Sweet Potato : शकरकंद की खेती

Sweet Potato  : शकरकंद में स्टार्च की भरपूर मात्रा होती है, इसलिए इस का प्रयोग शरीर में ऊर्जा बढ़ाने के लिए किया जाता है. इसे भूख मिटाने के लिए सब से उपयोगी माना जाता है. शकरकंद की खेती वैसे तो पूरे भारत में की जाती है, लेकिन ओडिशा, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल व महाराष्ट्र में इस की खेती सब से अधिक होती है. शकरकंद की खेती में भारत दुनिया में छठे स्थान पर आता है.

इस की खेती के लिए 21 से 26 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान सब से सही माना जाता है. यह शीतोष्ण व समशीतोष्ण जलवायु में उगाई जाने वाली फसल है. इसे 75 से 150 सेंटीमीटर बारिश की हर साल जरूरत पड़ती है.

भूमि का चयन : शकरकंद की खेती के लिए रेतीली दोमट मिट्टी सब से अच्छी मानी जाती है, क्योंकि ऐसी मिट्टी में कंदों की बढ़वार अच्छी तरह से हो पाती है. शकरकंद की खेती के लिए जमीन से पानी के निकलने का अच्छा इंतजाम होना चाहिए.

इस की बोआई से पहले  खेत की 1 बार मिट्टी पलटने वाले हल या रोटावेटर से जुताई करनी चाहिए. उस के बाद 2 जुताई कल्टीवेटर से कर के खेत को छोटीछोटी समतल क्यारियों में बांट लेना चाहिए. उस के बाद मिट्टी को भुरभुरी बना कर उस में प्रति हेक्टेयर 150 से 200 क्विंटल गोबर की खाद मिला लेना फसल उत्पादन के लिए अच्छा होता है.

प्रजातियों का चयन : शकरकंद की प्रमुख प्रजातियों में पूसा लाल, पूसा सुनहरी, पूसा सफेद, सफेद सुनहरी लाल, श्री मद्र एस 10101, नरेंद्र शकरकंद 9, एच 41, केवी 4, सीओआईपी 1, राजेश शकरकंद 92, एच 42 (1) खास हैं.

शकरकंद की रोपाई : इस की रोपाई से पहले मई या जून महीने में इस की लताओं से नर्सरी तैयार की जाती है. अगस्त से सितंबर तक तैयार लताओं की कटिंग कर के मेंड़ों या समतल जगह पर रोपाई की जाती है. इस की कटिंग की रोपाई के लिए लाइन से लाइन की दूरी 60 सेंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 30 सेंटीमीटर रखी जाती है. जमीन में इस की कटिंग को 6-8 सेंटीमीटर की गहराई पर रोपा जाता है.

रोपाई के समय यह ध्यान देना चाहिए कि बेल की कटिंग 60-90 सेंटीमीटर से कम न हो. काटी गई बेल को मिट्टी में दबा दिया जाता है. 1 हेक्टेयर खेत के लिए शकरकंद की 6-7 क्विंटल बेल या 59000 टुकड़ों की जरूरत पड़ती है.

खाद की मात्रा : शकरकंद की खेती के लिए 1 हेक्टेयर खेत में 150 से 200 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद व 50-60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50-60 किलोग्राम फास्फोरस और 100-120 किलोग्राम पोटाश की जरूरत पड़ती है. नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की आधी मात्रा आखिरी जुताई के समय व शेष आधी मात्रा बोआई के 30 दिनों बाद देते हैं. इस के कंदों की बढ़त के लिए जैविक खाद ज्यादा अच्छी होती है.

सिंचाई : शकरकंद की बेलों की कटिंग की रोपाई के 4-5 दिनों बाद पहली सिंचाई कर देनी चाहिए. इस के बाद बारिश की मात्रा को देखते हुए 10-15 दिनों के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए. शकरकंद के खेत की तब तक निराईगुड़ाई जरूरी है, जब तक कि इस की फसल खेत को ढक न ले.

कीट व बीमारियों की रोकथाम : कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक डा. प्रेमशंकर के अनुसार शकरकंद की फसल में सब से ज्यादा प्रकोप पत्ती खाने वाली सूंड़ी का होता है. यह कीट बरसात में फसल को नुकसान पहुंचाता है. ये शकरकंद की पत्तियों को खा कर छलनी कर देते हैं, जिस से पत्तियां भोजन नहीं बना पाती हैं और फसल की बढ़त रुक जाती है. इस कीट की रोकथाम के लिए नीम के काढ़े का 250 मिलीलीटर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए. इस के अलावा पीविल नाम का कीट इस के कंदों में घुस कर कंदों बेकार कर देता है. इस की रोकथाम के लिए सब से अच्छा उपाय बोआई के समय कंदशोधन होता है.

शकरकंद की फसल में 2 रोगों का हमला ज्यादातर देखा गया है, जिस में पहला तनासड़न है, जोकि फ्यूजेरियम आक्सीसपोरम नामक फफूंदी के कारण होता है. इस रोग की वजह से फसल के तने में सड़न आ जाने से फसल बेकार हो जाती है. इस की रोकथाम के लिए रोग न लगने वाली फसल का चुनाव करना सही होता है. शकरकंद की फसल में दूसरा रोग कलीसड़न का है, जिस में कंदों की सतह पर धुंधले काले रंग के धब्बे बन जाते हैं, जिस की वजह से पौधे मर जाते हैं. इस की रोकथाम के लिए 250 मिलीलीटर नीम के काढ़े का प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए.

खुदाई व भंडारण : शकरकंद की खुदाई उस की रोपाई के समय पर निर्भर करती है. जुलाई महीने में रोपी गई फसल की खुदाई नवंबर महीने में की जा सकती है. जब पत्तियां पीली पड़ कर सूखने लगें, तो फावड़े या कुदाल से फसल की खुदाई कर के उस पर लगी मिट्टी को साफ करें. फिर किसी छायादार व हवादार जगह पर स्टोर करें.

Diesel Engine :बगैर पानी के चलने वाला एयर कूल्ड डीजल इंजन

Diesel Engine : ‘काबरखा जब कृषि सुखानी.’ यह कहावत किसी ने सही ही कही है कि ऐसी बरसात का क्या फायदा जब खेती ही सूख चुकी हो. पहले खेती बरसात पर ही आधारित थी. उस समय न तो इतने साधन थे, न बिजलीपानी की आज जैसी व्यवस्था थी.

आज हमारे पास सिंचाई के तमाम साधन हैं. बिजली न भी हो तो डीजल इंजन में पंपिग सेट को जोड़ कर खेतों की सिंचाई कर सकते हैं. आज बाजार में अनेक कंपनियां डीजल इंजन बना रही हैं. ‘किसान के हो जाएं वारेन्यारे जेट पंप के सहारे’, यह स्लोगन है जेट कंपनी का. यह डीजल इंजन अनेक खासीयतों से भरा है.

