लहसुन की खेती और खास प्रजातियां

लहसुन कंद वाली मसाला फसल है. इस में एलसिन नामक तत्त्व पाया जाता है, जिस के कारण इस में एक खास गंध व तीखा स्वाद होता है. इस का इस्तेमाल गले और पेट संबंधी बीमारियों के अलावा हाई ब्लड प्रेशर, पेटदर्द, फेफड़े के रोगों, कैंसर, गठिया, नपुंसकता और खून की बीमारी दूर करने के लिए किया जाता है.

आजकल लहसुन का प्रसंस्करण यानी प्रोसैस कर के पाउडर, पेस्ट व चिप्स तैयार करने की तमाम इकाइयां काम कर रही हैं, जो प्रसंस्करण किए गए उत्पादों को दूसरे देशों में बेच कर अच्छा मुनाफा कमा रही हैं.

जलवायु : लहसुन को ठंडी जलवायु की जरूरत होती है. वैसे तो लहसुन के लिए गरमी और सर्दी दोनों ही मौसम मुनासिब होते हैं, लेकिन ज्यादा गरम और लंबे दिन इस के कंद बनने के लिए सही नहीं रहते हैं. छोटे दिन इस के कंद बनने के लिए अच्छे माने जाते हैं. इस की सफल खेती के लिए 29 से 35 डिगरी सेल्सियस तापमान मुनासिब होता है.

खेत की तैयारी : इस के लिए जल निकास वाली दोमट मिट्टी बढि़या रहती है. भारी मिट्टी में इस के कंदों की सही बढ़ोतरी नहीं हो पाती है. मिट्टी का पीएच मान 6.5 से 7.5 ठीक रहता है. 2-3 बार जुताई कर के खेत को अच्छी तरह एकसार कर के क्यारियां व सिंचाई की नालियां बना लेनी चाहिए.

अन्य किस्में : नासिक लहसुन, अगेती कुआरी, हिसार स्थानीय, जामनगर लहसुन, पूना लहसुन, मदुरई पर्वतीय व मैदानी लहसुन, वीएलजी 7 आदि स्थानीय किस्में हैं.

बोआई का समय : लहसुन की बोआई का सही समय अक्तूबर से नवंबर माह के बीच होता है.

बीज व बोआई : लहसुन की बोआई के लिए 5 से 6 क्विंटल कलियां बीजों की प्रति हेक्टेयर जरूरत होती है. बोआई से पहले कलियों को मैंकोजेब और कार्बंडाजिम दवा के घोल से उपचारित करना चाहिए.

लहसुन की बोआई कूंड़ों में बिखेर कर या डिबलिंग तरीके से की जाती है. कलियों को 5 से 7 सैंटीमीटर की गहराई में गाड़ कर ऊपर से हलकी मिट्टी से ढक देना चाहिए. बोते समय कलियों के पतले हिस्से को ऊपर ही रखते हैं. बीज से बीज की दूरी 8 सैंटीमीटर व कतार से कतार की दूरी 15 सैंटीमीटर रखना ठीक होता है. बड़े क्षेत्र में फसल बोने के लिए गार्लिक प्लांटर का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

खाद व उर्वरक : सामान्य तौर पर प्रति हेक्टेयर 20 से 25 टन सड़ी गोबर की खाद या कंपोस्ट या 5 से 8 टन वर्मी कंपोस्ट, 100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस व 50 किलोग्राम पोटाश की जरूरत होती है. इस के अलावा 175 किलोग्राम यूरिया, 109 किलोग्राम डाई अमोनियम फास्फेट व 83 किलोग्राम म्यूरेट औफ पोटाश की जरूरत होती है. गोबर की खाद, डीएपी व पोटाश की पूरी मात्रा और यूरिया की आधी मात्रा खेत की आखिरी तैयारी के समय मिला देनी चाहिए. बाकी बची यूरिया की मात्रा  खड़ी फसल में 30 से 40 दिनों बाद छिड़काव के साथ देनी चाहिए.

सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की मात्रा का इस्तेमाल करने से उपज में बढ़ोतरी होती है. 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर 3 साल में 1 बार इस्तेमाल करना चाहिए.

सिंचाई व जल निकास : बोआई के तुरंत बाद हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. वानस्पतिक बढ़ोतरी के समय 7 से 8 दिनों के अंतर पर और फसल पकने के समय 10 से 15 दिनों के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए, पर खेत में पानी नहीं भरने देना चाहिए.

निराईगुड़ाई व खरपतवार नियंत्रण : जड़ों में हवा की सही मात्रा के लिए खुरपी या कुदाली द्वारा बोने के 25 से 30 दिनों बाद पहली निराईगुड़ाई व 45 से 50 दिनों बाद दूसरी निराईगुड़ाई करनी चाहिए.

Lahsun
Lahsun

खुदाई व लहसुन का सुखाना : जिस समय पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाएं और पौधा सूखने लग जाए तो सिंचाई बंद कर के खुदाई करनी चाहिए. इस के बाद गांठों को 3 से 4 दिनों तक छाया में सुखा लेते हैं. फिर 2 सैंटीमीटर छोड़ कर पत्तियों को कंदों से अलग कर लेते हैं. कंदों को भंडारण में पतली तह में रखते हैं. ध्यान रखें कि फर्श पर नमी न हो.

बढ़ोतरी नियामक का प्रयोग : लहसुन की उपज ज्यादा हो, इसलिए 0.05 मिलीलिटर प्लैनोफिक्स या 500 मिग्रा साइकोसिल या 0.05 मिलीलिटर इथेफान प्रति लिटर पानी में घोल बना कर बोआई के 60 से 90 दिनों बाद छिड़काव करना सही रहता है.

कंद की खुदाई से 2 हफ्ते पहले 3 ग्राम मैलिक हाइड्रोजाइड प्रति लिटर पानी का छिड़काव करने से भंडारण के समय अंकुरण नहीं होता है व कंद 10 महीने तक बिना नुकसान के रखे जा सकते हैं.

भंडारण : अच्छी तरह से सुखाए गए लहसुन को उन की छंटाई कर के हवादार घरों में रख सकते हैं. 5 से 6 महीने भंडारण से 15 से 20 फीसदी तक का नुकसान मुख्य रूप से सूखने से होता है. पत्तियां सहित बंडल बना कर रखने से कम नुकसान होता है.

मेथी की खेती और बोआई यंत्र

भारत में राजस्थान और गुजरात मेथी पैदा करने वाले खास राज्य हैं. 80 फीसदी से ज्यादा मेथी का उत्पादन राजस्थान में होता है. मेथी की फसल मुख्यतया रबी मौसम में की जाती है, लेकिन दक्षिण भारत में इस की खेती बारिश के मौसम में की जाती है. मेथी का उपयोग हरी सब्जी, भोजन, दवा, सौंदर्य प्रसाधन वगैरह में किया जाता है.

Feenugreek
Feenugreek

मेथी के बीज खासतौर पर सब्जी व अचार में मसाले के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं. तमाम बीमारियों के इलाज में भी मेथी का देशी दवाओं में इस्तेमाल किया जाता है. यदि किसान मेथी की खेती वैज्ञानिक तकनीक से करें, तो इस की फसल से अच्छी उपज हासिल की जा सकती है.

 

मेथी की अच्छी बढ़वार और उपज के लिए ठंडी जलवायु की जरूरत होती है. इस फसल में कुछ हद तक पाला सहन करने की कूवत होती है. वातावरण में ज्यादा नमी होने या बादलों के घिरे रहने से सफेद चूर्णी, चैंपा जैसे रोगों का खतरा रहता है.

जमीन का चयन : वैसे तो अच्छे जल निकास वाली और अच्छी पैदावार के लिए सभी तरह की मिट्टी में मेथी की फसल को उगाया जा सकता है, लेकिन दोमट व बलुई दोमट मिट्टी में मेथी की पैदावार अच्छी मिलती है.

खेत की तैयारी : मेथी की फसल के लिए खेत को अच्छी तरह तैयार करने के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें और बाद में 2-3 जुताइयां देशी हल या हैरो से करनी चाहिए. इस के बाद पाटा लगाने से मिट्टी को बारीक व एकसार करना चाहिए.

बोआई के समय खेत में नमी रहनी चाहिए, ताकि सही अंकुरण हो सके. अगर खेत में दीमक की समस्या हो तो पाटा लगाने से पहले खेत में क्विनालफास (1.5 फीसदी) या मिथाइल पैराथियान (2 फीसदी चूर्ण) 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देना चाहिए.

उन्नत किस्में : मेथी की फसल से अच्छी पैदावार हासिल करने के लिए उन्नत किस्मों को बोना चाहिए. अच्छी उपज देने वाली कुछ खास किस्में जैसे हिसार सोनाली, हिसार सुवर्णा, हिसार मुक्ता, एएफजी 1, 2 व 3, आरएमटी 1 व 143, राजेंद्र क्रांति, को 1 और पूसा कसूरी, पूसा अर्ली बंचिंग वगैरह खास हैं.

