सांप के काटने पर झाड़फूंक नहीं इलाज कराएं

किसानी से जुड़े कामों में खतरा भी हर पल बना रहता है. कई बार खेत में काम करते समय भी जहरीले जीवजंतुओं के काटने की घटनाएं सामने आती हैं. खेतों में पाए जाने वाले सांप वैसे तो चूहों से फसलों की हिफाजत करते हैं, पर सांप को सामने देख कर डर के मारे सभी की घिग्घी बंध जाती है. अकसर खेत में उगी घनी फसल के बीच या खेत की मेंड़ पर उगी झाडि़यों में सांप छिपे रहते हैं.

खेत में काम करते समय अनजाने में किसान का पैर सांप के ऊपर पड़ जाता है और सांप अपने बचाव के लिए फन से उसे डस लेता है. सांप के काटने के इलाज की सही जानकारी न होने से किसान झाड़फूंक के चक्कर में पड़ जाते हैं. अगर काटने वाला सांप जहरीला निकला तो किसान को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ता है.

देश के ज्यादातर हिस्सों में सब से ज्यादा सांप के डसने की घटनाएं बारिश में नजर आती हैं, पर ठंड और गरमी में भी खेतों में लगी फसल में काम करते समय भी सांप के डसने से किसान प्रभावित हो जाते हैं.

वैटेरिनरी कालेज, जबलपुर के सांप विशेषज्ञ गजेंद्र दुबे के मुताबिक, भारत में सांपों की तकरीबन 270 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिन में से 10-15 प्रजाति के सांप ही ज्यादा जहरीले होते हैं.

भारत में करैत, कोबरा, रसेल वाइपर, सा स्केल्ड वाइपर, किंग कोबरा, पिट वाइपर वगैरह सब से जहरीले सांप हैं. देश में तकरीबन हर साल 50,000 लोग सांप के डसने से प्रभावित होते हैं. कई बार सांप जहरीला न भी हो तो भी किसान सांप के काटने के डर से घबरा जाते हैं और हार्ट अटैक से मर जाते हैं.

सांपों का अंधविश्वास

हमारे समाज में सांपों के बारे में कई तरह के अंधविश्वास फैले हुए हैं. गांवदेहात में तो बाकायदा इन की देवीदेवताओं की तरह पूजा की जाती है. नागपंचमी के दिन इन्हें दूध पिलाने की परंपरा है. सांपों को ले कर कई फिल्में भी बनी हैं, जिन में दिखाया जाता है कि नागलोक एक अलग संसार है. ‘नागिन’, ‘नगीना’ जैसी कई फिल्मों में यह कहानी दिखाई गई है कि नाग या नागिन के जोडे़ में से किसी एक को मारने पर वे अपने साथी की मौत का बदला लेते हैं.

इसी तरह इच्छाधारी सांप और मणि रखने वाले सांपों की कहानियां गंवई इलाकों में लोगों को सुना कर सांपों के प्रति डर दिखाया जाता है.

वास्तव में विज्ञान कहता है कि न तो सांप दूध पीते हैं और न ही इच्छाधारी होते हैं. सांप बीन की धुन पर नाचते हैं, यह भी एक अंधविश्वास है, क्योंकि सांप के कान ही नहीं होते. गांवदेहात में पंडेपुजारी भी नागपंचमी पर इन की पूजापाठ करा कर केवल भोलेभाले लोगों से दानदक्षिणा बटोर कर अपनी जेबें भरने का काम करते हैं.

झाड़फूक से बचें

अकसर सांप के काटने पर लोग झाड़फूंक के चक्कर में जल्दी आ जाते हैं. किसानी महल्ला साईंखेड़ा के दरयाव किरार को जुलाई, 2018 में धान की रोपाई करते समय सांप ने दाएं हाथ की उंगली में काट लिया. उन्होंने तुरंत हाथ के ऊपरी हिस्से पर कपड़ा बांध लिया और अपने जानपहचान वाले के साथ झाड़फूंक करने वाले पंडे के पास पहुंच गए.

तकरीबन 5-6 घंटे तक झाड़फूंक करने के बाद शाम को घर आ गए. रात 11 बजे जब उन्हें लगातार उलटी होने लगी, तो परिवार के लोग उन्हें अस्पताल ले गए, जहां लगातार 5 दिन तक इलाज चलने के बाद उन की हालत में सुधार हुआ.

माहिर लोग बताते हैं कि अगर सांप जहरीला नहीं होता तो पीडि़त शख्स को कुछ नहीं होता. इस की वजह से झाड़फूंक को लोग सही मान लेते हैं.

लेकिन लोगों का यह तरीका ठीक नहीं है. कभी किसी को सांप काटे तो तुरंत ही उसे सरकारी अस्पताल ले जाना चाहिए. आजकल के नौजवान मोबाइल फोन में सोशल मीडिया की गलत जानकारी को सही मान कर गलतफहमी के शिकार हो जाते हैं और सांप के डसने पर गलत तरीके अपना लेते हैं.

अक्तूबर, 2019 में मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के गांव चांदनखेड़ा में धान के खेत में दवा का छिड़काव कर रहे एक किसान राजकुमार को सांप ने डस लिया था. उस ने व्हाट्सएप पर आए एक मैसेज में पढ़ा था कि सांप के काटने पर उस जगह पर कट लगा लेना चाहिए. सो, उस ने जल्दबाजी में सांप के जहर से बचने के लिए अपने पास रखे ब्लेड से हाथ में कट लगा लिया. उसे लगा कि खून के साथ सांप का जहर निकल जाएगा, लेकिन ज्यादा खून बह जाने के चलते जब किसान की हालत बिगड़ने लगी तो साथ में काम कर रहे उस के चाचा द्वारा उसे अस्पताल पहुंचाया गया, जहां डाक्टरों ने उसे एंटी स्नेक वीनम इंजैक्शन लगा कर सांप के जहर से बचा लिया.

बचाव, सावधानियां और सरकारी सहायता

बारिश में हर सरकारी अस्पताल में हर महीने औसतन 20 लोग सांप के डसने के चलते इलाज के लिए आते हैं. जागरूकता की कमी में कई बार झाड़फूंक में फंस कर लोग अपनी जान से भी हाथ धो बैठते हैं.

जिला अस्पताल की सिविल सर्जन डाक्टर अनीता अग्रवाल बताती हैं कि जिस अंग में सांप ने काटा है, उसे पानी से साफ कर के स्थिर रखने का प्रयास करें और अंग के पास किसी तरह का कट न लगाएं, क्योंकि इस से टिटनस फैलने का खतरा रहता है. जहां सांप ने काटा है, वहां कपड़े या धागे की पट्टी बांधते समय इस बात का ध्यान जरूर रखें कि वह इतना कस कर न बांधें कि खून का बहाव पूरी तरह बंद हो जाए. खून का बहाव पूरी तरह बंद होने से अंग के काटने की स्थिति बन सकती है.

सांप के काटने पर किसी ओझागुनिया, पंडा या मौलवी के पास जा कर झाड़फूंक कराने के बजाय बिना समय गंवाए सीधे सरकारी अस्पताल पहुंचना चाहिए. आजकल हर सरकारी अस्पताल में पर्याप्त मात्रा में एंटी स्नेक वीनम इंजैक्शन मौजूद हैं.

तमाम सावधानियां बरतने के बाद भी तमाम किसान सांप के डसने का शिकार हो जाते हैं और झाड़फूंक के फेर में पड़ कर या देशी इलाज कराने की वजह से जान से हाथ धो बैठते हैं. इस से किसान परिवार के कमाऊ और कामकाजी सदस्य की मौत से माली दिक्कत आ जाती है.

सांप के डसने से मौत होने पर आजकल देश के ज्यादातर राज्यों की सरकारें पीडि़त परिवार को सहायता राशि मुहैया कराती हैं. अलगअलग राज्यों में अलगअलग सहायता राशि देने का प्रावधान है.

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश में सहायता राशि 4 लाख रुपए देने का प्रावधान है, जबकि पजाब में 3 लाख रुपए, झारखंड में ढाई लाख रुपए की सरकारी सहायता देने का नियम है. यह सहायता राशि मरने वाले शख्स के निकटतम संबंधी या वारिस को दी जाती है.

सांप के डसने से मौत होने पर मरने वाले का पोस्टमार्टम कराना जरूरी होता है. सरकारी सहायता लेने के लिए अपनी तहसील के राजस्व अधिकारी, एसडीएम या तहसीलदार दफ्तर में मौत हो जाने के 15 दिन के अंदर आवेदन करना जरूरी है. आवेदन के साथ राशनकार्ड, आधारकार्ड की प्रमाणित प्रति के साथ पोस्टमार्टम रिपोर्ट और मृत्यु प्रमाणपत्र जमा कराना जरूरी है.

बड़े काम का पत्थरचूर

यह औषधीय पौधा हाई ब्ल्डप्रैशर व दिल से जुड़ी बीमारियों को ठीक करने के लिए मशहूर है. यह पौधा एकवर्षीय शाकीय, शाखान्वित, सुगंधित तकरीबन 1-2 फुट तक लंबा होता है.

इस का वानस्पतिक नाम कोलियस फोर्सकोली है. यह लेमिएसी कुल का सदस्य है. इस के पत्तों व जड़ों से अलगअलग तरह की गंध आती है, पर जड़ों में से आने वाली गंध बहुधा अदरक की गंध से मिलतीजुलती होती है. पत्थर जैसी चट्टानों पर पैदा होने के चलते इस को ‘पाषाण भेदी’ नाम से भी जाना जाता है.

यह पौधा भारत में खासतौर पर उत्तराखंड, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, गुजरात, कर्नाटक व तमिलनाडु वगैरह राज्यों में पाया जाता है. उत्तराखंड में पत्थरचूर की खेती तकरीबन 1,000 मीटर ऊंचाई तक की गरम जगहों पर की जा सकती है.

औषधीय उपयोग : पत्थरचूर की कंदील जड़ें शीतल, कड़वी, कसैली होती हैं. इन का उपयोग हाई ब्लडप्रैशर, बवासीर, गुल्म यानी नस में सूजन, मूत्रकृच्छ यानी पेशाब में जलन, पथरी, योनि रोग, प्रमेह यानी गोनोरिया, प्लीहा यानी तिल्ली रोग बढ़ना, शूल यानी ऐंठन, अस्थमा, दिल की बीमारी, कैंसर, आंखों की बीमारी वगैरह में किया जाता है. इस के अलावा इस का उपयोग बालों के असमय पकने से रोकने व पेट की बीमारियों के लिए भी किया जाता है.

जमीन व आबोहवा : पत्थरचूर की खेती के लिए नरम, मुलायम मिट्टी, जिस का पीएच मान 5.5-7.0 तक हो, सही रहती है. इस फसल को कम उपजाऊ मिट्टी में भी आसानी से उगाया जा सकता है. लाल रेतीली व रेतीली दोमट मिट्टी इस की खेती के लिए आदर्श मानी जाती है. इस के लिए गरम, आर्द्र आबोहवा काफी सही होती है. अकसर 86-95 फीसदी तक आर्द्रता व 100-160 सैंटीमीटर तक सालाना बारिश वाले इलाकों में इस की खेती सही होती है.

उन्नत किस्में : पत्थरचूर की 2 प्रमुख उन्नत किस्में हैं गारमल मैमुल और के-8.

