Cowpea Cultivation – लोबिया की खेती

Cowpea Cultivation : दलहनी खेती के तहत लोबिया की फसल  आती है. यह प्रोटीन, शर्करा, वसा, विटामिन व खनिज से भरपूर होती है.

इस की 2 तरह की किस्में होती हैं. पहली झाड़ीयुक्त बौनी प्रजाति व दूसरी लतायुक्त यानी फैल कर फली देने वाली प्रजाति. लतायुक्त प्रजाति की खेती मचान विधि से ही की जाती है.

उन्नतशील प्रजातियां

काशी कंचन : सब्जी के लिहाज से यह प्रजाति ज्यादा मशहूर है. बोआई के 40-45 दिनों बाद इस की फलियां तोड़ने के लिए तैयार हो जाती हैं. इस की फलियों की लंबाई 30 सैंटीमीटर तक होती है. यह रोग प्रतिरोधी प्रजाति है. इस की औसत उपज 150-200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

काशी श्यामल : इस प्रजाति की बोआई के 50 दिन बाद फलियां तोड़ने लायक हो जाती हैं, जिन की औसत लंबाई 25-30 सैंटीमीटर होती है. इस की उपज तकरीबन 75-100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

काशी गौरी : इस प्रजाति की बोआई के 45-50 दिन बाद फलियां तोड़ने लायक हो जाती हैं, जिन की औसत लंबाई 25 सैंटीमीटर होती है. इस की उपज 100-125 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

टा. 5269 : यह प्रजाति कम उत्पादन वाली है, जो बोआई के 50-60 दिन बाद फलियां देने लगती है. इस की औसत उपज 50-60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पूसा कोमल : इस की खेती खरीफ के लिए ज्यादा सही होती है. इस की फलियों की लंबाई 15-20 सैंटीमीटर होती है. इस की औसत उपज 70 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

काशी उन्नति : बोआई के 40-45 दिन बाद इस की फलियां तोड़ने लायक हो जाती हैं. इस की औसत उपज 125-150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आईआईएमआर 16 : लोबिया की अगेती प्रजातियों में यह खास मानी जाती है.

इस की फलियों की लंबाई 15-18 सैंटीमीटर और औसत उपज 100-125 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

लोबिया : इस की खेती गरमी व बारिश दोनों मौसमों में की जाती है. इस की फलियां तकरीबन 20 सैंटीमीटर तक लंबी होती हैं. इस की उपज 120 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

अर्का गरिमा :  यह एक फैलने वाली प्रजाति है. इस की फलियों की लंबाई 25 सैंटीमीटर तक होती है. यह विषाणु रोग प्रतिरोधी किस्म है. हरी फलियों की उपज 80-85 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

मिट्टी का चयन व खेत की तैयारी : लोबिया की खेती के लिए दोमट या बलुई दोमट मिट्टी सब से अच्छी मानी जाती है. बोआई से पहले खेत की जुताई कर के मिट्टी को भुरभुरी कर लेते हैं.

बोआई का सही समय : बारिश के मौसम वाली फसल के लिए बोआई का सही समय जून से अगस्त तक होता है. गरमी के मौसम की फसल के लिए बोआई का सही समय फरवरी से मार्च तक होता है.

बीज की मात्रा : लोबिया की बौनी किस्म के लिए प्रति हेक्टेयर 20  किलोग्राम व लता वाली किस्म के लिए प्रति हेक्टेयर 15 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है.

लोबिया की बोआई हमेशा मेंड़ों पर करनी चाहिए. बोआई में लाइन से लाइन की दूरी 60 सैंटीमीटर व बीज से बीज की दूरी 10 सैंटीमीटर रखें.

खाद व उर्वरक : दलहनी फसल  होने के कारण इस में खाद की बहुत कम जरूरत होती है. अच्छी उपज के लिए बोआई से 15 दिन पहले 8-10 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला देनी चाहिए.

इस के अलावा 25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 60 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई से पहले मिट्टी में मिला देनी चाहिए.

लोबिया की फसल जब एक महीने की हो जाए तो फसल की निराईगुड़ाई कर के तमाम खरपतवार निकाल देने चाहिए और पौधों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए.

सिंचाई : लोबिया के बीजों को बोते वक्त खेत में ठीकठाक नमी होना जरूरी है. बारिश के मौसम में फसल की सिंचाई की जरूरत नहीं होती है. गरमी में 5-7 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए.

Lobiya

कीट व बीमारियों का इलाज : कृषि विज्ञान केंद्र, बंजरिया (बस्ती) के डाक्टर प्रेमशंकर का कहना है कि लोबिया में माहू कीट का प्रकोप ज्यादा होता है. यह कीट पत्तियों व शाखाओं का रस चूसता है, जिस से फसल की बढ़वार रुक जाती है. इस से बचाव के लिए डाईमिथोएट 30 ईसी या मिथाइल डेमेटान का छिड़काव करना चाहिए.

