Urad Mung Cultivation : जायद में उड़दमूंग की वैज्ञानिक खेती

Urad Mung Cultivation| जायद में उड़दमूंग की फसलें, जो करीब 75 से 80 दिनों की होती हैं, को रबी की फसलों जैसे सरसों, मटर वगैरह कटने के बाद खाली खेतों में उगा कर किसान अतिरिक्त आय हासिल कर सकते हैं. ऐसा कर के जमीन की उर्वरा शक्ति को बढ़ाया जा सकता है. साथ ही साथ वसंतकालीन गन्ने के साथ सहफसली खेती कर के भी अतिरिक्त आय हासिल की जा सकती है.

सही प्रजाति का चयन : इलाके के हिसाब से उन्नतशील बीजों की समय से बोआई करने से पैदावार में तकरीबन 20-30 फीसदी का इजाफा किया जा सकता है. किसानों को सलाह दी जाती है कि वे बोआई से पहले बीज जमाव के फीसदी की जांच जरूर करें.

बीज दर व बीज उपचार : उड़द की 20-25 किलोग्राम और मूंग की 20-22 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से ले कर बोआई करनी चाहिए. बोआई से पहले दीमक वाली जमीन के लिए बीजों को 2.5 ग्राम थीरम व 1.0 ग्राम कार्बंजायिम दवाओं से उपचारित करें. जमीन के दूसरे कीड़ों के लिए बीजों को 4 मिलीलीटर क्लोरापाइरीफास या 2 मिलीलीटर एमिडाक्लोराइड से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. इस के अलावा 250 ग्राम राइजोबियम, 250 ग्राम पीएसबी व 200 ग्राम गुड़ के आधे लीटर पानी में बनाए गए घोल से बीजों को 10 किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए.

बोआई का समय व विधि : उड़द की बोआई फरवरी के अंतिम हफ्ते से मार्च के अंतिम हफ्ते तक और मूंग की बोआई मार्च के पहले हफ्ते से मार्च के अंतिम हफ्ते तक सीड बेड प्लांटर की सहायता से मेड़ों पर करनी चाहिए.

उर्वरक प्रबंधन : उड़द व मूंग की अच्छी उपज लेने के लिए उर्वरकों की सही मात्रा मिट्टी की जांच के मुताबिक इस्तेमाल की जानी चाहिए. आमतौर पर 20 किलोग्राम नाइट्रोजन (50 किलोग्राम यूरिया), 40 किलोग्राम फास्फोरस (264 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट)  और 40 किलोग्राम पोटाश (64 किलोग्राम म्यूरेट आफ पोटाश) प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करनी चाहिए. आयरन व मोलिबिडनम के इस्तेमाल से नाइट्रोजन स्थिरीकरण ज्यादा होता है.

खरपतवार नियंत्रण : दलहनी फसलों को करीब 35-40 दिनों तक खरपतवार मुक्त रखना चाहिए. इस के लिए निम्न में से किसी 1 खरपतवारनाशी का इस्तेमाल करना चाहिए:

* फ्लूक्लोरसिड 45 ईसी (वासालीन) की 2.22 लीटर मात्रा 700-800 लीटर पानी में घोल कर बोआई से पहले सही नमी में मिट्टी की ऊपरी सतह पर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव कर के मिला दें. छिड़काव शाम के वक्त करना चाहिए.

एलोक्लोर (लासो) की 4 लीटर मात्रा को 700-800 लीटर पानी में घोल कर बोआई के बाद और जमाव से पहले प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

* पेंडिमेथलीन 30 ईसी (स्टांप 30) की 3.30 लीटर मात्रा को 700-800 लीटर पानी में घोल कर बोआई के तुरंत बाद सही नमी पर शाम के वक्त प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

खास कीड़े

Urad Mung Cultivation

उड़द व मूंग की फसलों को निम्न कीड़े ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं:

कमला कीट : ये कीट पत्तियों के ऊपर शुरुआती अवस्था में झुंड में होते हैं. प्रभावित पत्तियों को काट कर जमीन में दबा दें.

* इंडोसल्फान 35 ईसी की 1.5 लीटर मात्रा 500-600 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* मिथाइल पैराथियान धूल (2 फीसदी) की 25 किलोग्राम मात्रा, फेनवलेट धूल (4 फीसदी) की 0.25 किलोग्राम मात्रा को करीब 1 क्विंटल चूल्हे की राख में मिला कर सुबह के वक्त प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में बुरकाव करें.

फलीभेदक : इंडोसल्फान 35 ईसी की 1.25 लीटर मात्रा या क्यूनालफास 25 ईसी की 1.25 लीटर मात्रा 500-600 लीटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

खास बीमारियां

उड़द व मूंग की फसलों को ज्यादातर पीला मोजेक रोग का खतरा रहता है, जो सही देखभाल से काबू में आ जाता है.

पीला चित वर्णरोग (पीला मोजेक) : यह वायरस की बीमारी रस चूसने वाले कीड़ों द्वारा फैलती है. इस की वजह से पत्तियों पर पीलेसुनहरे चकत्ते पड़ जाते हैं. इस रोग के विषाणु सफेद मक्खी द्वारा फैलते हैं. इस की रोकथाम के लिए इमिडा क्लोप्रिड 250 मिलीलीटर या मेटासिस्टोक्स 1.25 लीटर प्रति रोजोर 1.25 मिलीलीटर का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. प्रभावित पौधों को तुरंत उखाड़ कर जमीन में दबा दें.

भंडारण : फसल की मड़ाई के बाद भंडारण एक खास काम है. इस में दलहनी फसलों को 8-10 फीसदी नमी रहने तक सुखाते हैं. भंडारण के बाद हवा का आनाजाना बंद करने के लिए फसल को अच्छी तरह सील कर दें.

Guava Processing : अमरूद की प्रोसैसिंग – बनाए स्वादिष्ठ उत्पाद

Guava Processing| अमरूद सेहद के लिए एक लाभकारी फल है और इस की प्रोसैसिंग कर सालोंसाल इस का जायका लिया जा सकता है.

अमरूद का पल्प (गूदा) : हर मौसम में फल के गूदे को संरक्षित किया जा सकता है, ताकि इसे टाफी, स्लैब, नेक्टर व पेय वगैरह बनाने में काम लाया जा सके. नेक्टर या पेय बनाने के मकसद से संरक्षित गूदे को निकालने के लिए फल को पानी के साथ पकाया नहीं जाता, क्योंकि इस से गूदे में ताजगी का गुण कम हो जाता है. फलों को धोकाट कर पल्पर से गूदा निकालें, ताकि बीज व छिलके निकल जाएं. गूदे के संरक्षण के लिए प्रति किलोग्राम के लिए 1 ग्राम साइट्रिक एसिड और 2 ग्राम पोटेशियम मेटाबाईसल्फाइड थोड़े पानी में घोल कर भलीभांति मिलाएं. फिर इसे अच्छी तरह साफ की गई शीशे या पालीथीन के जारों में भर कर मुंह को रुई और ढक्कन से बंद करें और मोम से अच्छी तरह सील करें. इसे ठंडे स्थान पर भंडारित करें.