बोआई का उचित समय : आमतौर पर उत्तरी मैदानों में इसे अक्तूबर से नवंबर माह में बोया जाता है. देरी से बोआई करने पर कीट व रोगों का खतरा बढ़ जाता है व पैदावार भी कम मिलती है, जबकि पहाड़ी इलाकों में इस की खेती मार्च से मई माह में की जाती है. दक्षिण भारत, विशेषकर कर्नाटक, आंध्र प्रदेश व तमिलनाडु में यह फसल रबी व खरीफ दोनों मौसमों में उगाई जाती है.

बीज दर : सामान्य मेथी की खेती के लिए बीज दर 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखनी चाहिए. बोआई करने से पहले खराब बीजों को छांट कर अलग निकाल देना चाहिए.

बीजोपचार : बीज को थाइरम या बाविस्टिन 2.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोने से बीजजनित रोगों से बचा जा सकता है.

मेथी की बोआई से पहले बीजों को सही उपचार देने के बाद राइजोबियम कल्चर द्वारा उपचारित करना फायदेमंद रहता है.

बोआई की विधि : मेथी की बोआई छिटकवां विधि या लाइनों में की जाती है. छिटकवां विधि से बीज को समतल क्यारियों में समान रूप से बिखेर कर उन को हाथ या रेक द्वारा मिट्टी में मिला दिया जाता है.

छिटकवां विधि किसानों द्वारा अपनाई जा रही पुरानी विधि है. इस तरीके से बोआई करने में बीज ज्यादा लगता है और फसल के बीच की जाने वाली निराईगुड़ाई में भी परेशानी होती है.

वहीं, इस के उलट लाइनों में बोआई करना सुविधाजनक रहता है. इस विधि में निराईगुड़ाई और कटाई करने में आसानी रहती है. बोआई 20 से 25 सैंटीमीटर की दूरी पर कतारों में करनी चाहिए. इस में पौधे से पौधे की दूरी 4-5 सैंटीमीटर रखनी चाहिए.

खाद और उर्वरक : खेत में मिट्टी जांच के नतीजों के आधार पर खाद और उर्वरक की मात्रा को तय करना चाहिए. आमतौर पर मेथी की अच्छी पैदावार के लिए बोआई के तकरीबन 3 हफ्ते पहले एक हेक्टेयर खेत में औसतन 10 से 15 टन सड़ी गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद डाल देनी चाहिए, वहीं सामान्य उर्वरता वाली जमीन के लिए प्रति हेक्टेयर 25 से 35 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 से 25 किलोग्राम फास्फोरस और 20 किलोग्राम पोटाश की पूरी मात्रा खेत में बोआई से पहले डाल देनी चाहिए.

सिंचाई प्रबंधन : यदि बोआई की शुरुआती अवस्था में नमी की कमी महसूस हो तो बोआई के तुरंत बाद एक हलकी सिंचाई की जा सकती है वरना पहली सिंचाई 4-6 पत्तियां आने पर ही करें. सर्दी के दिनों में 2 सिंचाइयों का अंतर 15 से 25 दिन (मौसम व मिट्टी के मुताबिक) और गरमी के दिनों में 10 से 15 दिन का अंतर रखना चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण : खेत को खरपतार से मुक्त रख कर मेथी की अच्छी फसल लेने के लिए कम से कम 2 निराईगुड़ाई, पहली बोआई के 30 से 35 दिन बाद और दूसरी 60 से 65 दिन बाद जरूर करनी चाहिए, जिस से मिट्टी खुली बनी रहे और उस में हवा अच्छी तरह आजा सके.

खरपतवार की रोकथाम के लिए कैमिकल दवा का छिड़काव बहुत सोचसमझ कर करना चाहिए. अगर जरूरी हो तो किसी कृषि माहिर से सलाह ले कर ही खरपतवारनाशक का इस्तेमाल करें.

रोग व उस की रोकथाम : छाछया रोग मेथी में शुरुआती अवस्था में पत्तियों पर सफेद चूर्णिल पुंज दिखाई पड़ सकते हैं, जो रोग के बढ़ने पर पूरे पौधे को सफेद चूर्ण के आवरण से ढक देते हैं. बीज की उपज और आकार पर इस का बुरा असर पड़ता है.

रोकथाम के लिए बोआई के 60 या 75 दिन बाद नीम आधारित घोल (अजादिरैक्टिन की मात्रा 2 मिलीलिटर प्रति लिटर) पानी के साथ मिला कर छिड़काव करें. जरूरत होने पर 15 दिन बाद दोबारा छिड़काव किया जा सकता है. चूर्णी फफूंद से संरक्षण के लिए नीम का तेल 10 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी के घोल से छिड़काव (पहले कीट प्रकोप दिखने पर और दूसरा 15 दिन के बाद) करें.

मृदुरोमिल फफूंद : मेथी में इस रोग के बढ़ने पर पत्तियां पीली पड़ कर गिरने लगती हैं और पौधे की बढ़वार रुक जाती है. इस रोग में पौधा मर भी सकता है.

इस रोग पर नियंत्रण के लिए किसी भी फफूंदनाशी जैसे फाइटोलान, नीली कौपर या डाईफोलटान के 0.2 फीसदी सांद्रता वाले 400 से 500 लिटर घोल का प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए. जरूरत पड़ने पर 10 से 15 दिन बाद यही छिड़काव दोहराया जा सकता है.

जड़ गलन : यह मेथी का मृदाजनित रोग है. इस रोग में पत्तियां पीली पड़ कर सूखना शुरू होती हैं और आखिर में पूरा पौधा सूख जाता है. फलियां बनने के बाद इन के लक्षण देर से नजर आते हैं. इस से बचाव के लिए बीज को किसी फफूंदनाशी जैसे थाइरम या कैप्टान द्वारा उपचारित कर के बोआई करनी चाहिए. सही फसल चक्र अपनाना, गरमी में जुताई करना वगैरह ऐसे रोग को कम करने में सहायक होते हैं.

फसल कटाई: अक्तूबर माह में बोई गई फसल की 5 बार व नवंबर माह में बोई गई फसल की 4 बार कटाई करें. उस के बाद फसल को बीज के लिए छोड़ देना चाहिए वरना बीज नहीं बनेगा.

मेथी की पहली कटाई बोआई के 30 दिन बाद करें, फिर 15 दिन के अंतराल पर कटाई करते रहें. दाने के लिए उगाई गई मेथी की फसल के पौधों के ऊपर की पत्तियां पीली होने पर बीज के लिए कटाई करें. फल पूरी तरह सूखने पर बीज निकाल कर और सुखा कर साफ कर लें और भंडारण कर लें.

कुसुम की लहलहाती खेती

रबी के मौसम में उगाई जाने वाली कुसुम एक खास तिलहनी फसल है. इस की पैदावारी कूवत के मामले में भारत विश्व में पहले स्थान पर है. भारत के डेढ़ लाख हेक्टेयर से ज्यादा जमीन में इसे उगाया जाता है.

इसे मुख्य रूप से महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, गुजरात, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और बिहार में उगाया जाता है.

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) के वैज्ञानिकों ने तिलहन फसल कुसुम की नई किस्म कुसुम 1 तैयार की है. यह न केवल पहले से 4 फीसदी ज्यादा तेल देगी, बल्कि दिल का भी ज्यादा बेहतर खयाल रखेगी.

खास बात यह भी है कि कुसुम की मौजूदा किस्म पीबीएनएस 12, जहां 145 दिन में पकती है, वहीं नई किस्म 125 दिन में ही पक कर तैयार हो जाएगी.

इस किस्म की उपज सिंचित अवस्था में 20-24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर व असिंचित अवस्था में 9-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक है जो प्रचलित पीबीएनएस 12 के बराबर है, लेकिन छत्तीसगढ़ कुसुम 1 में पीबीएनएस 12 की तुलना में तेल का प्रतिशत अधिक है.

पीबीएनएस 12 किस्म में जहां तेल की मात्रा 29 फीसदी पाई जाती है, वहीं नई किस्म कुसुम 1 में 33 फीसदी तेल मिलता है.

खेती के लिए मिट्टी : कुसुम को उगाने के लिए मिट्टी में नमी को बनाए रखने वाली और अतिरिक्त पानी को बहा देने वाली होना जरूरी है. जल निकास की व्यवस्था ठीक न होने पर पानी के ठहर जाने पर इस के पौधों की जड़ें सड़ जाती हैं. इस से उत्पादन में भारी कमी आती है. सिंचाई पर आधारित इस की खेती के लिए अगर मिट्टी भारी हो तो अतिरिक्त जल निकास की व्यवस्था अच्छी होनी चाहिए.