खासीयतें

* यह इंजन बगैर पानी का होने के कारण जल्दी खराब नहीं होता, क्योंकि कई बार किसान इंजन से दूर होता है या इंजन चला कर घर आ जाता है, उस समय अगर ट्यूबवैल पानी छोड़ देता है या पट्टा टूट जाता है तो अन्य पानी वाला इंजन गरम हो कर खराब हो जाता है, मगर यह इंजन एयरकूल्ड होने के कारण खराब नहीं होता.

* जेट एयर कूल्ड इंजन पानी वाले इंजन के मुकाबले 4 गुना ज्यादा चलता है, क्योंकि अन्य पानी वाले इंजन की पानी वाली नाली अकसर निकल जाती है या पट्टा टूट जाता है, जिस से इंजन खराब होता है. लेकिन जेट एयर कूल्ड इंजन लगातार चलता रहता है. इस में इस तरह की खराबी नहीं आती.

* कई बार किसान को अपने खेत में काफी दूरी से पाइप डाल कर पानी लाना पड़ता है. इस हालत में इंजन बारबार खराब होने का डर रहता है. ऐसे में एयर कूल्ड इंजन लगाना ज्यादा अच्छा रहता है, क्योंकि यह जल्दी खराब नहीं होता है.

* यह इंजन वजन में काफी हलका है, जिस से इसे आसानी से एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सकता है.

* एयर कूल्ड इंजन लगातार समान तापमान पर चलता है, जिस से डीजल की खपत कम होती है.

* इस इंजन के साथ पंखा जोड़ कर पंपसेट बनाया जा सकता है. इस से किसान नहर व ड्रेनों से अपनी ऊंचीनीची जमीन में आसानी से पानी डाल सकते हैं.

* इस इंजन को किसान गरमियों में जनरेटर की तरह भी इस्तेमाल कर के अनेक फायदे ले सकते हैं. बरसात के मौसम में भी इस का कई तरीके से इस्तेमाल कर सकते हैं.

* इस इंजन से गंडासे को भी आसानी से चलाया जा सकता है और पशुओं के लिए चारा तैयार कर सकते हैं.

* इस डीजल इंजन से दूसरे उपकरण जैसे आटा चक्की, चारा काटने की मशीन आदि को भी चलाया जा सकता है.

* इस की मरम्मत के लिए स्पेयर पार्ट भी आसानी से मिल जाते हैं.

एयरकूल्ड डीजल इंजन के बारे और अधिक जानकारी के लिए किसान जेट पेटवाड़ एग्रीकल्चर कंपनी के मोबाइल नंबरों 09416041107, 9992231011 व किसान एग्रीकल्चर इंपलीटमेंट के मोबइल नंबरों 09416046507, 094667450 पर संपर्क कर सकते हैं.

Green Manure : ढैंचे की खेती से बढ़ाएं मिट्टी की उर्वरता

Green Manure : भारतीय किसानों द्वारा अपने खेतों में बोई गई फसलों से ज्यादा उत्पादन हासिल करने के लिए अंधाधुंध रासायनिक खादों व उर्वरकों का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिस की वजह से मिट्टी में जीवाश्म की मात्रा में दिनोंदिन कमी होती जा रही है और मिट्टी ऊसर होने की कगार पर पहुंचती जा रही है. ऐसी हालत से बचने व फसल उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों को ऐसे उर्वरकों का इस्तेमाल करना होगा, जिन से मिट्टी में मौजूद लाभदायक जीवाणुओं को कोई हानि न पहुंचे.

खेत में जीवाश्म की मात्रा को बढ़ाने और उर्वरा शक्ति के विकास में जैविक व हरी खादों का इस्तेमाल काफी फायदेमंद होता है. हरी खाद के लिए इस्तेमाल में लाई जाने वाली ढैंचे की फसल न केवल खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ाती है, बल्कि फसल उत्पादन को बढ़ा कर लागत में भी कमी लाती है. ढैंचा एक ऐसी फसल है, जिसे खेत में बोआई के 55-60 दिनों बाद हल से पलट कर मिट्टी में दबा दिया जाता है. ढैंचे की बोआई उसी खेत में की जाती है, जिस में हरी खाद का इस्तेमाल करना हो. इस के नाजुक पौधों को बोआई के 55-60 दिनों बाद जुताई कर के खेत में मिला कर पानी भर दिया जाता है. ढैंचे की फसल थोड़ी नमी पाने के बाद ही सड़ना शुरू हो जाती है.

ढैंचे की हरी खाद से मिट्टी को भरपूर मात्रा में नाइट्रोजन मिलता है, जिस से खेत में पोषक तत्त्वों का संरक्षण होता है और मिट्टी में नाइट्रोजन के स्थिरीकरण के साथ ही क्षारीय व लवणीय मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है. ढैंचे से अन्य हरी खादों के मुकाबले नाइट्रोजन की ज्यादा मात्रा मिलती है.

ढैंचे की उन्नत किस्में : ढैंचे में खनिज पदार्थों की मौजूदगी, नाइट्रोजन की अच्छी मात्रा व बोई गई फसलों पर अच्छे असर को देखते हुए इस की कुछ किस्में अनुकूल मानी गई हैं, जिन में सस्बेनीया, एजिप्टिका, यस रोसट्रेटा व एस एक्वेलेटा खास हैं.

हरी खाद के लिए अनुकूल मिट्टी : वैसे तो हरी खाद के लिए ढैंचे की बोआई किसी भी तरह की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन जलमग्न, क्षारीय, लवणीय व सामान्य मिट्टियों में ढैंचे की फसल लगाने से अच्छी गुणवत्ता वाली हरी खाद मिलती है.

बोआई का समय व बीज की मात्रा : ढैंचे की बोआई से पहले खेत की 1 बार जुताई कर लेनी चाहिए. इस के बाद प्रति हेक्टेयर 35-50 किलोग्राम बीज का इस्तेमाल करना चाहिए. ढैंचे की बोआई अप्रैल के अंतिम हफ्ते से ले कर जून के अंतिम हफ्ते तक की जाती है. बोआई के 10 से 15 दिनों के बाद हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. जब फसल 20 दिनों की हो जाए, तो 25 किलोग्राम यूरिया का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. इस से फसल में नाइट्रोजन की मात्रा बनने में मदद मिलती है.

फसल की पलटाई : जब ढैंचे  की फसल की लंबाई 2 से ढाई फुट की हो जाए तो इसे हल द्वारा खेत में पलट देना चाहिए. इस के बाद ढैंचे की फसल सड़नी शरू हो जाती है, जिस से मिट्टी की उर्वरा कूवत बढ़ने के साथ ही सूक्ष्म पोषक तत्त्वों व सूक्ष्म जीवाणुओं की तादाद भी बढ़ती है. इस से मिट्टी की संरचना में सुधार होता है और बोई गई फसल की जड़ों का फैलाव बेहतर होता है. हरी खाद मिट्टी की जलधारण कूवत को बढ़ा कर नमी को लंबे समय तक बनाए रखने में मददगार होती है. हरी खाद को दबाने के बाद बोई गई धान की फसल में कुछ प्रजातियों के खरपतवार न के बराबर होते हैं. इस प्रकार खरपतवार नियंत्रण के लिए प्रयोग किए जाने वाले खरपतवारनाशी के कुप्रभाव से मिट्टी को बचाने में मदद मिलती है.