अमरूद का रस : अमरूद का रस निकालना कठिन होता है. संस्थान में साफ व पारदर्शक रस निकालने की विधि खोजी गई है. पहले कम से कम पानी इस्तेमाल करते हुए अमरूद का गूदा निकालें. गूदे को तोल लें और भार का 0.1 फीसदी पेक्टिक इंजाइम भलीभांति गूदे में मिला दें. अब इसे सामान्य तापमान पर 18-20 घंटे के लिए रख दें. इस के बाद एक मोटे कपड़े से छानें और बोतलों में भर कर रखें. इस से गूदा नीचे बैठ जाता है. सावधानी से रस निकाल लें या साइफन कर लें. रस को बोतलों में भर कर 82-85 डिगरी सेंटीगे्रड तक गरम करें और गरमगरम सूखी, सट्रालाइज की हुई बोतलों में भर कर क्राउन कार्क लगा दें. इन बोतलों को एक पतीले में मोटी कपड़े की गद्दी के ऊपर रख कर 80 डिगरी सेंटीग्रेड पर पानी में तकरीबन 30 मिनट गरम करें. आंच से उतार कर ठंडी हो जाने पर इन को सूखे व ठंडे स्थान पर रखें.

अमरूद का पेय : इसे बनाने के लिए ऊपर बताई विधि से प्राप्त गूदे को छोटेछोटे छेदों वाली स्टेनलेस स्टील या अल्यूमिनियम की छलनी से छान कर गूदे को एकरस कर लें और तोल लें. 12-13 फीसदी शक्कर का शरबत बनाएं. इस में 0.3 फीसदी साइट्रिक एसिड और 10 फीसदी अमरूद का गूदा मिलाएं. इसे गरमगरम ही 200 मिलीलीटर की बोतलों में भर कर क्राउन कार्क लगा कर बंद कर दें. अब इन को 15-20 मिनट तक उबलते पानी में एक पतीले में मोटी गद्दी पर रख कर गरम करें. फिर आंच से उतार कर ठंडा होने दें.

अमरूद का नेक्टर: यह भी अमरूद के गूदेसे बनाया जाता है. गूदा निकाल कर इस के लिए 15 फीसदी चीनी का घोल बनाएं. घोल में 0.25-0.35 फीसदी साइट्रिक एसिड मिलाएं. इस में 20-25 फीसदी गूदा मिलाएं. गरमगरम ही 200 मिलीलीटर की बोतलों में भर कर क्राउन कार्क लगा कर बंद कर दें. अब इन को 15-20 मिनट उबलते पानी में एक पतीले में मोटी गद्दी पर रख कर गरम करें. आंच से उतार कर ठंडा होने दें.

अमरूद का पाउडर : पहले अमरूद का गूदा निकाल कर तोल लें. इस के वजन के मुताबिक 20 फीसदी चीनी और 0.2 फीसदी पोटेशियम मेटाबाई सल्फाइट अच्छी तरह मिला दें. इसे 1 पौलीथीन की शीट पर फैला कर अल्यूमिनियम या स्टेनलेस स्टील की ट्रे में रखें और धूप में या डीहाइडे्रटर में सुखा लें. पल्प के शीट के रूप में सूख जाने पर उसे छोटेछोटे टुकड़ों में तोड़ लें. इन टुकड़ों को थोड़ा और सुखाएं और एक ग्राइंडर की सहायता से पाउडर बनाएं. इस पाउडर को पौलीथीन की थैलियों में भर कर रखा जा सकता है. यह पाउडर कार्बोहाइड्रेट्स व मिनरल्स का सही जरीया होने के कारण बालाहार बनाने में इस्तेमाल किया जाता है.

अमरूद की जेली

जरूरी सामान : 1 किलोग्राम अमरूद, डेढ़ लीटर पानी, 750 ग्राम चीनी, 3 ग्राम सिट्रिक एसिड या खट्टा नीबू.

बनाने की विधि : अमरूदों को पानी से अच्छी तरह धो कर गोलगोल आकार में कई टुकड़ों में काटिए और डेढ़ लीटर पानी में 20-25 मिनट तक धीमी आंच पर पकाइए. उबालते समय टुकड़ों को चम्मच से कुचलते भी जाइए, जिस से रस अच्छी तरह निकल आए. उबालने के बाद मारकीन के कपड़े से छानिए. रस को अपनेआप छनने दीजिए. इस के लिए कपड़े को साफ जगह पर लटका दें ताकि रस बरतन में आसानी से इकट्ठा हो जाए.

छने हुए जूस से 1 लीटर जूस ले कर रस में 750 ग्राम चीनी मिला कर आंच पर रख कर अच्छी तरह घोलें. घुल जाने पर रस को फिर से छानिए, जिस से चीनी की गंदगी निकल जाए. अब रस को देगची सहित मध्यम आंच पर रख कर पकने दें. कुछ मिनट बाद सिट्रिक एसिड या नीबू का छना रस मिला दीजिए. कुछ देर बाद आप देखेंगे कि पकतेपकते बुलबुले उठना शुरू हो जाते हैं. उस समय चम्मच से जूस को ले कर ठंडा कर के गिराएं. जब आप देखें कि चम्मच के दोनों छोरों पर तार बन कर लटक रहे हैं, तो समझ लें कि जेली तैयार हो गई है. अब इसे बोतल में भर लें. बोतल की ऊपरी सतह पर सफेद पदार्थ आ जाए तो उसे छोटे चम्मच से धीरे से हटा दें. फिर जेली को ठंडी होने के लिए रख दें. 4-5 घंटे बाद आप इसे इस्तेमाल कर सकते हैं.

Guava Processing

अमरूद की चीज या टौफी

जरूरी सामान : 1 किलोग्राम अमरूद का गूदा, 1 किलोग्राम चीनी, 50 ग्राम मक्खन, आधा चम्मच नमक, सिट्रिक एसिड, जरूरत के मुतबिक नारंगी रंग.

बनाने की विधि : देगची की तली में थोड़ा सा मक्खन लगाएं. फिर थोड़ीथोड़ी मात्रा में गूदे को बर्तन में डालें.

इसी तरह चीनी की मात्रा का इस्तेमाल करें. थोड़ा मक्खन डालें और रंग, सिट्रिक एसिड व नमक मिलाएं. 30-40 मिनट के अंदर चीज तैयार हो जाएगी. तैयार होने की पहचान यह है कि वह तली छोड़ने लगेगी. ट्रे या थाली में मक्खन लगा कर गूदे को पलट कर ऊपर मक्खन द्वारा चिकना कर के कुछ समय के लिए छोड़ दें. जम जाने पर छोटेछोटे टुकड़ों में काट कर बटर पेपर में लपेट कर टौफी का रूप दे दें. यह अमरूद टौफी या चीज पाचन के लिए बहुत फायदेमंद होती है.