खेत की तैयारी : मिट्टी में से ढेले, पत्थर वगैरह निकाल देने चाहिए और खेत में गहरी जुताई करनी चाहिए.

फसल की बोआई का उचित समय : इस फसल को बोने का सही समय सितंबर माह के दूसरे पखवाड़े से अक्तूबर माह के दूसरे पखवाड़े तक होता है.

बीजोपचार : मिट्टी से उपजने वाली बीमारियों से बचाव के लिए बोआई से पहले प्रति एक किलोग्राम बीजों को थायरम 3 ग्राम या कैप्टान 2 ग्राम या कार्बंडाजिम 2 ग्राम की दर से बीजोपचार करना चाहिए.

खरपतवार की रोकथाम : बोआई के 10-15 दिनों के अंदर ही बीजों का अंकुरण होते ही पौधों के बीच की दूरी बनाए रखनी चाहिए. खरपतवारों को हटा देना चाहिए.

फूलों के गुच्छे बनने के समय भी 25-30 और 45-50 दिनों में हाथ या फावड़े से खेत की सफाई करनी चाहिए.

खाद और उर्वरक : सही और संतुलित रूप में उर्वरक देने के लिए बोआई के 2-3 हफ्ते पहले 2 टन प्रति एकड़ के हिसाब से सड़ी गोबर की खाद को खेत में डालना चाहिए.

अच्छी पैदावार हासिल करने के लिए मिट्टी की जांच करा कर जरूरत के मुताबिक उर्वरकों को खेत में डालना चाहिए.

सिंचाई व्यवस्था : बीज डाले जाने वाली जगह या अंकुरण के समय मिट्टी में सही नमी नहीं पाई जाती है तो बोआई से पहले हलकीफुलकी सिंचाई कर दें. यदि मिट्टी ऐसी हो जिस में दरारें पड़ने की संभावना हो तो दरारें पड़ने से पहले सिंचाई कर दें ताकि पानी को बेहतर तरीके से नियंत्रित किया जा सके. यदि एक ही सिंचाई का प्रावधान हो तो फसल के विकास में मिट्टी की नमी कम होने से पहले ही सिंचाई करनी चाहिए.

अंत:फसल प्रणाली को अपनाना : कुसुम अपनेआप में एक ऐसी फसल है जिस में अच्छा फायदा होता है, फिर भी अनेक राज्यों में बारिश पर निर्भर फसल की स्थिति में कुछ दूसरी फसलों को भी उगा सकते हैं, जिन्हें उगाना आसान है.

कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में कुसुम के साथ दूसरी फसल इस तरह से उगाई जा सकती है: कुसुम और धनिया (1:3), कुसुम और चना (3:6), महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और पूर्वी उत्तर प्रदेश में कुसुम और अलसी (1:3) को लाइनों में उगा सकते हैं.

कीट प्रबंधन

इस फसल में लगने वाला मुख्य कीट माहू है. इस के अलावा पत्ते को खाने वाली इल्लियां और महाराष्ट्र के अकोला में गुझिया घुन होते हैं.

गुझिया घुन से होने वाले नुकसान से बचने के लिए 10जी फोरेट 4 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से डालें, वहीं अन्य कीटों की रोकथाम के लिए सही कीटनाशक का छिड़काव करें.

रोग प्रबंधन : कुसुम के प्रमुख रोग इस प्रकार हैं: उकठा, जड़ें सड़ जाना और पत्तों पर चित्तियां उभर आना.

उकठा रोग से बचाव के लिए प्रतिरोधक संकर किस्में जैसे एनएआरआई एच 15, पीबीएनएस 12 और एनएआरआई 6 का इस्तेमाल करें. साथ ही, ट्राइकोडर्मा हारजिएनम 10 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से बीजोपचार करें. इस के साथ थीरम या मैंकोजेब 3 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से बीजोपचार करने से जड़ों को सड़ने से रोका जा सकता है.

इस के अलावा मैंकोजेब की 2.5 ग्राम मात्रा या कार्बंडाजिम 1 ग्राम और मैंकोजेब की 2 ग्राम मात्रा को प्रति लिटर पानी में मिला कर छिड़कने से पत्तों पर उभर कर आने वाली चित्तियों को रोकने में मदद मिलती है. बीज बनते समय फसल को पक्षियों से बचाया जाना जरूरी है.

फसल की कटाई : फसल को सुबह के समय ही काटें. पौधों की जड़ से कटाई करें. बाद में इन्हें गड्डियों में बांध कर छोटेछोटे ढेरों के रूप में खेत में रख दें. जब ये पूरी तरह सूख जाएं तब इस फसल को लकड़ी से कूटपीट कर अथवा बैलगाड़ी या ट्रैक्टर या हैरो वगैरह यंत्र की मदद से इस की गहाई की जा सकती है. इस प्रक्रिया में सही और साफसुथरे बीज अलग हो जाते हैं.

इस तरह की गहाई और सफाई का काम मशीन द्वारा भी किया जा सकता है. जैसे गेहूं की फसल के लिए किया जाता है या दोनों ही प्रकार की तकनीकों का इस्तेमाल इस फसल के लिए भी किया जा सकता है.

कुसुम की संकर और विभिन्न किस्में

ओडिशा, बिहार, राजस्थान के लिए :

एनएआरआई-एनएच 1,  एनएआरआई-एच 15 संकर किस्में हैं, वहीं ए 1, एनएआरआई 6, परभणी कुसुम (पीबीएनएस 12), फुले कुसुम, पीबीएनएस 40, एसएसएफ 658, एसएसएफ 648, फुले एसएसएफ 733 अन्य किस्में हैं.

उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु के लिए : एनएआरआई एनएच 1, एनएआरआई-एच 15 संकर किस्में हैं, वहीं एनएआरआई 6, परभणी कुसुम (पीबीएनएस 12), फुले कुसुम, पीबीएनएस 40, एसएसएफ 658, एसएसएफ 648, फुले एसएसएफ 733, जेएसएफ 1, जेएसआई 7, जेएसआई 73 अन्य किस्में हैं.

महाराष्ट्र के लिए : एनएआरआई एनएच 1, एनएआरआई एच 15 संकर किस्में हैं और भीमा, एकेएस 207, एनएआरआई 6, पीकेवी पिंक, परभणी कुसुम (पीबीएनएस 12), फुले कुसुम, पीबीएनएस 40, एसएसएफ 708 अन्य किस्में हैं.

आंध्र प्रदेश, तेलंगाना के लिए : एनएआरआई-एनएच 1, एनएआरआई-एच 15 संकर किस्में हैं और मंजिरा, एनएआरआई 6, परभणी कुसुम (पीबीएनएस 12), फुले कुसुम, पीबीएनएस 40, एसएसएफ 708, टीएसएफ 1 अन्य किस्में हैं.

कर्नाटक के लिए : एनएआरआई-एनएच 1, एनएआरआई-एच 15 संकर किस्में हैं और ए-1, ए-2, एनएआरआई 6, परभणी कुसुम (पीबीएनएस 12), फुले कुसुम, पीबीएनएस 40, एसएसएफ 708 अन्य किस्में हैं

मध्य प्रदेश के लिए : एनएआरआई-एनएच 1, एनएआरआई-एच 15 संकर किस्में हैं, वहीं जेएसएफ 97, जेएसएफ 99, जेएसआई 7, जेएसआई 73, परभणी कुसुम (पीबीएनएस 12), फुले कुसुम, पीबीएनएस 40, एनएआरआई 6, जेएसएफ 1 अन्य किस्में हैं.

रणथंभौर का अमरूद

विश्व मानचित्र पर भले ही राजस्थान के सवाई माधोपुर की पहचान रणथंभौर राष्ट्रीय वन्य जीव अभयारण्य व गढ़ रणथंभौर की वजह से होती रही हो, लेकिन अब यहां की पहचान स्वादिष्ठ और मीठे रसीले अमरूदों के लिए भी होने लगी है. सवाई माधोपुर जिला अमरूदों के बागों की धरती के रूप में विश्व मानचित्र पर अपनी धाक जमा चुका है.

सवाई माधेपुर जिले में पैदा होने वाले अमरूदों का फुटकर बाजार तकरीबन 10,000 किसानों की आमदनी का बेहतरीन जरीया सिर्फ अमरूद है.

गौरतलब है कि देश का 60 फीसदी अमरूद केवल राजस्थान में पैदा होता है. इस 60 फीसदी का भी 75-80 फीसदी हिस्सा केवल सवाई माधोपुर जिले का है.

कुल मिला कर देश का 80 फीसदी अमरूद अकेला सवाई माधोपुर जिला पैदा कर रहा है. मालूम हो कि विश्व में सब से ज्यादा अमरूद भारत में पैदा होता है.

पहले यहां के किसान रबी और खरीफ की कमरतोड़ मेहनत के बाद मुश्किल से पेट भरने व आजीविका चलाने का जुगाड़ कर पाते थे, पर अब अमरूदों के दम पर वे मोटी कमाई कर पा रहे हैं.