इस प्रकार बेहद कम लागत और मेहनत से हम अपनी मिट्टी की उर्वरा ताकत को बढ़ाने के लिए ढैंचे की फसल को हरी खाद के रूप में इस्तेमाल कर के रासायनिक उर्वरकों पर होने वाले खर्च में कमी ला सकते हैं और मिट्टी को रासायनिक उर्वरकों के प्रभाव से बचा सकते हैं.

Agricultural Machinery : जुताई व बोआई यंत्र – कम लागत, अधिक उत्पादन

Agricultural Machinery : किसान अपनी रबी की फसल ले चुके हैं. अब खरीफ फसलों की तैयारी पर काम चल रहा है. कुछ किसान तो अपने खेतों में फसल बो चुके हैं. किसान अपने बीज को बोआई यंत्र से बो सकते हैं, क्योंकि यंत्रों से बिजाई करने से बीज बरबाद नहीं होते हैं.

पावर टिलर चालित जुताई व बोआई यंत्र

यह यंत्र खेत की तैयारी के साथसाथ बोआई भी करता है इस से खाद भी साथ ही डाल सकते हैं.

इस यंत्र को 10 से 12 हार्स पावर के टिलर के साथ जोड़ कर चलाया जाता है. इस यंत्र की अनुमानित कीमत 15000 रुपए से 18000 रुपए है.

इस यंत्र से गेहूं, सोयाबीन, चना, ज्वार, मक्का की बोआई कर सकते हैं.

इस यंत्र को खरीदने के लिए आप कृषि अभियांत्रिकी संस्थान के फोन नं. 0755-2521133, 2521139, 2521142 पर संपर्क कर सकते हैं.

जांगड़ा की बिजाई मशीन

सब्जियों की बोआई हेतु महावीर जांगड़ा की यह बिजाई मशीन खासी लोकप्रिय है. खेत तैयार करने के बाद इस मशीन से बिजाई करने पर बीज उचित मात्रा में लगते हैं. साथ ही यह मशीन खुद मेंड़ बनाती है और बिजाई करती है. यह मशीन 2 मौडल में उपलब्ध है :

* 2 बेड वाली बिजाई मशीन :  यह मशीन 8 लाइन में बिजाई करती है और इसे 35 से 40 हार्स पावर के ट्रैक्टर से चलाया जाता है. इस बिजाई मशीन की कीमत लगभग 52000 रुपए है.

* 3 बेड वाली बिजाई मशीन :  यह मशीन 12 लाइनों में बिजाई करती है और इसे 50 हार्स पावर के ट्रैक्टर से चलाया जाता है. इस की कीमत लगभग 72000 रुपए है.

इस मशीन से बोई जाने वाली खास फसलें :

* फूलगोभी, पत्तागोभी, सरसों, राई, शलगम.

* गाजर, मूली, धनिया, पालक, मेथी, हरा प्याज, मूंग, जीरा, टमाटर.

* भिंडी, मटर, मक्का, चना, कपास, टिंडा, तोरी, फ्रांसबीन, घीया, तरबूज.

जो भी किसान इस मशीन को लेना चाहें वे महावीर जांगड़ा से उन के फोन नंबर 09896822103, 9813048612 पर संपर्क कर सकते हैं.

42.4 करोड़ रुपए की लागत से बनेगा जल पार्क, मत्स्यपालकों को होगा फायदा

अगरतला: केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन एवं डेयरी और पंचायती राज मंत्री राजीव रंजन सिंह ने पिछले दिनों 18 मई, 2025 को अगरतला, त्रिपुरा में आयोजित एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना के तहत कैलाशहर, त्रिपुरा में 42.4 करोड़ रुपए की लागत से एक एकीकृत जल पार्क की शुरुआत की.

इस के अलावा, इस कार्यक्रम में राज्य की समृद्ध संस्कृति की प्रदर्शनी और विविध मछलियों पर एक मछली महोत्सव का उद्घाटन भी किया गया. इस कार्यक्रम में जौर्ज कुरियन, राज्य मंत्री, मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी एवं अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के साथसाथ सुधांशु दास, मत्स्यपालन मंत्री, त्रिपुरा सरकार और टिंकू राय, खेल और युवा मामलों के मंत्री, त्रिपुरा सरकार भी शामिल हुए.

केंद्रीय मंत्री, राजीव रंजन सिंह ने भारत की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने में इस क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में बताते हुए कहा कि मत्स्यपालन क्षेत्र ने 2014-15 से 9.08 फीसदी  की वृद्धि हो रही है जो भारत में कृषि से संबंधित क्षेत्रों में सबसे अधिक है. मत्स्यपालन क्षेत्र में त्रिपुरा की विशाल संभावना को पहचानते हुए, उन्होंने आधुनिक तकनीक, एकीकृत खेती और नवाचार के उपयोग के माध्यम से मांग और आपूर्ति के बीच की कमी को पूरा करने की आवश्यकता पर बल दिया.

केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन ने कहा कि देश के 11 एकीकृत जल पार्कों में से 4 पूर्वोत्तर क्षेत्र में बनाए जा रहे हैं. इन में से एक त्रिपुरा में बनाया जा रहा है. केंद्रीय मंत्री ने हितधारकों से त्रिपुरा को एक ‘‘मछली आधिक्‍य राज्य’’ में बदलने और त्रिपुरा की 1.5 लाख टन की मांग से अधिक 2 लाख टन मछली उत्‍पादन के लक्ष्‍य की दिशा में लगन से काम करने का आग्रह किया ताकि यह मछली का निर्यात करने में सक्षम हो सके.

उन्‍होंने आगे कहा कि शीघ्र ही त्रिपुरा में भी सिक्किम की तरह ही जैविक मछली क्लस्‍टर विकसित किया जाएगा. एकीकृत जल पार्क को समयबद्ध तरीके से पूरा करने की आवश्यकता पर जोर देते हुए, केंद्रीय मंत्री ने मछली पालकों को संस्थागत प्रशिक्षण प्रदान करने के महत्व पर भी जोर दिया. मछुआरों को मत्स्यपालन और जलीय कृषि अवसंरचना विकास निधि और पीएमएमएसवाई जैसी सरकारी योजनाओं का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करते हुए, उन्होंने एनएफडीबी के माध्यम से प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण में सहयोग की केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता दोहराई.

केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह ने झींगा उत्पादन को बढ़ावा देने, सजावटी मत्स्यपालन को विकसित करने, बुनियादी ढांचे में सुधार करने, आसान बाजार पहुंच सुनिश्चित करने और क्षेत्र में नवाचार और स्थिरता को बढ़ावा देने जैसे मुद्दों के बारे में भी बात की. इस अवसर पर, केंद्रीय मंत्री ने विभिन्न लाभार्थियों को प्रमाण पत्र और स्वीकृति आदेश वितरित किए.

