धान की खेती से जुड़े सवाल जवाब व सुझाव

स्वस्थ एवं रोग व कीट से मुक्त धान की नर्सरी ही अधिक व गुणवत्तापूर्ण धान के उत्पादन का आधार होता है. नर्सरी स्वस्थ होनी चाहिए. खेतों की मेंड़ों को रोपाई से पहले साफसुथरा कर लेना चाहिए, जिस से कीट नहीं पनपते हैं.

सवाल : धान की रोपाई कब तक कर लेना उचित होता है?

जवाब : धान की रोपाई जुलाई माह के मध्य तक अवश्य कर लें. उस के बाद उपज में कमी निरंतर होने लगती है. यह कमी 30 से 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर में प्रतिदिन होती है.

सवाल : धान की कितने दिन की नर्सरी लगाना ज्यादा अच्छा रहता है?

जवाब : धान की 21 से 25 दिन की नर्सरी रोपाई के लिए सब से उपयुक्त होती है.

सवाल : धान की रोपाई की उचित दूरी क्या होनी चाहिए?

जवाब : साधारण उर्वरा भूमि में पंक्तियों एवं पौधों की दूरी 20 × 10 सैंटीमीटर उर्वरा भूमि में 20× 15 सैंटीमीटर रखें. पौधों की रोपाई 3 से 4 सैंटीमीटर से अधिक गहराई पर नहीं करनी चाहिए, अन्यथा कल्ले कम निकलते हैं और उपज में कमी होती है. एक स्थान पर 2 से 3 पौधे लगाएं. अगर वर्षा देर से हो रही है या फिर रोपाई में देरी होने के कारण एक स्थान पर 3 से 4 पौधे लगाना उचित होगा.

ध्यान रहे कि समय से रोपाई पर प्रति वर्गमीटर क्षेत्रफल में 50 हिल अवश्य होना चाहिए. ऊसर और देर से रोपाई की स्थिति में 65 से 70 हिल प्रति वर्गमीटर क्षेत्रफल में होना चाहिए.

Paddy Farmingरोपाई के बाद जो पौधे मर जाएं, उन के स्थान पर दूसरे पौधों को तुरंत लगा दें. अच्छी उपज के लिए प्रति वर्गमीटर क्षेत्रफल में 250 से 350 बालियों की संख्या होनी चाहिए.

सवाल : धान की नर्सरी बड़ी होने पर किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?

जवाब : धान की नर्सरी बड़ी हो जाने पर और देर से रोपाई की स्थिति में पौधों की चोटी चार अंगुल ऊपर से काट कर रोपाई करनी चाहिए, जिस से नर्सरी में दिए हुए कीटों के अंडे नष्ट हो जाएंगे और एक स्थान पर 3-4 पौधे लगाने चाहिए.

– प्रो. रवि प्रकाश मौर्य, (सेवानिवृत्त वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक एवं अध्यक्ष), निदेशक प्रसार्ड ट्रस्ट, मल्हनी, भाटपार रानी, देवरिया-274702 (उ.प्र.)

रोपें बांस, कमाएं पैसा

बांस से निर्मित वस्तुएं देखने में खूबसूरत, मजबूत व टिकाऊ होती हैं. इस की अलगअलग क्वालिटी के अनुसार इस का रेट भी किसानों को अच्छा मिलता है. इसलिए किसानों के लिए बांस की खेती फायदेमंद साबित होती रही है. बांस को एक बार रोपने के बाद 30-40 सालों तक उस की फसल ली जा सकती है.

बांस की विभिन्न वस्तुओं में उपयोग के अनुसार उस की अलगअलग किस्में आती हैं. लाठी के लिए प्रयोग किया जाना वाला बांस ठोस एवं पतला व कम लंबाई वाला होता है, वहीं घरों के निर्माण प्रयोग में आने वाले बांस की लंबाई अन्य किस्मों की अपेक्षा अधिक होती है. इस की कंटीली प्रजाति में मजबूती अधिक पाई जाती है व खोखलापन कम होता है. बांसुरी के लिए पतले बांस की किस्में प्रयोग में लाई जाती हैं, वहीं सजावटी वस्तुओं के निर्माण में प्रयोग में होने वाला बांस पीला, हरा व खोखला होता है.

बांस की खेती देश के हर कोने में की जा सकती है. यह पठारी, दोमट, बलुई, चिकनी, ऊसर व पथरीली जमीनों पर भी आसानी से उगाया जाने वाला पौधा है.

बांस की खेती खाली पड़ी जमीनों, नाले, नहरों व नदियों के किनारे स्थित खाइयों व नमी वाले स्थानों पर आसानी से की जा सकती है.

पूरे भारत में बांस की सब से अधिक खेती व अधिक किस्में पूर्वोत्तर राज्यों में पाई जाती है. बांस की खेती सिर्फ क्षारीय मिट्टी में नहीं की जा सकती है.

बांस की उन्नत प्रजातियां

अभी तक बांस की कुल 1,250 प्रजातियां पाई गई हैं, जिस में से 145 प्रजातियों को भारत में या तो उगाया जाता है या वह अपनेआप ही उग आता है.

भारत में उगाई जाने वाली बांस की कुछ उन्नत प्रजातियां निम्न है :

बैब्यूसा वलगैरिस

इस प्रजाति के बांस पीली, हरी व धारीधार होती है, जो देखने में बहुत खूबसूरत लगते हैं. इस वजह से इस की मांग सजावटी वस्तुओं के निर्माण के लिए ज्यादा होती है.

बैंब्यूसा टुल्ला

इस बांस की प्रजाति अपेक्षाकृत लंबी होती है.

बैंब्यूसा स्पायनोसा

इस किस्म में कांटे पाए जाते हैं. यह मजबूत होती है. इस की खेती उत्तरपश्चिम भारत में ज्यादा होती है.

डेंड्रोकलामस सख्त

इस प्रजाति के बांस मजबूत होते हैं व लंबाई में अधिक होते हैं.

बंबूसा नूतन

इस किस्म के बांस का उपयोग कई कामों में किया जाता है, इसलिए इस की मांग ज्यादा होती है.

मेलोकन्ना बंबूसोइड्स

इस बांस की किस्म की खेती पश्चिम बंगाल में अधिक होती है.

बैब्यूसा अरंडनेसी

यह सब से लंबी किस्म होती है. इस की ऊंचाई 30-40 फुट होती है, जो 30-100 के झुंड में एकसाथ उगती है.

बांस की रोपाई की तैयारी

बांस की रोपाई जुलाई से सितंबर माह तक की जा सकती है. यह नर्सरी तैयार कर राइजोम या उस की गांठों के द्वारा रोपा जाता है. बांस की रोपाई के लिए 30 सैंटीमीटर के लंबाई, चौड़ाई व गहराई का गड्ढा खोद कर 5×6 का अंतराल रखा जाता है.

बांस की नर्सरी तैयार करने के लिए उस के बीज को 24 घंटे तक पानी में भिगोए जाते हैं. इस दौरान एक बार पानी बदलना जरूरी होता है.

बांस के बीज : बांस की फसल रोपे जाने के 20-40 सालों के बीच सिर्फ एक बार पौधों में फूल आने से प्राप्त होते हैं. इस के बीज चावल की तरह होते हैं.

बांस के एक किलोग्राम बीज में लगभग 4,000 बीज होते हैं. बांस के पुंज में एकसाथ फूल आता है और सभी बांस फूल आने के बाद सूख जाते हैं.

अगर बांस की रोपाई उस की गांठों से करनी है, तो काटे गए बांसों की जड़ों को खोद कर उसे जुलाई से सितंबर माह तक रोप देना चाहिए और प्रत्येक दो माह के अंतराल पर इस की सिंचाई करते रहना चाहिए. इस के अलावा इस की जड़ों में सड़ी हुई गोबर की खाद व पत्तियों का प्रयोग करने से कल्ले अधिक फूटते हैं व फसल की बढ़वार अधिक होती है.

