हरे चारे की खेती

भारत के जो किसान खेती के साथ पशुपालन भी करते हैं, उन के लिए दुधारू पशुओं और पालतू पशुओं  के लिए हरे चारे की समस्या से दोचार होना पड़ता है. बारिश में तो हरा चारा खेतों की मेंड़ या खाली पड़े खेतों में आसानी से मिल जाता है, परंतु सर्दी या गरमी में पशुओं के लिए हरे चारे का इंतजाम करने में परेशानी होती है. ऐसे में किसानों को चाहिए कि  खेत के कुछ हिस्से में हरे चारे की बोवनी करें, जिस से अपने पालतू पशुओं को हरा चारा सालभर मिलता रहे.

पालतू पशुओं के लिए हरे चारे की बहुत कमी रहती है, जिस का दुधारू पशुओं की सेहत व दूध उत्पादन पर बुरा असर पड़ता है. इस समस्या के समाधान के लिए जायद में बहु कटाई वाली ज्वार, लोबिया, मक्का और बाजरा वगैरह फसलों को चारे के लिए बोया जाता है.

हालांकि मक्का, ज्वार जैसी फसलों से केवल 4-5 माह ही हरा चारा मिल पाता है, इसलिए किसान कम पानी में 10 से 12 महीने हरा चारा देने वाली फसलों को चुन सकते हैं.

जानकार किसान बरसीम, नेपियर घास, रिजका वगैरह लगा कर हरे चारे की व्यवस्था सालभर बनाए रख सकते हैं.

बरसीम

पशुओं के लिए बरसीम बहुत ही लोकप्रिय चारा है, क्योंकि यह बहुत ही पौष्टिक व स्वादिष्ठ होता है. यह साल के पूरे शीतकालीन समय में और गरमी के शुरू तक हरा चारा मुहैया करवाती है.

पशुपालन व्यवसाय में पशुओं से बहुत ज्यादा दूध उत्पादन लेने के लिए हरे चारे का खास महत्त्व है. पशुओं के आहार पर तकरीबन 70 फीसदी खर्च होता है और हरा चारा उगा कर इस खर्च को कम कर के ज्यादा फायदा कमाया जा सकता है.

गाडरवारा तहसील के अनुविभागीय अधिकारी केएस रघुवंशी बताते हैं कि बरसीम सर्दी के मौसम में पौष्टिक चारे का एक उत्तम जरीया है. इस में रेशे की मात्रा कम और प्रोटीन की औसत मात्रा 20 से 22 फीसदी होती है. इस के चारे की पाचनशीलता 70 से 75 फीसदी होती है. इस के अलावा इस में कैल्शियम और फास्फोरस भी काफी मात्रा में पाए जाते हैं. इस के चलते दुधारू पशुओं को अलग से खली, दाना वगैरह देने की जरूरत कम पड़ती है.

Green fodderनेपियर घास

किसानों के बीच नेपियर घास तेजी से लोकप्रिय हो रही है. गन्ने की तरह दिखने वाली नेपियर घास लगाने के महज 50 दिनों में विकसित हो कर अगले 4 से 5 साल तक लगातार दुधारू पशुओं के लिए पौष्टिक आहार की जरूरत को पूरी कर सकती है.

पशुपालकों को एक बार नेपियर घास लगाने पर 4-5 साल तक हरा चारा मिल सकता है. इसे मेंड़ पर लगा कर खेत में दूसरी फसलें उगा सकते हैं. 50 दिनों में फसल पूरी तरह से तैयार हो जाती है और इस में सिंचाई की जरूरत भी नहीं पड़ती है.

पशुपालन विभाग के एक अधिकारी बताते हैं कि प्रोटीन और विटामिन से भरपूर नेपियर घास पशुओं के लिए एक उत्तम आहार की जरूरत को पूरा करता है. दुधारू पशुओं को लगातार यह घास खिलाने से दूध उत्पादन में भी वृद्धि के साथ ही रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है. खेत की जुताई और समतलीकरण यानी एकसार करने के बाद नेपियर घास की जड़ों को 3-3 फुट की दूरी पर रोपा जाता है.

नेपियर घास का उत्पादन प्रति एकड़ तकरीबन 300 से 400 क्विंटल होता है. इस घास की खूबी यह है कि इसे कहीं भी लगाया जा सकता है. एक बार घास की कटाई करने के बाद उस की शाखाएं फिर से फैलने लगती हैं और 40 दिन में वह दोबारा पशुओं के खिलाने लायक हो जाता है. प्रत्येक कटाई के बाद घास की जड़ों के आसपास गोबर की सड़ी खाद या हलका यूरिया का छिड़काव करने से इस में तेजी से बढ़ोतरी होती है.

रिजका

यह किस्म चारे की एक अहम दलहनी फसल है, जो जून माह तक हरा चारा देती है. इसे बरसीम की अपेक्षा सिंचाई की जरूरत कम होती है. रिजका को 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 20 से 30 सैंटीमीटर के अंतर से लाइनों में बोआई करनी चाहिए.

अक्तूबर से नवंबर माह के मध्य का समय बोआई के लिए सब से अच्छा माना जाता है.

