जलवायु परिवर्तन पर बैठक में भारत की भागीदारी

नई दिल्ली: 28 नवंबर, 2023. जलवायु परिवर्तन पर यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन औन क्लाडइमेट चेंज (सीओपी-28) की बैठक 30 नवंबर से 12 दिसंबर, 2023 तक दुबई में होगी. केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने इस बैठक में भारतीय शिष्टमंडल की भागीदारी के लिए चल रही तैयारियों के साथ ही कृषि क्षेत्र में कार्बन क्रेडिट की क्षमता की समीक्षा की.

उन्होंने बताया कि मंत्रालय द्वारा बैठक में अंतर्राष्ट्रीय मंच पर जलवायु अनुकूल श्रीअन्न, प्राकृतिक खेती, मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन, जलवायु अनुकूल गांवों के वैश्विक महत्व समेत देश की उपलब्धियां साइड इवेंट्स में प्रदर्शित होंगी.

केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने आगे कहा कि कृषि को जलवायु परिवर्तन के मुताबिक किया जाना चाहिए, ताकि किसान समुदाय इस से फायदा ले सकें. उन्होंने जोर दे कर कहा कि भारत जैसा अत्यधिक आबादी वाला देश मीथेन की कटौती की आड़ में खाद्य सुरक्षा पर समझौता नहीं कर सकता है.

समीक्षा बैठक में केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण सचिव मनोज अहूजा ने मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को सीओपी बैठक के महत्व, जलवायु परिवर्तन व भारतीय कृषि पर लिए गए निर्णयों के प्रभाव के बारे में जानकारी दी.

मंत्रालय के एनआरएम डिवीजन के संयुक्त सचिव फ्रैंकलिन एल. खोबुंग ने खाद्य सुरक्षा पहलुओं और भारतीय कृषि की स्थिरता के संबंध में जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर ऐतिहासिक निर्णयों और भारत के रुख पर विवरण प्रस्तुत किया.

बैठक में डेयर के सचिव एवं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के महानिदेशक डा. हिमांशु पाठक ने भी अधिकारियों के साथ हिस्सा लिया.

संयुक्त सचिव (एनआरएम) ने कार्बन क्रेडिट के महत्व को भी प्रस्तुत किया, जो जलवायु अनुकूल टिकाऊ प्रथाओं को अपनाने के माध्यम से खेती में पैदा किया जा सकता है. राष्ट्रीय सतत् कृषि मिशन के अंतर्गत कृषि वानिकी, सूक्ष्म सिंचाई, फसल विविधीकरण, राष्ट्रीय बांस मिशन, प्राकृतिक व जैविक खेती, एकीकृत कृषि प्रणाली आदि जैसे अनेक उपायों का आयोजन किया गया है. मिट्टी में कार्बन को अनुक्रमित करने की क्षमता है, जिस से जीएचजी व ग्लोबल वार्मिंग में योगदान कम हो जाता है.

मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने सुझाव दिया कि कार्बन क्रेडिट का लाभ कृषि विज्ञान केंद्रों (केवीके), राज्य कृषि विश्वविद्यालयों, राष्ट्रीय बीज निगम के बीज फार्मों और आईसीएआर संस्थानों में मौडल फार्मों की स्थापना के माध्यम से किसानों तक पहुंचना चाहिए.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि केवीके को किसान समुदाय के बीच जागरूकता पैदा करने में भी शामिल होना चाहिए, ताकि किसानों की आमदनी बढ़ाई जा सके. कार्बन क्रेडिट, किसानों को सतत् कृषि का अभ्यास करने में प्रोत्साकहन के लिए एक महत्वपूर्ण पहल हो सकती है. ऐसे कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिए कार्बन क्रेडिट की जानकारी वाले किसानों को साथ लिया जा सकता है.

केले के रोग व प्रबंधन

केला एक महत्त्वपूर्ण फल है, जो दुनियाभर में पसंद किया जाता है, लेकिन इस की फसलें बीमारियों के प्रति संवेदनशील हो सकती हैं. इन बीमारियों की वजह से केले की पूरी फसल को नुकसान पहुंच सकता है, जिस से किसानों को माली नुकसान हो सकता है. आंखों से न दिखने वाले बहुत ही छोटे कण यानी सिलिकौन नैनोपार्टिकल्स कैसे केलों में बीमारियों का प्रबंधन करने में मदद कर सकते हैं, आइए जानते हैं.

खेती वाली फसलें रोग लग जाने से काफी प्रभावित होती हैं, जिस से उपज और उत्पादकता कम हो जाती है. यद्यपि, अदरक की नरम सड़न को कम करने के लिए कैमिकल कवकनाशी का उपयोग एक प्रभावी तरीका माना जाता है, लेकिन उन के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल से इनसान और पर्यावरणीय नजरिए से दोनों के लिए एक महत्वपूर्ण खतरा है. बागबानी पौधे सक्रिय रूप से रोग प्रबंधन विधियों पर रिसर्च का काम कर रहे हैं, जो फसल कटाई के बाद होने वाली बीमारियों के नियंत्रण के लिए सिंथेटिक कैमिकल फफूंदनाशकों की जगह ले सकते हैं.

केले की बीमारियां

केले में कई तरह की बीमारियां पाई जाती हैं जैसे पनामा, ब्लैक स्पौट, सिगमा ब्लाइट आदि. इन बीमारियों के चलते केले की पत्तियां पीली हो जाती हैं. बाद में केला पूरी तरह से खराब हो जाता है. केला दागदार हो जाता है.

संरक्षण: सिलिकौन पौधों को विभिन्न प्रकार की बीमारियों, कीटों और जलवायु परिस्थितियों से संरक्षित रखने में मदद करता है.

स्ट्रक्चरल समर्थन : यह पौधों को स्ट्रक्चरल समर्थन देता है, जिस से वे अच्छी तरह से खड़े रह सकते हैं.

जल संचयन : पौधों के तने में जल संचित करने में यह मदद करता है, जिस से पौधों की स्थिति सुधरती है. साथ ही, यह जल संचयन में मदद करता है.

कीट प्रबंधन : सिलिकौन की उपस्थिति कुछ पौधों को कीटों से बचाने में मदद करती है, क्योंकि यह कीटों को ताकत देता है.

उपज में इजाफ

सिलिकौन पौधों की उपज को बढ़ावा देता है, जिस से उन की उपज में इजाफा होता है और उन की क्वालिटी भी सुधरती है.

सिलिकौन पौधों के लिए एक महत्त्वपूर्ण मिनरल होता है, जो उन के स्वस्थ विकास और सुरक्षा में मदद करता है. यह एक पौधों के लिए जरूरी तत्त्व होता है, जो उन के प्रतिरक्षा तंतु को मजबूती देता है.

सिलिकौन नैनोपार्टिकल्स यानी सूक्ष्म कणों का काम

जब आप इन्हें केले के पौधों पर लागू करते हैं, तो वे पौधों की सतह पर जम जाते हैं और इन्हें बीमारियों के प्रति सुरक्षित रखते हैं. यह उन्हें बीमारियों के हमले से बचाता है और उन की फसल की क्वालिटी को बनाए रखने में मदद करता है.

सिलिकौन का उपयोग : सिलिकौन नैनोपार्टिकल्स यानी सूक्ष्म कणों का उपयोग केलों की बीमारियों के खिलाफ  लड़ाई में किया जा सकता है. इन सूक्ष्म कणों के छोटे आकार और विषेष गुणधर्म कार्यकारी रूप से केले के पौधों की सतह पर जम जाते हैं और उन्हें बीमारियों के हमले से बचाते हैं. इस के अलावा सिलिकौन केले के पौधों को मजबूती देने और बढवार में मदद कर सकते हैं.

फायदे

बीमारियों के खिलाफ  सुरक्षा : सिलिकौन नैनोपार्टिकल्स यानी बहुत ही सूक्ष्म कणों का उपयोग केले के पौधों को बीमारियों के प्रति सुरक्षित रूप से रख सकता है, जिस से पूरी किस्म को नुकसान नहीं होगा.

केले की क्वालिटी में सुधार : सिलिकौन नैनो कण के प्रयोग से केले के फलों की क्वालिटी में सुधार हो सकता है, जिस से उन का बाजार मूल्य भी बढ़ सकता है.

