हर साल रबी की प्रमुख फसल गेहूं की कटाई के दौरान वायु में प्रदूषण का स्तर बहुत ज्यादा बढ़ जाता है. खेतों में फसल के बचे अवशेष जलाए जाने से  बहुत ज्यादा हानिकारक कार्बनिक पार्टिकुलेट और विषैली गैसें वातावरण में फैल कर उसे प्रदूषित कर देती हैं, वहीं दूसरी ओर वायु गुणवत्ता सूचकांक गंभीर स्तर तक पहुंच जाता है और मिट्टी की उर्वरता में अत्यधिक कमी आती है.

वैसे तो सरकार द्वारा फसल के अवशेषों को जलाने पर प्रतिबंध लगाया हुआ है और उल्लंघन करने वाले लोगों पर वायु (रोकथाम और प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम, 1981 के तहत कार्यवाही भी की जाती है, पर इस के बाद भी यह समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है.

कृषि क्षेत्र में मशीनीकरण ने जहां शारीरिक श्रम को बहुत कम किया है, वहीं कई नई समस्याओं व चुनौतियों को जन्म भी दिया है. कुछ साल पहले जब किसान अपने हाथों से गेहूं की फसल की कटाई करते थे या श्रमिकों से कटाई करवाते थे, तो गेहूं की बालियों के साथ ही उस का तना भी काट लिया जाता था जो पशुओं को खिलाने के काम में लिया जाता था, लेकिन थ्रेशर आदि मशीनों से कटान के दौरान लंबा तना जिसे स्टौक या आम भाषा में नरई कहा जाता है, वह खेतों में ही रह जाता है.

अगली फसल बोने से पहले किसान को खेत तैयार करना होता है, जिस के लिए किसान जल्दबाजी और जानकारी की कमी के चलते सूख चुकी नरई/नरवाई को खेतों में ही जला देना सब से आसान व सस्ता रास्ता समझाते हैं.

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गेहूं की कटान और वातावरण प्रदूषण

गेहूं की कटाई के दौरान वायु में भूसे के कण उड़ने लगते हैं, जिस के चलते वायु में पार्टिकुलेट मैटर की मात्रा बहुत ज्यादा बढ़ जाती है और प्रदूषण सूचकांक में भारी बढ़ोतरी होती है. पार्टिकुलेट मैटर 10 तो आसानी से कुछ देर में सैटल हो जाते हैं पर बहुत ज्यादा छोटे कण, जिन्हें पार्टिकुलेट मैटर 2.5 कहा जाता है, वायु में बहुत लंबे समय तक तैरते रहते हैं व हवा के साथ उड़ कर कई वर्ग किलोमीटर तक के क्षेत्र में फैल कर उसे प्रभावित करते हैं. इन के चलते लोगों में खांसी, एलर्जी और सांस फूलने जैसी स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हो जाती  हैं.

ऐसे में बच्चों, वृद्धों और सांस के मरीजों को सीधे धूल वाले स्थानों में नहीं जाना चाहिए और अगर जाना भी हो तो मुंह और नाक को मास्क या कपड़े से अच्छी तरह ढक कर ही बाहर निकलना चाहिए.

कृषि अवशिष्ट दहन और वायु प्रदूषण

नरई को खेतों में जला देने के कारण वायु प्रदूषण का स्तर बहुत ज्यादा बढ़ जाता है. वातावरण में हानिकारक कार्बन डाईऔक्साइड, कार्बन मोनोऔक्साइड, नाइट्रस औक्साइड, सल्फर डाईऔक्साइड  जैसी गैसों और कार्बनिक पार्टिकुलेट मैटर की मात्रा बहुत ज्यादा हानिकारक स्तर तक पहुंच जाती है.

वायु गुणवत्ता में गिरावट होने से लोगों की श्वसन क्रिया प्रभावित होती है. धुएं में कार्बन डाईऔक्साइड और कार्बन मोनोऔक्साइड की मात्रा काफी ज्यादा होती है, जो किसानों को खेत में ही बेहोश तक कर सकती है.

सल्फर डाईऔक्साइड और नाइट्रस औक्साइड गैसें अपनी अम्लीय प्रवृत्ति के चलते आंखों में और श्वसन तंत्र में जलन पैदा करती हैं. दमा व दूसरे श्वसन रोगों से ग्रसित लोगों को हानिकारक गैसों और छोटे कणों के चलते सांस लेने में काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है. किसानों द्वारा फसल जलाने से एक ओर जहां प्रदूषण को बढ़ावा मिलता है, वहीं भूसे के नष्ट हो जाने से पशुधन के लिए सूखे चारे का संकट खड़ा हो जाता है.

मिट्टी की उर्वरता पर गलत असर

गेहूं की कटाई के बाद खेतों में जलाए जा रहे गेहूं की फसल के अवशेष न केवल सेहत पर गलत असर डाल रहे हैं, बल्कि अवशिष्ट जलाने से मिट्टी की उर्वरता भी कम हो रही है.

