हाइड्रोलिक रिवर्सिबल प्लाऊ आखिर है क्या?

यह जुताई का एक ऐसा खास उपकरण है जिस में ऊपर और नीचे की तरफ 2 या 3 हल जैसे नुकीले आकार की रौड लगी होती है जो जमीन में 1 से 1.5 फुट की गहराई तक जुताई कर मिट्टी को पलट देता है. यह हाइड्रोलक सिस्टम से नियंत्रित होता है.

रोटावेटर के लाभ

* इस में लगे हुए नुकीले हल मिट्टी की जुताई करते हैं और ब्लेडनुमा रौड मिट्टी को पलटने का काम करती है, जिस से कठोर परत टूट जाती है.

* मिट्टी नरम होने की वजह से फसलों और पौधों की जड़ों को बिना किसी रुकावट के प्रसार करने में मदद मिलती है और वे बेहतर विकास और उपज देती है.

* ऐसा करने से मिट्टी की जड़ों तक औक्सीजन आसानी से पहुंचती है, जो फसलों और पौधों के लिए बहुत जरूरी है. इस वजह से फसल की बढ़वार और पैदावार अच्छी होती है.

* जमीन में उगे खरपतवार और दूसरे वनस्पति को उखाड़ कर जमीन में मिला देता है जिस से मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ जाती है और उपज अच्छी होती है.

* खेत में एक बार ही रिवर्सिबल प्लाऊ से जुताई करने से जमीन की पानी ग्रहण करने की कूवत बढ़ जाती है.

* मिट्टी पलटने से खरपतवारों के बीज जमीन की गहराई में दब जाते हैं, जिस से उन का अंकुरण कम होता है और खरपतवार नियंत्रण में कारगर है.

* यह मशीन पिछली फसल कटने के बाद जो अवशेष खेत में रह जाते हैं, उन्हें जड़ से खोद कर अच्छी तरह से मिट्टी में मिला देती है.

* ये खेत में नाली नहीं बनाता क्योंकि खुद ही ट्रैक्टर के साथ बदल जाता है और दूसरी तरफ से बनी हुई नाली में मिट्टी डाल देता है जिस से मिट्टी का कटाव नहीं होता.

इस का रखरखाव कैसे करें

* इस्तेमाल करने से पहले तय यह कर लें कि उपकरण पूरी तरह से सही है.

* इस्तेमाल के बाद उपकरण छायादार जगह पर रखें.

* बेरिंगों में ग्रीस या मौबिल औयल का इस्तेमाल करते रहें.

हाइड्रोलिक रिवर्सिबल प्लाऊ पर सरकार कितना अनुदान देगी : इस की अनुमानित कीमत 50,000 से 1,40,000 रुपए तक है. इस में सरकार आप को एनएफएसएम योजना के तहत अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति लघु सीमांत और महिला किसानों के लिए इकाई लागत का 50 फीसदी और सामान्य किसानों के लिए 40 (20 हौर्सपावर से कम ट्रैक्टर पर 20,000 और 16,000 रुपए) 20 से 35 हौर्सपावर तक के ट्रैक्टर पर 70,000 रुपए और 56,000 रुपए अधिकतम अनुदान देती है.

अनुदान के लिए कागजात

* आवेदन पात्र मय लाभार्थी के पासपोर्ट साइज का प्रमाणित फोटो.

* जमीन की जमाबंदी या पासबुक.

* मशीन का क्रय बिल या प्रोफार्मा इनवोइस और अधिकृत विक्रेता का प्रमाणपत्र.

* यंत्र का प्रमाणित फोटो लाभार्थी के साथ.

* शपथपत्र या अंडरटेकिंग.

* ट्रैक्टर के कागजातों की प्रतिलिपि.

अलगअलग राज्यों में अनुदान अलग हो सकता है. यह योजना ‘पहले आओ पहले पाओ’ के आधार पर है. योजना का फायदा लेने के लिए क्षेत्र के कृषि पर्यवेक्षक/सहायक कृषि अधिकारी/सहायक निदेशक, कृषि अधिकारी से संपर्क करें.

सेहत के लिए सहजन

सब्जी की दुकान पर आप ने लंबी हरी सहजन की फलियां तो देखी होंगी, सुरजने की फली या कुछ इलाकों में मुनगे की फली भी कहा जाता है. सहजन की यह फली केवल बढि़या स्वाद ही नहीं, बल्कि सेहत और सौंदर्य के बेहतरीन गुणों से भी भरपूर है.

सहजन में एंटीबैक्टीरियल गुण पाया जाता है, इसलिए त्वचा पर होने वाली कोई समस्या या त्वचा रोग में यह बेहद लाभदायक है. सहजन का सूप खून की सफाई करने में मददगार है. खून साफ होने की वजह से चेहरे पर भी निखार आता है. इस की कोमल पत्तियों और फूलों को सब्जी के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है, जो आप को त्वचा की समस्याओं से दूर रख जवां बनाए रहने में मददगार है.

महिलाओं के लिए तो सहजन का सेवन बहुत फायदेमंद होता है. यह पीरियड्स संबंधी परेशानियों के अलावा गर्भाशय की समस्याओं से भी बचाए रखता है.

इस में जरा भी शक नहीं है कि सहजन आप की सैक्स पावर को बढ़ाने में मदद करता है. इस मामले में यह महिलाओं और पुरुषों दोनों के लिए फायदेमंद है. गर्भावस्था के दौरान इस का सेवन मां और बच्चा दोनों के लिए फायदेमंद होता है. गर्भावस्था में इस का सेवन करते रहने से शिशु के जन्म के समय आने वाली समस्याओं से भी बचा जा सकता है.

बचपन में नानीदादी सहजन की सब्जी, सूप वगैरह कितने चाव से बनातीखिलाती थीं. हम सहजन के टुकड़ों को दाल में, सांभर में, सब्जी या गोश्त के साथ कैसे मजे ले कर चूसचूस कर खाते थे.

दक्षिण भारतीय लोग तो अपने खाने में ज्यादातर सहजन का इस्तेमाल करते हैं, चाहे सांभर हो, रस्म हो या मिक्स वेज. दरअसल, हमारे बुजुर्ग जानते हैं कि सहजन में कई तरह के रोगों को दूर करने की कूवत है. सर्दीखांसी, गले की खराश और छाती में बलगम जम जाने पर सहजन खाना बहुत फायदेमंद होता है.

सर्दी लग जाने पर तो मां सहजन का सूप पिलाती थीं. सहजन में विटामिन सी, बीटा कैरोटीन, प्रोटीन और कई प्रकार के लवण पाए जाते हैं. ये सभी तत्त्व शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं और शरीर के पूरे विकास के लिए बहुत जरूरी है.

सहजन में विटामिन सी का लैवल काफी उच्च होता है जो आप की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा कर कई बीमारियों से आप की हिफाजत करता है. बहुत ज्यादा सर्दी होने पर सहजन फायदेमंद है. इसे पानी में उबाल कर उस पानी की भांप लेना बंद नाक को खोलता है और सीने की जकड़न को कम करने में मदद करता है, वहीं अस्थमा की शिकायत होने पर सहजन का सूप पीना फायदेमंद होता है. सहजन का सूप पाचन तंत्र को मजबूत बनाने का काम करता है और इस में मौजूद फाइबर्स कब्ज की समस्या को होने नहीं देते हैं. कब्ज ही बवासीर की जड़ है.