कृषि तकनीक

खेत की तैयारी : पत्थरचूर की खेती के लिए खेत में 2-3 बार हल से जुताई कर के 10 टन गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देनी चाहिए, पर अगर जैविक खाद का इस्तेमाल किया जाना मुमकिन न हो तो प्रति हेक्टेयर 30 किलोग्राम नाइट्रोजन (15 किलोग्राम प्रतिरोपण के समय व बाकी प्रतिरोपण के एक माह बाद) 50 किलोग्राम फास्फोरस व 40 किलोग्राम पोटाश की मात्रा डालने से पौधों की सही बढ़वार होती है.

प्रवर्धन : पत्थरचूर का प्रवर्धन बीजों व कलमों द्वारा किया जा सकता है.

बोआई : पत्थरचूर की खेती बीजों व कलमों दोनों से की जा सकती है, पर कलमों से खेती करना ज्यादा सुविधाजनक होता है. यह विधि प्रचलित भी है.

पत्थरचूर की खेती के लिए नर्सरी की जरूरत होती है. इस के लिए 2-2 मीटर की क्यारियां तैयार कर के पाषाण भेदी की कलमों को लगा देना चाहिए जो 10-12 सैंटीमीटर लंबी हो व जिन में 5-6 पत्ते लगे हों. जल्दी ही कलमों से जड़ें फूटने लगती हैं.

नर्सरी से एक माह पुरानी कलमों को निकाल कर खेत में रोप देना चाहिए. पौध से पौध के बीच की दूरी 30 सैंटीमीटर और कतार से कतार की दूरी 30 सैंटीमीटर तक होनी चाहिए. इस तरह एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए तकरीबन 1 लाख कलमों की जरूरत होती है. प्रतिरोपण के 2 महीने बाद कोलियस के पौधों पर हलके नीले जामुनी रंग के फूल आने लगते हैं. इन फूलों को नाखुनों की मदद से तोड़ या काट दिया जाना चाहिए वरना जड़ों का विकास प्रभावित हो सकता है.

उर्वरक : पौधा रोपते समय प्रति हेक्टेयर 9-10 टन गोबर की सड़ी खाद डालनी चाहिए.

सिंचाई : पौध रोपने के बाद अगर बारिश न हो तो तत्काल सिंचाई करना बहुत जरूरी होता है. रोपने के पहले 2 हफ्तों में हर 3 दिन में एक बार पानी देना जरूरी होता है, जबकि बाद में हफ्ते में एक बार सिंचाई करना सही रहेगा.

Medicinal Plantनिराईगुड़ाई : पत्थरचूर मानसून की फसल होने के चलते समयसमय पर निराईगुड़ाई कर के खरपतवार निकालते रहना चाहिए.

कीट, रोग व उन की रोकथाम : पत्थरचूर की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले प्रमुख कीटों में बैक्टरियल विल्ट, कैटरपिलर, मिली बग, नोमोटिड्स वगैरह होते हैं. इन की रोकथाम के लिए 10 मिलीलिटर मिथाइल पैराथियान 10 लिटर पानी में घोल कर पौधों व उन की जड़ों पर छिड़काव करना चाहिए.

वहीं बैक्टीरियल विल्ट के लिए 0.2 फीसदी कैप्टान घोल का स्प्रे करना चाहिए. नोमोटिड्स की रोकथाम के लिए 8-10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से कार्बोफ्यूरान के ग्रेनुअल्स का इस्तेमाल करना चाहिए.

दोहन व संग्रहण : पत्थरचूर की फसल रोपण के 4.5-5 माह बाद खुदाई के लिए तैयार हो जाती है. वैसे, तब तक इस के पत्ते हरे ही रहते हैं, पर यह देखते रहना चाहिए कि जब जड़ें अच्छी तरह विकसित हो जाएं (यह स्थिति रोपण के तकरीबन 4-5 माह के बाद आती है) तो पौधों को उखाड़ लिया जाना चाहिए.

उखाड़ने से पहले खेत की हलकी सिंचाई कर दी जानी चाहिए, ताकि जमीन गीली हो जाए और जड़ें आसानी से उखाड़ी जा सकें. फिर जड़ों को धो कर साफ कर लेना चाहिए. उस के बाद छोटेछोटे टुकड़ों में काट कर छायादार जगह पर सुखा लेना चाहिए. फिर सूखी जड़ों को बोरियों में भर कर इकट्ठा कर देना चाहिए.

पत्थरचूर का विवरण

उत्पादन व उपज : पत्थरचूर की फसल से तकरीबन 15-18 क्विंटल तक सूखी जड़ें प्रति हेक्टेयर की दर से हासिल होती हैं.

बाजार की कीमत : पत्थरचूर का वर्तमान बाजार मूल्य 40-45 रुपए प्रति किलोग्राम तक होता है.

खर्च का ब्योरा : पत्थरचूर की खेती पर होने वाली अनुमानित लागत व प्राप्ति का प्रति व्यक्ति आर्थिक विवरण निम्न प्रकार है:

शुद्ध लाभ : 60,000.00

कुल प्राप्ति : 15,800.00

कुल लागत : 44,200

किसानों को फ्री बीज, कृषि यंत्रों पर भारी छूट

बस्ती : दलहन और तिलहन की खेती को बढ़ावा देने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किसानों को बीजों की निःशुल्क मिनी किट वितरित की जा रही है.

सूबे के कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही द्वारा सर्किट हाउस, बस्ती में 50 किसानों एवं कृषि विज्ञान केंद्र, बंजरिया, बस्ती में आयोजित गोष्ठी में 100 किसानों को सरसों/मटर /चना /मसूर की मिनी किट का वितरण किया गया.

इस मौके पर उपस्थित किसानों को संबोधित करते हुए कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने कहा कि प्रदेश सरकार किसानों की आय दोगुनी करने के लिए प्रतिबद्ध है.

उन्होंने आगे कहा कि खाद्य तेलों के विदेशी आयात में कमी लाए जाने हेतु सरकार द्वारा तिलहन के बीजों का निःशुल्क मिनी किट वितरित किया जा रहा है. इसी कड़ी में बस्ती मंडल को 12,000 मिनी किट उपलब्ध कराया गया है.

उन्होंने यह भी कहा कि प्रदेश सरकार द्वारा इस वर्ष रबी में दलहन एवं तिलहन के 10 लाख निःशुल्क मिनी किट किसानों को उपल्ब्ध कराया जा रहा है. इस से प्रदेश में तिलहन एवं दलहन के उत्पादन में वृद्धि होगी.

बीज वितरण में पारदर्शिता के लिए बायोमैट्रिक आधारित पौश मशीन का उपयोग

उन्होंने कहा कि बीज वितरण में पारदर्शिता लाए जाने के लिए बायोमैट्रिक आधारित पौश मशीन का उपयोग किया जा रहा है. लेकिन किसानों की सुविधा के लिए और समय से बोआई का काम पूरा किया जा सके. इस के लिए पात्र किसानों के जरूरी कागजात ले कर उन्हें समय से मिनी किट मुहैया कराए जाने का निर्देश दिया गया है.

न्होंने आगे कहा कि ऐसे किसानों का बाद में बायोमैट्रिक लिया जाएगा.

Kisan Yojnaकृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने कहा कि जिन किसानों को एक बार बीज मुहैया कराया जाता है, वह उसे 3 सालों तक बीज के रूप में उपयोग में ला सकते हैं.

मोटे अनाज की खेती करने हेतु किसानों से अपील करते हुए कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने कहा कि सरकार मोटे अनाज की खेती को बढ़ावा देने के लिए सदा प्रयासरत हैं और इस की खेती के लिए बीज कृषि विभाग के राजकीय कृषि बीज भंडारों पर मुफ्त उपलब्ध हैं.

उन्होंने मोटे अनाज के फायदे बताते हुए कहा कि इस के प्रयोग से तमाम तरह की बीमारियां नहीं होती हैं और यह पौष्टिक भी होता है. मोटे अनाज की खेती कम लागत में और बिना रासायनिक खाद का प्रयोग किए की जा सकती है, जिस से किसानों को ज्यादा लाभ प्राप्त होगा.

50 फीसदी अनुदान पर मिलेट्स प्रोसैसिंग मशीन

उन्होंने यह भी कहा कि श्रीअन्न पुनरोद्धार योजना के तहत उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 50 फीसदी अनुदान पर मिलेट्स प्रोसैसिंग मशीन किसानों को उपलब्ध कराया जा रहा है. साथ ही, उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें जानकारी मिली है कि बस्ती में 110 एफपीओ पंजीकृत हैं, जिन्हें प्रशिक्षित कर उन्हें सक्षम बनाया जाएगा.

उन्होंने सभी एफपीओ को शक्ति पोर्टल पर पंजीकृत किए जाने का निर्देश दिया और कहा कि एफपीओ को बढ़ावा देने के लिए प्रति किसान 2,000 रुपया मैचिंग ग्रांट भी दिया जा रहा है. इस के लिए एफपीओ में निर्धारित संख्या में शेयर अंशधारक किसानों का होना जरूरी है.

किसानों को संबोधित करते हुए कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने कहा कि सरकार एफपीओ को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न प्रकार से इन की आर्थिक मदद कर रही है, जैसे- फार्म मशीनरी बैक की स्थापना, बीज विधायन संयंत्र और मिलेट्स आउटलेट्स आदि लगाने पर सब्सिडी दी जा रही है.

कृषि विभाग पराली प्रबंधन यंत्रों पर छूट

कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही किसानों से पराली न जलाने की अपील करते हुए कहते हैं कि कृषि विभाग के समस्त राजकीय कृषि बीज भंडारों पर डीकंपोजर मुफ्त उपलब्ध है, जिस का प्रयोग कर कंपोस्ट खाद बना कर प्रयोग करने से लागत में कमी आती है और रासायनिक खाद की अपेक्षा कंपोस्ट खाद पूरी तरह जैविक होती है एवं कृषि विभाग पराली प्रबंधन यंत्रों पर 50 से 80 फीसदी की छूट भी दे रहा है.

कृषि विज्ञान केंद्र का भ्रमण

इस के बाद कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती में आयोजित कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए, जहां उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती का भ्रमण किया. इस दौरान उन्होंने आम, अमरूद, आंवला, मुसम्मी, किन्नू, संतरा, नाशपाती, अंजीर, सेब की विभिन्न प्रजातियों की जानकारी प्राप्त की.

कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने पूसा नरेंद्र काला नमक-1 धान के बीज उत्पादन कार्यक्रम की प्रशंसा की. उन्होंने जगरी यूनिट को तुरंत शुरू करने का निर्देश दिया. इस के उपरांत कृषि विभाग, बस्ती द्वारा कृषि विज्ञान केंद्र के भारत रत्न नानाजी देशमुख कांन्फ्रेस हाल में आयोजित मिनी किट वितरण कार्यक्रम में कप्तानगंज, बहादुरपुर, दुबौलिया एवं हर्रैया के किसानों को सरसों, लाही, मसूर एवं चना बीज के मिनी किट का वितरण किया

किसान बिना किसी भेदभाव के प्राप्त कर सकते हैं कृषि योजनाओं का लाभ

इस मौके पर किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि किसान रोजगारपरक प्रशिक्षण प्राप्त कर खेती के साथ ही साथ कृषिगत व्यवसाय डेरी , मुरगीपालन, बकरीपालन, मशरूमपालन, मधुमक्खीपालन के साथ फलपौध की नर्सरी पर जोर दिया.

Kisan Yojnaकृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने आईएफएस मौडल अपनाने पर किसानों का आवाह्न किया और कहा कि सिर्फ धान, गेहूं, गन्ना से किसानों की आय में आशातीत बढोतरी नहीं हो सकती है. किसान एकीकृत फसल प्रणाली (आईएफएस मौडल) अपना कर अपनी आय में 3-4 गुना वृद्धि कर सकते हैं. प्रदेश सरकार एवं केंद्र सरकार द्वारा किसानों के हित में अनेक कृषिगत योजनाएं चलाई जा रही हैं, जिन का लाभ किसान बिना किसी भेदभाव के प्राप्त कर सकते हैं.