उपज में इजाफा : सिलिकौन नैनो कण के प्रयोग से केले की उपज में इजाफा हो सकता है, जो किसानों को ज्यादा आमदनी हासिल करने में मदद करेगा.

सिलिकौन नैनो कणों का उपयोग केले की बीमारियों के प्रबंधन में एक कारगर उपाय हो सकता है. इस के जरीए केले के पौधों को सुरक्षित रूप से रख सकते हैं और उन की उपज को बढ़ा सकते हैं. यह तकनीकी आने वाले समय में किसानों के लिए खासा उपयोगी हो सकती है.

भारतीय गन्ना सब से महंगा

नई दिल्ली: अंतर्राष्ट्रीय चीनी संगठन (आईएसओ) ने अपनी 63वीं परिषद बैठक में घोषणा की कि भारत वर्ष 2024 के लिए संगठन का अध्यक्ष होगा. इस संगठन का मुख्यालय लंदन में है. वैश्विक चीनी क्षेत्र का नेतृत्व करना देश के लिए एक बड़ी उपलब्धि है और यह इस क्षेत्र में देश के बढ़ते कद को दर्शाता है.

आईएसओ परिषद बैठक में भाग लेते हुए भारत के खाद्य सचिव संजीव चोपड़ा ने कहा कि भारत 2024 में आईएसओ की अपनी अध्यक्षता की अवधि के दौरान सभी सदस्य देशों से समर्थन और सहयोग चाहता है और गन्ने की खेती, चीनी और इथेनाल उत्पादन में अधिक टिकाऊ प्रथाओं को अपनाने और उपउत्पादों के बेहतर उपयोग के लिए सभी सदस्य देशों को एकसाथ लाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहता है.

भारत दुनिया में चीनी का सब से बड़ा उपभोक्ता और दूसरा सब से बड़ा उत्पादक देश रहा है. वैश्विक चीनी खपत में लगभग 15 फीसदी हिस्सेदारी और चीनी के लगभग 20 फीसदी उत्पादन के साथ, भारतीय चीनी रुझान वैश्विक बाजारों को बहुत प्रभावित करते हैं. यह अग्रणी स्थिति भारत को अंतर्राष्ट्रीय चीनी संगठन (आईएसओ) का नेतृत्व करने के लिए सब से उपयुक्त राष्ट्र बनाती है, जो चीनी और संबंधित उत्पादों पर शीर्ष अंतर्राष्ट्रीय निकाय है. इस के लगभग 90 देश सदस्य हैं.

चीनी बाजार में विश्व के पश्चिमी गोलार्ध में ब्राजील तो पूर्वी गोलार्ध में भारत अग्रणी है. अब, अमेरिका और ब्राजील के बाद इथेनाल उत्पादन में दुनिया का तीसरा सब से बड़ा देश होने के नाते भारत ने हरित ऊर्जा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और घरेलू बाजार में अधिशेष चीनी की चुनौतियों को जीवाश्म ईंधन आयात के समाधान में बदलने की क्षमता दिखाई है और इसे सीओपी 26 लक्ष्यों को पूरा करने के लिए एक उपकरण के रूप में पेश किया है.

उल्लेखनीय है कि भारत में इथेनाल मिश्रण साल 2019-20 में 5 फीसदी से बढ़ कर साल 2022-23 में 12 फीसदी हो गया है, जबकि इसी अवधि के दौरान उत्पादन 173 करोड़ लिटर से बढ़ कर 500 करोड़ लिटर से अधिक हो गया है.

भारतीय चीनी उद्योग ने पूरे व्यापार मौडल को टिकाऊ और लाभदायक बनाने के लिए इस के आधुनिकीकरण और विस्तार के साथसाथ अतिरिक्त राजस्व धाराओं का सृजन करने के लिए अपने सहउत्पादों की क्षमता के दोहन के लिए विविधीकरण में एक लंबा सफर तय किया है. इस ने कोविड महामारी के दौरान अपनी मिलों का संचालन कर के अपनी मजबूती साबित की है, जबकि देश लौकडाउन का सामना कर रहा था और देश में मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त हैंड सैनिटाइजर का उत्पादन कर के आगे बढ़ रहा था.

भारत को अपने किसानों के लिए उच्चतम गन्ना मूल्य का भुगतानकर्ता होने का एक अनूठा गौरव प्राप्त है और अब भी यह बिना किसी सरकारी वित्तीय सहायता के आत्मनिर्भर तरीके से काम करने और लाभ कमाने में पर्याप्त रूप से सक्षम है. सरकार और चीनी उद्योग के बीच तालमेल ने भारतीय चीनी उद्योग को फिर से जीवंत करना और देश में हरित ऊर्जा में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में बदलना संभव बना दिया है. किसानों के लंबित गन्ना बकाए का युग अब बीते जमाने की बात हो गई है.

पिछले सीजन 2022-23 के 98 फीसदी से अधिक गन्ना बकाया का भुगतान पहले ही किया जा चुका है और पिछले गन्ना मौसम के 99.9 फीसदी से अधिक गन्ना बकाया का भुगतान हो चुका है. इस प्रकार, भारत में गन्ना बकाया लंबित राशि अब तक के सब से निचले स्तर पर है.

भारत ने न केवल किसानों और उद्योग का ध्यान रख कर, बल्कि उपभोक्ताओं को भी आगे रख कर मिसाल कायम की है. घरेलू चीनी खुदरा कीमतें स्थिर हैं. जहां वैश्विक कीमतें एक वर्ष में लगभग 40 फीसदी बढ़ जाती हैं, वहीं भारत चीनी उद्योग पर अतिरिक्त बोझ डाले बिना पिछले साल से 5 फीसदी की वृद्धि के भीतर चीनी की कीमतों को नियंत्रित करने में सक्षम रहा है.

तकनीकी पक्ष पर भी, राष्ट्रीय चीनी संस्थान, कानपुर ने अपना विस्तार किया है और इस क्षेत्र में नवीनतम प्रौद्योगिकियों और सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करने के लिए इंडोनेशिया, नाईजीरिया, मिस्र, फिजी सहित कई देशों के साथ सहयोग कर रहा है.

कई देशों को भेजा जाएगा काजू

भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय के अधीन एक संगठन, कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद विकास प्राधिकरण (एपीडा) ने निर्यात सुविधा प्रदाता के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 23 नवंबर, 2023 को राष्ट्रीय काजू दिवस पर बंगलादेश, कतर, मलयेशिया और अमेरिका के लिए अपने काजू निर्यात को झंडी दिखा कर रवाना किया. बंगलादेश को ओडिशा से काजू की अब तक की पहली खेप प्राप्त होगी.

कोटे डी आइवर के बाद, भारत 15 फीसदी से ज्यादा की हिस्सेदारी के साथ काजू का दूसरा सब से बड़ा उत्पादक और निर्यातक है, इस के बाद विश्व के काजू निर्यात में वियतनाम का स्थान है. भारत के शीर्ष निर्यात देश संयुक्त अरब अमीरात, नीदरलैंड, जापान और सऊदी अरब हैं. महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक और तमिलनाडु भारत के प्रमुख काजू उत्पादक राज्य हैं. भारत मुख्य रूप से काजू गिरी को थोड़ी मात्रा में काजू शैल तरल और कार्डानोल के साथ निर्यात करता है.

यूएई और नीदरलैंड के भारतीय काजू के लिए शीर्ष निर्यात गंतव्य बने रहने के साथ, एपीडा जापान, सऊदी अरब, ब्रिटेन, स्पेन, कुवैत, कतर, अमेरिका और यूरोपीय देशों आदि के अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में काजू के लिए नए बाजारों की खोज करने की दिशा में काम कर रहा है.

एपीडा ने अपने क्षेत्रीय कार्यालयों के साथ संयुक्त रूप से काजू एसोसिएशन, निर्यातकों और हितधारकों के सहयोग से 7 राज्यों में राष्ट्रीय काजू दिवस मनाने के लिए कार्यक्रम आयोजित किए. इस आयोजन में विविध प्रकार के कार्यकलाप शामिल थे, जैसे काजू के हितधारकों के साथ बातचीत सत्र, नेटवर्किंग के लिए प्लेटफार्म, जानकारी साझा करना और उद्योग के रुझानों व इस सैक्टर में आने वाली चुनौतियों पर चर्चा.

