Irrigation Technique: ‘पर ड्रॉप मोर क्रॉप’ सिंचाई की खास तकनीक

Irrigation Technique : दुनिया-भर में दिनों-दिन पानी की कमी होती जा रही है. ऐसे में भारत भी इससे अछूता नहीं है. खासकर पारंपरिक तरीके से की गई खेती में पानी की अधिक बरबादी होती है. परंतु अब तकनीक का दौर है तो खेती की सिंचाई के तौर-तरीके भी बदल रहे हैं. सरकार भी सिंचाई की अनेक आधुनिक तकनीकों को बढ़ावा देने के लिए अनेक योजनाएं चलाती है. ऐसी ही एक खास योजना ‘पर ड्रॉप मोर क्रॉप’ है. जानिए इस योजना के बारे में क्या है इसमें खास और किसान कैसे इस तकनीक का लाभ लें.

पानी की बचत और ज्यादा उत्पादन

इस सिंचाई पद्धति (Irrigation Technique) को अपनाकर किसान 40 से 50 फीसदी तक पानी की बचत कर सकते हैं, साथ ही 30 से 40 फीसदी तक उत्पादन में भी बढ़ोतरी होती है. खेती में सरकार की ‘पर ड्रॉप मोर क्रॉप’ माइकोइरीगेशन योजना के तहत ड्रिप एवं स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली को प्रभावी ढंग से विभिन्न फसलों में अपनाने हेतु प्रोत्साहित किया जा रहा है.

बूंद-बूंद का इस्तेमाल

इस खास तकनीक को बूंद-बूंद सिंचाई और फव्वारा सिंचाई भी कहा जाता है. इस तकनीक में बूंद-बूंद पानी सिंचाई के काम आता है और पानी की बिलकुल बर्बादी नहीं होती, इसलिए जहां पानी की कमी है, वहां के लिए तो यह तकनीक बहुत ही फायदेमंद है.

क्या है ड्रिप इरीगेशन पद्धति

फसल के अनुसार सिंचाई तकनीक का करें इस्तेमाल. इसमें मिनी, पोर्टेबल, सेमी परमानेंट एवं रेनगन स्प्रिंकलर अलग-अलग सिंचाई के तरीके हैं, लेकिन सभी पानी की बचत के साथ-साथ अच्छी फसल उत्पादन देने में मदद करते हैं.

Irrigation Technique

कौन-सी फसलों में अपनाएं यह तकनीक

बागबानी / फल उद्यान फसलें – आम, अमरूद, आंवला, नीबू, बेल, बेर, अनार, अंगूर, आड़ू, लोकाट, आलूबुखारा, नाशपाती, पपीता एवं केला आदि.

सब्जियां – टमाटर, बैगन, भिंडी, मिर्च, शिमला मिर्च, गोभीवर्गीय, कद्दूवर्गीय एवं अन्य इसी तरह की खेती में कारगर.

सुगंधित एवं औषधीय फसलें – रजनीगंधा, ग्लेडियोलस, गुलाब और औषधीय एवं सुगंधित अन्य फसलों में भी.

अन्य फसलें – आलू, गन्ना और भी कई फसलों में इस योजना के तहत लाभ उठाकर सिंचाई की जा सकती है.

कैसे ले सकते हैं योजना का लाभ

‘पर ड्रॉप मोर क्रॉप’ योजना का संचालन वेब बेस्ड UPMIP पोर्टल के माध्यम से किया जा रहा है. जो किसान इसका लाभ लेना चाहते हैं वे www.upmip.in पोर्टल पर पंजीकरण करवा सकते हैं और सूक्ष्म सिंचाई पद्धति (Irrigation Technique) का लाभ ले सकते हैं. इसके लिए 10 से 90 फीसदी तक अनुदान मिलता है, जो फसल के अनुसार अलग – अलग होता है.

आज के समय पानी खेती की सबसे बड़ी जरूरत है. अगर समय पर फसल को पानी नहीं मिला तो फसल बर्बाद होते समय नहीं लगता. ऐसे में सिंचाई योजनाओं को अपनाना किसानों के लिए फायदे की बात है.

Organic Farming : ‘कृषि मित्र’ किसान विज्ञान शुक्ला की सफलता की कहानी, जानिएं

खेती में रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से मिट्ट‌ी की घटती उर्वराशक्ति और आमजन की बिगड़ती सेहत का जज्बा समझते हुए बांदा जिले के अतर्रा गांव के युवा किसान विज्ञान शुक्ला ने एक ऐसी राह चुनी जो खुद के लिए तो मील का पत्थर साबित हुई और अन्य किसानों के लिए भी खेती में नई राह दिखाने का काम कर रही है. विज्ञान शुक्ला बांदा जिले के ऐसे प्रगतिशील किसान हैं, जिनके साथ आज बुंदेलखंड क्षेत्र के लगभग 15 हजार से अधिक किसान जुड़े हुए हैं और उन के बताए रास्ते पर चल कर सफल खेती कर रहे हैं.

जैविक खेती को अपना कर लाखों की कमाई :

विज्ञान शुक्ल ने बताया कि स्नातक की पढ़ाई के दौरान परिजनों को रासायनिक खादों से जूझते देख कर उन का मन दुखी हो गया था. उन्होंने बताया कि ज्यादातर किसान खेती में रासायनिक खादों का अंधाधुंध इस्तेमाल कर रहे हैं, जिस से खेत की मिट्टी खराब होने के साथ ही लोगों की सेहत के साथ भी खिलवाड़ हो रहा है.

ऐसे में मैं ने एक नई शुरुआत की और कंपोस्ट खाद के निर्माण में जुट गया और खेती में मित्र कीट कहे जाने वाले केंचुओं से बनने वर्मी कंपोस्ट और गोबर की खाद को अपनाया. इस की शुरुआत करने के लिए चार चरही में गोबर भर कर कन्नौज से लाए और उस में केंचुए ला कर छोड़े तो अच्छी वर्मी कंपोस्ट खाद बनने की शुरुआत हुई.

अच्छे नतीजों से उत्साहित हो कर कृषि एवं उद्यान विभाग से अनुदान ले कर काम को आगे बढ़ाया. कुछ समय बाद खेतों में पैदावार बढ़ने लगी, जिस से खाद में अच्छा उत्पादन होने लगा, तो आमदनी भी बढ़ने लगी. 3 वर्षों के बाद इस काम से फसल पैदावार के अलावा खाद बिक्री से लाख रुपया प्रतिवर्ष आय के रूप आने लगा.

