Green Manure : ढैंचे की खेती से बढ़ाएं मिट्टी की उर्वरता

Green Manure : भारतीय किसानों द्वारा अपने खेतों में बोई गई फसलों से ज्यादा उत्पादन हासिल करने के लिए अंधाधुंध रासायनिक खादों व उर्वरकों का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिस की वजह से मिट्टी में जीवाश्म की मात्रा में दिनोंदिन कमी होती जा रही है और मिट्टी ऊसर होने की कगार पर पहुंचती जा रही है. ऐसी हालत से बचने व फसल उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों को ऐसे उर्वरकों का इस्तेमाल करना होगा, जिन से मिट्टी में मौजूद लाभदायक जीवाणुओं को कोई हानि न पहुंचे.

खेत में जीवाश्म की मात्रा को बढ़ाने और उर्वरा शक्ति के विकास में जैविक व हरी खादों का इस्तेमाल काफी फायदेमंद होता है. हरी खाद के लिए इस्तेमाल में लाई जाने वाली ढैंचे की फसल न केवल खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ाती है, बल्कि फसल उत्पादन को बढ़ा कर लागत में भी कमी लाती है. ढैंचा एक ऐसी फसल है, जिसे खेत में बोआई के 55-60 दिनों बाद हल से पलट कर मिट्टी में दबा दिया जाता है. ढैंचे की बोआई उसी खेत में की जाती है, जिस में हरी खाद का इस्तेमाल करना हो. इस के नाजुक पौधों को बोआई के 55-60 दिनों बाद जुताई कर के खेत में मिला कर पानी भर दिया जाता है. ढैंचे की फसल थोड़ी नमी पाने के बाद ही सड़ना शुरू हो जाती है.

ढैंचे की हरी खाद से मिट्टी को भरपूर मात्रा में नाइट्रोजन मिलता है, जिस से खेत में पोषक तत्त्वों का संरक्षण होता है और मिट्टी में नाइट्रोजन के स्थिरीकरण के साथ ही क्षारीय व लवणीय मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है. ढैंचे से अन्य हरी खादों के मुकाबले नाइट्रोजन की ज्यादा मात्रा मिलती है.

ढैंचे की उन्नत किस्में : ढैंचे में खनिज पदार्थों की मौजूदगी, नाइट्रोजन की अच्छी मात्रा व बोई गई फसलों पर अच्छे असर को देखते हुए इस की कुछ किस्में अनुकूल मानी गई हैं, जिन में सस्बेनीया, एजिप्टिका, यस रोसट्रेटा व एस एक्वेलेटा खास हैं.

हरी खाद के लिए अनुकूल मिट्टी : वैसे तो हरी खाद के लिए ढैंचे की बोआई किसी भी तरह की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन जलमग्न, क्षारीय, लवणीय व सामान्य मिट्टियों में ढैंचे की फसल लगाने से अच्छी गुणवत्ता वाली हरी खाद मिलती है.

बोआई का समय व बीज की मात्रा : ढैंचे की बोआई से पहले खेत की 1 बार जुताई कर लेनी चाहिए. इस के बाद प्रति हेक्टेयर 35-50 किलोग्राम बीज का इस्तेमाल करना चाहिए. ढैंचे की बोआई अप्रैल के अंतिम हफ्ते से ले कर जून के अंतिम हफ्ते तक की जाती है. बोआई के 10 से 15 दिनों के बाद हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. जब फसल 20 दिनों की हो जाए, तो 25 किलोग्राम यूरिया का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. इस से फसल में नाइट्रोजन की मात्रा बनने में मदद मिलती है.

फसल की पलटाई : जब ढैंचे  की फसल की लंबाई 2 से ढाई फुट की हो जाए तो इसे हल द्वारा खेत में पलट देना चाहिए. इस के बाद ढैंचे की फसल सड़नी शरू हो जाती है, जिस से मिट्टी की उर्वरा कूवत बढ़ने के साथ ही सूक्ष्म पोषक तत्त्वों व सूक्ष्म जीवाणुओं की तादाद भी बढ़ती है. इस से मिट्टी की संरचना में सुधार होता है और बोई गई फसल की जड़ों का फैलाव बेहतर होता है. हरी खाद मिट्टी की जलधारण कूवत को बढ़ा कर नमी को लंबे समय तक बनाए रखने में मददगार होती है. हरी खाद को दबाने के बाद बोई गई धान की फसल में कुछ प्रजातियों के खरपतवार न के बराबर होते हैं. इस प्रकार खरपतवार नियंत्रण के लिए प्रयोग किए जाने वाले खरपतवारनाशी के कुप्रभाव से मिट्टी को बचाने में मदद मिलती है.

इस प्रकार बेहद कम लागत और मेहनत से हम अपनी मिट्टी की उर्वरा ताकत को बढ़ाने के लिए ढैंचे की फसल को हरी खाद के रूप में इस्तेमाल कर के रासायनिक उर्वरकों पर होने वाले खर्च में कमी ला सकते हैं और मिट्टी को रासायनिक उर्वरकों के प्रभाव से बचा सकते हैं.

Agricultural Machinery : जुताई व बोआई यंत्र – कम लागत, अधिक उत्पादन

Agricultural Machinery : किसान अपनी रबी की फसल ले चुके हैं. अब खरीफ फसलों की तैयारी पर काम चल रहा है. कुछ किसान तो अपने खेतों में फसल बो चुके हैं. किसान अपने बीज को बोआई यंत्र से बो सकते हैं, क्योंकि यंत्रों से बिजाई करने से बीज बरबाद नहीं होते हैं.

पावर टिलर चालित जुताई व बोआई यंत्र

यह यंत्र खेत की तैयारी के साथसाथ बोआई भी करता है इस से खाद भी साथ ही डाल सकते हैं.

इस यंत्र को 10 से 12 हार्स पावर के टिलर के साथ जोड़ कर चलाया जाता है. इस यंत्र की अनुमानित कीमत 15000 रुपए से 18000 रुपए है.

इस यंत्र से गेहूं, सोयाबीन, चना, ज्वार, मक्का की बोआई कर सकते हैं.

इस यंत्र को खरीदने के लिए आप कृषि अभियांत्रिकी संस्थान के फोन नं. 0755-2521133, 2521139, 2521142 पर संपर्क कर सकते हैं.

जांगड़ा की बिजाई मशीन

सब्जियों की बोआई हेतु महावीर जांगड़ा की यह बिजाई मशीन खासी लोकप्रिय है. खेत तैयार करने के बाद इस मशीन से बिजाई करने पर बीज उचित मात्रा में लगते हैं. साथ ही यह मशीन खुद मेंड़ बनाती है और बिजाई करती है. यह मशीन 2 मौडल में उपलब्ध है :

* 2 बेड वाली बिजाई मशीन :  यह मशीन 8 लाइन में बिजाई करती है और इसे 35 से 40 हार्स पावर के ट्रैक्टर से चलाया जाता है. इस बिजाई मशीन की कीमत लगभग 52000 रुपए है.

* 3 बेड वाली बिजाई मशीन :  यह मशीन 12 लाइनों में बिजाई करती है और इसे 50 हार्स पावर के ट्रैक्टर से चलाया जाता है. इस की कीमत लगभग 72000 रुपए है.

इस मशीन से बोई जाने वाली खास फसलें :

* फूलगोभी, पत्तागोभी, सरसों, राई, शलगम.

* गाजर, मूली, धनिया, पालक, मेथी, हरा प्याज, मूंग, जीरा, टमाटर.