अब तमाम किसान बगीचों की अहमियत समझ चुके हैं. अब हर वंचित किसान भी इस की ओर आकर्षित हो रहा है. बहुत से किसानों की आज शहरी अमीरों जितनी आमदनी है. कुलमिला कर अमरूद का भविष्य सुनहरा है.

गौरतलब है कि तकरीबन 3 दशक पहले महज 5 बीघा बगीचे से शुरू हुई अमरूदों की पैदावार अब 8,000 से भी ज्यादा क्षेत्रफल में हो रही है. साल 1985 में सब से पहले करमोदा के बाशिंदे याकूब अली ने 5 बीघा जमीन पर अमरूद का बगीचा लगाया था. सवाई माधोपुर में उन्हें अमरूदों के बागों का जनक माना जाता है. यहां के अमरूद इसलिए करमोदा के नाम से भी मशहूर हैं.

यहां अमरूद का बगीचा ज्यादा आसान और ज्यादा फसल देने वाला साबित हो रहा है. ज्यादातर किसान सालभर पौधों की देखभाल करते हैं और फूल आने के साथ ही बगीचा ठेके पर दे देते हैं. पेड़ से फल तोड़ कर मंडी में पहुंचाना या आगे बेचने का काम खुद ठेकेदार ही करता है. औसतन किसान एक बीघा के बगीचे से तकरीबन डेढ़ लाख से 2 लाख रुपए सालाना कमा पा रहा है.

अमरूद के थोक कारोबारियों के मुताबिक, सवाई माधोपुर के अमरूदों की मांग बहुत तेजी से बढ़ रही है. यहां जैसा स्वादिष्ठ व मीठा अमरूद दूसरी जगह पैदा नहीं हो रहा है.

यहां के अमरूदों का आकार और स्वाद दूसरी मिट्टी में पैदा होने वाले अमरूदों से अलग है. यही वजह है कि यहां के अमरूदों की खाड़ी देशों तक में खासी मांग बनी रहती है.

यहां पैदा होने वाले अमरूदों में सब से ज्यादा बरफ खान गोला, एल 49, सफेदा व इलाहाबादी किस्म के अमरूद पैदा होते हैं, जो पेड़ से टूटने के 8-10 दिन तक बिना किसी नुकसान के रह जाते हैं.

यहां का अमरूद जयपुर, कोटा, दिल्ली व मुंबई की बड़ी मंडियों में जा रहा है. थोक कारोबारी इन को यहां से खरीदने के बाद मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र समेत खाड़ी देशों तक पहुंचा रहे हैं.

करेले की खेती और खास किस्में

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित करेले की ऐसी किस्म है जिस से 15 दिन पहले ही पैदावार मिलने लग जाती है और उत्पादन भी 20 से 30 फीसदी अधिक मिलता है. करेले की इस किस्म का नाम पूसा हाईब्रिड 4 है. इस किस्म में शुगर को काबू करने के गुण भी हैं.

आमतौर पर करेले की फसल में 55 से 60 दिनों में पैदावार मिलती है जबकि पूसा हाईब्रिड 4 से 45 दिनों में ही पैदावार मिलने लगती है. गहरे हरे रंग का यह करेला मध्यम लंबाई और मोटाई का है. इस की पैदावार 22 टन प्रति हेक्टेयर तक है. यह किस्म साल में 2 बार लगाई जा सकती है.

फरवरी माह के अंत और मार्च माह के शुरू में और अगस्त माह से सितंबर माह के दौरान इस किस्म को लगाया जा सकता है और लगभग 4 महीने तक इस में फल लगते हैं. यह ऐसी किस्म है जिस से जमीन और मचान दोनों तरह की खेती से भरपूर पैदावार मिलती है. वैसे तो करेले की कई किस्में चलन में हैं, कुछ किस्में इस प्रकार हैं:

उन्नतशील प्रजातियां

पूसा (2 मौसमी) : यह किस्म 2 मौसम (खरीफ व जायद) में बोई जाती है. फसल बोने के तकरीबन 55 दिन बाद करेला तुड़ाई लायक हो जाता है.

इस प्रजाति के करेले का साइज तकरीबन 15 सैंटीमीटर के आसपास होता है. इस किस्म से औसत उपज 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती है.

पूसा विशेष : इस प्रजाति के करेले हरे, पतले, मध्यम आकार के होते हैं. यह 20 सैंटीमीटर लंबे होते हैं. औसतन एक करेले का वजन 115 ग्राम होता है. इस की उपज 115-130 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

अर्का हरित : इस प्रजाति के करेले चमकीले हरे, चिकने, ज्यादा गूदेदार और मोटे छिलके वाले होते हैं. फलों की पहली तुड़ाई बोआई के 65 दिन बाद की जा सकती है. ऐसे करेले में बीज कम और कड़वापन भी कम होता है. फल की लंबाई 15 सैंटीमीटर और वजन 90 ग्राम होता है. इस की उपज 130 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

वीके 1 (प्रिया) : इस के फल 40 सैंटीमीटर तक लंबे और मोटे छिलके वाले होते हैं. बोआई के 60 दिन बाद फल तुड़ाई लायक हो जाते हैं. करेले का औसत वजन 120 ग्राम होता है. इस की औसत उपज 140 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

पंत करेला 1 : इस के फलों की पहली तुड़ाई बोआई के 55 दिन बाद की जा सकती है. इस प्रजाति के करेले मोटे, 15 सैंटीमीटर लंबे, हरे और शुरू में पतले होते हैं. औसत पैदावार लगभग 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह प्रजाति पहाड़ों के लिए अच्छी मानी गई है.

काशी हरित : इस किस्म के करेले चमकीले हरे, चिकने, गूदेदार होते हैं. एक फल का वजन 80-100 ग्राम होता है. पहली तुड़ाई 50 दिन बाद कर सकते हैं.

पूसा औषधि : हलके हरे, परचम लंबाई वाले और औसत फल वजन 85 ग्राम है. फसल तैयार होने का समय लगभग 48-52 दिन हैं. यह अधिक उपज देने वाली प्रजाति है.

पूसा हाईब्रिड 1 : मध्यम लंबाई का फल, ज्यादा उपज, पहली तुड़ाई 55-60 दिनों में की जा सकती है. औसत उपज 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पूसा हाईब्रिड 2 : फल गहरा हरा, मध्यम लंबाई का, फल का औसत वजन 85-90 ग्राम. पहली तुड़ाई 52 दिनों में और औसत उपज 180 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

कल्याणपुर बारहमासी :  यह किस्म चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गई है.

हिसार सलैक्शन : यह किस्म पंजाब और हरियाणा में काफी पसंद की जाती है.

जमीन ऐसे करें तैयार

खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें और बाद में 2-3  जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए. हर जुताई के बाद पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरी और खेत को समतल कर लेना चाहिए जिस से पानी खेत में समान रूप से फैल सके.

बीज की मात्रा और बोआई :

1 हेक्टेयर खेत की बोआई के लिए अच्छे फुटाव वाले बीज की 5 किलोग्राम मात्रा की जरूरत पड़ती है. एक जगह पर 2-3 बीज 3-4 सैंटीमीटर की गहराई पर बोने चाहिए. बोने से पहले खराब बीज निकाल दें.

बोआई का समय : इस की बोआई गरमी के मौसम के लिए (जायद) में 15 फरवरी से 15 मार्च तक और बरसात (खरीफ) के लिए 15 जून से 15 जुलाई तक करते हैं. पहाड़ी इलाकों में बोआई अप्रैल माह में की जाती है.

बोआई की दूरी : करेले की बोआई जहां तक हो सके, मेंडों पर करनी चाहिए. कतार से कतार की दूरी 1.5 से 2.5 मीटर और पौध से पौध की दूरी 45 से 60 सैंटीमीटर के बीच रखनी चाहिए.

खाद और उर्वरक : आमतौर पर 20-22 टन गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद को खेत तैयार करते समय मिट्टी में मिला देनी चाहिए. इस के बाद 1 हेक्टेयर खेत के लिए 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देनी चाहिए.

याद रखें कि नाइट्रोजन  की एकतिहाई मात्रा, फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय दें. बीज बोने के

30 दिन व 45 दिन बाद जड़ के पास नाइट्रोजन टौप ड्रैसिंग के रूप में देनी चाहिए.

सिंचाई : खरीफ मौसम में खेत की खास सिंचाई करने की जरूरत नहीं होती. बारिश न होने पर सिंचाई की जरूरत 10-15 दिन बाद होती है. ज्यादा बारिश के समय पानी के निकलने का सही बंदोबस्त होना चाहिए. गरमियों में अधिक तापमान होने के कारण जल्दीजल्दी सिंचाई की जरूरत होती है.