कभी अकेले चले थे अब हजारों कदम हैं साथ :

विज्ञान शुक्ला ने अब से लगभग 15 साल पहले अकेले ही जैविक खेती की शुरुआत की और कंपोस्ट बनाने का काम अपने घर से शुरू किया और आज उन से प्रेरणा ले कर जिले के लगभग हजारों किसान जैविक खेती को अपना रहे हैं, जो लगातार उन के संपर्क में रह कर जैविक खेती के अच्छा फसल उत्पादन ले रहे हैं. उन्होंने बताया कि जैविक खेती की शुरुआत के 2 सालों में फसल उत्पादन में 10 से 12 फीसदी तक की कमी आई थी, जो बाद में पूरी हो गई. अब तो रासायनिक खेती की तुलना में 20 से 25 फीसदी अधिक पैदावार मिलती है और कम लागत में गुणवत्तायुक्त फसल उत्पादन मिलता है, जिस के बाजार दाम भी अच्छे मिलते हैं.

विज्ञान शुक्ला ने बताया कि उन के प्रक्षेत्र पर स्थापित वर्मी कंपोस्ट यूनिट, पशुपालन यूनिट, जैविक आउटलेट पर अभी तक लगभग 10 हजार किसान भ्रमण कर चुके हैं.

पशुपालन (Dairy Farming) बना मददगार :

विज्ञान शुक्ला ने बताया कि वे पशुपालन भी कर रहे हैं, जो उन के लिए खेती में खासा मददगार बन रहा है. पशुओं से मिलने वाले गोबर से खाद बनाने का काम तो आसान होता ही है, बल्कि पैसे की भी बचत होती है. डेयरी फार्मिंग के कारोबार से दूध की प्रोसैसिंग कर अनेक उत्पादों से भी खासी कमाई हो जाती है.

कैसे करते हैं खेती :

विज्ञान शुक्ला धान, गेहूं, ज्वार, हाईब्रिड ज्वार, मूंग आदि की खेती करते हैं और खेत की एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करते हैं और 3 जुताई कल्टीवेटर से कर मिट्टी की संतुति के अनुसार बीज तय करते हैं. जुताई के समय गोबर की खाद 6 टन प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालते हैं. खरपतवार की रोकथाम के लिए समय पर निराईगुड़ाई का काम करते हैं और पहली निराई के समय पौधों में विरलीकरण का काम करते हैं. पहली सिंचाई खेती में पुष्पावस्था के समय और दूसरी सिंचाई पुष्प आने के बाद करते हैं.

जैविक तरीके से फसल सुरक्षा :

फसल सुरक्षा के लिए रस चूसने वाले कीटों और छोटी सूंड़ी, इल्लियों की रोकथाम के लिए नीमशास्त्र का इस्तेमाल और कीटों और बड़ी सूंड़ी के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करते हैं. छिड़काव के लिए 100 लिटर पानी में 2.5 मिलीलिटर नीमास्त्र/ ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करते हैं और फसल तैयार होने के बाद फसल काटने पर उसे धूप में सुखा कर 10 से 12 फीसदी नमी पर उस का भंडारण करते हैं. सुरक्षित भंडारण के लिए नीम की सूखी पत्तियों का इस्तेमाल करते हैं. बीज बोने से पहले उस का बीजशोधन ट्राइकोग्रामा 4 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर के बाद राइजोबियम कल्चर 200 ग्राम प्रति 10 किलोग्राम बीज की दर से करते हैं.

लोगों को दे रहे हैं रोजगार :

विज्ञान शुक्ला का कहना है कि उन के प्रक्षेत्र पर 30 वर्मी कंपोस्ट यूनिट लगी हैं और 13 पशुपालन यूनिट हैं. जैविक आउटलेट हैं जिन के जरीए लगभग सैकड़ों लोगों को रोजगार मिल रहा है.

राष्ट्रीय स्तर के कृषि पुरस्कार से सम्मानित :

विज्ञान शुक्ला को उन के द्वारा खेती में किए जा रहे उत्कृष्ट कार्य के लिए अनेक राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार मिल चुके हैं, जिस में राष्ट्रीय स्तर का ‘जगजीवनराम अभिनव पुरस्कार’ भी शामिल है. इस के अलावा पिछले साल दिल्ली प्रैस द्वारा ‘फार्म एन फूड कृषि सम्मान अवार्ड’ के अलावा उन्हें ढेरों सम्मान मिल चुके हैं.

विज्ञान शुक्ला ने अनुसार वर्मी कंपोस्ट तकनीक में 15 फुट लंबी, 3 फुट चौड़ी, 2 फुट ऊंची चरही में 15 क्विंटल गोबर और 4 क्विंटल केंचुआ की जरूरत पड़ती है, जिस में 11 क्विंटल वर्मी कंपोस्ट खाद तैयार हो जाती है.

यह खाद 2 एकड़ खेत के लिए पर्याप्त है. इस में सभी 16 पोषक तत्त्व होते हैं. इस के प्रयोग से यूरिया, डीएपी जैसी रासायनिक खादों की जरूरत नहीं पड़ती है. छोटा से छोटा किसान भी वर्मी कंपोस्ट खाद का उत्पादन कर सकता है.

Frost : सर्दी के मौसम में फसलों को पाले से कैसे बचाएं

Frost: बारिश में ओले और गरमियों में सूखे से जो नुकसान फसलों को होता है, वही जाड़ों में पाले से होता है. कुदरत के इस मौसमी कहर के आगे भी किसान बेबस रहते हैं और फटी आंखों से पाले से हुए नुकसान को देखते रहते हैं.

लेकिन पाले से होने वाले नुकसान को एक हद तक काबू में किया जा सकता है. जब तेज ठंड पड़ती है तो पाले का डर भी बढ़ता है, जिस का ठीकठीक अंदाजा किसान नहीं लगा पाते. कई दफा जब सुबह वे खेत पर जाते हैं, तो सूखे पेड़ देख सिर ठोक लेते हैं कि पाला (Frost) पड़ गया और पैदावार पर ताला जड़ गया.

पाला (Frost) कम से कम नुकसान पहुंचाए, इस के लिए किसान क्या करें? इस बाबत जब कृषि  के माहिर आशीष त्रिपाठी से बात की तो उन्होंने तफसील से जानकारी दी कि जाड़े के दिनों में जब वायु मंडल का तापमान हिमांक से नीचे गिरता है यानी पानी बर्फ की शक्ल में जमने लगता है, तब हवा में मौजूद नमी ओस में तब्दील न हो कर बर्फ के छोटेछोटे कणों में बदल जाती है, जिस से पौधों की पत्तियों का पानी जम जाता है. इस से कोशिकाएं फट जाती हैं और पत्तियां सूख जाती हैं. इसे ही पाला पड़ना कहते हैं. पेश हैं पाला पड़ने के कारणों वगैरह पर आशीष त्रिपाठी से हुई लंबी बातचीत के खास अंश:

क्या पाला पड़ने का अंदाजा पहले से लगाया जा सकता है?