मत्स्य पालन, पशुपालन एवं डेयरी और अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के राज्य मंत्री जौर्ज कुरियन ने त्रिपुरा में मछली उत्पादकता बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा कि राज्य की लगभग 98 फीसदी आबादी मछली खाती है. उन्होंने राज्य की खाद्य सुरक्षा और अर्थव्यवस्था में मत्स्यपालन की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार किया.

त्रिपुरा सरकार के मत्स्यपालन, एआरडीडी और एससी कल्याण मंत्री सुधांशु दास ने लक्षित उपायों के माध्यम से मछुआरों और मछली किसानों के उत्थान के लिए राज्य की प्रतिबद्धता पर जोर दिया. उन्होंने कहा कि मत्स्य सहायता योजना के तहत पहचाने गए मछुआरों और मछली किसानों को उन की आजीविका में सहयोग करने के लिए 6,000 रुपए की सालाना आर्थिक सहायता मिल रही है.

इस के साथ ही, रोजगार के एक साधन के रूप में मत्स्यपालन को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करते हुए उन्होंने कहा कि त्रिपुरा में इस क्षेत्र में अत्‍यधिक संभावनाएं हैं जिन का अभी तक उपयोग नहीं किया गया है. जबकि त्रिपुरा सरकार के खेल और युवा मामलों के मंत्री टिंकू राय ने मत्स्यपालन क्षेत्र के उत्थान और त्रिपुरा में मछुआरों की आजीविका को बढ़ाने के लिए निरंतर सहयोग और सामूहिक प्रयास को प्रोत्साहित किया.

केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के सचिव डा. अभिलक्ष लिखी ने विभाग की प्रमुख योजनाओं और पहलों – प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना, कृषि अवसंरचना विकास निधि और प्रधानमंत्री मत्स्य किसान समृद्धि सहयोजना के बारे में बताया. इन का संयुक्त निवेश परिव्यय लगभग 38,000 करोड़ रुपए है. यह उल्‍लेखनीय है कि पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए 2,114 करोड़ रुपए की परियोजनाओं को मंजूरी दी गई है जिस में विशेष रूप से त्रिपुरा के लिए 319 करोड़ रुपए शामिल हैं.

डा. अभिलक्ष लिखी ने आगे मछुआरों और मत्स्य किसानों से अनुसंधान और विकास में प्रगति का पूरा लाभ उठाते हुए रिसर्कुलेटरी एक्वाकल्चर सिस्टम, बायोफ्लोक और ड्रोन आधारित अनुप्रयोगों जैसी आधुनिक तकनीकों को अपनाने का अनुरोध किया. आजीविका सुरक्षा के महत्व पर जोर देते हुए उन्होंने मछुआरों के लिए बीमा कवरेज प्रदान करने के लाभों के बारे में भी बताया. इस के अलावा, विविध किस्‍मों की प्रजातियों विशेष रूप से उच्‍च मूल्‍य की देशी प्रजातियों जैसे पाबदा और सिंघी का उत्‍पादन बढ़ाने पर भी विशेष जोर दिया गया.

इस कार्यक्रम में मत्स्यपालन विभाग, मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के संयुक्त सचिव सागर मेहरा, एनएफडीबी के मुख्य कार्यकारी डा. बिजय कुमार बेहरा के साथसाथ केंद्र और राज्य मत्स्य विभाग के अन्य वरिष्ठ अधिकारी भी उपस्थित थे.

Placement Drive : पशुपालकों के लिए प्लेसमेंट ड्राइव

Placement Drive : कैंपस प्लेसमेंट ड्राइव का आयोजन सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डा. केके सिंह के दिशानिर्देशन में किया गया. इस अवसर पर माई एनिमल कंपनी के वाइस प्रेसिडेंट संदीप दत्ता ने कहा कि भारत में माई एनिमल कंपनी द्वारा कुत्तों, ऊंटों, घोड़ों और अन्य जानवरों के लिए स्वास्थ्यवर्धक एवं गुणकारी प्रोडक्ट बनाया जा रहा है, जिस से भारत के पशुपालक लाभान्वित हो सकें.

माई एनिमल कंपनी जूनियर के वाइस प्रेसिडेंट आदित्य पांडे ने कहा कि आज राष्ट्रीय स्तर पर कई कंपनियां हैं, जो अपने विभिन्न उत्पादों को बना कर मार्केटिंग कर रही हैं, लेकिन पशुपालन क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए पहली कंपनी माई एनिमल है, जो पशुपालन क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काम कर रही है.

उन्होंने कहा कि उन का प्रयास है कि गुणवत्तायुक्त उत्पादों से हर गांव के पशुपालक परिचित हों और पशुओं की सुरक्षा को ध्यान में रख कर पशुपालन का एक अच्छा व्यवसाय कर सकें, इस के लिए कंपनी पेरावेट और वेटरनरी डाक्टर के सहयोग से भारत के ग्रामीण इलाकों तक पहुंच कर पशुपालकों का सहयोग कर रही है. इसी को विस्तार देने के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के छात्रछात्राओं का इंटरव्यू लिया गया. इस के बाद  उन को प्लेसमेंट दे कर कंपनी के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उन को विभिन्न जिलों में पोस्टिंग दी जाएगी, जिस से पशुपालक नए उत्पाद और तकनीक की सहायता से अपने पशुओं की जिंदगी को एक नई दिशा दे सकें.

इस अवसर पर 38 छात्रछात्राओं ने कंपनी के प्लेसमेंट ड्राइव में हिस्सा लिया और इन में से कंपनी ने 15 छात्रों का चयन किया. कंपनी इन छात्रों को देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी काम करने का मौका देगी, क्योंकि यह कंपनी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लगातार बढ़ती जा रही है.

इस कार्यक्रम में निदेशक ट्रेनिंग औफ प्लेसमेंट प्रो. आरएस सेंगर ने कहा कि कुलपति प्रो. केके सिंह के मार्गदर्शन में कृषि विश्वविद्यालय के छात्रों का प्लेसमेंट सौ फीसदी हो सके, इस के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हैं. उन्होंने आगे कहा कि आने वाले दिनों में कृषि विश्वविद्यालय में रोजगार मेला भी लगाया जाएगा, जिस से छात्र रोजगार पा सकें. इस कार्यक्रम का संचालन जौइंट डायरेक्टर प्रो. सत्य प्रकाश ने किया.

Drip Irrigation : खेती में पानी बचाने की तकनीक : ड्रिप या टपक सिंचाई

Drip Irrigation : सारी दुनिया में अपनाई जा रही ड्रिप प्रणाली से हमारे किसानों का संबंध बहुत पुराना है. पहले गरमी के दिनों में हमारे घरों के आंगन की तुलसी के पौधे के ऊपर मिट्टी के घड़े की तली में बारीक छेद कर के उस में पानी भर कर टांग दिया जाता था. वैसे ड्रिप प्रणाली का किसानी में व्यापक प्रयोग 1960 के दशक में इजरायल में किया गया, जिसे बाद में आस्ट्रेलिया और अमेरिका ने बखूबी अपनाया. ड्रिप सिंचाई के जरीए आज अमेरिका में 10 लाख हेक्टेयर रकबे में खेती होती है, जिस के बाद भारत और फिर स्पेन और इजरायल का स्थान है.