रिजका अगर पहली बार बोया गया है, तो रिजका कल्चर का प्रयोग करना चाहिए. यदि कल्चर उपलब्ध न हो तो जिस खेत में पहले रिजका बोया गया है, उस में से

ऊपरी परत से 30 से 40 किलोग्राम मिट्टी निकाल कर जिस में रिजका बोना है, उस में मिला देना चाहिए.

कम पानी में भी होगी जवाहर विसिया 1 

जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर के कृषि वैज्ञानिकों ने हरे चारे की एक नई किस्म खोजी है. कम पानी में उगने वाली हरे चारे की इस नई प्रजाति को जवाहर विसिया 1 नाम दिया गया है.

यह एक कटाई वाली दलहनी फसल है, जो 90 से 95 दिनों में चारे के लिए तैयार हो जाती है. एक हेक्टेयर जमीन में 240 से 260 क्विंटल हरे चारे के साथ 50 से 55 क्विंटल सूखे चारे का उत्पादन इस से होगा. इस चारे में 15 फीसदी तक प्रोटीन रहने के चलते यह पशुओं के लिए पौष्टिक है. दुधारू पशुओं में दूध की मात्रा बढ़ाने में यह चारा उपयोगी होगा.

जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर के वाइस चांसलर डाक्टर पीके विसेन ने बताया कि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों डाक्टर एके मेहता, डाक्टर एसबी दास, डाक्टर एसके बिलैया, डाक्टर पुष्पेंद्र यादव और डाक्टर अमित ?ा के सम्मिलित प्रयासों से एक लंबे अनुसंधान के बाद यह किस्म विकसित की गई है. कम पानी वाले या सूखाग्रस्त इलाकों के लिए चारे की यह किस्म वरदान साबित होगी.

अखिल भारतीय चारा अनुसंधान परियोजना की ओर से इंफाल, मणिपुर में आयोजित नैशनल सैमिनार में हरे चारे की इस किस्म को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र व उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके के लिए अनुमोदित किया गया है.

बरसीम सर्दियों का स्वादिष्ठ व पौष्टिक चारा

बरसीम रबी की एक प्रमुख बहुकटान वाली दलहनी चारा फसल है, जो स्वादिष्ठ होने के साथसाथ बहुत ही पौष्टिक भी होती है.

दलहनी फसल होने के कारण यह खेत की उर्वराशक्ति में भी बढ़ोतरी करती है. अक्तूबरनवंबर महीने में बोआई करने के बाद यह शीतकाल के दौरान चारा देना शुरू करती है और गरमी के शुरू तक पौष्टिक चारा देती रहती है.

सर्दियों में अगर बरसीम के साथ थोड़ा भूसा मिला कर पशुओं को खिलाया जाए, तो कम से कम 5 लिटर दूध उत्पादन तक कोई दाना मिश्रण देने की जरूरत नहीं पड़ती है, क्योंकि बरसीम के अंदर इतना पोषण होता है कि 5 लिटर रोजाना दूध उत्पादन के लिए जरूरी पोषक तत्त्वों की पूर्ति महज बरसीम से ही हो जाती है.

पोषक मान

* बरसीम में अपरिष्कृत प्रोटीन की मात्रा शुष्क पदार्थ के आधार पर 16 से 21 फीसदी तक होती है.

* बरसीम में फाइबर की मात्रा दूसरे चारे के मुकाबले बहुत ही कम होती है.

* इस के चारे की पाचनशीलता 70 से 75 फीसदी तक होती है.

* प्रचुर मात्रा में प्रोटीन, कैल्शियम और फास्फोरस पाया जाता है, जिस से दुधारू पशुओं को अलग से खली और अनाज देने की जरूरत नहीं पड़ती है.

सही जलवायु

बरसीम ठंडी जलवायु के माकूल है. ऐसी जलवायु उत्तर भारत में सर्दी और वसंत ऋतु में पाई जाती है, इसीलिए उत्तर भारत को बरसीम उत्पादक क्षेत्र के रूप में जाना जाता है.

बरसीम की बोआई और फसल के विकास के लिए इष्टतम तापमान 25 से 27 डिगरी सैल्सियस होता है.

भूमि की तैयारी

ह्यूमस, कैल्शियम और फास्फोरस से भरपूर दोमट मिट्टी इस के लिए बहुत अच्छी होती है.

बोआई का समय और विधि

मैदानी इलाकों में सितंबर के आखिरी हफ्ते से नवंबर के अंत तक बोआई का सब से अच्छा समय है. देश के पूर्वी भागों में इसे दिसंबर माह तक बोया जा सकता है.

इसी तरह पर्वतीय इलाकों में अगस्त से सितंबर के पहले हफ्ते तक इस की कामयाबी से बोआई की जा सकती है. बरसीम को खेत में हलकी सिंचाई करने के बाद छिड़काव विधि द्वारा बोया जाता है.

बीज की दर

खरपतवाररहित बीज का इस्तेमाल करें. बरसीम के बीजों में कासनी के बीजों की मिलावट होती है, इसलिए बिजाई से पहले बीजों को 10 फीसदी नमक के पानी में डालें और पानी पर तैरने वाले बीजों को निकाल दें.