सहजन का सेवन करते रहने से बवासीर और कब्जियत की समस्या नहीं होती है, वहीं पेट की दूसरी बीमारियों के लिए भी यह फायदेमंद है. डायबिटीज नियंत्रित करने के लिए भी सहजन का सेवन करने की सलाह दी जाती है. तो अगर बीमारियों को दूर रखना है तो सहजन से दूरी न बनाएं.

कैसे बनाएं सूप

जरूरी चीजें : 2 कप सहजन के पत्ते, 6 सफेद प्याज टुकड़ों में कटी हुई, 6 लहसुन की कलियां, 2 टमाटर टुकड़ों में कटे हुए, 1 छोटा चम्मच साबुत जीरा, 1 छोटा चम्मच साबुत काली मिर्च, 1 छोटा चम्मच धनिया पाउडर, एकचौथाई छोटा चम्मच हलदी, नमक स्वादानुसार.

बनाने की विधि : सब से पहले सहजन की पत्तियों को धो कर साफ कर लें और इस के मोटे डंठल को तोड़ कर निकाल दें.

धीमी आंच पर एक प्रैशर कुकर में सहजन की पत्तियों, नमक, प्याज, लहसुन, टमाटर, जीरा, साबुत काली मिर्च, हलदी, धनिया पाउडर और पानी डाल कर इसे 4 सीटी लगा कर पकाएं और चूल्हा बंद कर दें.

कुकर का प्रैशर खत्म हो जाने के बाद ढक्कन खोलें. एक बड़े बरतन में उबली हुई सब्जियों को एक चम्मच से दबाते हुए छलनी से छान कर इस का सूप निकाल लें. अब इसे सर्विंग बाउल में निकालें और काली मिर्च बुरक कर गरमागरम सूप सर्व करें और खुद भी पीएं.

रबी फसलों को पाले से बचाएं

आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या द्वारा  संचालित कृषि विज्ञान केंद्र, बेलीपार, गोरखपुर के पादप सुरक्षा वैज्ञानिक डा. शैलेंद्र सिंह ने किसानों को सलाह देते हुए बताया कि दिसंबर से जनवरी माह में पाला पड़ने की संभावना अधिक होती है, जिस से फसलों को काफी नुकसान होता है.

उन्होंने जानकारी देते हुए बताया कि जिस दिन ठंड अधिक हो, शाम को हवा का चलना रुक जाए, रात में आकाश साफ हो व आर्द्रता प्रतिशत अधिक हो, तो उस रात पाला पड़ने की संभावना सब से अधिक होती है. दिन के समय सूरज की गरमी से धरती गरम हो जाती है, जमीन से यह गरमी विकिरण के द्वारा वातावरण में स्थानांतरित हो जाती है, जिस के कारण जमीन को गरमी नहीं मिल पाती है और रात में आसपास के वातावरण का तापमान कई बार जीरो डिगरी सैंटीग्रेड या इस से नीचे चला जाता है.

ऐसी दशा में ओस की बूंदें/जल वाष्प बिना द्रव रूप में बदले सीधे ही सूक्ष्म हिमकणों में बदल जाती हैं. इसे ही ‘पाला’ कहते हैं.

पाला पड़ने से पौधों की कोशिकाओं के रिक्त स्थानों में उपलब्ध जलीय घोल ठोस बर्फ में बदल जाता है, जिस का घनत्व अधिक होने के कारण पौधों की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और रंध्रावकाश नष्ट हो जाते हैं. इस के कारण कार्बन डाईऔक्साइड, औक्सीजन, वाष्प उत्सर्जन व अन्य दैहिक क्रियाओं की विनिमय प्रक्रिया में बाधा पड़ती है, जिस से पौधा नष्ट हो जाता है.

उन्होंने यह भी कहा कि पाला पड़ने से पत्तियां व फूल मुरझा जाते हैं और झुलस कर बदरंग हो जाते हैं. दाने छोटे बनते हैं. फूल झड़  जाते हैं. उत्पादन अधिक प्रभावित होता है.

पाला पड़ने से आलू, टमाटर, मटर, मसूर, सरसों, बैगन, अलसी, जीरा, अरहर, धनिया, पपीता, आम व अन्य नवरोपित फसलें अधिक प्रभावित होती हैं. पाले की तीव्रता अधिक होने पर गेहूं, जौ, गन्ना आदि फसलें भी इस की चपेट में आ जाती हैं.

पाले से बचाव के तरीके

* खेतों की मेंड़ों पर घासफूस जला कर धुआं करें. ऐसा करने से फसलों के आसपास का वातावरण गरम हो जाता है. पाले के प्रभाव से फसलें बच जाती हैं.

* पाले से बचाव के लिए किसान फसलों में सिंचाई करें. सिंचाई करने से फसलों पर पाले का प्रभाव नहीं पड़ता है.

* पाले के समय 2 लोग सुबह के समय एक रस्सी के दोनों सिरों को पकड़ कर खेत के एक कोने से दूसरे कोने तक फसल को हिलाते रहें, जिस से फसल पर पड़ी हुई ओस गिर जाती है और फसल पाले से बच जाती है.

* यदि किसान नर्सरी तैयार कर रहे हैं, तो उस को घासफूस की टाटिया बना कर अथवा प्लास्टिक से ढकें. ध्यान रहे कि दक्षिणपूर्व भाग खुला रखें, ताकि सुबह और दोपहर में धूप मिलती रहे.

* पाले से दीर्घकालिक बचाव के लिए उत्तरपश्चिम मेंड़ पर और बीचबीच में उचित स्थान पर वायुरोधक पेड़ जैसे शीशम, बबूल, खेजड़ी, शहतूत, आम व जामुन आदि को लगाएं, तो सर्दियों में पाले से फसलों को बचाया जा सकता है.

* यदि किसान फसलों पर कुनकुने पानी का छिड़काव करते हैं, तो फसलें पाले से बच जाती हैं.

* पाले से बचाव के लिए किसानों को पाला पड़ने के दिनों में यूरिया की 20 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए अथवा थायोयूरिया की 500 ग्राम मात्रा को 1,000 लिटर पानी में घोल कर 15-15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें अथवा 8 से 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करें अथवा घुलनशील सल्फर 80 फीसदी डब्लूडीजी की 40 ग्राम मात्रा को प्रति 15 लिटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव किया जा सकता है.

* ऐसा करने से पौधों की कोशिकाओं में उपस्थित जीवद्रव्य का तापमान बढ़ जाता है और वह जमने नहीं पाता है. इस तरह फसलें पाले से बच जाती हैं.

* फसलों को पाले से बचाव के लिए म्यूरेट औफ पोटाश की 15 ग्राम मात्रा प्रति 15 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव कर सकते हैं.

* फसलों को पाले से बचाने के लिए ग्लूकोज 25 ग्राम प्रति 15 लिटर पानी की दर से घोल बना कर किसान अपने खेतों में छिड़काव करें.