फलीछेदक : यह कीट लोबिया की फलियों में छेद कर बीजों को खा जाता है. इस से बचाव के लिए इंडोसल्फान या थायोडान का छिड़काव करना चाहिए. इस में नीम गिरी का अर्क भी असरकारक होता है.

हरा फुदका या लीफ माइनर : हरा फुदका पत्तियों की निचली सतह का रस चूस लेता है, जिस से पौधे की बढ़वार रुक जाती है. इस की रोकथाम के लिए मैलाथियान के घोल का छिड़काव करना चाहिए.

लीफ माइनर कीट पत्तियों के बीच सुरंग बनाता है, जिस से फसल की बढ़वार व पैदावार दोनों पर बुरा असर पड़ता है. इस की रोकथाम के लिए इंडोसल्फान या नीम गोल्ड का छिड़काव करना चाहिए.

प्रमुख रोग : लोबिया में स्वर्णपीत रोग का प्रकोप देखा गया है, जो माहू द्वारा विषाणु से फैलाया जाता है. इस रोग के असर से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और कलियों की बढ़वार रुक जाती है. इस रोग से बचाव के लिए रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करना चाहिए. अगर रोग का असर दिखाई दे तो रोगग्रस्त पौधों को उखाड़ कर जमीन में दबा देना चाहिए.

लोबिया की तोड़ाई व लाभ : कृषि विज्ञान केंद्र, बंजरिया के माहिर राघवेंद्र सिंह का कहना है कि लोबिया की अगेती किस्मों की फलियां 40-45 दिनों में तोड़ाई लायक हो जाती हैं.

उपज : लोबिया की अच्छी प्रजातियों से तकरीबन 150-200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज मिलती है, जबकि प्रति हेक्टेयर 50,000 से 60,000 रुपए लागत आती है. इस प्रकार किसान लोबिया की खेती से 3-4 महीने में ही अच्छी आमदनी हासिल कर सकते हैं.

Cowpea: लोबिया – गरमी का हरा चारा

Cowpea| हरीमुलायम लोबिया खरीफ के मौसम की जल्दी तैयार होने वाली फलीदार पौष्टिक व मिठास वाली चारा फसल है. चारे के अलावा इस की फलियों को सब्जी के रूप में भी पसंद किया जाता है. हरी खाद के रूप में भी इस फसल का इस्तेमाल किया जाता है. कुछ किसान इसे ज्वारबाजरा या मक्का के साथ भी बोते हैं, जिसे चारे के रूप में पशु बड़े ही चाव से खाते हैं.

खेत की तैयारी : अच्छी फसल के लिए खेत की 2-3 जुताई काफी हैं व खेती के लिए दोमट मिट्टी अच्छी रहती है. रेतीली दोमट मिट्टी में भी फसल उगाई जा सकती है.

समय: लोबिया की बोआई का गरमियों में सब से अच्छा समय मध्य मार्च से ले कर मई का पहला हफ्ता माना जाता है, जिस से इस का हरा चारा, जब हरे चारे की कमी होती है, मिल जाता है. खरीफ के मौसम में इस की बिजाई मध्य जून से जुलाई अंत तक कर सकते हैं.

कुछ उन्नत किस्में : बुंदेल लोबिया 1, यूपीसी 5286, यूपीसी 5287 वगैरह हैं.

बीज की मात्रा : अच्छी पैदावार के लिए 16-20 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ के हिसाब से लें. लाइन से लाइन का फासला 30 सेंटीमीटर रखें व सीड ड्रिल मशीन द्वारा बोआई करें.

सीड ड्रिल से बोआई : सीड ड्रिल मशीन से बोआई करने पर 15 से 20 फीसदी बीज की बचत होती है और पैदावार में भी बढ़ोतरी होती है.

सीड ड्रिल मशीन में जमीन में लाइन में चीरा लगाने वाले फाल लगे होते हैं. इन में उर्वरक व बीज सही गहराई व सही दूरी पर गिरते हैं. इस मशीन से गेहूं, चना, मटर, अरहर, मक्का, धान, मूंग, मूंगफली व सूरजमुखी वगैरह की बोआई सही दूरी व सही गहराई पर भी जा सकती है. बिजाई के समय भूमि में सही नमी होनी चाहिए. बीज बोने से पहले उपचारित कर लें.

उर्वरक प्रबंधन : दलहनी फसल होने के कारण लोबिया में नाइट्रोजन की ज्यादा जरूरत नहीं होती है. फिर भी शुरू की अच्छी बढ़वार के लिए 10 किलोग्राम शुद्ध नाइट्रोजन (22 किलोग्राम यूरिया 46 फीसदी) प्रति एकड़ के हिसाब से बिजाई के समय डालें. बिजाई से पहले सिंचित इलाकों में 25 किलोग्राम फास्फोरस (157 किलोग्राम सिंगल सुपरफास्फेट) व बारानी क्षेत्रों में 12 किलोग्राम फास्फेट (75 किलोग्राम सिंगल सुपरफास्फेट) डालें.