* भिंडी, मटर, मक्का, चना, कपास, टिंडा, तोरी, फ्रांसबीन, घीया, तरबूज.

जो भी किसान इस मशीन को लेना चाहें वे महावीर जांगड़ा से उन के फोन नंबर 09896822103, 9813048612 पर संपर्क कर सकते हैं.

Drip Irrigation : खेती में पानी बचाने की तकनीक : ड्रिप या टपक सिंचाई

Drip Irrigation : सारी दुनिया में अपनाई जा रही ड्रिप प्रणाली से हमारे किसानों का संबंध बहुत पुराना है. पहले गरमी के दिनों में हमारे घरों के आंगन की तुलसी के पौधे के ऊपर मिट्टी के घड़े की तली में बारीक छेद कर के उस में पानी भर कर टांग दिया जाता था. वैसे ड्रिप प्रणाली का किसानी में व्यापक प्रयोग 1960 के दशक में इजरायल में किया गया, जिसे बाद में आस्ट्रेलिया और अमेरिका ने बखूबी अपनाया. ड्रिप सिंचाई के जरीए आज अमेरिका में 10 लाख हेक्टेयर रकबे में खेती होती है, जिस के बाद भारत और फिर स्पेन और इजरायल का स्थान है.

ड्रिप यानी टपक सिंचाई, सिंचाई का वह तरीका है जिस में पानी धीरेधीरे बूंदबूंद कर के फसलों की जड़ों में कम मोटाई के प्लास्टिक के पाइप से दिया जाता है. इस तरीके में पानी का इस्तेमाल कम से कम होता है. सिंचाई का यह तरीका सूखे इलाकों के लिए बेहद उपयोगी होता है, जहां इस का इस्तेमाल फल के बगीचों की सिंचाई के लिए किया जाता है. टपक सिंचाई ने लवणीय जमीन पर फलों के बगीचों को कामयाब बनाया है. इस सिंचाई विधि में खाद को घोल के रूप में दिया जाता है. टपक सिंचाई उन इलाकों के लिए बहुत ही सही है, जहां पानी की कमी होती है.

पिछले 15 सालों से भारत में ड्रिप सिंचाई से साढ़े 3 लाख हेक्टेयर जमीन में सिंचाई हो रही है, जिस में सब से अधिक महाराष्ट्र में 94000 हेक्टेयर, कर्नाटक में 66000 हेक्टेयर और तमिलनाडु में 55000 हेक्टेयर की सिंचाई की जा रही है.

ड्रिप सिंचाई पर आधारित खेती को अपनाए जाने की कई वजहें हैं. भारत की कुल जमीन के रकबे का महज 45 फीसदी भाग ही अभी तक सिंचाई सुविधा के तहत आता है, जबकि खेती में पानी का इस्तेमाल कुल पानी के इस्तेमाल का 83 फीसदी है. घरेलू उपयोग, उद्योग और ऊर्जा यानी बिजली के सेक्टर में पानी की खपत बढ़ने से जाहिर है कि खेती के लिए पानी की मौजूदगी पर आने वाले समय में दबाव और बढ़ेगा. पानी के संकट का एक मुख्य कारण जमीन के पानी के स्तर का लगातार गिरते जाना भी है.

कोलंबो स्थित इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट के अनुसार साल 2025 तक विश्व की एकतिहाई आबादी पानी की कमी से जूझ रही होगी. विश्व में मौजूद इस्तेमाल लायक पानी का महज 4 फीसदी पानी भारत में है, जबकि भारत की आबादी दुनिया की आबादी का 16 फीसदी है. जाहिर है कि पानी का दबाव बढ़ता जा रहा है. ऐसे में जरूरी है कि खेती में भी पानी के इस्तेमाल को ले कर नई तकनीकों को आजमाया जाए. ड्रिप यानी टपक बूंद सिंचाई तकनीक में पानी की हर बूंद के ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल समेत कई लाभ हैं.

टपक सिंचाई के लिए मुफीद फसलें: ड्रिप या टपक सिंचाई कतार वाली फसलों, पेड़ व लता फसलों के मामले में बेहद मुनासिब होती है, जहां एक या उस से ज्यादा निकास को हर पौधे तक पहुंचाया जाता है. ड्रिप सिंचाई को आमतौर पर अधिक कीमत वाली फसलों के लिए अपनाया जाता है, क्योंकि इस सिंचाई के तरीके को अपनाने में खर्च ज्यादा आता है. टपक सिंचाई का इस्तेमाल आमतौर पर फार्म, व्यावसायिक हरित गृहों और घरों के बगीचों में किया जाता है.

ड्रिप सिंचाई लंबी दूरी वाली फसलों के लिए बेहद मुफीद होती है. सेब, अंगूर, संतरा, नीबू, केला, अमरूद, शहतूत, खजूर, अनार, नारियल, बेर, आम आदि फल वाली फसलों की सिंचाई ड्रिप सिंचाई विधि से की जा सकती है. इन के अलावा टमाटर, बैगन, खीरा, लौकी, कद्दू, फूलगोभी, बंदगोभी, भिंडी, आलू, प्याज वगैरह कई सब्जी फसलों की सिंचाई भी टपक सिंचाई विधि से की जा सकती है. अन्य फसलों जैसे कपास, गन्ना, मक्का, मूंगफली, गुलाब व रजनीगंधा वगैरह को ड्रिप सिंचाई विधि से सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है.

ड्रिप सिंचाई पर एक रिपोर्ट : कर्नाटक के गन्ना किसानों पर हुए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि वहां के 10.85 लाख हेक्टेयर रकबे में उगाए जाने वाले गन्ने के लिए बहाव प्रणाली वाली खेती में सिंचाई के लिए 330 टीएमसीएफटी पानी की जरूरत होगी, जबकि इतने ही रकबे में ड्रिप सिंचाई तकनीक से महज 144 टीएमसीएफटी पानी की जरूरत होती है. पानी की 186 टीएमसीएफटी मात्रा का ही नहीं, बल्कि इस की सिंचाई में लगने वाली बिजली में 450 करोड़ रुपए की बचत का अनुमान किया गया जो कुल मिला कर 1200 मेगावाट के बराबर होगी.

अब बात पैदावार की करें तो इतने ही रकबे में फ्लड सिंचाई के जरीए प्रति हेक्टेयर 35 टन की पैदावार होती है, जबकि ड्रिप सिंचाई के जरीए 68 टन तक की पैदावार हासिल की जा सकती है. अकेले गन्ने की पैदावार में लगभग 95 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है, जिस का बाजारी कीमतों पर प्रति एकड़ कुल लाभ 65 हजार रुपए से अधिक बैठता है.

Drip Irrigation

ड्रिप सिंचाई तकनीक के लाभ : ड्रिप सिंचाई तकनीक को सब्जियों,  फलों और तमाम फसलों में बड़ी सफलता के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है. इस तकनीक में पानी के स्टोरेज टैंक से एक खास दबाव पर 2-20 लीटर प्रति घंटे की दर से पानी को जमीन की सतह पर पाइपों के जाल से पौधों के पास बने छेदों से टपकते हुए पहुंचाया जाता है. इस प्रणाली में जमीन में नमी बनाए रखने में मदद मिलती है.

ड्रिप सिंचाई प्रणाली में पानी का बेहतर इस्तेमाल ही नहीं होता, बल्कि पानी की खपत में 45 फीसदी कमी आ जाती है. उर्वरकों और कीटनाशकों को ड्रिप प्रणाली में सीधे पौधों की जड़ों तक पहुंचाया जाता है. सिंचाई के पुराने तरीकों में पोषण उपयोग क्षमता 60 फीसदी से कम रहती है, जबकि ड्रिप प्रणाली में 90 फीसदी से ज्यादा है.

