विदेशी बागबानी पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी

बेंगलुरु: भाकृअनुप-भारतीय बागबानी अनुसंधान संस्थान (आईआईएचआर), बेंगलुरु में ‘‘विदेशी और कम उपयोग की गई बागबानी फसलें: प्राथमिकताएं एवं उभरते रुझान‘‘ पर 17 अक्तूबर से 19 अक्तूबर, 2023 तक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया.

कर्नाटक के राज्यपाल थावरचंद गहलोत ने प्रोफैसर डा. संजय कुमार सिंह, निदेशक, भाकृअनुप-आईआईएचआर, बेंगलुरु, डा. एनके कृष्ण कुमार, पूर्व उपमहानिदेशक (बागबानी विज्ञान), भाकृअनुप, डा. जेसी राणा, देश के प्रतिनिधि, एलायंस औफ बायोवर्सिटी इंटरनैशनल और डा. वीबी पटेल, सहायक महानिदेशक (फल एवं रोपण फसलें), भाकृअनुप की उपस्थिति में सम्मेलन का उद्घाटन किया.

कर्नाटक के राज्यपालज थावरचंद गहलोत ने विदेशी और कम उपयोग वाली फसलों के टिकाऊ उत्पादन के लिए नवीनतम प्रौद्योगिकियों के बारे में किसानों और अन्य हितधारकों के बीच जागरूकता पैदा करने के लिए भाकृअनुप-आईआईएचआर, बेंगलुरु की सराहना की.

उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि बागबानी फसलों का उत्पादन साल 1950- 51 में 25 मिलियन टन से 14 गुना बढ़ कर तकरीबन 350 मिलियन टन हो गया है और खाद्यान्न उत्पादन से भी आगे निकल गया है.

राज्यपाल थावरचंद गहलोत ने कहा कि आने वाले दिनों में देश कृषि, बागबानी, दुग्ध उत्पादन सहित सभी क्षेत्रों में चमकेगा और विश्व गुरु बनेगा.

इस अवसर पर पांच प्रकाशन जारी किए गए और राज्यपाल थावरचंद गहलोत ने लाइसेंसधारक अर्का कमलम आरटीएस बेवरेज के प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) प्रस्तुत किया.

सैमिनार में शामिल प्रमुख सिफारिशें हैं:

मुख्यधारा के अनुसंधान एवं विकास संस्थानों में कम उपयोग वाली फसलों पर अनुसंधान कार्यक्रमों को समायोजित करने के लिए टास्क फोर्स समितियों का गठन किया जा सकता है. एफएओ के सतत विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिए पोषण सुरक्षा और पर्यावरणीय स्थिरता के लिए जैव पूर्वेक्षण और कम उपयोग वाली फसलों के मूल्यवर्धन के क्षेत्रों में अनुसंधान एवं विकास को मजबूत किया जा सकता है. इंटरनैशनल सैंटर फौर अंडर यूटिलाइज्ड क्रौप्स, यूके के अनुरूप महत्वपूर्ण अपितु कम उपयोग वाली बागबानी फसलों के लिए भाकृअनुप-आईआईएचआर में एक उत्कृष्टता केंद्र (सीओई) स्थापित किया जा सकता है.

फसल संग्रहालयों की स्थापना के माध्यम से कम उपयोग वाली फल फसलों के संरक्षण को मुख्यधारा में लाने के लिए राष्ट्रीय और साथ ही वैश्विक नैटवर्क की स्थापना और जैव विविधता को आजीविका के अवसरों से जोड़ने के लिए कम उपयोग वाली फल फसलों के संरक्षक किसानों की पहचान एवं उन्हें मान्यता देना. पीपीवी और एफआरए संबद्ध आईटीके के साथ कम उपयोग वाली बागबानी फसलों का पंजीकरण शुरू करना शामिल था.

निर्यात के लिए गुंजाइश प्रदान करने वाले सीएसआईआर संस्थानों के सहयोग से फार्मास्युटिकल और औद्योगिक उद्देश्यों के लिए कम उपयोग की गई सब्जियों का उपयोग कर के पोषक तत्वों से भरपूर भोजन व उत्पादों के विकास के माध्यम से छिपी हुई भूख को हल करने के लिए कम उपयोग की गई सब्जियों सहित खाद्य स्रोतों के विविधीकरण पर जोर दिया जाना चाहिए.