सांसद हरीश द्विवेदी ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किसानों की आय बढ़ाने के लिए चलाई जा रही योजनाओं की प्रशंसा करते हुए कहा कि वर्तमान सरकार की अगुआई में लगातार खेती लाभ की तरफ अग्रसर हुई है. कृषि विज्ञान केंद्र के अध्यक्ष प्रो. एसएन सिंह ने केंद्र पर उगाई जा रही सब्जियों, फलों व अनाजों की उन्नत किस्मों के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि केंद्र पर दूरदराज के किसानों की भी पहुंच आसान हुई है.

Kisan Yojnaइस अवसर पर भाजपा जिलाध्यक्ष विवेकानंद मिश्रा, जिलाधिकारी आंद्रा वामसी, मुख्य विकास अधिकारी जयदेव पुलिस अधीक्षक बस्ती, उपनिदेशक कृषि अशोक कुमार गौतम, एसडीएम सदर गुलाबचंद, जिला कृषि अधिकारी डा. राजमंगल चौधरी, रतन शंकर ओझा, जिला कृषि रक्षा अधिकारी बस्ती, हरेंद्र प्रसाद, उप संभागीय कृषि प्रसार अधिकारी, कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक और भारतीय जनता पार्टी के जिलाध्यक्ष, जिला पंचायत अध्यक्ष संजय चौधरी, यशकांत सिंह ब्लौक प्रमुख, रामनगर, अनिल दूबे, प्रमुख प्रतिनिधि, कुदरहा, वैज्ञानिक डा. बीबी सिंह, डा. डीके श्रीवास्तव, डा. प्रेमशंकर, हरिओम मिश्रा सहित मिनी किट प्राप्त करने वाले किसान राम मूर्ति मिश्र, राम चरित्र, इमराना, राजाराम यादव, राजेंद्र सिंह, अहमद अली सहित सैकडों किसानों को सरसों, लाही, मसूर एवं चना, मटर बीज के निःशुल्क मिनी किट वितरित किया गया

जहांगीरी घंटा साबित हुआ पीएम का ‘शिकायतसुझाव पोर्टल’

कहा जाता है कि, मुगल काल में बादशाह जहांगीर ने लोगों को त्वरित न्याय देने के लिए किले के दरवाजे पर एक बड़ा घंटा लटकवाया था. इसे कोई भी फरियादी दिनरात कभी भी बजा कर सीधे मुल्क के बादशाह से अपनी शिकायत दर्ज कर न्याय प्राप्त कर सकता था.

इसी जहांगीरी घंटे की तर्ज पर प्रधानमंत्री ने खूब तामझाम व प्रचारप्रसार के साथ पीएमओ पोर्टल शुरू किया. सोशल मीडिया के इस प्लेटफार्म पर लोग अपनी जायज शिकायत सीधे प्रधानमंत्री तक पहुंचा सकते थे और उन शिकायतों पर त्वरित कार्यवाही व निराकरण कर उन्हें राहत पहुंचाने का दावा किया गया था.

कहा गया था कि इस पोर्टल पर देश का हर नागरिक अपनी सीधी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अपने उपयोगी सुझाव, योजनाएं सीधे अपने प्रधानमंत्री को भेज सकता है.

प्रधानमंत्री के इस पीएमओ पोर्टल का वास्तविक हश्र क्या हुआ, यह समझने के लिए हमें पहले इन की कार्यप्रणाली समझनी होगी.

मोदी के पिछले लगभग 10 सालों के कार्यकाल की अगर एक वाक्य में व्याख्या करनी हो, तो इसे वादों, नारों, जुमलों और भव्य आयोजनों की सरकार कहा जा सकता है.

मोदी ने देश को भले ही कुछ और दिया हो अथवा न दिया हो, लेकिन निश्चित रूप से इन्होंने कई लोकप्रिय नारे दिए हैं. इन्हीं नारों में इन का एक प्रमुख नारा था: ‘सब का साथ, सब का विश्वास.’

लेकिन यह सरकार और मोदी साथ और विश्वास तो सब का चाहते हैं, परंतु किसी को भी, उस के योगदान के लिए श्रेय देना तो जैसे इन्होंने सीखा ही नहीं, बल्कि इस बात का ध्यान रखा जाता है कि हर काम और उपलब्धियों का श्रेय मोदी और केवल मोदी को ही जाना चाहिए. किसी भी उपलब्धि का श्रेय वो अपनी पार्टी यहां तक कि संबंधित विभाग के मंत्रियों के साथ भी बांटने को तैयार नहीं हैं.

अब आते हैं जहांगीरी घंटे यानी पीएमओ पोर्टल पर. इस पोर्टल पर औनलाइन शिकायत दर्ज होने के बाद शिकायत के बारे में पोर्टल पर और कभीकभी फोन पर आप की शिकायत पर की गई कार्यवाही की जानकारी दी जाती है और शिकायतकर्ता को आशा बंधती है कि शायद उस की शिकायत का अब निराकरण होगा.

लेकिन शिकायत के निराकरण के नाम पर संबंधित विभाग या अधिकारियों से उन का पक्ष पूछ कर, अंततः आप को बता दिया जाता है कि आप की शिकायत निराधार है और आप की शिकायत की फाइल या खिड़की बंद कर दी जाती है.

समझें इन मामलों से

मामला नंबर 1:

अखिल भारतीय किसान महासंघ आईआई के राष्ट्रीय संयोजक किसान नेता डा. राजाराम त्रिपाठी ने उत्तर प्रदेश के लगभग डेढ़ लाख शिक्षाकर्मी और अनुदेशकों को लगभग 20 साल की सेवा के बाद भी नियमित न किए जाने और आज भी उन्हें एक कुशल मजदूर की मजदूरी भी न देते हुए, छुट्टियों, मैडिकल सुविधाएं, पेंशन, बीमा आदि सभी जरूरी सुविधाओं से वंचित रखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा किए गए ऐतिहासिक शोषण, अन्याय, पक्षपात की पीएमओ को की गई शिकायत पर कोई कार्यवाही नहीं हुई.

शिकायतकर्ता द्वारा अपील किए जाने के बावजूद बिना शिकायत की जांच किए और उत्तर प्रदेश सरकार से गोलमोल जवाब ले कर शिकायत को बंद कर दिया गया.

मामला नंबर 2:

वरिष्ठ पत्रकार और ऐक्टिविस्ट यशवंत सिंह (भड़ास 4मीडिया) का निजी मोबाइल पुलिस के उच्चाधिकारियों द्वारा छीनने, एवं  दुर्वव्हायवहार  की शिकायत पर भी पीएमओ द्वारा आज तक कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं हुई.

वे सोशल मीडिया पर बारबार कह रहे हैं कि उन के खिलाफ की गई शिकायतें पूरी तरह से फर्जी हैं, और वह शिकायत करने वालों को जानतेपहचानते तक नहीं, बावजूद इस के बिना पर्याप्त जांच के ही उन का निजी मोबाइल जब्त कर लिया जाता है और मांगने के बावजूद न तो शिकायत की प्रति दी जाती है और न ही मोबाइल की पावती दी जाती है.

देश के सर्वोच्च जिम्मेदार और शक्तिशाली प्रधानमंत्री के निजी कार्यालय को की गई शिकायत पर भी किसी तरह की जांचपड़ताल किए बिना ही, इस कांड से संबंधित दोषी पुलिस उच्च अधिकारियों से प्राप्त जानकारी के आधार पर शिकायत बंद कर दी जाती है. जाहिर है कि कोई भी गलती करने वाला अधिकारी अपनी गलती भला क्यों कर स्वीकार कर के सजा भुगतना चाहेगा?

बात प्रधानमंत्री द्वारा अपने पोर्टल पर मांगे जाने वाले सुझाव

यह किसी भी देशवासी के लिए बड़े गौरव की बात होती है कि देश की बेहतरी के लिए उस की सलाह, सुझाव, योजनाएं सीधे उन के प्रधानमंत्री द्वारा सुनी जाती है. लेकिन साथ ही वो देशवासी यह भी चाहता है कि प्रधानमंत्री अगर उस की सलाह, सुझाव, योजनाओं पर यदि कोई पहल करते हैं, तो कम से कम उस की सहभागिता का श्रेय भी उसे दें, ताकि वो और उस के जैसे अन्य देशवासी भी उत्साहित हो कर राष्ट्रनिर्माण के काम में बढ़चढ़ कर आगे आएं. आम नागरिक की सक्रिय सहभागिता सफल परिपक्व लोकतंत्र का अहम लक्षण है. परंतु सुझावसलाह के माने में भी पीएमओ पोर्टल वन वे ट्रैफिक बन कर रह गया.

जब वैश्विक महामारी कोविड 19 की वजह से दुनिया के साथसाथ भारत भी इस की चपेट में आया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च, 2020 को राष्ट्रव्यापी लौकडाउन की घोषणा की, तो पूरे राष्ट्र ने उन का समर्थन किया. सब लोग घरों में कैद हो गए.

यह अवाम के अभूतपूर्व अनुसाशन का प्रदर्शन था. लेकिन घरों में रहने के बावजूद लोगों को खाद्य पदार्थों की आवश्यकता तो पड़ती ही है. इसलिए कुछ आपात सेवाएं जारी रखी गई. पर उन में से एक काम ऐसा था कि जिसे भी जारी रखना बहुत जरूरी था. और वह काम था खेतीकिसानी का. जब खेतों से फलसब्जियों का उत्पादन नियमित होता है, तभी सप्लाई चेन द्वारा लोगों के घरों तक आपूर्ति हो पाती है.

इसी बात को ध्यान में रख कर 25 मार्च को मैं ने प्रधानमंत्री कार्यालय को टैग करते हुए सुझाव दिया कि खेती के काम को तत्काल लौकडाउन से मुक्त किया जाए और कैसे केवल फलसब्जी और तत्कालीन खेतों में खड़ी रबी की फसलों को भी सही समय पर कटाई कर के खलिहान और फिर खलिहान से गोदाम तक या किसानों के घरों तक और फिर जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने के काम को लौकडाउन से मुक्त रखा जाए.

इस सलाह को पंजीकृत कर प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा तुरंत अमल में लाया गया और 27 मार्च, 2020 को गृह मंत्रालय के द्वारा इसी आशय के संशोधित आदेश जारी कर खेती के ज्यादातर कामों को लौकडाउन से मुक्त कर दिया गया.

हालांकि अलगअलग राज्यों ने केंद्र सरकार के उन आदेशों की अपनी समझ और सुविधा के अनुसार अलगअलग व्याख्या करते हुए उन का क्रियान्वयन समुचित ढंग से नहीं किया, जिस से किसानों को भारी नुकसान और तमाम परेशानियां हुईं, स्थानीय प्रशासन ने भी कोरोना को रोकने और खेती के काम को रोकने का अंतर समझने की कोशिश नहीं की और सुदूरवर्ती इलाकों में पुलिस अपना पराक्रम निरीह किसानों पर दिखाती रही. आज भले कोरोना नहीं है, पर 3 साल बाद आज भी देश के किसान उस की मार से उबर नहीं पाए हैं.