आम सिंचाई में पौधों को अधिक पानी मिलने से पानी के जमीन के भीतर रिसाव से 50 फीसदी तक उर्वरक घुल कर मिट्टी के निचले स्तरों में जा पहुंचते हैं, जबकि ड्रिप प्रणाली में रिसाव के जरीए उर्वरकों की हानि महज 10 फीसदी होती है. सब से खास बात यह है कि उर्वरकों के रिसाव से जमीन के अंदर का पानी खराब होता है. ड्रिप सिंचाई से उर्वरकों की खपत में 20 फीसदी की कमी के साथ पैदावार में 20-90 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो सकती है. ड्रिप सिंचाई से किसान अपनी फसल की लागत को कम करने के साथसाथ भूमिगत जल को भी गंदा होने से बचा सकते हैं.

ड्रिप सिंचाई से पौधों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को अपनी संख्या को बढ़ाने के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिल पाता है, जिस से पौधों की सुरक्षा बढ़ती है और कीटनाशकों की खपत कम हो जाती है. नाली प्रणाली से सिंचाई करने पर पानी के बहाव के साथ मिट्टी का कटाव होता है, जबकि ड्रिप प्रणाली में मिट्टी का कटाव नहीं होता है. इस से मिट्टी की उर्वरता और उस की परतों को कोई नुकसान नहीं होता है.

ड्रिप सिंचाई प्रणाली में सिंचाई के लिए खेतों की असमान सतह होना बाधक नहीं है, जबकि नाली सिंचाई में किसानों को खेत को समतल बनाने में खर्च करना पड़ता है. ड्रिप प्रणाली में सिंचाई में मेहनत कम लगती है. ड्रिप सिंचाई के दौरान भूमि सूखी होने के कारण फसलों की तोड़ाई में परेशानी नहीं होती है.

ड्रिप सिंचाई की सुविधा और ढांचे को तैयार करने के लिए केंद्र व विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा सब्सिडी दी जाती है.

Kala Namak Rice : कालानमक धान की उन्नत किस्मों की खेती

Kala Namak Rice : कालानमक धान अपनी महक व गुणवत्ता की वजह से काफी महंगा होता है. इसीलिए कम पैदावार के बावजूद किसानों द्वारा इस की खेती की जाती है. कालानमक धान की पुरानी प्रजातियों में ज्यादा समय में कम पैदावार होती थी. इन के पौधे लंबे होने की वजह से अकसर गिर जाते थे और इन्हें पानी की भी ज्यादा जरूरत होती थी. इन्हीं वजहों से इस की खेती के रकबे में काफी कमी आ गई.

इन समस्याओं को देखते हुए भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने शोध कर के कालानमक 101, कालानमक 102 व कालानमक 103 नाम की बौनी सुगंधित व अधिक उपज देने वाली प्रजातियां विकसित की हैं. ये प्रजातियां न केवल अधिक उपज देंगी, बल्कि कम समय में तैयार भी हो जाएंगी. कालानमक की इन प्रजातियों में कुपोषण को दूर करने वाले तमाम सूक्ष्म पोषक तत्त्व मौजूद हैं, जो कुपोषण को दूर करने में बेहद कारगर सिद्ध होंगे. इन प्रजातियों में निम्नलिखित खूबियां पाई गई हैं:

* इन में आयरन 29.09 फीसदी व जिंक 31.01 फीसदी पाया जाता है, जो पहले से मौजूद खुशबूदार प्रजातियों से ज्यादा है.

* कालानमक की इन प्रजातियों में कुपोषण से लड़ने की कूवत ज्यादा होती है.

* इन का चावल सफेद व खुशबूदार होता है.

* इन की पैदावार कालानमक की पुरानी किस्मों से डेढ़ गुना ज्यादा है. इन में 20 अक्तूबर के करीब बाली आती है और नवंबर के अंत तक फसल पक कर तैयार हो जाती है. इस तरह ये पुराने कालानमक की प्रजातियों से 2 हफ्ते तक का कम समय लेती हैं.

* इन के पौधों की ऊंचाई 100 से 110 सेंटीमीटर होती है और बालियां 20-25 सेंटीमीटर तक लंबी होती हैं.

* इन्हें किसी भी साधारण कुटाई मशीन से कुटाई कर के चावल निकाला जा सकता है.

* इस चावल का औसत बाजार भाव 55-60 रुपए प्रति किलोग्राम है और इस में कुपोषण से लड़ने की कूवत होती है.

जमीन का चयन : कालानमक की इन प्रजातियों की खेती उन सभी प्रकार की जमीनों में की जा सकती है, जहां सिंचाई के साधन मौजूद हों. वैसे इन प्रजातियों के लिए दोमट, मटियार व काली मिट्टी ज्यादा मुफीद मानी जाती है.

बीज दर व नर्सरी : कालानमक की इन उन्नत प्रजातियों की 1 हेक्टेयर खेत में रोपाई के लिए 25-30 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है. इन प्रजातियों की नर्सरी को अन्य प्रजातियों के मुकाबले देर से यानी जून के आखिरी हफ्ते से जुलाई के दूसरे हफ्ते तक डालना अच्छा रहता है. 1 हेक्टेयर रकबे के लिए 800 से 1000 वर्गमीटर में नर्सरी डालना सही होता है. नर्सरी की बोआई से पहले तैयार किए गए खेत में 100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस व 50 किलोग्राम पोटाश की मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से डाली जाती है. अगर नर्सरी में जिंक या लोहे की कमी दिखाई पड़े तो 0.5 फीसदी जिंक सल्फेट व 0.2 फीसदी फेरस सल्फेट के घोल का छिड़काव करना अच्छा होता है.

Kala Dhan

प्रजातियां : भारतीय चावल अनुसंधान संस्थान (फिलीपींस) द्वारा विकसित की गई कालानमक की बौनी व अधिक उत्पादन देने वाली प्रजातियों में कालानमक 101, कालानमक 102 व कालानमक 103 को सब से ज्यादा मुफीद माना गया है. इन प्रजातियों में सब से अच्छा नतीजा कालानमक 101 का रहा है. ये तीनों प्रजातियां खुशबू से भरपूर होती हैं.

बीज शोधन : कालानमक की इन प्रजातियों को रोगों व कीड़ों से बचाने के लिए बीजों को शोधित किया जाना जरूरी होता है. जिस खेत में जीवाणु झुलसा या जीवाणु धारी रोग की समस्या पाई जाती है, वहां 25 किलोग्राम बीजों के लिए 4 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन को पानी में मिला कर उस में बीजों को रात भर भिगो देना चाहिए. दूसरे दिन नर्सरी में डालने से पहले भिगोए गए बीजों को छाया में सुखा लेना चाहिए. अगर पौधों में झुलसा की समस्या नहीं आती हो तो 25 किलोग्राम बीजों को रात भर पानी में भिगोने के बाद दूसरे दिन पानी से छान लें. इस के बाद 75 ग्राम थीरम या 50 ग्राम कार्बेंडाजिम को 8-10 लीटर पानी में घोल कर बीजों में मिला दें. इस के बाद भिगोए गए बीजों को छाया में अंकुरित कर के नर्सरी में डालें.