नई संभावित देशी और कम उपयोग वाली सजावटी, औषधीय, सुगंधित और मसाला फसलों की पहचान करने और उन के उत्पादन, संरक्षण व कटाई के बाद प्रबंधन प्रथाओं को विकसित करने और सौंदर्य प्रसाधन, न्यूट्रास्यूटिकल्स एवं फार्माकोलौजी के लिए उन के मूल्य की आवश्यकता पर जोर दिया गया.

एफपीओ को प्रोत्साहित कर के पहचानी गई विदेशी और कम उपयोग वाली बागबानी फसलों के लिए समर्पित समूहों का विकास और घाटे को कम करने एवं रिटर्न को अधिकतम करने के लिए मूल्यवर्धन के लिए पायलट पौधों के साथ प्रभावी डेटाबेस व एकीकृत बाजार विकसित करना.

डा. टी. जानकीराम, कुलपति, डा. वाईएसआर बागबानी विश्वविद्यालय, आंध्र प्रदेश समापन सत्र के मुख्य अतिथि थे. इस के अलावा डा. बीएनएस मूर्ति, पूर्व बागबानी आयुक्त, भारत सरकार, सम्मानित अतिथि थे.

सेमिनार में अमेरिका, आस्ट्रेलिया, यूके, इजराइल, मलयेशिया, मैक्सिको, कोरिया और जांबिया जैसे देशों के प्रतिनिधियों सहित कुल 400 प्रतिनिधियों ने भाग लिया. प्रतिभागियों में 71 विश्वविद्यालयों का प्रतिनिधित्व करने वाले 24 राज्यों के लगभग 220 वैज्ञानिक, 160 छात्र और 40 आरए और एसआरएफ शामिल थे. सैमिनार में 150 किसानों और उद्यमियों ने भी हिस्सा लिया.

सेहत के लिए सहजन

सब्जी की दुकान पर आप ने लंबी हरी सहजन की फलियां तो देखी होंगी, सुरजने की फली या कुछ इलाकों में मुनगे की फली भी कहा जाता है. सहजन की यह फली केवल बढि़या स्वाद ही नहीं, बल्कि सेहत और सौंदर्य के बेहतरीन गुणों से भी भरपूर है.

सहजन में एंटीबैक्टीरियल गुण पाया जाता है, इसलिए त्वचा पर होने वाली कोई समस्या या त्वचा रोग में यह बेहद लाभदायक है. सहजन का सूप खून की सफाई करने में मददगार है. खून साफ होने की वजह से चेहरे पर भी निखार आता है. इस की कोमल पत्तियों और फूलों को सब्जी के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है, जो आप को त्वचा की समस्याओं से दूर रख जवां बनाए रहने में मददगार है.

महिलाओं के लिए तो सहजन का सेवन बहुत फायदेमंद होता है. यह पीरियड्स संबंधी परेशानियों के अलावा गर्भाशय की समस्याओं से भी बचाए रखता है.

इस में जरा भी शक नहीं है कि सहजन आप की सैक्स पावर को बढ़ाने में मदद करता है. इस मामले में यह महिलाओं और पुरुषों दोनों के लिए फायदेमंद है. गर्भावस्था के दौरान इस का सेवन मां और बच्चा दोनों के लिए फायदेमंद होता है. गर्भावस्था में इस का सेवन करते रहने से शिशु के जन्म के समय आने वाली समस्याओं से भी बचा जा सकता है.

बचपन में नानीदादी सहजन की सब्जी, सूप वगैरह कितने चाव से बनातीखिलाती थीं. हम सहजन के टुकड़ों को दाल में, सांभर में, सब्जी या गोश्त के साथ कैसे मजे ले कर चूसचूस कर खाते थे.

दक्षिण भारतीय लोग तो अपने खाने में ज्यादातर सहजन का इस्तेमाल करते हैं, चाहे सांभर हो, रस्म हो या मिक्स वेज. दरअसल, हमारे बुजुर्ग जानते हैं कि सहजन में कई तरह के रोगों को दूर करने की कूवत है. सर्दीखांसी, गले की खराश और छाती में बलगम जम जाने पर सहजन खाना बहुत फायदेमंद होता है.

सर्दी लग जाने पर तो मां सहजन का सूप पिलाती थीं. सहजन में विटामिन सी, बीटा कैरोटीन, प्रोटीन और कई प्रकार के लवण पाए जाते हैं. ये सभी तत्त्व शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं और शरीर के पूरे विकास के लिए बहुत जरूरी है.