बीज की दर आमतौर पर 25-30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होती है. देशी या मिस्कावी किस्म के बीज छोटे होते हैं, इसलिए 25 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर काफी है. बीएल-22 या जेबीएच-146 जैसी बड़ी और मोटी किस्मों की बोआई के लिए 25-30 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है.

बोआई से पहले बीज को राईजोबियम कल्चर से जरूर उपचारित करें.

खाद और उर्वरक

* बरसीम दलहनी फसल है, इसलिए इस में नाइट्रोजन की जरूरत कम होती है. बोआई से पहले 12 से 18 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी खाद इस्तेमाल करने से बेहतरीन उपज हासिल होती है.

* आमतौर पर 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर बोते समय खेत में छिड़क कर मिट्टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए.

* इस के बाद क्यारी बना कर पानी भर देना चाहिए या किसी दूसरे तरीके से बोआई करनी चाहिए.

ऐसे करें सिंचाई

* सर्दियों के शुरुआती दिनों में हर 10-12 दिन के अंतराल पर और सर्दियों के दौरान 15 दिनों के बाद इसे सिंचाई की जरूरत होती है. मार्च महीने के बाद तापमान बढ़ने पर 7 से 10 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए.

चारे की कटाई

पहली कटाई बोआई के 50 से 55 दिन बाद, उस के बाद 25 से 30 दिन बाद चारे की कटाई करते हैं. पौधों की फिर से बढ़वार के लिए फसल को जमीन की सतह से 5 से 7 सैंटीमीटर की ऊंचाई पर काटना उचित होता है.

उपज

* बरसीम की चारा उपज क्षमता बहुत अधिक है. इस की चारा उपज तकरीबन 1,000 से 1,200 क्विंटल हरा चारा प्रति हेक्टेयर होती है.

बरसीम खिलाते समय बरती जाने वाली सावधानियां

* बरसीम में पानी की मात्रा बहुत ज्यादा होने के साथसाथ इस में सैपोनिन नामक एंटीन्यूट्रीशनल तत्त्व भी पाया जाता है.

* बहुत अधिक मात्रा में बरसीम खिलाने से पशुओं को गोबर पतला आने लगता है और कभीकभी अफरा हो सकता है. इस से बचने के लिए बरसीम को थोड़े भूसे के साथ मिला कर ही पशुओं को खिलाएं.

उपयोग में लाएं प्रमुख किस्में

वरदान, बीबी-2, बीबी-3, बीएल-1, बीएल-2, बीएल-10, जेबी-1, जेबी-2, जेबी-3, मिस्कावी, यूपीबी-103, बीएल-22, जेबीएच-146 वगैरह.

जी,हमारे पशु  दीवार चाटते हैं…

‘हमारे पशु दीवार चाटते हैं…’

‘अच्छा और मिट्टी भी चाटते होंगे.’

‘हां जी.’

‘दूसरे पशुओं का पेशाब भी पीने की कोशिश करते होंगे.’

‘हां जी.’

‘उन के पास पड़ा कपड़ा, थैला, जूता, बैग कुछ भी चबाने लगते होंगे.’

‘हां जी, हां जी, ऐसा ही करते हैं… आप तो अंतर्यामी हैं.’

‘अरे भाई, अंतर्यामी कुछ नहीं… पशुओं के बरताव को अगर हम बारीकी से देखें तो उन की बहुत सी बीमारियों का पता बिना किसी डाक्टरी जांच के भी कर सकते हैं.’

ऊपर जिन लक्षणों का हम ने जिक्र किया है, ऐसे पशुओं में जब फास्फोरस की कमी हो जाती है, तो ये सब लक्षण दिखाई देने लगते हैं.

पशुओं में फास्फोरस की कमी क्यों हो जाती है?

पशु चारा उगाने की जमीन में अगर फास्फोरस की कमी हो जाएगी, तो उस जमीन में उगी चारा फसलों में भी यह कमी देखने को मिलेगी. उन चारा फसलों को खाने वाले पशुओं में भी यह कमी हो जाएगी और पहले बताए गए सभी लक्षण दिखाई देने लगेंगे.

अगर पशु के रातिब मिश्रण में चोकर नहीं मिलाया गया है, तो भी फास्फोरस की कमी हो सकती है.

फास्फोरस चूंकि दूध में भी स्रावित होता है इसलिए दुधारू पशुओं के चारेदाने में उचित मात्रा में फास्फोरस मौजूद न होने पर भी उन पशुओं में इस की कमी हो जाती है.

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पशुओं को फास्फोरस कहां से मिलता है?

चारा फसलों और अनाजों के छिलकों में फास्फोरस बहुतायत में पाया जाता है या फिर रातिब मिश्रण में मिलाया जाने वाला विटामिन मिनरल मिक्सचर इस का अच्छा स्रोत है.

फास्फोरस की कमी होने से क्या नुकसान हो सकते हैं?

पशुओं में फास्फोरस की कमी होने पर :

* पशुओं की भूख कम हो जाएगी.

