Peas : भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा मटर (Peas) की एक नई किस्म विकसित की गई है, जिसे पूसा प्रगति नाम दिया गया है. यह एक जल्दी तैयार होने वाली बौनी किस्म है, जिस पर चूर्णी फफूंदी नामक रोग नहीं लगता है. यह किस्म महज 60 दिनों में तैयार हो जाती है. यह अर्किल नामक लोकप्रिय किस्म से 8-10 दिनों पहले तैयार हो जाती है.

इस नई किस्म की फली 10 सेंटीमीटर लंबी होती है, जबकि अर्किल की फली 8 सेंटीमीटर लंबी होती है. इस किस्म की फली में 9-10 दाने होते हैं, जबकि अर्किल में प्रति फली करीब 7 दाने होते हैं.

पूसा प्रगति के 100 दानों का भार 21 ग्राम होता है, जबकि अर्किल के 100 दानों का भार महज 18 ग्राम होता है. इस किस्म का औसत उत्पादन करीब 70 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है, जबकि अर्किल का उत्पादन करीब 50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इसी प्रकार पूसा प्रगति के सूखे बीजों का औसत उत्पादन 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है, जबकि अर्किल के सूखे बीजों का उत्पादन  16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर ही है.

इस प्रकार पूसा प्रगति का उत्पादन अर्किल की तुलना में करीब 20 फीसदी अधिक है. वैसे पूसा प्रगति में अच्छा प्रबंधन कर के प्रति हेक्टेयर 115-120 क्विंटल हरी फलियों का उत्पादन लिया जा सकता है. साथ ही इसे अक्तूबर से ले कर दिसंबर तक पूरे भारत में कहीं भी लगा सकते हैं.

आबोहवा : मटर (Peas) की फसल को नम व ठंडी आबोहवा की जरूरत होती है. भारत में ज्यादातर क्षेत्रों में इसे रबी मौसम में उगाया जाता है. जहां सालाना बारिश 60-80 सेंटीमीटर तक होती है, उन सभी स्थानों पर मटर की फसल को उगाया जाता है. मटर के पौधे बढ़ने के दौरान कम तापमान की  जरूरत होती है. मटर  की फसल पर पाले का बेहद हानिकारक असर पड़ता है. फलियां बनने की शुरुआत में उच्च तापमान व शुष्क आबोहवा का खराब असर पड़ता है.

मिट्टी : उन सभी कृषि योग्य मिट्टियों में, जिन में सही मात्रा में नमी उपलब्ध हो, मटर (Peas) की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है. वैसे मटियार दोमट व दोमट मिट्टी मटर की खेती के लिए मुफीद होती है. रेतीली दोमट मिट्टियों में सिंचाई की सुविधा होने पर मटर की खेती की जा सकती है. उदासीन पीएच मान वाली मिट्टी मटर के उत्पादन के लिए अच्छी मानी जाती है.

खेत की तैयारी : खरीफ की फसल काटने के बाद मिट्टी पलटने वाले हल से खेत की जुताई करनी चाहिए. उस के बाद 3-4 बार हैरो या कल्टीवेटर के द्वारा जुताई कर के, पाटा लगा कर मिट्टी को भुरभुरा कर लेना चाहिए. यदि जमीन में नमी की कमी हो, तो खेत की तैयारी से पहले पलेवा कर लेना चाहिए.

खाद व उर्वरक : खेत की तैयारी के समय 20-25 टन गोबर की अच्छी तरह सड़ी खाद प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिए. कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट 25 किलोग्राम या यूरिया 60 किलोग्राम, सिंगल सुपर फास्फेट 420 किलोग्राम और म्यूरेट आफ पोटाश 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के समय डालनी चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्रा को बोआई के 30-45 दिनों बाद सिंचाई कर के टाप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिए.

बोआई का समय : उत्तर भारत में सब्जी वाली मटर (Peas) की बोआई का सही समय सितंबरअक्तूबर है. बोआई का समय इस बात पर निर्भर करता है कि खरीफ फसल की कटाई कब की जा रही है. वैसे सितंबर में बोई गई फसल में तना बेधक कीट का हमला अधिक होता है.

बीज दर : अगेती किस्मों के लिए प्रति हेक्टेयर 100 किलोग्राम बीज लगता है, जबकि मध्यकालीन व पछेती किस्मों के लिए प्रति हेक्टेयर 70-75 किलोग्राम बीज लगता है.

जीवाणु कल्चर से बीजोपचार : मटर  (Peas) एक दलहनी फसल है, लिहाजा जड़ों की गांठें विकसित करने हेतु बीजों को जीवाणु कल्चर से उपचारित करना बेहद जरूरी है. जिस खेत में पिछले साल मटर की फसल उगाई गई हो, उस में जीवाणु कल्चर का उपचार करना आवश्यक नहीं है.

कल्चर से उपचार करने हेतु थोड़ा पानी गरम कर के 300 ग्राम गुड़ का घोल बनाएं. घोल को ठंडा करने के बाद 3 पैकेट कल्चर व बीज इस घोल में मिला कर छाया में सुखा लें.