केंद्र सरकार द्वारा कोरोना में गरीबों और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए और अन्य तबकों के लिए जब विभिन्न प्रकार के राहत की घोषणाएं की गईं, तब देखा गया कि इन घोषणाओं में कृषि और किसानें के लिए कोई बहुत सार्थक पैकेज नहीं था, जिस से लौकडाउन से खेती को हुए नुकसान की भरपाई करते हुए ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सके.

इसे ध्यान में रखते हुए, 25 अप्रैल, 2020 को डा. राजाराम त्रिपाठी की अगुआई में 52 किसान संगठनों से सलाहमशवरा कर मैराथन बैठकों के बाद काफी मेहनत कर के 25 सूत्री मार्गदर्शी सुझाव व मांगपत्र प्रधानमंत्री को सौंपा गया. इन अधिकांश सुझावों का स्पष्टदर्शी प्रभाव सरकार के तत्कालीन विशेष पैकेज में दिखाई दिया, पर सरकार ने इन सुझावों का श्रेय देने की बात तो दूर, सुझावों के लिए धन्यवाद देना तक जरूरी नहीं समझा.

कोरोना से जुड़ी एक और बानगी

भारत विश्व के सब से ज्यादा वन क्षेत्र वाले 10 देशों में से एक है. भारत के कुल क्षेत्रफल के लगभग 21.23 फीसदी क्षेत्र पर वन स्थित हैं. देश के कई राज्यों में जैसे कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओड़िसा, झारखंड, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र और पूर्वोत्तर राज्यों में जहां आज भी पर्याप्त वन क्षेत्र है, जैसे कि छत्तीसगढ़ में तो तकरीबन 44 फीसदी हिस्सा वन क्षेत्र है और भारत के समूचे 1 क्षेत्रों का 7.7 फीसदी वन छत्तीसगढ़ में ही है. इन वन क्षेत्रों में बहुसंख्यक जनजातीय समुदाय रहता है और इन क्षेत्रों की तकरीबन 70 फीसदी आबादी जंगलों से वनोपज एकत्र कर होने वाली आय से ही अपना जीवनयापन करती है.

छत्तीसगढ़ में तो 425 ऐसे वन राजस्व गांव भी हैं, जिन की आजीविका का साधन केवल जंगल ही है.

छत्तीसगढ़ में इस काम को सुचारु संचालन के लिए 901 प्राथमिक लघु वनोपज सहकारी समितियां काम कर रही हैं, जो पूरी तरह से वनोपज संग्रहण और विपणन पर ही निर्भर है.

भारत में कमोबेश इसी तर्ज पर तकरीबन 250 से अधिक प्रकार की वनोपज संग्रहण किया जाता है, इन सारे वनोपजों में से तकरीबन 70 फीसदी प्रमुख वनोपज मार्चअप्रैल में एकत्र की जाती हैं और यह वनोपज इन दिनों अगर एकत्र नहीं की गई तो या तो यह इन दिनों वनों में प्रायः हर साल लगने वाली आग से जल कर नष्ट हो जाती है, या फिर मईजून की गरमी में यह सूख कर अनुपयोगी जाती है, और इन सब से भी अगर बची भी तो आगे आने वाली मानसून पूर्व की बारिश की बौछारों में तो पूरी तरह से बरबाद हो ही जाती है.

अतः डा. राजाराम त्रिपाठी अखिल भारतीय किसान महासंघ (आइफा) द्वारा सरकार को समर्थन तथ्यों, आंकड़ों के साथ सुझाव देते हुए 4 अप्रैल, 2020 को प्रधानमंत्री कार्यालय विस्तार से वस्तुस्थिति की जानकारी देते हुए मांग की गई थी कि देश में तत्काल लौकडाउन के दरमियान बचाव के साधनों और सुरक्षा के साथ वनोपजों के संग्रहण और उन की खरीदी सुनिश्चित की जाए और संग्राहक परिवारों को इन वनोपजों का उचित मूल्य’ दिलाया जाए.

उक्त पत्र को प्रधानमंत्री कार्यालय के द्वारा आदिवासी मामलों के मंत्रालय को आगे कार्यवाही के लिए तत्काल 4 अप्रैल को ही भेज दिया गया. तत्पश्चात संबंधित राज्यों में 5-6 अप्रैल से वनोपज संग्रहण का काम सुचारु रूप से प्रारंभ हुआ, और 2 मई को केंद्र सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय द्वारा 49 वनोपज के जिसे माइनर फारेस्ट प्रोड्यूस (एमएफपी) कहते हैं, उस के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा भी की गई, जो कि भले ही देर से उठाया गया, पर निश्चित रूप से अच्छा कदम था.

इन्हीं महत्वपूर्ण निर्णयों के कारण हम कोरोना से लड़ाई लड़ते हुए भी अपनी अर्थव्यवस्था को काफी हद तक बचा पाए, लेकिन उपरोक्त सभी मामलों में सरकार ने जिन व्यक्ति या संगठनों के सुझाव को आधार पर उपरोक्त निर्णय लिए, उन का जिक्र तक नहीं किया है. यहां तक कि धन्यवाद ज्ञापन का एक मुफ्त ईमेल तक भेजने में सरकार कंजूसी बरतती है.

पिछले लोकसभा चुनाव के पूर्व, भाजपा के चुनावी घोषणापत्र बनाते समय जिन कृषि विशेषज्ञों को आमंत्रित कर उन से सलाह ली गई थी, उन में डा. राजाराम त्रिपाठी भी एक थे.

उल्लेखनीय है कि, वर्तमान में किसानों की मदद के लिए संचालित कृषक पेंशन निधि और किसान सम्मान निधि जैसी केंद्र सरकार की स्टार योजनाओं की आवश्यकता और उस के संभावित स्वरूप के बारे में अपनी परिकल्पना को स्पष्ट करते हुए इन्हें भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में शामिल करने के बारे में डा. राजाराम त्रिपाठी ने ही सलाह दी थी, इन सुझावों को भाजपा की तत्कालीन समूची चुनाव घोषणापत्र समिति ने सराहा भी था और इन्हें अपने घोषणापत्र में शामिल भी किया था और इस चुनाव में किसानों के वोटों से अभूतपूर्व सफलता भी प्राप्त की.

इन योजनाओं के दम पर पिछला चुनाव जीतने के बाद भी योजनाओं का सुझाव देने वाले का नाम भी कभी इन के द्वारा नहीं लिया गया. यह दीगर बात है कि इन योजनाओं के निर्माण, क्रियान्वयन और संचालन में इतनी खामियां रह गई हैं कि इन महात्वाकांक्षी योजनाओं का मूल उद्देश्य कहीं खो गया.

आखिर में एक सवाल?

सोचने की बात यह है कि एक ओर तो सरकार यह कहते नहीं थकती है कि वह हर नागरिक की सहभागिता शासन में चाहती है, ऐसे में कोई विशेषज्ञ अगर मेहनत कर के कोई सार्थक सुझाव सरकार को भेजता है, तो उन्हें कोई श्रेय देना तो दूर उस की अभिस्वीकृति तक नहीं की जाती है. ऐसे में सब से पहला लाख टके का सवाल यही है कि ‘सब का साथ, सब का विकास’ जैसे खोखले नारों के भरोसे क्या यह भाजपा सरकार साल 2024 चुनाव की वैतरणी पार कर पाएगी?

-किसान नेता डा. राजाराम त्रिपाठी, अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा) के राष्ट्रीय संयोजक और एमएसपी गारंटी कानून किसान मोरचा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं.

मसालों की कटाई व प्रोसैसिंग

पुराने समय से मसालों का हमारे जीवन में खास स्थान रहा है. मसालों का अपने रूप, रस, सुगंध, स्वाद, रंग, आकार वगैरह के कारण अलग ही महत्त्व है. भारत के मसालों की मांग विदेशों में तेजी से बढ़ रही है. मसाले हमारे खाने को जायकेदार बनाने के साथ दवा का भी काम करते हैं.

कटाई के बाद मसालों की सफाई, ग्रेडिंग, पैकिंग वगैरह काम किए जाते हैं. कटाई के समय मसालों में नमी 55-85 फीसदी होती है. इन को महफूज रखने के लिए इन की नमी को घटा कर 8-10 फीसदी तक करना पड़ता है.

मसालों के कारोबार के लिए उन की सही तरीके से कटाई के बाद मड़ाई, सफाई, ग्रेडिंग और पैकिंग पर खास ध्यान दें. यहां हम मसालों की कटाई के बाद के कामों की चर्चा कर रहे हैं.

धुलाई : जिन मसालों को जमीन के पास से या जमीन में से खोद कर निकाला जाता है, उन की धुलाई करना जरूरी होता है, ताकि उन में लगी धूल और संक्रमण पैदा करने वाले पदार्थ साफ हो जाएं. धुलाई बहते पानी से करनी चाहिए. इलायची, हलदी, अदरक वगैरह मसालों की धुलाई की जाती है.

छाल निकालना : कुछ मसाले जैसे अदरक, लहसुन के सूखने में इन की छाल ही रुकावट होती है. इन को सुखाने के लिए इन की छाल निकालना जरूरी होता है. छाल निकालने के लिए खास तरह के चाकुओं का इस्तेमाल किया जाता है. सफेद अदरक लेने के लिए अदरक की छाल निकाल कर उसे नीबू पानी से धो लिया जाता है. इस के लिए 600 मिलीलिटर नीबू के रस को 30 लिटर पानी में मिलाया जाता है.

गोदना : सभी तरह की मिर्च को सुखाने के लिए गोदने की विधि इस्तेमाल की जाती है. मिर्च को लंबाई में दबा कर चपटा कर के सुखाने में कम समय लगता है. इस से क्वालिटी व रंग भी बना रहता है.

रासायनिक उपचार : इस से मसालों को उन के असली रंगरूप में रख कर सुंदर बनाया जाता है, जिस से उन की अच्छी कीमत मिलती है.

छोटी इलायची के बाहर का हरा चमकदार रंग उस की छाल में मौजूद क्लोरोफिल के कारण होता है. इस की चमक को बनाए रखने के लिए इलायची को

2 फीसदी सोडियम कार्बोनेट के घोल में 10 मिनट तक रखा जाता है. मिर्च को सोडियम बाई कार्बोनेट व जैतून के तेल के मिश्रण से उपचारित करने के बाद सुखाने से उस का रंग बना रहता है.

अदरक को धोने के बाद साफ पानी में एक दिन के लिए रखा जाता है. इस के बाद 2 फीसदी बुझे चूने के घोल में 6 घंटे के लिए रखा जाता है.

बुझे चूने के पानी के घोल से उपचारित अदरक को सल्फर डाई औक्साइड के धुएं से (लगभग 3.5 किलोग्राम गंधक धुआं प्रति टन अदरक की दर से) 12 घंटों के लिए उपचारित किया जाता है.

इलायची की फली का रंग हरा चमक लिए हुए होना चाहिए. सभी फलियों का एक जैसा रंग नहीं होने के कारण इलायची की कीमत कम या ज्यादा होती है. एकसमान रंग लाने के लिए इलायची की फलियों को घुलनशील गंधक से उपचारित किया जाता है.

मसालों में हलदी के पीले रंग व इस की खास महक को बनाए रखने के लिए विशेष सावधानी रखनी पड़ती है. खुदाई के 3-4 दिन बाद मुख्य कंद से छोटेछोटे कंदों को अलग कर लिया जाता है. कंदों को धो कर बुझे चूने के पानी, सोडियम कार्बोनेट या सोडियम बाई कार्बोनेट के घोल में उबाला जाता है.