खरपतवार प्रबंधन : गरमी में बोई गई फसल में 1 निराईगुड़ाई पहली सिंचाई देने के बाद बत्तर आने पर करें. मानसून की बारिश पर बोई गई फसल में 1 गुड़ाई बिजाई के तकरीबन 25 दिनों बाद करें.

सिंचाई और जल निकास : मार्चअप्रैल में बोई गई फसल में पहली सिंचाई बिजाई के 20-25 दिनों बाद और मई में बोई गई फसल में पहली सिंचाई बिजाई के 15-20 दिनों बाद करें. आगे की सिंचाइयां 15-20 दिनों के अंतराल पर करें.

इस तरह कुल मिला कर 3-4 सिंचाइयों की जरूरत होती है. बरसात के मौसम में बोई गई फसल में आमतौर पर सिंचाई की जरूरत नहीं होती है. जलनिकास का सही इंतजाम करना जरूरी है. बरसात के समय खेत में पानी नहीं रूकना चाहिए.

कीड़ों से बचाव : सूखे मौसम में लोबिया पर हरा तेला हमला करता है. इस की रोकथाम के लिए 200 मिलीलीटर मैलाथियान (50 ईसी) को 200 लीटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें. लेकिन इस बात का ध्यान रखें कि छिड़काव के 10-15 दिनों बाद तक इस फसल का हरा चारा पशुओं को न खिलाएं.

कटाई व चारे की पैदावार : लोबिया की हरे चारे के लिए कटाई 50 फीसदी फूल आने से ले कर 50 फीसदी फलियां बनने तक पूरी कर लेनी चाहिए, वरना इस के बाद इस का तना सख्त व मोटा हो जाता है और चारे की पौष्टिकता व स्वाद दोनों ही प्रभावित होते हैं.

अच्छी किस्म का करें चुनाव

सीएस 88 :  कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार लोबिया की यह एक उन्नत किस्म है, जो चारे खेती के लिए बेहतर है. यह सीधी

बढ़ने वाली किस्म है, जिस के पत्ते गहरे हरे रंग के और चौड़े होते हैं. इस के बीजों का रंग हलका गुलाबी भूरा या हलका भूरा होता है. यह किस्म विभिन्न रोगों व कीटों से मुक्त है. यह किस्म पीले मोजेक विषाणु रोग के लिए रोगरोधी है. इस किस्म की बिजाई सिंचित और कम सिंचाई वाले क्षेत्रों में गरमी और खरीफ के मौसम में की जा सकती है. इस का हरा चारा तकरीबन 55-60 दिनों में कटाई लायक हो जाता है. इस के हरे चारे की पैदावार 140-150 क्विंटल प्रति एकड़ है. यदि फसल बीज के लिए लेनी हो, तो लोबिया की बिजाई का सही समय मध्य जुलाई से अगस्त का पहला हफ्ता है.

औषधीय खेती (Medicinal Farming) में किसानों को आत्मनिर्भर बनाते राकेश कुमार

राजस्थान के नागौर जिले की कुचामन सिटी का एक गांव है राजपुरा. इसी गांव के एक नौजवान ने 2 बार सरकारी नौकरी में चुन लिए जाने के बावजूद खेतीकिसानी से जुड़े रहने की सोच रखी थी. जड़ीबूटियों की खेती में आज यही नौजवान देशभर के किसानों के लिए आइडियल बन कर उभरा है. ‘हर्बल किंग’ और ‘हर्बल राजा’ जैसी उपमाओं से पुकारे जाने वाले इस किसान को दुनिया राकेश कुमार चौधरी के नाम से जानती है.

राकेश कुमार चौधरी ने बताया साल 2005 में ‘राजस्थान स्टेट मैडिसिनल बोर्ड’ की एक विज्ञप्ति जारी हुई. उस में लिखा था कि रुचि रखने वाले किसान ‘कौंट्रैक्चुअल फार्मिंग’ के लिए संपर्क करें. मैं ने अपने 14 जानकारों के परियोजना प्रस्ताव जमा करवाए.

मुझ में तजरबे की कमी थी. कलिहारी, सफेद मूसली, स्टीविया, जो हमारे इलाके में हो ही नहीं सकती थी, हम ने इसे भी उगा दिया. हम ने वे फसलें चुनीं, जो हमारे लोकल आबोहवा के खिलाफ थीं. सारी फसलें चौपट हो गईं.

फिर लोगों ने बताया कि मुलैठी में काफी मुनाफा होता है. मैं ने इस की खेती की और बेहतरीन पैदावार हुई. मैं इलाके का पहला किसान बना, जिस ने पहली बार कामयाबी का स्वाद चखा.

मैं ने साल 2007 में पक्का मन बना लिया कि चाहे जो हो जाए, औषधीय खेती करूंगा और करवाऊंगा, किसानों की फसलों को सीधे फार्मेसी को दूंगा ताकि उन को उपज की वाजिब कीमत मिल सके. पहला फोकस ग्वारपाठा यानी एलोवेरा की खेती पर रहा.