फसल की रोपाई के बाद पांचवे वर्ष से बांस की फसल मिलनी शुरू हो जाती है. इस के प्रत्येक पुंज में 5 से 10 वर्ष के बीच में किस्मों के अनुसार 15-100 कल्ले प्राप्त होते हैं. 15-20 वर्ष के बाद कल्लों की संख्या बढ़ जाती है और 30 वर्ष के बाद कल्लों की संख्या घटनी शुरू हो जाती है.

बांस की कटाई

बांस के पौधे अन्य फसलों की तरह नहीं होते हैं. इस की पुंजों से जो भूमिगत तना निकलता है, वह बड़ी तेजी से बढ़ता है और किसीकिसी किस्म की बढ़वार एक दिन में एक मीटर तक की होती है.

बांस 2 माह में अपना पूरा विकास कर लेता है. बांस के अच्छे बढ़वार के लिए वर्षा ऋतु में इस के पुंजों की बगल में मिट्टी चढ़ा कर जड़ों को ढक देना चाहिए.

बांस की कटाई उस के होने वाले उपयोग पर निर्भर करता है. अगर बांस की टोकरी बनानी है, तो वह 3-4 वर्ष पुरानी फसल हो. अगर मजबूती के लिए बांस की आवश्यकता है, तो 6 वर्ष की फसल ज्यादा उपयुक्त होती है.

बांस की कटाई का उपयुक्त समय अक्तूबर के दूसरे सप्ताह से दिसंबर माह तक का होता है. गरमी के मौसम में बांस की कटाई नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इस से जड़ें सूख सकती हैं और कल्ले फूटने की कम संभावनाएं होती हैं.

बांस की खूबियां

बांस को अगर पर्यावरण मित्र कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति न होगा, क्योंकि इस के एक हेक्टेयर खेत से 17 टन कार्बन अवषोषित किया जाता है. यह सर्वाधिक औक्सीजन छोड़ने वाला पौधा है. इसलिए यह वातावरण में शुद्ध वायु छोड़ने का एक प्रमुख घटक भी है.

बांस की एक खूबी यह भी है कि अगर इस की तुलना एक पेड़ से की जाए तो वह पेड़ 18 मीटर की लंबाई में बढ़ने के लिए 30-60 वर्ष का समय लेता है, जबकि बांस मात्र 30-60 दिनों के भीतर में 18 मीटर लंबाई में बढ़ जाता है.

बांस की खेती के अनगिनत लाभ

किसान राममूर्ति मिश्रा का कहना है कि बांस की खेती में न्यूनतम लागत व कम देखभाल की जरूरत होती है. इसे एक बार रोपने के बाद कई सालों तक फसल ली जा सकती है.

बांस प्रत्यक्ष रूप से किसान को लाभ तो देता ही है, साथ ही यह अप्रत्यक्ष रूप से भी कइयों को लाभ देने का माध्यम साबित हो रहा है.

Bamboo Products
Bamboo Products

 

देश में लाखों परिवार बांस आधारित उद्योग से अपना जीवनयापन कर रहे हैं. बांस से बनी हुई चीजें देशी पर्यटकों द्वारा महंगे दामों पर खरीदी जाती हैं. इस से महिलाओं के लिए सौंदर्य प्रसाधन, हेयर क्लिप, ग्रीटिंग कार्ड, चम्मच, तीरधनुष, खेती के उपकरण, कुरसीमेज, मछली पकड़ने का कांटा, चारपाई, डलिया जैसी हजारों वस्तुओं का निर्माण किया जाता है, इसलिए बांस को हरा सोना भी कहा जा सकता है.

गन्ने के साथ राजमा की खेती

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना मुख्य फसल के रूप में उगाया जाता है. नकदी फसल होने और तमाम चीनी मिलें होने की वजह से किसानों के बीच गन्ना बहुत ही लोकप्रिय फसल है. इस की खेती ज्यादातर एकल फसल के रूप में की जाती है. किसान गन्ने की फसल को नौलख या पेड़ी के रूप में 2-3 साल तक लेते रहते हैं. अनेक किसान गन्ने के साथ अन्य फसल भी लेते हैं जिसे हम सहफसली खेती के रूप में जानते हैं. ऐसा करने से गन्ने की खेती में मुनाफा भी बढ़ जाता है.

गन्ना और राजमा की सहफसली खेती

खेत का चुनाव व तैयारी : गन्ना और राजमा की खेती के लिए समतल जीवांशयुक्त बलुई दोमट मिट्टी का चुनाव करना चाहिए. गोबर की खाद को खेत में डाल कर 4-5 बार जुताई कर के मिट्टी को भुरभुरी बना लेना चाहिए.

बीज का चुनाव व बोआई : पंत अनुपमा, अर्का कोमल, करिश्मा, सेमिक्स, कंटेंडर वगैरह राजमा की उन्नत प्रजातियां हैं. राजमा के बीजों को कार्बंडाजिम की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. गन्ने के बीजोपचार के लिए कार्बंडाजिम की 200 ग्राम मात्रा को 100 लिटर पानी में घोल कर टुकड़ों को उस में 25-30 मिनट तक डुबोएं.

गन्ना और राजमा की सहफसली खेती में राजमा के 80 किलोग्राम और गन्ने के 60 क्विंटल बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करने चाहिए. बोआई 25 अक्तूबर से 15 नवंबर के मध्य कर लेनी चाहिए. गन्ने की 2 लाइनों के बीच राजमा की 2 लाइनों की मेंड़ों पर बोआई करें.

 

निराईगुड़ाई व सिंचाई : दोनों फसलों की बोआई सर्दी के मौसम में होने की वजह से खरपतवारों की समस्या कम रहती है, फिर भी खरपतवार निकालने के लिए फसल में 2-3 बार निराईगुड़ाई करें. पूरे फसलोत्पादन के दौरान जमीन को नम बनाए रखें, ताकि फसल को पाले से सुरक्षित रखा जा सके.

खाद व उर्वरक : खेत में 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी गोबर की खाद मिलानी चाहिए. इस के अलावा 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस, 80 किलोग्राम पोटाश और 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट उर्वरकों का प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए.

फसल सुरक्षा : बोआई से पहले बीजोपचार जरूर करें. आमतौर पर फलियां बनते समय फली भेदक, पर्ण सुरंगक व कुछ चूषक कीटों का हमला हो जाता है. कभीकभी मोजैक रोग का संक्रमण भी हो जाता है.

उन्नत तकनीक से खेती करने पर राजमा की फलियों की औसत उपज 50-60 क्विंटल प्रति एकड़ तक हासिल हो जाती है और तकरीबन 40,000 रुपए प्रति एकड़ अतिरिक्त आमदनी हो जाती है. इस के साथ ही गन्ने की उत्पादकता में भी इजाफा होता है.

खास वजह यह भी है कि खेत में डाली गई खाद व उर्वरकों का अधिकतम इस्तेमाल भी है. खरपतवार प्रबंधन का लाभ दोनों फसलों द्वारा हासिल किया जाता है और सहफसल में अपनाए गए कीट व रोग प्रबंधन का लाभ मुख्य फसल को भी मिल जाता है.

कीटों व रोगों की रोकथाम

* नीम का तेल 1.5 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. इस के इस्तेमाल से फसल की सुरक्षा भी हो जाती है और इनसानों की सेहत पर बुरा असर नहीं पड़ता है.

* नीम का तेल न होने पर 2 लिटर क्विनालफास 25 ईसी या 1.25 लिटर मोनोक्रोटोफास 36 एसएल या 2 किलोग्राम कार्बारिल 50 डब्लूपी को 600-700 लिटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से 12-14 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.