मसालों को सुखाना

मसालों को सुखाने के दौरान इन में नमी की मात्रा को कम कर के 5 से 8 फीसदी तक बनाए रखें. सही ढंग से सूखने पर मसालों का मूल रंग व स्वाद बना रहता है. मसालों को सुखाने के लिए इन तकनीकों को अपनाएं:

धूप में सुखाना : मसालों को धूप में सुखाने के लिए खास सावधानी रखनी पड़ती है, ताकि धूल व बारिश से उन्हें नुकसान न हो. इलायची को 2 फीसदी सोडियम कार्बोनेट से उपचारित कर के और अदरक, हलदी को बुझे चूने के पानी से उपचारित कर के धूप में 8-10 दिन तक सुखाया जाता है.

मसालों में 5 से 8 फीसदी नमी रह जाने तक ही उन्हें धूप में सुखाया जाता है. आईसीएआर ने मिर्च के लिए मिर्च छेदन मशीन तैयार की है. इस मशीन द्वारा 10 किलोग्राम प्रति घंटे की दर से मिर्च छेदन किया जाता है.

मशीन द्वारा सुखाना : मसालों को धूप में सुखाने पर मौसमी बाधाओं के अलावा उन में सूक्ष्म जीवों, धूल, चिडि़यों की गंदगी वगैरह मिलने का डर रहता है, जिस से मसाले की क्वालिटी पर बुरा असर पड़ता है. इस से बचने के लिए मशीन से मसालों को 60 से 70 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान पर 6 से 8 घंटों के लिए सुखाया जाता है.

बिजली की मशीन से सुखाना : गरम हवा के लिए बिजली से चलने वाली शोषक मशीन का इस्तेमाल किया जाता है. इस में तापमान, समय वगैरह का नियंत्रण रहता है, जिस से आसानी से हर तरह के मसालों को सुखाया जा सकता है.

भारतीय मसालों की राष्ट्रीय कानून के तहत हर अवस्था में ग्रेडिंग की जाती है. मसालों के लिए ग्रेडिंग करना कृषि उपज अधिनियम (1987) श्रेणीकरण विपणन के अधीन होता है. इन श्रेणियों को एगमार्क कहा जाता है. इस में भौतिक गुण जैसे रंग, आकार, घनत्व वगैरह का खासतौर पर ध्यान रखा जाता है.

किसानों को अपने उत्पादों की अच्छी कीमत पाने के लिए ग्रेडिंग की जानकारी होना जरूरी है.

कारोबार की कुशलता बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक ग्रेडिंग एक अहम अंग है.

मसालों की गुणवत्ता मान

साबुत बड़ी इलायची : साबुत बड़ी इलायची के सूखे व लगभग पके हुए फल संपुटों के रूप में होते हैं. दलपुंजों के टुकड़ों, डंठलों व अन्य चीजों का भार अनुपात में 5 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए. कीटों द्वारा नुकसान किए पदार्थ की मात्रा भार में 5 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए.

बड़ी इलायची का चूर्ण : बीजों के चूर्ण में बीज अच्छी तरह पिसे होने चाहिए. नमी भार में 14 फीसदी से कम व कुल खनिज भार में 8 फीसदी से कम और वाष्पीय तेल एक फीसदी से कम होना चाहिए.

साबुत लाल मिर्च : कैप्सिकम फ्रुटेसैंस के सूखे पके फल या फलियां शामिल होती हैं. इस में अन्य पदार्थ बाहरी दलपुंज के टुकड़े, धूल, मिट्टी के ढेले, पत्थर वगैरह  शामिल हैं.

Spicesये चीजें भार में 5 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. कीटों द्वारा खराब पदार्थों की मात्रा भार में 5 फीसदी से कम हो.

लाल मिर्च चूर्ण : सूखी साफ फलियों का चूर्ण होना चाहिए. मिर्च के चूर्ण में धूल, कवक, कीट द्वारा नुकसान व सुगंधित पदार्थ नहीं होने चाहिए. मिर्च के चूर्ण की नमी 12 फीसदी से कम, कुल खनिज भार 8 फीसदी से कम होना चाहिए.

साबुत धनिया : कोरिएंडम सेटाइवम के सूखे बीज, जिस में धूल, कचरा, कंकड़, मिट्टी के ढेले, भूसी, डंठल के अलावा अन्य खाद्य पदार्थ के बीज व कीटों द्वारा खाए बीज शामिल न हों, का अनुपात 0.8 फीसदी से ज्यादा न हो.

धनिया चूर्ण : इस में नमी भार में 12 फीसदी से ज्यादा नहीं व कुल खनिज भार 7 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए.

मेथी : सूखे पके बीज में फालतू पदार्थ, धूल, कचरा, कंकड़, मिट्टी के ढेले वगैरह का अनुपात भार में 5 फीसदी से कम होना चाहिए. कीटों द्वारा खाए पदार्थ की मात्रा भार में 5 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए.

मेथी चूर्ण : इस में मेथी के सूखे पके फलों का पिसा चूर्ण, जिस में नमी भार में 10 फीसदी से कम व कुल खनिज भार में 7 फीसदी से कम होनी चाहिए.

साबुत हलदी : पौधे से सूखे कंद या कंदीय जड़ में लैड क्रोमेट व अन्य रंजक पदार्थों की मिलावट नहीं होनी चाहिए. कीटों द्वारा नुकसान किए पदार्थों की मात्रा भार में 5 फीसदी से कम होनी चाहिए.

हलदी चूर्ण : चूर्ण में बाहरी रंग की मिलावट नहीं होनी चाहिए. चूर्ण में नमी भार में 13 फीसदी से कम व कुल खनिज भार में 9 फीसदी से कम होनी चाहिए. लैड क्रोमेट जांच नेगेटिव होनी चाहिए.

स्टोरेज : मसाले व इन के उत्पाद नमी के मामले में ज्यादा संवेदनशील होते हैं, क्योंकि इन में नमी लेने की कूवत ज्यादा होती है. इस वजह से नमी से बचाने के लिए इन का भंडारण व पैकिंग अच्छी होनी चाहिए. नमी के आने पर इन में दरार पड़ने, रंग फीका पड़ने के अलावा कीट व बीमारियों का हमला हो जाता है.

पौलीहाउस में टमाटर  की  खेती

टमाटर अपने लाभदायक गुणों व तमाम उपयोगों के कारण सब से महत्त्वपूर्ण सब्जी वाली फसल है. यह एक बहुत अहम सुरक्षित खाद्य पदार्थ है. इस की खेती सभी जगहों पर की जा सकती है. संसार में आलू व शकरकंद के बाद टमाटर ही सब से अधिक पैदा की जाने वाली सब्जी है.

टमाटर का इस्तेमाल टमाटर सूप, सलाद, अचार, टोमेटो कैचप, प्यूरी व चटनी वगैरह बनाने में किया जाता है. इस के अलावा लगभग हर सब्जी के साथ टमाटर का भी इस्तेमाल किया जाता है.

टमाटर गरम मौसम की फसल है. इस की फसल उन इलाकों में ज्यादा अच्छी होती है, जहां पाला नहीं पड़ता है. लेकिन ज्यादा गरमी और सूखे मौसम में अधिक वाष्पीकरण होने के कारण टमाटर के कच्चे व छोटे फल तेजी से गिरने लगते हैं.

टमाटर की फसल में 38 डिगरी सेंटीग्रेड से ज्यादा तापमान होने पर फल नहीं बनते और पहले से मौजूद फलों का आकार भी बिगड़ जाता है. इसी तरह बहुत कम तापमान (0 से 12 डिगरी सेंटीगे्रड) पर भी फल नहीं बनते. टमाटर में लाइकोपिन नामक वर्णक की मात्रा 20-25 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान पर अधिक बनती है और 27 डिगरी सेंटीग्रेड पर इस वर्णक का उत्पादन तेजी से गिरने लगता है. तापमान 32 डिगरी सेंटीग्रेड  के ऊपर पहुंचने पर लाइकोपिन बनना बंद हो जाता है.

तापमान व फसल में लगने वाले कीड़ों व बीमारियों को ध्यान में रखते हुए अगर टमाटर की खेती पौलीहाउस में की जाए तो कम और ज्यादा तापमान से भी फसल को बचाया जा सकता है. साथ ही फसल को कीड़ों व बीमारियों से भी बचा कर अधिक उत्पादन लिया जा सकता है.

आजकल नेचुरल वैंटीलेटेड पौलीहाउस बनाए जाते हैं, जिन में अलग से पंखे लगाने की जरूरत नहीं होती.

मिट्टी व उस की तैयारी

पौलीहाउस के अंदर टमाटर की खेती के लिए चिकनी दोमट, दोमट या बलुई दोमट जीवांश युक्त मिट्टी जिस का पीएच मान 6.5-7.0 हो, अच्छी रहती है. जमीन की 4-5 बार जुताई कर के उस में 1 मीटर चौड़ा 8-9 इंच उठा हुआ बैड बना देना चाहिए.

बीज की मात्रा : 1 हेक्टेयर खेत की रोपाई के लिए देशी किस्मों का 400 ग्राम बीज या संकर किस्मों का 200 ग्राम बीज जरूरी होता है.

डिटरमिनेट प्रजाति: पूसा अर्ली ड्वार्फ, आजाद टी 6, पूसा गौरव, डीवी आरती 1 व डीवी आरती 2. आमतौर पर अगेती प्रजातियां डिटरमिनेट किस्म की होती हैं. इन की बढ़वार सीमित होती है.

इनडिटरमिनेट प्रजाति : अर्का सौरभ, अर्का विकास, पूसा रूबी, पंत बहार, पंत टमाटर 3 व केएस 17. इन प्रजातियों की लंबाई लगातार बढ़ती रहती है.

संकर किस्में : पूसा हाइब्रिड 2, रूपाली, अविनाश 2, एमटीएच 15, नवीन, राजा, अपूर्वा, अजंता व रश्मि.

खाद व उर्वरक

टमाटर की फसल में उन्नतशील प्रजाति के लिए प्रति हेक्टेयर 200-250 क्विंटल गोबर की खाद, 120-150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60-80 किलोग्राम फास्फोरस और 80-100 किलोग्राम पोटाश की जरूरत होती है. गोबर की खाद 1 माह पहले खेत की तैयारी के समय खेत में मिला देनी चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा रोपाई से पहले खेत में डाल कर 1 मीटर चौड़ा व 8-9 इंच ऊंचा बैड बना देना चाहिए.

Tomatoनर्सरी और रोपाई

1 हेक्टेयर खेत में रोपाई के लिए टमाटर की नर्सरी तैयार करने के लिए 8-9 इंच ऊंची, 1 मीटर चौड़ी व 3 मीटर लंबी क्यारियां लगभग 200 वर्ग मीटर में तैयार की जाती हैं. क्यारियां  (बैड) तैयार करते समय 10-15 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद व 15-20 ग्राम डीएपी प्रति वर्ग मीटर की दर से मिलाएं और 3-4 बार खुदाई कर के बैड को समतल कर लें. फिर उठी हुई क्यारियों में लगभग 1 सेंटीमीटर की गहराई पर 2 सेंटीमीटर की दूरी पर बीजों की बोआई करें. लाइन से लाइन की दूरी 10 सेंटीमीटर रखें. बोआई के बाद हजारे द्वारा हलकी सिंचाई करें.

1 हेक्टेयर खेत की रोपाई के लिए सामान्य किस्म का 400 ग्राम व संकर किस्मों का 200 ग्राम बीज लगता है. बीज हमेशा कार्बंडाजिम या थायरम से उपचारित कर के ही बोआई करें. जब पौधे 5-6 पत्ती वाले या 25-30 दिनों के हो जाएं तो तैयार खेत में 3 इंच गहरे गड्ढे खोद कर पौधे से पौधे की दूरी 45 सेंटीमीटर और लाइन से लाइन की दूरी 60 सेंटीमीटर रखते हुए रोपाई कर देनी चाहिए.