यह वह दौर था, जब किसान आधा बीघा खेत में एलोवेरा की खेती करते थे. पूरे राज्य में घूमने पर 20-22 किसान ऐसे मिले जिन्होंने ग्वारपाठा की खेती कर रखी थी. ये किसान भी लापरवाह थे, क्योंकि तब ग्वारपाठा का कोई क्रेज नहीं था. किसान इसे पानी तक नहीं देते थे क्योंकि ग्वारपाठा का कोई खरीदार नहीं होता था.

अब दिक्कत यह थी कि किसानों को ग्वारपाठा की खेती के लिए किस तरह बढ़ावा दिया जाए. मुझ से जुड़ने पर जिन 14 किसानों को नुकसान हुआ, उन को ग्वारपाठा की खेती करवा कर उन के घाटे को नफा में बदलने की सोची. जैसेतैसे किसानों को राजी कर लिया, पर उन की भी कुछ शर्तें थीं, वे प्लांटिंग मैटेरियल का पैसा नहीं देंगे.

मैं मान गया. मैं ने तय किया कि जब पैदावार होगी तो प्लांटिंग मैटेरियल का पैसा रख लूंगा. डेढ़ रुपया प्रति प्लांट की दर से जामनगर के बशीर खान ने ग्वारपाठा के पौधे मुहैया कराए.

साल 2007 तक मुझ से 62 किसान जुड़ गए थे. बोर्ड में परियोजना अधिकारी रहे डाक्टर श्रीराम तिवाड़ी ने मुझ से कहा, ‘आने वाला समय आयुर्वेद का है. तुम बहुत कामयाब होने वाले हो. संघर्ष से घबरा कर हार मत जाना राकेश.’

उन्होंने समझाया, ‘इस काम को ईमानदारी से करना. ज्यादातर किसानों की सोच सरकारी अनुदान राशि को हजम करने की रहती है. तुम ऐसी सोच मत रखना. तुम से जुड़े किसानों को भी यही बात समझाना कि इस पैसे को खाना नहीं है, पौधे लगाने हैं, पानी पिलाना है, बाड़बंदी करनी है, समय पर निराईगुड़ाई का काम लेना है. फिर देखना, पैदावार अनुमान से कहीं ज्यादा होगी.’ और यही हुआ भी. फसल अच्छी हुई.

मनीष मित्तल हम किसानों के पहले ग्राहक थे. मुझे इस बात की खुशी थी कि हमारी फसलों का कोई खरीदार आया तो सही, इसलिए उन से किसी तरह के मोलभाव वाली स्थिति में हम नहीं थे. जो रेट मिला, हम ने माल बेच दिया.

पूरे राजस्थान में डेढ़ महीने तक घूमघूम कर किसानों से जितना एलोवेरा मिल सका, खरीद लिया. 1 रुपए, 40 पैसे में हम ने आगे बेचा. दाम कम थे, लेकिन हमारे लिए काफी थे, क्योंकि हमारे काम की शुरुआत जो हो चुकी थी.

इधर ग्वारपाठे की सप्लाई के दौरान मुंबई की एक पार्टी संपर्क में आई. उसे बड़ी तादाद में एलोवेरा की डिमांड रहती थी और अच्छी क्वालिटी उन की पहली शर्त थी. हमारे माल के पहले लाट से ही वे प्रभावित हुए. बातचीत हुई तो उन्होंने पूछा कि तुम्हारे पास कितना माल है?

मैं ने बताया 200 एकड़ में है. कुछ किसान जुडे़ हुए नहीं हैं, फिर भी संपर्क में हैं. मैं ने रोज 1 ट्रक देने का वादा कर लिया.

पार्टी ने मेरे गांव में फैक्टरी लगाने का औफर दिया तो मैं ने हामी भर दी. काम शुरू हुआ. यह वह दौर था, जब मेरे पास 90 महिला कर्मचारी और 12 पुरुष काम करते थे.

इस दौरान आंवला और दूसरी किस्मों पर भी ध्यान दिया. यही वह समय था, जब मैं बाबा रामदेव की दिव्य योग फार्मेसी और पतंजलि आयुर्वेद के संपर्क में आया. मैं ने इन को माल सप्लाई किया. इतना ही नहीं, हिमालय, एंब्रोसिया, गुरुकुल फार्मेसी तक में मेरी पैठ बन गई.

अब मेरा काम साल 2018 तक आ चुका है. मैं पीछे मुड़ कर देखता हूं तो सब समझ से परे है कि यह सब कैसे हो गया? आज 250 किसान परिवार ऐसे हैं, जो मुझ से सीधेतौर पर जुड़े हुए हैं. वहीं डेढ़ सौ से ज्यादा ऐसे किसानों का काफिला है जो मुझ से जुड़ा तो नहीं है, पर वे अपनी उपज को बेचने और दूसरी तकनीकी मदद के लिए मेरे पास आते हैं.