खरपतवार नियंत्रण : बारिश या गरमी के मौसम में सिंचाई के बाद खेत में काफी खरपतवार उग आते हैं उन्हें समयसमय पर खुरपी से निकाल देना चाहिए. करेले में पौधे की बढ़ोतरी और विकास के लिए 2-3 बार गुड़ाई कर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए. समय पर निराईगुड़ाई करने से अच्छी पैदावार मिलती है.

मचान बनाना बेहतर तरीका

करेले की बेहतर पैदावार लेने के लिए मचान खेती अच्छा तरीका है. करेले की बेलों को लकड़ी का सहारा देने से या मचान पर

चढ़ा देने से फल जमीन के संपर्क से दूर रहते हैं. इस से फलों का साइज और क्वालिटी अच्छी रहती है और पैदावार भी बेहतर मिलती है. मचान पर फल लगने से सड़ते नहीं हैं. इस के लिए हरेक पौधे जब 30 सैंटीमीटर के हो जाएं तो नायलौन या जूट की रस्सी के सहारे मचान तक चढ़ाया जाता है.

इस के अलावा लोहे या लकड़ी के खंभे गाड़ कर उन के सिरे पर तार बांध कर भी मचान बनाया जाता है. खंभों के आपस की दूरी 2 से 3 मीटर रख सकते हैं. आमतौर पर मचान की ऊंचाई 4-5 फुट तक रखते हैं.

फलों की तुड़ाई : जब फलों का रंग गहरे हरे से हलका हरा होना शुरू हो जाए और फल अपना सही आकार ले ले तो फलों की तुड़ाई करने के लिए सही माना जा सकता है.

फलों की तुड़ाई एक तय समय के दौरान करनी चाहिए ताकि फल कड़े न हों वरना उन की बाजार में मांग कम हो जाती है.

पत्तागोभी की फसल के बीज उत्पादन से कमाएं ज्यादा मुनाफा

भारत में शरद ऋतु में उगाई जाने वाली सब्जियों में पत्तागोभी का विशेष स्थान है, फिर भी इस की खेती विभिन्न ऋतुओं में लगभग पूरे वर्ष हमारे देश में की जाती है. पत्तागोभी में खनिज पदार्थ, विटामिन ए, विटामिन बी-1 और विटामिन सी की अधिक मात्रा पाई जाती है, जिस के कारण इस के बीज की मांग दिन दिनोंदिन बढ़ती जा रही है.

पत्तागोभी का बीजोत्पादन केवल पर्वतीय क्षेत्रों 1,800 मीटर से 3,000 मीटर की ऊंचाई में ही सफलतापूर्वक लिया जा सकता है. शुद्ध व गुणवत्ता वाले बीज उत्पादन के लिए तकनीकी जानकारी का होना आवश्यक है.

अच्छे व गुणवत्तायुक्त किस्मों के बीज उत्पादन के समय बीज की शुद्धता व गुणवत्ता बनाए रखने के लिए ध्यान देना चाहिए, जिस से बीज के गुणों की क्षति को रोका जा सके. अब तक इस फसल के बीजोत्पादन में जम्मूकश्मीर राज्य अग्रणी रहा है.

जलवायु

पत्तागोभी की खेती मैदानी क्षेत्रों में शीतकाल में की जाती है. पत्तागोभी की फसल के लिए 15 से 20 डिगरी सैल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है, जो पर्वतीय क्षेत्र में अलगअलग ऊंचाई पर अलगअलग समय में होता है, जिस से वर्षभर पत्तागोभी की सब्जी मिलती रहती है.

पत्तागोभी के पौधों में फूल बनने के लिए कम से कम डेढ़ माह से 2 माह तक 5 से 10 डिगरी सैल्सियस तापमान का मिलना अतिआवश्यक है. अगर यह तापमान लंबी अवधि तक मिलता है, तो पौधे में जल्दी फूल बनते हैं. इस के विपरीत यदि वातावरण का तापमान अधिक हो जाता है, तो पौधा वानस्पतिक अवस्था में ही रह जाता है.

बीज उत्पादन के लिए पत्तागोभी की खेती जुलाईअगस्त माह में करनी चाहिए. पत्तागोभी बीजोत्पादन के लिए ऐसे स्थान को चुना जाना चाहिए, जहां जुलाई से मई माह तक समयसमय पर वर्षा होती हो और पौधों में फलियां बनते समय प्रर्याप्त धूप मिल सके.

चुने गए क्षेत्र ओले से बहुत कम प्रभावित होने चाहिए, जिस के लिए फसल को बचाने के लिए नायलौन के जालों की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए.

भूमि का प्रकार

पत्तागोभी की खेती के लिए भूमि में पर्याप्त मात्रा में जीवांश होना चाहिए. अच्छे जलधारण एवं जल निकास वाली भूमि पत्तागोभी के बीजोत्पादन के लिए सर्वोत्तम होती है. पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए मिट्टी का पीएच मान 5.5 से 6.5 होना चाहिए.

भूमि की तैयारी

पत्तागोभी से अच्छा उत्पादन लेने के लिए खेत में एक गहरी व एक हलकी जुताई करनी चाहिए. पत्तागोभी की खेती असिंचित दशा में मध्यम ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में ही सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है.

भूमि शोधन

पत्तागोभी का अच्छा उत्पादन लेने के लिए खेत की अच्छी तरह से तैयारी करने के बाद खेत को छोटीछोटी क्यारियों में विभाजित करते हैं. इस के बाद मिट्टी में लगने वाली फफूंदी रोगों की रोकथाम ट्राईकोडर्मा जैविक फफूंदीनाशक से भूमि शोधन करना चाहिए.

बीज उत्पादन तकनीक

पत्तागोभी एक परपरागण वाली फसल है, जिस में परागण मधुमक्खियों के द्वारा होता है. पत्तागोभी की अगेती एवं पछेती किस्मों का उत्पादन ठंडे पर्वतीय क्षेत्रों में किया जाता है.

पत्तागोभी का आनुवांशिक शुद्ध बीज प्राप्त करने के लिए पत्तागोभी व गोभी वर्गीय 2 किस्मों को और सरसों कुल की फसलों के मध्य 1,000 मीटर की दूरी पर रखना अनिवार्य होता है.

पत्तागोभी का बीज उत्पादन करने के लिए 2 मौसमों की आवश्यकता होती है. पहले मौसम में बंद का उत्पादन होता है और अगले मौसम में बीज का उत्पादन होगा, अत: पत्तागोभी का बीज उत्पादन 2 तरीकों से किया जाता है.

बंद से बीज बनाना : इस विधि में नवंबरदिसंबर माह में पूरी तरह से विकसित बंद उखाड़ कर पुन: 60×60 सैंटीमीटर की दूरी पर रोपित करते हैं. पत्तागोभी में बीज उत्पादन के समय फूल और बीज का सुगमता से उत्पादन के लिए 3 विधियों को अपनाया जाता है.

स्टंप विधि : इस विधि में बंद (सिर) को आधार के ठीक नीचे धारदार चाकू से काटा जाता है, जिस से तने को पत्तियों के बाहरी आवरण/घेरे के साथ रखा जाता है.

केंद्रीय कोर अक्षुण्ण विधि के साथ स्टंप : इस विधि में बंद (सिर) को ऊपर से नीचे की ओर चारों तरफ से लंबवत काटा जाता है, ताकि केंद्रीय कोर क्षतिग्रस्त न हो.

सिर अक्षुण्ण विधि : इस विधि में बंद (सिर) को ऊपर से 2 चीरे इस प्रकार से लगाए जाते हैं कि उस के सिर पर धन (+) या क्रौस का कट बन जाए.

बीज से बीज बनाना : इस विधि में बंदों को दूसरी क्यारी में स्थानांतरित नहीं किया जाता है, बल्कि प्रारंभ में ही 60×60 सैंटीमीटर की दूरी पर रोपित किया जाता है.

बीज स्रोत व उपचार

पत्तागोभी का सफल बीजोत्पादन करने के लिए सही स्रोत से ही आनुवांशिक शुद्धता का बीज प्राप्त करना चाहिए. जब तक किसी विश्वसनीय स्त्रोत से शुद्ध बीज नहीं लिया जाए, तब तक उस की शुद्धता बनाए रखना आसान नहीं है.

अच्छी अंकुरण क्षमता के साथ बीज कवकनाशी रसायनों से शोधित होना चाहिए. प्रजनक आधारीय बीज किसी सरकारी संस्था या कृषि विश्वविद्यालय से प्राप्त करना चाहिए.

बीज दर और नर्सरी प्रबंधन

पत्तागोभी की अच्छी पौध तैयार करने के लिए निम्न बिंदुओं का ध्यान रखना बहुत जरूरी है :

* पौधों को समुचित धूप मिल सके, इस के लिए पत्तागोभी की पौधशाला खुले स्थान पर बनानी चाहिए.

* प्रत्येक वर्ष पौधशाला तैयार करने के लिए नए स्थान का चुनाव करना चाहिए.