काजू उद्योग के हितधारकों, निर्यातकों और क्षेत्र से जुड़े उत्साही लोगों के एकजुट होने के इस कार्यक्रम में एपीडा के अध्यक्ष अभिषेक देव ने राष्ट्रीय काजू दिवस मनाने के लिए प्रतिभागियों को संबोधित किया और कहा, “आज एपीडा के हमारे विभिन्न क्षेत्रीय कार्यालय न केवल समारोह मनाने बल्कि वृद्धि रुझानों, उत्पादन, निर्यात रणनीतियों और काजू क्षेत्र के सामने आने वाली चुनौतियों पर सार्थक चर्चा में शामिल होने के लिए भी एकत्र हुए हैं.”

काजू उत्पादों की मांग बढ़ रही है और उद्योग को विकसित और फलतेफूलते देखना एक सुखद क्षण है. यह बढ़ोतरी किसानों, प्रोसैसरों और निर्यातकों की कड़ी मेहनत का प्रमाण है.

एपीडा के अध्यक्ष अभिषेक देव ने किसानों और काजू उत्पादकों की सराहना की, उन्हें प्रोत्साहित किया और कहा, “किसानों ने काजू के बढ़ते उत्पादन में योगदान देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. गुणवत्तापूर्ण और टिकाऊ कृषि पद्धतियों के प्रति उन की प्रतिबद्धता ने न केवल उद्योग के मानकों को ऊंचा किया है, बल्कि हमें वैश्विक बाजार में प्रमुख देशों के रूप में भी स्थापित किया है.”

जैसे ही काजू और इस का उत्पाद एपीडा के दायरे में आया है, इस ने आधुनिकीकरण और प्रोसैसिंग की सुविधाओं, लौजिस्टिक, गुणवत्ता के रूप में उद्योग के सामने आने वाले विभिन्न मुद्दों और चुनौतियों का समाधान करने और कड़ी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के लिए काजू क्षेत्र के हितधारकों के साथ जुड़ना आरंभ कर दिया है.

यह कार्यक्रम देश के सभी काजू उत्पादक क्षेत्रों में काजू क्षेत्र के हितधारकों के साथ जुड़ने का एक ऐसा मंच था और एपीडा विश्व काजू व्यापार में अपनी स्थिति फिर से हासिल करने के लिए इस तरह की पहल में तेजी लाएगा.

भविष्य में एपीडा काजू उद्योग के आटोमेशन में हस्तक्षेप कर सकता है. पेशेवरों का प्रशिक्षण, काजू प्रोसैसिंग इकाइयों का रजिस्ट्रेशन और मूंगफली की तरह काजू के लिए भी एक ट्रेसेबिलिटी प्रणाली तैयार की जाएगी. एपीडा हितधारकों तक काजू से संबंधित जानकारी प्रसारित करेगा. एपीडा लगातार नवोन्मेषी तरीकों की खोज करने, प्रौद्योगिकी का लाभ उठाने और व्यापार संबंधों को सुदृढ़ बनाने के लिए समर्पित है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भारतीय काजू उत्पाद दुनिया के हर कोने तक पहुंच सके.

गेहूं बीज : प्राकृतिक आपदा में भी लहलहाएगी फसल

बेमौसम बारिश, आंधी, तूफान, ओला जैसी प्राकृतिक आपदा आने पर सब से पहले इस का फसलों पर बुरा असर पड़ता है. हरीभरी लहलहानी खड़ी फसल तबाह हो जाती है और किसानों की महीनों की मेहनत पर पानी फिर जाता है. लेकिन अब गेहूं फसल लेने वाले किसानों के लिए गेहूं की एक खास विकसित प्रजाति मौजूद है, जिसे राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत किसान प्रकाश सिंह रघुवंशी ने विकसित किया है. गेहूं की यह नई प्रजाति कुदरत-9 है, जिस के बारे में उन का कहना है कि प्राकृतिक आपदा की स्थिति में भी गेहूं की फसल लहलहाती दिखाई देगी. फसल पर न तो आंधीतूफान का असर होगा, न ही अधिक बारिश व पाले से कोई नुकसान. उलटे इतना सब झेलने के बाद भी प्रति एकड़ अधिकतम 28 से 32 क्विंटल तक का उत्पादन होगा. किसानों को यह अजूबा लग सकता है, मगर यह सच है.

उत्तर प्रदेश के छोटे से गांव टडि़या, जिला वाराणसी के प्रगतिशील किसान प्रकाश सिंह रघुवंशी द्वारा तैयार देशी बीज की इन्हीं विशेषताओं के कारण जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर के वैज्ञानिकों ने गेहूं कुदरत-9 देशी बीज को दूसरे प्रचलित बीजों की अपेक्षा बेहतर बता कर अधिक उत्पादन के साथ मानव स्वास्थ्य के लिए सेहतमंद प्रजाति का प्रमाणीकरण भी दिया है. किसानों की तरक्की के रास्ते खोलने वाले किसान प्रकाश सिंह रघुवंशी को पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया है.

पेटेंट प्रजाति कुदरत-9

प्रकाश सिंह रघुवंशी ने इस खास प्रजाति कुदरत-9 बीज का पेटेंट भी करा दिया है. शायद वे देश के पहले ऐसे किसान हैं, जिन के बीज का पेटेंट भारत सरकार ने किया है.

‘अपनी खेती अपनी खाद, अपना बीज अपना स्वाद’ का नारा देने वाले किसान प्रकाश सिंह रघुवंशी महज कक्षा 8वीं जमात तक ही पढ़े हैं. देशभर के किसानों को वे बीते 15 सालों से जागरूक करने के अभियान में लगे हुए हैं. उन का मकसद है कि देश का हर किसान बीज के मामले में आत्मनिर्भर बने.

क्या हैं खासीयतें : गेहूं की नई विकसित प्रजाति कुदरत 9 को जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के प्राचार्य साइंटिस्ट आरएस शुक्ला द्वारा प्रमाणित अनुसंधान रिपोर्ट में गेहूं कुदरत-9 बीज से तैयार हुई फसल के 1,000 दानों का वजन महज 48 ग्राम रहा, जबकि दूसरे स्थान पर सब से प्रचलित बीज जीडब्ल्यू-366 (सी) प्रजाति में इतने ही दानों का वजन 46 ग्राम निकला है. कुदरत शृंखला के बीज कुदरत-5 व कुदरत-8 बीजों का परीक्षण का परिणाम भी दूसरी प्रजाति की अपेक्षा बेहतर है.

उत्पादन में सब से आगे : गेहूं की नई किस्म कुदरत-9 बीज का उपयोग करने पर प्रति हेक्टेयर उत्पादन 6 हजार, 777 किलोग्राम बताया गया है, वहीं दूसरे स्थान पर रहे जीडब्ल्यू-366 (सी) में प्रति हेक्टेयर उत्पादन 6 हजार, 722 किलोग्राम ही रहा है. साथ ही, गेहूं की बालियों की लंबाई प्रतिद्वंदी बीज 98 सैंटीमीटर के मुकाबले 100 सैंटीमीटर रही हैं. बालियों की तादाद भी 20 फीसदी अधिक मिली है.

किसान ही बने उत्पादक : बातचीत में किसान प्रकाश सिंह रघुवंशी ने बताया कि ‘रघुवंशी एग्रीकल्चर रिसर्च और्गेनाइजेशन’ नाम से गठित संस्था के माध्यम से वे अरहर, धान व सभी प्रकार की दालों के बीज भी तैयार कर रहे हैं. धान के बीज की प्रजाति कुदरत-3 प्रति हेक्टेयर 80 क्विंटल का उत्पादन तक दे रही है.

इस के अलावा वे किसानों के लिए सौसौ ग्राम के बीज के पैकेट बना कर भी किसानों को फ्री में बांटते हैं, जिस से किसान उन बीजों को लगा कर अपना बीज खुद तैयार कर सकें.

अधिक जानकारी के लिए प्रकाश सिंह रघुवंशी के मोबाइन नंबर : 9793153755 पर किसान फोन कर सकते हैं.

