नवंबर की सर्दी में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलगाना और मिजोरम सहित पांच राज्यों के चुनाव होने हैं. इधर जैसेजैसे ठंड बढ़ रही है, वैसेवैसे इन राज्यों की हवाओं में राजनीति की गरमी बढ़ते जा रही है.

यों तो लोकतांत्रिक देश भारत में आएदिन सहकारी समितियों से ले कर सिंचाई समितियों तक नाना प्रकार की समितियों के चुनाव, ग्राम पंचायत, जनपद, जिला जनपद, नगरपालिका, निगम  चुनाव, विधानसभा, राज्यसभा, लोकसभा के चुनाव, उपचुनाव होते ही रहते हैं, पर कई मायनों में इस बार हो रहे इन 5 राज्यों के चुनाव कुछ अलग हट कर हैं.

सब से महत्वपूर्ण बात यह कि इन 5 राज्यों के चुनावों में पहली बार "किसान" केंद्रीय भूमिका में है. इन सभी चुनावों में प्रदेश के किसानों के जरूरी मुद्दों के अलावा प्रमुख राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पार्टियों के घोषणापत्रों का महत्व भी बढ़ा है, जबकि इस से पहले जिस जनता के लिए यह घोषणापत्र तैयार किए जाते थे, वह जनता स्वयं ही इन घोषणापत्रों को गंभीरता से नहीं लेती थी और स्थानीय मुद्दों, उम्मीदवार की छवि, जाति, धर्म अथवा अन्यान्य मापदंडों के आधार पर वोट देने के लिए अपने प्रत्याशी का चयन करती थी.

चूंकि यदि जनता ही पार्टियों के घोषणापत्रों और जीतने के बाद घोषणापत्र में किए गए वादों के बिंदुवार क्रियान्वयन के आधार पर अगले चुनावों में वोट नहीं डालती, तो फिर भला राजनीतिक पार्टियां अपने घोषणापत्रों को गंभीरता से ले कर उन पर बिंदुवार अमल क्यों करेंगी. इसीलिए चुनाव जीतने के बाद प्रायः घोषणापत्र को डस्टबिन के हवाले कर देती थीं और उन से कोई सवाल भी नहीं पूछता था.

कुलमिला कर 'घोषणापत्र' का मतलब ही हो गया वो थोथी घोषणाएं, जो केवल लोगों की रुचि के लिए घोषित की जाएं, पर जिन का अमल करना जरूरी नहीं है.

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