यह औषधीय पौधा हाई ब्ल्डप्रैशर व दिल से जुड़ी बीमारियों को ठीक करने के लिए मशहूर है. यह पौधा एकवर्षीय शाकीय, शाखान्वित, सुगंधित तकरीबन 1-2 फुट तक लंबा होता है.

इस का वानस्पतिक नाम कोलियस फोर्सकोली है. यह लेमिएसी कुल का सदस्य है. इस के पत्तों व जड़ों से अलगअलग तरह की गंध आती है, पर जड़ों में से आने वाली गंध बहुधा अदरक की गंध से मिलतीजुलती होती है. पत्थर जैसी चट्टानों पर पैदा होने के चलते इस को ‘पाषाण भेदी’ नाम से भी जाना जाता है.

यह पौधा भारत में खासतौर पर उत्तराखंड, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, गुजरात, कर्नाटक व तमिलनाडु वगैरह राज्यों में पाया जाता है. उत्तराखंड में पत्थरचूर की खेती तकरीबन 1,000 मीटर ऊंचाई तक की गरम जगहों पर की जा सकती है.

औषधीय उपयोग : पत्थरचूर की कंदील जड़ें शीतल, कड़वी, कसैली होती हैं. इन का उपयोग हाई ब्लडप्रैशर, बवासीर, गुल्म यानी नस में सूजन, मूत्रकृच्छ यानी पेशाब में जलन, पथरी, योनि रोग, प्रमेह यानी गोनोरिया, प्लीहा यानी तिल्ली रोग बढ़ना, शूल यानी ऐंठन, अस्थमा, दिल की बीमारी, कैंसर, आंखों की बीमारी वगैरह में किया जाता है. इस के अलावा इस का उपयोग बालों के असमय पकने से रोकने व पेट की बीमारियों के लिए भी किया जाता है.

जमीन व आबोहवा : पत्थरचूर की खेती के लिए नरम, मुलायम मिट्टी, जिस का पीएच मान 5.5-7.0 तक हो, सही रहती है. इस फसल को कम उपजाऊ मिट्टी में भी आसानी से उगाया जा सकता है. लाल रेतीली व रेतीली दोमट मिट्टी इस की खेती के लिए आदर्श मानी जाती है. इस के लिए गरम, आर्द्र आबोहवा काफी सही होती है. अकसर 86-95 फीसदी तक आर्द्रता व 100-160 सैंटीमीटर तक सालाना बारिश वाले इलाकों में इस की खेती सही होती है.

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