विदेश में ट्रेनिंग करेंगे छात्र

हिसार: चैधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के 10 विद्यार्थियों का पौलेंड के वारसा विश्वविद्यालय में प्रशिक्षण के लिए चयन हुआ है. ये विद्यार्थी उपरोक्त विश्वविद्यालय में कृषि, गृह विज्ञान और मत्स्य विज्ञान के क्षेत्रों में नवीन प्रौद्योगिकियों, नवाचारों आदि बारे व्यावहारिक जानकारी प्राप्त करेंगे.

विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीार काम्बोज ने पौलेंड में प्रशिक्षण के लिए चयनित विद्यार्थियों को बधाई दी. उन्होंने कहा कि यह विश्वविद्यालय में शिक्षा व शोध में अपनाए जा रहे उच्च मानकों का परिणाम है. अब तक इस विश्वविद्यालय के अनेक विद्यार्थी उच्च शिक्षा व प्रशिक्षणों के लिए विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में जा चुके हैं.

कृषि महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. एसके पाहुजा ने बताया कि विद्यार्थियों का चयन राष्ट्रीय कृषि उच्च शिक्षा परियोजना (एनएएचईपी-आईडीपी) के तहत अंतर्राष्ट्रीय संगठन में छात्र विकास कार्यक्रम की प्रक्रिया के अंतर्गत परीक्षा और साक्षात्कार के आधार पर हुआ है.

उन्होंने आगे यह भी बताया कि हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय की ओर से प्रशिक्षण अवधि के दौरान वीजा, आनेजाने का किराया, मैडिकल इंश्योरेंस आदि के लिए भत्ता दिया जाएगा. उन्होंने जानकारी देते हुए बताया कि इन चयनित विद्यार्थियों में कृषि महाविद्यालय, हिसार के तृतीय वर्ष के छात्र सुशांत नागपाल, चतुर्थ वर्ष की छात्रा निधि व विशाल, कृषि महाविद्यालय, बावल से मुनीश व नैनसी, कृषि महाविद्यालय कौल से हरितिमा व अंजू, सामुदायिक विज्ञान महाविद्यालय से ममता व मुस्कान और मत्स्य विज्ञान महाविद्यालय से अमित शामिल हैं.

इस अवसर पर चयनित विद्यार्थियों ने कुलपति प्रो. बीआर काम्बोज के मार्गदर्शन में चलाई जा रही आईडीपी परियोजना के प्रमुख अन्वेषक व स्नातकोत्तर शिक्षा अधिष्ठाता डा. केडी शर्मा व अंतर्राष्ट्रीय मामलों के संयोजक डा. अनुज राणा का आभार जताया.

इस अवसर पर मानव संसाधन प्रबंधन निदेशालय की निदेशक डा. मंजु मेहता, अंतर्राष्ट्रीय सेल की प्रभारी डा. आशा कवात्रा व मीडिया एडवाइजर डा. संदीप आर्य उपस्थित रहे.

लीक की खेती

हरा प्याज की एक किस्म लीक को कंदीय फसल भी कहा जाता है. लेकिन इस की जड़ या कंद छोटा होता है. इसे अलग कर के प्रयोग में नहीं लाते हैं इसलिए यह फसल गैरकंदीय और द्विवार्षिक  है.

यूरोपीय देशों की यह एक प्रमुख फसल है, लेकिन अब इसे भारत में गृहवाटिका, फार्महाउस और कुछ प्रगतिशील किसान अपने खेत में भी उगाने लगे हैं.

लीक प्याज समूह व प्रजाति की फसल में आती है जो शरदकालीन मौसम को ज्यादा पसंद करती है. इस की गांठें ज्यादा नहीं बनती हैं और पत्तियां लंबी लहसुन की तरह होती हैं. इस का तना सफेद व पत्ते चौडे़, सीधे व नुकीले होते हैं.

लीक का इस्तेमाल ज्यादातर बड़ेबडे़ होटलों, रैस्टोरैंट वगैरह में होता है. लेकिन आजकल विदेशों से भारत में घूमने आने वाले लोग भी इसे सूप, सलाद व सब्जी के रूप में इस्तेमाल करते हैं. इस में विटामिन, कैल्शियम, लोहा औैर खनिज व लवण प्रचुर मात्रा में मिलते हैं.

भूमि व जलवायु

लीक की फसल या खेती के लिए दोमट या हलकी बलुई दोमट जीवांश वाली जमीन सब से बढि़या रहती है. इस का पीएच मान 6.0-7.0 के बीच का उत्तम होता है.

यह फसल ठंडी जलवायु को ज्यादा पसंद करती है. ज्यादा ठंड जो लंबे समय तक रहे, तो अधिक बढ़वार होती है. 20 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान सब से अच्छा माना गया है, लेकिन अंकुरण के लिए 35 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान उचित रहता है.

खेत की तैयारी

खेत की तैयारी के लिए मिट्टी पलटने वाले हल या ट्रैक्टर हैरो से 2-3 जुताई करें जिस से सभी तरह की घास सूख कर खत्म हो जाए और मिट्टी बारीक हो जाए. 1-2 जुताई और कर के खेत को अच्छी तरह भुरभुरा कर के तैयार कर लेना चाहिए. खेत में घास व ढेले नहीं रहने चाहिए.

Leekउन्नत किस्में

लीक की कुछ प्रमुख किस्में, जो इस प्रकार हैं :

* प्राइज टेकर मसूल वर्ण.

* अमेरिकन फ्लैग.

* लंदन फ्लैग.

* मैमथ-कोलोसल और दूसरी लोकल किस्में वगैरह.

बीज की मात्रा

लीक के बीज की मात्रा मौसम पर निर्भर करती है. वैसे, उचित समय बोने पर 5-6 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की जरूरत पड़ती है.

बोआई का समय और पौध तैयार करना

लीक के बीज की बोआई का उचित समय मध्य सितंबर से मध्य अक्तूबर माह तक रहता है. लेकिन इसे नवंबर माह तक लगाया जाता है. पहाड़ी इलाकों में मार्चअप्रैल माह में बोआई करना उचित रहता है.

लीक के बीजों द्वारा पौध तैयार करें. पौधशाला में बीज की बोआई कर के उचित खाद डाल कर क्यारियों में बोना चाहिए. बीज की पंक्तियों में 4-5 सैंटीमीटर और बीज से बीज की दूरी 1-2 मिलीमीटर रखनी चाहिए.

बीज बोने के बाद पंक्तियों में बारीक पत्ती की खाद डाल कर बीज को ढकें और नमी कम होने पर हलकी सिंचाई करते रहें. इस तरह से 10-12 दिन में बीज अंकुरित हो जाते हैं और पौधे 25-30 दिन बाद रोपाई के लायक हो जाते हैं.

खाद व उर्वरक की मात्रा

गोबर की सड़ी खाद 8-10 टन प्रति हेक्टेयर और नाइट्रोजन 100 किलोग्राम, फास्फोरस 80 किलोग्राम और पोटाश 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर दें. गोबर की खाद की मात्रा को खेत की जुताई के समय मिलाएं और नाइट्रोजन, यूरिया या सीएएन, जिस की आधी मात्रा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा आखिरी जुताई के समय दें या फिर खेत में भलीभांति मिलाएं.

यूरिया या सीएएन की बाकी बची मात्रा को 2-3 बराबर हिस्सों में बांट कर रोपाई के 20-25 दिन के अंतराल पर तीनों मात्राओं को फसल में टौप ड्रैसिंग के रूप में दें और दूसरी सारी क्रियाएं भी अच्छी तरह पूरी करते रहें.

रोपाई की विधि और पौधों की दूरी

जब पौध 8-10 सैंटीमीटर ऊंची हो जाएं तो क्यारियों में रोपना चाहिए. क्यारियों में पौधों को पंक्ति में लगाएं. इन पंक्तियों की आपस की दूरी 30 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 15 सैंटीमीटर  रखनी चाहिए. पौधों की रोपाई हलकी नाली बना कर भी कर सकते हैं. पौधों को शाम 3-4 बजे से रोपना शुरू करें और रोपने के बाद हलकी सिंचाई जरूर करें. पौधों की जड़ को 8-10 सैंटीमीटर गहरी जरूर दाबें, जिस से पौधे सिंचाई के पानी से न उखड़ पाएं.