* फसलों को पाले से बचाव के लिए एनपीके 100 ग्राम व 25 ग्राम एग्रोमीन प्रति 15 लिटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव किया जा सकता है.

अधिक जानकारी के लिए कृषि विज्ञान केंद्र, बेलीपार, गोरखपुर के वैज्ञानिकों से संपर्क करें या पादप सुरक्षा वैज्ञानिक डा. शैलेंद्र सिंह के मोबाइल नंबर 9795160389 पर संपर्क करें.

जाड़े में अधिक वर्षा से खेती को नुकसान या फायदा

रबी की खेती किसानों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होती है. इसी से उस के सारे काम व विकास निर्धारित होते हैं. इन दिनों अच्छीखासी ठंड होती है और अगर बारिश हो जाए तो कहीं तो ये फायदेमंद होती है, लेकिन कई दफा ओला गिरने आदि से फसल को बहुत ज्यादा नुकसान होता है. किसानों की मेहनत और कीमत दोनों ही जाया हो जाती हैं.

जाड़े की वर्षा को महावट कहा जाता था. फसल के लिए इसे अमृत वर्षा कहा जाता है, परंतु जब ये जाड़े की वर्षा इतनी अधिक हो जाए, जो खेत को नमी देने के बजाय उस में जलभराव हो जाए या ओला पड़ जाए, तो यह किसानों की फसल के लिए नुकसानदेह साबित होती है.

जिस खेत में जितनी अधिक लागत की खेती की गई है, उस में उतने नुकसान की संभावना होती है.

ऐसी बरसात से दलहनी व तिलहनी फसलें पूरी तरह से बाधित हो जाती हैं और अब तो सारी फसलें यहां तक गेहूं को भी नुकसान होने की संभावना हो जाती है.

जब ऐसी प्राकृतिक आपदा आती है, वास्तव में किसानों की सारी उम्मीदों पर पानी फिर जाता है. चना, मटर, मसूर, अरहर, सरसों, आलू आदि में अधिक नुकसान होता है. कई जगहों पर तो सरसों व अरहर की जो फसलें गिर जाती हैं, उन्हें भी खासा नुकसान होता है.

ऐसे समय में ढालू भूमि जैसे यमुना, गंगा व नदियों के किनारे की खेती में जलभराव से नहीं जल बहाव से नुकसान होता है.

फूलों की खेती करने वाले किसानों को भी खासा नुकसान होता है. फूल की अवस्था की समस्त फसलों में फूल गिरने व क्षतिग्रस्त होने से उत्पादन गिर जाता है.

मौसम नम होने व कोहरा होने से रोग व कीटों का प्रकोप भी बढ़ जाता है, जिस से फसल को नुकसान होना तय है.

वर्षा के बाद के उपाय

* खेतों में जो पानी भरा है, उसे निकालने की तुरंत कोशिश की जाए.

* खेत की निगरानी नियमित करते हुए रोग व कीट नियंत्रण के लिए दवाओं का छिड़काव करें.

* झुलसा रोग का उपचार करें.

* माहू कीट का नियंत्रण करें.

* चना, मटर में फली छेदक कीट का निदान करें.

* गन्ना की फसल को विभिन्न तना छेदक कीटों से बचाव के उपाय अपनाएं.

* आलू बीज उत्पादन वाली फसल की बेल को काट दें.

* देरी से बोई जाने वाली गेहूं की प्रजातियों हलना, उन्नत हलना नैना की बोआई कर सकते हैं.

खाली खेतों के लिए फसल योजना

* अधिक वर्षा से फसलें क्षतिग्रस्त होने पर खेत को तैयार कर तुरंत गेहूं की बोआई की जा सकती है.

* टमाटर की ग्रीष्म ऋतु की फसल और प्याज की रोपाई कर सकते हैं.

* जायद की भिंडी व मिर्च के लिए खेत की तैयारी कर के फरवरी माह में बोआई व रोपाई कर सकते हैं.

* गन्ने की 2 कतारों के बीच मूंग व उड़द की बोआई कर सकते हैं.

* सब्जी की बोआई के लिए खेत को तैयार कर सकते हैं.

* आलू के खेत में गरमी की मूंगफली की बोआई कर क्षति पूर्ति कर सकते हैं.

दिए गए सुझाव के साथ  यदि इस विपरीत परिस्थिति में खेती का प्रबंधन करें तो कुछ हद तक नुकसान की भरपाई हो सकती है.

आलू बोआई यंत्र पोटैटो प्लांटर

आलू की खेती में आजकल कृषि यंत्रों का अच्छाखासा इस्तेमाल होने लगा है. आलू बोआई के लिए पोटैटो प्लांटर है, तो आलू की खुदाई के लिए पोटैटो डिगर कृषि यंत्र है. यहां हम फिलहाल आलू बोआई यंत्र पोटैटो प्लांटर की बात कर रहे हैं.

पोटैटो प्लांटर आलू की बोआई करने के साथसाथ मेड़ भी बनाता है. इस यंत्र से आलू बोआई का काम बखूबी होता है.

मशीन द्वारा तय दूरी और उचित गहराई पर ही आलू बीज खेत में गिरता है, जिस से पैदावार भी अच्छी होती है. साथ ही, खरपतवार नियंत्रण भी आसान होता है. हालांकि आलू बोने का यंत्र सभी किसानों के पास नहीं है लेकिन आज के आधुनिक दौर में अनेक किसानों का रुख मशीनों की ओर होने लगा है.

आलू बोने के 2 तरह के यंत्र आजकल चलन में हैं, एक सैमीआटोमैटिक आलू प्लांटर. दूसरा पूरी तरह आटोमैटिक प्लांटर. दोनों ही तरह के यंत्र ट्रैक्टर में जोड़ कर चलाए जाते हैं.

सैमीआटोमैटिक प्लांटर में यंत्र की बनावट कुछ इस तरह होती है जिस में आलू बीज भरने के लिए एक बड़ा बौक्स लगा होता है. इस में आलू बीज भर लिया जाता है और उसी के साथ नीचे की ओर घूमने वाली डिस्क लगी होती है जो 2-3 या 4 भी हो सकती हैं.

इन डिस्क में आलू बीज निकलने के लिए होल बने होते हैं. बोआई के समय जब डिस्क घूमती है तो आलू बीज नीचे गिरते जाते हैं और उस के बाद यंत्र द्वारा मिट्टी से आलू दबते चले जाते हैं. इस यंत्र से आलू बोआई के साथसाथ मेंड़/कूंड़ भी बनते जाते हैं. आलू के लिए जितनी डिस्क लगी होगी, उतनी लाइन में ही आलू की बोआई होगी.

हर डिस्क के पीछे बैठने के लिए सीट लगी होती है जिस पर आलू डालने वाला एक शख्स बैठा होता है. जितनी डिस्क होंगी उतने ही आदमियों की जरूरत होगी क्योंकि जब ऊपर हौपर में से आलू नीचे आता है तो डिस्क में डालने का काम वहां बैठे आदमी द्वारा किया जाता है.

इस मशीन से 1 घंटे में तकरीबन 1 एकड़ खेत में आलू बोआई की जा सकती है.