Field Fertility: खेत की उर्वराशक्ति बढ़ाने में गेहूं की नरई की भूमिका

Field Fertility| ग्लोबल वार्मिंग की वजह से मौसम गरम हो रहा है, गेहूं की फसल समय से पहले पक जाती है. गेहूं की कटाई किसान ज्यादातर कंबाइन मशीन द्वारा करते हैं, जिस से समय की बचत के साथसाथ बदलते मौसम के नुकसान से बचा जा सकता है. इस प्रकार कटाई करने से गेहूं के दाने मशीन द्वारा इकट्ठा कर के भंडारगृह में रख लेने से नुकसान कम होता है. लेकिन इस की नरई खेत में खड़ी रह जाती है, जिस को भूसा बनाने की मशीन द्वारा भूसा बना कर आमदनी बढ़ाई जा सकती है.

कई किसान नरई को नष्ट करने के लिए जानकारी न होने की वजह से खेत में आग लगा देते हैं. इस से खेत तो साफ हो जाता है, लेकिन नरई जलाने में जरा सी चूक हो जाए तो आसपास खड़ी हजारों एकड़ जमीन पर गेहूं की फसल जल कर राख हो जाती है. किसानों के परिवारों द्वारा साल भर सजाए अरमानों पर पानी फिर जाता है.

इन सभी से बचने के लिए किसानों को सलाह दी जाती है कि वे नरई प्रबंधन कर के मिट्टी में घटती हुई जीवांश पदार्थ की मात्रा को रोक सकते हैं.

नरई का प्रबंधन करने के लिए किसानों को चाहिए कि जब खेत कंबाइन द्वारा कट जाए तो उस के बाद भूसा बनाने वाली मशीन (रीपर) से नरई का भूसा बनवा लें. नरई को खेत में सड़ाने के लिए किसानों को चाहिए कि जैसे ही खेत की कटाई कंबाइन से हो जाए, उस के तुरंत बाद ही खेत में पानी लगा दें. शाम के समय 5-7 फीसदी यूरिया घोल यानी तकरीबन 200 लीटर पानी में 10-15 किलोग्राम यूरिया घोल कर प्रति एकड़ दर से छिड़काव कर दें. इस के बाद हैरो या मिट्टी पलटने वाले हल से खेत में पलट दें.

Field Fertility

इस समय किसान यूरिया का तकरीबन 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव जरूर करें. जब पलटाई को तकरीबन 15-20 दिन हो जाएं तब पानी लगा कर दोबारा पलटाई कर दें, जिस से खेत में खड़ी नरई सड़ कर खेत में मिल जाएगी. जिस खेत में अगली फसल धान की रोपाई करनी हो उस में हरी खाद के रूप में सनई या ढैंचा की बोआई कर दें और सही समय और नमी पर पलटाई कर के धान की रोपाई कर दें.

नरई को सड़ाने के बाद कार्बनिक पदार्थ 1092 किलोग्राम प्रति एकड़ पोषक तत्त्व दोबारा जमीन में वापस हो जाते हैं. यानी नाइट्रोजन 14.3 किलोग्राम प्रति एकड़ और अन्य पोषक तत्त्व भी जमीन को वापस हो जाते हैं. इस प्रकार से नरई का प्रबंधन अगर किसान करेंगे तो उन के खेतों की घटती उर्वरता व कार्बनिक पदार्थ की मात्रा 0.3-0.5 फीसदी से बढ़ा कर 0.8 फीसदी या इस से ज्यादा की जा सकती है और हरी खाद से तकरीबन 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन की बचत कर सकते हैं, साथ ही खेत में खरपतवार भी कम हो जाते हैं.

नरई जलाने से नुकसान

Field Fertility

* नरई जलाने से पशुओं के चारे में रूप में साल भर इस्तेमाल में आने वाला भूसा नहीं मिल पाता है, जिस से किसानों को पशुपालन में अधिक खर्च उठाना पड़ सकता है.

* भूसा प्राप्त न होने की वजह से किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है, जो कि गेहूं की उत्पादन लागत को बढ़ा देता है.

* नरई जलाने से जमीन के अंदर मौजूद फायदेमंद असंख्य जीवाणु जल कर मर जाते हैं, जिस की वजह से आने वाली फसल का उत्पादन कम हो जाता है व जमीन में पोषक तत्त्वों की मौजूदगी कम हो जाती है.

* नरई जलाने से कार्बनिक पदार्थ व ह्यूमस नहीं मिल पाते हैं, जिस से जमीन की उर्वरता पर बुरा असर पड़ता है. साथ ही साथ जमीन में बारबार पानी लगाना पड़ सकता है.

* भूसे या गेहूं के पौधों की जड़ों के सड़ने से पौधों को जो जरूरी पोषक तत्त्व वापस मिल सकते हैं, वे नहीं मिल पाते, जिस से अगली फसलों के लिए किसान को पोषक तत्त्व फालतू मात्रा में डालने पड़ते हैं. नतीजतन उन्हें कम फायदा होता है.

* नरई जलाते समय अगर एक भी चिंगारी किसी दूसरे खेत में चली जाए तो पूरा खेत जल कर राख हो जाता है, जिस के कारण किसान को काफी घाटा उठाना पड़ता है.

* नरई जलाने से वायुमंडल में प्रदूषण फैलने के साथसाथ वायुमंडल के तापमान में बढ़ोतरी होती है.

नरई की रासायनिक संरचना

नरई में कार्बन 42.0, नाइट्रोजन 5.50, फास्फोरस 0.40, पोटाश 10.40, सल्फर 0.60, कैल्शियम 2.90, मैग्नीशियम 0.60, कार्बन/नाइट्रोजन 76.4, कार्बन/फास्फोरस 105.0, कार्बन/सल्फर 466.7, नाइट्रोजन/सल्फर 13.8 ग्राम प्रति किलोग्राम पाया जाता है.

इस के अलावा यदि किसान अपने खेत में फसल कंबाइन से काटने के बाद उस की नरई जमा कर लें, तो उस से बाद में नाडेप कंपोस्ट, वर्मी कंपोस्ट या अन्य कंपोस्टिंग के द्वारा कंपोस्ट खाद बनाई जा सकती है.

उसे खेत में डाल कर बाद में फसल उत्पादन के समय जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल में लाया जा सकता है.

Award: डा.अपूर्वा को ‘फार्म एन फूड वुमन एग्री-इनोवेटर औफ द ईयर’ अवार्ड

Award |  छत्तीसगढ़ की प्रतिष्ठित बौद्धिक संपदा कानून विशेषज्ञ और नवाचार विशेषज्ञ डा. अपूर्वा त्रिपाठी को इसी 28 फरवरी को भोपाल के रवींद्र भवन में आयोजित ‘फार्म एंड फूड कृषि सम्मान समारोह’ में ‘वुमन एग्री-इनोवेटर औफ द ईयर अवार्ड – 2025’ से सम्मानित किया गया. यह पुरस्कार उन्हें कृषि क्षेत्र में किए गए उन के महत्वपूर्ण नवाचारों, महिलाओं के सशक्तीकरण और आदिवासी समाज के उत्थान में उन की असाधारण भूमिका के लिए प्रदान किया गया.

डा. अपूर्वा त्रिपाठी, प्रसिद्ध कृषिविद और पर्यावरणविद डा. राजाराम त्रिपाठी की बेटी हैं. वह बस्तर के कोंडागांव में स्थित अपने परिवार के लगभग 50 सदस्यों के संयुक्त परिवार में पलीबढ़ी हैं, जिस में 7 भाईबहनों का बड़ा परिवार है.