सिंचाई

पहली सिंचाई पौध रोपने के बाद करें और दूसरी सिंचाई 10-12 दिन के अंतराल से करते रहें. इस तरह से 10-12 सिंचाई की जरूरत पड़ती है. जब जमीन की ऊपरी सतह सूखने लगे, तो सिंचाई करनी चाहिए.

निराईगुड़ाई

लीक की निराईगुड़ाई दूसरी फसलों की तरह की जाती है. दूसरी सिंचाई के बाद खेत में जंगली पौधे उग आते हैं. इन का निकालना बेहद जरूरी है. इन को निराईगुड़ाई द्वारा खत्म किया जा सकता है. इस तरह से 2-3 निराईगुड़ाई की पूरी फसल में जरूरत पड़ती है.

इसी प्रक्रिया को जिस में जंगली पौधे या खरपतवार नष्ट हो जाते हैं, उसे खरपतवार नियंत्रण कहते हैं. मुख्य फसल के अलावा दूसरे सभी खरपतवार को हटाया जाता है.

कीट व बीमारियां

इस फसल पर कीट व बीमारियां ज्यादा नहीं लगतीं लेकिन कुछ कीट एफिड वगैरह देरी की फसल में लगते हैं, जिन का नियंत्रण करने के लिए रोगोर, नूवान का 1 फीसदी घोल बना कर स्प्रे करते हैं. देरी वाली फसल में पाउडरी मिल्ड्यू बीमारी लगती है. जो फफूंदीनाशक बावस्टीन, डाइथेन एम 45 के 1 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर स्प्रे करने से नियंत्रित हो जाती है.

लीक की तुड़ाई

लीक के पौधे प्याज या लहसुन की तरह बढ़ कर तना मोटा 2-3 सैंटीमीटर व्यास का हो जाए तो उखाड़ लेना चाहिए और लंबी पत्तियों के कुछ भाग को काट कर अलग कर देते हैं और जड़ वाले भाग को हरे प्याज की तरह धो कर बंडल या गुच्छी, जिस में 1 दर्जन या 2 दर्जन लीक रखते हैं. इन्हीं गुच्छी को मंडी या मौडर्न सब्जी बाजार की दुकानों पर भेज देते हैं.

उपज

लीक की उपज हरे प्याज की भांति मिलती है. यह प्रति पौधा पत्तियों समेत 125-150 ग्राम उपज देता है, जो कि पूरे खेत में 400-500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हासिल होता है.

चना की नई उन्नत किस्म से फायदा पाएं

दलहनी फसलों में चने की खेती अपना खास स्थान रखती है. भारत दुनिया का सब से ज्यादा चना पैदा करने वाला देश है. चने की तकरीबन 70-75 फीसदी पैदावार हमारे देश में होती है. उत्तर से मध्य व दक्षिण भारत के राज्यों में चना रबी फसल के रूप में उगाया जाता है. चना उत्पादन की नई उन्नत तकनीक व उन्नतशील किस्मों का इस्तेमाल कर किसान चने का उत्पादन और भी बढ़ा सकते हैं.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, अखिल भारतीय समन्वित चना अनुसंधान परियोजना ने हाल ही में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, रांची (झारखंड) में आयोजित अपने 24वें वार्षिक बैठक में जीनोमिक्स की मदद से विकसित चना की 2 बेहतर किस्मों ‘पूसा चिकपी-10216’ और ‘सुपर एनेगरी 1’ को जारी किया है, जो चने की दूसरी किस्मों से कहीं बेहतर है.

पूसा चिकपी 10216

* चना की यह एक खास किस्म है. इसे डाक्टर भारद्वाज चेल्लापिला, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के नेतृत्व में चिकपी ब्रीडिंग ऐंड मोलेकुलर ब्रीडिंग टीम द्वारा डाक्टर वार्ष्णेय के. राजीव, इक्रिसैट के नेतृत्व वाली जीनोमिक्स टीम के सहयोग से विकसित किया गया है.

* इस किस्म को आणविक मार्करों की मदद से ‘पूसा 372’ की आनुवांशिक पृष्ठभूमि में आनुवांशिक ‘क्यूटीएल हौटस्पौट’ के बाद विकसित किया गया है.

* ‘पूसा 372’ देश के मध्य क्षेत्र, उत्तरपूर्व मैदानी इलाकों और उत्तरपश्चिम मैदानी इलाकों में उगाई जाने वाली चना की एक खास किस्म है. इस का इस्तेमाल लंबे समय यानी देर से बोई जाने वाली स्थितियों के लिए राष्ट्रीय परीक्षणों में मापक (नियंत्रण किस्म) के रूप में किया जाता रहा है. इस किस्म का विकास साल 1993 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा तैयार किया गया था. हालांकि इस का उत्पादन कम हो गया था.

* इस को प्रतिस्थापित करने के लिए साल 2014 में चना के ‘आईसीसी 4958’ किस्म में ‘सूखा सहिष्णुता’ के लिए पहचाने गए जीनयुक्त ‘क्यूटीएल हौटस्पौट’ को आणविक प्रजनन विधि से ‘पूसा 372’ के आनुवांशिक पृष्ठभूमि में डाल कर विकसित किया गया है.

* नई किस्म की औसत पैदावार 1447 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है. भारत के मध्य क्षेत्र में नमी कम होने की स्थिति में यह किस्म ‘पूसा 372’ से तकरीबन 11.9 फीसदी ज्यादा पैदावार देती है.

* इस किस्म के पकने की औसत अवधि 110 दिन है. दाने का रंग उत्कृष्ट होने के साथसाथ इस के 100 बीजों का वजन तकरीबन 22.2 ग्राम होता है.

* खास रोगों मसलन फुसैरियम विल्ट, सूखी जड़ सड़ांध और स्टंट के लिए यह किस्म मध्यम रूप से प्रतिरोधी है और इसे मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाकों में खेती के लिए चुना गया है.

डाक्टर भारद्वाज चेल्लापिला ने बताया है कि ‘पूसा चिकपी 10216’ भारत में चना की वाणिज्यिक खेती के लिए पहचानी जाने वाली खास सहिष्णुतायुक्त पहली आणविक प्रजनन किस्म बन गई है.

सुपर एनेगरी 1

* इस किस्म को कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय, रायचूर (कर्नाटक) और इक्रिसैट के सहयोग से विकसित किया गया है.

* इस किस्म को चना के ‘डब्लूआर 315’ किस्म में फुसैरियम विल्ट रोग के लिए पहचाने गए प्रतिरोधी जीनों को आणविक प्रजनन विधि से कर्नाटक राज्य की प्रमुख चना किस्म एनेगरी 1 की आनुवांशिक पृष्ठभूमि में डाल कर विकसित किया गया है.

* इस किस्म की औसत पैदावार 1898 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है और यह एनेगरी किस्म से तकरीबन 7 फीसदी अधिक पैदावार देती है. साथ ही, दक्षिण भारत में उपज कम करने वाले कारक फुसैरियम विल्ट रोग के लिए बेहद प्रतिरोधी है.

* यह किस्म औसतन 95 से 110 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस के 100 बीजों का वजन तकरीबन 18 से 20 ग्राम तक होता है.

* इस किस्म को आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात में खेती के लिए चुना गया है.

उपयुक्त जलवायु

चने की खेती तकरीबन 78 फीसदी असिंचित इलाकों और 22 फीसदी सिंचित इलाकों में की जाती है. सर्दी में फसल होने के कारण चना की खेती कम बारिश वाले इलाकों और कम ठंडक वाले इलाकों में की जाती है. फूल आने की दशा में यदि बरसात हो जाए तो फूल झड़ने के कारण फसल को बहुत नुकसान होता है.

चने के अंकुरण के लिए कुछ अधिक तापमान की जरूरत होती है, जबकि पौधों की सही बढ़वार के लिए आमतौर पर ठंडे मौसम की जरूरत होती है.