* पशु उन सभी चीजों को खाने की कोशिश करेगा, जो उसे नहीं खानी चाहिए. दरअसल, वह दीवार चाट कर, मिट्टी खा कर या दूसरे पशुओं का पेशाब चाट कर अपनी फास्फोरस की कमी को पूरा करना चाहता है.

* वृद्धिशील पशुओं की बढ़वार कम हो जाएगी.

* फास्फोरस की कमी होने पर पशु की प्रजनन क्षमता प्रभावित होगी यानी पशु हीट में नहीं आएंगे.

* पशुओं की हड्डियां कमजोर हो जाएंगी.

फास्फोरस की कमी न होने

देने के लिए क्या करें?

* चारा फसलें उगाते समय खेत में उचित मात्रा में एनपीके डालिए.

* पशुओं के लिए रातिब मिश्रण बनाते समय उस में 30 से 40 फीसदी चोकर जरूर रखिए.

* रातिब मिश्रण बनाते समय उस में

2 फीसदी की दर से बढि़या क्वालिटी का विटामिन मिनरल मिक्सचर जरूर मिलाइए.

* पशुओं को बहुत ज्यादा मात्रा में कैल्शियम देने पर भी फास्फोरस की कमी हो जाती है, इसलिए पशुओं को केवल कैल्शियम ही कैल्शियम नहीं खिलाते रहना चाहिए.

* पशुओं में अगर ऊपर बताए गए लक्षण दिखाई दें तो पशुओं को कम से कम

5 दिन तक फास्फोरस के इंजैक्शन लगवाइए.

ज्यादा जानकारी के लिए किसी नजदीकी पशु विशेषज्ञ से संपर्क करें.

पशुओं में अपच: समाधान भी है जरूरी

भारत एक कृषि प्रधान देश होने के साथ ही पशुधन में भी प्रथम स्थान रखता है. पशुओं की देखभाल में पशुपालकों को अनेक तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. पशुपालकों को पशु स्वास्थ्य की बेसिक जानकारी होना बहुत जरूरी है, जिस से उन में होने वाले साधारण रोगों को पशुपालक  समझ सकें और उन का उचित उपचार किया जा सके.

अपच दुधारू पशुओं में होने वाली एक ऐसी समस्या है, जो दुग्ध उत्पादन को कम कर पशुपालकों को माली नुकसान पहुंचाती है. गायों का प्रमुख पाचन अंग रूमेन है, जहां घास, भूसा, हरा चारा व दाना का माइक्रोबियल गतिविधि के कारण संशोधन होता है.

अपच की स्थिति में अधिक मात्रा में बिना पचा हुआ भोजन रूमेन में जमा हो जाता है, जिस के कारण रूमेन के काम करने की क्षमता और वहां उपस्थित सूक्ष्म जीवाणु भी प्रभावित होते हैं. जब रूमेन सही तरीके से काम नहीं कर पाता है, तो जानवरों में इस के कारण अनेक तरीकों की समस्याएं जैसे हाजमा खराब होना, अफरा आदि उत्पन्न करती हैं. नतीजतन, उत्पादन क्षमता पर भी बुरा असर पड़ता है.

अपच की समस्या सीधे डेरी फार्म की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करती है, इसलिए दुधारू पशुओं की सामान्य शारीरिक क्रिया व उत्पादन क्षमता में तालमेल बनाए रखने के लिए उन के भोजन व प्रबंधन में पर्याप्त ध्यान देने की जरूरत होती है.

अपच के मुख्य कारण व प्रबंधन

खाने में अधिक मात्रा में दाना देने से पशुओं में अपच की समस्या आती है. कम गुणवत्ता वाला चारा खिलाना या अधिक मात्रा में दलहनी हरा चारा व नई पत्ती वाला हरा चारा खिलाना.

खाद्यान्न के प्रकार में अचानक ही परिवर्तन होना.

वातावरणीय कारण

गरम वातावरण : अधिक तापमान का होना भी अपच का मुख्य कारण होता है.

नम हरा चारा : इस तरह का चारा मुख्यत: मानसून के समय मिलता है, जो पशुओं को खिलाने से उन में अपच की समस्या पैदा होती है.

पशुकारक कारण

ट्रांजिशन पीरियड (प्रसव अवस्था के पहले और बाद) : अधिक उम्र्र में सड़ागला खाना, एक ही करवट लेटे रहने और आंतों में रुकावट होने के कारण भी अपच की समस्या होती है. दुधारू गायों में आमतौर पर इस तरह का अपच होता है.

* अम्लीय अपच : रूमेन एसिडोसिस एक महत्त्वपूर्ण पोषण संबंधी विकार है. यह आमतौर पर उत्पादकता बढ़ाने के लिए अत्यधिक किण्वन योग्य भोजन खिलाने के कारण होता है. स्टार्च खिलाने से अत्यधिक किण्वन होने के कारण रूमेन में बैक्टीरिया की संख्या बढ़ जाती है.