अपूर्वा त्रिपाठी के नवाचार और योगदान :

डा. अपूर्वा त्रिपाठी ने अपने पिता के मार्गदर्शन में कई उल्लेखनीय कृषि नवाचार किए हैं. उन के उल्लेखनीय कार्यों में बस्तर के आदिवासी समाज के साथ मिल कर वन औषधियों पर आधारित कई तरह की हर्बल चाय का निर्माण प्रमुख है, जो परंपरागत आदिवासी चिकित्सा पद्धति पर आधारित हैं. ये हर्बल चाय विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं के समाधान में अत्यंत प्रभावी सिद्ध हुई हैं.

इस के अतिरिक्त, डा. राजाराम त्रिपाठी द्वारा विकसित की गई अत्यंत उत्पादक ‘मां दंतेश्वरी काली मिर्च-16’ (एमडीबीपी-16) प्रजाति के विकास में भी अपूर्वा त्रिपाठी का बड़ा योगदान रहा है. यह विशेष प्रजाति अन्य काली मिर्च की किस्मों की तुलना में चार से पांच गुना अधिक उत्पादन देती है और इस की गुणवत्ता भी अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप है. इस विशेष प्रजाति को भारत सरकार के इंडियन प्लांट वैरायटी प्रोटैक्शन एंड रजिस्ट्रेशन अथौरिटी (Indian Plant Variety Protection and Registration Authority) में आधिकारिक रूप से पंजीकृत भी कराया गया है.

अपूर्वा त्रिपाठी के प्रयासों के कारण अब तक दक्षिण भारत की फसल मानी जाने वाली काली मिर्च को मध्य भारत के छत्तीसगढ़ में सफलतापूर्वक उगाया जा रहा है, जिस से इस क्षेत्र को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है.

अपूर्वा त्रिपाठी का प्रेरणादायक सफर :

अपूर्वा त्रिपाठी की शिक्षा देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में हुई है, जहां उन्होंने कृषि विज्ञान, जैविक खेती और पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में विशेष प्रशिक्षण प्राप्त किया है. उन की उपलब्धियां यह दर्शाती हैं कि समर्पण, परिश्रम और नवाचार के माध्यम से कोई भी युवा कृषि क्षेत्र में सफलता के नए आयाम स्थापित कर सकता है.

महिलाओं के सशक्तीकरण में भूमिका  :

डा. अपूर्वा त्रिपाठी ने बस्तर क्षेत्र की आदिवासी महिलाओं को जैविक कृषि के माध्यम से आत्मनिर्भर बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उन्होंने इन महिलाओं को प्रशिक्षित कर उन के उत्पादों को प्रोसैसिंग, ब्रांडिंग और मार्केटिंग के माध्यम से राष्ट्रीय बाजार में पहचान दिलाई है. इस के चलते आदिवासी परिवारों की माली हालत में सुधार हुआ है.

पुरस्कार समारोह के मुख्य बिंदु :

भोपाल में आयोजित इस सम्मान समारोह में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के 150 से अधिक किसान, कृषि वैज्ञानिक और कृषि विशेषज्ञ उपस्थित रहे. कार्यक्रम के मुख्य अतिथि एवं मध्य प्रदेश सरकार के सहकारिता, खेल एवं युवा कल्याण मंत्री विश्वास सारंग ने कहा कि भारत के किसानों को नवाचार के माध्यम से सशक्त करना ही हमारी प्राथमिकता है. डा. अपूर्वा त्रिपाठी जैसी युवा महिलाएं कृषि क्षेत्र में नए आयाम स्थापित कर रही हैं, जो पूरे देश के लिए गौरव की बात है.”

विशिष्ट अतिथि एवं मध्य प्रदेश सरकार के कौशल विकास एवं रोजगार मंत्री गौतम टेटवाल ने अपने उद्बोधन में कहा कि कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है और डा. अपूर्वा त्रिपाठी जैसी नवाचारशील महिलाएं अन्य किसानों के लिए प्रेरणास्रोत हैं.

दिल्ली प्रैस के कार्यकारी प्रकाशक अनंत नाथ ने कहा कि डा. अपूर्वा त्रिपाठी का योगदान न केवल कृषि क्षेत्र में, बल्कि सामाजिक विकास में भी सराहनीय है.

इस समारोह में कुल 17 श्रेणियों में 30 किसानों, कृषि वैज्ञानिकों और कृषि विज्ञान केंद्रों को सम्मानित किया गया.

Cage Culture : केज कल्चर – मछलीपालन में क्रांति

Cage Culture | केज कल्चर में पिंजरे की तरह दिखने वाले जाल का इस्तेमाल मछलीपालन में किया जाता है. कई देशों में काफी समय पहले से ही जलाशयों, नदियों और समुद्र में केज लगा कर मछलीपालन किया जाता है. आमतौर पर जीआई पाइप से केज के फ्रेम को बनाया जाता है. इस के जरीए कम क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा मछली की पैदावार की जा सकती है. मछलियां केज के भीतर ही पलती और बढ़ती हैं और उस में उन्हें आसानी से भरपूर भोजन दिया जा सकता है.

कम बारिश वाले इलाकों के लिए तो केज कल्चर काफी मुफीद माना जा रहा है. जलाशयों में जिस जगह केज को लगाया जाता है, वहां कम से कम 5 मीटर गहरा पानी होना जरूरी है.

मछलीपालन की दिशा में केज कल्चर ने काफी लंबी छलांग लगाई है. इस से जहां देश के कई राज्यों में मछली की कमी को पूरा किया जा सकेगा, वहीं कई बेरोजगारों को रोजगार भी मिल सकेगा.

सब से बड़ी बात यह है कि इस से सभी राज्य मछलीपालन के अपने सालाना लक्ष्य को आसानी से पूरा कर सकेंगे. झारखंड जैसे पहाड़ी राज्य में भी केज कल्चर का काफी बेहतर नतीजा सामने आया है.

हैरत की बात यह है कि देश में झारखंड ही पहला राज्य है, जहां मछलीपालन में केज कल्चर की शुरुआत की गई. कम बारिश वाले इलाकों और पहाड़ी इलाकों में केज कल्चर के जरीए मछलीपालन कर के मछली उत्पादन में काफी ज्यादा तरक्की की जा सकती है.

Cage Culture

यह केज कल्चर (जलाशयों में लोहे का पिंजरानुमा जाल लगा कर मछली संवर्धन) के इस्तेमाल का ही नतीजा है कि 5 सालों के दौरान राज्य में मछली उत्पादन का लक्ष्य तकरीबन पूरा होने लगा है.

रांची के मछलीपालक के मुताबिक इस से पहले कभी भी मछली उत्पादन का सरकारी लक्ष्य पूरा नहीं हो पाता था, पर केज कल्चर के अपनाने के बाद लक्ष्य से ज्यादा पैदावार होने लगी है. जलाशयों में ज्यादा से ज्यादा केज लगा कर मछली उत्पादन को कई गुना ज्यादा बढ़ाया जा सकता है. वहां के हटिया जलाशय, चांडिल डैम, तेनुघाट जलाशय में करीब 350 केज लगाए जा चुके हैं.