अरंडी की खेती

अरंडी को अंगरेजी में कैस्टर कहा जाता है, जबकि गांवदेहात के लोग इसे आम बोलचाल में अंडउआ कहते हैं. इस का पेड़ झाड़ीनुमा और पत्ते चौड़ी फांक वाले होते हैं. ये देखने में पपीते जैसे बड़ेबड़े होते हैं और इस के पेड़ सड़कों के किनारे या बेकार पड़ी जमीनों, गड्ढों वगैरह में देखे जा सकते हैं.

Castor Oil
Castor Oil

अरंडी की मांग विकसित देशों में ज्यादा है. यह फसल तिलहनी फसल के तहत आती है. इस का तेल खाने के काम नहीं आता, लेकिन अनेक तरह की दवाओं, साबुन, कौस्मैटिक वगैरह में इस्तेमाल किया जाता है. इस के बीजों में 40 से 52 फीसदी तेल होता है और अरंडी की पैदावार में भारत पहले नंबर पर है, जो दुनियाभर की 90 फीसदी अरंडी की जरूरत को पूरा करता है.

अरंडी उगाने वाले खास राज्य गुजरात, राजस्थान और आंध्र प्रदेश हैं. इस के अलावा अरंडी की सीमित मात्रा में खेती करने वाले राज्यों में कर्नाटक, तमिलनाडु, ओडिशा, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश शामिल हैं.

गुजरात और राजस्थान में इस की खेती सिंचाई पर आधारित है, जबकि बाकी राज्यों में बारिश आधारित परिस्थितियों में इस की खेती की जाती है. यह आमतौर पर गरम मौसम की फसल है. साफ आसमान वाले गरम इलाकों में अरंडी की फसल अच्छी होती है.

मिट्टी : अरंडी की खेती तकरीबन सभी तरह की मिट्टी में, जिस में पानी न ठहरता हो, की जा सकती है. पर यह आमतौर पर भारत में बलुई दोमट और उत्तरपश्चिम राज्यों की हलकी कछारी मिट्टी में इस की खेती अच्छी होती है.

बीज और बोआई : बीज बोने की तैयारी के लिए गरमी के मौसम या गैरमौसम में अच्छी तरह जुताई करनी चाहिए. इस की खेती ज्यादातर खरीफ मौसम में की जाती है. वैसे, इसे जूनजुलाई माह में बोते हैं और रबी मौसम में सिंचित हालात में सितंबर से अक्तूबर माह के आखिरी हफ्ते तक इस की बोआई की जा सकती है.

फसल तैयार होने की अवधि 120-240 दिन होती है. फसल बोने के लिए लाइन से लाइन की दूरी 90 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 45 सैंटीमीटर रखी जाती है. इस के लिए प्रति हेक्टेयर 12 से 15 किलोग्राम बीज लगता है.

बीजों को हल के द्वारा या सीड ड्रिल की सहायता से भी बोया जा सकता है. बीजों को बोने की गहराई 7-8 सैंटीमीटर से अधिक नहीं रखनी चाहिए. बीज बोने से पहले 3 ग्राम थाइरम प्रति किलोग्राम बीजों की दर से उपचारित करना चाहिए. उपचारित करने से बीजजनित रोगों से नजात मिलती है.

अंत:फसल तकनीक

खरीफ मौसम में अरंडी को आमतौर पर एकल फसल या मिश्रित फसल के रूप में उगाया जाता है. इन से अधिक फायदा लेने के लिए अरंडी आधारित अंत:फसल इस तरह हैं: अरंडी और अरहर (1:1), अरंडी और लोबिया (1:2), अरंडी और उड़द (1:2), अरंडी और मूंग (1:2), अरंडी और ग्वार (1:1), अरंडी और मूंगफली (1:5), अरंडी और अदरक/हलदी (1:5) और अरंड और मिर्ची (1:8) के अनुसार बोआई करें.

खाद और उर्वरक : सामान्य तौर पर अरंडी की फसल में किसी खाद की खास जरूरत नहीं होती, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि उन्नत किस्मों के बीज इस्तेमाल करने और सही मात्रा में खाद देने पर उन से अच्छी उपज ली जा सकती है.

अनेक इलाकों के हिसाब से 40 से 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30-40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की जरूरत होती है. सिंचित इलाकों में नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस की पूरी मात्रा बोआई के पहले ही मिला देनी चाहिए. नाइट्रोजन की बाकी बची आधी मात्रा को 2 महीने बाद सिंचाई के समय देना चाहिए और ऐसे इलाकों में, जहां फसल को सही मात्रा में पानी न मिल पाता हो, वहां नाइट्रोजन की पूरी मात्रा बोआई के समय ही कूंड़ों में डाल देनी चाहिए.

निराईगुड़ाई : अरंडी की खेती में खरपतवार ज्यादा फलताफूलता है. बीजाई के 25 दिन बाद ब्लैड हैरो से जुताई के समय या फिर 2-3 बार हाथ से खरपतवार को 15-20 दिन के अंतराल पर उखाड़ देना चाहिए, जिस से खरपतवारों को बढ़ने से रोका जा सके.

सिंचाई : कई साल तक फसल लेने के लिए अरंडी की समय पर सिंचाई करना जरूरी है. लंबे समय तक सूखा रहने पर एक सिंचाई स्पाइक विकसित होने की शुरुआती अवस्था में करें और दूसरे स्पाइक के शुरुआत में या विकसित अवस्था में देने से फसल को काफी फायदा मिलता है. इस से अच्छी पैदावार होती है. रबी और गरमी में बीजारोपण के तुरंत बाद एक सिंचाई देने से एकसमान अंकुरण होता है. मिट्टी को ध्यान में रखते हुए और फसल के विकास के मुताबिक सिंचाई करनी चाहिए.

अरंडी में लगने वाले रोग : अच्छी पैदावार के लिए फसल में रोग की रोकथाम भी जरूरी है.

अंगमारी रोग : यह एक आम रोग है. आमतौर पर यह रोग पौधों में शुरुआती बढ़वार के समय लगता है. रोग के लक्षण बीज पत्र के दोनों सतहों पर गोल व धुंधले धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं. अगर इसे रोका न गया तो यह रोग धीरेधीरे पत्तियों से तने और फिर पूरे पौधे को अपनी चपेट में ले लेता है. पत्तियां सड़ने लगती हैं और आखिर में पौधे सड़ कर गिर जाते हैं. इस की रोकथाम के लिए डाइथेन एम 45 के 0.25 फीसदी घोल का 1,000 लिटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 2-3 बार छिड़काव करना चाहिए.

पर्णचित्ती रोग : इस रोग में पहले पत्तियों पर छोटेछोटे धब्बे उभरते हैं, फिर ये बाद में भूरे रंग के बड़े धब्बों में बदल जाते हैं.

1 फीसदी बोर्डोएक्स मिक्स्चर या कौपर औक्सीक्लोराइड 2 फीसदी की दर से छिड़काव करने से इस रोग की रोकथाम की जा सकती है वहीं मैंकोजेब 2 ग्राम प्रति लिटर या कार्बंडाजिम 500 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 10-15 दिन के अंतर पर 2 छिड़काव करने से इस रोग को कम किया जा सकता है.

झुलसा रोग : सब से पहले यह रोग बीज पत्र पर धब्बों के रूप में दिखाई देता है. पत्ते के किसी भी भाग में धब्बे दिखाई दे सकते हैं. जब हमला अधिक होता है तब धब्बे मिल कर एक बड़ा धब्बा सा बना देते हैं. इस की रोकथाम साफसुथरी खेती व प्रतिरोधी किस्मों के चयन द्वारा संभव है.

रोग के लगने की संभावना होने पर डाइथेन एम 45 या डाइथेन जेड 78 में से किसी एक फफूंदीनाशी की 1 किलोग्राम सक्रिय तत्त्व की मात्रा को 500-600 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. यदि रोग नियंत्रण में न हो तो 10-15 दिन के बाद दोबारा छिड़काव करना चाहिए.