* केप्टान नामक रसायन के 0.3 फीसदी के घोल से 5 लिटर प्रति वर्गमीटर की दर से पौधशाला लगाने के लिए चुनी गई भूमि को उपचारित करना चाहिए.

* पत्तागोभी के बीज को पंक्तियों में 5 से 6 सैंटीमीटर की दूरी पर 1.0 से 1.5 सैंटीमीटर की गहराई में लगाते है.

* पौधशाला की क्यारियां एक मीटर से अधिक चौड़ी नहीं होनी चाहिए और क्यरियां जमीन से 10 से 15 सैंटीमीटर ऊंची होनी चाहिए.

* पत्तागोभी की पौधशाला के लिए एक नाली क्षेत्र में 10 से 12 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है और रोपाई करने के लिए 5 से 6 वर्गमीटर पौध क्षेत्र पर्याप्त होता है.

* पौधशाला में आवश्यकतानुसार निराई, गुड़ाई व सिंचाई करते रहना चाहिए.

* पौधशाला में तैयार की गई पौध 4 से 5 हफ्ते में रोपाई के योग्य हो जाती है.

पौध रोपण

पत्तागोभी का बीज उत्पादन के लिए पौध रोपण के लिए पौध से पौध की दूरी 60 सैंटीमीटर और पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 सैंटीमीटर रखते हैं, जिस से अच्छा व गुणकारी शुद्ध बीज प्राप्त किया जा सके.

खाद व उर्वरक

पत्तागोभी को बीजोत्पादन के लिए 4 से 5 क्विंटल सड़ी गोबर की खाद, 2.5 किलोग्राम डीएपी, 3.0 किलोग्राम म्यूरेट औफ पोटाश एक नाली क्षेत्र के लिए पर्याप्त होता है.

गोबर की खाद, डीएपी और पोटाश की पूरी मात्रा और यूरिया की एक तिहाई मात्रा पौध रोपण से पहले अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मिला दें.

यूरिया की बाकी बच्ची मात्र रोपाई से 25 से 30 दिन बाद और शेष बचा हुआ भाग फूल की शाखाएं फूटते समय जमीन में मिला देनी चाहिए.

पलवार प्रयोग और मिट्टी चढ़ाना

प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में सितंबर से दिसंबर माह और मार्च से जून माह तक अकसर भूमि में नमी का अभाव रहता है. इस अवधि में पौधों को पानी की अधिक आवश्यकता होती है. अत: पत्तागोभी की बीजू फसल में नमी की कमी के दिनों में पौधों को चारों ओर 3 से 5 सैंटीमीटर मोटी पलवार की परत बिछा देनी चाहिए.

इस से कुछ समय तक भूमि की नमी संरक्षित की जा सकती है और बर्फ गिरने से पहले पलवार को हटा देना चाहिए. पत्तागोभी की बीजू फसल में सितंबरअक्तूबर माह व मार्च में मिट्टी चढ़ाना आवश्यक है.

रोगिंग व पृथक्करण

बीज की शुद्धता नियंत्रण के लिए रोगिंग करना नितांत आवश्यक है. यह कार्य बंद का आकार, रंग, उस का प्रकार एवं कुछ ऐसे गुण होते हैं, जिस के आधार पर किस्म को पहचान कर किया जा सकता है. जो पौधे किस्म के अनुरूप न हों और जो पौधे रोगी हों, उन्हें रोगिंग के दौरान खेत से निकाल देना चाहिए.

पत्तागोभी एक परसेचित फसल है. प्रमाणित बीज उत्पादक के लिए पत्तागोभी की 2 किस्मों या गोभीवर्गीय फसलों के खेतों के बीच की दूरी कम से कम 1.5 मीटर रखनी चाहिए.

कटाई (तुड़ाई)

पत्तागोभी की फलियां जब हलके हरे रंग की हो जाएं, तो उन्हें टहनियों से अलग कर लेना चाहिए.

बीज की मंड़ाई

पत्तागोभी की फलियों की कटी हुई टहनियों को 4 से 5 दिन तक ढेर में छायादार स्थान पर रखने के बाद फलियों को बोरी में भर कर उन्हें धूप में सुखाने के बाद मंड़ाई करते हैं.

बीज को सुखाना

पत्तागोभी के बीज में नमी को सुरक्षित स्तर तक लाने के लिए उन को अच्छी तरह साफ कर धूप में सुखाते हैं. जब तक बीज की नमी 7 से 8 फीसदी तक न आ जाए, इस के बाद बीज का श्रेणीकरण करते हैं, ताकि उच्च गुणवत्ता वाला बीज अलग किया जा सके.

उपज

असिंचित पर्वतीय क्षेत्रों में बीज फसल को नायलौन के जालों से मार्चअप्रैल माह में ढकने से औसतन 8 से 10 किलोग्राम बीज एक नाली क्षेत्र में उत्पादित हो जाता है.

मध्यम ऊंचाई वाले पर्वतीय क्षेत्रों में पत्तागोभी की बीजू फसल रोपाई से लगभग 320 से 330 दिन में पक कर तैयार हो जाती है.

बोएं उन्नतशील किस्में

भारत में सफेद पत्तागोभी अधिक लोकप्रिय है. किसानों को अधिक उत्पादन लेने के लिए अपने क्षेत्र की प्रचलित, उन्नत और अधिक उत्पादन देने वाली किस्मों का चयन करना चाहिए.

अगेती किस्में (सितंबर माह) : अर्ली ड्रम हैड, प्राइड औफ इंडिया, चौबटिया अर्ली, गोल्डन एकड़, पूसा, मुक्ता, क्रांति, मित्रा (संकर) आदि प्रमुख किस्में हैं.

मध्य व पछेती किस्में (अक्तूबर माह) : अर्ली, क्विस्टो, पूसा ड्रम हैड, लेट लार्ज ड्रम हैड, श्री गणेश गोल, मिड सीजन मार्केट, कोपेनहेगेन मार्केट, लेट ड्रम हैड, ऐक्सप्रैस, हाईब्रिड 10 (संकर), सलैक्शन 8 आदि प्रमुख किस्में हैं.

पत्तागोभी का व्यावसायिक व सफल बीज उत्पादन की दृष्टि से गोल्डन एकड़ और ग्रीन ऐक्सप्रैस 2 प्रमुख किस्में हैं. इन दोनों प्रजातियों के बंद ठोस, गोल आकार के और स्वाद वाले होते हैं. बंद का औसत वजन 750 ग्राम से 1,000 ग्राम तक होता है.

प्रमुख कीट की रोकथाम

माहू

नियंत्रण : माहू कीट के नियंत्रण के लिए फूल आने से पहले मार्च माह में 15 मिलीलिटर रोगोर नामक रसायन 15 लिटर पानी में घोल कर छिड़कें.

गोभी की सूंड़ी

नियंत्रण : गोभी की सूंडी के नियंत्रण को इमिडाक्लोप्रिड नामक रसायन के 0.04 फीसदी घोल को छिड़क कर नष्ट किया जा सकता है.

कटुआ अथवा कटवर्म कीट

नियंत्रण : कटवर्म कीट के नियंत्रण के लिए क्लोरोपाइरीफास नामक रसायन के 0.2 फीसदी घोल को छिड़क कर नष्ट किया जा सकता है.

बीमारियों (रोगों) की रोकथाम

आर्द्र्र गलन : रोग नर्सरी अवस्था में लगता है. इस में पौधे गलने लगते हैं.

नियंत्रण : * रोग के नियंत्रण के लिए मिट्अी का केप्टान या फार्मलिन से रासायनिक उपचार करते हैं.

* क्यारियों में समुचित जल निकास की व्यवस्था होनी चाहिए.

* बीज घना नहीं बोना चाहिए.

* प्रतिवर्ष पौधशाला का स्थान बदलते रहें.

काला विगलन : इस रोग के बीजाणु बीज की सतह पर, उस के अंदर और पौधे के मलबे में पाए जाते हैं.

नियंत्रण : * रोग के नियंत्रण के लिए रोगरहित बीजों को लगाना चाहिए.

* लंबा फसलचक्र अपनाना चाहिए.

* बीज को गरम पानी से उपचार करना चाहिए.

मशरूम खाएं इम्यूनिटी बढ़ाएं

इम्यूनिटी को हिंदी में प्रतिरोधक क्षमता या प्रतिरक्षा कहा जाता है. यह किसी भी तरह के सूक्ष्म जीवों जैसे रोग पैदा करने वाले जीवाणुओं, विषाणुओं आदि से शरीर को लड़ने की क्षमता देती है.

शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में खाद्य पदार्थ अहम भूमिका निभाते हैं. मशरूम एक तरह की फफूंदी हैं, जो हमारे आहार का अंग बन गई है.