उपयुक्त जमीन

चने की खेती बलुई से ले कर दोमट और मटियार मिट्टी में की जा सकती है. इस के अलावा चने की खेती के लिए भारी दोमट और मडुआ, पड़आ, कछारी जमीन, जहां पानी जमा न होता हो, वह भी ठीक मानी जाती है.

काबुली चने की खेती के लिए मटियार दोमट और काली मिट्टी, जिस में पानी की सही मात्रा धारण करने की कूवत होती है, उस में सफलतापूर्वक खेती की जाती है. लेकिन जरूरी यह है कि पानी के भरने की समस्या न हो. जल निकासी का सही प्रबंध होना चाहिए.

खेत की तैयारी

चने की खेती के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल या डिस्क हैरो से करनी चाहिए. इस के बाद एक क्रास जुताई हैरो से कर के पाटा लगा कर जमीन समतल कर लें.

फसल को दीमक व कटवर्म के प्रकोप से बचाने के लिए आखिरी जुताई के समय उस की रोकथाम का पुख्ता इंतजाम करना चाहिए. जमीन की पैदावार कूवत बनाए रखने और फसल से अधिक पैदावार लेने के लिए फसल चक्र अपनाना चाहिए.

बोआई का उचित समय

उत्तर भारत के असिंचित इलाकों में चना की बोआई अक्तूबर माह के दूसरे पखवारे में करें और सिंचित इलाकों में नवंबर माह के पहले पखवारे में करनी चाहिए.

पछेती बोआई दिसंबर माह के पहले हफ्ते कर लेनी चाहिए. देश के मध्य भाग में अक्तूबर का पहला और दक्षिण राज्य में सितंबर के आखिरी हफ्ते से अक्तूबर का पहला सप्ताह चने की बोआई के लिए उचित है.

बीजोपचार : चने की खेती में कई तरह के कीट और रोगों से बचाव के लिए बीज को उपचारित कर के बोआई करनी चाहिए. बीज को उपचारित करते समय ध्यान रखें कि सब से पहले उसे फफूंदीनाशी, फिर कीटनाशी और आखिर में राइजोबियम कल्चर से उपचारित करें.

जड़ गलन व उकटा रोग की रोकथाम के लिए बीज को कार्बंडाजिम या मैंकोजेब या थाइरम की 1.5 से 2 ग्राम मात्रा द्वारा प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित करें.

दीमक और दूसरे जमीनी कीटों की रोकथाम के लिए क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी या इंडोसल्फान 35 ईसी की 8 मिलीलिटर मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोआई करनी चाहिए.

बीजों को उपचारित कर के एक लिटर पानी में 250 ग्राम गुड़ को गरम कर के ठंडा होने पर उस में राइजोबियम कल्चर व फास्फोरस घुलनशील जीवाणु को अच्छी तरह मिला कर उस में बीज उपचारित करना चाहिए. उपचारित बीज को छाया में सुखा कर शीघ्र बोआई कर देनी चाहिए.

उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी जांच के मुताबिक करें तो ज्यादा अच्छा होगा. वैसे, सामान्य तौर पर 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50-60 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश और 20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि असिंचित अवस्था में 2 फीसदी यूरिया या डीएपी का फसल पर छिड़काव करने से अच्छी पैदावार मिलती है.

सिंचाई प्रबंधन : चने की खेती मुख्यत: असिंचित अवस्था में की जाती है, जहां पर सिंचाई के लिए सीमित पानी मुहैया हो, वहां फूल आने के पहले (बोआई के 50-60 दिन बाद) एक हलकी सिंचाई करें. सिंचित इलाकों में दूसरी सिंचाई फली बनते समय जरूर करें.

सिंचाई करते समय यह ध्यान दें कि खेत के किसी भी हिस्से में पानी जमा न होने दें, वरना फसल को नुकसान हो सकता है. फूल आने की स्थिति में सिंचाई नहीं करनी चाहिए.

खरपतवार पर नियंत्रण 

खरपतवार चने की खेती को 50 से 60 फीसदी तक नुकसान पहुंचाते हैं इसलिए खरपतवार नियंत्रण जरूरी है.

खरपतवार नियंत्रण के लिए पैंडीमिथेलिन 30 ईसी को 3 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से 500 लिटर पानी में घोल कर बोआई के 48 घंटे के अंदर छिड़काव यंत्र द्वारा छिड़काव करना चाहिए. फसल में कम से कम 2 बार निराईगुड़ाई करें. पहली गुड़ाई फसल बोने के 35-40 दिन बाद और दूसरी गुड़ाई 50-60 दिनों बाद कर देनी चाहिए.

कीट नियंत्रण : चने की खेती में मुख्य रूप से फली भेदक कीट का हमला ज्यादा होता है. देर से बोआई की जाने वाली फसलों में इस का प्रकोप अधिक होता है.

फली भेदक के नियंत्रण के लिए इंडोसकार्ब (2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी) या स्पाइनोसैड (0.4 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी) या इमामेक्टीन बेंजोएट (0.4 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी) का छिड़काव करें. एनपीवी उपलब्ध होने पर इस का 250 लार्वा समतुल्य 400 से 500 लिटर पानी में घोल कर 2-3 बार छिड़काव कर सकते हैं. इसी तरह 5 फीसदी नीम की निबौली के सत का प्रयोग भी इस के नियंत्रण के लिए कारगर है.

रोग नियंत्रण : चने की खेती में मुख्य रूप से उकटा और शुष्क मूल विगलन रोग होता है. फसल को इन से बचाने के लिए बोआई से पहले बीज को फफूंदीनाशक जैसे 1.0 ग्राम बीटावेक्स और 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. जिन इलाकों में इन रोगों का अधिक प्रकोप हो, वहां पर उकटा और शुष्क मूल विगलन रोगरोधी किस्में बोएं.

इस के अलावा चने की फसल में कीट रोगों का भी प्रकोप होता है. इस का समयसमय पर खात्मा करना जरूरी है. चने की फसल में खासतौर से फली भेदक कीट का प्रकोप अधिक होता है जो शुरुआती दौर में पत्तियों को खाता है, बाद में फली बनने पर छेद बना कर उस में घुस जाता है और दानों को खोखला कर देता है.

इस के अलावा झुलसा रोग, उकटा रोग वगैरह फसल में आते हैं जिन की समय से रोकथाम जरूरी है और अपनी रोगग्रस्त फसल को कृषि विशेषज्ञ को दिखा कर कीट बीमारी पर काबू पाया जा सकता है.

पाले से बचाव : पाले से भी फसल को बहुत अधिक नुकसान होता है. पाला पड़ने की संभावना दिसंबर माह से जनवरी माह में अधिक होती है. पाले के प्रभाव से फसल को बचाने के लिए फसल में गंधक के तेजाब की 0.1 फीसदी मात्रा यानी एक लिटर गंधक के तेजाब को 1,000 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. पाला पड़ने की संभावना होने पर खेत के चारों ओर धुआं करना भी लाभदायक रहता है.

फसल की कटाई और गहाई : चने की फसल की पत्तियां व फलियां पीली व भूरे रंग की हो जाएं और पत्तियां गिरने लगें और दाने सख्त हो जाएं तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए. काटी गई फसल जब अच्छी तरह सूख जाए, तो थ्रेशर द्वारा दाने को भूसे से अलग कर लेना चाहिए और पैदावार को सुखा कर भंडारित करना चाहिए.

Chanaविभिन्न राज्यों के लिए अन्य किस्में

मध्य प्रदेश : जेजी 74, जेजी 315, जेजी 322, पूसा 391, विश्वास (फुलेजी 5), विजय, विशाल, जेजी 16, जेजी 130, जेजीजी 1, जवाहर ग्राम काबुली 1, बीजीडी 128 (के), आईपीसीके 2002-29, आईपीसीके 2004-29 (के), पेकेवी काबुली 4 आदि खास हैं.

राजस्थान : हरियाणा चना 1, डीसीपी 92-3, पूसा 372, पूसा 329, पूसा 362, उदय, सम्राट, जीपीएफ 2, पूसा चमत्कार (बीजी 1053), आरएसजी 888, आलोक (केजीडी 1168), बीजीडी 28 (के), जीएनजी 1581, आरएसजी 963, राजास, आरएसजी 931, जीएनजी 143, पीबीजी 1, जीएनजी 663 वगैरह किस्में प्रमुख हैं.