अरंडी में लगने वाले कीट

सैमीलूपर : यह इस फसल को बहुत तेजी से नुकसान पहुंचाने वाला कीट है. इस की रेंगने वाली लट, जो 3-3.5 सैंटीमीटर लंबी होती है, फसल को खा कर कमजोर कर देती है. यह लट 11-12 दिनों तक पत्तियां खाने के बाद प्यूपा में बदल जाती है. बारिश के समय (अगस्त से सितंबर माह) में इस कीट का अत्यधिक प्रकोप होता है.

लट सामान्य रूप से कालेभूरे रंग के होते हैं. इन पर हरीभूरी या भूरीनारंगी धारियां भी होती हैं. ये गिडारों की तरह सीधा न चल कर रेंगती हुई चलती हैं. इस कीट की रोकथाम के लिए क्विनालफास 1 लिटर कीटनाशी दवा को 700-800 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव किया जा सकता है.

तना छेदक कीट : इस कीट की इल्ली गहरे और भूरे रंग की होती है. यह प्रमुख रूप से अरंडी के तनों और डालयों को खा कर खोखला कर देती है. इस की गिडार 2-3 सैंटीमीटर तक लंबी और भूरे रंग की होती है. इस अवस्था में वह 12-14 दिन रहती है और खोखले तनों के अंदर घुस कर प्यूपा में बदल जाती है.

इस की रोकथाम के लिए सब से पहले रोगग्रस्त तनों और संपुटों को इकट्ठा कर जला देना चाहिए और क्विनालफास 25 ईसी की 1 लिटर दवा को 800 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव कर देना चाहिए.

रोएं वाली इल्ली : खरीफ फसलों में रोएं वाली इल्ली इस फसल को अधिक नुकसान पहुंचाती है. इस कीट की साल में 3 पीढि़यां होती हैं. इस के गिडार पत्तियों को खाते हैं जो बाद में गिर जाते हैं. खेत में जैसे ही इस कीट के अंडे दिखाई दें, उन्हें पत्तियों समेत चुन कर जमीन में गाड़ देना चाहिए. बाकी कीड़ों की रोकथाम के लिए खेत में इमिडाक्लोप्रिड 1 मिलीलिटर को 1 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव कर देना चाहिए.

कटाई : अरंडी के 180-240 दिनों में 30 दिन के अंतर से 4-5 स्पाइक पैदा होते हैं. पहला स्पाइक (फलों का गुच्छा) बीजारोपण के 90 से 120 दिन में तैयार होता है. इस की फसल एकसाथ नहीं पकती. इन्हें 30 दिन के अंतर से तोड़ा जा सकता है.

अगर गुच्छे ज्यादा पक जाते हैं तो वे  फटने लगते हैं और बीज खेत में बिखर जाते हैं. अनेक किस्में ऐसी भी हैं जिन के गुच्छे फटते नहीं हैं. फलों के गुच्छों को काटने के साथ धूप में अच्छे से सुखाने के बाद उन्हें डंडों से पीट कर बीज अलग कर लिया जाता है. बीज निकालने के लिए यंत्र का भी इस्तेमाल किया जाता है. कैप्सूल को कई बार नालीदार बोर्ड पर रगड़ कर बीज बाहर निकाला जाता है जिस में काफी समय लगता है. साफ बीजों को जूट के थैलों में सामान्य परिस्थितियों में रखा जा सकता है.

राज्य के हिसाब से किस्में

आंध्र प्रदेश : डीसीएस 107, 48-1 (ज्वाला), क्रांति, किरन, हरिता किस्में हैं और जीसीएच 4, डीसीएच 519, डीसीएच 177, पीसीएच 111 और पीसीएच 222 संकर प्रजातियों की सिफारिश की गई है.

गुजरात : 48-1, जीसी 3 किस्में हैं और संकर प्रजातियों में जीसीएच 4, जीसीएच 6, जीसीएच 7, डीसीएच 519 वगैरह की सिफारिश की गई है.

राजस्थान : डीसीएस 107, 48-1 किस्में हैं और संकर प्रजातियों में जीसीएच 4, डीसीएच 32, आरएचसी 1, डीसीएच 177, डीसीएच 519 वगैरह की सिफारिश की गई है.

तमिलनाडु : एसए 2, टीएमबी 5, टीएमबी 6, को 1, 48-1 किस्में हैं और संकर प्रजातियों में जीसीएच 4, डीसीएच 31, डीसीएच 177, डीसीएच 519, वाईआरसीएच 1 की सिफारिश की गई है.

अन्य : डीसीएस 107, 48-1 किस्में हैं और संकर प्रजातियों में जीसीएच 4, जीसीएच 5, जीसीएच 6, डीसीएच 177, डीसीएच 519 की सिफारिश की गई है.

उपज : बारिश आधारित फसल से 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और सिंचित इलाकों में 20-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से पैदावार मिलती है.

अरंडी फोड़ाई यंत्र

यह यंत्र हाथ से चलने वाला है. इस यंत्र से अरंडी की फली के अलावा मूंगफली के दाने भी अलग किए जाते हैं. इस में अरंडी व मूंगफली के लिए अलगअलग छलनियां लगी होती हैं. इस यंत्र की अनुमानित कीमत 2,500 से 3,000 रुपए तक है. इस यंत्र को केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान, भोपाल द्वारा बनाया गया है.

गाजर घास से फसल का बचाव

गाजर घास की 20 प्रजातियां पूरे विश्व में पाई जाती हैं. गाजर घास की उत्पत्ति का स्थान दक्षिणमध्य अमेरिका है. अमेरिका, मैक्सिको, वेस्टइंडीज, चीन, नेपाल, वियतनाम और आस्ट्रेलिया के विभिन्न भागों में फैला यह खरपतवार भारत में अमेरिका या कनाडा से आयात किए गए गेहूं के साथ आया.

हमारे देश में साल 1951 में सब से पहले पूना में नजर आने के बाद यह विदेशी खरपतवार तकरीबन 35 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में फैल चुका है.

गाजर घास को देश के विभिन्न भागों में अलगअलग नामों जैसे कांग्रेस घास, सफेद टोपी, चटक चांदनी व गंधी बूटी वगैरह नामों से जाना जाता है. कांग्रेस घास इस का सब से ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला नाम है.

वैसे तो गाजर घास पानी मिलने पर सालभर पनपती है, पर बारिश के मौसम में ज्यादा अंकुरण होने पर यह खतरनाक खरपतवार का रूप ले लेती है. गाजर घास का पौधा 3-4 महीने में अपना जीवनचक्र पूरा कर लेता है यानी 1 साल में इस की 3-4 पीढि़यां पूरी हो जाती हैं.

तकरीबन डेढ़ मीटर लंबी गाजर घास के पौधे का तना काफी रोएंदार और शाखाओं वाला होता है. इस की पत्तियां असामान्य रूप से गाजर की पत्तियों की तरह होती हैं. इस के फूलों का रंग सफेद होता है. हर पौधा 1,000 से 50,000 बेहद छोटे बीज पैदा करता है, जो जमीन पर गिरने के बाद नमी पा कर अंकुरित हो जाते हैं.

गाजर घास के पौधे हर प्रकार के वातावरण में तेजी से बढ़ते हैं. ये ज्यादा अम्लीयता व क्षारीयता वाली जमीन में भी उग सकते हैं. इस के बीज अपनी 2 स्पंजी गद्दियों की मदद से हवा व पानी के जरीए एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से पहुंच जाते हैं.

गाजर घास के नुकसान

* गाजर घास से इनसानों को एग्जिमा, एलर्जी, बुखार व दमा जैसी बीमारियां हो जाती हैं. इस का 1 पराग कण भी इनसान को बीमार करने के लिए काफी है. इस के पराग कण सांस नली में घुस कर दमा व एलर्जी पैदा करते हैं. इस के ज्यादा असर से इनसानों की मौत तक हो जाती है.

* गाजर घास की वजह से खाद्यान्नों की फसलों की पैदावार में 40 फीसदी तक की कमी आंकी गई है. इस से फसलों की उत्पादकता घट जाती है.