ड्रिप यानी टपक सिंचाई, सिंचाई का वह तरीका है जिस में पानी धीरेधीरे बूंदबूंद कर के फसलों की जड़ों में कम मोटाई के प्लास्टिक के पाइप से दिया जाता है. इस तरीके में पानी का इस्तेमाल कम से कम होता है. सिंचाई का यह तरीका सूखे इलाकों के लिए बेहद उपयोगी होता है, जहां इस का इस्तेमाल फल के बगीचों की सिंचाई के लिए किया जाता है. टपक सिंचाई ने लवणीय जमीन पर फलों के बगीचों को कामयाब बनाया है. इस सिंचाई विधि में खाद को घोल के रूप में दिया जाता है. टपक सिंचाई उन इलाकों के लिए बहुत ही सही है, जहां पानी की कमी होती है.

पिछले 15 सालों से भारत में ड्रिप सिंचाई से साढ़े 3 लाख हेक्टेयर जमीन में सिंचाई हो रही है, जिस में सब से अधिक महाराष्ट्र में 94000 हेक्टेयर, कर्नाटक में 66000 हेक्टेयर और तमिलनाडु में 55000 हेक्टेयर की सिंचाई की जा रही है.

ड्रिप सिंचाई पर आधारित खेती को अपनाए जाने की कई वजहें हैं. भारत की कुल जमीन के रकबे का महज 45 फीसदी भाग ही अभी तक सिंचाई सुविधा के तहत आता है, जबकि खेती में पानी का इस्तेमाल कुल पानी के इस्तेमाल का 83 फीसदी है. घरेलू उपयोग, उद्योग और ऊर्जा यानी बिजली के सेक्टर में पानी की खपत बढ़ने से जाहिर है कि खेती के लिए पानी की मौजूदगी पर आने वाले समय में दबाव और बढ़ेगा. पानी के संकट का एक मुख्य कारण जमीन के पानी के स्तर का लगातार गिरते जाना भी है.

कोलंबो स्थित इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट के अनुसार साल 2025 तक विश्व की एकतिहाई आबादी पानी की कमी से जूझ रही होगी. विश्व में मौजूद इस्तेमाल लायक पानी का महज 4 फीसदी पानी भारत में है, जबकि भारत की आबादी दुनिया की आबादी का 16 फीसदी है. जाहिर है कि पानी का दबाव बढ़ता जा रहा है. ऐसे में जरूरी है कि खेती में भी पानी के इस्तेमाल को ले कर नई तकनीकों को आजमाया जाए. ड्रिप यानी टपक बूंद सिंचाई तकनीक में पानी की हर बूंद के ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल समेत कई लाभ हैं.

टपक सिंचाई के लिए मुफीद फसलें: ड्रिप या टपक सिंचाई कतार वाली फसलों, पेड़ व लता फसलों के मामले में बेहद मुनासिब होती है, जहां एक या उस से ज्यादा निकास को हर पौधे तक पहुंचाया जाता है. ड्रिप सिंचाई को आमतौर पर अधिक कीमत वाली फसलों के लिए अपनाया जाता है, क्योंकि इस सिंचाई के तरीके को अपनाने में खर्च ज्यादा आता है. टपक सिंचाई का इस्तेमाल आमतौर पर फार्म, व्यावसायिक हरित गृहों और घरों के बगीचों में किया जाता है.

ड्रिप सिंचाई लंबी दूरी वाली फसलों के लिए बेहद मुफीद होती है. सेब, अंगूर, संतरा, नीबू, केला, अमरूद, शहतूत, खजूर, अनार, नारियल, बेर, आम आदि फल वाली फसलों की सिंचाई ड्रिप सिंचाई विधि से की जा सकती है. इन के अलावा टमाटर, बैगन, खीरा, लौकी, कद्दू, फूलगोभी, बंदगोभी, भिंडी, आलू, प्याज वगैरह कई सब्जी फसलों की सिंचाई भी टपक सिंचाई विधि से की जा सकती है. अन्य फसलों जैसे कपास, गन्ना, मक्का, मूंगफली, गुलाब व रजनीगंधा वगैरह को ड्रिप सिंचाई विधि से सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है.

ड्रिप सिंचाई पर एक रिपोर्ट : कर्नाटक के गन्ना किसानों पर हुए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि वहां के 10.85 लाख हेक्टेयर रकबे में उगाए जाने वाले गन्ने के लिए बहाव प्रणाली वाली खेती में सिंचाई के लिए 330 टीएमसीएफटी पानी की जरूरत होगी, जबकि इतने ही रकबे में ड्रिप सिंचाई तकनीक से महज 144 टीएमसीएफटी पानी की जरूरत होती है. पानी की 186 टीएमसीएफटी मात्रा का ही नहीं, बल्कि इस की सिंचाई में लगने वाली बिजली में 450 करोड़ रुपए की बचत का अनुमान किया गया जो कुल मिला कर 1200 मेगावाट के बराबर होगी.

अब बात पैदावार की करें तो इतने ही रकबे में फ्लड सिंचाई के जरीए प्रति हेक्टेयर 35 टन की पैदावार होती है, जबकि ड्रिप सिंचाई के जरीए 68 टन तक की पैदावार हासिल की जा सकती है. अकेले गन्ने की पैदावार में लगभग 95 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है, जिस का बाजारी कीमतों पर प्रति एकड़ कुल लाभ 65 हजार रुपए से अधिक बैठता है.

Drip Irrigation

ड्रिप सिंचाई तकनीक के लाभ : ड्रिप सिंचाई तकनीक को सब्जियों,  फलों और तमाम फसलों में बड़ी सफलता के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है. इस तकनीक में पानी के स्टोरेज टैंक से एक खास दबाव पर 2-20 लीटर प्रति घंटे की दर से पानी को जमीन की सतह पर पाइपों के जाल से पौधों के पास बने छेदों से टपकते हुए पहुंचाया जाता है. इस प्रणाली में जमीन में नमी बनाए रखने में मदद मिलती है.

ड्रिप सिंचाई प्रणाली में पानी का बेहतर इस्तेमाल ही नहीं होता, बल्कि पानी की खपत में 45 फीसदी कमी आ जाती है. उर्वरकों और कीटनाशकों को ड्रिप प्रणाली में सीधे पौधों की जड़ों तक पहुंचाया जाता है. सिंचाई के पुराने तरीकों में पोषण उपयोग क्षमता 60 फीसदी से कम रहती है, जबकि ड्रिप प्रणाली में 90 फीसदी से ज्यादा है.