जी हां, किसानों को रोजान मौसम का हाल पता करते रहना चाहिए. यह अखबारों, रेडियो और टीवी के जरीए पता किया जा सकता है. इन्हीं के जरीए जाना जा सकता है कि कब पाला पड़ने वाला है. इस के अलावा तेज जाड़े के मौसम में जब दिन में आसमान साफ रहे और तेज हवाएं न चलें, तो सुबह और शाम के तापमान में गिरावट आती है, ऐसे में पाला (Frost) गिरने का डर ज्यादा रहता है.

इसी तरह जब हवा में आर्द्रता यानी गीलापन कम हो और खेत के नजदीक का तापमान बर्फ जमने के तापमान से कम हो तो पाला गिर सकता है. इस के अलावा जब आसामन के बादल छंटते नजर आएं और हवा की रफ्तार कम हो तो यह भी पाला गिरने का इशारा है.

पाला कैसे नुकसान पहुंचाता है?

पाला (Frost) गिरने से पौधों में खाना बनना रुक जाता है और वे सांस भी नहीं ले पाते. इस से जरूरी पोषक तत्त्व पौधों को नहीं मिल पाते, नतीजतन वे सूखने लगते हैं.

पाले का असर कबकब ज्यादा होता है?

अकसर जाड़े की शुरुआत व आखिर में पाले का कहर ज्यादा देखने में आता है.

पाले से बचाव के लिए किसानों को क्या करना चाहिए?

अगर पाले का डर या अंदेशा हो, तो दिन के वक्त जब धूप खिली हो तब खेत में सिंचाई करने से पाला (Frost) असर नहीं डाल पाता. इस के अलावा शाम के वक्त खेत के चारों तरफ घासफूस में आग लगा कर धुंआ करने से भी पाले का असर कम होता है, पर इस दौरान ध्यान रखना चाहिए कि आग फैल कर नुकसान न पहुंचाए. पानी में घुलनशील सल्फर 80 फीसदी की 2 ग्राम मात्रा 1 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कने से भी फायदा होता है. छोटे पौधों और नर्सरी के ऊपर छांव कर देने से पाले का असर कम होता है.

फलदार पेड़ों में डालियों के नीचे पेपर, कपड़ा या टाटपट्टी बांधने से पाले का नुकसान कम किया जा सकता है. पपीता और आम जैसे पेड़ों में इसे आसानी से किया जा सकता है. फल वाले नए लगाए पौधों के चारों तरफ घासफूस डाल कर उन्हें पाले से बचाया जा सकता है.

सब्जियों को पाले से बचाने के लिए क्या मशवरा देंगे?

सिर्फ सब्जियों को ही नहीं, बल्कि फूल वाली फसलों को भी पाले से नुकसान होता है. इन में गंधक वाले रसायनों का इस्तेमाल आधार खाद के रूप में करना चाहिए.

पाले का अंदाजा हो तो सब्जियों और फूल वाले खेतों में 2 ग्राम सल्फर प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करने से नुकसान काफी कम किया जा सकता है.

क्या तमाम फसलों की पाला रोधी किस्में मौजूद हैं?

सभी फसलों की तो नहीं हैं, लेकिन सब्जियों की कुछ किस्में हैं, जिन पर पाले का असर कम होता है. मसलन टमाटर की पूसा शीतल और मटर की पीएमएम 3 पाला (Frost) रोधी किस्में हैं.

Makhana Revolution : ‘मखाना क्रांति’ का नया रोडमैप

Makhana Revolution : 10 सितंबर 2025. बिहार कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू), सबौर ने मखाना को वैश्विक सुपरफूड ब्रांड बनाने हेतु एक नई कार्ययोजना जारी की है. यह कार्ययोजना मखाना विकास योजना (एमडीएस) की उच्चस्तरीय समीक्षा बैठक में जारी की गई, जिस की अध्यक्षता बीएयू सबौर के अनुसंधान निदेशक और एमडीएस के सीईओ डा. अनिल कुमार सिंह ने की, जहां वैज्ञानिकों और संस्थागत प्रतिनिधियों ने किसान आय बढ़ाने, बीज गुणवत्ता सुधारने और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में विस्तार की रणनीतियों पर विस्तृत विचारविमर्श किया.

बैठक में डा. शैलबाला डे (उप निदेशक अनुसंधान), प्रो. डा. दिलीप कुमार महतो (सह डीन सह प्राचार्य, बीपीएसएसी पूर्णिया और नोडल, एमडीएस), डा. अनिल कुमार (प्रधान अन्वेषक, एमडीएस), डा. तपन गोराई (सह-अन्वेषक), डा. अभिनव कुमार, डा. बालकृष्ण और डा. प्रीति सुंदरम सहित अन्य समिति सदस्य और हितधारक उपस्थित रहे.

नवाचार, किसान प्रशिक्षण और और्गेनिक पहल

बैठक में पायलट प्रोजैक्ट की समीक्षा, किस्म सुधार, कीट प्रबंधन और ‘नो योर क्रॉप’ (केवाईसी) पहल के तहत और्गेनिक मखाना के संवर्धन पर विशेष चर्चा हुई. समिति ने प्रत्येक पखवाड़े ‘मखाना चौपाल’ आयोजित करने पर बल दिया, जिस से किसानों को वैज्ञानिक जानकारी उपलब्ध हो सके. साथ ही प्रशिक्षण मौड्यूल, क्षेत्र विशिष्ट कृषि पैकेज और किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) के माध्यम से व्यापक प्रसार की योजनाओं को अंतिम रूप दिया गया.

मखाना की महत्ता पर बल देते हुए डा. अनिल कुमार सिंह, अनुसंधान निदेशक और सीईओ, एमडीएस ने कहा, “मखाना केवल मिथिला की फसल नहीं, बल्कि भारत का गौरव है. जलवायु के अनुरूप लचीले सुपरफूड के रूप में इस में अपार पोषण और आर्थिक संभावनाएं हैं. यह किसानों की आय बढ़ाने के साथसाथ भारत के निर्यात टोकरे को भी सशक्त बनाएगा. बीएयू सबौर, एमडीएस के माध्यम से तकनीक को खेतखेत तक पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध है.”

पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप की दिशा में कदम

बीएयू सबौर और आईटीसी लिमिटेड के बीच एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर विचार किया जा रहा है, जिस के तहत मखाना की खेती का विस्तार और किसानों को बेहतर बाजार तक पहुंच सुनिश्चित करने की दिशा में काम होगा. यह सहयोग तालाब से थाली तक पूरी वैल्यू चेन को मजबूत करेगा.

प्रगति की सराहना करते हुए बीएयू सबौर के कुलपति डा. डीआर सिंह ने कहा, “बीएयू सबौर मखाना अनुसंधान एवं विकास का राष्ट्रीय केंद्र बन कर उभरा है. मखाना विकास योजना के माध्यम से हम न केवल उत्पादन बढ़ा रहे हैं, बल्कि मिथिला मखाना की वैश्विक पहचान भी गढ़ रहे हैं. विज्ञान, नवाचार और किसान सहभागिता की यह संगति भारत की कृषि अर्थव्यवस्था में नया अध्याय लिखेगी.”