औषधीय खेती (Medicinal Farming)आज राजस्थान के 11 सूखे जिलों में तकरीबन सभी किसानों का अच्छाखासा नैटवर्क तैयार हो चुका है जो औषधीय पौधों की खेती करते हैं या रुचि रखते हैं. एलोवेरा की खेती करने वाले राज्य के ज्यादातर किसान मुझ से जुड़े हुए हैं.

जीएसीपी तकनीक से खेती

आज 107 तरह की जड़ीबूटियों की खेती राजस्थान में हो रही है. मैं अश्वगंधा, ग्वारपाठा, बड़ा गोखरू, छोटा गोखरू, बड़ी कंटकारी, काकनाशा (बिच्छूफल), अरडू, नीम, सहजन, रामा तुलसी, श्यामा तुलसी, शतावर, भूमि आंवला, गूगल, सरपूंखा (धमासा) वगैरह की खेती कर रहा हूं और किसानों को भी इसी की खेती के लिए प्रेरित करने में जुटा हूं.

सरपूंखा (धमासा) के लिए तो देश की नामीगिरामी ड्रग कंपनी ने मुझ से 3 साल का एग्रीमैंट कर रखा है. ड्रग कंपनी या दूसरी फार्मेसियों को सप्लाई किए जाने वाली उपज को ले कर भी मैं बहुत सावधानी बरतता हूं.

‘गुड एग्रीकल्चर कलैक्शन प्रैक्टिस’ जिसे जीएसीपी तकनीक भी कहा जाता है, के नियमों के तहत मैं काम करता हूं. इस के चलते हाइजिन तरीके से कटाई की जाती है. सस्टेनेबल हार्वेस्टिंग की जाती है. फसल को जड़ों सहित नहीं उखाड़ा जाता, ताकि अगली बार फिर से जड़ें फूट सकें. फसल का 35 फीसदी भाग उगा रहना चाहिए, ताकि सीड खत्म न हो. हाईवे पर कार्बन की मात्रा ज्यादा होती है इसलिए हाइवे से दूर के खेतों में खेती करते हैं और करवाते भी हैं.

हम अब यह काम जिंदगी जीने के लिए नहीं करते हैं, बल्कि अब हमारी जीने की शैली बन चुका है. करतकरत अभ्यास से इतने सिद्ध हो गए हैं कि अब किसानों को फसल कटाई की मशीनें मुहैया करवाते हैं. फसल काटने से ले कर सुखाने, पैकिंग करने तक सभी लैवल पर ट्रेनिंग देते हैं.

अधिक जानकारी के लिए राकेश कुमार चौधरी द्वारा विनायक हर्बल, गांव-राजपुरा, पोस्ट-परेवड़ी, कुचामन सिटी, जिला-नागौर, राजस्थान से उन के मोबाइल नंबर 9413365537 और 9772630392 से संपर्क किया जा सकता है.

चारा व सब्जी फसल बरबटी की खेती

बरबटी को लोबिया नाम से भी जाना जाता है. यह प्रोटीन का बहुत सस्ता और अच्छा जरीया है. इस को खाने से कब्ज नहीं होता और शरीर मजबूत बनता है. लोबिया की हरी नरम फलियों को सब्जी के तौर पर और दानों को दाल या चाट बना कर इस्तेमाल में लाया जाता है.

बरबटी की जड़ों में पाए जाने वाले राइजोबियम सिंबीआसिस क्रिया के चलते यह डेढ़ सौ किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन को स्टोर करता है. इस को मिट्टी कटाव रोकने के लिए भी उगाते हैं. यह कुछ हद तक सूखे के प्रति प्रतिरोधी है और कम उपजाऊ खेतों में भी अच्छी पैदावार होने के चलते लोबिया को सभी तरह की आबोहवा में उगाया जा सकता है.

आबोहवा : यह गरम मौसम की फसल है. ठंडा मौसम इस की खेती के लिए अच्छा नहीं होता. ज्यादा बारिश व पानी का भराव इस के लिए नुकसानदायक होता है.

लोबिया की अलगअलग किस्मों को अलग तरह के तापमान की जरूरत पड़ने के चलते जायद व खरीफ दोनों सीजन में उगाने के लिए अलगअलग किस्में होती हैं.

लोबिया की खेती सभी तरह की मिट्टी में कर सकते हैं. मिट्टी का पीएच मान साढ़े 5 से साढ़े 6 के बीच होना चाहिए. खेत से फालतू पानी को निकालने का इंतजाम होना चाहिए. कारोबारी खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी अच्छी रहती है. खेत की पहली जुताई कल्टीवेटर से व दूसरी जुताई हैरो से करनी चाहिए. हर जुताई के बाद पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरा व समतल बना लेते हैं.

किस्में

अर्का समृद्धि : इस किस्म को आईएचआर-16 के नाम से भी जानते हैं. यह जल्दी पकने वाली किस्म है. इस के पौधे सीधे,  झाड़ीनुमा व 70-75 सैंटीमीटर लंबे होते हैं. इस की फलियां हरी, औसत मोटाई, मुलायम, गूदेदार, 15-18 सैंटीमीटर लंबी होती हैं. एक हेक्टेयर खेत से 180-190 क्विंटल तक पैदावार मिल जाती है.