पूरी तरह आटोमैटिक आलू प्लांटर में किसी शख्स की जरूरत नहीं होती, केवल ट्रैक्टर पर बैठा आदमी इसे नियंत्रित करता है. इस मशीन में भी वही सब काम होते हैं जो सैमीआटोमैटिक यंत्र में होते हैं. इस की खूबी यही है कि इस में आलू खुदबखुद बोआई के लिए गिरते चले जाते हैं और खेत में बोआई होती जाती है. साथ ही मेंड़ भी बनती जाती है लेकिन इस के लिए ट्रैक्टर चलाने वाले को यंत्र के इस्तेमाल करने की जानकारी होनी चाहिए.

यह यंत्र सैमीआटोमैटिक की तुलना में महंगा होता है.

2 लाइनों में बोआई करने वाले मैन्यूअल पोटैटो प्लांटर की कीमत तकरीबन 40,000 रुपए है, 3 लाइनों में बोआई करने वाले प्लांटर की कीमत तकरीबन 50,000 रुपए है.

4 लाइनों में बोआई करने वाले प्लांटर की कीमत तकरीबन 60,000 रुपए है. आटोमैटिक पोटैटो प्लांटर की कीमत तकरीबन 1 लाख, 20 हजार रुपए तक हो सकती है. यह अनुमानित कीमत है.

आजकल अनेक कृषि यंत्र निर्माता जैसे खालसा आटोमैटिक पोटैटो प्लांटर, मोगा इंजीनियरिंग वर्क्स, महिंद्रा ऐंड महिंद्रा कंपनी के पोटैटो प्लांटर बाजार में मौजूद हैं. आप अपने नजदीकी कृषि यंत्र निर्माता या विक्रेता से बात कर अधिक जानकारी ले सकते हैं.

साल 2022-23 में रिकौर्ड खाद्यान्‍न उत्‍पादन

नई दिल्ली : 18 अक्तूबर 2023. कृषि एवं किसान कल्‍याण मंत्रालय ने वर्ष 2022-23 के लिए मुख्‍य फसलों के उत्‍पादन के अंतिम अनुमान जारी कर दिए हैं. इस के अनुसार देश में कुल खाद्यान्‍न उत्‍पादन रिकौर्ड 3296.87 लाख टन अनुमानित है, जो 2021-22 के 3156.16 लाख टन खाद्यान्न उत्‍पादन की तुलना में 140.71 लाख टन अधिक है. इस के अलावा साल 2022-23 के दौरान खाद्यान्‍न उत्‍पादन गत 5 वर्षों (2017-18 से 2021-22) के औसत खाद्यान्‍न उत्‍पादन की तुलना में 308.69 लाख टन अधिक है.

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा है कि हमारे किसान लगातार कड़ी मेहनत कर रहे हैं, वहीं कृषि वैज्ञानिक व संस्थान भी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. साथ ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में कृषि मंत्रालय द्वारा योजनाओं व कार्यक्रमों का सुचारु रूप से क्रियान्वयन हो रहा है. इस तरह सब के प्रयासों से कृषि क्षेत्र में रिकौर्ड खाद्यान्‍न उत्‍पादन सहित बेहतर नतीजे परिलक्षित हो रहे हैं.
अंतिम अनुमान के अनुसार, 2022-23 के दौरान मुख्‍य फसलों का उत्‍पादन इस प्रकार है :

खाद्यान्‍न – 3296.87 लाख टन
चावल – 1357.55 लाख टन
गेहूं – 1105.54 लाख टन
पोषक/मोटे अनाज – 573.19 लाख टन
मक्‍का – 380.85 लाख टन
दलहन – 260.58 लाख टन
तूर- 33.12 लाख टन
चना – 122.67 लाख टन
तिलहन – 413.55 लाख टन
मूंगफली– 102.97 लाख टन
सोयाबीन– 149.85 लाख टन
रेपसीड एवं सरसों – 126.43 लाख टन
गन्‍ना – 4905.33 लाख टन
कपास – 336.60 लाख गांठें (प्रति 170 किलोग्राम)
पटसन एवं मेस्‍टा– 93.92 लाख गांठ (प्रति 180 किलोग्राम)

वर्ष 2022-23 के दौरान चावल का कुल उत्‍पादन रिकौर्ड 1357.55 लाख टन अनुमानित है. यह पिछले वर्ष के 1294.71 लाख टन चावल उत्पादन से 62.84 लाख टन एवं विगत 5 वर्षों के 1203.90 लाख टन औसत उत्‍पादन से 153.65 लाख टन अधिक है.

Food Grain
Food Grain

वर्ष 2022-23 के दौरान गेहूं का कुल उत्‍पादन रिकौर्ड 1105.54 लाख टन अनुमानित है. यह पिछले वर्ष के 1077.42 लाख टन गेहूं उत्पादन से 28.12 लाख टन एवं 1057.31 लाख टन औसत गेहूं उत्‍पादन की तुलना में 48.23 लाख टन अधिक है.

श्री अन्न (पोषक/मोटे अनाजों) का उत्‍पादन 573.19 लाख टन अनुमानित है, जो 2021-22 के दौरान प्राप्त 511.01 लाख टन उत्‍पादन की तुलना में 62.18 लाख टन अधिक है. इस के अलावा यह औसत उत्‍पादन से भी 92.79 लाख टन अधिक है. श्री अन्न का उत्पादन 173.20 लाख टन अनुमानित है.

साल 2022-23 के दौरान कुल दलहन उत्‍पादन 260.58 लाख टन अनुमानित है, जो विगत 5 वर्षों के 246.56 लाख टन औसत दलहन उत्‍पादन की तुलना में 14.02 लाख टन अधिक है.

साल 2022-23 के दौरान देश में तिलहन उत्‍पादन रिकौर्ड 413.55 लाख टन अनुमानित है, जो साल 2021-22 के दौरान उत्‍पादन की तुलना में 33.92 लाख टन अधिक है. इस के अलावा साल 2022-23 के दौरान तिलहनों का उत्पादन 340.22 लाख टन औसत तिलहन उत्‍पादन की तुलना में 73.33 लाख टन अधिक है.

साल 2022-23 के दौरान गन्‍ना उत्‍पादन 4905.33 लाख टन अनुमानित है. साल 2022-23 के दौरान गन्‍ने का उत्‍पादन पिछले वर्ष के 4394.25 लाख टन गन्ना उत्पादन से 511.08 लाख टन अधिक है.
कपास का उत्‍पादन 336.60 लाख गांठ (प्रति 170 किग्रा की गांठ) अनुमानित है, जो पिछले वर्ष के कपास उत्‍पादन की तुलना में 25.42 लाख गांठें अधिक है. पटसन एवं मेस्‍ता का उत्‍पादन 93.92लाख गांठ (प्रति 180 किग्रा की गांठ) अनुमानित है.

गन्ने की खेती में कीर्तिमान

भारत में ज्यादातर किसान खेती से परेशान हैं. ऐसे में वे मजबूरी में खेती कर रहे हैं. इस की मुख्य वजह कहीं न कहीं उन की उपज का सही दाम न मिल पाना है, जिस के चलते उन्हें लगातार घाटा हो रहा है. फिर भी कुछ ऐसे किसान हैं, जो जरा कर के खेतीबारी कर रहे हैं.