यह एक शाकाहारी आहार है. इस से विभिन्न व्यंजन जैसे सब्जी, सूप, अचार, पकोड़े, मुरब्बा, बिरयानी, बिसकुट, नूडल्स बनाए जाते हैं.

मशरूम में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, खाद्य रेशा, वसा, खनिज लवण, विटामिन प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. यह एक कम ऊर्जा वाला आहार है. इस में कोलेस्ट्रौल नहीं पाया जाता है, जबकि आर्गेस्टेराल प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, जो खाने के बाद मानव शरीर में विटामिन डी में बदल जाता है.

कई रिसर्च से पता चला है कि विटामिन डी वायरल संक्रमण व स्वास्थ्य संबंधी संक्रमण को रोकने में लाभदायक साबित होता है, इसलिए कई बीमारियों में मशरूम का इस्तेमाल दवा के रूप में किया जाता है.

मशरूम में कई खास खनिज और विटामिन पाए जाते हैं. इन में विटामिन बी, डी, पोटैशियम, कौपर, आयरन, सैलेनियम की पर्याप्त मात्रा होती है. मशरूम में कोलीन नाम का एक खास पोषक तत्त्व पाया जाता है, जो मांसपेशियों की सक्रियता और याददाश्त बरकरार रखने में बेहद फायदेमंद रहता है.

मशरूम के फायदे

* मशरूम में एंटीऔक्सीडैंट भरपूर मात्रा होते हैं. इन में से खास है अरगोजियोनीन, जो बढ़ती उम्र के लक्षणों को कम करने और वजन घटाने में सहायक होता है. एंटीऔक्सीडैंट सूजन रोकने, फ्रीरैडिकल के कारण शरीर में होने वाले नुकसान और संक्रमण से बचाते हैं व शरीर में रोगों से लड़ने वाली कोशिकाओं को भी बढ़ाते हैं.

* मशरूम में मौजूद तत्त्व रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं. इस से सर्दीजुकाम जैसी बीमारियां जल्दीजल्दी नहीं होती हैं. मशरूम में मौजूद सैलेनियम इम्यून सिस्टम के रिस्पौंस को बेहतर बनाता है.

* मशरूम विटामिन डी का भी अच्छा स्रोत है. विटामिन डी हड्डियों को मजबूत बनाता है.

* इस में बहुत कम मात्रा में कार्बोहाइड्रेट होता है, जिस से वजन और शुगर का लैवल नहीं बढ़ता है.

* मशरूम में वसा बहुत कम होती है व कोलेस्ट्रौल नहीं होता है. इस के अलावा मशरूम त्वचा और बालों के लिए भी फायदेमंद है.

ताजा मशरूम में 80 से 90 फीसदी पानी पाया जाता है. मशरूम के शुष्क भार का 46 से 82 फीसदी कार्बोहाइड्रेट, 12 से 35 फीसदी प्रोटीन, 8 से 10 फीसदी फाइबर, एक से 4 फीसदी वसा और विटामिन व खनिजलवण होता है.

मशरूम में इम्यूनिटी

मशरूम की कोशिका भित्ति पोलीसैकेराइड (बीटा ग्लूकांस) की बनी होती है जो प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है. इस के अलावा मशरूम में मिलने वाले गैनोडरमीक एसिड, एरगोथियोनीन व कार्डीसेवीन भी प्रतिरक्षा क्षमता को बढ़ाते हैं.

मशरूम में कैंसर रोधी क्षमता

बटन मशरूम और ओयस्टर मशरूम में प्रोस्टेट व ब्रैस्ट कैंसर रोधी क्षमता पाई जाती है. 5 अल्फा रिडक्टेज और एरोमाटेज एंजाइम, जो कैंसरकारी ट्यूमर वृद्धि के लिए उत्तरदायी है, इसे रोकने के गुण ताजा मशरूम में पाए जाते हैं. कैंसर के उपचार में प्रयोग होने वाली प्रमुख दवा पौलिसैकेराइड-के (क्रेसीन) मशरूम से ही बनाई जाती है.

धान की नर्सरी प्रबंधन

खरीफ में धान की फसल की खास अहमियत है. धान की ज्यादा पैदावार लेने के लिए बहुत से कारक उत्तरदायी हैं, जिन में से अच्छे बीज का चुनाव, नर्सरी में पौध की देखरेख, रोपाई की विधि, पोषक तत्त्व प्रबंधन, पानी की उपलब्धता खास हैं. स्वस्थ व निरोगी पौध तैयार करने के लिए यह जरूरी है कि जरूरी उम्र की पौध की रोपाई की जाए इस से धान की फसल से भरपूर पैदावार मिल सकती है.

आमतौर पर संकर धान की नर्सरी 21 दिनों व दूसरी प्रजातियों की नर्सरी 25 दिनों में तैयार हो जाती है. तैयार नर्सरी की रोपाई अगर एक हफ्ते के अंदर हो जाए तो पौधों में कल्लों की तादाद ज्यादा निकलती है, जो पैदावार बढ़ाने में सहायक होती है.

खेत का चुनाव

धान की पौध ऐसे खेत में डालनी चाहिए जो सिंचाई के स्रोत के पास हो. धान की खेती के लिए पानी रोकने की क्षमता रखने वाली चिकनी या मटियार मिट्टी वाले इलाके ज्यादा सही रहते हैं. सिंचाई की सुविधा मुहैया होने पर धान हलकी भूमि में भी कामयाबी के साथ उगाया जा सकता है.

खेत की तैयारी

नर्सरी के लिए चुने हुए खेत की जुताई करने के बाद पाटा चला कर जमीन को समतल कर लेना चाहिए. पौध तैयार करने के लिए खेत में 2-3 सैंटीमीटर पानी भर कर 2-3 बार जुताई करें, ताकि मिट्टी लेह युक्त हो जाए और खरपतवार नष्ट हो जाएं.

आखिरी जुताई के बाद पाटा लगा कर खेत को समतल करें, ताकि खेत में अच्छी तरह लेह बन जाए, जो पौध की रोपाई के लिए उखाड़ने में मदद मिले और जड़ों का नुकसान कम हो.

नर्सरी के लिए खाद

पौध तैयार करने के लिए 1.25 मीटर चौड़ी व 8 मीटर लंबी क्यारियां बना लें और प्रति क्यारी (10 वर्गमीटर) 225 ग्राम यूरिया, 400 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट और 65-70 ग्राम पोटाश मिलाएं. यह ध्यान रहे कि पौध  जितनी स्वस्थ होगी, उतनी ही अच्छी उपज मिलेगी.

बोआई का समय

जून महीने के पहले हफ्ते से आखिरी हफ्ते तक बीज की बोआई करें, जबकि सुगंधित प्रजातियों की नर्सरी जून के तीसरे हफ्ते में डालें.

बीज की मात्रा

एक एकड़ क्षेत्रफल की रोपाई के लिए धान की महीन चावल वाली किस्मों का 12  किलोग्राम, मध्य दाने वाली किस्मों का 14 किलोग्राम और मोटे दाने वाली किस्मों का 16 किलोग्राम बीज सही होता है, जबकि संकर प्रजातियों के लिए प्रति एकड़ 7-8 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है.

बीजोपचार

जीवाणु  झुलसा की समस्या वाले क्षेत्रों में 25 किलोग्राम बीज को 4 ग्राम स्टै्रप्टोसाइक्लीन दवा में मिला कर रातभर पानी में भिगोएं. दूसरे दिन बीज को छाया में सुखा कर नर्सरी डालें.

जहां इस रोग की समस्या न हो उस क्षेत्र में बीज को 12 घंटे तक पानी में भिगोएं और पौधशाला में बोआई से पहले बीज को कार्बेंडाजिम या थीरम की 2 ग्राम मात्रा प्रति किलोगाम बीज की दर से उपचारित करें और उस के बाद बीज को समतल छायादार जगह पर फैला दें व भीगी जूट की बोरियों से ढक दें. बोरियों के ऊपर पानी का छिड़काव करें, जिस से नमी बनी रहे.

24 घंटे के बाद बीज अंकुरित हो जाएगा, फिर अंकुरित बीज की समान रूप से बोआई कर दें. ध्यान रखें कि बीज की बोआई शाम को करें, ताकि अगर तापमान ज्यादा हो तो अंकुरण नष्ट न होने पाए.

नर्सरी की देखरेख

अंकुरित बीज की बोआई के 2-3 दिनों के बाद पौधशाला में सिंचाई करें. खैरा रोग से बचाव के लिए एक सुरक्षात्मक छिड़काव  500 ग्राम जिंक सल्फेट को 2 किलोग्राम यूरिया या 250 ग्राम बु झे हुए चूने के साथ 100 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति 1000 वर्गमीटर क्षेत्रफल की दर से पहला छिड़काव बोआई के 10 दिन बाद और दूसरा छिड़काव 20 दिन बाद करना चाहिए.