सहजन में विटामिन सी का लैवल काफी उच्च होता है जो आप की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा कर कई बीमारियों से आप की हिफाजत करता है. बहुत ज्यादा सर्दी होने पर सहजन फायदेमंद है. इसे पानी में उबाल कर उस पानी की भांप लेना बंद नाक को खोलता है और सीने की जकड़न को कम करने में मदद करता है, वहीं अस्थमा की शिकायत होने पर सहजन का सूप पीना फायदेमंद होता है. सहजन का सूप पाचन तंत्र को मजबूत बनाने का काम करता है और इस में मौजूद फाइबर्स कब्ज की समस्या को होने नहीं देते हैं. कब्ज ही बवासीर की जड़ है.

सहजन का सेवन करते रहने से बवासीर और कब्जियत की समस्या नहीं होती है, वहीं पेट की दूसरी बीमारियों के लिए भी यह फायदेमंद है. डायबिटीज नियंत्रित करने के लिए भी सहजन का सेवन करने की सलाह दी जाती है. तो अगर बीमारियों को दूर रखना है तो सहजन से दूरी न बनाएं.

कैसे बनाएं सूप

जरूरी चीजें : 2 कप सहजन के पत्ते, 6 सफेद प्याज टुकड़ों में कटी हुई, 6 लहसुन की कलियां, 2 टमाटर टुकड़ों में कटे हुए, 1 छोटा चम्मच साबुत जीरा, 1 छोटा चम्मच साबुत काली मिर्च, 1 छोटा चम्मच धनिया पाउडर, एकचौथाई छोटा चम्मच हलदी, नमक स्वादानुसार.

बनाने की विधि : सब से पहले सहजन की पत्तियों को धो कर साफ कर लें और इस के मोटे डंठल को तोड़ कर निकाल दें.

धीमी आंच पर एक प्रैशर कुकर में सहजन की पत्तियों, नमक, प्याज, लहसुन, टमाटर, जीरा, साबुत काली मिर्च, हलदी, धनिया पाउडर और पानी डाल कर इसे 4 सीटी लगा कर पकाएं और चूल्हा बंद कर दें.

कुकर का प्रैशर खत्म हो जाने के बाद ढक्कन खोलें. एक बड़े बरतन में उबली हुई सब्जियों को एक चम्मच से दबाते हुए छलनी से छान कर इस का सूप निकाल लें. अब इसे सर्विंग बाउल में निकालें और काली मिर्च बुरक कर गरमागरम सूप सर्व करें और खुद भी पीएं.

सरसों की फसल में माहू कीट का प्रकोप

अगर सरसों की फसल में माहू कीट का प्रकोप हो जाता है, तो ऐसी स्थिति में सरसों के उत्पादन में तकरीबन 25 से 30 फीसदी तक की कमी हो सकती है.

जानिए, माहू कीट क्या है, यह कीट किस तरह से फसल को नुकसान पहुंचाता है और इस कीट का रासायनिक और जैविक विधि से नियंत्रण कैसे करें.

माहू कीट की पहचान : यह कीट छोटे आकार के सलेटी या जैतूनी हरे रंग के होते हैं. इस की लंबाई 1.5-2 मिलीमीटर तक होती है. इस कीट को एफिड, मोयला, चैंपा, रसचूसक कीट आदि अन्य नामों से भी जाना जाता है.

sarsonमाहू कीट के प्रकोप की संभावना : इस कीट का प्रकोप देरी से बोई गई सरसों में ज्यादा होता है. आमतौर पर जब मौसम बदलने लगता है या सर्दी कम होने लगती है, उस समय फरवरीमार्च महीने में माहू कीट का प्रकोप तेजी से होने लगता है.

माहू कीट द्वारा सरसों में नुकसान : यह कीट कोमल पत्तियों और फूलों का रस चूस लेते हैं. जो फली बन रही होती है, उन का भी रस चूस लेते हैं, जिस से फलियां गूदेदार नहीं हो पाती हैं. इस में फलियों में जो दाने बनने चाहिए, वे नहीं बन पाते हैं.