कृषि में नया प्रयोग एक सार्थक प्रयास सच साबित हो रहा है. ऐसे ही एक किसान हैं अचल मिश्रा. उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के रहने वाले अचल मिश्रा ने कृषि में नया कीर्तिमान बनाया है.

देश की राजधानी से तकरीबन 450 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश का चीनी का कटोरा कहा जाने वाला जिला लखीमपुर खीरी के पलिया इलाके के मड़ई पुरवा के रहने वाले अचल मिश्रा तकरीबन 80 एकड़ भूमि पर गन्ने की खेती करते हैं. वे गन्ने में प्रति एकड़ गन्ना उत्पादन भी काफी अच्छा लेते हैं. नईनई विधियों को आजमा कर उपज बढ़ाने के लिए वे उत्तर प्रदेश में गन्ने की खेती में हमेशा प्रथम स्थान हासिल करते हैं.

लखनऊ विश्वविद्यालय से संबद्ध काल्विन डिगरी कालेज से बैरिस्टरी में स्नातक अचल मिश्रा अपने विश्वविद्यालय से गोल्ड मैडलिस्ट भी रह चुके हैं. पढ़ाई के बाद नौकरी करने के बजाय खेती को ही अपना व्यवसाय बनाया और अपने गांव लौट कर परंपरागत खेती को छोड़ कर आधुनिक विधि से करना शुरू किया.

Sugarcane
Sugarcane

पत्रिका ‘फार्म एन फूड’ से बात करते हुए अचल मिश्रा बताते हैं, ‘‘हम ने साल 2006 से गन्ने की खेती को नईनई वैज्ञानिक विधि से करना शुरू किया. मौजदू समय में मेरे खेत में भी 18 से 20 फुट तक का गन्ना होता है. उपज की बात करें, तो 1,050 से 1,200 क्विंटल प्रति एकड़ होती है. गन्ने की खेती में पिछले 5 सालों से लगातार मुझे प्रथम पुरस्कार मिल रहा है.’’

साल 2018 में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी राज्यों से प्रगतिशील किसानों को प्रधानमंत्री कार्यालय, दिल्ली में आमंत्रित किया था. उस में गन्ने की खेती करने वाले वे अकेले किसान थे.

गन्ने के साथसाथ तैयार करते हैं गन्ने की नर्सरी

Sugarcane
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अचल मिश्रा बताते हैं कि एक एकड़ खेत में उच्च कोटि की गन्ने की नर्सरी भी तैयार की. उन्होंने बताया कि कोलख 14201 गन्ने के बीज की नर्सरी बटचिप विधि से तकरीबन एक लाख पौध तैयार कर के 12 लाख रुपए कमाए. इस बार वे गन्ने की नर्सरी का काम बड़े पैमाने पर करने जा रहे हैं.

 

 

फार्म को बनाया टूरिस्ट प्लेस

अचल मिश्रा ने अपने फार्म को ‘यूएस गन्ना आश्रम’ के नाम से शानदार फार्महाउस तैयार कर रखा है. आश्रम में आने वाले अतिथियों को शुद्ध जैविक विधि से तैयार सागसब्जियां, देशी मोटे अनाज की रोटियां खाने को मिलती हैं, जिस का स्वाद चखने के लिए बहुत दूरदूर से लोग आते हैं.

जलवायु परिवर्तन से घट रहा कृषि उत्पादन

भारत की आबादी तकरीबन डेढ़ अरब है. अब यह दुनिया का सब से बड़ी आबादी वाला देश हो चुका है. वहीं प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का दबाव भी बढ़ रहा है. बढ़ी हुई आबादी ने देश में खाद्यान्न की मांग में भी बढ़ोतरी की है.

चूंकि भारत प्राकृतिक विविधताओं वाला देश है. ऐसे में हम अब भी ऐसी स्थिति में हैं कि देश के डेढ़ अरब लोगों के पेट भरने के लिए भरपूर मात्रा में खाद्यान्न कर पाने में सक्षम हैं, लेकिन बीते 2-3 दशकों में मौसम चक्र में तेजी से परिवर्तन आने से अब खेती पर खतरा मंडराने लगा है.

देश के जिन हिस्सों में जून महीने में मानसून सक्रिय हो जाता था, उन हिस्सों में अब मानसून के देरी से दस्तक देने के चलते वर्षा आधारित फसलों के उत्पादन में तेजी से कमी आई है. जलवायु परिवर्तन के चलते जहां वर्षा में कमी आई है, वहीं शरद ऋतु में कम ठंड ने रबी सीजन की फसलों के उत्पादन में कमी लाने का काम किया है. जलवायु परिवर्तन का खतरा सिर्फ देश के मैदानी इलाके ही नहीं झेल रहे हैं, बल्कि इस का सीधा प्रभाव पहाड़ी और ठंडे प्रदेशों पर भी दिखाई पड़ने लगा है.

जलवायु परिवर्तन का सीधा उदाहरण हम हिमाचल प्रदेश से ले सकते हैं. साल 2023 में हिमाचल प्रदेश में भीषण बारिश ने यहां के कई जिलों को पूरी तरह से तबाह कर के रख दिया.

Climate
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अगर हम अकेले हिमाचल प्रदेश की बात करें, तो यह ठंडे प्रदेशों में गिना जाता है. इसलिए यहां कम तापमान में पैदा होने वाली फसलें ही उगाई जाती हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों में ठंडे प्रदेशों में भी गरमी बढ़ने से ठंड में पैदा होने वाली फसलें भी बुरी तरह से प्रभावित हुई हैं.

हिमाचल प्रदेश में पैदा होने वाले सेब की अगर बात करें, तो जलवायु परिवर्तन के चलते यहां के तापमान में वृद्धि हुई है. इस वजह से वहां सेब के पौधे अब सूख रहे हैं. सेब के बागानों में बीमारियों और कीटों का प्रकोप बढ़ रहा है. अब केवल अधिक ऊंचाई पर सेब उत्पादन होने से उस के उत्पादन में कमी आई है.

यही हाल मैदानी इलाकों का भी है. जूनजुलाई में कम बारिश और सितंबरअक्तूबर में बेमौसम बारिश और ओले ने खरीफ सीजन की फसल और उत्पादन पर बुरा प्रभाव डाला है. मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र में कपास, सोयाबीन और गन्ने का उत्पादन असमय बारिश, ओला, कीट और बीमारियों के चलते घट रहा है.

देश की तकरीबन 70 फीसदी आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है, लेकिन जलवायु परिवर्तन की चुनौती रोजमर्रा की आजीविका के संघर्ष एवं व्यस्त दिनचर्या के चलते लोगों के लिए यह गंभीरता का विषय नहीं बन पाई है. लेकिन हकीकत तो यह है कि हवा, पानी, खेती, भोजन, स्वास्थ्य, आजीविका एवं आवास आदि सभी पर प्रतिकूल असर डालने वाली इस समस्या से देरसवेर कमज्यादा हम सभी का जीवन प्रभावित होता है, चाहे वह समुद्री जलस्तर बढ़ने से प्रभावित होते तटीय या द्वीपीय क्षेत्रों के लोग हों या असामान्य मानसून अथवा जल संकट से त्रस्त किसान. विनाशकारी समुद्री तूफान का कहर झेलते तटवासी हों अथवा सूखे एवं बाढ़ की विकट स्थितियों से त्रस्त लोग. असामान्य मौसमजनित अजीबोगरीब बीमारियों से जूझते लोग हों या विनाशकारी बाढ़ में अपना आवास एवं सबकुछ गवां बैठे और दूसरे क्षेत्रों को पलायन करते लोग. दरअसल, ये तमाम लोग जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे हैं.