आम सिंचाई में पौधों को अधिक पानी मिलने से पानी के जमीन के भीतर रिसाव से 50 फीसदी तक उर्वरक घुल कर मिट्टी के निचले स्तरों में जा पहुंचते हैं, जबकि ड्रिप प्रणाली में रिसाव के जरीए उर्वरकों की हानि महज 10 फीसदी होती है. सब से खास बात यह है कि उर्वरकों के रिसाव से जमीन के अंदर का पानी खराब होता है. ड्रिप सिंचाई से उर्वरकों की खपत में 20 फीसदी की कमी के साथ पैदावार में 20-90 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो सकती है. ड्रिप सिंचाई से किसान अपनी फसल की लागत को कम करने के साथसाथ भूमिगत जल को भी गंदा होने से बचा सकते हैं.

ड्रिप सिंचाई से पौधों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को अपनी संख्या को बढ़ाने के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिल पाता है, जिस से पौधों की सुरक्षा बढ़ती है और कीटनाशकों की खपत कम हो जाती है. नाली प्रणाली से सिंचाई करने पर पानी के बहाव के साथ मिट्टी का कटाव होता है, जबकि ड्रिप प्रणाली में मिट्टी का कटाव नहीं होता है. इस से मिट्टी की उर्वरता और उस की परतों को कोई नुकसान नहीं होता है.

ड्रिप सिंचाई प्रणाली में सिंचाई के लिए खेतों की असमान सतह होना बाधक नहीं है, जबकि नाली सिंचाई में किसानों को खेत को समतल बनाने में खर्च करना पड़ता है. ड्रिप प्रणाली में सिंचाई में मेहनत कम लगती है. ड्रिप सिंचाई के दौरान भूमि सूखी होने के कारण फसलों की तोड़ाई में परेशानी नहीं होती है.

ड्रिप सिंचाई की सुविधा और ढांचे को तैयार करने के लिए केंद्र व विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा सब्सिडी दी जाती है.

Kala Namak Rice : कालानमक धान की उन्नत किस्मों की खेती

Kala Namak Rice : कालानमक धान अपनी महक व गुणवत्ता की वजह से काफी महंगा होता है. इसीलिए कम पैदावार के बावजूद किसानों द्वारा इस की खेती की जाती है. कालानमक धान की पुरानी प्रजातियों में ज्यादा समय में कम पैदावार होती थी. इन के पौधे लंबे होने की वजह से अकसर गिर जाते थे और इन्हें पानी की भी ज्यादा जरूरत होती थी. इन्हीं वजहों से इस की खेती के रकबे में काफी कमी आ गई.

इन समस्याओं को देखते हुए भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने शोध कर के कालानमक 101, कालानमक 102 व कालानमक 103 नाम की बौनी सुगंधित व अधिक उपज देने वाली प्रजातियां विकसित की हैं. ये प्रजातियां न केवल अधिक उपज देंगी, बल्कि कम समय में तैयार भी हो जाएंगी. कालानमक की इन प्रजातियों में कुपोषण को दूर करने वाले तमाम सूक्ष्म पोषक तत्त्व मौजूद हैं, जो कुपोषण को दूर करने में बेहद कारगर सिद्ध होंगे. इन प्रजातियों में निम्नलिखित खूबियां पाई गई हैं:

* इन में आयरन 29.09 फीसदी व जिंक 31.01 फीसदी पाया जाता है, जो पहले से मौजूद खुशबूदार प्रजातियों से ज्यादा है.

* कालानमक की इन प्रजातियों में कुपोषण से लड़ने की कूवत ज्यादा होती है.

* इन का चावल सफेद व खुशबूदार होता है.

* इन की पैदावार कालानमक की पुरानी किस्मों से डेढ़ गुना ज्यादा है. इन में 20 अक्तूबर के करीब बाली आती है और नवंबर के अंत तक फसल पक कर तैयार हो जाती है. इस तरह ये पुराने कालानमक की प्रजातियों से 2 हफ्ते तक का कम समय लेती हैं.

* इन के पौधों की ऊंचाई 100 से 110 सेंटीमीटर होती है और बालियां 20-25 सेंटीमीटर तक लंबी होती हैं.

* इन्हें किसी भी साधारण कुटाई मशीन से कुटाई कर के चावल निकाला जा सकता है.

* इस चावल का औसत बाजार भाव 55-60 रुपए प्रति किलोग्राम है और इस में कुपोषण से लड़ने की कूवत होती है.

जमीन का चयन : कालानमक की इन प्रजातियों की खेती उन सभी प्रकार की जमीनों में की जा सकती है, जहां सिंचाई के साधन मौजूद हों. वैसे इन प्रजातियों के लिए दोमट, मटियार व काली मिट्टी ज्यादा मुफीद मानी जाती है.

बीज दर व नर्सरी : कालानमक की इन उन्नत प्रजातियों की 1 हेक्टेयर खेत में रोपाई के लिए 25-30 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है. इन प्रजातियों की नर्सरी को अन्य प्रजातियों के मुकाबले देर से यानी जून के आखिरी हफ्ते से जुलाई के दूसरे हफ्ते तक डालना अच्छा रहता है. 1 हेक्टेयर रकबे के लिए 800 से 1000 वर्गमीटर में नर्सरी डालना सही होता है. नर्सरी की बोआई से पहले तैयार किए गए खेत में 100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस व 50 किलोग्राम पोटाश की मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से डाली जाती है. अगर नर्सरी में जिंक या लोहे की कमी दिखाई पड़े तो 0.5 फीसदी जिंक सल्फेट व 0.2 फीसदी फेरस सल्फेट के घोल का छिड़काव करना अच्छा होता है.

Kala Dhan

प्रजातियां : भारतीय चावल अनुसंधान संस्थान (फिलीपींस) द्वारा विकसित की गई कालानमक की बौनी व अधिक उत्पादन देने वाली प्रजातियों में कालानमक 101, कालानमक 102 व कालानमक 103 को सब से ज्यादा मुफीद माना गया है. इन प्रजातियों में सब से अच्छा नतीजा कालानमक 101 का रहा है. ये तीनों प्रजातियां खुशबू से भरपूर होती हैं.

बीज शोधन : कालानमक की इन प्रजातियों को रोगों व कीड़ों से बचाने के लिए बीजों को शोधित किया जाना जरूरी होता है. जिस खेत में जीवाणु झुलसा या जीवाणु धारी रोग की समस्या पाई जाती है, वहां 25 किलोग्राम बीजों के लिए 4 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन को पानी में मिला कर उस में बीजों को रात भर भिगो देना चाहिए. दूसरे दिन नर्सरी में डालने से पहले भिगोए गए बीजों को छाया में सुखा लेना चाहिए. अगर पौधों में झुलसा की समस्या नहीं आती हो तो 25 किलोग्राम बीजों को रात भर पानी में भिगोने के बाद दूसरे दिन पानी से छान लें. इस के बाद 75 ग्राम थीरम या 50 ग्राम कार्बेंडाजिम को 8-10 लीटर पानी में घोल कर बीजों में मिला दें. इस के बाद भिगोए गए बीजों को छाया में अंकुरित कर के नर्सरी में डालें.