* इस पौधे से एलीलो रसायन जैसे पार्थेनिन, काउमेरिक एसिड, कैफिक एसिड वगैरह निकलते हैं, जो अपने आसपास किसी अन्य पौधे को उगने नहीं देते हैं. इस से फसलों के अंकुरण और बढ़वार पर बुरा असर पड़ता है.

* गाजर घास के वन क्षेत्रों में तेजी से फैलने के कारण कई खास वनस्पतियां और जड़ीबूटियां खत्म होती जा रही हैं.

* दलहनी फसलों में यह खरपतवार जड़ ग्रंथियों के विकास को प्रभावित करता है और नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणुओं की क्रियाशीलता को कम कर देता है.

* इस के परागकण बैगन, मिर्च व टमाटर वगैरह सब्जियों के पौधों पर जमा हो कर उन के परागण, अंकुरण व फल विन्यास को प्रभावित करते हैं और पत्तियों में क्लोरोफिल की कमी व पुष्प शीर्षों में असामान्यता पैदा कर देते हैं.

* पशुओं के चारे में इस खरपतवार के मिल जाने से दुधारू पशुओं के दूध में कड़वाहट आने लगती है. ज्यादा मात्रा में इसे चर लेने से पशुओं की मौत भी हो सकती है.

यों करें रोकथाम

* बारिश के मौसम में गाजर घास को फूल आने से पहले जड़ से उखाड़ कर कंपोस्ट व वर्मी कंपोस्ट बनाना चाहिए.

* घर के आसपास गेंदे के पौधे लगा कर गाजर घास के फैलाव को रोका जा सकता है.

* गाजर घास की रासायनिक विधि द्वारा रोकथाम करने के लिए खरपतवार वैज्ञानिक की सलाह लेनी चाहिए.

* नमक के 20 फीसदी घोल से गाजर घास की रोकथाम की जा सकती है, पर यह विधि छोटे क्षेत्र के लिए ही ठीक है.

सामुदायिक कोशिशें

* जमीन को गाजर घास से बचाने के लिए सामुदायिक कोशिशें बहुत जरूरी हैं. गांवों, शहरी कालोनियों, स्कूलों, महाविद्यालयों में रहने या पढ़ने वाले लोगों को चाहिए कि वे अपने आसपास की जमीन को गाजर घास से मुक्त रखें. इसी तरह की कोशिशों से पंजाब राज्य के लुधियाना जिले का मनसूरा गांव पहला गाजर घास मुक्त क्षेत्र बन गया है.

* जगहजगह जा कर लोगों को गाजर घास के नुकसानों व रोकथाम के बारे में जानकारी दे कर उन्हें जागरूक करना चाहिए.

* हर साल अगस्तसितंबर माह में गाजर घास जागरूकता सप्ताह मनाया जाता है, क्योंकि अक्तूबरनवंबर में गाजर घास बहुत ज्यादा होती है.

गाजर घास के इस्तेमाल

* गाजर घास का इस्तेमाल तमाम किस्म के कीटनाशक, जीवाणुनाशक और खरपतवारनाशक बनाने में किया जा सकता है.

* इस की लुगदी से कई तरह के कागज तैयार किए जा सकते हैं.

* बायोगैस उत्पादन में भी इसे गोबर के साथ मिलाया जा सकता है.

वैज्ञानिक तरीके से करें रामदाना की उन्नत खेती

पोषक तत्वों से भरपूर रामदाना को कौन नहीं जानता है. रामदाना में 12-15 फीसदी प्रोटीन, 6-7 वसा, फीनाल्स- 0.045-0.068 फीसदी एवं एंटीऔक्सीडेंट डीपीपीएच 22.0-270 फीसदी पाया जाता है. इसीलिए शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए रामदाने के दाने से लइया और लड्डू बनाया जाता है, जो खाने में कुरकुरा व बेहद स्वादिष्ठ होता है. इसलिए यह सब के लिए प्यारा खाद्य प्रदार्थ माना जाता है.

रामदाना की खेती दाना प्राप्त करने व पशुओं के लिए चारा प्राप्त करने के लिए की जाती है. इन की खेती रबी व खरीफ दोनों ही सीजन में की जाती है. यह गरम एवं नम जलवायु की फसल है. कम वर्षा वाले क्षेत्रों में रामदाना की खेती भरपूर मात्रा में की जाती है.

रामदाना की खेती के लिए भारत में जम्मूकश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, तमिलनाडु, बिहार, गुजरात, पूर्वी उत्तर प्रदेश व बगांल प्रमुख रूप से जाना जाता है. रामदाना की खेती संयुक्त फसल के रूप में भी बेहद सफल रही है.

रामदाना की खेती के लिए दोमट, बलुई दोमट व उचित जलनिकासी वाली मिट्टी ज्यादा उपयुक्त होती है. रामदाना की बोआई करने से पहले खेत की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल या हैरो से कर के सितंबर माह में पाटा लगा कर मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए.

बीज का चयन

रामदाना की बोआई के लिए खेत की तैयारी करने के साथ ही उन्नतशील व अधिक उत्पादन वाले बीज का चयन भी कर लेना जरूरी होता है. रबी सीजन की बोआई के लिए रामदाना की 3 उन्नतिशील प्रजातियों खेती के लिए योग्य पाई गई है.

पहली, जीए-1- रामदाना की किस्म 110-115 दिन में पक कर तैयार होती है. पौधे की ऊंचाई 200-200 सैंटीमीटर होती है. इस किस्म की बाली का रंग हरा एवं पीला होता है. उपज 20-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

दूसरी, जीए- 2- रामदाना की किस्म कम समय में पक कर तैयार होती है. इस की फसल तैयार होने में 98-102 दिन का समय लगता है. इस के पौधे 180-190 सैंटीमीटर व उपज 23-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पाई जाती है जबकि तीसरी को तैयार होने में 105-110 दिन का समय लगता है. इस के पौधों की लंबाई 200-205 सैंटीमीटर व उपज 20-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

रामदाना की इन प्रजातियों की बोआई का उपयुक्त समय सितंबर के आखिरी सप्ताह से नवंबर का प्रथम सप्ताह तक होता है.

रामदाना के बीजों की खेत में बोआई करने से पहले बीज की मात्रा एवं उपचार सुनिश्चित वजन 8 ग्राम होता है. इसलिए एक हेक्टेयर में मात्र 1 किलोग्राम बीज ही बोआई के लिये पर्याप्त होता है. बीज को बोआई के पहले 2-2.5 ग्राम थीरम में प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर लेना चाहिए.

रामदाना की बोआई विधि

रामदाना की बोआई 2 विधियों से की जाती है. पहली छिटकवां विधि से, जिस में बीज को छिटक कर पाटा चला दिया जाता है. इस विधि में फसल के दानों के कमजोर होने की शंका बनी रहती है. वहीं दूसरी विधि में रामदाना की बोआई लाइन से की जाती है. इस में लाइन से लाइन की दूरी 45 सैंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 15 सैंटीमीटर रखते हैं. इस विधि से रामदाना की फसल अच्छी व दाने मोटे होते हैं.

खाद एवं उर्वरक

रामदाना की बोआई के समय नाइट्रोजन 30 किलोग्राम, फासफोरस 40 किलोग्राम व पोटाश 20 किलोग्राम की मात्रा की आवश्यकता पड़ती है. इस के बाद नाइट्रोजन की 15-15 किलोग्राम मात्रा 2 बार में रामदाना की फसल को देनी चाहिए.

निराईगुड़ाई एवं सिंचाई

रामदाना फसल की सिंचाई जरूरत होने पर अवश्य देनी चाहिए. इस के अलावा फसल में फल आने के पहले हलकी सिंचाई जरूरी होती है. फसल की उचित बढ़वार व अच्छी उपज के लिए बोआई के 20-25 दिन बाद एक बार निराईगुड़ाई आवश्यक होती है. इस के अलावा पौधे की उचित बढ़वार के लिए 2 बार सिंचाई व गुड़ाई करनी चाहिए.