निष्कर्ष

बैठक का समापन इस सामूहिक संकल्प के साथ हुआ कि बिहार को भारत की मखाना क्रांति (Makhana Revolution) का केंद्र बनाया जाएगा. बीएयू सबौर ने सतत कृषि नवाचार और किसान केंद्रित विकास में अपनी अग्रणी भूमिका को एक बार फिर पुष्ट किया.

New Rice Varieties : बाढ़ और रोगों की चुनौती में खरी उतरीं नई धान किस्में

New Rice Varieties : हाल ही में आई बाढ़ के बाद BAU के खेतों में आयोजित फील्ड निरीक्षण के दौरान कुलपति डा. डीआर सिंह ने धान की नई किस्मों (New Rice Varieties) सबौर श्री सब-1, सबौर कतरनी धान-1 और सबौर विभूति धान के प्रदर्शन का जायजा लिया. उन के साथ निदेशक अनुसंधान डा. एके सिंह, निदेशक (बीज और फार्म) डा. फैजा अहमद और धान अनुसंधान दल के अन्य वैज्ञानिक उपस्थित थे.

सबौर श्री सब-1 (BRR0266/IET32122)

मार्कर असिस्टेड ब्रीडिंग के माध्यम से विकसित इस किस्म ने 14 दिनों तक जलमग्न रहने के बावजूद 30–35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की उपज दी, जबकि सामान्य परिस्थितियों में यह 50–55 क्विंटल तक उपज देती है. 140–145 दिनों में परिपक्व होने वाली यह किस्म बिहार के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के लिए आदर्श है.

सबौर कतरनी धान-1 (BRR0215)

पारंपरिक कतरनी धान किस्म अकसर बारिश और गिरने से नष्ट हो जाती है. यह उन्नत किस्म केवल 110–115 सैंटीमीटर ऊंची है, जिस से इस के गिरने की संभावना कम होती है. साथ ही, यह भागलपुर की GI टैग वाली कतरनी किस्म की सुगंध और गुणवत्ता को भी बरकरार रखती है. इस की उपज 42–45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और यह 135–140 दिनों में तैयार हो जाती है.

सबौर विभूति धान

इस बार की बाढ़ में 7–8 दिन जलमग्न रहने के बावजूद इस किस्म को केवल 5–10 फीसदी क्षति हुई. इस में बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट (BLB) के खिलाफ 3 प्रतिरोधी जीन मौजूद हैं, साथ ही यह ब्लास्ट रोग को भी सहन करती है. महसूरी-प्रकार की यह अर्धबौनी किस्म 135–140 दिनों में परिपक्व होती है और औसतन 55–60 क्विंटल की उपज देती है. अनुकूल परिस्थितियों में यह 85 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज दे सकती है.

New Rice Varieties

कुलपति डा. डीआर सिंह ने कहा, “हालिया बाढ़ और रोगों की बढ़ती घटनाएं दर्शाती हैं कि ऐसी किस्में समय की मांग हैं. BAU की ये धान किस्में किसानों को जलवायु संकट और रोगों के दबाव से सुरक्षा प्रदान करते हुए उन की आमदनी सुनिश्चित करती हैं.”

डॉ. एके सिंह, निदेशक अनुसंधान ने कहा, “सबौर श्री सब-1, कतरनी धान-1 और विभूति धान वैज्ञानिक अनुसंधान और फील्ड परीक्षण का परिणाम हैं. हाल की आपदाओं में इन की सफलता यह प्रमाणित करती है कि ये किस्में बिहार के किसानों के लिए वरदान हैं.”

बिहार के लिए महत्त्व

बिहार में 30 लाख हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में धान की खेती होती है, लेकिन हर साल बाढ़, जलमग्नता और BLB जैसी बीमारियां किसानों की उपज और आय पर असर डालती हैं. BAU सबौर द्वारा विकसित ये उन्नत किस्में न केवल इन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करती हैं, बल्कि जलवायु के प्रति संवेदनशील कृषि के लिए भी आशा की नई किरण हैं.

इन उपलब्धियों के साथ, BAU सबौर एक बार फिर किसानों की आवश्यकताओं के अनुरूप, नवाचारी और टिकाऊ कृषि समाधान प्रदान करने वाले अग्रणी राष्ट्रीय संस्थान के रूप में अपनी भूमिका को सिद्ध करता है.

Wheat Variety : हकृवि ने विकसित की गेहूं की नई किस्म डब्ल्यूएच 1309

Wheat Variety : 10 सितंबर. चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के गेहूं एवं जौ अनुभाग द्वारा गेहूं की पछेती किस्म डब्ल्यूएच 1309 विकसित की गई है. डब्ल्यूएच 1309 किस्म अन्य सभी किस्मों की तुलना में गरमी के प्रति अधिक सहनशील है.

इस किस्म (Wheat Variety) की हरियाणा की राज्य बीज उपसमिति द्वारा अनुशंसा की गई है. जलवायु परिवर्तन के कारण मार्च के महीने में तापमान की बढ़ोतरी देखी गई है, जिस से गेहूं की फसल पर दुष्प्रभाव पड़ता है. लेकिन इस किस्म की पैदावार पर तापमान के बढ़ने का असर नहीं होगा.

विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कांबोज ने नई किस्म (Wheat Variety) को विकसित करने वाले वैज्ञानिकों को बधाई दी और बताया कि धान की कटाई में देरी, जलभराव या अन्य कारणों से हरियाणा के 15 से 20 फीसदी क्षेत्र में गेहूं की बिजाई में देरी हो जाती है. इस के मद्देनजर विश्वविद्यालय के गेहूं एवं जौ अनुभाग के वैज्ञानिकों की टीम द्वारा गेहूं की अधिक पैदावार देने वाली नई पछेती किस्म डब्ल्यूएच 1309 विकसित की गई है. सिंचित परिस्थितियों के परीक्षणों में उपरोक्त किस्म ने औसत उपज 55.4 क्विंटल प्रति हैक्टेयर दर्ज की है और इस की अधिकतम उपज 64.5 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है.

हरियाणा के विभिन्न जिलों में किसानों के खेत पर किए प्रयोगों में इस की औसत उपज 54.3 क्विंटल प्रति हैक्टेयर रही, जो कि किस्म डब्ल्यूएच 1124 (48.2 क्विंटल प्रति हैक्टेयर) की तुलना में 12.7 फीसदी ज्यादा रही.

जनवरी के पहले हफ्ते तक इस की बोआई की जा सकती है. जनवरी महीने के दौरान किसानों के खेत पर की गई बिजाई का प्रदर्शन भी बहुत अच्छा रहा जिस में इस किस्म की पैदावार 40-50 क्विंटल प्रति हैक्टेयर रही. इस के दाने मोटे व चमकीले होते हैं. इस किस्म (Wheat Variety) से पछेती बिजाई करने वाले हरियाणा के किसानों को अधिक लाभ मिलेगा.

उन्होंने आगे बताया कि यह किस्म (Wheat Variety) पीला रतुआ, भुरा रतुआ व अन्य बीमारियों के प्रति रोगरोधी है. यह किस्म जैविक खेती के लिए भी उपयुक्त है और इसे लवणीय क्षेत्र में भी बोया जा सकता है. यह लंबी बालियां, शीघ्र पकाव और मोटे दाने वाली उन्नत किस्म है.

डब्ल्यूएच 1309 की बिजाई का उचित समय, बीज व खाद की मात्रा

अनुसंधान निदेशक डा. राजबीर गर्ग ने बताया कि गेहूं की नई किस्म (Wheat Variety) डब्ल्यूएच 1309 की बिजाई का उचित समय 1 दिसंबर से 20 दिसंबर है और बीज की मात्रा 125 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर है. इस किस्म की अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए शुद्ध नाइट्रोजन 150, फास्फोरस 60, पोटाश 30, जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर प्रयोग की सिफारिश की जाती है. यह नई किस्म पछेती बिजाई वाले क्षेत्रों के लिए वरदान साबित होगी.

डब्ल्यूएच 1309 किस्म की विशेषताएं

कृषि महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. एसके पाहुजा ने बताया कि डब्ल्यूएच 1309 किस्म 83 दिन में बालियां निकालती है और 123 दिन में पक कर तैयार हो जाती है. इस किस्म (Wheat Variety) की बालियां लंबी व भूरे रंग की होती हैं. इस किस्म की ऊंचाई 98 सैंटीमीटर है, जिस से इस के गिरने का खतरा न के बराबर है. इस किस्म का दाना मोटा है. इस में 13.2 फीसदी प्रोटीन, हेक्टोलीटर वजन 81.9 केजी/एचएल व अवसादन मान 54 मिलीलिटर है, इसलिए पौष्टिकता व चपाती बनाने के लिए यह किस्म अच्छी है.

इन वैज्ञानिकों का रहा अहम योगदान

विश्वविद्यालय के गेहूं एवं जौ अनुभाग के वैज्ञानिकों की टीम ने गेहूं की एक नई किस्म डब्ल्यूएच 1309 विकसित की है. डा. विक्रम सिंह, एमएस दलाल, ओपी बिश्नोई, दिव्या फोगाट, योगेंद्र कुमार, हर्ष, सोमवीर, वाईपीएस सोलंकी, राकेश कुमार, गजराज दहिया, आरएस बेनीवाल, भगत सिंह, रेणु मुंजाल, प्रियंका, पवन कुमार व शिखा का इस किस्म (Wheat Variety) को विकसित करने में अहम योगदान रहा है.

Wheat Scientists : गेहूं वैज्ञानिकों को मिला राष्ट्रीय सम्मान

Wheat Scientists  : चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के गेहूं वैज्ञानिकों (Wheat Scientists) को 64वीं अखिल भारतीय गेहूं एवं जौ शोधकर्ता वार्षिक गोष्ठी में केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया. यह गोष्ठी ग्वालियर में आयोजित की गई जिस में विश्वविद्यालय की टीम को प्रतीक चिन्ह एवं प्रमाणपत्र दिया गया. समारोह में मध्य प्रदेश के कृषि मंत्री ऐदल सिंह कंसाना तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के महानिदेशक डा. एमएल जाट उपस्थित रहे.

बेहतर चपाती गुणवत्ता वाली गेहूं किस्म डब्ल्यूएच 1306 को मिला प्रतिष्ठित पुरस्कार

विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने बताया कि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित गेहूं की उन्नत किस्म डब्ल्यूएच 1306 को उच्च उत्पादकता, रोग प्रतिरोधकता और बेहतर गुणवत्ता के लिए देशभर में सराहा गया है. यह किस्म विशेष रूप से भारत के प्रायद्वीपीय क्षेत्रों महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, गोवा, तमिलनाडु और केरल के लिए सिंचित एवं समय पर बोआई हेतु विकसित की गई है. उन्होंने बताया कि चपाती गुणवत्ता के मानकों पर यह किस्म देशी किस्म सी 306 के बाद हकृवि की दूसरी सर्वश्रेष्ठ किस्म मानी गई है. उन्होंने विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों को अर्जित की गई इस उपलब्धि के लिए बधाई देते हुए कहा कि यह सम्मान हमारे अनुसंधान की गुणवत्ता एवं किसानों की समृद्धि के प्रति हमारी प्रतिबद्धता का प्रमाण है.

डब्ल्यूएच 1306 की विशेषताएं :

अनुसंधान निदेशक डा. राजबीर गर्ग ने डब्ल्यूएच 1306 की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए बताया कि इस किस्म की औसत उपज 50.4 किवंटल प्रति हैक्टेयर, अधिकतम उत्पादन क्षमता 72.8 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है. इस किस्म में प्रोटीन की मात्रा 12.4 प्रतिशत, लौह तत्त्व (आयरन) 40.8 पीपीएम, जिंक 40.5 पीपीएम तथा ग्लूटेन 96 (उच्चतम) है, जिस से यह किस्म व्यावसायिक उत्पादों के लिए अत्यंत उपयुक्त सिद्ध होती है.

August : अगस्त माह के खेतीबारी से जुड़े खास काम

August: खेत में लगी फसलों के लिए अगस्त का महीना बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है. बारिश न होने पर फसलों पर बुरा प्रभाव पड़ता है. लगातार ज्यादा बारिश होने पर फसलें गलने लगती है. ऐसी स्थिति में पानी निकालने की व्यवस्था होनी चाहिए. अगस्त के महीने में, किसानों को खरीफ फसलों की देखभाल, खरपतवार नियंत्रण और कीटरोग प्रबंधन पर विशेष ध्यान देना चाहिए.

प्रो. रवि प्रकाश मौर्य निदेशक प्रसार्ड ट्रस्ट मल्हनी भाटपार रानी ने बताया कि इस समय रूकरूक कर लगातार बारिश हो रही है, जो फसलों के लिए लाभदायक है. परंतु लगातार बारिश होने पर कीटरोग पनपने लगते हैं, इस की पहचान कर रोकथाम करना चाहिए. नाइट्रोजन की शेष मात्रा का भी फसलों में आवश्यकता अनुसार टौप ड्रैसिंग करें.

धान की रोपाई के 25-30 दिन बाद अधिक उपज वाली प्रजातियों में 30 किलोग्राम नाइट्रोजन ( 65 किलोग्राम यूरिया), सुगंधित प्रजातियों में प्रति हेक्टेयर 15 किलोग्राम नाइट्रोजन (33 किलोग्राम यूरिया) की टौप ड्रैसिंग करें. नाइट्रोजन की इतनी ही मात्रा की दूसरी और अंतिम टौप ड्रैसिंग धान की रोपाई के 50-60 दिन बाद करनी चाहिए.

धान में खैरा रोग लगने की संभावना जिंक की कमी के कारण होती है. इस रोग में पत्तियां पीली पड़ जाती है, जिस पर बाद में कत्थई रंग के धब्बे बन जाते हैं. इस के प्रबंधन के लिए 5 किलोग्राम जिंक सल्फेटअ और 20 किलोग्राम यूरिया को 1,000 लिटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

मक्का की फसल में नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर 40 किलोग्राम (87 किलोग्राम यूरिया) की दूसरी और अंतिम टौप ड्रैसिंग बोआई के 45-50 दिन बाद, नरमंजरी निकलते समय करनी चाहिए. ध्यान रहे कि खेत में उर्वरक प्रयोग करते समय पर्याप्त नमी हो.

Augustउड़द और मूंग के खेत में निराईगुड़ाई कर खरपतवार निकाल दें. पीला मोजैक रोग से बचने के लिए डाइमेथोएट 30 ई.सी. की एक लिटर मात्रा को 500-600 लिटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से शाम को छिड़काव करें.

इस समय गन्ने की लंबाई तकरीबन 2 मीटर की हो जाती है. गन्ना बांधने का कार्य पूरा कर लें. ध्यान रहे कि बांधते समय हरी पत्तियां एक समूह में न बंधे. शिमला मिर्च, टमाटर व गोभी की मध्यमवर्गीय किस्मों की पौधशाला में नर्सरी पूरे माह भर डाल सकते हैं. पत्तागोभी की नर्सरी माह के अंतिम सप्ताह में डालें. नर्सरी बारिश से बचाने के लिए पौलीथिन से कवर करनी चाहिए. बैगन, मिर्च, अगैती फूलगोभी व खरीफ प्याज की रोपाई करें. बैगन, मिर्च, भिंडी की फसलों में निराईगुड़ाई व जल निकास और फसल सुरक्षा की व्यवस्था करें.

कद्दू वर्गीय सब्जियों में मचान बनाकर उस पर बेल चढ़ाने से उपज में वृद्धि और स्वस्थ फल बनेंगे. परवल लगाने के लिए मेघा नक्षत्र (15 अगस्त के आस पास का समय) सब से बढ़िया रहता है.

आम, अमरूद, नीबू, आंवला, बेर, बेल, अनार आदि के नए बाग लगाने का समय अभी चल रहा है. इन की पौध किसी विश्वसनीय पौधशाला से ही प्राप्त कर लगाएं. किसी कारण से किसी खेत में कोई फसल नही लगा पाए हो तो उस में लाही/तोरिया की बोआई माह सितंबर में मौका मिलते ही करें. यह कम अवधि 90-95 दिन की तिलहनी फसल है, इसे काटकर गेहूं की फसल ले सकते हैं.

Farming Education: खेतीकिसानी की शिक्षा बनी मिसाल

Farming Education: भारत की तरक्की में सब से खास भूमिका कृषि क्षेत्र की है. इस के बावजूद कृषि को प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में वह जगह नहीं मिल पाई है, जो दूसरे विषयों को मिली है. कृषि शिक्षा की शुरुआत अकसर 10वीं के बाद की कक्षाओं से होती है, जिस की वजह से छात्र शुरू की पढ़ाई के समय में कृषि जैसे खास विषय की जानकारी नहीं हासिल कर पाते हैं, जबकि खेतिकिसानी की शिक्षा शुरू से ही देना जरूरी है. बच्चों को अपने देश की कृषि समस्याओं, फसलों व कृषि से जुड़े रोजगार की जानकारी शुरू से होनी चाहिए, ताकि वे आगे की शिक्षा में अपनी जानकारी का बेहतर इस्तेमाल कर के भारतीय कृषि को ज्यादा फायदेमंद व बेहतर बना सकें.

शुरुआती शिक्षा के दौरान कृषि पर ध्यान न देने की वजह से बस्ती जिले के विकास खंड बस्ती सदर के पूर्व माध्यमिक विद्यालय परसा जागीर के एक अध्यापक ने विद्यालय के साथी शिक्षकों के साथ मिल कर प्राथमिक स्तर से ही बच्चों को कृषि शिक्षा देने की शुरुआत की है. अध्यापक डा. सर्वेष्ठ मिश्र के विद्यालय की खाली जगह में बच्चों द्वारा तैयार की गई हरीभरी फसल आने वाले लोगों का मन मोह लेती है. वे एक ऐसे शिक्षक हैं जो सरकार द्वारा तय पाठ्यक्रम के अलावा खेती की शिक्षा को प्राथमिक स्तर पर लागू कर के बच्चों के मन में खेतीकिसानी के प्रति जागरूकता पैदा करने का काम कर रहे हैं. एमए, एमएड व पीएचडी डिगरी धारक डा. सर्वेष्ठ मिश्र की पहली नौकरी बस्ती जिले के विकास खंड गौर के प्राथमिक विद्यालय मुसहा प्रथम में लगी. वहां उन्होंने छात्रों की संख्या 816 तक पहुंचाई.

इस के बाद वे तबादला होने की वजह से पूर्व माध्यमिक विद्यालय परसा जागीर आए. वहां पर विद्यालय के पास काफी मात्रा में खाली जमीन पड़ी थी. इस खाली जमीन का इस्तेमाल कर के उन के अंदर छिपे हुए किसान ने एक ऐसे नवाचार को जन्म दिया जिस से न केवल स्कूल में बच्चों के दाखिलों में बढ़ोतरी हुई, बल्कि आज वहां के बच्चे जिले व प्रदेश में स्कूल का नाम रोशन कर रहे हैं.

डा. सर्वेष्ठ मिश्र ने स्कूल की जिम्मेदारी संभालने के बाद आसपास के गांवों में घरघर जा कर लोगों से अपने विद्यालय में बच्चों के दाखिले की अपील की और लोगों को यकीन दिलाया कि वे किसी भी महंगे स्कूल से ज्यादा अच्छी शिक्षा देने की कोशिश करेंगे. उन्होंने बच्चों को धीरेधीरे खेतीकिसानी की शिक्षा देनी शुरू की. वे रोजाना स्कूल के समय से 1 घंटा पहले स्कूल पहुंच जाते हैं और स्कूल की खाली पड़ी बंजर जमीन को जैविक खादों से उपजाऊ बनाने का काम करते हैं. इस से बच्चे भी खेतीकिसानी में दिलचस्पी लेने लगे हैं.

खाली जमीन पर लहलहाती है फसल : डा. सर्वेष्ठ मिश्र की खेतीकिसानी की शिक्षा की पहल उस समय रंग लाने लगी जब बच्चे उन के साथ स्कूल की खाली पड़ी जमीन पर रोज 1 घंटे तक कई तरह की फसलों को उपजाने की कोशिश करने लगे. छात्रछात्राओं ने डा. सर्वेष्ठ मिश्र के निर्देशन में जैविक खादें तैयार करना सीखा.

जैविक खाद बच्चों द्वारा घरों पर तैयार की जाती है और स्कूल आते वक्त बच्चे खाद को खेत में डालने के लिए साथ ले आते हैं. यहां के बच्चे कई तरह की फसलों के नाम जानने के साथसाथ उन में खाद की कितनी मात्रा का इस्तेमाल करना है और किसी कीट व बीमारी लगने पर किस तरह के कीटनाशक का इस्तेमाल किया जाए, सारी जानकारी रखते हैं. बच्चों द्वारा तैयार की गई फसल उन के दोपहर के भोजन के काम में लाई जाती है, जिस से बच्चों को पौष्टिक भोजन मिलता है.

Farming Educationयह डा. सर्वेष्ठ मिश्र की खेती के प्रति लगन का ही नतीजा है कि यहां पढ़ने वाले बच्चे अपने मातापिता को खेतीकिसानी के बारे में सलाह तक देते हैं.

नवाचार बनी पहचान : परसा जागीर पूर्व माध्यमिक विद्यालय के नवाचार जिले व प्रदेश में अपनी पहचान रखते हैं. यहां के बच्चे न केवल खेतीकिसानी बल्कि खेलकूद, पढ़ाई, योगा, कंप्यूटर वगैरह में भी होशियार हैं. इस विद्यालय में डा. सर्वेष्ठ मिश्र ने अंगरेजी स्कूलों की तर्ज पर अपने वेतन के पैसे से बच्चों के लिए आईडी कार्ड, टाई, बेल्ट वगैरह का बंदोबस्त किया है. प्यूरीफाइड पानी के लिए आरो मशीन भी लगवाई है. इस के अलावा बिना किसी सरकारी सहयोग के ही वे हफ्ते में 1 दिन बच्चों को अपने लैपटाप से कंप्यूटर की शिक्षा देने का भी काम करते हैं.

यहां के बच्चे जिला, मंडल व राज्य स्तर पर खेलकूद में हिस्सा ले कर स्कूल का नाम रोशन कर चुके हैं. सुहैल अहमद नाम के एक छात्र को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी सांसद डिंपल यादव द्वारा लखनऊ में मीना रत्न अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है.

डा. सर्वेष्ठ मिश्र बच्चों के बौद्धिक विकास के लिए हर मुमकिन कोशिश करते हैं. वे समयसमय पर बच्चों को कई तरह के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्थानों पर घुमाने ले जाते हैं. डा. सर्वेष्ठ मिश्र विद्यालय में किए जाने वाले सभी नवाचारों को सोशल मीडिया के माध्यम से फैलाने का काम भी कर रहे हैं. उन के द्वारा बनाया गया शैक्षिक नवाचार फेसबुक पेज लगभग डेढ़ लाख की लाइक की सीमा को पार कर चुका है.

उन का कहना है कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा संचालित इस विद्यालय से सीख ले कर दूसरे विद्यालयों को भी बुनियादी स्तर पर देश की रीढ़ मानी जाने वाली कृषि शिक्षा को बढ़ावा देने का काम करना चाहिए. और इस के लिए सरकार को भी चाहिए कि वह बुनियादी स्तर पर कृषि शिक्षा को पाठ्यक्रम में शामिल करे, ताकि नए कृषि वैज्ञानिक तैयार हो सकें.

Cotton : कपास के खास रोग और उन का इलाज

Cotton : भारत में कपास के 25 से भी ज्यादा रोग अलगअलग कपास उगाने वाले राज्यों में पाए जाते हैं. इन रोगों में खास हैं छोटी अवस्था में पौधों का मरना, जड़गलन, उकठा रोग और मूलग्रंथि सूत्रकृमि रोग.

पौध का मरना : जमीन में रहने वाली फफूंदों जैसे राईजोक्टोनिया, राइजोपस, ग्लोमेरेला व जीवाणु जेनथोमोनास के प्रकोप से कपास के बीज उगते ही नहीं हैं. अगर उग भी जाते हैं, तो जमीन के बाहर निकलने के बाद छोटी अवस्था में ही मर जाते हैं, जिस से खेतों में पौधों की संख्या घट जाती है व कपास के उत्पादन में कमी आ जाती है.

रोकथाम

* अच्छे किस्म के बीज का इस्तेमाल करना चाहिए.

* बोआई से पहले फफूंदनाशी, थिराम, विटाबेक्स, कार्बंडाजिम व एंटीबायोटिक्स स्ट्रेप्टोसाइक्लिन से बीजों का उपचार करना चाहिए.

जड़गलन : यह रोग देशी कपास का भयंकर रोग है. आमतौर पर इस बीमारी से 2-3 फीसदी नुकसान हर साल होता है. यह रोग जमीन में रहने वाली राइजोक्टोनिया सोलेनाई व राइजोक्टोनिया बटाटीकोला नामक फफूंद से होता है. रोग लगे पौधे एकदम से सूखने लगते हैं और मर जाते हैं. बीमार पौधों को आसानी से उखाड़ा जा सकता है. जड़ सड़ने लगती है व छाल फट जाती है. बुरी तरह से रोग लगे पौधे की जड़ अंदर से भूरी व काली हो जाती है. हवा में और जमीन में ज्यादा नमी व गरमी रहने से व सिंचाई से सही नमी का वातावरण मिलने पर बीमारी का असर बढ़ता है. बीमारी आमतौर पर पहली सिंचाई के बाद पौधों की 35 से 45 दिनों की उम्र में दिखना शुरू हो जाती है.

रोकथाम

* मई के पहले पखवाड़े में बोआई से बीमारी कम होती है. ज्योंज्यों पछेती बोआई करते हैं, बीमारी बढ़ती है.

* बीजोपचार कार्बंडाजिम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करना चाहिए.

* कपास और मोठ की मिलीजुली खेती से बीमारी का असर कम होता है.

* बीजोपचार बायोएजेंट ट्राइकोडर्मा

4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करने से रोग का असर कम होता है.

* मिट्टी का उपचार जिंकसल्फेट

24 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से करने

से बीमारी में कमी आती है.

* देसी कपास की आरजी 18 और सीए 9, 10 किस्मों में यह रोग कम लगता है.

* ट्राइकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद में मिला कर बोआई से पहले जमीन में देने से रोग में कमी आती है.

उकठा : यह रोग भारत के मध्य पश्चिम इलाकों में पाया जाता है. मध्य प्रदेश, कर्नाटक व दक्षिण गुजरात के काली मिट्टी वाले इलाकों में यह रोग बहुत होता है. रोग लगे पौधे छोटी अवस्था में मर जाते हैं या छोटे रह जाते हैं. फूल छोटे लगते हैं व उन का रेशा कच्चा होता है. राजस्थान में देसी कपास में यह बीमारी श्रीगंगानगर व मेवाड़ कपास क्षेत्रों में ज्यादा होती है. यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्योरम वाइन्फेटस नामक फफूंद से होता है. रोगी पौधे को चीर कर देखने पर ऊतक काले दिखाई देते हैं.

रोकथाम

* जिन इलाकों में यह रोग होता है वहां गोसिपियम आरबोरियम की जगह पर गोसिपियम हिरसुटम कपास उगाएं.

* जड़ गलन की रोकथाम के लिए बीजोपचार कार्बंडाजिम से व भूमि उपचार जिंकसल्फेट से करना चाहिए. इस से यह रोग कम होता है.

मूलग्रंथि रोग : यह रोग मिलाईरोगायनी नामक सूत्रकृमि के पौधों की जड़ों पर आक्रमण करने से पैदा होता है. इस रोग के कारण कपास की जड़ों की बढ़वार रुक जाती है व छोटीछोटी गांठें दिखाई देने लगती हैं. इस वजह से पौधा जमीन से पानी व दूसरे रासायनिक तत्त्वों का इस्तेमाल ठीक तरह से नहीं कर पाता है. पौधा छोटा रह जाता है और पीला पड़ कर व सूख कर मर जाता है.

रोकथाम

* जिन खेतों में सूत्रकृमि का असर देखने को मिले उन में दोबारा कपास न बोएं.

* गरमी के मौसम में खेत में गहरी जुताई करें व खेतों को गहरी धूप में तपाएं, ताकि सूत्रकृमि मर जाएं.

* फसलचक्र में ज्वार, घासे, रीज्का की बोआई करें.

* बोआई से पहले रोग लगे खेतों का कार्बोफ्यूरान 3 जी से 45 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपचार करें.

Cotton

कपास की पत्तियों पर लगने वाले रोग

कपास की फसल में फफूंद, जीवाणु व वायरस के असर से पत्तियों पर कई बीमारियां लग जाती हैं. इन रोगों की वजह से पौधों की पत्तियां भोजन ठीक तरह से नहीं बना पातीं. कपास के डोडे सड़ जाते हैं, फल कम बनते हैं व कपास के रेशे की किस्म अच्छी नहीं रहती है. पत्तियों की मुख्य बीमारियां हैं शाकाणु झुलसा, पत्तीधब्बा व लीफ कर्ल.

शाकाणु झुलसा : कपास का यह भयंकर रोग जेंथोमोनास एक्सोनोपोडिस मालवेसिएरम जीवाणु बैक्टीरिया द्वारा होता है. यह पौधों के सब हिस्सों में लग सकता है. इस रोग को कई नामों से जाना जाता है. रोग लगने पर बीज पत्तों पर गहरे हरे रंग के पारदर्शक धब्बे दिखाई देते हैं.

ये शाकाणु धीरेधीरे नई पत्तियों की ओर फैलते हैं और पौधा किशोरावस्था में ही मुरझा कर मर जाता है. इस को सीडलिंग ब्लाइट कहते हैं. जब फसल करीब 6 हफ्ते की हो जाती है, तो पत्तियों पर छोटेछोटे पानी के धब्बे बनने लगते हैं. ये धीरेधीरे बड़े हो कर कोणीय आकार लेने लगते हैं. इसीलिए इसे कोणीय पत्ती धब्बा रोग या एंगुलर लीफ स्पौट कहते हैं.

पत्तियों की नसों में भी यह रोग फैल जाता  है व उन के सहारे बढ़ता रहता है. इसे बेनबलाइट कहते हैं. रोग का जोर ज्यादा होने पर पत्तियां सूख कर गिरने लगती हैं. जब रोग तने और शाखाओं पर आक्रमण करता है, तो काला कर देता है.

रोगी भाग हवा चलने पर टूट जाता है. डोडियों पर भी रोग का हमला हो सकता है. डोडियों पर नुकीले और तिकोने धब्बे हो जाते हैं. धब्बों से सड़ा हुआ पानी सा निकलता है. ज्यादा धब्बे होने पर रेशे की किस्म पर भी असर पड़ता है.

* अमेरिकन कपास की बोआई 1 मई से 20 मई के बीच करनी चाहिए.

* कपास के बीजों को 8 से 10 घंटे तक स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या प्लांटोमाइसीन 100 पीपीएम घोल में डुबो कर उपचारित करना चाहिए. यदि डिलिटेंड बीज है, तो उसे केवल 2 घंटे ही भिगोना चाहिए.

* फसल पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या प्लांटोमाइसीन 50 पीपीएम और कापरआक्सीक्लोराइड 0.3 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए. इसे 15 दिनों पर दोहराना चाहिए.

पत्ती धब्बा रोग : यह रोग कपास में आल्टरनेरिया, मायरोथिसियम, सरकोस्पोरा, हेल्मिन्थोस्पोरियम नामक फफूंदों से होता है. रोग के लक्षण पत्तों पर धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं. धीरेधीरे धब्बे बड़े होने से पत्ती का पूरा भाग रोग ग्रसित हो जाता है. नतीजतन कपास की पत्तियां गिरने लगती हैं व उपज में कमी आ जाती है.

रोकथाम : बीज को बोने से पहले बीजोपचार करना चाहिए व फसल पर रोग के लक्षण दिखाई पड़ते ही कौपरआक्सीक्लोराइड या मेंकोजेब 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.

पत्ती मुड़न लीफ कर्ल : कपास का पत्ती मुड़न रोग सब से पहले 1993 में श्रीगंगानगर में किसानों के खेतों में देखा गया था. अब यह रोग काफी फैल गया है. कपास का लीफ कर्ल रोग जैमिनी वायरस से होता है व सफेद मक्खी से फैलता है.

यह रोग बीज व भूमि जनित नहीं है. रोग के लक्षण कपास की ऊपरी कोमल पत्तियों पर दिखाई पड़ते हैं. पत्तियों की नसें मोटी हो जाती हैं, तो पत्तियां ऊपर की तरफ या नीचे की तरफ मुड़ जाती हैं. पत्तियों के नीचे मुख्य नसों पर छोटीछोटी पत्तियों के आकार दिखाई पड़ते हैं. रोगी पौधों की बढ़वार रुक जाती है, कलियां व डोडे झड़ने लगते हैं और उपज में कमी आ जाती हैं.

रोकथाम

* रोगरोधी किस्में आरएस 875, एलआर 2013, ए 5188, शंकर जीके 151, एलएचएच 144, आरजी 8, आरजी 18 की बोआई करनी चाहिए.

* खेतों से पीलीभुटी, भिंडी, होलीहाक व जीनिया वगैरह पौधे और खरपतवार निकाल देने चाहिए.

* रोग ग्रसित पौधों में रोग के लक्षण नजर आते ही उन्हें नष्ट कर देना चाहिए.

* समय पर सिस्टेमिक कीटनाशी से वायरस फैलाने वाले कीटों को नष्ट करना चाहिए ताकि रोग आगे नहीं फैल सके.