ये बैक्टीरिया रूमेन में अधिक मात्रा में वोलेटाइल फैटी एसिड यानी वीएफए और लैक्टिक एसिड का उत्पादन करने लगते हैं, जिस के फलस्वरूप रूमेन एसिडोसिस और अपच की समस्या उत्पन्न होती है.

* क्षारीय अपच : अत्यधिक मात्रा में प्रोटीनयुक्त भोजन या गैरप्रोटीन नाइट्रोजनयुक्त पदार्थ खाने से रूमेन एल्कालोसिस अथवा क्षारीय अपच की समस्या दुधारू पशुओं में देखी जाती है.

इस रोग की विशेषता यह है कि रूमेन में अमोनिया अत्यधिक बनने लगता है, जिस के कारण आहार नाल संबंधी जैसे अपच, लिवर, किडनी, परिसंचरण तंत्र व तंत्रिका तंत्र में गड़बड़ी आने लगती है.

* वेगस अपच : मूल रूप से यह विकार वेट्रल वेगस तंत्रिका को प्रभावित करने वाले घावों, चोट, सूजन या दबाव के परिणामस्वरूप होता है. यह समस्या मुख्य रूप से मवेशियों में देखी जाती है, परंतु कभीकभी भेड़ों में भी यह विकार देखा गया है.

अपच से जुड़ी और भी समस्याएं

रूमिनल एसिडोसिस : रूमेन के पीएच का कम हो जाना.

रूमिनल एल्क्लोसिस : रूमेन के पीएच का अधिक बढ़ जाना. अफरा यानी गैस का पेट में रुक जाना.

अपच के लक्षण

* पशुओं का जुगाली कम करना.

* पशुओं में भूख की कमी.

* दूध का कम देना.

* डिहाइड्रेशन.

* पशु सुस्त हो जाता है और सूखा व सख्त गोबर करता है.

उपचार

* पहचान होने पर सब से पहले इस के कारण का निवारण करना चाहिए, जैसे यदि खराब चारा हो, तो तुरंत बदल देना चाहिए या फिर पेट में कृमि हो, तो उपयुक्त कृमिनाशक दवा देनी चाहिए.

* पेट की मालिश आगे से पीछे की ओर व खूंटे पर बंधे पशु को नियमित व्यायाम कराना चाहिए.

* देशी उपचार हलदी, कुचला, अजवाइन, काली मिर्च, अदरक, मेथी, चिरायता, लौंग, पीपर इत्यादि का उपयोग पशु के वजन के हिसाब से किया जा सकता है.

एलोपैथिक उपचार

* फ्लूड उपचार यानी अपच से प्रभावित पशु को शरीर के अनुसार पर्याप्त मात्रा में डीएनएस, आरएल और एनएस देना चाहिए.

* मैग्नीशियम हाईड्रोक्साइड 100-300 ग्राम प्रति 10 लिटर पानी के साथ देना चाहिए.

* मैग्नीशियम कार्बोनेट 10-80 ग्राम.

* सोडियम बाई कार्बोनेट 1 ग्राम प्रति किलोग्राम भार के अनुसार दें.

* विनेगर (सिरका) 5 फीसदी 1 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम भार के अनुसार देना चाहिए.

* एंटीबायोटिक जैसे पेनिसिलीन, टायलोसीन, सल्फोनामाइड, टेट्रासाइकिलिन का उपयोग किया जा सकता है. साथ ही, एंटीहिस्टामिनिक (एविल, सिट्रीजिन) व बी. कौंप्लैक्स इंजैक्शन दिया जा सकता है. इन सभी एलोपैथिक दवाओं का उपयोग माहिर पशु डाक्टर की सलाह से किया जाना चाहिए.

अपच की रोकथाम

* पशुओं को संपूर्ण मिश्रित भोजन खिलाएं. दाने व चारे को अलगअलग नहीं खिलाना चाहिए.

* पशुओं को रोज निर्धारित समय पर ही भोजन दें.

* साफ पानी ही पीने के लिए पशुओं को देना चाहिए.

* चारे में परिवर्तन धीरेधीरे तकरीबन 21 दिनों में करना चाहिए.

* भोजन के साथ कैल्शियम प्रोपिओनेट, सोडियम प्रोपिओनेट और प्रोपायलीनग्लायकोल आदि को ऊर्जा के स्त्रोत के रूप में दिया जा सकता है.

* गरमी के मौसम में छायादार, हवादार और ठंडी जगह पर पशुओं को रखना चाहिए, ताकि उन में कम से कम गरमी का बुरा असर पड़े.

अधिक जानकारी के लिए कृषि विज्ञान केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अध्यक्ष से संपर्क करें.

पशुओं को संक्रामक रोगों से बचाएं टीके

भारत में पशुधन का अत्यधिक महत्त्व है. ग्रामीण क्षेत्रों में तो पशुधन ही कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. पशुधन को हम रोजगार का जरीया भी बना सकते हैं. पशुओं की सही देखभाल और बीमारियों से बचाना भी बहुत जरूरी है. पशुपालकों के लिए बीमार पशु काफी परेशानी का कारण बनते हैं.