नर्सरी में बीजों को डालने के 21-25 दिनों के बाद अच्छी तरह से पलेवा किए गए खेत में इस की रोपाई करनी चाहिए. कालानमक की ये प्रजातियां बौनी होने की वजह से गिरती नहीं हैं. पौधों की रोपाई 3-4 सेंटीमीटर से ज्यादा गहराई पर नहीं करनी चाहिए, वरना कल्ले कम निकलते हैं और उपज कम हो जाती है. पौधों से पौधों की दूरी 2×10 सेंटीमीटर व एक स्थान पर पौधों की संख्या 2-3 रखनी चाहिए.

खाद व उर्वरक : इन प्रजातियों के लिए 1 हेक्टेयर खेत में 100-120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस व 60 किलोग्राम पोटाश की जरूरत होती है. खेत की जुताई के दौरान ही प्रति हेक्टेयर की दर से 10-15 टन गोबर की सड़ी खाद का इस्तेमाल करना उत्पादन के लिए अच्छा होता है. इसी दौरान 20-25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना अच्छा होता है.

सिंचाई : कालानमक की इन प्रजातियों को सही मात्रा में नमी की जरूरत होती है. कम बारिश की हालत में नियमित अंतरात पर सिंचाई करते रहें, ताकि खेत की नमी न सूखने पाए. वैसे कालानमक की इन प्रजातियों में 30-60 सेंटीमीटर अस्थायी पानी भी पैदावार के लिए अच्छा माना जाता है. खेत में ज्यादा पानी न लगने पाए इसलिए जलनिकासी का इंतजाम अच्छा होना चाहिए. रोपाई के 1 हफ्ते बाद कल्ले फूटने, बाली निकलने, फूल खिलने और दाना बनते समय खेत में सही मात्रा में पानी होना चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण : धान की फसल के लिए खरपतवार नियंत्रण बेहद जरूरी होता है, क्योंकि फसल में खरपतवार उग आने से पैदावार घट जाती है. धान की फसल पर रसायनों का असर कम करने के लिए खरपतवार नियंत्रण के लिए बिना रसायनों का प्रयोग किए ही यांत्रिक विधि से खरपतवार नियंत्रण किया जाना ज्यादा सही माना जाता है. इस के लिए खुरपी या पैडीवीयर का इस्तेमाल किया जा सकता है.

अगर रासायनिक विधि से खरपतवार का नियंत्रण करना है, तो चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिए ब्यूटाक्लोर 5 फीसदी ग्रेन्यूल, 30-40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर या बेंथ्योकार्ब 10 फीसदी ग्रेन्यूल 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. इस के अलावा विस्पाइरीबैक सोडियम या एनीलोफास का इस्तेमाल भी खरपतवार नियंत्रण के लिए रोपाई के 3-4 दिनों के अंदर करना चाहिए. अगर दानेदार रसायनों का इस्तेमाल किया जा रहा है, तो यह ध्यान रखना चाहिए कि खेत में काफी मात्रा में पानी भरा हो.

बीमारियां व कीट नियंत्रण : अगर धान की नर्सरी डालते समय बीजशोधन किया गया है, तो फसल में बीमारियों के लगने की संभावना नहीं होती है. धान की फसल में जिन कीटों का प्रकोप पाया जाता है, उन में दीमक, पत्ती लपेटक कीट, गंधीबग, बाली काटने वाला कीट, गोभगिडार, हरा फुदका, भूरा फुदका, सफेद पीठ वाला फुदका, हिस्पा व नरई कीट खास हैं, लेकिन कालानमक की इन प्रजातियों में इन कीटों का प्रकोप बहुत कम देखा गया है.

अगर ऊपर बताए गए कीटों का प्रकोप दिखाई पड़ता है, तो अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र के कीट रोग नियंत्रण विशेषज्ञ से संपर्क कर के कीटों पर काबू पाया जा सकता है.

उत्पादन : कालानमक की इन प्रजातियों की फसल की कटाई 85-90 फीसदी दानों के पक जाने के बाद की जाती है. काटी गई फसल की मड़ाई के लिए छायादार व हवादार जगह का चुनाव करें. इस से कुटाई के दौरान चावल के टूटने की संभावना नहीं होती है. कालानमक की इन प्रजातियों की औसत उपज 50-55 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पाई गई है. ज्यादा जानकारी के लिए किसान कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया, बस्ती के विषय वस्तु विशेषज्ञ, राघवेंद्र सिंह के मोबाइल नंबर 9415670596 या 9838070596 पर संपर्क कर सकते हैं.

Lac Insect : ‘राष्ट्रीय लाख कीट दिवस’ का आयोजन

Lac Insect : राजस्थान कृषि महाविद्यालय, उदयपुर के कीट विज्ञान विभाग में लाख कीट आनुवंशिक संरक्षण पर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) द्वारा प्रायोजित नेटवर्क परियोजना के तहत चौथा ‘राष्ट्रीय लाख कीट दिवस’ मनाया गया. इस मौके पर लाख संसाधन उत्पादन पर ‘एकदिवसीय छात्र संवाद सहप्रशिक्षण कार्यशाला’ का आयोजन किया गया और इस में कृषि संकाय के स्नातक, स्नातकोत्तर और पीएचडी के 125 से अधिक छात्रों ने हिस्सा लिया.

इस मौके पर परियोजना अधिकारी डा. हेमंत स्वामी ने लाख कीट के जीवनचक्र एवं उन के पोषक वृक्ष लाख की खेती कैसे की जाए व किसान अपनी आय को कैसे बढ़ा सकते हैं, के बारे में जानकारी दी.

इस कार्यशाला में डा.एमके महला, प्रोफैसर, कीट विज्ञान ने सौंदर्य प्रसाधन, भोजन, फार्मास्यूटिकल्स, इत्र, वार्निश, पेंट, पौलिश, आभूषण और कपड़ा रंगाई जैसे उद्योगों में लाख और इस के उपउत्पादों यानी राल, मोम और डाई के उपयोग के बारे में बताया. साथ ही, उन्होंने विभिन्न मेजबान पौधों पर लाख कीट की वैज्ञानिक खेती के लिए उन्नत तकनीकों के बारे में भी जानकारी दी.

16 मई से 22 मई तक ‘उत्पादक कीट संरक्षण सप्ताह’ और ‘राष्ट्रीय लाख कीट दिवस’ के अवसर पर डा. अमित त्रिवेदी, क्षेत्रीय निदेशक अनुसंधान, डा. वीरेंद्र सिंह, प्रोफैसर, उद्यान विभाग और डा. रमेश बाबू, विभागाध्यक्ष, कीट विज्ञान विभाग ने इन उत्पादक कीड़ों के संरक्षण, परागणकों, भौतिक डीकंपोजर, जैव नियंत्रण एजेंटों आदि के रूप में प्राकृतिक जैव विविधता की सुरक्षा में उन की भूमिका पर प्रकाश डाला. साथ ही, यह भी बताया कि कैसे स्थानीय किसानों के बीच लाख की खेती को लोकप्रिय बनाना है और प्रोत्साहित करना है, क्योंकि जहां लाख की खेती छोड़ दी गई है, वहां निवास स्थान नष्ट हो गए हैं, वहां लाख के कीट और संबंधित जीवजंतु लुप्त हो गए हैं.

इस आयोजन के दौरान कीट पर निबंध प्रतियोगिता व प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता का आयोजन किया गया व विजेताओं को प्रमाणपत्र वितरित किए गए.

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान राष्ट्रीय विस्तार कार्यक्रम कार्यशाला

नई दिल्ली : भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) द्वारा खरीफ 2024 की ट्रांसफर औफ टैक्नोलौजी (ToT) गतिविधियों की समीक्षा कार्यशाला का सफल आयोजन 16, मई 2025 को वर्चुअल माध्यम से किया गया.