बोने की विधि : रबी फसल में अगेती सब्जी मटर (Peas) की बोआई लाइनों में 30-35 सेंटीमीटर की दूरी पर करनी चाहिए, जबकि मध्य मौसमी या पछेती किस्मों में 45 सेंटीमीटर की दूरी पर बोआई करनी चाहिए. पौधों की आपसी दूरी 6-8 सेंटीमीटर रखी जाती है. बीजों को 5-7 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए. बीज बोने हेतु हैंड डिबलिंग या सीडड्रिल का इस्तेमाल करना चाहिए.

सिंचाई व जल निकास : सब्जी मटर में समय पर सिंचाई करना बहुत जरूरी व अहम काम है. आमतौर पर मटर (Peas) की फसल को प्रति हेक्टेयर 20-25 सेंटीमीटर पानी की आवश्यकता होती है.

सिंचाई हमेशा हलकी करनी चाहिए. पहली सिंचाई फूल निकलने के समय करनी चाहिए. दूसरी सिंचाई फल बनने के समय करनी चाहिए. फसल को पाले से बचाने के लिए फूल व फली आते समय सिंचाई जरूर करनी चाहिए.

सिंचाई करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि खेत में पानी जमा न होने पाए वरना फसल पीली पड़ कर मर जाने का खतरा रहता है.

खरपतवार नियंत्रण : सब्जी मटर की फसल के साथ तमाम तरह के खरपतवार उग आते हैं, जो फसल को काफी नुकसान पहुंचाते हैं. मटर (Peas) की फसल में पहले 40 दिनों तक खरपतवार नियंत्रण रखना बेहद आवश्यक होता है. इन की रोकथाम के लिए खुरपी द्वारा 35-40 दिनों में निराईगुड़ाई कर देनी चाहिए.

रसायनों का इस्तेमाल कर के भी खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है. पेंडीमिथलीन 1.25 सक्रिय तत्त्व प्रति हेक्टेयर की दर से 500 लीटर पानी में घोल कर बोआई के 2 दिनों बाद छिड़काव करने से खरपतवार नियंत्रित हो जाते हैं.

कीट व रोग नियंत्रण

मटर का चैंपा : यह बहुत छोटा व हरे रंग का कीट होता है, जो पत्तियों व कोमल शाखाओं का रस चूसता है.

इसे खत्म करने के लिए डेढ़ किलोग्राम मेफोस्फोलान और कार्बोफ्यूरान के मिश्रण का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. इस के अलावा 0.25 लीटर मैटासिस्टाक्स 25 ईसी को 625 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए.

फलीछेदक : यह सब्जी मटर (Peas) का एक भयंकर कीट है, जो फलियों में छेद कर के अंदर घुस जाता है और दानों को खा कर नुकसान पहुंचाता है.

इस के उपचार हेतु निम्न उपाय करने चाहिए:

* शुरू में सूंडि़यों को हाथ से पकड़ कर खत्म किया जा सकता है.

* अधिक प्रकोप होने की हालत में मैलाथियान 50 ईसी, 1.25 लीटर को 500-600 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

तने की मक्खी : इस की मादा पत्तियों पर अंडे देती है, जिस से सूंडि़यां (कैटर पिलर) निकल कर तने को खाती हुई नीचे की ओर बढ़ती हैं. इस से पौधा पीला हो कर सूख जाता है. इस की रोकथाम के लिए फूल निकलने के समय 1 फीसदी रोटेनान का भुरकाव (डस्टिंग) मक्खी दिखाई देते समय करना चाहिए.

पर्णखनक (लीफ माइनर) : इस कीट की सूंडि़यां पत्तियों में छेद बना कर उन्हें खाती हैं, जिस के कारण पत्तियों पर सफेद धारियां दिखाई देती हैं.

इस की रोकथाम के लिए रोगोर 30 ईसी 1 लीटर या मैटासिस्टाक्स 25 ईसी 0.25 लीटर को 625 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

मूल विगलन : यह मिट्टी से होने वाला रोग है, जो राइजोक्टोनिया फ्यूजेरियम व पीथियम नामक फफूंदों से होता है. इस से पौधों की जड़ें गल जाती हैं और उपज पर खराब असर पड़ता है.

इस के नियंत्रण हेतु निम्न उपाय करने चाहिए :

* स्पटगन या एरासान की 2 ग्राम मात्रा को 1 लीटर पानी में घोल कर उस से बीजों को प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करें.

* बीजों को थीरम, कैप्टान या बाविस्टीन की 3 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोएं.

फलियों की तोड़ाई

इस नई किस्म की फलियां महज 60 दिनों में तोड़ाई के लिए तैयार हो जाती हैं. फलियों को सही अवस्था में तोड़ लेना चाहिए, वरना दाने कठोर हो जाते हैं. फलियों को तोड़ने के बाद उन का श्रेणीकरण कर के बाजार भेजना चाहिए.

उपज : यदि इस नई किस्म को सही तरीके से उगाया जाए और इस की सही देखभाल की जाए, तो प्रति हेक्टेयर 115-120 क्विंटल तक उपज होती है.

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