आंकड़े बताते हैं कि गेहूं की फसल के एक टन अवशेष जलाने से 6 किलोग्राम नाइट्रोजन, एक किलोग्राम फास्फोरस, 11 किलोग्राम पोटाश व दूसरे सूक्ष्म तत्त्व जल कर नष्ट हो जाते हैं. इस के अलावा गेहूं की फसल के अवशेष जलाए जाने वाली जगह पर मिट्टी का तापमान बढ़ जाता है और उस मिट्टी में रहने वाले किसान के मित्र कीट भी मर जाते हैं और एक ग्राम मिट्टी में जो लगभग 20 करोड़ लाभकारी जीवाणु होते हैं, उन में से मात्र 15 लाख बचे रह जाते हैं.

अन्य समस्याएं

गेहूं के भूसे को खेतों में ही जला देने के कारण उठते धुंए से सड़क मार्ग से यात्रा करने वाले यात्रियों को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है. बहुत ज्यादा धुएं के चलते रात में वाहन संतुलन बिगड़ने के कारण दुर्घटनाएं होने का डर बना रहता है.

कानूनी प्रावधान

गेहूं का भूसा जलाना गैरकानूनी है. वायु प्रदूषण प्रतिबंध और नियत्रण अधिनियम 1981 की धारा 19 (5) के तहत इसे दंडनीय अपराध माना गया है. कानून की अनदेखी करने पर दोषी किसान आईपीसी की धारा 188 सहित वायु प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम 1981 के तहत भी दंड का भागीदार होता है. तेजी से बढ़ रहे वायु प्रदूषण को ले कर नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) बहुत सख्त है.

कृषि अवशिष्टों को खेतों में ही जला दिए जाने की घटनाओं के निरीक्षण के लिए सैटेलाइट से मौनिटरिंग भी की जाती है, ताकि खेतों में फसलों के अवशेष आदि में आग लगाए जाने की स्थिति का तुरंत पता लगा कर उसे बुझाया जा सके. इस काम में कई राज्यों की सरकारें स्पेस एप्लीकेशन सैंटर आदि की मदद लेती हैं.

वैकल्पिक उपयोग

कृषि अवशिष्टों की समस्या का समाधान बिलकुल भी मुश्किल नहीं है. इस के अनेक वैकल्पिक उपयोग उपलब्ध हैं, जो बहुआयामी हैं, जिन्हें अपना कर वायु प्रदूषण पर नियंत्रण पाया जा सकता है व पशु आहार की उपलब्धता तय की जा सकती है, भूमि की उत्पादन क्षमता व उर्वरता को बढ़ाया जा सकता है और साथ ही बहुत ज्यादा मुनाफा भी कमाया जा सकता है

*    आजकल गेहूं की फसल को कंबाइन मशीन से कटान के बाद रीपर से उस का भूसा बना लेते हैं या फिर फसल अवशेषों को खेत में जोत कर खाद बनाई जाती है. फसल अवशेष जलाने के बजाय खेत में ही उस की जुताई करने से भूमि की ऊपजाऊ शक्ति बढ़ती है और खरपतवारों को रोकने में मदद मिलती है.

* भूसे को पशुधन के चारे के रूप में उपयोग तो किया ही जाता है, साथ ही कई स्थानों पर इसे मशरूम उत्पादन के लिए एक बेस के रूप में भी प्रयुक्त किया जाता है.

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* फसल अवशेषों का पल्प बना कर उस से डिस्पोजेबल और बायोडीग्रेडेबल थालियों, दौनों व गिलासों को बना कर लघु व माध्यमिक उद्यम इकाइयां लगा कर किया जा सकता है. बायोमास गैसीफिकेशन पावर जनरेशन तकनीक द्वारा फसल अवशिष्टों से विद्युत का उत्पादन किया जा सकता है.

*    पायरोलिसिस की एक विशिष्ट तकनीक द्वारा नरवाई और पराली से बायोचार का उत्पादन किया जा सकता है, जो एक बहुत अच्छा फ्यूल होने के साथ ही अच्छा उर्वरक भी होता है.

* हाल ही में भूसे का उपयोग पौलीयूरिथेन फोम बनाने के लिए स्पेन में किया गया है, जिस से निर्माण और औटोमोबाइल क्षेत्रों में सीलेंट के साथसाथ कई तरह के सामान व थर्मल और ध्वनिक इंसुलेटर बनाए जाते हैं.

* ‘फसल अवशेषों के इन-सीटू प्रबंधन के लिए कृषि में यंत्रीकरण को बढ़ावा देने के लिए केंद्रीय क्षेत्रक योजना’ के तहत किसानों को इन-सीटू फसल अवशेष प्रबंधन के लिए मशीनों को खरीदने के लिए 50 प्रतिशत वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है. साथ ही, इन-सीटू फसल अवशेष प्रबंधन के लिए मशीनरी के कस्टम हायरिंग केंद्रों की स्थापना के लिए परियोजना लागत की 80 प्रतिशत तक वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है.

कृषि विभाग द्वारा समयसमय पर किसानों के मध्य जागरूकता अभियान भी चलाए जाते हैं, ताकि बहुपयोगी कृषि अवशिष्टों के जलने से होने वाले वायु प्रदूषण को समय रहते रोका जा सके, मिट्टी की प्राकृतिक उत्पादन क्षमता को बचाया जा सके और किसानों को फसल अवशेषों के प्रबंधन के विकल्पों की जानकारी दे कर सरकारी योजनाओं का फायदा लेने को बढ़ावा दिया जा सके.

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