हरियाणा : डीसीपी 92-3, हरियाणा चना 1, हरियाणा काबुली चना 1, पूसा 372, पूसा 362, पीबीजी 1, उदय, करनाल चना 1, सम्राट, वरदान, जीपीएफ 2,  चमत्कार, आरएसजी 888, हरियाणा काबुली चना 2, बीजीएम 547, फुलेजी 9425-9, जीएनजी 1581 आदि प्रमुख हैं.

पंजाब : पूसा 256, पीबीजी 5, हरियाणा चना 1, डीसीपी 92-3, पूसा 372, पूसा 329, पूसा 362, सम्राट, वरदान, जीपीएफ 2, पूसा चमत्कार (बीजी 1053), आरएसजी 888, बीजीएम 547, फुलेजी 9425-9, जीएनजी 15481, आलोक (केजीडी 1168), पीबीजी 3, आरएसजी 963, राजास और आरजी 931 वगैरह खास हैं.

उत्तर प्रदेश : डीसीपी 92-3, केडब्लूआर 108, पूसा 256, पूसा 372, वरदान, जेजी 315, आलोक (केजीडी 1168), विश्वास, पूसा 391, सम्राट, जीपीएफ 2, विजय, पूसा काबुली 1003, गुजरात ग्राम 4 आदि प्रमुख हैं.

बिहार : पूसा 372, पूसा 256, पूसा काबुली 1003, उदय, केडब्लूआर 108, गुजरात ग्राम 4 और आरएयू 52 वगैरह प्रमुख हैं.

छत्तीसगढ़ : जेजी 315, जेजी 16, विजय, वैभव, जवाहर ग्राम काबुली 1, बीजी 372, पूसा 391, बीजी 072 और आईसीसीवी 10 वगैरह खास हैं.

गुजरात : पूसा 372, पूसा 391, विश्वास, जेजी 16, विकास, विजय, विशाल, धारवाड़ प्रगति, गुजरात ग्राम 1, गुजरात ग्राम 2, जवाहर ग्राम काबुली 1, आईपीसीके 2009-29 और आईपीसीके 2004-29 वगैरह प्रमुख हैं.

महाराष्ट्र : पूसा 372, विजय, जेजी 16, विशाल, पूसा 391, विश्वास (फुलेजी 5) धारवाड़ प्रगति, विकास, फुलेजी 12, जवाहर ग्राम काबुली 1, विहार, केएके 2, बीजीडी 128, (के), आईपीसीके 2002-29, आईपीसीके 2004-29, फुलेजी-0517 (के) और पेकेवी काबुली 4 वगैरह खास हैं.

झारखंड : पूसा 372, पूसा 256, पूसा काबुली 1003, उदय, केडब्लूआर 108 और गुजरात ग्राम 4 वगैरह खास हैं.

उत्तराखंड : पंत जी 186, डीसीपी 92-3, सम्राट, केडब्लूआर 108, पूसा चमत्कार (बीजी 1053) बीजीएम 547 और फुलेजी 9425-9 वगैरह खास हैं.

हिमाचल प्रदेश : पीबीजी 1, डीसीपी 92-3, सम्राट, बीजीएम 549 और फुलेजी 9425-9 वगैरह खास हैं.

आंध्र प्रदेश : भारती (आईसीसीवी 10) जेजी 11, फुलेजी 95311 (के) और एमएनके 1 वगैरह प्रमुख हैं.

असम : जेजी 73, उदय (केपीजी 59), केडब्लूआर 108 और पूसा 372 वगैरह खास हैं.

जम्मू और कश्मीर : डीसीपी 92-3, सम्राट, पीबीजी 1, पूसा चमत्कार (बीजी 1053), बीजी एम 547 और फुलेजी 9425-9 वगैरह खास हैं.

कर्नाटक : जेजी 11, अन्नेगिरी 1, चाफा, भारती (आईसीसीवी 10), फुलेजी 9531, श्वेता (आईसीसीवी 2) एमएनके 1 वगैरह खास हैं.

मणिपुर : जेजी 74, पूसा 372, बीजी 253 वगैरह हैं.

मेघालय : जेजी 74, पूसा 372 और बीजी 256 वगैरह हैं.

ओडिशा : पूसा 391, जेजी 11, फुलेजी 95311, आईसीसीवी 10 वगैरह खास हैं.

तमिलनाडु : आईसीसीवी 10, पूसा 372 और बीजी 256 प्रमुख है.

पश्चिम बंगाल : जेजी 74, गुजरात ग्राम 4, केडब्लूआर  108, पूसा 256, महामाया 1 और महामाया 2 वगैरह खास हैं.

काबुली चना की नई किस्म एसआर 10

हाल ही में काबुली चना की नई किस्म एसआर 10 विकसित की गई है. इस किस्म से 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पैदावार मिल सकेगी. इस किस्म के 100 दानों का वजन तकरीबन 50 ग्राम से अधिक होगा. इस की बोआई नवंबर के पहले हफ्ते में कर सकते हैं. यह फसल मार्च तक पक कर तैयार हो जाती है.

राजस्थान में विकसित चना किस्म एसआर 10 का कृषक पौध अधिकार प्राधिकरण, नई दिल्ली द्वारा पंजीकृत किया गया है.

हरा चना की किस्म आरएसजी 991

किस्म आरएसजी 991 रोग प्रतिरोधी होने के साथ प्रसंस्करण के लिए भी बेहतर है. राजस्थान के झुंझुनूं, टोंक और राज्य के अन्य जिलों में इस किस्म को उगा कर किसान बाजार से अच्छी आमदनी ले रहे हैं.

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि किसान मटर की तरह इस के हरे दानों को बेच सकते हैं. यह हरे चने की एक किस्म है. इस की कटाई के बाद हरे दानों का वैज्ञानिक विधि से भंडारण भी कर सकते हैं. भंडारित उपज से समय के मुताबिक हरे छोले तैयार कर बाजार में बेच सकते हैं. हरे छोले तैयार करने के लिए इन्हें रातभर पानी में भिगोना होता है और उस के बाद सुबह पानी निकाल कर इन को बाजार में बेचा जा सकता है.

हरे चने की यह किस्म सिंचित और असिंचित दोनों ही इलाकों के लिए सही मानी गई है, जो 135 से 140 दिन में पक कर तैयार हो जाती है.

समुद्री नौकाओं को आधुनिक बनाने के लिए अनुदान

अहमदाबाद: भारत के मत्स्यपालन उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए उठाए गए एक महत्वपूर्ण कदम में, मत्स्यपालन, पशुपालन एवं डेरी राज्य मंत्री डा. एल. मुरुगन ने पिछले दिनों नीली क्रांति और प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना (पीएमएमएसवाई) के माध्यम से पारंपरिक मछुआरों को गहरे समुद्र में मछली पकड़ने की तरफ परिवर्तन में समर्थन देने के लिए केंद्र सरकार की अटूट प्रतिबद्धता पर जोर दिया.

उन्होंने गुजरात साइंस सिटी, अहमदाबाद में आयोजित ग्लोबल फिशरीज कौंफ्रैंस इंडिया 2023 में ‘गहरे समुद्र में मछली पकड़ना: प्रौद्योगिकी, संसाधन और अर्थशास्त्र‘ विषय पर एक तकनीकी सत्र में यह बात कही.

डा. एल. मुरुगन ने कहा कि सरकार पारंपरिक मछुआरों को अपने जहाजों को गहरे समुद्र में मछली पकड़ने वाली नौकाओं में बदलने के लिए 60 फीसदी तक वित्तीय सहायता प्रदान कर रही है. इस के अतिरिक्त इस परिवर्तन को सुविधाजनक बनाने के लिए ऋण सुविधाएं भी उपलब्ध हैं.

उन्होंने टूना जैसे गहरे समुद्र के संसाधनों के लिए अंतर्राष्ट्रीय गुणवत्ता मानकों को बनाए रखने के लिए अंतर्निर्मित प्रसंस्करण सुविधाओं से लैस आधुनिक मछली पकड़ने वाले जहाजों की आवश्यकता पर जोर दिया. यह स्वीकारते हुए कि पारंपरिक मछुआरों में वर्तमान में इन क्षमताओं की कमी है. सरकार इस अंतर को दूर करने के लिए प्रतिबद्ध है.