खेतीबागबानी की घट रही पैदावार कूवत

जलवायु में परिवर्तन केवल भारत का ही मुद्दा नहीं है, बल्कि यह दुनियाभर के लिए एक चुनौती के रूप में उभरा है, इसलिए वैश्विक लेवल पर भी जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम चक्र में आ रहे बदलाव को रोकने के लिए दुनिया के सभी देश भी एकजुट हो कर प्रयास कर रहे हैं. सतत विकास लक्ष्य, जी-20 इत्यादि के जरीए जलवायु परिवर्तन पर ठोस प्रयास किए जा रहे हैं.

अगर हम जलवायु परिवर्तन की वजह से कृषि और बागबानी पर पड़ रहे प्रभाव के कुछ वर्षों के आंकड़ों का का अध्ययन करें, तो देश में बढ़ रहे तापमान के चलते गेहूं, धान, दलहन, तिलहन आदि फसलों के उत्पादन में कमी आई है. अगर तापमान में 1 डिगरी सैल्सियस की भी बढ़ोतरी हो रही है, तो तापमान बढ़ने पर गेहूं का उत्पादन 4-5 करोड़ टन कम होता जाएगा.

अगर किसान इस के बोने का समय सही कर लें, तो उत्पादन की गिरावट 1-2 टन कम हो सकती है. कुछ यही हाल धान्य फसलों का भी है. यह अनुमान है कि तापमान में 2 डिगरी सैल्सियस की तापमान वृद्धि से धान का उत्पादन 0.75 टन प्रति हेक्टेयर कम हो जाएगा.

मिट्टी की उत्पादकता पर संकट

तापमान में बढ़ोतरी के चलते मिट्टी में नमी और जल धारण की क्षमता कम हो रही है. इस वजह से मिट्टी में लवणता में बढ़ोतरी और जैव विविधता में कमी देखी जा सकती है. सूखा, बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने आदि के कारण मिट्टी क्षरण और बंजर क्षेत्र में वृद्धि दर्ज की जा रही है.

कीट व बीमारियों में बढ़ोतरी

जलवायु परिवर्तन और तापमान में बढ़ोतरी ने फसलों में कीट और बीमारियों का प्रकोप बढ़ा दिया है. जलवायु के गरम होने से फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटपतंगों की प्रजनन क्षमता तेजी से बढ़ रही है और बढ़ रहे कीटपतंगों की रोकथाम के लिए अत्यधिक कीटनाशकों के उपयोग से मनुष्य की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है.

सिंचाई के लिए जल संकट

जलवायु परिवर्तन और तापमान में बढ़ोतरी के चलते जल आपूति की समस्या के साथ ही बाढ़ और सूखे में बढ़ोतरी हुई है. शुष्क मौसम में लंबे समय तक वर्षा, वर्षा की अनिश्चितता ने भी फसल उत्पादन पर बुरा प्रभाव डालना शुरू कर दिया है. जलवायु परिवर्तन ने जल संसाधनों के दोहन से भूगर्भ जल में कमी लाने का काम किया है.

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पृथ्वी पर इस समय 140 करोड़ घनमीटर जल है. इस का 97 फीसदी भाग खारा पानी है, जो समुद्र में है. मनुष्य के हिस्से में कुल 136 हजार घनमीटर जल ही बचता है. पानी 3 रूपों में पाया जाता है- तरल, जो कि समुद्र, नदियों, तालाबों और भूमिगत जल में पाया जाता है, ठोस- जो कि बर्फ के रूप में पाया जाता है और गैस वाष्पीकरण द्वारा, जो पानी वातावरण में गैस के रूप में मौजूद होता है.

पूरे विश्व में पानी की खपत प्रत्येक 20 साल में दोगुनी हो जाती है, जबकि धरती पर उपलब्ध पानी की मात्रा सीमित है. शहरी क्षेत्रों में, कृषि क्षेत्रों में और उद्योगों में बहुत ज्यादा पानी बेकार जाता है.

यह अनुमान लगाया जा रहा है कि यदि सही ढंग से इसे व्यवस्थित किया जाए, तो 40 से 50 फीसदी तक पानी की बचत की जा सकती है. वहीं दूसरी ओर पीने के पानी के साथसाथ कृषि व उद्योगों के लिए भी इसी जल का उपयोग किया जाता है.

आबादी बढ़ने के साथ ही पानी की मांग में बढ़ोतरी होने लगी है. यह स्वाभाविक है, परंतु बढ़ते जल प्रदूषण और उचित जल प्रबंधन न होने के कारण पानी आज एक समस्या बनने लगी है. सारी दुनिया में पीने योग्य पानी का अभाव होने लगा है.

गांवों में पानी के पारंपरिक स्रोत लगभग समाप्त होते जा रहे हैं. गांव के तालाब, पोखर, कुओं का जलस्तर बनाए रखने में मददगार होते थे. किसान अपने खेतों में अधिक से अधिक वर्षा जल का संचय करता था, ताकि जमीन की आर्द्रता व उपजाऊपन बना रहे. पर अब बिजली से ट्यूबवेल चला कर और कम दामों में बिजली की उपलब्धता से किसानों ने अपने खेतों में जल का संरक्षण करना छोड़ दिया.

घट रही उत्पादन गुणवत्ता

जलवायु परिवर्तन से न केवल उत्पादन पर प्रभाव पड़ रहा है, बल्कि यह फसल की गुणवत्ता को भी प्रभावित कर रहा है. इस से अनाज में पोषक तत्वों की कमी आ रही है. इस वजह से असंतुलित और कम पोषक तत्वों वाले भोजन के ग्रहण करने से मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है. इस के अलावा फसलों पर कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग ने कृषि उत्पादों को भी जहरीला बना दिया है.

जलवायु परिवर्तन ने न केवल फसल उत्पादन को प्रभावित किया है, बल्कि इस ने पशुओं पर विपरीत प्रभाव डालना शुरू कर दिया है. तापमान बढ़ने से जानवरों के दूध उत्पादन व प्रजनन क्षमता पर सीधा असर पड़ रहा है.

यह अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर तापमान में बढ़ोतरी इसी तरह जारी रही, तो दूध उत्पादन में वर्ष 2020 तक 1.6 करोड़ टन और वर्ष 2050 तक 15 करोड़ टन तक गिरावट आ सकती है.

इस के अलावा सब से अधिक गिरावट संकर नस्ल की गायों में (0.63 फीसदी), भैसों में (0.50 फीसदी) और देसी नस्लों में (0.40 फीसदी) होगी, क्योंकि संकर नस्ल की प्रजातियां गरमी के प्रति कम सहनशील होती हैं, इसलिए उन की प्रजनन क्षमता से ले कर दुग्ध क्षमता ज्यादा प्रभावित होगी. जबकि देसी नस्ल के पशुओं में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कुछ कम दिखेगा.