मैदानों व पौलीहाउसों में टमाटर की फसल साल में 2 बार ली जा सकती है. पहली फसल के लिए जुलाईअगस्त में बोआई की जाती है और रोपाई का काम अगस्त के आखिर तक किया जाता है. दूसरी फसल नवंबरदिसंबर में बोई जाती है और पौधों की रोपाई दिसंबरजनवरी में की जाती है.

टमाटर जल्दीजल्दी व उथली निराईगुड़ाई चाहने वाली फसल है, लिहाजा हर सिंचाई के बाद ‘हैंड हो’ या खुरपी द्वारा खेत की ऊपरी सतह को भुरभुरी बनाना चाहिए. गहरी निराईगुड़ाई नहीं करनी चाहिए, इस से जड़ों को नुकसान हो सकता है.

कटाईछंटाई व स्टैकिंग

बाजार में टमाटर शीघ्र उपलब्ध कराने के लिए पौधों की कटाई कर के एक तने के रूप में कर के तार द्वारा ऊपर चढ़ा देते हैं. इस से पौधे अधिक बढ़ते हैं. टमाटर बड़े आकार के होते हैं और ज्यादा पैदावार होती है.

सिंचाई : पौलीहाउस में टमाटर की फसल में सिंचाई ड्रिप (बूंदबूंद) या स्प्रिंकलर विधि द्वारा की जाती है. इस से लगभग 40-50 फीसदी पानी की बचत होती है. गरमियों में 4-5 दिनों के अंतर पर और सर्दियों में 8-10 दिनों के अंतर पर सिंचाई करते हैं.

पौधों को सहारा देना

इनडिटरमिनेट और संकर प्रजातियों में पौधों को सहारा देने की जरूरत होती है. इस के लिए लोहे के तारों को पौलीहाउस के पोलों में बांध देते हैं. जरूरत के मुताबिक तार बांधने के लिए बांसों को जमीन में गाड़ देते हैं. लोहे के तारों से सुतली या प्लास्टिक की रस्सी नीचे लटका कर पौधों की जड़ों के पास बांध देते हैं. इस प्रकार पौधों को सहारा मिल जाता है और वे ठीक ढंग से बढ़ते हैं.

कटाई : टमाटर के फल पकने की अवस्था उसे उगाने के मकसद व एक जगह से भेजे जाने वाली दूसरी जगह की दूरी पर निर्भर करती है. इस के फलों की तोड़ाई इन अवस्थाओं में की जाती है :

हरी अवस्था : अधिक दूर के बाजारों में भेजने के लिए हरे परंतु पूरी तरह विकसित फलों की तोड़ाई करते हैं.

गुलाबी अवस्था : स्थानीय बाजारों के लिए गुलाबी टमाटरों की तोड़ाई करते हैं.

पकी हुई अवस्था : घर के पास लगे पौधों से तुरंत इस्तेमाल के लिए पके लाल टमाटर तोड़े जाते हैं.

पूरी तरह पकी अवस्था : अचार व प्यूरी बनाने व डब्बों में बंद करने के लिए पूरी तरह पके टमाटर तोड़े जाते हैं.

उपज : पौलीहाउस में टमाटर की उपज 800-1000 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हासिल हो जाती है.

बीमारियां

आर्द्रगलन : बीज से पौधा बनते ही नर्सरी में पौधा मुरझा जाता है. ये लक्षण कुछ दिनों बाद दिखाई देते हैं. इस के उपचार के लिए क्यारियों को 1 भाग फार्मलीन में 7 भाग पानी मिला कर बोआई से 15-20 दिनों पहले से शोधित करें और पौलीथीन से ढक दें.

क्यारियों को मैंकोजेब (25 ग्राम दवा को 10 लीटर पानी में मिला कर) और कार्बंडाजिम (20 ग्राम दवा को 10 लीटर पानी में मिला कर) के घोल से लक्षण दिखाई देते ही सींचें.

मरोडिया (लीफ कर्ल) रोग : यह विषाणु से होने वाली बीमारी है, जो सफेद मक्खी द्वारा फैलती है. इस में टमाटर की पत्तियां मुड़ जाती हैं, उन का आकार छोटा हो जाता है, उन की सतह खुरदरी हो जाती है और बढ़वार रुक जाती है. इस की रोकथाम के लिए रोग प्रतिरोधी किस्में जैसे एस 12 लगाएं. इस के अलावा इमिडाक्लोरोपिड 0.5 मिली लीटर  को 1 लीटर पानी में घोल कर स्प्रे करें. पौधशाला में मच्छरदारी का प्रयोग करें.

जड़ों की गांठ वाले सूत्रकृमि : ये सूक्ष्मदर्शी जीव मिट्टी में रहते हैं. इन के प्रकोप से जड़ों में गांठें बन जाती हैं और पौधे पीले पड़ कर मुरझा जाते हैं. इस से बचाव के लिए सूत्रकृमि रहित पौधशाला से ही पौधे लें. रोगग्रस्त इलाकों में 2-3 सालों के लिए प्रतिरोधी किस्म एस 12 लगाएं. हर साल पौधशाला की जगह बदलें और 5-10 ग्राम फ्यूराडान 3जी की मात्रा प्रति वर्ग मीटर की दर से क्यारियों में मिलाएं.

कीट

फलछेदक कीट : यह टमाटर का खास दुश्मन है. इस कीड़े की इल्लियां हरे फलों में घुस जाती हैं और फलों को सड़ा देती हैं.

जैसिड : ये हरे रंग के छोटे कीड़े होते हैं, जो पौधों की कोशिकाओं से रस चूस लेते हैं, जिस के कारण पौधों की पत्तियां सूख जाती हैं.

सफेद मक्खी : ये सफेद छोटे मच्छर जैसे कीड़े होते?हैं, जो पौधों से रस चूस लेते हैं. ये पत्तियां मुड़ने वाली बीमारी फैलाते हैं.

उपचार : फसल की शुरुआती अवस्था में सफेद मक्खी और जैसिड की रोकथाम के लिए 0.05 फीसदी मेटासिस्टाक्स या रोगार का छिड़काव करना चाहिए.

फल छेदक कीट से प्रभावित फलों और कीड़ों के अंडों को जमा कर के नष्ट कर दें और 0.05 फीसदी मेलाथियान या 0.1 फीसदी कार्बारिल का छिड़काव करें. 10 दिनों बाद दूसरा छिड़काव करें.

प्याज व लहसुन में पौध संरक्षण

हमारे यहां प्याज व लहसुन कंद समूह की मुख्य रूप से 2 ऐसी फसलें हैं, जिन का सब्जियों के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है. देश में इन की खपत काफी है और विदेशी पैसा हासिल करने में इन का बहुत बड़ा योगदान है.

वैसे तो दुनिया में भारत प्याज और लहसुन की खेती में अग्रणी है, लेकिन इन की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता दूसरे कई देशों से कम है. इस के लिए दूसरे तमाम उपायों के साथ जरूरी है कि इन फसलों की रोगों व कीड़ों से सुरक्षा. फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले रोगों व कीड़ों की पहचान और उन की रोकथाम करने से काफी हद तक इन फसलों को बचाया जा सकता है.

मुख्य रोग झुलसा

लक्षण : यह रोग पत्तियों और डंठलों पर छोटेछोटे सफेद और हलके पीले धब्बों के रूप में पाया जाता है, जो बाद में एकदूसरे से मिल कर भूरे रंग के धब्बे में बदल जाते हैं व आखिर में ये धब्बे गहरे भूरे या काले रंग के हो जाते हैं.

धब्बे की जगह पर बीज का डंठल टूट कर गिर जाता है. पत्तियां धीरेधीरे सिरे की तरफ से सूखना शुरू करती हैं और आधार की तरफ बढ़ कर पूरी तरह सूख जाती हैं. अनुकूल मौसम मिलते ही यह रोग बड़ी तेजी से फैलता है और कभीकभी फसल को भारी नुकसान पहुंचाता है.

रोकथाम : साफसुथरी खेती फसल को निरोग रखती है. वहीं गरमी के महीने में गहरी जुताई और सौर उपचार काफी फायदेमंद रहता है.

दीर्घकालीन असंबंधित फसलों का फसलचक्र अपनाना चाहिए.

रोग के लक्षण दिखाई देते ही इंडोफिल एम-45 की 400 ग्राम या कौपर औक्सीक्लोराइड-50 की 500 ग्राम या प्रोपीकोनाजोल 20 फीसदी ईसी की 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ के हिसाब से 200 लिटर पानी में घोल बना कर और किसी चिपकने वाले पदार्थ के साथ मिला कर 10-15 दिन के अंतराल पर छिड़कें.

बैगनी धब्बा

लक्षण : यह रोग पत्तियों, तनों, बीज स्तंभों व शल्क कंदों पर लगता है. रोगग्रस्त भागों पर छोटेछोटे सफेद धंसे हुए धब्बे बनते हैं, जिन का मध्य भाग बैगनी रंग का होता है.

ये धब्बे जल्दी ही बढ़ते हैं. इन धब्बों की सीमाएं लाल या बैगनी रंग की होती हैं, जिन के चारों ओर ऊपर व नीचे कुछ दूर तक एक पीला क्षेत्र पाया जाता है.

रोग की उग्र अवस्था में शल्क कंदों का विगलन कंद की गरदन से शुरू हो जाता है. रोगग्रस्त पौधों में बीज आमतौर पर नहीं बनते और अगर बीज बन भी गए तो वह सिकुड़े हुए होते हैं.

रोकथाम : इस रोग की रोकथाम भी झुलसा रोग की तरह ही की जाती है.

आधारीय विगलन

लक्षण : इस रोग के प्रकोप से पौधों की बढ़वार रुक जाती है और पत्तियां पीली पड़ जाती हैं. बाद में पत्तियां ऊपर से नीचे की तरफ सूखना शुरू होती हैं. कभीकभी पौधे की शुरू की अवस्था में इस रोग के कारण जड़ें गुलाबी या पीले रंग की हो जाती हैं और आकार में सिकुड़ कर आखिर में मर जाती हैं.

रोग की उग्र अवस्था में शल्क कंद छोटे रहते हैं और इस रोग का प्रभाव कंदों के ऊपर गोदामों में सड़न के रूप में देखा जाता है.

रोकथाम : आखिरी जुताई के समय रोगग्रस्त खेतों में फोरेट दानेदार कीटनाशी 4.0 किलोग्राम प्रति एकड़ मिट्टी में अच्छी तरह से मिलाएं.

दीर्घकालीन असंबंधित फसलों से 2-3 साल का फसलचक्र अपनाएं. कंद को खुले व हवादार गोदामों में रखना चाहिए.

विषाणु

लक्षण : इस रोग के कारण पत्तियों पर हलके पीले रंग की धारियां बनती हैं और पत्तियां मोटी व अंदर का भाग लहरदार हो जाता है. ऐसे हालात में धारियां आपस में मिल कर पूरी पत्ती को पीला कर देती हैं और बढ़वार रुक जाती है.

रोकथाम : चूंकि यह रोग कीड़ों से फैलता है, इसलिए फसलवर्धन काल में जब भी इस रोग के लक्षण दिखें, उसी समय मैटासिस्टौक्स या रोगोर नामक किसी एक दवा का एक मिलीलिटर दवा का प्रति लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करें. जरूरत पड़ने पर दोबारा छिड़काव करें.