देश में नेशनल मिशन फौर प्रोटीन सप्लीमेंट (एनएमपीएस) के तहत झारखंड में केज कल्चर की शुरुआत की गई. झारखंड में इसे कामयाबी मिलने के बाद बिहार, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, हरियाणा, पंजाब, ओडिशा व तमिलनाडु में भी केज कल्चर की शुरुआत की जा चुकी है.

केज एक तरह का पिंजरे की शक्ल का जाल होत है, जिस के भीतर मछलीपालन करने से केवल 120 दिनों में ही मछलियों का औसत वजन 400 ग्राम तक हो जाता है.

खुले तालाब में इतने समय में मछलियों का औसत वजन 200 से 300 ग्राम के बीच ही होता है. जलाशय में केज लगा कर प्रति केज 5 टन मछलियों का उत्पादन किया जा सकता है.

केज में मछलीपालन करने से मछलियां इधरउधर भटक नहीं पाती हैं और न ही बड़ी मछलियों का शिकार बन पाती हैं. इस का सब से बड़ा फायदा यह है कि मछलियों को चोरीछिपे जाल या बंशी लगा कर निकाला नहीं जा सकता है, जिस से मछलीपालक को भरपूर फयदा मिल जाता है.

Planter : पौधे लगाने का यंत्र

Planter| कुछ फसलें खेतीकिसानी में  ऐसी होती हैं, जिन के बीज सीधे जमीन में छिड़कवा तरीके या मशीनों से बो दिए जाते हैं, लेकिन कुछ फसलें ऐसी होती हैं, जिन के पौधे जमीन में लगाए जाते हैं, खासकर सब्जियों व फलों की खेती के लिए पौधारोपण ही किया जाता है.

पौधे की खेत में रोपाई करना खासा थकाने वाला काम है. इस में ज्यादा मजदूरों की भी जरूरत होती है. बड़े किसानों के लिए तो यह बात कोई माने नहीं रखती, क्योंकि उन के पास खेती के काम के लिए अनेक तरह के कृषि यंत्र मौजूद होते हैं और मजदूरों को देने के लिए पैसे भी होते हैं, लेकिन आम छोटे किसानों के पास ये सुविधाएं मौजूद नहीं होतीं.

हम यहां पौधे लगाने के एक ऐसे यंत्र के बारे में जिक्र कर रहे हैं, जिस के इस्तेमाल से समय व मजदूरों की बचत तो होती ही है, साथ ही काम भी जल्दी होता है. इस यंत्र की कीमत भी ज्यादा नहीं है और न ही यंत्र चलाने के लिए बिजली या डीजल का खर्च पड़ता है.

यह एक बहुत ही साधारण तरीके का प्लांटर है, बेहद आसानी से इस्तेमाल किया जाता है. अकेला आदमी भी इस यंत्र से पौधारोपण कर सकता है. खड़े हो कर चलते हुए इस यंत्र से पौधे लगाए जाते हैं.

यह लोहे या स्टील या स्टील पाइप का बना यंत्र होता है, जिस का निचला हिस्सा बंद व खुलने होने वाला होता है और ऊपरी हिस्से पर एक हैंडल लगा होता है, जिस को पौधा रोपाई के समय दबाना व छोड़ना पड़ता है.

पौधे लगाने का तरीका : जुताई किए हुए खेत में मेंड़ों पर पौधे लगाने के लिए सब से पहले हैंडल को बिना दबाए प्लांटर के निचले नुकीले भाग को जमीन में दबाएं. उस के बाद प्लांटर में पौधा डाल दें. फिर प्लांटर के हैंडल को दबाएं और प्लांटर को जमीन से ऊपर उठा लें. यही तरीका अपनाते जाएं और पौधे लगाते हुए आगे बढ़ते जाएं (देखें चित्र में पौधे लगाने का तरीका).

यह यंत्र खासा लोकप्रिय हो रहा है. कुछ लोग इसे खुद भी बना रहे हैं. अभी हाल ही में ट्रू नेस्ट एग्रो प्रोडक्ट्स कंपनी ने अपने इस यंत्र को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली में लगे कृषि उन्नति मेले में प्रदर्शित किया था, जिस की कीमत तकरीबन 4500 रुपए बताई गई. यंत्र का डेमो भी मेले में किया गया. कुछ लोग यंत्र खरीद भी रहे थे. आप भी यह यंत्र प्राप्त करने के लिए या अधिक जानकारी के लिए मोबाइल नंबरों 08605995511 व 8605995533 पर संपर्क कर सकते हैं.

इस यंत्र की खासीयतें

*             यह यंत्र इस्तेमाल के लिए बहुत सरल व वजन में हलका है.

*             किसान बिना झुके पौधे लगा सकते हैं.

*             पौधे की बोआई एक कतार में करें.

*             पौधों की जड़ों पर दबाव नहीं पड़ता, इसलिए पौधे मरते नहीं हैं.

*             एक किसान 7 घंटे में औसतन 5000 से 8000 पौधे आसानी से लगा सकता है.

*             बड़ी मात्रा में मजदूरी और पैसों की बचत.

*             सब्जियों में टमाटर, बैगन, पत्तागोभी, मिर्च, फूलगोभी, करेला, भिंडी और सेम वगैरह के पौधे लगा सकते हैं.

*             पपीता और गेंदा वगैरह के पौधे लगा सकते हैं

*             इस यंत्र का सीधा सा हिसाब है, एक किसान एक प्लांटर.

*             इस यंत्र से एक निश्चित क्षेत्र में बीज रोपण भी किया जा सकता है. तरीका वही है, जो पौधे लगाने का है.

किसानों की तकदीर बदलने में लगे हामिद को मिले कई सम्मान

बिहार में औषधीय व सुगंधित पौधों की खेती की ओर किसानों का झुकाव ज्यादा हुआ है, जिस का मुख्य कारण है लागत कम और मुनाफा ज्यादा. हालांकि राज्य स्तर पर इन पौधों या इन के बीजों के साथ इन की खेती से होने वाले उत्पादन की खरीदबिक्री की सुविधा न के बराबर ही है, पर किसानों में कुछ कर गुजरने की ललक ने उन्हें इन की खेती की जानकारी व इन के उत्पादों की बिक्री के लिए दूसरे प्रदेशों तक पहुंचा दिया. इसी का नतीजा है कि अब राज्य के प्रगतिशील किसान नई ऊंचाइयां छूने की ओर बढ़ रहे हैं.

परंपरागत खेती जैसे दलहन, तिलहन, धान व गेहूं आदि से इतनी कम आय होती है कि किसानों के लिए खेती घाटे का सौदा बन कर रह गई है. परंतु कुछ प्रयोगधर्मी किसान हैं, जो खेती में नफानुकसान की ज्यादा चिंता न कर के नित नए प्रयोग करते रहते हैं. इन्हीं में से एक किसान हैं राज्य के सीवान जिले के हसनपुर प्रखंड के लहेजी गांव निवासी मोहम्द हामिद खां. वे जिला व राज्य स्तरीय कई पुरस्कार हासिल कर चुके हैं. हामिद का कहना है कि किसान वैसी खेती करना चाहते हैं, जिस में समय कम व मुनाफा अधिक हो. जिले के अधिकतर किसान मेंथा, घृतकुमारी, पोपुलर व पेपट्रा की खेती कर रहे हैं. इन का बाजार देश के अलावा विदेशों में भी है. कीमत भी अच्छी मिल जाती है. पेपट्रा 1500 रुपए प्रति किलोग्राम और मेंथा 900 रुपए प्रति किलोग्राम बिकता है, इसलिए किसान इन की खेती ज्यादा कर के मुनाफा कर रहे हैं.