पशुधन में कुछ संक्रामक रोग ऐसे होते हैं, जिन्हें मात्र नियमित समय पर टीकाकरण करवा कर रोका जा सकता है. संक्रामक रोग जीवाणुजनित अथवा विषाणुजनित हो सकते हैं, जो एक पशु से दूसरे पशु में दूषित आहार चारा, घास, दाना, पानी, बिछावन,हवा आदि से फैल सकते हैं.

अगर संक्रामक रोगों से बचाव के लिए उचित समय पर टीकाकरण न कराया जाए, तो पशु इन गंभीर रोगों से ग्रसित हो सकता है, जिस का उपचार अत्यंत कठिन है और पशु असमय ही मर सकता है. जिन रोगों में पशुओं के टीके लगवाए जाते हैं, वे छोटेछोटे रोगाणु जैसे बैक्टीरिया, वायरस, माइकोप्लाज्मा आदि से फैलते हैं. ये रोगाणु हवा, चारा, दाना, पानी, बिछावन, पेशाब, गोबर, खाद और खुले गड्ढे आदि में पाए जाते हैं.

कुछ संक्रामक रोग इस प्रकार हैं, जिन से बचाव उचित समय पर टीकाकरण करवा कर किया जा सकता है. गलघोंटू छूत का यह गंभीर रोग लगभग सभी पालतू पशुओं भैंसों, गायों, भेड़ों और बकरियों को होता है. यह जीवाणुजनित (पाश्चुरेला मल्टीसिडा) से होने वाला रोग है. भैंसों में यह रोग अन्य पशुओं की अपेक्षा अधिक घातक होता है.

बाढ़ पीडि़त क्षेत्रों या ऐसे गांवों में, जहां आसपास पानी भर जाता है, नदीनालों के आसपास के क्षेत्र में यह रोग अधिक होता है. इस रोग की प्रथम पहचान यह है कि एक पशु जो शाम को ठीक दिखाई देता है, अगले दिन सुबह मरा हुआ पाया जा सकता है यानी इस रोग में पशु की अचानक मौत हो जाती है.

इस बीमारी से ग्रसित पशु सुस्त हो जाता है, चारा खाना छोड़ देता है और जुगाली नहीं करता. सांस व नाड़ी की गति तेज हो जाती है. इस रोग से ग्रसित पशु के गले और अगली टांगों के बीच सूजन आ जाती है, सांस लेने में तकलीफ होती है और पशु के कराहने कि आवाज सुनाई देती है.

मुंह से लार टपकती है, बहुत तेज बुखार हो जाता है. भैंसों के गले में सूजन हो जाती है, जो कि मुंह के आसपास और गरदन तक और कभीकभी अगली टांगों और कंधों तक फैल जाता है. इस रोग का आक्रमण इतनी तेजी से होता है कि उपचार का समय नहीं मिलता है.

इस रोग से बचाव के लिए हर साल बरसात का मौसम शुरू होने से पहले पशुओं को बचावकारी टीका लगवा देना चाहिए. इस संक्रामक रोग से बचाव के लिए पशुओं को मई माह में प्रति वर्ष रोग बचावकारी टीका लगवाएं. टीका लगवाने से गाभिन अथवा दूध देने वाले पशुओं की सेहत पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता.

पशुओं को सूखे, धूप वाले, हवादार मकान में रखें. खुरपकामुंहपका पशुओं का यह एक प्राचीन विषाणुजनित संक्रामक रोग है, जो गाय, भैंस, भेड़, बकरियों में होता है. संकर नस्ल के और विदेशी पशु इस से ज्यादा पीडि़त होते हैं. जो पशु इस रोग से पीडि़त हो कर ठीक हो जाते हैं, वे बहुत कमजोर और खेतीबारी के लायक नहीं रहते.

दुधारू पशुओं का दुध देना कम हो जाता है. यह रोग बीमार पशु के संपर्क में आने से या दूषित पानी पीने, घास, भूसा और चरागाहों द्वारा फैलता है.

खुरपकामुंहपका रोग से पीडि़त पशु के मुंह और खुरों में फफोले पड़ जाते हैं. खुरों में और खुरों एवं त्वचा के बीच घाव हो जाते हैं. रोग बढ़ जाने पर खुर गिर जाते हैं. ऐसी दशा में पशु को चलाना नहीं चाहिए और खुरों पर जीवाणुनाशक मरहम लगा कर प्रतिदिन पट्टी करनी चाहिए.

इस रोग के आरंभ में पशु कांपता है, उसे बुखार आता है, मुंह गरम लगता है और मुंह से लार टपकती है, जीभ पर छाले पड़ जाते हैं, जो फट कर एक गहरे और बड़े आकार के घाव का रूप ले लेते हैं. इस रोग में गाय के थनों पर भी फफोले आ जाते हैं.

पीडि़त पशु के मुंह को 2 फीसदी फिटकरी के घोल या 0.1 फीसदी पोटैशियम परमैगनेट के घोल से धोना चाहिए. साथ ही, खुरों को फिनायल से साफ करना चाहिए. इस से बचाव के लिए पशुओं की सही देखभाल आवश्यक है. पहला बचाव टीका 4 हफ्ते की आयु होने पर, दूसरा टीका पहले टीके के 6 हफ्ते बाद और तीसरा टीका दूसरे टीके के 6 महीने बाद और इस के बाद हर साल टीका लगवाना चाहिए. संकर प्रजाति या विदेशी प्रजाति के पशुओं को यह टीका हर साल 2 बार 6 महीने के अंतर पर लगवाना चाहिए.