माहू कीट पौधों पर लिसलिसा या चिपचिपा पदार्थ भी छोड़ते हैं. इस वजह से प्रभावित जगह पर काले रंग की फफूंदी आ जाती है, जिस से फूलों की वृद्धि रुक जाती है और फलियों का विकास नहीं हो पाता है. इस के चलते उत्पादन में काफी कमी आ जाती है.

माहू कीट को ऐसे करें काबू : इस कीट के नियंत्रण के लिए मैलाथियान 50 ईसी या डाईमिथोएट 30 ईसी एक लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से पानी में मिला कर छिड़काव करें. साथ में स्टीकर भी मिला लें, जिस से दवा पौधों पर चिपक सके.

जैविक नियंत्रण के लिए नीम की निंबोली के सत का 5 फीसदी पानी में घोल बना कर कीट दिखाई देने पर तुरंत छिड़काव करें.

अनार की उन्नत उत्पादन तकनीक और किस्में

भारत में प्रमुख अनार उत्पादक राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु और राजस्थान हैं. राजस्थान में अनार को जोधपुर, बाड़मेर बीकानेर, चुरू और झुंझुनूं में व्यावसायिक स्तर पर उगाया जाता है. अनार का इस्तेमाल सिरप, स्क्वैश, जैली, रस केंद्रित कार्बोनेटेड कोल्ड ड्रिंक्स, अनारदाना की गोलियां, अम्ल आदि जैसे प्रसंस्कृत उत्पादों के तैयार के लिए भी किया जाता है.

जलवायु

अनार फल की सफलतापूर्वक खेती के लिए शुष्क और अर्धशुष्क मौसम जरूरी होता है. ऐसे क्षेत्र, जहां ठंडी सर्दियां और उच्च शुष्क गरमी होती है, उन क्षेत्रों में गुणवत्तायुक्त अनार के फलों का उत्पादन होता है.

अनार का पौधा कुछ हद तक ठंड को सहन कर सकता है. इसे सूखासहिष्णु फल भी माना जा सकता है, क्योंकि एक निश्चित सीमा तक सूखा और क्षारीयता व लवणता को सहन कर सकता है, परंतु यह पाले के प्रति संवेदनशील होता है.

इस के फलों के विकास के लिए अधिकतम तापमान 35-38 डिगरी सैल्सियस जरूरी होता है. इस के फल के विकास व परिपक्वता के दौरान गरम व शुष्क जलवायुवीय दशाएं जरूरी होती हैं.

मिट्टी

जल निकास वाली गहरी, भारी दोमट भूमि इस की खेती के लिए उपयुक्त रहती है. मिट्टी की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए इसे कम उपजाऊ मिट्टी से ले कर उच्च उपजाऊ मिट्टी तक विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है. हालांकि, गहरी दोमट मिट्टी में यह बहुत अच्छी उपज देता है. यह कुछ हद तक मिट्टी में लवणता और क्षारीयता को सहन कर सकता है.

अनार की खेती के लिए मृदा का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच उपयुक्त रहता है. अनार के पौधे 6.0 डेसी साइमंस प्रति मीटर तक की लवणता और 6.78 फीसदी विनिमयशील सोडियम को सहन कर सकते हैं.

प्रवर्धन विधि

अनार के पौधे को व्यावसायिक रूप से कलम, गूटी और टिश्यू कल्चर के माध्यम से प्रसारित किया जा सकता है.

कलम विधि

यह आसान तरीका है, लेकिन इस की सफलता दर कम है, इसलिए यह विधि किसानों के बीच लोकप्रिय नहीं है. कटिंग या कलम के लिए 9 से 12 इंच (25 से 30 सैंटीमीटर) लंबी एक साल पुरानी शाखा, जिस में 4-5 कलियां हों, का चयन कर लें. कलम लगाने के लिए सब से उपयुक्त समय फरवरी माह होता है.

गूटी या एयर लेयरिंग विधि

एयर लेयरिंग विधि में बेहतर रूटिंग के लिए 2 से 3 साल पुराने स्वस्थ पौधों का चयन करें. इस के बाद पैंसिल आकार की शाखा का चुनाव करें. इस के बाद चुनी गई शाखा में से 2.5-3.0 सैंटीमीटर छाल को उतार लें. इस के बाद जड़ फुटान हार्मोन से 1.5-2.5 ग्राम की दर से उपचारित कर के नम मास घास या फिर कोकोपिट से छिली हुई शाखा को लपेट दें. इस के बाद 300 गेज की पौलीथिन शीट से घास या फिर कोकोपिट से लपेट दें.