मुख्य कीड़े

इन फसलों को सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाले 2 मुख्य कीड़े हैं, थ्रिप्स (चुरड़ा) व लहसुन मक्खी. इन कीड़ों का प्रकोप फरवरी महीने तक होता है.

थ्रिप्स : इस कीड़े के शिशु व प्रौढ़ दोनों ही पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. प्रौढ़ काले रंग के बहुत ही छोटे, पतले व लंबे होते हैं, जबकि शिशु यानी बच्चे हलके भूरे व पीले रंग के होते हैं. जहां से पत्तियां निकलती हैं, उसी जगह ये कीड़े रहते हैं और नईनई कोमल पत्तियों का रस चूसते हैं.

इन के प्रकोप से पत्ते के सिरे ऊपर से सफेद व भूरे हो कर सूखने व मुड़ने लगते हैं. इस वजह से पौधों की बढ़वार रुक जाती है. ज्यादा प्रकोप होने पर पत्ते चोटी से चांदीनुमा हो कर सूख जाते हैं. बाद की अवस्था में इस कीड़े का प्रकोप होने पर शल्क कंद छोटे रहते हैं और आकृति में भी टूटेफूटे होते हैं. बीज की फसल पर इस कीड़े का बहुत ज्यादा असर पड़ता है.

रोकथाम : इस कीड़े की रोकथाम के लिए बारीबारी से किसी एक कीटनाशक को 200-250 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें.

(क) 1. 75 मिलीलिटर फैनवैलरेट 20 ईसी

      1. 175 मिलीलिटर डैल्टामेथ्रिन 2.8 ईसी
      2. 60 मिलीलिटर साइपरमेथ्रिन 25 ईसी या 150 मिलीलिटर साइपरमेथ्रिन 10 ईसी

(ख) 1.300 मिलीलिटर मेलाथियान 50 ईसी

प्याज व लहसुन में चुरड़ा कीट की रोकथाम के लिए लहसुन का तेल 150 मिलीलिटर और इतनी ही मात्रा में टीपोल को 150 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ में 3 से 4 छिड़काव करें.

थ्रिप्स की रोकथाम के समय बरतें सावधानी

* एक ही कीटनाशी का बारबार इस्तेमाल न करें.

* छिड़काव की जरूरत मार्चअप्रैल महीने में पड़ती है, क्योंकि कीड़ा फरवरी से मई महीने तक नुकसान करता है, इसलिए कोई चिपकने वाला पदार्थ घोल में जरूर मिलाएं.

* छिड़काव के कम से कम 15 दिन बाद ही प्याज इस्तेमाल में लाएं.

Lahsunप्याज व लहसुन मक्खी

कभीकभी इस कीड़े का प्रकोप भी इन फसलों पर देखने में आता है. लहसुन की मक्खी घरों में पाई जाने वाली मक्खी से छोटी होती है. इस के शिशु (मैगट) व प्रौढ़ दोनों ही फसल को नुकसान पहुंचाते हैं.

मादा सफेद मक्खी मटमैले रंग की होती है, जो मिट्टी आमतौर पर बीज स्तंभों के पास मिट्टी में अंडे देती है. अंडों से नवजात मैगट स्तंभों के आधार पर खाते हुए फसल के भूमिगत तने वाले हिस्सों में आक्रमण करते हैं और बाद में कंदों को खाना शुरू कर देते हैं, जिस से पौधे सूख जाते हैं. बाद में इन्हीं कंदों पर आधारीय विगलन रोग का आक्रमण होता है, जिस से बल्ब सड़ने लगते हैं.

रोकथाम : आखिरी जुताई के समय खेत में फोरेट कीटनाशी 4.0 किलोग्राम प्रति एकड़ मिट्टी में अच्छी तरह से मिलाएं और बाद में थ्रिप्स में बताई गई कीटनाशियों का इस्तेमाल करें.

अनार की खेती : कीटरोगों से बचाव व प्रबंधन

अनार की खेती से अच्छी पैदावार लेने के लिए उन्नत किस्मों को इस्तेमाल करने के साथसाथ अनार के बागों को कीट व बीमारी से बचाना भी जरूरी है. अनार में कीट बीमारी लगने पर फल का विकास रुक जाता है. जिस से फल का बाजार भाव भी ठीक नहीं मिलता. इसलिए समय रहते अनार के बागों में कीट बीमारी न पनपने दें, समय रहते उन का निदान करें.

कीट से नुकसान

अनार की तितली या फल छेदक: यह अनार का एक प्रमुख कीट है, जो अनार के विकासशील फलों में छेद कर देता है और अंदर से खाता रहता है. इस वजह से फल फफूंद और जीवाणु संक्रमण के प्रति अतिसंवेदनशील हो जाते हैं.

नियंत्रण : शुरुआती अवस्था में फलों को पौलीथिन बैग से बैगिंग कर के या ढक कर नियंत्रित किया जा सकता है. फास्फोमिडान का 0.03 फीसदी या सेविन का 4 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव कर के भी इस कीट से छुटकारा पाया जा सकता है.

छाल भक्षक : यह कीट रात को तने की छाल खाता है. कीट द्वारा बनाए गए छेद इस के मलमूत्र से भरते जाते हैं, जिस के कारण इस के लक्षणों को भी पहचान पाना बहुत मुश्किल होता है. यह कीट मुख्य तने पर छेद बनाता है और तने के अंदर सुरंगों का एक जाल बना लेता है, जिस के कारण पौधे की शाखाएं तेज हवा चलने पर टूट जाती हैं.

नियंत्रण : इस कीट के प्रभावी नियंत्रण के लिए कीट द्वारा बनाए गए छेदों को डीजल या केरोसिन में रूई भिगो कर बंद कर देते हैं. कीट द्वारा बनाए हुए छेदों में केरोसिन का तेल भर देते हैं. आजकल किसानों द्वारा फलों की बैगिंग की जाती है, जो फलों की गुणवत्ता में सुधार करती है.

रोग

जीवाणु पत्ती धब्बा रोग या औयली धब्बा रोग : यह रोग जेंथोमोनास औक्सोनोपोडिस पीवी पुनिका नामक रोगकारक के द्वारा फैलता है. इस रोग की सब से अधिक समस्या बारिश के मौसम में आती है. इस रोग में पादप के तने, पत्तियां व फलों पर छोटे गहरे भूरे रंग के पानी से लथपथ धब्बे बनते हैं. जब संक्रमण अधिक हो जाता है, तो फल फटने लग जाते हैं.

नियंत्रण : इस के प्रभावी नियंत्रण के लिए स्ट्रेप्टोमाइसीन 0.5 ग्राम प्रति लिटर और कौपर औक्सीक्लोराइड 2.0 ग्राम प्रति लिटर के हिसाब से मिश्रण कर के छिड़काव करें.

फल फटना या फल फूटना : यह अनार में एक गंभीर दैहिक विकार है, जो आमतौर पर अनियमित सिंचाई, बोरोन की कमी और दिन या रात के तापमान में अचानक उतारचढ़ाव के कारण होता है. इस विकार में फल फट जाते हैं, जिस के कारण फलों का बाजार मूल्य कम हो जाता है. इस का सीधा नुकसान उत्पादक को होता है.

नियंत्रण : इस के नियंत्रण के लिए बोरोन का 0.1 फीसदी की दर से और जीए3 का 250 पीपीएम की दर से पर्णीय छिड़काव करें. इस के अलावा मिट्टी में सही नमी बनाए रखें. प्रतिरोधी किस्मों का चयन करें.

सनबर्न : यदि फलों की उचित अवस्था में तुड़ाई नहीं की जाए, तो यह विकार भी एक समस्या के तौर पर उभरता है. इस विकार में फलों की ऊपरी सतह पर काले रंग का गोल स्थान दिखाई देता है. यह फलों की सुंदरता व गुणवत्ता दोनों में कमी करता है, जिस के कारण फलों का बाजार मूल्य कम हो जाता हैं.

नियंत्रण : फलों की बैगिंग करें.

फलों की तुड़ाई

अनार के फलों की तुड़ाई फूल आने से ले कर फल के पकने तक 150 से 180 दिनों के बाद शुरू होती है. लेकिन यह जीनोटाइप, जलवायु हालात और उगाने के क्षेत्र पर निर्भर करता है. फलों की तुड़ाई इष्टतम परिपक्व अवस्था पर करनी चाहिए, क्योंकि जल्दी तुड़ाई करने से फल अधपके और अनुचित पकने लगते हैं, जबकि देरी से तुड़ाई करने पर विकारों का प्रकोप अधिक होने लगता है. इस प्रकार से अनार एक नौनक्लाईमैट्रिक फल (ऐसे फल, जिन्हें तोड़ कर नहीं पकाया जा सकता) है. लिहाजा, फलों को पकने के बाद एक उचित अवस्था में तोड़ना चाहिए.

फलों के पकने और तुड़ाई का आकलन करने के लिए अनेक प्रकार के संकेतों का उपयोग किया जाता है, जैसे गहरा गुलाबी रंग फल की सतह पर विकसित होना. गहरे गुलाबी रंग का निशान ज्यादातर उपभोक्ताओं द्वारा पसंद किया जाता है. अनार के फलों के तल में स्थित कैलिक्स का अंदर की तरफ मुड़ जाना. एरिल का गहरे लाल या गुलाबी रंग में बदलना.

इन निशानों के अलावा फल ज्यादा नहीं पकने चाहिए. फलों की तुड़ाई स्केटर्स या क्लिपर की मदद से करनी चाहिए, क्योंकि फलों को मरोड़ कर खींचने से नुकसान हो जाता है.

उपज

एक स्वस्थ अनार का पेड़ पहले साल में 12 से 15 किलोग्राम प्रति पौधा उपज दे सकता है. दूसरे साल से प्रति पौधे से उपज तकरीबन 15 से 20 किलोग्राम हासिल होती है.

तुड़ाई के बाद प्रबंधन

सफाई और धुलाई : इस विधि में कटाई के बाद फलों को छांट लिया जाता है और रोगग्रस्त और फटे हुए फलों को हटा दिया जाता है. शेष बचे हुए स्वस्थ फलों को आगे के उपचार के लिए चुन लिया जाता है.

छंटाई के बाद फलों को सोडियम हाइपोक्लोराइट के 100 पीपीएम पानी के घोल से धोना चाहिए. यह उपचार माइक्रोबियल संदूषण को कम करने और लंबे शैल्फ जीवन को बनाए रखने में मदद करता है.

पूर्व ठंडा : यह फलों के भंडारण से पहले एक आवश्यक आपरेशन है, इसलिए यह फलों से प्रक्षेत्र ऊष्मा व महत्त्वपूर्ण गरमी को हटाने में मदद करता है, जिस के चलते फलों की शेल्फलाइफ में वृद्धि होती है.

अनार के फलों के लिए मजबूत हवा शीतलन प्रणाली को पूर्व शीतलन के लिए उपयोग किया जाता है, इसलिए इसे 90 फीसदी सापेक्ष आर्द्रता के साथ 5 डिगरी सैल्सियस तापमान के आसपास बनाए रखा जाना चाहिए.

फलों की ग्रेडिंग : फलों को उन के वजन, आकार और रंग के आधार पर बांटा जाता है. विभिन्न ग्रेड फल सुपर, किंग, क्वीन और प्रिंस आकार में बांटें जाते हैं. इस के अलावा अनार को और भी 2 ग्रेडों में बांटा जाता है- 12ए और 12बी. 12ए ग्रेड के फल आमतौर पर दक्षिणी और उत्तरी क्षेत्र में पसंद किए जाते हैं.

