जला देना चाहिए.

* मसूर की रोगरोधी किस्मों को चुनें.

* गंधक 20 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से संक्रमित खेत में बिखेर कर इस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है.

* कुछ सल्फरयुक्त पदार्थ जैसे सल्फेक्स या एक्सेसाल 0.3 फीसदी छिड़काव करने से भी बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है.

कटाई एवं मड़ाई

जब 70 से 80 फीसदी फलियां भूरे रंग की हो जाएं और पौधा पीला पड़ जाए, तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए.