नई दिल्ली: भारत में संरक्षित क्षेत्र के साथसाथ मुक्त वन क्षेत्र में देखे गए इस रक्तस्रावी रोग के कारण हाथी के बछड़ों (एलिफैंट काव्स) की बढ़ती मौत काफी चिंता की वजह है.

एशियाई हाथी हमारे देश के राष्ट्रीय सांस्कृतिक विरासत वाले जंतु हैं और विश्व के कुल हाथियों की आबादी का 55 फीसदी हिस्सा हैं.

ईईएचवी-एचडी रोग के बढ़ते प्रकोप के कारण यह आबादी घट रही है. इसलिए उन्हें इस घातक बीमारी से बचाना जरूरी है. वन क्षेत्र और संरक्षित क्षेत्र में इस रोग की स्थिति की पुष्टि के लिए और अधिक गहन जांच की आवश्यकता है.

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) से संबद्ध संस्थान, विज्ञान और इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड (एसईआरबी) द्वारा समर्थित भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर-आईवीआरआई), इज्जतनगर, बरेली द्वारा किए गए एक अध्ययन में भारत में एशियाई हाथियों की आबादी के बीच संचारित हो रहे ईईएचवी और इस के दूसरे प्रकारों की सटीक स्थिति का पता लगाया गया है.

जर्नल माइक्रोबियल पैथोजेनेसिस में प्रकाशित एक शोध में भारतीय हाथियों की आबादी में फैल रहे इस वायरस के जीनोम की विशेषता बताई गई और इस रोग से जुड़ी एंडोथेलियल कोशिकाओं की शिथिलता के आणविक तंत्र का भी पता लगाया गया.

इस काम के आधार पर अब नैदानिक (डायग्नोस्टिक) किट (पेन साइड) और टीके विकसित करने की सुविधा के लिए काम शुरू किया गया है. इस परियोजना के शोध से एकत्रित जानकारी से एक ऐसी मानक संचलन प्रक्रिया (एसओपी) तैयार करने में सहायता मिली है, जिस से महावतों और हाथी संरक्षणवादियों के बीच बीमारी की जानकारी का प्रबंधन किया जा सकता है.

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