नर्सरी में बीजों को डालने के 21-25 दिनों के बाद अच्छी तरह से पलेवा किए गए खेत में इस की रोपाई करनी चाहिए. कालानमक की ये प्रजातियां बौनी होने की वजह से गिरती नहीं हैं. पौधों की रोपाई 3-4 सेंटीमीटर से ज्यादा गहराई पर नहीं करनी चाहिए, वरना कल्ले कम निकलते हैं और उपज कम हो जाती है. पौधों से पौधों की दूरी 2×10 सेंटीमीटर व एक स्थान पर पौधों की संख्या 2-3 रखनी चाहिए.

खाद व उर्वरक : इन प्रजातियों के लिए 1 हेक्टेयर खेत में 100-120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस व 60 किलोग्राम पोटाश की जरूरत होती है. खेत की जुताई के दौरान ही प्रति हेक्टेयर की दर से 10-15 टन गोबर की सड़ी खाद का इस्तेमाल करना उत्पादन के लिए अच्छा होता है. इसी दौरान 20-25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना अच्छा होता है.

सिंचाई : कालानमक की इन प्रजातियों को सही मात्रा में नमी की जरूरत होती है. कम बारिश की हालत में नियमित अंतरात पर सिंचाई करते रहें, ताकि खेत की नमी न सूखने पाए. वैसे कालानमक की इन प्रजातियों में 30-60 सेंटीमीटर अस्थायी पानी भी पैदावार के लिए अच्छा माना जाता है. खेत में ज्यादा पानी न लगने पाए इसलिए जलनिकासी का इंतजाम अच्छा होना चाहिए. रोपाई के 1 हफ्ते बाद कल्ले फूटने, बाली निकलने, फूल खिलने और दाना बनते समय खेत में सही मात्रा में पानी होना चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण : धान की फसल के लिए खरपतवार नियंत्रण बेहद जरूरी होता है, क्योंकि फसल में खरपतवार उग आने से पैदावार घट जाती है. धान की फसल पर रसायनों का असर कम करने के लिए खरपतवार नियंत्रण के लिए बिना रसायनों का प्रयोग किए ही यांत्रिक विधि से खरपतवार नियंत्रण किया जाना ज्यादा सही माना जाता है. इस के लिए खुरपी या पैडीवीयर का इस्तेमाल किया जा सकता है.

अगर रासायनिक विधि से खरपतवार का नियंत्रण करना है, तो चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिए ब्यूटाक्लोर 5 फीसदी ग्रेन्यूल, 30-40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर या बेंथ्योकार्ब 10 फीसदी ग्रेन्यूल 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. इस के अलावा विस्पाइरीबैक सोडियम या एनीलोफास का इस्तेमाल भी खरपतवार नियंत्रण के लिए रोपाई के 3-4 दिनों के अंदर करना चाहिए. अगर दानेदार रसायनों का इस्तेमाल किया जा रहा है, तो यह ध्यान रखना चाहिए कि खेत में काफी मात्रा में पानी भरा हो.

बीमारियां व कीट नियंत्रण : अगर धान की नर्सरी डालते समय बीजशोधन किया गया है, तो फसल में बीमारियों के लगने की संभावना नहीं होती है. धान की फसल में जिन कीटों का प्रकोप पाया जाता है, उन में दीमक, पत्ती लपेटक कीट, गंधीबग, बाली काटने वाला कीट, गोभगिडार, हरा फुदका, भूरा फुदका, सफेद पीठ वाला फुदका, हिस्पा व नरई कीट खास हैं, लेकिन कालानमक की इन प्रजातियों में इन कीटों का प्रकोप बहुत कम देखा गया है.

अगर ऊपर बताए गए कीटों का प्रकोप दिखाई पड़ता है, तो अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र के कीट रोग नियंत्रण विशेषज्ञ से संपर्क कर के कीटों पर काबू पाया जा सकता है.

उत्पादन : कालानमक की इन प्रजातियों की फसल की कटाई 85-90 फीसदी दानों के पक जाने के बाद की जाती है. काटी गई फसल की मड़ाई के लिए छायादार व हवादार जगह का चुनाव करें. इस से कुटाई के दौरान चावल के टूटने की संभावना नहीं होती है. कालानमक की इन प्रजातियों की औसत उपज 50-55 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पाई गई है. ज्यादा जानकारी के लिए किसान कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया, बस्ती के विषय वस्तु विशेषज्ञ, राघवेंद्र सिंह के मोबाइल नंबर 9415670596 या 9838070596 पर संपर्क कर सकते हैं.

Beekeeping : मधुमक्खीपालन कब, कैसे और कहां

Beekeeping : मधु यानी शहद की अहमियत हमेशा बहुत ज्यादा रही है. मीठा और स्वादिष्ठ शहद सेहत के लिहाज से बहुत अच्छा होता है. देशी दवाओं में शहद का बहुत ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है. तमाम लोग अपने रोजाना के खानपान में शहद का इस्तेमाल करते हैं. हालांकि यह थोड़ा महंगा जरूर होता है, मगर इस की खूबियां भी तो बहुत ज्यादा हैं.

मधुमक्खीपालन का मकसद

मधुमक्खीपालन का खास मकसद अपनी आमदनी में इजाफा करना होता है. फसलों के परागण के लिए भी मधुमक्खीपालन कारगर साबित होता है. मधुमक्खीपालन से फसलों की पैदावार व गुणवत्ता में भी इजाफा होता है. इस से मिलने वाला शहद खाने की पौष्टिकता बढ़ा देता है. मधुमक्खीपालन से पर्यावरण की शुद्धता की जांच भी हो जाती है. इस के अलावा मधुमक्खीपालन से तबीयत भी चौकस रहती है.

आसान काम

मधुमक्खीपालन का काम काफी आसान होता है. इस की तकनीक बेहद सरल होती है. चूंकि यह काफी आसान काम होता है, इसलिए औरतें और बच्चे भी इसे आसानी से कर सकते हैं. इस काम में पूंजीनिवेश कम होता है, लिहाजा कोई दिक्कत नहीं होती. इस में आवर्ती खर्च ?भी कम होता है. सरल होने की वजह से इसे खेती के साथसाथ बहुत आसानी से किया जा सकता है. इस काम में रोजाना देखभाल करने की जरूरत नहीं पड़ती है, इसलिए इस से दूसरे कामों में खलल नहीं पड़ता है. जिन के पास अपनी जमीन है, वे तो इसे आसानी से कर ही सकते हैं, लेकिन जिन के पास अपनी जमीन न हो उन्हें भी इस काम में दिक्कत नहीं होती है, क्योंकि इस के लिए ज्यादा जगह की जरूरत नहीं होती है.