पौलीथिन सीट पारदर्शी होनी चाहिए, इस का फायदा यह है कि जड़ें आसानी से दिख जाती हैं. एयर लेयर या गूटी बांधने के बाद आईबीए और सेराडैक्स बी (1,500 से 2,500 पीपीएम) से उपचार करें. इस प्रकार अच्छी रूटिंग 25-30 दिन में पूरी हो जाती है. एकल पौधे से लगभग 150 से 200 गूटी पौधे हासिल किए जा सकते हैं. बारिश का मौसम गूटी के लिए सब से सही है. जड़ों के लिए लगभग 30 दिन का समय लगता है.

45 दिनों के बाद गूटी किए गए पौधों को मातृ पौधे से अलग कर देना चाहिए. जब गूटी किए गए भाग की जड़ें भूरे रंग की होने लग जाएं, तब गूटी किए भाग से तुरंत नीचे के भाग से कट लगा कर मातृ पौधे से अलग कर लेना चाहिए. इस के बाद इन्हें पौलीबैग में उगाया जाता है और शैड नैट या ग्रीनहाउस के तहत 90 दिनों तक सख्त करने के लिए रख दिया जाता है.

Anarउन्नत किस्में

नरम बीज वाली किस्में : गणेश, जालौर सीडलेस, मृदुला, जोधपुर रैड, जी-137 के साथसाथ वर्तमान में गहरे लाल बीजावरण वाली भागवा (सिंदूरी) किस्म पूरे भारत में उगाई जा रही हैं. गणेश किस्म के फल गुलाबी पीले रंग से लालपीले रंग के होते हैं. इस किस्म में नरम बीज होते हैं.

एनआरसी हाईब्रिड-6 और एनआरसी हाईब्रिड-14 दोनों ही अनार की किस्में वर्तमान में प्रचलित किस्म भागवा से उपज व गुणवत्ता में बेहतरीन हैं.

एनआरसी हाईब्रिड-6 : इस किस्म में फल के छिलके और एरिल का रंग लाल, नरम बीज, फल का स्वाद मीठा, न्यूनतम अम्लता (0.44 फीसदी) और अधिक उपज 22.52 किलोग्राम प्रति पौधा व प्रति हेक्टेयर उपज 15.18 टन तक होती है.

एनआरसी हाईब्रिड-14 : इस किस्म में फल के छिलके का रंग गुलाबी व एरिल का रंग लाल, नरम बीज, फल का स्वाद मीठा, न्यूनतम अम्लता (0.45 फीसदी) और अधिक उपज 22.62 किलोग्राम प्रति पौधा व प्रति हेक्टेयर उपज 16.76 टन तक होती है.

भागवा : अनार की भागवा किस्म उपज में बाकी अन्य किस्मों से उत्तम है. यह किस्म 180-190 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस के फल आकार में बड़े, स्वाद में मीठे, बोल्ड, आकर्षक, चमकदार और केसरिया रंग के उच्च गुणवत्ता वाले होते हैं. फल के एरिल का रंग गहरा लाल और बोल्ड आर्टिल वाले आकर्षक बीज होते हैं, जो टेबल और प्रोसैसिंग दोनों उद्देश्यों के लिए उपयुक्त होते हैं.

यह किस्म दूर के बाजारों के लिए भी सही है. यह किस्म अनार की अन्य किस्मों की तुलना में फलों के धब्बों और थ्रिप्स के प्रति कम संवेदनशील पाई गई. इन सभी विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए, महाराष्ट्र के क्षेत्रों में बढ़ते अनार में इस की खेती के लिए ‘भागवा’ किस्म की सिफारिश की जाती है.

अन्य किस्में : रूबी, फुले अरकता, बेदाना, मस्कट, ज्योति, दारू, वंडर और जोधपुर लोकल. यह कुछ महत्त्वपूर्ण किस्में हैं, जिन को व्यावसायिक स्तर पर रोपण सामग्री के रूप में काम में लिया जाता है.

गड्ढे की तैयारी व रोपण

90 दिन पुराने अनार के पौधे मुख्य खेत में रोपाई के लिए तैयार हो जाते हैं. पौधों को लगाने के लिए गड्ढे का उपयुक्त आकार 60 सैंटीमीटर लंबा, 60 सैंटीमीटर चौड़ा, 60 सैंटीमीटर गहरा रखा जाता है.