किसानों को कम लागत  में हो रही लाखों की आय : आज से करीब 3 साल पहले खस की खेती की शुरुआत करने वाले हामिद खां सीवान, छपरा व गोपालगंज आदि जिलों के दर्जनों किसानों को प्रशिक्षण दे कर खस के अलावा मेंथा, पेपट्रा, घृतकुमारी व पोपुलर की खेती करा रहे हैं, जिस से इन किसानों के जीवन की तसवीर बदल गई है. इन की खेती से किसानों को कम लागत में हर साल लाखों रुपए की आय हो रही है.

खस, सतावर, कालमेघ, मेंथा, पामारोजा, सेट्रोनेला, लेमनग्रास, आर्टीमीसिया व कोलियस आदि की खेती से किसानों में कामयाबी की उम्मीद जगी है. बिहार के सीवान, छपरा व गोपालगंज जिलों में अभी लगभग 10 एकड़ में खस की खेती कर के तेल का उत्पादन किया जा रहा है. यह फसल 1 साल में तैयार हो जाती है. यदि अच्छी फसल हुई तो प्रति कट्ठा (1350 वर्ग फुट) 400 से 700 ग्राम तक तेल निकलता है, जिस की कीमत 15000 से 18000 रुपए प्रति लीटर होती है. फरवरी में इस फसल की खुदाई कर के आसवन विधि द्वारा तेल निकाला जाता है. इस मौसम में तेल की मात्रा ज्यादा मिलती है. जड़ निकाल कर बचे हुए पौधों को फिर से नई फसल के लिए खेत में लगाया जा सकता है.

इत्र बनाने वाली कंपनियां खरीदार : खस की खेती करने वाले ऐसे किसान जिन  के पास तेल निकालने का साधन नहीं है, उन के द्वारा उत्पादित जड़ें मोहम्द हामिद लगभग 6000 रुपए प्रति क्विंटल की दर से खरीदने के साथ ही 1000 से ले कर, 1500 रुपए प्रति कट्ठे की दर से खेत में लगी फसल खरीदने के बाद जड़ों की खुदाई कर के खुद तेल निकालते हैं. इस का तेल लखनऊ व बाराबंकी आदि स्थानों पर इत्र बनाने वाली कंपनियां और व्यापारी 10000 से 12000 रुपए प्रति लीटर खरीद कर ले जाते हैं.

हामिद सीमैप लखनऊ से 2 रुपए प्रति पौधे की दर से पौधे ला कर नर्सरी तैयार करने के बाद 1 रुपए प्रति पौधे की दर से किसानों को बेचते हैं. वैसे तो इस की रोपाई पूरे साल की जा सकती है, परंतु दिसंबर से मार्च तक का समय इस की रोपाई के लिए ज्यादा अच्छा होता है. इस की खेती 6 महीने तक जलजमाव वाले खेत में भी की जा सकती है. कई विशेषज्ञों का ऐसा भी मानना है कि खस के पौधे यदि 2-3 महीने तक पानी में पूरी तरह से डूबे रह जाते हैं, तब भी इस की फसल पर कोई खराब असर नहीं पड़ता है.

जुलाई में रोपाई

सीमैप लखनऊ के वैज्ञानिक वीरेंद्र कुमार सिंह तोमर का कहना है कि राज्य की मिट्टी, विशेष रूप से दियारा की मिट्टी के लिए यह फसल ज्यादा लाभकारी है.

जलजमाव वाली जमीन में फरवरी व मार्च और सामान्य जमीन में जुलाई में बारिश होने पर खस की रोपाई कर के अच्छी फसल तैयार की जा सकती है. यदि खस की नर्सरी तैयार करनी हो तो फरवरी या मार्च में पौधे लगाने के 1 महीने बाद डीएपी खाद की एक सीमति मात्रा डाल कर नर्सरी की गुड़ाई व सिंचाई के साथ 3 महीने में 1 पौधे में 18 से 20 कल्ले तक निकल आते हैं, जिन्हें बाद में दूसरे खेतों में फसल के रूप में लगाया जाना चाहिए. राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय पूसा, समस्तीपुर के वैज्ञानिक डा. हांडू का कहना है कि बिहार की मिट्टी व जलवायु खस की खेती के लिए सही है. यहां के किसान इस की खेती कर के अपनी माली हालत सुधार सकते हैं. साथ ही उन का यह भी मानना है कि खस की खेती पर बाढ़ व सूखे का ज्यादा असर नहीं होता है. इस की खेती बंजर जमीन में भी की जा सकती है. पशु इस के कड़े डंठलों को नहीं खाते हैं, इसलिए इस की फसल की ज्यादा देखभाल की जरूरत नहीं पड़ती है.

वैज्ञानिकों का मिलता रहा सहयोग : अपनी इस सफलता का श्रेय सीमैप लखनऊ के वैज्ञानिक डा. कलीम अहमद, वैज्ञानिक वीरेंद्र कुमार सिंह तोमर व डा. एचपी सिंह आदि को देते हुए हामिद कहते हैं कि यदि आज के प्रगतिशील किसान वैज्ञानिकों के सहयोग व अपनी सूझबूझ के साथ औषधीय खेती करें, तो अच्छी कमाई कर सकते हैं.

प्रति एकड़ 40000 रुपए की आय : हामिद खां ने बताया कि खस, पोपुलर, घृतकुमारी, मेंथा व पेपट्रा की औषधीय खेती से 1 साल में प्रति एकड़ तकरीबन 40000 रुपए की आमदनी होती है. किसान यदि फरवरी में खस को काट कर मेंथा की सह फसल लेते हैं, तो प्रति एकड़ 15000 से 20000 रुपए की अलग से आमदनी की जा सकती है.

प्रयोग के तौर पर हामिद पापुलर के साथ पामारोजा, सेट्रोनेला व खस की खेती कर रहे हैं.

हामिद द्वारा 4 एकड़ में 6 से 14 फुट की दूरी पर पापुलर लगाया गया है, जिस के बीच में सह फसल ली जाती है. उन का मानना है कि पापुलर के 400 पौधे प्रति एकड़ लगा कर 7 सालों में 3000 रुपए प्रति पेड़ की दर से लाखों रुपए की आय हासिल की जा सकती है.

खस के पौधों में दीमक लगती है, जिस से बचाव के लिए ट्राइसेल 20 ईसी 200 ग्राम प्रति एकड़ डाल कर खेत की अच्छी तरह जुताई करनी चाहिए. खस के पौधे से पौधे की दूरी डेढ़ फुट व लाइन से लाइन की दूरी 2 फुट की होनी चाहिए.