इस कार्यशाला की अध्यक्षता आईएआरआई के निदेशक डा. सीएच श्रीनिवास राव ने की. इस अवसर पर आईसीएआर संस्थानों, कृषि विश्वविद्यालयों, झांसी स्थित केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय और 16 स्वयंसेवी संगठनों सहित विभिन्न हितधारकों ने हिस्सा लिया.

यह पहल आईएआरआई का प्रमुख साझेदारी कार्यक्रम है, जिस का उद्देश्य प्रगतिशील कृषि अनुसंधान और जमीनी स्तर पर उस के कार्यान्वयन के बीच की खाई को पाटना है. उल्लेखनीय है कि इस साल 3 नए स्वयंसेवी संगठनों को कार्यक्रम में शामिल किया गया, जो विभिन्न जलवायु क्षेत्रों और सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. इस से कार्यक्रम की पहुंच और समावेशिता को और अधिक बल मिला है.

इस कार्यशाला को संबोधित करते हुए डा. सीएच श्रीनिवास राव ने कहा कि तकनीकी जानकारी के प्रसार के जरीए भारत के किसानों को मजबूत बनाया जा सकता है, जिस से कृषि का सतत विकास संभव है. उन्होंने जोर देते हुए कहा कि अनुसंधान संस्थानों, कृषि विश्वविद्यालयों और स्वयंसेवी संगठनों की यह अनोखी साझेदारी ही किसानों तक सही समय पर सही तकनीक पहुंचाने का मूलमंत्र है.

उन्होंने सभी सहभागियों की सक्रिय भागीदारी और योगदान की सराहना की और बताया कि कार्यशाला में 28 विस्तृत प्रस्तुतियां दी गईं, जिन में पूर्व सीजन की उपलब्धियां और आगामी सीजन की योजनाएं शामिल थीं. डा. सीएच श्रीनिवास राव ने सभी हितधारकों से इस गति को बनाए रखने और आईएआरआई की नवीनतम किस्मों एवं तकनीकों के प्रभावी हस्तांतरण को सुनिश्चित करने का आग्रह किया.

उन्होंने यह भी कहा कि स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार तकनीकों को ढालने के लिए मजबूत फीडबैक तंत्र और सहभागी दृष्टिकोण को अपनाना आवश्यक है. उन्होंने आगे कहा कि भारतीय कृषि का भविष्य साझेदारी आधारित नवाचार और खेतस्तर की सहभागिता में शामिल है. आईएआरआई इस आंदोलन का नेतृत्व वैज्ञानिक उत्कृष्टता और जमीनी भागीदारी के साथ करता रहेगा.

इस कार्यक्रम की शुरुआत में डा. एके सिंह, प्रभारी, कैटैट, आईएआरआई ने सभी प्रतिभागियों का स्वागत किया और डा. आरएन पडारिया, संयुक्त निदेशक (प्रसार), आईएआरआई ने कार्यक्रम की रूपरेखा एवं रणनीतिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया.

इस कार्यशाला के अंतर्गत एक विशेष संवाद सत्र भी आयोजित किया गया, जिस में प्रतिभागियों ने अपने अनुभव और सुझाव साझा किए. कार्यशाला का समापन तकनीकी हस्तांतरण में कार्यक्षमता, समावेशिता और नवाचार को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाएगी, के साथ हुआ, जिस से आईएआरआई की कृषि विकास और विस्तार क्षेत्र में लीडरशिप की भूमिका और मजबूत होगी.

Biological Technology : जैविक तकनीक को मिला वैश्विक पुरस्कार

Biological Technology : ब्राजील की अग्रणी कृषि वैज्ञानिक डा. मारियांगेला हुंग्रिया दा कुन्हा को साल 2025 का प्रतिष्ठित ‘विश्व खाद्य पुरस्कार’ दिए जाने की घोषणा वैश्विक जैविक कृषि जगत के लिए एक प्रेरणास्पद क्षण है. इस अवार्ड को “कृषि का नोबेल पुरस्कार” भी कहा जाता है.

जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण पर उन के काम ने ब्राजील को हर साल तकरीबन 25 अरब अमेरिकी डालर की रासायनिक उर्वरक लागत से छुटकारा दिलाया है.

इस अवसर पर जहां हम ब्राजील की इस वैज्ञानिक को हार्दिक बधाई देते हैं, वहीं यह तथ्य भी सामने लाना जरूरी है कि भारत में इस दिशा में व्यावहारिक और पूरी तरह से सफल मौडल पिछले 3 दशकों से विकसित किया जा चुका है.

मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म एवं रिसर्च सैंटर, कोंडागांव, छत्तीसगढ़ में हम ने सालों की मेहनत और शोध से एक ऐसी तकनीक को मूर्त रूप दिया है, जिस में बहुवर्षीय पेड़ विशेष रूप से आस्ट्रेलियाई मूल के “अकेशिया” प्रजाति के पौधों को विशेष पद्धति से विकसित कर के उस की जड़ों में वायुमंडलीय नाइट्रोजन को प्राकृतिक रूप से स्थिर कर मिट्टी में लगाया जाता है. इस की पत्तियों से बनने वाला ग्रीन कंपोस्ट अतिरिक्त लाभ प्रदान करता है, जिस से कि स्पीडो के साथ लगाए जाने वाली तकरीबन सभी प्रकार की अंतर्वत्ति फसलों को कुछ समय बाद पचासों साल तक किसी भी प्रकार की रासायनिक अथवा प्राकृतिक खाद अलग से देने की जरूरत ही नहीं पड़ती.

“नेचुरल ग्रीनहाउस मौडल” के नाम से चर्चित यह तकनीक आज देश के 16 से अधिक राज्यों के प्रगतिशील किसान अपने खेतों में अपना चुके हैं. इस से न केवल रासायनिक नाइट्रोजन खाद पर निर्भरता खत्म हो रही है, बल्कि भारत सरकार द्वारा हर साल दी जाने वाली 45 से 50 हजार करोड़ की नाइट्रोजन उर्वरक सब्सिडी पर भी बड़ी बचत संभव हो रही है. भारत जैसे देश, जो रासायनिक उर्वरकों के लिए कच्चा माल आयात करता है, के लिए यह विदेशी मुद्रा की सीधी बचत करता है.

हमारा मानना है कि जिस तकनीक पर अब वैश्विक स्तर पर पुरस्कार मिल रहा है, उस पर भारत पहले ही काम कर चुका है और एक प्रमाणित, व्यावहारिक मौडल अपने देश में ही उपलब्ध है. भारत सरकार यदि समय रहते इस तकनीक को समर्थन देती, तो आज यह पुरस्कार भारत को भी मिल सकता था.

हमें यह पुरस्कार न मिलने का कोई अफसोस नहीं है, किंतु अब जबकि इस तकनीक को वैश्विक मान्यता मिल चुकी है, भारत सरकार और नीति बनाने वालों से हमारी अपेक्षा है कि वे इस देशज तकनीक को प्राथमिकता दें, इस का प्रसार करें और किसानों को रासायनिक उर्वरकों के जाल से नजात दिलाएं. यह न केवल किसानों की आत्मनिर्भरता, बल्कि राष्ट्र की आर्थिक सुरक्षा और पर्यावरणीय संरक्षण के लिए भी जरूरी है.

Brinjal : बैगन की खेती

Brinjal : मजाक में अकसर लोग बैगन को बेगुन कह देते हैं, मगर हकीकत में ऐसा नहीं है. तमाम तरकारियों की तरह बैगन की भी अपनी खूबियां हैं.