पशुओं का पौष्टिक चारा ज्वार

आज देश भर में पशुपालन बड़ी मात्रा में किया जाता है. खासकर गांवों की बड़ी आबादी पशुपालन से जुड़ी है. जिन किसानों के पास खेती कि कम जमीन है वे भी चारे की फसलों के बजाय नकदी फसलों की ओर ज्यादा ध्यान देते हैं. जबकि ज्वार फसल को उगाना भी आसान है और आमदनी का जरीया भी.

हरा चारा खिलाने से पशुओं में भी काम करने की कूवत बढ़ती है, वहीं दूध देने वाले पशुओं के दूध देने की कूवत बढ़ती है, इसलिए उत्तम चारे का उत्पादन जरूरी है, क्योंकि चारा पशुओं को मुनासिब प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन और खनिज पदार्थों की भरपाई करते हैं.

हरे चारे का उत्पादन कुल जोत का तकरीबन 4.4 फीसदी जमीन पर ही किया जा रहा है. 60 के दशक में पशुओं की तादाद बढ़ने के बावजूद भी चारा उत्पादन रकबे में कोई खास फर्क नहीं हुआ है.

अच्छी क्वालिटी का हरा चारा हासिल करने के लिए ये तरीके अपनाए

जमीन : ज्वार की खेती के लिए दोमट, बलुई दोमट और हलकी व औसत दर्जे वाली काली मिट्टी, जिस का पीएच मान 5.5 से 8.5 हो, बढि़या मानी गई है.

यदि मिट्टी ज्यादा अम्लीय या क्षारीय है, तो ऐसी जगहों पर ज्वार की खेती नहीं करनी चाहिए.

खेत और बीज:  पलेवा कर के पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें या हैरो से. उस के बाद 1-2 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से कर के पाटा जरूर लगा देना चाहिए.

एकल कटाई यानी एक कटाई वाली किस्मों के लिए 30-40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर और बहुकटान यानी बहुत सी कटाई वाली प्रजातियों के लिए 25-30 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में डालना चाहिए.

उन्नतशील किस्में:

हरे चारे के उत्पादन के लिए ज्वार की ज्यादा पैदावार और अच्छी क्वालिटी लेने के लिए उन्नतशील किस्मों को ही चुनें.

बीजोपचार:

बोने से पहले बीजों को 2.5 ग्राम एग्रोसन जीएन थीरम या 2.0 ग्राम कार्बंडाजिम प्रति किलोग्राम के हिसाब से बीज उपचारित करना काफी फायदेमंद रहता है. ऐसा कर के से फसल में बीज और मिट्टी के रोगों को आसानी से कम कर सकते?हैं.

ज्वार को फ्रूट मक्खी से बचाने के लिए इमिडाक्लोप्रिड 1 मिलीलिटर प्रति किलोग्राम के हिसाब से बीज उपचारित करना फायदेमंद रहेगा.

बोने का तरीका:

हरे चारे के लिए जायद मौसम में बोआई का सही समय फरवरी से मार्च महीने तक है. ज्यादातर किसान ज्वार को बिखेर कर बोते हैं, पर इस की बोआई हल के पीछे कूंड़ों में और लाइन से लाइन की दूरी 30 सैंटीमीटर पर करना ज्यादा फायदेमंद है.

खाद और उर्वरक:

खाद और उर्वरक की मात्रा का इस्तेमाल जमीन के मुताबिक करना चाहिए. अगर किसान के पास गोबर की सड़ी खाद, खली या कंपोस्ट खाद है, तो बोआई से 15-20 दिन पहले खेत तैयार करते समय इन का इस्तेमाल करना चाहिए.

एक कटाई वाली प्रजातियों में 40-50 किलोग्राम नाइट्रोजन और 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें और बची हुई 40-50 किलोग्राम नाइट्रोजन फसल बोने के एक महीने बाद मुनासिब नमी होने पर खड़ी फसल पर इस्तेमाल करना चाहिए.

बहुकटान वाली किस्मों में 60-75 किलोग्राम नाइट्रोजन और 40 किलोग्राम फास्फोरस बोआई के समय और 15-20 किलोग्राम नाइट्रोजन हर कटाई के बाद प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण:

आमतौर पर बारिश के मौसम में पानी देने की जरूरत नहीं होती. अगर बारिश न हो, तो पहले फसल को हर 8-12 दिन के फासले पर सिंचाई की जरूरत होती है.

फसल की बोआई के तुरंत बाद खरपतवार को जमने से रोकने के लिए 1.5 किलोग्राम एट्राजिन 50 डब्ल्यूपी या सिमेजिन को 1,000 लिटर पानी में घोल बना कर जमाव से पहले खेत में छिड़कना चाहिए.