केंद्रीय औषिध एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ द्वारा आयोजित औषधीय एवं सुगंध पौधों के उत्पादन हेतु उन्नत प्रौद्योगिकी पर प्रशिक्षण कार्यक्रम लहेली गांव में किया गया था, जिस से यहां के किसानों को काफी जानकारी मिली.

हामिद द्वारा ढाई लाख की लागत से स्टील डिस्टलेशन प्लांट भी लगाया गया है. 1 टन की कूवत वाले इस प्लांट में 8 क्विंटल खस की जड़ें भर कर 72 घंटे में तेल निकाला जाता है. इसी प्लांट से लेमनग्रास, पामारोजा, सिट्रोनेला व मेंथा का भी तेल निकाला जाता है.

खरीफ के लिए फायदेमंद है रबी के बाद खेत की जुताई (Ploughing)

Ploughing | जब हम खेतखलिहान की बात करते हैं, तो हमें खेत की तैयारी से ले कर फसल की कटाई, गहाई और उपज भंडारण तक के कई स्तरों से हो कर गुजरना पड़ता है. खेती का हर काम  समय पर किया जाना बहुत ही जरूरी है, इसलिए अच्छी फसल पाने व खेती को फायदे का सौदा बनाने के लिए बेहद जरूरी है कि तय समय व योजना के मुताबिक खेतीकिसानी के काम किए जाएं.

मौजूद जमीन जलवायु व संसाधनों के अनुसार फसलों व उन की प्रमाणित किस्मों का चयन, सही  समय पर सही तकनीक से बोआई, मिट्टी परीक्षण के आधार पर संतुलित पोषक तत्त्व प्रबंधन, फसल की क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई, खरपतवार, कीट व रोग  नियंत्रण के जरूरी उपाय व समय पर कटाई, गहाई, उपज का सुरक्षित भंडारण तथा विपणन जितना जरूरी है, उतना ही खेत की समय पर जुताई भी जरूरी है.

रबी फसल की कटाई होने के साथ ही खेत खाली हो जाते हैं. ऐसे में खेत में कीट व रोग पर काबू पाने के लिए ग्रीष्मकालीन जुताई का खास महत्त्व है, इसलिए खेत की गहरी जुताई कर के आगामी खरीफ की अच्छी पैदावार ली जा सकती है.

खेत की तैयारी में गरमी की जुताई व पलटाई का खास योगदान होता है, क्योंकि इस से जमीन में 1 फुट नीचे मौजूद कड़ी परत टूट जाती है व इस से तमाम कीट व खरपतवार के बीज भी खत्म हो जाते हैं. इस के अलावा मिट्टी में पानी सोखने की कूवत भी बढ़ती है. मिट्टी नरम होने से जड़ों का विकास होता है. इस तरह से खेत की उत्पादन कूवत में बढ़ोतरी होती है.

ग्रीष्मकालीन जुताई 15 सेंटीमीटर गहराई तक किसी भी मिट्टी पलटने वाले हल से करें. जुताई हमेशा खेत के ढलान की उलटी दिशा में ढलान को काटते हुए करनी चाहिए, जिस से बरसात का पानी व मिट्टी नहीं बहे. मिट्टी के बड़ेबड़े ढेले रहने चाहिए व मिट्टी भुरभुरी न हो, इस बात का खास ध्यान रखें.

गहरी जुताई के लिए एक विशेष यंत्र रेवल ट्रिपल मोल्ड प्लाऊ का इस्तेमाल करें. इस के अलावा डिश प्लाऊ और मिट्टी पलटने वाले हल का इस्तेमाल भी किया जा सकता है. जुताई के लिए मध्य अप्रैल से 15 मई तक का समय ठीक रहता है.

Ploughing

जुताई करने के बाद 4 से 5 हफ्ते तक खेत को खुला छोड़ दें. मानसून की पहली बारिश तक खेत को खुला रखें. बारिश होने से हफ्तेभर पहले खुले खेत में देशी खाद व गोबर भी डाल सकते हैं. बारिश होने पर खेत की जुताई करें.

गौरतलब है कि जुताई करने से मिट्टी में मौजूद कीटपतंगे मिट्टी की ऊपरी सतह पर आ जाते हैं. मईजून की तेज गरमी से कीटपतंगे खत्म हो जाते हैं. इस से खरपतवार की समस्या भी नहीं रहती है व खेत की जल ग्रहण कूवत बढ़ती है. मिट्टी में मौजूद जरूरी पोषक तत्व फसल को सही मात्र में मिलने लगते हैं. मिट्टी के ऊपरनीचे होने से मिट्टी के क्षारीय व अम्लीय गुण बराबर हो जाते हैं. इस से उत्पादन कूवत में बढ़ोतरी होती है व मिट्टी नरम होने से पौधे की जड़ का अच्छा विकास होता है.

खेतीबारी के माहिर भी किसानों को गरमी में खाली पडे़ खेतों की गहराई से जुताई करने की सलाह देते हैं. खेतीबारी के माहिर रामराय जाट का कहना है कि इस से फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले रोगाणु कीटों के अंडे ऊपरी सतह पर आ जाते हैं और गरमी से खत्म हो जाते हैं.

उन्होंने बताया कि रोगाणु, रोगजनक कीड़े, खरपतवारों के बीज वगैरह फसल की कटाई के बाद जमीन की दरारों में सोते से पड़े रहते हैं. जब अगली फसल की बोआई की जाती है, तो अनुकूल मौसम मिलने पर ये सक्रिय हो कर फसल को जम कर नुकसान पहुंचाना शुरू कर देते हैं.

रामराय जाट ने आगे बताया कि इस के अलावा जमीन को गहराई से जोतने पर जल संरक्षण भी होगा. फसल की बोआई के समय बारबार एक तय गहराई तक कल्टीवेटर चलाने से खेतों में नीचे एक कड़ी परत बन जाती है, जिस से बारिश का पानी खेत के बाहर चला जाता है और अपने साथ मिट्टी और पोषक तत्वों को बहा ले जाता है.

गरमी की जुताई 9 से 15 इंच तक मिट्टी पलटने वाले हल से करने पर यह कड़ी परत टूट जाती है और वर्षाजल खेत में अधिक मात्रा में सोख लिया जाता है. मिट्टी भी धूप लगने से भुरभुरी हो जाती है. इस में वायु संचार बढ़ जाता है और खेत की जलधारण कूवत में बढ़ोतरी हो जाती है. इस के अलावा जुताई से खरपतवार भी नष्ट होते हैं और मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ती है.

GulabJamun – मिनी गुलाबजामुन स्वाद का नया अंदाज

GulabJamun| रसीला गुलाबजामुन देश की सब से मशहूर मिठाई है. गुलाबजामुन (GulabJamun) बनाने वाले इसे ले कर नएनए प्रयोग करने लगे हैं. सब से ज्यादा प्रयोग इस के आकार को ले कर होने लगे हैं. पहले गुलाबजामुन (GulabJamun) नीबू के आकार बनता था. अब इस के आकार को छोटा कर दिया गया है. इसे मिनी गुलाबजामुन के नाम से जाना जाता है. छप्पन भोग मिठाई शाप के मालिक रवींद्र गुप्ता कहते हैं, ‘आज के समय में लोग मिठाई को भरपेट नहीं खाते. वे स्वाद लेने के लिए मिठाई खाते हैं. ऐसे में मिनी गुलाबजामुन भी चलन में आ गया.’