यह स्वादिष्ठ सब्जी सेहत के लिहाज से भी खासी कारगर होती है. महिलाएं अपनी रसोई में बैगन को पूरीपूरी अहमियत देती हैं.

वे इस की सूखी व रसेदार तरकारी बनाने के साथसाथ इस का भरता भी बनाती हैं. भरवां बैगन व बैगनी यानी बैगन के पकौड़ों की भी भारतीय घरों में खूब मांग रहती है. कुल मिला कर हर उम्र के लोग हमेशा बैगन के पकवानों को चाव से खाते हैं, इसी वजह से बाजार में हमेशा बैगन की मांग बनी रहती है.

सब्जी के व्यापारी बैगन की बिक्री से खूब कमाई करते हैं, लिहाजा बैगन की खेती करना हमेशा फायदे का सौदा रहता है. इस लेख में संकर बैगन उगाने के बारे में जानकारी दी जा रही है.

आबोहवा:  संकर बैगन की खेती करने के लिए औसत तापमान 22 से 30 डिगरी सेंटीग्रेड के बीच होना मुनासिब होता है. इस तापमान में बैगन की फसल की बढ़वार सही तरीके से होती है और फल भी भरपूर तादाद में हासिल होते हैं.

बैगन की फसल ज्यादा गरम और सूखा मौसम नहीं सह पाती है. ज्यादा गरम आबोहवा में फलों की तादाद घट जाती है. जमीन बैगन की खेती के लिहाज से दोमट मिट्टी ज्यादा मुनासिब होती है.

अलबत्ता मिट्टी पानी की सही निकासी वाली होनी चाहिए. जमीन का पीएच मान 5.5 से 6.0 होना चाहिए. मिट्टी सही किस्म की होने से पैदावार पर बहुत ज्यादा माकूल असर पड़ता है. बीज की मात्रा बैगन की खेती के लिए 125 से 150 ग्राम बीजों की प्रति हेक्टेयर के हिसाब से दरकार रहती है.

बहुत ज्यादा या कम मात्रा में बीजों का इस्तेमाल करना ठीक नहीं रहता है. पौधे उगाना बैगन के पौधे उगाने के लिए 3 मीटर लंबी, 1 मीटर चौड़ी और 0.15 मीटर ऊंची क्यारियां बनानी चाहिए. इस साइज की 20-25 क्यारियों में इतने पौध तैयार हो जाते हैं, जो 1 हेक्टेयर खेत के लिहाज से काफी होते हैं. हर क्यारी में 25 किलोग्राम अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद मिलाएं.

इस के अलावा 200 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट व 10 ग्राम फुराडान डाल कर मिट्टी में अच्छी तरह मिलाएं. तैयार क्यारी में बीजों को 5 सेंटीमीटर गहराई में बोएं. बोआई के बाद बीजों को आधी मिट्टी और आधी सड़ी गोबर की खाद के मिश्रण से ढक दें.

इस के बाद क्यारी को घास से ढकें. जब अंकुरण होने लगे तो घास हटा दें.

शुरुआत में फुहारे से पानी दें और कुछ दिनों बाद सामान्य तरीके से सिंचाई करें.

बोआई के 2 दिनों बाद से हर 5 दिनों के अंतराल पर 3 मिलीलीटर एकोमिन या 2 ग्राम केपटाफ 50 डब्ल्यू पाउडर का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर क्यारियों को भिगोएं. बोआई के 15 दिनों बाद और पौधे उखाड़ने से 3-4 दिनों पहले 1 मिलीलीटर थायोडान का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें.

खाद व उर्वरक खेत तैयार करते वक्त 25-30 टन अच्छी तरह से सड़ीगली गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में मिलाएं. इस के अलावा 7.50 क्विंटल नीम की खली भी प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलाएं. इन के अलावा 200 किलोग्राम नाइट्रोजन, 100 किलोग्राम फास्फोरस और 100 किलोग्राम पोटाश का भी प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए. खेत की तैयारी के वक्त नाइट्रोजन की आधी मात्रा और पोटाश व फास्फोरस की पूरी मात्रा जमीन में मिलाएं. नाइट्रोजन की बची मात्रा का आधा भाग रोपाई के 25 दिनों बाद और बाकी भाग रोपाई के 50 दिनों बाद खेत में इस्तेमाल करें.

रोपाई बोआई के 4 से 6 हफ्तों के दौरान पौधे रोपाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जब रोपाई के लिए पौधे उखाड़ने हों, उस से 2-3 घंटे पहले क्यारियों में भरपूर पानी डालें ताकि वे आसानी से निकल सकें. पौधों को 90 सेंटीमीटर की दूरी पर बनी मेंड़ों के बाजू में 60 सेंटीमीटर के फासले पर लगाएं. रोपाई के बाद फौरन हलकी सिंचाई करें.

खयाल रखें कि पौधों की रोपाई का काम शाम के वक्त करना बेहतर रहता है.

खास बीमारियां व बचाव

फाइटोपथोरा फलसड़न रोग : इस से बचाव के लिए रिडोमिल एमजेड या इंडोफिल एम 45 की 2.5 ग्राम मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें. जरूरत के मुताबिक 10 दिनों बाद दोबारा छिड़काव करें.

फायोप्सिस सड़न और ब्लाइट : इस से बचाव के लिए इंडोफिल एम 45 की 2.5 ग्राम मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर 7-8 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.

डैंपिंग आफ (पौधविगलन) : इस से बचाव के लिए सेरेसान दवा की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें. पौधों को 3 फीसदी फाइटोलान या डाइथेन एम 45 द्वारा अच्छी तरह भिगोएं. नर्सरी में ज्यादा पासपास पौधे न रखें और बहुत ज्यादा सिंचाई भी न करें.

लिटिल लीफ रोग : इस रोग की चपेट में आने वाले पौधों को उखाड़ कर जला दें. इस के अलावा रोगोर 0.03 फीसदी का 10 से 15 दिनों के अंतराल पर फल आने तक छिड़काव करें. रोपाई के वक्त पौधों की जड़ों को टैट्रासाइक्लिन 1000 पीपीएम में भिगोने के बाद रोपाई करें.

खास कीट व बचाव

तनाछेदक व फलछेदक : कीड़े लगे भागों को सूंडि़यों सहित पौधों से अलग कर के जला दें. फसल की छोटी अवस्था में दानेदार सिस्टेमिक कीटनाशक का इस्तेमाल करें. इंडोसल्फान या मेटासिस्टाक्स की 2 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर 10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.

हरा मच्छर (जैसिड) : 10 ग्राम थायमेट का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें. मेटासिस्टाक्स या मोनोक्रोटोफास की 2 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर 10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.

माहू (एफिड) : इस से बचाव के लिए इंडोसल्फान या मोनोक्रोटोफास के 0.05 फीसदी घोल का छिड़काव करें. लाल मकड़ी : लाल मकड़ी से बचाव के लिए मैलाथियान के 0.02 फीसदी घोल का छिड़काव करें. इस के अलावा फसल पर सल्फर धूल का बुरकाव करें या बैटेवल सल्फर के 0.05 फीसदी घोल का छिड़काव करें.

इस प्रकार कीड़ों व रोगों से बैगन की फसल की हिफाजत करते हुए भरपूर पैदावार हासिल की जा सकती है. उम्दा नस्ल के बैगनों की मांग हमेशा बनी रहती है, लिहाजा इस की खेती करना बेहद फायदे का सौदा होता है.