कीट एवं बीमारियों का नियंत्रण

रामदाना की फसल में आमतौर पर कीट व बीमारियों का प्रकोप नहीं होता है. रामदाना की फसल में ब्लास्ट झोका व ब्लास्ट सड़न का प्रकोप होता है. इस के नियंत्रण के लिए डाइथेन जेड 78 व 0.05 फीसदी बाविस्टीन के घोल का छिड़काव करना चाहिए.

कटाईमड़ाई व भंडारण

प्रगतिशील किसान प्रवींद्र राय का कहना है कि जब रामदाना की पत्तियां व फसल पीली पड़ जाए, तो फसल की कटाई कर उस की मड़ाई कर लें. इस के बाद दानों को 2 घंटे धूप में सुखा कर उस का भंडार किसी शुष्क स्थान पर कर देना चाहिए.

गन्ने का कचरा भी है कीमती

हमारे देश के 19 राज्यों में बड़े रकबे में गन्ने की खेती होती है. गन्ने की खेती से हरी, सूखी पत्तियां, अगोला, पेराई के बाद खोई व गन्ने की प्रोसैसिंग से शीरा, स्पेंट वाश व मैली का कचरा बचता है. जानकारी न होने की वजह से ज्यादातर किसान इस कचरे का बेहतर इस्तेमाल नहीं कर पाते. वे उन्हें बेकार समझ कर फेंक देते हैं. इस से गंदगी बढ़ती है. कुछ किसान व ईंट भट्टे वाले गन्ने का कचरा बतौर ईंधन में इस्तेमाल कर लेते हैं.

आसान बचत

भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ के वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि गन्ने का कचरा कीमती और फायदेमंद है, क्योंकि इस का इस्तेमाल बढि़या कार्बनिक खाद के तौर पर मिट्टी की सेहत सुधारने में किया जा सकता है. गन्ने का कचरा मल्चिंग, ऊसर खेतों को ठीक करने के काम आ सकता है. इस से किसानों का पैसा बचेगा और मिट्टी को पोषक खुराक मिलेगी. किसान थोड़ा ध्यान दे कर अगर इस तकनीक को समझ लें तो वे आसानी से अपना काफी पैसा बचा सकते हैं.

जाहिर है कि नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश वाले अकार्बनिक और महंगी खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से मिट्टी की संरचना व संतुलन दोनों बिगड़ रहे हैं. एक तरफ फसलों पर इन का खराब असर पड़ रहा है, तो वहीं दूसरी तरफ किसानों की जेब हलकी होती है. खेती की लागत बढ़ती है. खेतों से ले कर कोल्हू, खांडसारी क्रेशरों व चीनी मिलों तक में हर साल गन्ने का लाखों टन कचरा बचता है. इस के सही इस्तेमाल से मिट्टी में जरूरी तत्त्वों की कमी पूरी की जा सकती है.

गन्ने की पत्ती

गन्ने की हरी पत्तियों को पशु बड़े ही चाव से खाते हैं इसलिए गन्ने की हरी पत्तियां यानी अगोले का इस्तेमाल चारे के रूप में किया जाता है. माहिरों का कहना है कि ज्यादातर किसान गन्ना नहीं बांधते. तेज हवाओं से गन्ने की लंबी फसल गिर जाती है. जुलाईअगस्त के महीने में पत्तियों की मदद से गन्ने की बंधाई जरूर कर देनी चाहिए. इस के लिए गन्ने की पत्तियों को रस्सी की तरह बंट लें और लाइनों में खड़े गन्ने के थानों को आपस में बांध दें.

गन्ने की सूखी पत्तियां गांवों में जलाने या फूंस के साथ छप्पर बांधने में काम आती हैं. अब उन्हें कागज की लुगदी बनाने वाले कारखाने भी खरीद रहे हैं. पिछले साल उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर व सहारनपुर के इलाकों में गन्ने की सूखी पत्तियां 2-3 सौ रुपए क्विंटल तक बिकी थीं. माहिरों के मुताबिक, गन्ना जमने के बाद व गरमी में सिंचाई के बाद गन्ने की सूखी पत्तियां बिछाने से खेत में नमी बनी रहती है. साथ ही, गन्ना काटने के बाद खेत में सूखी पत्तियां बिछा कर आग लगाने से कीड़ेमकोडे़ वगैरह मर जाते हैं. खरपतवार काबू में रहते हैं व पेड़ी की फसल अच्छी होती है.

गन्ने की मैली खाद की थैली

गन्ने का रस छानने के बाद बची मैली को प्रेसमड कहते हैं. इस में कई पोषक तत्त्व होते हैं, लेकिन इसे सीधे खेत में डालने से खेत में दीमक व अन्य कीट का खतरा बढ़ जाता है. किसान नजदीकी चीनी मिलों से प्रेसमड ले कर सड़ाने के बाद इस का इस्तेमाल कर सकते हैं. गन्ने की मैली से बढि़या खाद बनती है. उत्तर प्रदेश गन्ना शोध परिषद, शाहजहांपुर जैविक चीजों को जल्द सड़ाने को आर्गेनोडीकंपोजर, नाइट्रोजन स्थिर करने को एजेटोबैक्टर, फास्फोरस बढ़ाने को साल्विलाइजिंग बैक्टीरिया और बेधकों के सफाए को ट्राइको कार्ड किसानों को कम दाम पर मुहैया कराती है.

खेती के माहिरों ने जीवाणु कल्चर यानी टीके या वर्मी कल्चर यानी केंचुओं की मदद से गन्ने की मैली को बेहतर खाद में बदलने का तरीका निकाला है. इस के लिए डेढ़ मीटर लंबे, 2 मीटर चौड़े व एक मीटर गहरे गड्ढ़े में गन्ने की सूखी पत्तियां, गन्ने की खोई व घरेलू कचरे की 2 इंच मोटी तह लगाएं. उस पर 8 किलोग्राम यूरिया व 10 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट प्रति टन की दर से डालें. फिर 5 सौ लिटर पानी में 1 क्विंटल गोबर के घोल में एक किलोग्राम जीवाणु कल्चर का घोल बना कर छिड़क देना चाहिए. जीवाणु कल्चर गन्ना शोध केंद्रों पर मिल जाता है.

इस तरह 3-4 परत लगाने से गड्ढ़ा भर जाता है. गड्ढ़े की लंबाई में एक फुट जगह हवा के लिए छोड़ने के बाद गोबर, मिट्टी व प्रेसमड के लेप से गड्ढ़ा ढक दें. पहले हर 15 दिन पर 2 बार, फिर एक महीने बाद तीसरी पलटाई करें. हर पलटाई पर पानी जरूर छिड़कें. इस तरह 75 से 90 दिनों में गन्ने की मैली से बढि़या खाद तैयार हो जाती है. इसे गड्ढ़े की जगह ढेर लगा कर भी बनाया जा सकता है. इस के अलावा दूसरा तरीका है वर्मी कल्चर यानी केंचुओं से प्रेसमड को बनाने का.

प्रेसमड को वर्मी कल्चर से बनाने के लिए पहले 45 दिन तो जीवाणु कल्चर की तरह गड्ढ़े में सड़ाया जाता है. आधा सड़ने के बाद उसे किसी शेड के नीचे पक्के फर्श पर डाल कर उस में प्रति टन 1 किलोग्राम की दर से केंचुए छोड़ दिए जाते हैं. इस के बाद पानी छिड़क कर 60 फीसदी नमी बनाने से तकरीबन 45 दिनों में गन्ने की मैली काले रंग की वर्मी कंपोस्ट में बदल जाती है. इस खाद को गन्ना बोते समय 50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालना चाहिए.