ग्रेडेड फल उपभोक्ताओं को आकर्षित करते हैं, जो घरेलू बाजार के साथसाथ अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में अधिक कीमत पाने में मददगार साबित होते हैं.

अनार के फल आमतौर पर उन के आकार और वजन के अनुसार बांट दिए जाते हैं. हालांकि, ग्रेडिंग मानक देश दर देश भिन्न होते हैं. निर्यात के उद्देश्य के लिए राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड के अनुसार ग्रेड विनिर्देश निम्नानुसार हैं :

Anarअनार की पैकेजिंग : अनार के फल घरेलू और स्थानीय बाजारों के लिए लकड़ी के या प्लास्टिक के बक्से में पैक किए जाते हैं. अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए मुख्य रूप से नालीदार फाइबरबोर्ड बक्से का उपयोग किया जाता है और बक्से की क्षमता 4 किलोग्राम या 5 किलोग्राम होनी चाहिए. एगमार्क के विनिर्देशों के अनुसार 4 किलोग्राम क्षमता वाले बक्से का आयाम 375×275×100 मिलीमीटर 3 है और 5 किलोग्राम के लिए बक्से 480×300×100 मिलीमीटर 3 है.

भंडारण : अनार की शैल्फलाइफ के लिए तापमान सब से महत्त्वपूर्ण कारक है, क्योंकि अनार जल्दी खराब होने लग जाते हैं, इसलिए दीर्घकालिक भंडारण के लिए एक इष्टतम तापमान की आवश्यकता होती है.

बहुत कम तापमान फलों में ठंड लगने की चोट को प्रेरित कर सकता है, इसलिए ताजा अनार के फल को भंडारण के लिए एक आदर्श तापमान 5 डिगरी से 6 डिगरी सैल्सियस और 90 से 95 फीसदी सापेक्ष आर्द्रता में भंडारित किया जाता है. इस तापमान पर अनार के फल 3 महीने तक रखे जा सकते हैं.

विपणन

घरेलू बाजारों में अनार के फल 60 से 80 रुपए प्रति किलोग्राम फलों की थोक दर पर बिक्री कर सकते हैं, जबकि दूर के बाजार में इस की कीमत 90 से 150 रुपए प्रति किलोग्राम तक होती है.

मसूर की फसल को कीट व बीमारियों से बचाएं

माहू

मसूर में आमतौर पर माहू सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला कीड़ा है. यह कीट 45 से 50 दिन की अवस्था में पौधों का रस चूसता है, जिस से पौधे कमजोर हो जाते हैं. उपज में 25 से 30 फीसदी तक की कमी हो जाती है.

यह कीट पौधों का रस चूसने के साथसाथ अपने उदर से एक चिपचिपा पदार्थ भी छोड़ता है, जिस से पत्तियों पर काले रंग की फफूंद पैदा हो जाती है. साथ ही, पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया प्रभावित होती है.

प्रबंधन

* फसल की बोआई समय से करने से इस का प्रकोप कम होता है.

* फसल में नाइट्रोजन का ज्यादा इस्तेमाल न करें.

* माहू का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे ट्रैप का इस्तेमाल करें, जिस से माहू ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं.

* परभक्षी कौक्सीनेलिड्स या सिरफिड या फिर क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर 50,000-10,0000 अंडे या सूंड़ी प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.

* नीम का अर्क 5 फीसदी या 1.25 लिटर नीम का तेल 100 लिटर पानी में मिला कर छिड़कें.

* बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

* इंडोपथोरा व वरर्टिसिलयम लेकानाई इंटोमोपथोजनिक फंजाई (रोगकारक कवक) का माहू का प्रकोप होने पर छिड़काव करें.

* जरूरी होने पर इमिडाक्लोप्रिड 200 एसएल/0.5 मिलीलिटर प्रति लिटर, थियोमेथोक्सम 25 डब्लूजी/1-1.5 ग्राम प्रति लिटर या मेटासिस्टौक्स 25 ईसी 1.25-2.0 मिलीलिटर प्रति लिटर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

कर्तन कीट (एग्रोटिस एप्सिलान)

यह कीट मसूर के अलावा सोलेनियसी परिवार के पौधों और कपास व दलहनी फसलों पर भी हमला करता है. यह रात के वातावरण में निकल कर नर व मादा संभोग कर के पत्तियों पर अंडे देते हैं. इन की जीवनचक्र क्रिया वातावरण के हिसाब से 1-2 महीने में पूरी होती है. इस की सूंड़ी जमीन में मसूर के पौधे के पास मिलती है और जमीन की सतह से पौधे और इस की शाखाओं के 30-35 दिन की फसल में काटती है.

प्रबंधन

* खेतों के पास प्रकाश प्रपंच 20 फैरोमौन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगा कर प्रौढ़ कीटों को आकर्षित कर के नष्ट किया जा सकता है, जिस की वजह से इस की संख्या को कम किया जा सकता है.

* खेतों के बीचबीच में घासफूस के छोटेछोटे ढेर शाम के समय लगा देने चाहिए. रात में जब सूंडि़यां खाने को निकलती हैं, तो बाद में इन्हीं में छिपेंगी, जिन्हें घास हटाने पर आसानी से नष्ट किया जा सकता है.

* प्रकोप बढ़ने पर क्लोरोपायरीफास 20 ईसी 1 लिटर प्रति हेक्टेयर या नीम का तेल 3 फीसदी की दर से छिड़काव करें.

सैमीलूपर (प्लूसिया ओरिचेल्सिया)

इस कीट की सूंडि़यां हरे रंग की होती हैं, जो पीठ को ऊपर उठा कर यानी अर्धलूप बनाती हुई चलती हैं, इसलिए इसे सैमीलूपर कहा जाता है. यह पत्तियों को कुतर कर खाती है.

एक मादा अपने जीवनकाल में 400-500 तक अंडे देती है. अंडों से 6-7 दिन में सूंडि़यां निकलती हैं जो 30-40 दिन तक सक्रिय रह कर पूर्ण विकसित हो जाती हैं.

पूर्ण विकसित सूंडि़यां पत्तियों को लपेट कर उन्हीं के अंदर प्यूपा बनाती हैं, जिन से 1-2 हफ्ते बाद सुनहरे रंग का पतंगा बाहर निकलता है.

प्रबंधन

* खेतों की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करनी चाहिए और रोग व कीट प्रतिरोधी जातियों की बोआई करनी चाहिए.

* बीज को कीटनाशी व फफूंदनाशकों से उपचार कर लेना चाहिए.

* खेत में 20 फैरोमौन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं.

* खेत में परजीवी पक्षियों के बैठने के लिए 10 ठिकाने प्रति हेक्टेयर के अनुसार लगाएं.

* प्रकोप बढ़ने पर क्लोरोपायरीफास 20 ईसी 1 लिटर प्रति हेक्टेयर या नीम का तेल 3 फीसदी की दर से छिड़काव करें.

बीमारियों की रोकथाम

उकठा

यह भूमिजनित बीमारी है. बोआई के 20 से 25 दिन के बाद इस बीमारी के प्रकोप से पौधे पीले पड़ने शुरू हो जाते हैं. पौधों का ऊपरी भाग एक तरफ  ?ाक जाता है और अंत में मुर?ा कर पौधा मर जाता है.

उकठा बीमारी से बचाने के लिए उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए. साथ ही, पुरानी फसलों के अवशेषों को मिट्टी में दबा देना चाहिए. खेतों के आसपास सफाई रखें.

रोकथाम

* उकठा बीमारी की रोकथाम के लिए सदैव रोगरोधी प्रजातियों की बोआई करनी चाहिए. जिन क्षेत्रों में यह बीमारी बारबार आती हो, वहां पर 3 से 4 वर्षा तक मसूर की फसल नहीं लेनी चाहिए.

* इस के अलावा बीजों को बोने से पहले थाइरम नामक फफूंदीनाशक से उपचारित करना लाभकारी पाया गया है.

* आजकल उकठा बीमारी के नियंत्रण के लिए पर्यावरण हितैषी ट्राइकोडर्मा नाम फफूंद का प्रयोग भी लाभकारी सिद्ध हो रहा है, जो नियंत्रण के रूप में विभिन्न मृदाजनित बीमारियों की रोकथाम के लिए उपयोगी है.

रतुआ

इस बीमारी में फरवरी या इस के बाद तनों व पत्तियों पर गुलाबी से भूरे रंग के धब्बे बनने लगते हैं, जो बाद में काले पड़ने लगते हैं.

रोकथाम

* इस की रोकथाम के लिए रोगरोधी किस्मों जैसे पंत एल-236, पंत एल-406 व नरेंद्र मसूर-1 का प्रयोग करना चाहिए.

* कटाई के उपरांत रोगग्रसित पौधों को इकट्ठा कर जला देना चाहिए.

* इस के अतिरिक्त बीमारी का अधिक प्रकोप होने पर डाइथेन एम-45 का 0.2 फीसदी घोल का 12 से 15 दिन के अंतराल पर आवश्यकतानुसार छिड़काव करें.

चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू)

आमतौर पर इस बीमारी के लक्षण फसल बोआई के 80 से 90 दिन बाद पत्तियों की निचली सतह पर छोटेछोटे सफेद धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं, जो बाद में सफेद चूर्ण के रूप में पूरी पत्ती, तने और फलियों पर फैल जाते हैं. ज्यादा संक्रमण की हालत में पौधों में हरे रंग की कमी क्लोरोसिस हो जाती है.

रोकथाम

*  रोगग्रस्त पौधों के अवशेषों को इकट्ठा कर के जला देना चाहिए.

* मसूर की रोगरोधी किस्मों को चुनें.

* गंधक 20 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से संक्रमित खेत में बिखेर कर इस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है.

* कुछ सल्फरयुक्त पदार्थ जैसे सल्फेक्स या एक्सेसाल 0.3 फीसदी छिड़काव करने से भी बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है.

कटाई एवं मड़ाई

जब 70 से 80 फीसदी फलियां भूरे रंग की हो जाएं और पौधा पीला पड़ जाए, तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए.

पौधशाला में एकीकृत जीवनाशी प्रबंधन

सही समय पर किसान खेत की जुताई कर के उस में गोबर, कंपोस्ट व बालू मिला कर अच्छी तरह तैयार कर लें. पौधशाला की क्यारी बनाते समय यह भी ध्यान रखें कि वह जमीन से 6-8 सैंटीमीटर उठी हुई हो और चौड़ाई 80-100 सैंटीमीटर ही रखें.

पौधशाला में ट्राईकोडर्मा और सड़ी हुई गोबर की खाद का मिश्रण अच्छी तरह से मिलाएं. जीवाणु आधारित स्यूडोसैल की 25 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से मिट्टी में मिला कर बोआई करें.

बीजों की बोआई करते समय पौधशाला में बीज से बीज व लाइन से लाइन व बीज की गहराई का खास ध्यान रखें.

पौधों को जमने के बाद ट्राईकोडर्मा का 10 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल तैयार कर छिड़काव करें.

पौधशाला में पौध उखाड़ते समय सही नमी होनी चाहिए.

रोपाई के एक दिन पहले पौधशाला में से निकाल कर पौधे को ट्राईकोडर्मा 10 ग्राम प्रति लिटर पानी के हिसाब से खेत में छायादार जगह पर एक फुट गहरा गड्ढा खोद कर उस में पौलीथिन शीट बिछा कर नाप कर पानी भर कर दें और जरूरी मात्रा में ट्राईकोडर्मा को मिला लें, फिर उस में पौधे के गुच्छे बना कर रातभर खड़ा कर दें, जिस से निकट भविष्य में फसल में रोग लगने का खतरा खत्म हो जाता है.