कीटों व रोगों की रोकथाम के लिए दवाओं का इस्तेमाल करते वक्त दवाओं में चिपटाक या सेंडोविट जैसे चिपकने वाले पदार्थ जरूर मिलाएं. दवाओं का छिड़काव करते वक्त इस बात का खयाल रखें कि पूरा पौधा दवा से भीग जाना चाहिए.

Arvi Crop : अरवी की फसल का कीड़ों व रोगों से बचाव

Arvi crop :  अरवी (कोलोकेसिया) यानी घुइयां एक कंदीय पौधा है. इस की खेती खासकर कंदों के लिए की जाती है.

अरवी की पैदावार काफी अच्छी यानी 30-40 टन प्रति हेक्टेयर तक होती है. अरवी के मूल स्थान के बारे में लोगों की राय अलगअलग है.

भारत में इस की खेती कब और कहां शुरू हुई, इस का किसी को पक्का पता नहीं है. उत्तरी भारत में इसे खासतौर से उगाते हैं. अन्य प्रदेशों में भी इस का उत्पादन बढ़ रहा है.

इस में कार्बोहाइड्रेट की उच्च मात्रा के अलावा अन्य कंदों वाली सब्जियोें के मुकाबले ज्यादा मात्रा में प्रोटीन, खनिज लवण, फास्फोरस व लोहा पाया जाता है.

अरवी पर लगने वाले कीट व रोग इस की पैदावार को प्रभावित करते हैं. अन्य सब्जियों की तरह अरवी की फसल पर भी कीटों का हमला होता है, जिन में तंबाकू का इल्ली कीट और लाही खास हैं.

अरवी के खास हानिकारक कीड़े

तंबाकू की सूंड़ी : इस के पतंगे भूरे रंग के 15-18 मिलीमीटर लंबे होते हैं. इन का अगला पंख कत्थई रंग का होता है, जिस पर सफेद लहरदार धारियां होती हैं, जबकि पिछले पंख सफेद रंग के होते हैं. पूरी तरह विकसित पिल्लू 35-40 मिलीमीटर लंबा पीलापन लिए हुए हरा भूरा होता है. इस के निचले हिस्से में दोनों ओर पीली धारी होती है.

मादा कीड़ा पत्तियों की निचली सतह पर 200 से 300 अंडे झुंड में देती है, जो भूरे रंग के बालों से ढके रहते हैं. 3 से 5 दिनों में अंडों से पिल्लू निकल कर झुंड में पत्तियों को खाते हैं. 20 से 30 दिनों में पिल्लू पूरी तरह बड़े हो कर मिट्टी के अंदर प्यूपा में बदल जाते हैं. प्यूपा काल गरमी व जाड़ों में क्रमश: 7-9 और 25-30 दिनों का होता है. इस के बाद प्यूपा से बड़े कीट बन जाते हैं. अंडे से बड़े होने में इस कीट को 30 से 56 दिनों का समय लगता है. 1 साल में इस की 8 पीढि़यां होती हैं.

अरवी के पौधों पर इस कीट का हमला जून से सितंबर तक होता है.

इस कीड़े के पिल्लू ही पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. शुरू में अंडों से निकले पिल्लू अरवी की कोमल पत्तियों की निचली सतह पर झुंड में हमला कर के हरे भाग को खाते हैं. बाद में जवान पिल्लू अलगअलग पौधों पर हमला कर के पत्तियों को खा कर नुकसान पहुंचाते हैं. बहुत ज्यादा प्रकोप होने पर ये पूरे पौधों की पत्तियों को खा जाते हैं, जिस से पौधे ठूंठ हो जाते हैं और कंद पर रोग लग जाता है. इस कीट का हमला रात के समय ज्यादा होता है.

रोकथाम

* फसल की कटाई के बाद खेत की अच्छी जुताई कर देनी चाहिए.

* अंडों के गुच्छों व पिल्लुओं को पत्तियों समेत तोड़ कर नष्ट कर दें.

* रोशनी द्वारा जवान कीड़ों को जमा कर के नष्ट कर दें.

* ज्यादा हमला होने पर इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल या डायमिथोएट (30 ईसी) दवा का 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से पौधों पर 15 दिनों के अंतर पर 2 बार छिड़काव करना फायदेमंद होता है.

* मिश्रीकंद के बीज के घोल का 5 फीसदी की दर से छिड़काव करने पर इस कीड़े से बचा जा सकता है.

अरवी के लाही कीट : लाही कीट 2 से 3 मिलीमीटर लंबा हरेपीले रंग का होता है. जवान कीड़े पंखदार व बिना पंख दोनों प्रकार के होते हैं. लेकिन इस कीट के बच्चे बिना पंख के होते हैं.

मादा कीट अपने जीवन काल में 32 से 50 अंडे पैदा करती है. 7 से 8 दिनों में 3 से 4 निर्मोचन के बाद ये पूरी तरह जवान हो जाते हैं. इन का जीवनकाल 23 से 28 दिनों में पूरा हो जाता है.

इस कीट के जवान व बच्चे दोनों ही पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. ये झुंड में अरवी की पत्तियों की निचली सतह और नई निकलती पत्तियों के बीच में रह कर लगातार रस चूसते हैं. इसलिए पत्तियां पीली पड़ कर सूख जाती हैं, जिस से पौधे बड़े नहीं हो पाते व कमजोर हो जाते हैं.

कंद अच्छी तरह बढ़ नहीं पाते जिस से पैदावार में भारी कमी आ जाती है.

रोकथाम

* माहू का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे ट्रैप का इस्तेमाल करें ताकि माहू ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं.

* परभक्षी काक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर 50,000 से 10,0000 अंडे या सूंड़ी प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.

* नीम का अर्क 5 फीसदी या 1.25 लीटर नीम का तेल 100 लीटर पानी में मिला कर छिड़कें.

* बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

* यदि पौधे पर लाही कीट लगा हो तो किसी एक तरल कीटनाशी दवा जैसे डाइमिथोएट (30 ईसी) का 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से या मिश्रीकंद बीज के घोल के 5 फीसदी का छिड़काव 15 दिनों के अंतर पर 2 बार करें.

अरवी के खास रोग

अरवी का झुलसा रोग : इस रोग का प्रकोप फाइटोफ्थोरा कोलोकेसियाई नाम के कवक से होता है. यदि रात का तापमान 20-22 डिगरी सेंटीग्रेड व दिन का तापमान 25-27 डिगरी सेंटीग्रेड के बीच हो, नमी दिन में 65 फीसदी और रात में 100 फीसदी हो व आकाश में बादल छाए हों और बीचबीच में बारिश होती रहे तो इस रोग का फैलाव और भी तेजी से होता है.

पूरी फसल 5-7 दिनों के अंदर इस रोग से झुलस जाती है. यदि तापमान 20 डिगरी सेंटीग्रेड से कम या 28 डिगरी सेंटीग्रेड से ज्यादा हो तो यह रोग ज्यादा नहीं बढ़ पाता है.

यह अरवी का एक भंयकर रोग है, जो पत्तियों पर छोटेछोटे हलके भूरे रंग के धब्बों के रूप में शुरू होता है. जल्दी ही ये छोटेछोटे धब्बे आकार में बड़े और भूरे रंग के हो जाते हैं व अगलबगल के पौधों को भी प्रभावित कर देते हैं. यदि समय पर रोकथाम नहीं की जाए तो 1 हफ्ते के अंदर पूरी की पूरी फसल झुलस कर बरबाद हो जाती है.