गन्ने की खोई

गन्ना पेरने के बाद बची खोई को जलाने के लिए भट्टी में झोंका जाता है, जबकि कागज, गत्ता, परफ्यूराल, अल्फासेलूलोज व जिलीटाल बनाने वाले इसे अच्छी कीमत पर खरीदते हैं. इस के अलावा गन्ने की खोई को मुरगीघर में बिछावन, क्षारीय मिट्टी में सुधार व शीरे के साथ जानवरों के चारे में भी इस्तेमाल किया जाता है. बदलती खेती के इस दौर में पुरानी लीक पर चलने की जगह नईनई जानकारी से फायदा उठाना जरूरी है, ताकि बेकार बचे कचरे को भी कंचन बनाया जा सके. यानी खेतीबारी में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाया जा सके.

कम पानी में अच्छा उत्पादन देने वाली बासमती की प्रजातियां लगाएं किसान

सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में 20 कृषि विज्ञान केंद्रों पर नवनियुक्त विषय विशेषज्ञों के लिए कृषि विपणन पर प्रेरण कार्यक्रम विषय पर दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया. कार्यशाला का शुभारंभ कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. डा. केके सिंह की अध्यक्षता में हुआ.

कुलपति डा. केके सिंह ने अध्यक्षता करते हुए कहा कि निर्यात के लिए गुणवत्तायुक्त बासमती चावल के उत्पादन एवं इस के द्वारा आय में वृद्धि विषय पर प्रकाश डालते हुए किसानों को नई तकनीकी अपनाने की सलाह दी.

उन्होंने यह भी कहा कि धान उत्पादन के लिए ऐसी किस्मों का चुनाव करें, जिस में कम पानी लगता हो और विपरीत परिस्थितियों में भी अच्छा उत्पादन देती हो.

डा. केके सिंह ने आगे कहा कि प्रतिबंधित पेस्टिसाइड्स का इस्तेमाल बासमती खेती में नहीं करना चाहिए.

चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो. संगीता शुक्ला ने मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए कहा कि बासमती धान जब बनते थे, तो इस में खुशबू बहुत आती थी, लेकिन अब ऐसे चावल कम देखने को मिलते हैं. किसानों को चाहिए कि आज तकनीकी के युग में खेतीकिसानी काफी आगे पहुंच गई है.

उन्होंने कहा कि खेती करते समय कैमिकल खादों का इस्तेमाल कम से कम करना चाहिए, क्योंकि इन का अधिक प्रयोग करने से कैंसर जैसी गंभीर बीमारियां हो रही हैं, इसलिए कैमिकल खादों से और पेस्टिसाइड से बचना चाहिए.

प्रो. संगीता शुक्ला ने कहा कि हर परिवार से कम से कम एक सदस्य ऐसा होना चाहिए, जो एग्रीकल्चर से जुड़ा हो तो निश्चित रूप से हमारा देश काफी आगे बढ़ सकता है.

उन्होंने किसानों से आवाह्न किया कि वे कृषि की नवीनतम तकनीकों का प्रयोग खेती में करें, जिस से किसानों की आय बढ़ सकेगी.

पद्मश्री वैज्ञानिक डा. बीपी सिंह ने बासमती चावल के उत्पादन पर प्रकाश डालते हुए कहा कि प्रत्येक 100 में से 7 व्यक्ति चावल पर निर्भर रह कर जीविकोपार्जन कर रहा है. यही वजह है कि चावल धन देता है और चावल में चावल यदि कोई है तो वह बासमती है.

उन्होंने आगे बताया कि पूरे विश्व में खुशबू वाली लगभग 1,000 प्रजातियां हैं, लेकिन वे सभी प्रजातियां बासमती नहीं हैं. वर्ष 1970 में बासमती की 370 प्रजाति सब से पहले भारत में तैयार हुई और उस के बाद शोध कर के अनेक बासमती की प्रजातियां विकसित की गईं, जिस में से 1,121 दुनिया में सब से लंबा बासमती के नाम से पहचाना जाने वाला चावल है.

वैज्ञानिक डा. रितेश शर्मा ने बासमती निर्यात विकास प्रतिष्ठान ने उत्पादन तकनीक पर विस्तार से चर्चा की. डा. अनुपम दीक्षित ने बासमती चावल के मानकों की जानकारी दी.

डा. पीके सिंह ने बताया कि कार्यक्रम में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 18 जनपदों के वैज्ञानिकों एवं प्रगतिशील किसानों ने प्रतिभाग किया. किसान ज्ञान प्रतियोगिता में सहारनपुर, संभल, मुरादाबाद एवं मुजफ्फरनगर के प्रगतिशील किसानों ने सवालों के सही जवाब दे कर पुरस्कार जीता.

निदेशक प्रसार डा. पीके सिंह ने अतिथियों का स्वागत किया और धन्यवाद प्रस्ताव निदेशक शोध डा. अनिल सिरोही ने दिया.

कार्यक्रम में प्रो. रामजी सिंह, कुलसचिव, लक्ष्मी मिश्रा, वित्त नियंत्रक निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, प्रो. आरएस सेंगर, अधिष्ठाता कृषि, डा. विवेक धामा, डा. रविंद्र कुमार, डा. कमल खिलाड़ी, डा. विजेंद्र सिंह, डा. लोकेश गंगवार, सत्येंद्र खारी, डा. गोपाल सिंह आदि लोग मौजूद रहे.

जंगली सब्जी कसरोड़

जम्मूकश्मीर में प्राकृतिक रूप में पाई जाने वाली कई सब्जियां होती हैं, जिन के लिए खेतीबारी नहीं की जाती है. ये प्राकृतिक तौर पर समय के अनुसार खुद ही तैयार हो जाती हैं. इन्हीं सब्जियों में से एक है कसरोड़, जो खाने में बहुत ज्यादा स्वादिष्ठ होती है.

कसरोड़ का विभिन्न स्थानों में अलगअलग नाम है जैसे जम्मू में कसरोड़, पुंछ में कंदोर, किस्तवाड़ में टेड कहते हैं. जम्मूकश्मीर के रामवन जिले में इसे धोड के नाम से जाना जाता है. हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में लिंगड़, कुल्लू घाटी में लिंगडी, कांगड़ा जिले में कसरोद कहते हैं. उत्तराखंड में कसरोड़ को लिब्रा कहते हैं. त्रिपुरा की लोकल भाषा में मुइखोन कहते हैं.

कसरोड़ आमतौर पर पहाड़ी क्षेत्रों में घने जंगलों और ठंडे क्षेत्र में नदीनालों के पास पाई जाने वाली जंगली सब्जी है. किसानों को इस के लिए खाद नहीं डालनी पड़ती और अन्य किसी प्रकार की देखभाल की जरूरत नहीं होती.

कसरोड़ के पौधों का आकार और रंग अलगअलग क्षेत्रों में अलगअलग है. हिमाचल प्रदेश में पाए जाने वाली कसरोड़ के डंठल मोटे और पत्ते छोटे होते हैं. डंठल के हिस्से का रंग अत्यधिक गहरा होता है. उत्तराखंड में कसरोड़ के पत्ते पतले और कम पाए जाते हैं, जबकि डंठल अधिक मोटा होता है.

जम्मूकश्मीर के पहाड़ी क्षेत्र में पाई जाने वाली कसरोड़ सब्जी का रंग थोड़ा लालिमा लिए होता है. जम्मूकश्मीर के कठुआ जिले में पाया जाने वाला कसरोड़ का डंठल कमजोर होता है, जबकि इस के पत्ते लंबे और घने होते हैं.

जम्मूकश्मीर के बनी, बसोली, लुहाई, मल्हार भद्रवाह, रामवन और पुंछ में हरे और गहरे लाल रंग का कसरोड़ पाया जाता है.

हरे रंग के कसरोड़ में हलकी सी गंध आती है, जबकि गहरे लाल रंग का कसरोड़ खाने में ज्यादा स्वादिष्ठ होता है. इस का मुख्य कारण है, 1,800 से 2,000 मीटर की ऊंचाई पर बहने वाली नदी, नालियों और झरने का पानी शुद्ध होता है, साथ ही किसी प्रकार की गंदगी  नदीनालों के पास नहीं पाई जाती. वातावरण भी अनुकूल होता है.