ऐसे कम कर सकते हैं जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव

जलवायु परिवर्तन में कमी लाने के पहले उस के कुप्रभाव में भी कटौती करने के उपायों की तरफ सोचना होगा. इस के लिए खेतो में जल प्रबंधन, जैविक, प्राकृतिक और समेकित खेती को बढ़ावा, फसल उत्पादन की टिकाऊ और नई तकनीकी का विकास, फसल संयोजन में परिवर्तन, खेती की पारंपरिक विधियों को बढ़ावा इत्यादि कर के जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव को कम किया जा सकता है.

जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम चक्र में आ रहे बदलाव को रोकने के लिए सतत कृषि और भूमि उपयोग के प्रबंधन की तरफ ध्यान देना होगा, कृषि प्रथाओं में परिवर्तन- जैसे कि मांस की खपत को कम करना, पुनर्योजी कृषि को अपनाना और आर्द्र भूमि और घास के मैदानों की रक्षा करने की तरफ ध्यान देना होगा.

हम तापमान में बढ़ोतरी को नवीकरणीय ऊर्जा, अक्षय ऊर्जा स्रोतों जैसे कि पवन, सौर और जल विद्युत से भी रोक सकते हैं. साथ ही, लोगों को कम से कम फ्लाइटों का उपयोग करने की आदत डालनी होगी. डीजल और पेट्रोल से चलने वाली कारों की जगह इलैक्ट्रिक कार के उपयोग की आदत डालनी होगी. कम ऊर्जा खपत वाले सामान के उपयोग पर फोकस करना होगा. साथ ही, अधिक से अधिक पौध रोपण को बढ़ावा दे कर पौधों को सुरक्षित रखने की आदत डालनी होगी.

इस के अलावा हमें वैश्विक स्तर पर संचालित अभियानों का हिस्सा बन कर जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए किए जा रहे प्रयासों में गंभीरता से जिम्मेदारी निभानी होगी, तभी हम जलवायु परिवर्तन और तापमान में बढ़ोतरी को रोक पाएंगे, अन्यथा आने वाले कुछ वर्षों में दुनिया के सामने जलवायु परिवर्तन और तापमान में बढ़ोतरी हमारे सामने खाद्यान्न संकट के रूप में खड़ा होगा.

एक कदम हरित शहर की ओर : शहरियों को लुभा रही छत पर बागबानी

एक ताजा सर्वे में नई दिल्ली को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा लगातार विश्व स्तर पर सब से प्रदूषित शहरों में शुमार किया गया है. भारतीय वन सर्वे की नई रिपोर्ट से पता चलता है कि दिल्ली का कुल हरित क्षेत्र केवल 23.06 फीसदी है, जो कि साल 1988 की राष्ट्रीय वन नीति के तहत एकतिहाई क्षेत्र की सिफारिश से काफी कम है.

रूफटौप बागबानी पौधों की खेती के लिए खाली छत का उपयोग कर के शहरी पर्यावरण को सुधारने का एक अनूठा अवसर है, जिस से जैव विविधता में वृद्धि, शहरी गरमी का प्रभाव को कम करना, हवा की क्वालिटी में सुधार और साथ ही साथ सतत शहरी जीवन को प्रोत्साहित किया जा सकता है.

कोरोना महामारी के बाद लोगों में सेहत और पर्यावरण को ले कर जागरूकता बढ़ी है. लोग भोजन में बिना कैमिकल, बिना कीटनाशक का प्रयोग किए फलसब्जियों का इस्तेमाल करना चाहते हैं.

छत पर बागबानी के लिए न बहुत ज्यादा मिट्टी और न ही बहुत ज्यादा पानी की जरूरत होती है. छत पर बागबानी में धनिया, पालक, मेथी के साथ टमाटर, लौकी या कोई बेल वाली सब्जी या फिर कोई फल उगाया जा सकता है. सुंदरता बढ़ाने के लिए और परागण के लिए फूलों के पौधे लगाना भी लाभकारी होता है.

मानूसन से प्रभावित और आर्द्र उपोष्ण कटिबंधीय और अर्धशुष्क है, जो विभिन्न प्रकार के पौधों एवं वनस्पतियों के लिए उपयुक्त है.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद यानी आईसीएआर, 2016 के अध्ययन से पता चला है कि दिल्ली क्षेत्र में छतों का उपयोग बागबानी के लिए उपयुक्त है, जो हरित शहरीकरण की दिशा में एक बेहतरीन कदम हो सकता है. दिल्ली के विकास को नई दिशा देने के लिए मास्टर प्लान 2041 में रूफटौप बागबानी को बढ़ावा देने के लिए नागरिकों को बढ़ावा देते हुए सलाह देने का प्रावधान भी शामिल हैं.

छत पर बागबानी छाया और वाष्पीकरण के जरीए तापमान में कमी के साथसाथ पर्याप्त पर्यावरणीय फायदा भी है. शारदा विश्वविद्यालय और आईआईआईटी, दिल्ली द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन के अनुसार, छत के बगीचे गरमियों में 5-7 डिगरी सैल्सियस तक छत के तापमान को कम कर सकते हैं, जिस से निवासियों के लिए बिजली के बजट में संभावित बचत हो सकती है.

रूफटौप बागबानी प्रदूषकों और कार्बनडाईऔक्साइड को अवशोषित कर के हवा की क्वालिटी में सुधार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. साथ ही, जलवायु परिवर्तन और भोजन के कार्बन पदार्थ को कम करने में भी मदद करते हैं.

हार्वर्ड विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि बागबानी से न केवल सामुदायिक जुड़ाव की भावना को बढ़ावा देती है, बल्कि तनाव निवारक यानी स्ट्रेस बस्टर, एकाग्रता में सुधार और सकारात्मक ऊर्जा पैदा कर के निवासियों की भलाई को भी बढ़ावा देती है. जापान जैसे देशों में प्रकृति की सैर एक थैरेपी की तरह प्रयोग की जाती है. छत पर बागबानी एक व्यावहारिक समाधान है, जो प्रदूषण को कम करने में मददगार है.

सामुदायिक जुड़ाव और भागीदारी

छत पर बागबानी ने स्थानीय और और्गैनिक खाद्य उत्पादन को बढ़ावा देने के साथ खाद्य सुरक्षा को बढ़ाने का एक मूल्यवान अवसर दिया है. वर्तमान में दिल्ली अपने सब्जी और फलों की आपूर्ति के लिए पड़ोसी राज्यों पर अधिक निर्भर है.

छत पर बागबानी के जरीए एक शहरी आम आदमी को भी विभिन्न प्रकार की ताजा और स्वास्थ्यपूर्ण खाद्य जैसे सब्जियां, फल और जड़ीबूटियां उगाने का मौका मिलता है. साथ ही, बाहरी खाद्य स्रोतों की जरूरत को कम करने और आपूर्ति को सुनिश्चित करने में मदद करता है.