सफेदा रोग के नियंत्रण के लिए 400 ग्राम फेरस सल्फेट को 2 किलोग्राम यूरिया के साथ 100 लिटर पानी में घोल बना कर 1,000 वर्गमीटर क्षेत्रफल में छिड़काव करें.

परवल और धनियां में कीटरोग प्रबंधन

परवल

फल मक्खी कीट : प्रोन कीट कोमल अवयस्क फलों की त्वचा के नीचे अंडे देती है, जिस से यह गिडार निकल कर गूदे को खा कर फलों को सड़ा देती है. फल पीले पर कर सड़ने लगते हैं.

प्रबंधन : कीट आने से पहले नीम तेल 1500 पीपीएम की 3 मिलीलिटर दवा प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

यदि कीट आ गया है तो क्विनालफास 25 ईसी की 2 मिलीलिटर दवा प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

गलन रोग : इस रोग का प्रकोप अविकसित फलों पर अधिक होता है, जिस के कारण पूरा फल सड़ कर गिर जाता है.

प्रबंधन : इस रोग के नियंत्रण के लिए कौपर औक्सिक्लोराइड 50 डब्ल्यूपी की 3 ग्राम दवा प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

खर्रा रोग : इस के प्रकोप से पत्तियों और फलों पर सफेद चूर्ण दिखाई देते हैं. परिणामस्वरूप पत्तियां पीली पड़ कर नीचे गिर जाती हैं.

प्रबंधन : इस रोग के नियंत्रण के लिए कसुगमायसिन्न 3 फीसदी की 2 मिलीलिटर दवा प्रतिलिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

धनिया

माहू कीट : यह कीट फूल आने के समय शिशु एवं प्रोण दोनों ही रस चूस कर नुकसान करते हैं. इस से प्रभावित फलों व बीजों का आकार छोटा हो जाता है.

प्रबंधन : कीट आने से पहले नीम तेल 1500 पीपीएम की 3 मिलीलिटर दवा प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

यदि कीट आ गया है तो इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 10 मिलीलिटर दवा प्रति 15 लिटर पानी में घोल बना कर तुरंत छिड़काव करें.

स्टेम गाल रोग : यह धनिया का प्रमुख रोग है. इस में पत्तियों के ऊपरी भाग, तना, शाखाएं, फूल और फूल व फल पर रोग के लक्षण कुछ उभरे हुए फफोलों जैसे दिखाई देते हैं. आरंभ में रोग से संक्रमित तना पीला होने लगता है और मिट्टी के पास से तने पर छोटी गाल उभार लिए हुए भूरे रंग की होती है.

प्रबंधन : बीज को बोने से पूर्व थीरम 2.5 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लें. पौधों के अवशेष को नष्ट कर दें.

यदि रोग आ गया है तो कार्बंडाजिम 1.5 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

उकठा रोग : इस रोग से प्रभावित पौधे शुरू में पीला पड़ने लगते हैं. कुछ ही दिनों में इन का शीर्ष मुर?ा कर सूख जाता है और पौधा मर जाता है.

प्रबंधन : खेत की अप्रैलमई माह में सिंचाई कर के गरमियों की गहरी जुताई करें और खाली छोड़ दें. 2 वर्ष का फसल चक्र अपनाएं. धनिया के स्थान पर अदरक या सरसों उगाएं.

बोआई से पहले और आखिरी जुताई के साथ ट्राइकोडर्मा 4 से 5 किलोग्राम और गोबर की 50 से 60 किलोग्राम सड़ी हुई खाद मिला कर 1 हेक्टेयर खेत में फैला कर जुताई कराएं.

बुकनी रोग : इसे खर्रा रोग भी कहते हैं. इस रोग के कारण पत्तियों और तनों पर सफेदी आ जाती है व पत्तियां पीली पड़ जाती हैं.

प्रबंधन : इस के उपचार के लिए घुलनशील गंधक (सल्फैक्स) 3 किलोग्राम अथवा 600 मिलीलिटर डाई कूनो कैप प्रति हेक्टेयर की दर से 800 लिटर पानी में घोल कर फसल पर छिड़काव करें.

अधिक जानकारी के लिए नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों से संपर्क करें.

मिर्च की फसल में लगने वाले कीट और रोग

मिर्च एक ऐसा मसाला है, जो लोगों की जिंदगी को तीखा और चटपटा बना देता है. यह हर घर की रसोई में पाई जाती है, इसलिए दुनियाभर में इस की मांग बनी रहती है. बहुत से किसान इस की खेतीबारी से रोजीरोटी कमाते हैं. पर इस में कुछ कीट और रोग ऐसे लग जाते हैं, जो फसल को नुकसान पहुंचाते हैं. आइए, जानते हैं उन के बारे में :

पीली माइट कीट

यह पीले रंग की छोटी माइट है. यह आकार में इतनी छोटी होती है, जो आसानी से दिखाई नहीं देती है. इस का प्रकोप होने पर परर्ण कुंचन (लीफ कर्ल) की तरह पत्तों में सिकुड़न आ जाती है.

इस कीट के शिशु और प्रौण दोनों ही पत्तियों का रस चूस कर हानि पहुंचाते हैं. इस का अत्यधिक प्रकोप होने पर पौधों की बढ़वार एकदम रुक जाती है और फलनेफूलने की क्षमता अकसर समाप्त हो जाती है.

मिर्च का रसाद कीट (थ्रिप्स)

प्रौण कीट 1 मिलीमीटर से कम लंबा, कोमल और हलके पीले रंग का होता है. इस के पंख झालरदार होते  हैं. ये अल्पायु कीट पंखरहित होते हैं. ये सैकड़ों की संख्या में पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर छिपे रहते हैं और कभीकभी ऊपरी सतह पर भी पाए जाते हैं.

शिशु और प्रौण कीट मार्च से नवंबर माह तक मिर्च की पत्तियों का रस चूस कर हानि पहुंचाते हैं, जिस से पत्तियां मुड़ जाती हैं और ऊपरी भाग सूख जाता है.

प्रबंधन : यदि फसल में दोनों कीट नहीं आए हैं, तो नीम तेल 1500 पीपीएम की 3 मिलीलिटर दवा प्रति लिटर पानी में घोल बना कर 15-15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करते रहें.

यदि दोनों कीट आ गए हैं, तो इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 10 मिलीलिटर दवा प्रति 15 लिटर पानी में घोल बना कर तुरंत छिड़काव करें.

आर्द्र गलन रोग

अंकुरण का कम होना, बीज का अंकुरण से पहले गल जाना, नर्सरी में अंकुरण के बाद पौधा सड़ कर गिरने लगता है आदि इस बीमारी की प्रमुख लक्षण हैं.

प्रबंधन : बीज का उपचार बोने से पहले थीरम 2.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से बीज को शोधित कर के बोना चाहिए.

जमाव होने के बाद 2 ग्राम कौपर औक्सीक्लोराइड को प्रति लिटर पानी में घोल बना कर नर्सरी में पौधों पर छिड़काव करना चाहिए.

शीर्ष मरण रोग (डाई बैक) या फल सड़न

इस में पौधों के शीर्ष का भाग और शाखाएं ऊपर से नीचे की ओर सूखने लगती हैं. ऐसे पौधों के फल सड़ने लगते हैं और पौधे बौने रह कर सूख जाते हैं.

प्रबंधन : बीज को कार्बंडाजिम के 2.5 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोएं.

खड़ी फसल में लक्षण दिखाई पड़ते ही मैंकोजेब एम 45 की 3 ग्राम दवा प्रति लिटर पानी में घोल बना कर तुरंत छिड़काव करें.

बुकनी रोग

इस में पत्तियों के निचले भाग पर सफेद चूर्ण जम जाता है, जिस से प्रभावित पौधे मुरझाने  लगते हैं.

प्रबंधन : इस रोग की रोकथाम के लिए रोग रोधी किस्म का चयन करें. रोग का प्रकोप होने पर सल्फैक्स 3 ग्राम को प्रति लिटर पानी में घोल कर 10 दिन के अंतराल पर 2 से 3 बार छिड़काव करें.

गुरुचा या पत्ती मरोड़ रोग

यह बीमारी विषाणुजनित होती है, जो सफेद मक्खी द्वारा एक पौधे से दूसरे पौधे पर पहुंचाई जाती है.

इस रोग के प्रकोप से पत्तियां सिकुड़ कर कुरूप हो जाती हैं. प्रभावित पौधे में फल कम या नहीं लगता है.

प्रबंधन : इस रोग रोधी पौधों को उखाड़ दें और गड्ढा खोद कर इन बीमार पौधों को मिट्टी में दबा देना चाहिए.

सफेद मक्खी पर अच्छी तरह से नियंत्रण पाने के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 10 मिलीलिटर दवा प्रति 15 लिटर पानी में घोल बना कर तुरंत छिड़काव करें.

अधिक जानकारी के लिए कृषि विज्ञान केंद के वैज्ञानिकों से संपर्क करें.