खोज से यह साबित हो गया है कि रोग की तेजी व पैदावार में होने वाली कमी का आपस में सीधा संबंध है.

बिहार में इस रोग का प्रकोप अगस्त व सितंबर महीनों में होता है. रोकथाम भारत में अरवी की कई रोग न लगने वाली किस्में मौजूद हैं, जिन में जाखड़ी, टोपी व मुक्ताकेशी कुछ खास किस्में हैं.

रोग न लगने वाली किस्मों में रोग लगने वाली किस्मों की तुलना में रोग की शुरुआत देर से होती है और उस का फैलाव भी धीमा होता है. लिहाजा जहां यह बीमारी हर साल होती है, वहां मुक्ताकेशी वगैरह रोग न लगने वाली किस्मों का लगाना ठीक रहता है.

कंदों की रोपाई के समय में इस तरह बदलाव करें, जिस से कंद को रोग न लगे. इस तरह इस से होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है. लिहाजा जिस इलाके में इस बीमारी का असर ज्यादा या हमेशा होता है, वहां अरवी की रोपाई फरवरी से मार्च के बीच करें ताकि फसल पूरी तरह से बढ़ सके व उपज पर इस का कोई बुरा असर न पड़े.

रोपाई के बाद कंदों को शीशम की पत्तियों या काले पौलीथिन या सूखी घासफूस से ढक देने पर इस रोग का असर कम होता है व खेतों में नमी बनी रहती है. इस से खरपतवारों की संख्या में भी कमी होती है.

ताम्रयुक्त कवकनाशी दवा डाइथेन एम 45 (0.2 फीसदी) के 4-5 छिड़काव 1 हफ्ते के अंतर पर करने से रोग की काफी हद तक रोकथाम हो जाती है. मटलैक्सिल (0.05 फीसदी) का छिड़काव करने पर पैदावार 50 फीसदी तक बढ़ सकती है.

Snacks : आगरा के भल्ले (Bhalle) कुरकुरे व टैस्टी

Snacks : आलू की टिक्की को उत्तर भारत में सब से ज्यादा पसंद किया जाता है. इसे कई अलगअलग नाम और तरह से चाट के तौर पर तैयार भी किया जाता है. दिल्ली और आगरा में इसे ‘आलू भल्ला’ (Bhalle) के नाम से जाना जाता है. आगरा, दिल्ली के हर बाजार, चाट की दुकानों में देशी घी से तैयार भल्ले खाने को मिलते हैं. आगरा के आलू भल्ले को दूसरे शहरों में आलू की टिक्की कहते हैं.

उत्तर प्रदेश में आगरा पर्यटकों के लिए सब से ज्यादा घूमने वाला शहर समझा जाता है. यहां आने वाला हर पर्यटक शाम को भल्ले जरूर खाना पसंद करता है. भल्ले भले ही आलू की टिक्की के रूप में दूसरे शहरों में मिलते हों, पर ‘आगरा के भल्ले’ अलग ही स्वाद देते हैं. कुछ चाट दुकानदार भल्ले के साथ काबुली चने और चटनी का इस्तेमाल भी करते हैं.

आगरा में शाम के समय हर सड़क पर ऐसी चाट की दुकानें मिल जाती हैं. सदर बाजार, आगरा में चाट की दुकानों पर भल्ले खाने वालों की लाइन लगी होती है. इस के अलावा फतेहाबाद रोड और ताजमहल के आसपास सड़कों पर स्ट्रीट फूड के रूप में भल्ले सभी जगह मिलते हैं. बड़े होटल और रैस्टोरैंट में भी भल्ले खाने को मिलते हैं. चटपटी चाट के रूप में भल्ले की दुकान लगाना रोजगार का बड़ा साधन हो गया है. यहां दुकान चलाने वाले लोग बताते हैं कि वैसे तो भल्ले आलू टिक्की की ही तरह होते हैं, पर आगरा में इन का स्वाद और भी ज्यादा टेस्टी हो जाता है. इस की वजह पश्चिम उत्तर प्रदेश में पैदा होने वाले आलू को माना जाता है. इस का स्वाद बाकी देश से अलग होता है.

आगरा की रहने वाली अर्चना श्रीवास्तव कहती हैं, ‘‘आगरा घूमने वाले पर्यटक ताजमहल देखने के साथ यहां के भल्ले जरूर खाना पसंद करते हैं. इस का स्वाद खाने वालों को बहुत भाता है. यही वजह है कि भल्ले की दुकानें आप को हर जगह मिल जाती हैं. आलू किसानों को भी आज एक नई पहचान मिल रही है. पश्चिम उत्तर प्रदेश का यह इलाका आलू की खेती के साथ देशी घी के लिए काफी जाना जाता है. देशी घी में तले हुए भल्ले का स्वाद बहुत अच्छा लगता है.’’

आवश्यक सामग्री: आलू 300 ग्राम उबले छिले हुए, हरी मटर के दाने 1 कप दरदरे पिसे हुए, तेल टिक्की सेंकने के लिए, गरम मसाला छोटी चम्मच, नमक स्वादानुसार, अमचूर पाउडर छोटी चम्मच, लाल मिर्च पाउडर छोटी चम्मच, धनिया पाउडर आधा छोटी चम्मच, अरारोट 2 चम्मच, दही, हरी चटनी, मीठी चटनी, चाट मसाला.

बनाने की विधि: आलू को कद्दूकस कर लें. इस में 2 छोटी चम्मच अरारोट डाल कर अच्छी तरह से मिलाते हुए एकदम गुंथे आटे जैसा तैयार कर लें. आलू के साथ मिक्स करने के लिए मटर में गरम मसाला, स्वादानुसार नमक, अमचूर, लाल मिर्च पाउडर और धनिया पाउडर डाल कर सारी चीजों को अच्छी तरह से मिला लीजिए. जितना बड़े भल्ले बनाना है, उतना बड़े गुंथे आलू से निकाल कर गोले बना लीजिए. इसी पिसी मटर को भी तैयार कर लीजिए. एक गोला उठाइए और इस के बीच में जगह बना कर एक भाग मटर इस में भर दीजिए. चारों तरफ से आलू ले कर मटर को बंद कर दीजिए.

तवा गरम कर के उस पर एक टेबल स्पून तेल डाल कर चारों ओर फैला दीजिए. एकएक कर के तवे पर जितनी टिक्की आ जाए, सिंकने के लिए लगा कर रख दीजिए. धीमी आग पर आलू टिक्की सेंकिए. टिक्कियों को उलटपलट कर दोनों ओर से ब्राउन होने तक सेंकें. टिक्कियां सिंकने के बाद और कुरकुरा करने के लिए इन्हें तवे के किनारे लगा कर रख दीजिए. बाकी टिक्कियां भी इसी तरह सेंक लें. लीजिए, आलू भल्ले तैयार हैं.

आलू भल्ले को खाने के लिए देने से पहले टिक्की को तवे पर बीच में ला कर दबा कर और कुरकुरा कर लीजिए. एक या 2 टिक्की प्लेट में निकाल कर रखिए. टिक्की के ऊपर दही, हरी चटनी, मीठी चटनी डालिए और ऊपर से चाट मसाला भी डालिए. गरमागरम आलू भल्ला परोसिए. कई जगहों पर इसे हरेभरे पत्तों से बने दोने में दिया जाता है, तो कई जगह पर मिट्टी के कुल्हड़ में भल्ले खाने को दिए जाते हैं. प्रयोग के तौर पर इस में ऊपर से महीन सेव भी डाल दी जाती है.