Terrace Garden
Terrace Garden

लोगों ने की शुरुआत

कोरोना महामारी के बीच विभिन्न औनलाइन मंचों पर बहुत सी सफलता की कहानियां सामने आई हैं, जिन में निवासियों की वे कहानियां भी शामिल थीं, जिन्होंने छत और बालकनी में बागबानी की शुरुआत की थी.

एक उदाहरण है कि नांगलोई के रहने वाले कृष्ण कुमार, जो कि सरकारी सेवा से रिटायर हैं, ने अपनी खाली छत पर बागबानी की और टमाटर, भिंडी और आलू जैसी सब्जियां उगाने लगे. उन्होंने कहा कि मैं ने यूट्यूब ट्यूटोरियल्स के माध्यम से बागबानी की तकनीक सीखी.

शहरी खेती स्वामित्व के रूप में ताजा और्गैनिक सब्जियों का एक स्रोत है और प्राकृतिकता और समुदाय से जुड़ने का एक स्थान हो सकता है.

नजफगढ़ की रहने वाली किरण, जो कि एक गृहिणी हैं, काफी सालों से छत पर बागबानी कर रही हैं. उन्होंने कहा कि अखबार और मीडिया के माध्यम से पता चला कि मार्केट में ज्यादातर फलसब्जियों में जहरीले पदार्थ होते हैं. मुझे यह महसूस हो गया कि मेरे छत पर बिना कीटनाशक के ताजगी वाली सब्जियां उगाने में बहुत सुरक्षित होगा, लेकिन जगह की कमी के कारण मैं केवल उन्हीं सब्जियों को उगा रही हूं, जो कम जगह में जिंदा रह सकती हैं.

मेरा मानना है कि छत पर बागबानी योजना को प्रोत्साहित करना चाहिए. एक आम व्यक्ति, छात्र, गृहिणी, बुजुर्ग सभी इस से जुड़ सकते हैं. स्वयं उपजाई हुई सब्जी या फल खाने से पोषण और स्वास्थ्य के साथ खुशी की भावना आती है और प्रकृति के समीप होने की सुखानुभूति भी होती है.

सरकारी पहल और नीतियां

सरकार अपनी नीतियों से शहरी क्षेत्र में छतों पर हरित जगहों के बनाने और समर्थन को प्रोत्साहित करने में अहम भूमिका निभाने का काम कर रही है. हाल ही में दिल्ली सरकार ने भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के सहयोग से ‘स्मार्ट शहरी खेती’ की शुरुआत की है. लोगों को उन के बालकनी और छतों पर सब्जियां उगाने के लिए प्रोत्साहित करना ही मुख्य उद्देश्य है.

दिल्ली सरकार की योजना है कि 10,000 डीआईवाई (डू इट योरसैल्फ यानी खुद करो) किट्स बांटी जाएंगी, जिन में फसल के बीज, जैव उर्वरक, खाद और बागबानी कैसे की जाती है, के बारे में जानकारी दी जाएगी.

बिहार और उत्तराखंड सरकारों के उद्यानिकी विभाग ने भी छत पर बागबानी योजना की शुरुआत की है. इस योजना के तहत आवेदन करने वाले इच्छुक व्यक्ति को लागत का 50 फीसदी या कम से कम 25,000 रुपए तक सब्सिडी सरकार के माध्यम से दी जाती है.

इस योजना का लाभ लेने के लिए छत पर 300 वर्गफुट का खुला स्थान होना जरूरी है. इस योजना के तहत राज्य सरकारें ट्रेनिंग

और छत पर बागबानी के विकास के लिए तकनीकी जानकारी और उद्यान के लिए तकनीकी और विकास के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करती है.

मुंबई में शुरुआत

‘बृहन्मुंबई नगरपालिका महामंडल’ यानी बीएमसी जिसे भारत की सब से धनी नगरपालिका के रूप में जाना जाता है, ने हाल ही में एक प्रस्ताव पेश किया है, जिस में मुंबई में सभी नई इमारतों को, जिन का प्लाट आकार 2,000 वर्गमीटर से अधिक है, उन्हें छत या टैरेस बगीचों को अनिवार्य सुविधा के रूप में शामिल करने की जरूरत होगी.

केंद्र सरकार द्वारा भी ‘छत पर बागबानी’ नामक कार्यक्रम दूरदर्शन ‘किसान टीवी चैनल’ पर प्रसारित किया जाता है, जिस में छत पर बागबानी की प्रदर्शनीय तकनीकों और विधियों की चर्चा की जाती है. सरकार को हरित बुनावट और लगातार बना रही प्रथाओं को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों को प्राथमिकता देने की जरूरत है, यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है.

– डा. दीप्ति राय,  डा. अरुण यादव (मोबियस फाउंडेशन )

बरसात में खिल उठे  मशरूम के पौधे

अकसर देखने में आता है कि बरसात में जगहजगह कुकुरमुत्ते (मशरूम) उग आते हैं. मशरूम को टरमिटोमायसेज माइक्रोकार्पस नाम से वैज्ञानिक रूप से जाना जाता है, जो मुख्य रूप से दीमक की बांबी पर रुकता है और अपने लिए भोजन दीमक से प्राप्त करता है.

यह मशरूम लिओ फिल्थी फैमिली का खाद्य मशरूम है, जो अधिकतर जंगली भोजन के रूप में प्रयोग करता है. इस का कई प्रकार की औषधियों में भी प्रयोग किया जाता है. आदिवासी इस की सब्जी बनाते हैं.

इन में से कुछ मशरूम जहरीले होते हैं, तो अनेकों मशरूम खाने के लिए पौष्टिक और प्रोटीन से भरपूर होते हैं, जिस में 17 अमीनो एसिड पाए जाते हैं. यह प्रमुख रूप से भारत सहित पूरे एशिया व अफ्रीका में पाया जाता है.

Mushroomकृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों डाक्टर गोपाल सिंह, विभागाध्यक्ष, डाक्टर कमल खिलाड़ी प्राध्यापक, डा. प्रशांत मिश्रा और प्रोफैसर एवं विभागाध्यक्ष डा. आरएस सेंगर ने फील्ड पर जा कर इस का निरीक्षण किया

और विश्वविद्यालय के छात्रछात्राओं को इस प्रकार के मशरूम जो प्राकृतिक रूप से कम उपलब्ध होता है, को लोगों ने देखा.

कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफैसर आरके मित्तल ने बताया कि प्रकृति में कई तरह के गुणकारी पौधे उगाने की क्षमता है और जब बरसात का सीजन आता है, तो प्रकृति खिल उठती है और इस समय लगभग सभी प्रकार के पौधों का विकास अच्छी तरह से होता है. इसी का प्रमाण है कि इस तरह के मशरूम भी परिसर में उगे हैं.

वैज्ञानिकों ने इस मशरूम को अपनी प्रयोगशाला में संरक्षित किया है. अब इस की गुणवत्ता की जांच और मिट्टी की जांच कर के इस बात का पता चला जाएगा कि किस में कौनकौन से गुण हैं, जिस के कारण यह इन जगहों पर उगे हैं. इस की गुणवत्ता इतनी पौष्टिक है, यह एक शोध का विषय है, जिस पर वैज्ञानिक अब  काम करेंगे.