अनार को लगाने के लिए सब से अधिक वर्गाकार विधि काम में ली जाती है. आमतौर पर रोपण दूरी मिट्टी के प्रकार और जलवायु के आधार पर निश्चित की जाती है.

किसानों द्वारा सब से ज्यादा काम में ली जाने वाली सब से आदर्श रोपण दूरी पौधों के बीच 10 से 12 फुट (3.0 से 4.0 मीटर) और पंक्तियों के बीच 13-15 फुट (4.0 से 5.0 मीटर) है. गड्ढों की खुदाई के बाद इन्हें 10-15 दिन तक धूप में खुला छोड़ दिया जाता है, ताकि गड्ढों में हानिकारक कीडे़मकोडे़ व कवक आदि मर जाएं.

मानसून के दौरान गड्ढों को गोबर की खाद या कंपोस्ट या वर्मी कंपोस्ट (10 किलोग्राम), सिंगल सुपर फास्फेट (500 ग्राम), नीम की खली (1 किलोग्राम) और क्विनालफास 50-100 ग्राम से भर दिया जाता है.

अनार रोपण के लिए इष्टतम समय बारिश का मौसम (जुलाईअगस्त माह) होता है. इस समय पौधों की इष्टतम वृद्धि के लिए मिट्टी में पर्याप्त नमी उपलब्ध होती है.

यद्यपि, अनार को कम उपजाऊ मिट्टी में भी उगाया जा सकता है, परंतु अच्छे उत्पादन व गुणवत्ता वाले फलों के लिए कार्बनिक और रासायनिक खाद का प्रयोग किया जाता है.

अंतरासस्यन : अनार का बगीचा लगाने के बाद 1 से 2 साल अफलन अवस्था में रहता है, इसलिए किसान को इस अवधि के दौरान कोई भी अतिरिक्त आय प्राप्त नहीं होती है. इस फसल प्रणाली में कम या धीरे उगने वाली सब्जियों, दालों या हरी खाद वाली फसलों को इंटरक्रौप के रूप में लेना फायदेमंद रहता है.

शुष्क क्षेत्रों में, बारिश के मौसम में ही अंतरफसल संभव है, जबकि सिंचित क्षेत्रों में सर्दियों की सब्जियां भी अंतरासस्यन के रूप में ली जा सकती हैं. इस प्रकार किसान अंतरासस्यन को अपना कर बगीचे की अफलन अवस्था पर अतिरिक्त आय कमा सकते हैं.

खाद व उर्वरक

खाद व उर्वरक की संस्तुत खुराक के तौर पर 600-700 ग्राम नाइट्रोजन, 200-250 ग्राम फास्फोरस और 200-250 ग्राम पोटाश प्रति पौधे के हिसाब से प्रत्येक वर्ष देनी चाहिए. इस के पश्चात खाद की मात्रा को तालिका के अनुसार दें और 5 वर्ष के बाद खाद की मात्रा को स्थिर कर दें. (बाक्स देखें)

देशी खाद, सुपर फास्फेट व पोटाश की पूरी मात्रा व यूरिया की आधी मात्रा फूल आने के करीब 6 हफ्ते पहले दें. यूरिया की शेष मात्रा फल बनने पर दें. अंबे बहार के लिए उर्वरक दिसंबर माह में देना चाहिए और मृगबहार के फलों के लिए उर्वरक मई माह में देना चाहिए.

सिंचाई

अनार एक सूखा सहनशील फसल है, जो कुछ सीमा तक पानी की कमी में भी पनप सकती है. इस फसल में फल फटने की एक प्रमुख समस्या है, इसलिए इस से बचने के लिए नियमित सिंचाई आवश्यक होती है.

सर्दियों के दौरान 10-12 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें, जबकि गरमियों के मौसम में 4-5 दिन के अंतराल में सिंचाई जरूर करें. सिंचाई के लिए ड्रिप पद्धति का प्रयोग करें. इस से 40 से 80 फीसदी तक पानी की बचत कर सकते हैं और पानी के साथ उर्वरक का भी प्रयोग कर सकते हैं, जिसे फर्टिगेशन के नाम से जाना जाता है. अगर पानी की सुविधा हो, तो अंबे बहार से उत्पादन लें, क्योंकि इस बहार के फल अधिक गुणवत्ता वाले होते हैं, वरना मृगबाहर से ही काम लें.