ज्वार के कीट व रोग प्रबंधन

मधुमिता रोग : फूल आने से पहले 0.5 फीसदी जीरम का 5 दिन के फासले पर 2 छिड़काव करने से इस रोग से बचाव हो सकता है. बाली पर अगर रोग दिखाई दे रहा हो, तो उसे बाहर निकाल कर जला दें.

दाने पर फफूंद : फूल आते समय या दाना बनते समय अगर बारिश होती है, तो इस रोग का प्रकोप ज्यादा होता है. दाने काले व सफेद गुलाबी रंग के हो जाते हैं. क्वालिटी गिर जाती है, इसलिए अगर फसल में सिट्टे आने के बाद आसमान में बादल छाएं और आबोहवा में नमी ज्यादा हो तो मैंकोजेब 75 फीसदी 2 ग्राम या कार्बंडाजिम दवा 0.5 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर 10 दिन के फासले पर 2 छिड़काव करें.

चारकोल राट : इस रोग का प्रकोप रबी ज्वार के सूखे रकबे में छिली मिट्टी में होता है. इस का फैलाव जमीन पर होता है. इस रोग की रोकथाम के लिए नाइट्रोजन खाद का इस्तेमाल कम से कम करना चाहिए और प्रति हेक्टेयर पौधों की तादाद कम रखनी चाहिए. बीज को बोआई के समय थाइरम 4.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपचारित करना चाहिए.

पत्ती पर धब्बे (लीफ स्पौट) : इस की रोकथाम करने के लिए डाईथेन जेड 78 की 0.2 फीसदी का 2 बार 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करने से बचाव हो जाता है.

मुख्य कीट

प्ररोह मक्खी: यह कीट ज्वार का घातक दुश्मन है. फसल की शुरुआती अवस्था में यह कीट बहुत नुकसान पहुंचाता है. जब फसल 30 दिन की होती है, तब तक कीट से फसल को 80 फीसदी तक नुकसान हो जाता है.

इस कीट की रोकथाम के लिए बीज को इमिडाक्लोप्रिड गोचो 14 मिलीलिटर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोना चाहिए.

बोआई के समय बीज की मात्रा 10 से 12 फीसदी ज्यादा रखनी चाहिए. जरूरी हो तो अंकुरण के 10-12 दिन बाद इमिडाक्लोप्रिड 200 एसएल 5 मिलीलिटर प्रति 10 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. फसल काटने के बाद खेत में गहरी जुताई करें और फसल के अवशेषों को एकत्रित कर जला दें.

तनाभेदक कीट : इस कीट का हमला फसल लगने के 10-15 दिन से शुरू हो कर उस के पकने तक रहता?है. इस के नियंत्रण के लिए फसल काटने के तुरंत बाद खेत में गहरी जुताई करें और बचे हुए फसल अवशेषों को जला दें.

खेत में बोआई के समय खाद के साथ 10 किलोग्राम की दर से फोरेट 10 जी या कार्बोफ्यूरान दवा अच्छी तरह मिला दें.

बोआई के तकरीबन 15-20 दिन बाद इमिडाक्लोप्रिड 200 एसएल 5 मिलीलिटर प्रति 10 लिटर या कार्बोरिल 50 फीसदी घुलनशील पाउडर 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर 10 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करना चाहिए.

सिट्टे की मक्खी : यह मक्खी सिट्टे निकलते समय फसल को नुकसान पहुंचाती है. इस की रोकथाम के लिए जब 50 फीसदी सिट्टे निकल आएं, तब प्रोपेनफास 40 ईसी दवा 25 मिलीलिटर प्रति 10 लिटर पानी में घोल बना कर 10 से 15 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करना चाहिए.

टिड्डा : यह कीट ज्वार की फसल को छोटी अवस्था से ले कर उस के पकने तक नुकसान पहुंचाता है और पत्तियों के किनारों को खा कर धीरेधीरे पूरी पत्तियां खा जाता है. बाद में फसल में मात्र मध्य शिराएं और पतला तना ही रह जाता?है.

इस कीट के नियंत्रण के लिए फसल में कार्बोरिल 50 फीसदी घुलनशील पाउडर 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर 10 से 15 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करना चाहिए.

पक्षियों से बचाव : ज्वार पक्षियों का मुख्य भोजन है. फसल में जब दाने बनने लगते?हैं, तो सुबहशाम पक्षियों से बचाना बहुत जरूरी है वरना फसल को काफी नुकसान होता है.

कटाई : पशुओं को पौष्टिक चारा खिलाने के लिए फसल की कटाई 5 फीसदी फूल आने पर अथवा 60-70 दिन बाद करनी चाहिए. बहुकटान वाली प्रजातियों की पहली कटाई बोआई के 50-60 दिनों के बाद और बाद की कटाई 30-35 दिन के अंतर पर जमीन की सतह से

6-8 सैंटीमीटर की ऊंचाई पर या 4 अंगुल ऊपर से काटने पर कल्ले अच्छे निकलते हैं.

उपज : प्रजातियों के हरे चारे की उपज 250-450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो जाती?है, जबकि बहुकटान वाली किस्मों की उपज 750-800 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो जाती है.