कसरोड़ मार्च महीने से प्रस्फुटित होता है और मई के अंत तक पौधे तैयार होने लगते हैं. यह मई और जून में बाजार में बिकने लगता है और जुलाई में धीरेधीरे कम हो जाता है. इन दिनों इस के डंठल सख्त और पत्ते कम हो जाते हैं.

इस के डंठल में हलकेहलके रुईदार कांटे उंग जाते हैं, फिर यह सब्जी बनाने के काबिल नहीं रहती. सब्जी बेचने वालों को इस की देखभाल करनी पड़ती है. अगर धूप लग जाए तो पत्तों के साथ डंठल तक मुरझा जाते हैं. इस के उखाड़ने के बाद 1-2 दिन तक ही इसे बेचा जा सकता है. इस के मुरझाने के बाद यह किसी काम का नहीं रहता है.

कसरोड़ काली, गहरी, भूरी और नमी वाली मिट्टी में उगता है. इस का डंठल एक सैंटीमीटर पुलाई लिए 9 सैंटीमीटर तक लंबा होता है. इस का सिरा मुड़ा हुआ होता है. इन का डंठल जितना नरम और मुलायम होगा उतनी ही उस की सब्जी और अचार स्वादिष्ठ होंगे.

कसरोड़ की सब्जी बनाने से पहले अच्छी तरह धोया जाता है. धोने से पहले इस की साफसफाई जरूरी है, क्योंकि इस के डंठल नरम होने के कारण उन पर कई प्रकार के सूखे पत्ते चिपके होते हैं. साथ ही, चिकनी मिट्टी इन के पत्तों से चिपकी होती है.

बाजार में इस की कीमत 100 से 150 रुपए प्रति किलोग्राम है. इस की सब्जी में विटामिन ए, विटामिन बी, मैग्नीशियम पोटैशियम, कौपर, आयरन, सोडियम, कैरोटीन भरपूर मात्रा में पाया जाता है. इस की सब्जी खाने से मांसपेशियां और हड्डियां मजबूत  होती हैं.

प्राकृतिक खेती में नवाचार की जरूरत

उदयपुर : 30 जून, 2023 को महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के अनुसंधान निदेशालय में टिकाऊ कृषि के लिए प्राकृतिक खेती पर 2 दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम शुभारंभ हुआ.

इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में कुलपति, महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर, डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए बताया कि पूरेे विश्व में रासायनिक उर्वरकों एवं हानिकारक कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग व एकल फसल प्रणाली से मिट्टी की गुणवत्ता में कमी, जैव विविधता का घटता स्तर, हवा की बिगड़ती गुणवत्ता और दूषित पर्यावरण के कारण हरित कृषि तकनीकों के प्रभाव टिकाऊ नहीं रहे हैं.

उन्होंने आगे बताया कि अत्यधिक उर्वरक के उपयोग से इनसान की सेहत, पशुओं की सेहत और बढ़ती लागत को प्रभावित कर रहे हैं और अब वैज्ञानिक तथ्यों से भी यह स्पष्ट है कि भूमि की जैव क्षमता से अधिक शोषण करने से एवं केवल रासायनिक तकनीकों से खाद्य सुरक्षा एवं पोषण सुरक्षा प्राप्त नहीं की जा सकती है.

उन्होंने यह भी कहा कि जैव विविधता को संरक्षित करते हुए प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना चाहिए, जिस से कि लाभदायक कीट जैसे मधुमक्खीपालन को कृषि में बढ़ावा मिल सके.

कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने प्राकृतिक खेती के 4 मूल अवयव ‘बीजामृत, जीवामृत, आच्छादन, नमी संरक्षण’ एवं जैव विविधता के बारे में विस्तृत रूप से प्राकृतिक खेती के परिपेक्ष में चर्चा की.

डा. एसके शर्मा, सहायक महानिदेशक, मानव संसाधन विकास, भारत कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली ने विशिष्ट अतिथि के रूप में संबोधन करते हुए बताया कि प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने से कृषि उत्पादन में टिकाऊपन आ सकता है. प्राकृतिक खेती गांव आधारित समन्वित खेती है, प्रदूषणरहित खेती है, अतः स्वस्थ भोजन के लिए ग्राहकों में इस की मांग बढ़ रही है. बढ़ती मांग के मद्देनजर प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है, जो गांवों में रोजगार बढ़ाने में भी सहायक होगी.

उन्होंने इस बारे में जानकारी देते हुए बताया कि प्राकृतिक खेती को देश को कृषि के पाठ्यक्रम में चलाने के साथसाथ नईनई तकनीकों को आम लोगों तक पहुंचाना समय की आवश्यकता है. इस के तहत आने वाले समय में देश के तकरीबन एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती की तरफ ले जाना है, जो कि वर्तमान में देश के कृषि वैज्ञानिकों के सामने एक मुख्य चुनौती है. प्राकृतिक खेती में देशज तकनीकी जानकारी और किसानों के अनुभवों को भी साझा किया.

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि डा. चंद्रेश्वर तिवारी, पूर्व निदेशक प्रसार शिक्षा, वीर चंद्र सिंह गढ़वाली, उत्तराखंड औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, भरसार, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड ने बताया कि प्रकृति और पारिस्थितिक कारकों के कृषि में समावेश कर के ही पूरे कृषि तंत्र का ‘शुद्ध कृषि’ की तरफ बढ़ाया जा सकता है.

उन्होंने बताया कि भारतीय परंपरागत कृषि पद्धति योजना के तहत राज्यों में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है. इस से कम लागत के साथसाथ खाद्य पोषण सुरक्षा को बढ़ावा मिलेगा. जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों के तहत खेती को सुरक्षा प्रदान करने के लिए प्राकृतिक खेती के घटकों को आधुनिक खेती में समावेश करना आवश्यक है.

डा. अरविंद वर्मा, अनुसंधान निदेशक ने कार्यक्रम की आवश्यकताओं एवं उद्देश्य के बारे में चर्चा करते हुए बताया कि प्राकृतिक खेती की नवीनतम तकनीकों का विकास करना आवश्यक है. इस के लिए विद्यार्थियों को अभी से ही जागरूक होने की आवश्यकता है. साथ ही, किसानों एवं कृषि बाजार को जोड़ कर किसानों एवं पर्यावरण को फायदा पहुंचाना आज के समय की जरूरत है. प्राकृतिक खेती और जैविक पशुपालन को वर्तमान कृषि पद्धति के साथ जोड़ कर अपनी आय को बढ़ा सकते हैं.

डा. रोशन चौधरी, कार्यक्रम सहसंयोजक ने कार्यक्रम का संचाालन करते हुए बताया कि 2 दिवसीय प्रशिक्षण के दौरान प्राकृतिक खेती पर विशेषज्ञों द्वारा व्याख्यान हुए.

इस कार्यक्रम में डा. एसएस शर्मा, अधिष्ठाता, राजस्थान कृषि महाविद्यालय, डा. पीके सिंह, अधिष्ठाता, कृषि अभियांत्रिकी महाविद्यालय, डा. महेश कोठारी, निदेशक, आयोजना एवं परिवेक्षण निदेशालय, डा. मनोज कुमार महला, निदेशक, छात्र कल्याण अधिकारी, डा. बीके शर्मा, अधिष्ठाता, मात्स्यिकी महाविद्यालय, डा. विरेंद्र नेपालिया, विशेष अधिकारी, डा. अमित त्रिवेदी, क्षेत्रीय निदेशक अनुसंधान, कृषि अनुसंधान केंद्र, उदयपुर, डा. रविकांत शर्मा, उपनिदेशक अनुसंधान उपस्थित थे.