डा. एल. मुरुगन ने आगे कहा कि टूना मछलियों की दुनियाभर में काफी मांग है और भारत में अपनी टूना मछली पकड़ने की क्षमता बढ़ाने की शक्ति है. उन्होंने अधिक स्टार्टअप को गहरे समुद्र में मछली पकड़ने के क्षेत्र में प्रवेश करने व ईंधन की लागत को कम करने और मछली पकड़ने वाली नौकाओं में हरित ईंधन के उपयोग की खोज पर ध्यान केंद्रित करने के लिए अनुसंधान का आह्वान किया. गहरे समुद्र में मछली पकड़ने की क्षमता का स्थायी तरीके से प्रभावी ढंग से उपयोग कर मछली पकड़ने वाले जहाजों को उन्नत करने के लिए अनुसंधान और डिजाइन की आवश्यकता है.

गहरे समुद्र के संसाधनों के उच्च मूल्य पर प्रकाश डालते हुए भारत सरकार के मत्स्यपालन के उपायुक्त डा. संजय पांडे ने कहा कि हिंद महासागर येलोफिन टूना का अंतिम मूल्य 4 बिलियन अमेरिकी डौलर से अधिक है.

विश्व बैंक के सलाहकार डा. आर्थर नीलैंड ने कहा कि भारत के ईईजेड में 1,79,000 टन की अनुमानित फसल के साथ येलोफिन और स्किपजैक टूना की आशाजनक क्षमता के बावजूद वास्तविक फसल केवल 25,259 टन है, जो केवल 12 फीसदी की उपयोग दर का संकेत देती है.

उन्होंने गहरे समुद्र में मछली पकड़ने में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र से निवेश की आवश्यकता पर जोर दिया, जिस से आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय लाभ हो सके.

डा. आर्थर नीलैंड ने आगे कहा, ‘‘विशेषज्ञ मत्स्यपालन विज्ञान और प्रबंधन, मछली प्रोसैसिंग और बुनियादी ढांचे के साथ भारत के मजबूत संस्थागत आधार का उपयोग गहरे समुद्र में मछली पकड़ने की विकास योजनाओं के लिए भी फायदेमंद होगा.‘‘

Fishermanउन्होंने जानकारी देते हुए आगे कहा कि हितधारकों की भागीदारी और निवेश, प्रौद्योगिकी और विशेषज्ञता एवं क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और साझेदारी को प्रोत्साहित करने के लिए एक माहौल बनाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है.

इस विषय पर आयोजित एक पैनल चर्चा में प्रस्ताव दिया गया कि गहरे समुद्र में मछली पकड़ने के विकास के लिए एक व्यवस्थित ढांचा विकसित करने के लिए सभी हितधारकों की चिंताओं को संबोधित करने वाले सामूहिक और समावेशी प्रयास आवश्यक हैं. गहरे समुद्र के सलाहकार, एनआईओटी, चेन्नई, डा. मानेल जखारियाय, वैज्ञानिक-जीएमओईएस, डा. प्रशांत कुमार श्रीवास्तव, आईसीएआर-केंद्रीय समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान (सीएमएफआरआई) के वरिष्ठ वैज्ञानिक, डा. पी. शिनोजय और सीएमएलआरई के वैज्ञानिक डी, डा. हाशिम पैनलिस्ट थे.

गहरे समुद्र में मछली पकड़ने का काम प्रादेशिक जल की सीमा से परे किया जाता है, जो तट से 12 समुद्री मील की दूरी पर है, और तट से 200 समुद्री मील के विशेष आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) के भीतर है.

जलीय कृषि में नवाचारों के लिए ब्लू फाइनेंस को बढ़ाने का आह्वान

जलवायु परिवर्तन और खाद्य एवं पोषण सुरक्षा की बढ़ती मांग से उत्पन्न गंभीर खतरों को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के वरिष्ठ मत्स्य अधिकारी साइमन फ्यूंजस्मिथ ने जलकृषि क्षेत्र में नवाचारों और विकास के लिए ब्लू फाइनेंस बढ़ाने का आह्वान किया.

उन के अनुसार, वैश्विक जलीय कृषि साल 2030 तक मानव उपभोग के लिए 59 फीसदी मछली प्रदान करेगी. साइमन फ्यूंजस्मिथ ने कहा कि एशिया 82 मिलियन टन के साथ वैश्विक जलीय कृषि उत्पादन का 89 फीसदी प्रदान करता है. एशिया में अधिकतर छोटे पैमाने के उद्यम कुल उत्पादन में 80 फीसदी से ज्यादा का योगदान दे रहे हैं. यह क्षेत्र प्राथमिक क्षेत्र में 20.5 मिलियन लोगों के लिए नौकरियां पैदा करता है. स्थायी मत्स्यपालन और जलीय कृषि को बढ़ावा देने का उल्लेख करते हुए उन्होंने छोटे पैमाने पर मत्स्यपालन और जल किसानों द्वारा स्थायी प्रथाओं का समर्थन करने का सुझाव दिया.

भेड़बकरी एवं खरगोशपालन पर प्रशिक्षण

अविकानगर: केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान, अविकानगर में एग्री बिजनैस इनक्यूबेटर सैंटर एवं केड फाउंडेशन, उदयपुर के तत्वावधान में 10 राज्यों, राजस्थान, हरियाणा, गुजरात, मध्य प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश एवं दिल्ली के 45 किसानो (3 महिला एवं 42 पुरुष) का 5वें बैच को व्यावसायिक भेड़बकरी एवं खरगोशपालन पर प्रशिक्षण कार्यक्रम 16 से 22 नवंबर, 2023 तक केड फाउंडेशन द्वारा पांचदिवसीय प्रशिक्षण उदयपुर में और दोदिवसीय प्रशिक्षण अविकानगर में आयोजित किया गया.

संस्थान के निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर ने सभी प्रशिक्षणार्थियों को संबोधित करते हुए बताया कि इस प्रशिक्षण का उद्देश्य आप के भेड़बकरीपालन की जानकारी से पहले से उपलब्ध जानकारी में कुछ नई जानकारी देनी है.

Sheep-Goat Husbandryवर्तमान समय में वैज्ञानिक तरीके से भेड़बकरीपालन व्यवसाय करते हुए आजीविका में बढ़ोतरी की जा सकती है. बढ़ते शहरीकरण के कारण खेती और पशुपालन उद्यमिता का रूप लेता जा रहा है, क्योकि शहरी लोगों की भोजन की हर आवश्यकता आप के द्वारा ही की जा सकती है.

इसलिए आप अपने भेड़बकरीपालन व्यवसाय को पशुपालन उद्यमिता के रूप में विकसित कर के भारत सरकार की मंशा आत्मनिर्भर भारत में अपने परिवार को माली रूप से सशक्त बना कर और लोगों को भी रोजगार दे कर कर सकते हैं.

निदेशक द्वारा किसान के हर तरह के भेड़बकरीपालन के सवाल का जवाब देते हुए भविष्य में भी संस्थान का पूरा सहयोग का आश्वासन दिया गया. अंत में सभी प्रशिक्षण लेने वाले प्रगतिशील किसानों को प्रमाणपत्र दिया गया.

Sheep-Goat Husbandryअविकानगर में प्रशिक्षण कार्यक्रम के समन्वयक डा. विनोद कदम, सहसमन्वयक डा. अजित सिंह महला व डा. अरविंद सोनी द्वारा किया गया. पशु पोषण विभाग के विभागाध्यक्ष डा. रणधीर सिंह भट्ट, केड फाउंडेशन, उदयपुर के निदेशक मुकेश सुथार, डा. अमर सिंह मीना, फिजियोलौजी एवं जैव रसायन विभाग के प्रभारी डा. सत्यवीर सिंह डांगी, डा. दुश्यंत कुमार शर्मा, नरेश बिश्नोई, अविकानगर संस्थान के मीडिया प्रभारी व वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. अमर सिंह मीना आदि द्वारा भी प्रशिक्षण कार्यक्रम को सफल बनाने में पूरा सहयोग दिया गया.