अर्का गरिमा : यह किस्म गरमी व सूखे के प्रति सहनशील है. फलियां लंबी, मोटी, गोल व गूदेदार होती हैं. हरी फलियों की पैदावार 80-85 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और फसल 90 दिन में तैयार होती है. यह बरसात के मौसम की खेती के लिए ज्यादा कारगर है.

अर्का सुमन : इस के पौधे सीधे,  झाड़ीनुमा व लंबाई 70-75 सैंटीमीटर होती है. यह किस्म जल्दी पकने वाली है. इस की उत्पादन कूवत 140-150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पूसा बरसाती : यह अगेती किस्म है. इस में शाखाएं बहुत कम होती हैं. फलियां 25 से 27 सैंटीमीटर लंबी व हलके हरे रंग की होती हैं. फलियां बोआई के 45-50 दिन बाद तोड़ने लायक हो जाती हैं. हरी फलियों की पैदावार 75-80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

Barbati

पूसा दो फसली : यह  झाड़ीनुमा किस्म है. गरमी व बरसात दोनों मौसमों के लिए माकूल है. हरी फलियों की पहली तुड़ाई बोआई के 50 दिन बाद की जाती है. इस की फलियां 18 सैंटीमीटर लंबी व हलके हरे रंग की होती हैं. हरी फलियों की पैदावार 75-80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पूसा कोमल : इस के पौधे  झाड़ीदार 60 सैंटीमीटर लंबे होते हैं. बोआई के बाद फलियों की पहली तुड़ाई के लिए फसल 60 दिन में तैयार हो जाती है. फलियां गहरे रंग की 20-25 सैंटीमीटर लंबी होती हैं. गरमी व बरसात दोनों मौसमों के यह लिए माकूल किस्म है. यह किस्म  झुलसा बीमारी के प्रति सहनशील है. फलियों की पैदावार डेढ़ सौ से 2 सौ क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

नरेंद्र लोबिया 2 : इसे एनडीसीपी-13 किस्म के नाम से भी जाना जाता है. इस के पौधे  झाड़ीनुमा, फलियां गहरी हरी, तकरीबन 27-28 सैंटीमीटर लंबी होती हैं.

फलियों की तुड़ाई 50 दिनों बाद की जा सकती है. यह खरीफ व गरमी दोनों मौसमों के लिए एक अच्छी किस्म है. इस की उत्पादन कूवत 75 से सौ क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

काशी उत्तम : इसे वीआरसीपी-3 के नाम से भी जानते हैं. यह एक अगेती किस्म है. पौधे सीमित बढ़वार वाले 40-45 सैंटीमीटर लंबे व सीधे होते हैं. हरी फलियां बोआई के 40-45 दिनों बाद मिलना शुरू हो जाती हैं. फलियां हरी, मुलायम, गूदेदार, 30-35 सैंटीमीटर लंबी होती हैं. यह किस्म पीला वायरस, जड़ सड़न व पर्ण दाग बीमारी के प्रति रोगरोधी है. पैदावार डेढ़ सौ से 2 सौ क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. फसल 120 से 130 दिनों में तैयार होती है.

काशी कंचन : इस की बोआई अक्तूबर से जनवरी महीने को छोड़ कर पूरे साल आसानी से की जाती है. पौधे सीमित बढ़वार वाले 45-50 सैंटीमीटर लंबे व सीधे होते हैं. फलियां बोआई के 50-55 दिन बाद मिलना शुरू हो जाती हैं. फलियां हरी, मुलायम, गूदेदार व 30 से 35 सैंटीमीटर लंबी होती हैं. यह पीला वायरस, उकठा, जड़ सड़न व पर्णदाग बीमारी के प्रति रोगरोधी कूवत रखती है. पैदावार डेढ़ सौ से 2 सौ क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. फसल 130 से 140 दिनों में पक कर तैयार होती है.

बीज की मात्रा : लोबिया का औसतन 12 से 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से पर्याप्त होता है. गरमी की फसल में 20 किलो व बरसात की फसल के लिए 12 किलो बीज पर्याप्त रहता है.

गरमी की फसल के लिए फरवरीमार्च और बरसाती फसल के लिए जूनजुलाई का महीना बोआई के लिए माकूल है.

आमतौर पर तैयार खेत में इस के बीजों को छिटकवां तरीके से बोते हैं. अगर उन्हें लाइनों में बोया जाए तो निराईगुड़ाई वगैरह में आसानी रहती है.  झाड़ीदार व बौनी किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 40-50 सैंटीमीटर व बीज से बीज की दूर 10-15 सैंटीमीटर रखते हैं. इसी तरह फैलने या चढ़ने वाली किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 70-80 सैंटीमीटर व बीज से बीज की दूरी 20-25 सेंटीमीटर रखते हैं.