किस तरह शुरू करें

मधुमक्खीपालन का काम शुरू करने के लिए किसी मान्यता प्राप्त संस्थान से तालीम लें. मधुमक्खीपालन के लिए मुनासिब समय अक्तूबर व नवंबर महीने हैं. मधुमक्खीपालन का काम थोड़े मौनवंशों (मधुमक्खियों) से शुरू करें और 1 साल बाद इन की तादाद बढ़ाएं.

जहां मधुमक्खीपालन करना हो, उस के 4-5 किलोमीटर के दायरे में काफी संख्या में बागबगीचे वगैरह मौजूद होने चाहिए. मधुमक्खीपालन वाली जगह के नजदीक नदी या नहर जैसे पानी के साधन मौजूद होने चाहिए. मधुमक्खीपालन के उपकरण भारतीय मानक संस्थान के मापदंडों के मुताबिक ही होने चाहिए. मधुमक्खीपालन के लिए मौनवंश (मधुमक्खियां) नजदीक वाली जगह से ही खरीदने चाहिए. दूर से मधुमक्खियां लाने में दिक्कतें हो सकती हैं.

मधुमक्खियों की प्रजातियां

मधुमक्खियों की कई प्रजातियां पाई जाती हैं. सभी प्रजातियों की अलगअलग खूबियां व खामियां होती हैं. इन की कुछ खास प्रजातियां हैं: पहाड़ी मधुमक्खी/सारंग, छोटी मधुमक्खी/ मूंगा, इटालियन मधुमक्खी और भारतीय मधुमक्खी.

भारतीय मधुमक्खी

भारतीय मधुमक्खी मिजाज से नर्म होती है. पालतू नस्ल की यह मधुमक्खी अंधेरी जगहों पर समांतर छत्ते बनाती है. इस के छत्ते घरों के आलों, चिमनियों, पेड़ों के कोटरों, खंडहरों की खोखली जगहों और गुफाओं की छतों पर पाए जाते हैं. भारत में इस मधुमक्खी की कई किस्में पाई जाती हैं.

भारतीय मधुमक्खी में अपनी हिफाजत के लिए झिलमिलाने की खूबी पाई जाती है. अपनी सुरक्षा के लिए अकसर यह घर छोड़ कर भागने से भी नहीं चूकती है. इस पर मोमी पतंगे का प्रकोप ज्यादा होता है.

पैदावार

मधुमक्खी पालने का मुख्य मकसद शहद हासिल करना होता है. शहद की औसतन पैदावार 8-10 किलोग्राम प्रति छत्ता प्रति साल होती है. शहद के अलावा मधुमक्खी से मिलने वाला दूसरा खास उत्पाद है मोम. मोम का भी हमारे दैनिक जीवन में खासा योगदान होता है. शहद व मोम के अलावा मधुमक्खी के अन्य खास उत्पाद हैं रायल जैली, प्रोपोलिस व पराग.

कीटनाशियों से बचाव

फसलों पर छिड़के जाने वाले कीटनाशी मधुमक्खियों के लिए काफी घातक साबित होते हैं, लिहाजा उन से मधुमक्खियों का बचाव करना बहुत जरूरी है. अगर मधुमक्खीपालन कर रहे हों तो अपनी फसलों के लिए ऐसे कीटनाशियों का इस्तेमाल करें, जो मधुमक्खियों के लिए खतरनाक न हों. कीटनाशियों के चुनाव के मामले में आप कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक की मदद ले सकते हैं.

चूंकि मधुमक्खियां फूलों से रस लेती हैं, लिहाजा फूल आने के दौरान फसलों पर कीटनाशियों का छिड़काव या बुरकाव न करें. कीटनाशियों का छिड़काव या बुरकाव शाम के वक्त ही करें, क्योंकि उस दौरान मधुमक्खियां सक्रिय नहीं रहती हैं. दवाओं के छिड़काव या बुरकाव के दौरान अपनी मधुमक्खियों के डब्बों को बंद कर दें. अगर मुमकिन हो तो मधुमक्खियों को कीटनाशी के छिड़काव वाली जगह से दूर ले जाएं. जहां तक मुमकिन हो, दवाओं का हवाई छिड़काव न करें.

Lac Insect : ‘राष्ट्रीय लाख कीट दिवस’ का आयोजन

Lac Insect : राजस्थान कृषि महाविद्यालय, उदयपुर के कीट विज्ञान विभाग में लाख कीट आनुवंशिक संरक्षण पर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) द्वारा प्रायोजित नेटवर्क परियोजना के तहत चौथा ‘राष्ट्रीय लाख कीट दिवस’ मनाया गया. इस मौके पर लाख संसाधन उत्पादन पर ‘एकदिवसीय छात्र संवाद सहप्रशिक्षण कार्यशाला’ का आयोजन किया गया और इस में कृषि संकाय के स्नातक, स्नातकोत्तर और पीएचडी के 125 से अधिक छात्रों ने हिस्सा लिया.

इस मौके पर परियोजना अधिकारी डा. हेमंत स्वामी ने लाख कीट के जीवनचक्र एवं उन के पोषक वृक्ष लाख की खेती कैसे की जाए व किसान अपनी आय को कैसे बढ़ा सकते हैं, के बारे में जानकारी दी.

इस कार्यशाला में डा.एमके महला, प्रोफैसर, कीट विज्ञान ने सौंदर्य प्रसाधन, भोजन, फार्मास्यूटिकल्स, इत्र, वार्निश, पेंट, पौलिश, आभूषण और कपड़ा रंगाई जैसे उद्योगों में लाख और इस के उपउत्पादों यानी राल, मोम और डाई के उपयोग के बारे में बताया. साथ ही, उन्होंने विभिन्न मेजबान पौधों पर लाख कीट की वैज्ञानिक खेती के लिए उन्नत तकनीकों के बारे में भी जानकारी दी.

16 मई से 22 मई तक ‘उत्पादक कीट संरक्षण सप्ताह’ और ‘राष्ट्रीय लाख कीट दिवस’ के अवसर पर डा. अमित त्रिवेदी, क्षेत्रीय निदेशक अनुसंधान, डा. वीरेंद्र सिंह, प्रोफैसर, उद्यान विभाग और डा. रमेश बाबू, विभागाध्यक्ष, कीट विज्ञान विभाग ने इन उत्पादक कीड़ों के संरक्षण, परागणकों, भौतिक डीकंपोजर, जैव नियंत्रण एजेंटों आदि के रूप में प्राकृतिक जैव विविधता की सुरक्षा में उन की भूमिका पर प्रकाश डाला. साथ ही, यह भी बताया कि कैसे स्थानीय किसानों के बीच लाख की खेती को लोकप्रिय बनाना है और प्रोत्साहित करना है, क्योंकि जहां लाख की खेती छोड़ दी गई है, वहां निवास स्थान नष्ट हो गए हैं, वहां लाख के कीट और संबंधित जीवजंतु लुप्त हो गए हैं.

इस आयोजन के दौरान कीट पर निबंध प्रतियोगिता व प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता का आयोजन किया गया व विजेताओं को प्रमाणपत्र वितरित किए गए.