गुलाबजामुन का नाम गुलाब और जामुन से मिल कर बना है. यह अपनी तरह की अलग मिठाई है, जिस का नाम फल और फूल पर रखा गया है. गुलाबजामुन की चाशनी को बनाने के लिए गुलाबजल को खुशबू के लिए डाला जाता है और जामुन के गोल आकार और रंग के कारण इसे गुलाबजामुन कहा जाता है. गुलाबजामुन मुगल काल की मिठाई है. गुलाबजामुन भारत और दूसरे मुसलिम देशों की खास मिठाई है. अब दुनिया में जहांजहां भारतीय रहते हैं, वहांवहां मिठाई  की दुकानों में गुलाबजामुन मिलता है.

चाशनी में डूबा गुलाबजामुन गरमगरम खाने में ही मजा देता है. कोई दावत गुलाबजामुन के बिना अधूरी मानी जाती है. अगर आप गरम और ठंडा स्वाद एकसाथ लेना चाहते हैं, तो गुलाबजामुन और वनीला आइसक्रीम को मिला कर खाया जा सकता है. एक बार इस अंदाज में गुलाबजामुन का स्वाद लेंगे, तो किसी और मिठाई का स्वाद याद ही नहीं रहेगा.

गुलाबजामुन और कालाजाम में अंतर

मिठाई की दुकानों पर गुलाबजामुन से मिलतीजुलती एक और मिठाई दिख जाती है, जिसे कालाजाम कहा जाता है. आमतौर पर लोग कालाजाम और गुलाबजामुन को एक ही मिठाई समझ बैठते हैं, मगर इन में फर्क होता है. गुलाबजामुन चाशनी में डूबा होता है, जबकि कालाजाम सूखा होता है. गुलाबजामुन गरम खाया जाता है और कालाजाम सामान्य तापमान में रख कर खाया जाता है. गुलाबजामुन खोए से तैयार होता है और इस के अंदर कुछ भरा नहीं जाता, जबकि कालाजाम में अंदर मेवाइलायची जैसी दूसरी चीजें डाली जाती हैं. गुलाबजामुन को चांदी के वर्क से सजाया नहीं जाता है, जबकि कालाजाम को चांदी के वर्क और केसर पाउडर से सजाया जाता है. कालाजाम गोल आकार का ही बनता है, जबकि गुलाबजामुन गोल और लंबे दोनों आकारों में बनते हैं. इन के स्वाद में भी अंतर होता है. गुलाबजामुन पंजाबी मिठाई होती है, जबकि कालाजाम बंगाली मिठाई होती है.

कैसे बनता है गुलाबजामुन

गुलाबजामुन बनाने के लिए खोया, मैदा, बेकिंग पाउडर और इलायची पाउडर का इस्तेमाल किया जाता है. सब से पहले खोए को कद्दूकस कर लें. फिर उस में मैदा, बेंकिग पाउडर और इलायची पाउडर मिला लें. इस में थोड़ा दूध डालते हुए आटे की तरह गूंध लें. जब यह खूब चिकना जाए तो मनचाहे गोल या लंबे आकार में गुलाबजामुन तैयार कर लें. ध्यान रखें कि ये फटे नहीं.  फटने से इन में दरारें पड़ जाती हैं. तैयार कच्चे गुलाबजामुन को कपड़े से ढक  कर रख दें. इस के बाद कढ़ाई में जरू रत के अनुसार तेल डाल कर इन्हें तल लें. जब ये ब्राउन कलर के हो जाएं,  तो इन को बाहर निकाल लें और किचन पेपर पर रखें.

इस के बाद चीनी और पानी बराबर मात्रा में ले कर चाशनी बनाएं. इसे धीमी आंच पर गरम करें. जब चाशनी तैयार हो जाए, तो तले गुलाबजामुन उस में डाल दें. चाशनी में कुटी इलायची, गुलाबजल और केसर डाल दें. जब गुलाबजामुनों के अंदर तक रस घुल जाए, तो उन को निकाल कर गरमगरम खाएं. चाशनी में भीगे होने के कारण इन को गरम करना आसान होता है.

Jiji Bai : बाड़मेर की ‘जीजी बाई’ ने बनाई ग्लोबल पहचान

Jiji Bai| : थार रेगिस्तान को दुनिया के औयल मैप पर लाने वाले बाड़मेर के तेल क्षेत्रों के नाम अब एक और उपलब्धि जुड़ गई है. यहां के औयल फील्ड्स के सुदूर गांवों में बसी महिलाएं अपने कौशल से देशविदेश में जानी जा रही हैं. इसी कड़ी में अब जीजी बाई स्वयं सहायता समूह का नाम जुड़ गया है. उन के द्वारा बाड़मेर में तैयार मिलेट कुकीज यानी बाजरे के बिसकुट्स अब लंदन तक प्रसिद्ध हो चुके हैं.

‘विश्व महिला दिवस’ की पूर्व संध्या पर जीजी बाई कुकीज को ग्लोबल मार्केट से जोड़ने के लिए क्यूआर कोड मार्केटिंग की शुरुआत मंगला प्रोसैसिंग टर्मिनल के ली कैफे से की गई.

जीजी बाई के उत्पादों की सफलता को देखते हुए उन्हें हाल में दिल्ली में आयोजित इंडिया एनर्जी वीक में केयर्न, वेदांता के प्रदर्शनी स्थल में शामिल किया गया था. वहां उन के कौशल की तारीफ हुई और लोगों ने उन के बनाए उत्पादों को खूब पसंद किया. उन की सफलता की कहानियां अब देश के दूसरे क्षेत्रों में लोगों के लिए प्रेरणा बन रही हैं.

भारत की डायरेक्टर जनरल हाइड्रोकार्बन डा. पल्लवी जैन गोविल ने जीजी बाई के कार्यों की तारीफ करते हुए उन्हें दिल्ली भ्रमण का न्योता दिया.

इस से पूर्व जयपुर में हुए जयगढ़ फैस्टिवल और जयपुर लिटरेचर फैस्टिवल में भी जीजी बाई स्वयं समूह ने विदेशी मेहमानों की भरपूर प्रशंसा बटोरी. उन्हें अब लंदन स्थित प्रशंसकों से और्डर मिलने शुरू हो गए हैं.

बाड़मेर की इन महिलाओं का कौशल सिर्फ मिलेट कुकीज तक ही सीमित नहीं है, बल्कि डेयरी और कृषि क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी अलग जगह बनाई है. ब्रह्माणी सेल्फ हेल्प ग्रुप के अंतर्गत बनी डेयरी प्रोडक्ट्स और हस्तशिल्प वस्तुएं लोगों को खूब पसंद आ रही हैं. केयर्न एंटरप्राइज सैंटर से बैंकिंग, ब्यूटीशियन, ग्रूमिंग आदि स्किल्स निखार कर वे आत्मनिर्भर बनी हैं और अपने कौशल से गांव का नाम रोशन कर रही हैं.