बोआई से पहले राइजोबियम बैक्टीरिया से बीज का उपचार कर लेना चाहिए. बोआई के समय खेत में पर्याप्त नमी का होना बहुत ही जरूरी है. बीजों को 2-3 सैंटीमीटर गहरा बोते हैं. बोआई के तकरीबन 5-7 दिनों बाद बीज का जमाव हो जाता है. सघन पौधों को उखाड़ कर सही दूरी कर लेते हैं. बरसाती फसलों में बोआई मेड़ों पर की जाती है. इस से बीजों का जमाव व पानी का निकास अच्छा होता है, निराईगुड़ाई, कीट व फफूंदीनाशक दवाओं के छिड़काव में मदद मिलती है.

खाद : खेत की मिट्टी व फसल की जरूरत देखते हुए खाद की मात्रा तय करनी चाहिए. आमतौर पर 25- 30 क्विंटल गोबर की खाद, 30-40 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60-70 किलोग्राम फास्फोरस व पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए.

गोबर की खाद की पूरी मात्रा खेत तैयार करते समय और नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के समय मिट्टी में मिला देते हैं.

सिंचाई : लोबिया को कम सिंचाई की जरूरत होती है. इसलिए हलकी सिंचाई करनी चाहिए. आमतौर पर बरसात के मौसम में सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन गरमी मौसम में हफ्ते में एक बार सिंचाई करनी पड़ती है. फलियां बनते समय सिंचाई करना जरूरी होता है और फलियां लगने के बाद भी सिंचाई करनी चाहिए. पहली बार के फूलों से पैदा सभी हरी फलियों की तुड़ाई हो जाए, तब दोबारा सिंचाई करने से पौधों में दूसरी बार फूल पैदा होते हैं.

निराईगुड़ाई : खरपतवारों की रोकथाम व जड़ों में हवा के लिए बोआई के तकरीबन 4 हफ्ते बाद खुरपी या कुदाल से एक बार निराईगुड़ाई जरूर करनी चाहिए. कैमिकल के इस्तेमाल से खरपतवार की रोकथाम के लिए स्टांप 3 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के 2 दिन के अंदर स्प्रे करना चाहिए या लासो 4 लिटर प्रति हेक्टेयर मात्रा को 750 से 800 लिटर पानी में मिला कर बोआई के फौरन बाद स्प्रे करें. ऐसा करने से 30-45 दिनों तक खरपतवारों का जमाव नहीं हो पाता है.

तुड़ाई व पैदावार : सब्जी के लिए फलियों को नरम अवस्था में यानी रेशा बनने के पहले तोड़ते हैं. देर से तुड़ाई करने पर फलियों में रेशे पड़ जाते हैं, जिस में बाजार में कम कीमत मिलती है. लोबिया में 3-4 बार फलत होती है और एक फलत में तकरीबन 4 बार तुड़ाई होती है. सहारा देने वाली किस्मों में 7-8 तुड़ाई की जाती हैं. अगेती किस्मों में बोआई के 45 दिन बाद व पछेती किस्मों में बोआई के सौ दिन बाद फलियों की तुड़ाई शुरू की जा सकती है.

बहुवर्षीय एलोवेरा की खेती

यह एक बहुवर्षीय मांसल पौधा होता है, जो पूरे देश में पाया जाता है. इस के पत्ते मांसल व कांटेदार होते हैं, जिन से लिसलिसा पदार्थ निकलता है. इस की पत्तियों की लंबाई 1-2 फुट तक होती है. अलगअलग इलाकों में इसे अलगअलग नामों से जाना जाता है, जैसे घृतकुमारी, ग्वारपाठा, गृहकन्या, घीकुंवार, एलोवेरा, दरख्ते तीव्र, सब्बारत वगैरह.

अपने औषधीय गुण के कारण एलोवेरा काफी मशहूर है. बेहद गुणकारी होने की वजह से हर उम्र के लोगों को इस के इस्तेमाल की नसीहत दी जाती है. वर्तमान में तमाम सौंदर्य प्रसाधन कंपनियां इस का इस्तेमाल सौंदर्य प्रसाधन की चीजें बनाने में कर रही हैं.

एलोवेरा में तमाम तरह के विटामिन पाए जाते हैं, जिन में विटामिन ए, सी, ई, फोलिक एसिड, विटामिन बी 1, बी 2, बी 3, बी 6 वगैरह खास हैं.

इस के अलावा एलोवेरा में कई तरह के खनिज लवण भी पाए जाते हैं, जिन में कैल्शियम, मैगनीशियम, जिंक, क्रोमियम, सैलोनियम, सोडियम, आयरन, पोटैशियम व कौपर खास हैं.

एलोवेरा में काफी मात्रा में अमीनो एसिड व फैटी एसिड भी पाए जाते हैं, जो इनसान के शरीर के लिए जरूरी हैं.

यह मौसम के बदलाव से होने वाली कमियां दूर करने के अलावा प्रतिरोधक कूवत बढ़ाता है.

 

प्रमुख प्रजातियां

एलोवेरा भारत में पाए जाने के साथसाथ अफ्रीका व अरब देशों में भी पाया जाता है. इस की खास प्रजातियां इस तरह हैं:

एलोवेरा : यह सामान्य प्रजाति है व पूरे देश में पाई जाती है.

एलोइंडिका : यह छोटी प्रजाति है, जो दक्षिण भारत में चेन्नई में खासतौर से पाई जाती है.

एलो रूपेसेंस : यह प्रजाति बंगाल के आसपास पाई जाती है. इस पर नारंगी व लाल रंग के फूल आते हैं. यह प्रजाति पाचन तंत्र को ठीक रखने में खास भूमिका निभाती है.

Alovera

दवाओं के तौर पर इस्तेमाल

एलोवेरा के पत्तों से जूस निकाल कर आयुर्वेदिक दवाओं का निर्माण किया जाता है, जिन का इस्तेमाल पेट की बीमारियों में किया जाता है.

इस के अलावा कई तरह के भस्म व तेल तैयार करने में भी एलोवेरा का इस्तेमाल किया जा रहा है.

एलोवेरा से तैयार दवाएं : चंद्रोदय रस, पूर्ण चंद्ररस, मुक्ता पंचामृत, उन्माद गंजाकुष रस, कुमार कल्याण रस, व्रदरांतक रस, शिला सिंदूर व स्वर्ण सिंदूर.

एलोवेरा का इस्तेमाल एंटी औक्सीडेंट के रूप में सफलतापूर्वक किया जाता है. इस के अलावा चर्म रोग, दांत का दर्द, चोट लगने, आग से जलने, कफ विकार, खांसी व बवासीर वगैरह में भी एलोवेरा का सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया जा रहा है.

सौंदर्य प्रसाधन में इस्तेमाल : एलोवेरा विटामिन सी से भरपूर होता है. इस वजह से इस का इस्तेमाल सौंदर्य प्रसाधन के क्षेत्र में काफी किया जाता है. यह शरीर में मृत कोशिकाओं के निर्माण में सहायक होता है.

 

एलोवेरा की खेती

इस की खेती सभी तरह की मिट्टी में आसानी से की जा सकती है. इस के लिए ऐसी भूमि की आवश्यकता होती है, जिस में पानी निकलने का सही इंतजाम हो और पानी भराव की स्थिति न रहती हो. इस की जड़ें ज्यादा गहराई तक नहीं जाती हैं, इसलिए इसे ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती.

जमीन की तैयारी : एलोवेरा के पौधों की बढ़वार और विकास के लिए मिट्टी का हलका होना जरूरी है. इस के लिए

गरमियों में एक गहरी जुताई और 2 हलकी जुताई करनी चाहिए और बारिश में पौधों की रोपाई कर देनी चाहिए.

पौधों की रोपाई : एलोवेरा की खेती के लिए छोटेछोटे सकर्स की रोपाई जुलाईअगस्त महीने में 3-3 फुट की दूरी पर करते हैं. एलोवेरा के पौधों की रोपाई में 3 फुट की दूरी रखने  से उत्पाद के रूप में प्राप्त पौधों में पल्प ज्यादा बनता है, जिस से उत्पादन अधिक होता है.

कटाई : एलोवेरा का पौधा तकरीबन 1 साल बाद कटाई के लायक हो जाता है. तैयार पौधों को जड़ के ऊपर से तेज धारदार हंसिए से काटना चाहिए, ताकि पत्तियां महफूज रहें व जैल को नुकसान न हो.

एलोवेरा के पौधों के बीच आसानी से नेपाली सतावर की खेती की जा सकती है, जिस से अतिरिक्त आय प्राप्त होती है. उल्लेखनीय है कि नेपाली सतावर भी सालभर में तैयार हो जाता है. इस के कंद जमीन के नीचे होते हैं, जिस से खाली जमीन का सही इस्तेमाल हो जाता है.

खरपतवार की  रोकथाम : एलोवेरा की खेती में अनुकूल परिस्थितियां पा कर खरपतवार पैदा हो जाते हैं, इसलिए उन की निराईगुड़ाई कर उन्हें खेत से बाहर निकाल देना चाहिए. शुरू में 15 दिन पर और बाद में 1 महीने में निराईगुड़ाई करनी चाहिए, जिस से पौधों का विकास अच्छी तरह हो सके.

पैदावार : एलोवेरा के पौधों से प्रति एकड़ तकरीबन 90 हजार किलोग्राम पत्तियां हर साल तैयार होती हैं. इन का बाजार मूल्य 4-5 रुपए प्रति किलोग्राम है. इस तरह प्रति हेक्टेयर लगभग साढ़े 3 से साढ़े 4 लाख रुपए तक की पैदावार हो जाती है.

इस के अलावा साथ में लगाए जाने वाले सतावर से भी प्रति हेक्टेयर 10-12 क्विंटल सूखी जडें हासिल होती हैं, जिस से ढाई से 3 लाख रुपए की सालाना अतिरिक्त आय होती है.