कटाई और छंटाई

यह वानस्पतिक वृद्धि को नियंत्रित करने व पौधे के आकार और ढांचे को बनाए रखने की एक आशाजनक तकनीक है. इस विधि का सब से मुख्य फायदा यह है कि सूर्य का प्रकाश पौधे के सभी भागों अथवा पौधे के केंद्र तक आसानी से पहुंचता है और खेती किसानी के काम जैसे पादप रसायनों का छिड़काव व फलों की तुड़ाई भी आसान हो जाती है.

अनार में संधाई ट्रेनिंग की मुख्य रूप से 2 विधियां काम में ली जाती हैं :

एकल तना विधि : इस विधि में अनार के पौधे से अन्य शूट यानी तना हटा कर केवल एक शूट रखा जाता है.

बहुतना विधि : इस विधि में पौधे के आधार में 3-4 शूट रख कर पौधे को झाड़ीनुमा आकार में बनाए रखा जाता है. यह विधि बहुत लोकप्रिय और किसानों द्वारा व्यावसायिक खेती के लिए अपनाई जाती है, क्योंकि इस में शूट भेदक के आक्रमण का असर कम होता है और बराबर उपज प्राप्त हो जाती है.

पशुपालन : सरकारी योजनाओं का लें फायदा

हमारे यहां कई गंवई इलाकों में पशुपालन खेती के साथसाथ किया जाने वाला काम है. कुछ लोग अपनी घरेलू जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ही पशुपालन करते हैं, वहीं कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने पशुपालन को बतौर डेरी कारोबार के रूप में अपनाया हुआ है.

यही डेरी कारोबार उन की आमदनी का एकमात्र जरीया है. लेकिन किसी भी काम को करने के लिए उस के बारे में सटीक जानकारी हो तो कारोबार मुनाफे का सौदा बनता है. कई दफा जानकारी की कमी में कारोबार करने वालों को नुकसान उठाना पड़ता है, इसलिए पशुपालन में पशुओं का रखरखाव, उन के खानपान में चारा, पानी वगैरह देने के अलावा घरेलू उपचार की सही जानकारी होनी चाहिए.

नया डेरी फार्म लगाने के लिए पहले या दूसरे ब्यांत के पशु जो कि ज्यादा से ज्यादा 20 या 25 दिन की ब्याई हुई ही खरीदनी चाहिए, क्योंकि ऐसे पशु अधिक समय तक दूध देते हैं.

इस के अलावा पशुओं की हर अवस्था जैसे गर्भकाल, प्रसवकाल और दूध काल वगैरह में समुचित देखभाल और प्रबंधन से ही किसी भी डेरी फार्म या डेरी उद्योग को कामयाब बनाया जा सकता है.

गांवों में पशुओं की देखभाल व खानपान, प्रबंधन का काम ज्यादातर महिलाएं ही करती हैं. इसलिए यह जरूरी भी है कि समयसमय पर महिलाओं को पशुओं की देखभाल और प्रबंधन के बारे में तकनीकी जानकारी प्रशिक्षण के माध्यम से देनी चाहिए ताकि पशु से ज्यादा से ज्यादा दूध ले सकें.

केंद्र सरकार द्वारा भी किसानों और पशुपालकों के लिए अनेक हितकारी योजनाएं समयसमय पर आती रहती हैं, उन की जानकारी ले कर भी फायदा उठाना चाहिए. इस तरह की जानकारी अखबारों, पत्रपत्रिकाओं, रेडियो, टीवी और कृषि विभागों द्वारा दी जाती है.

इस के अलावा कृषि मेलों में भी भरपूर जानकारी मिलती है. अपने नजदीक लगने वाले ऐसे आयोजनों में भी युवा महिला व किसानों को जाना चाहिए, जहां पर खेतीकिसानी व पशुपालन के अनेक विशेषज्ञ होते हैं जो आप को नईनई जानकारी देते हैं. खेती से जुड़ी सरकारी कंपनियां, प्राइवेट कंपनियां, बैंक वगैरह के अधिकारी मौजूद होते हैं. उन से भी आम लोगों को तमाम तरह की नई जानकारी मिलती है.

डेरी सब्सिडी स्कीम (नाबार्ड) की उद्यमिता विकास योजना (डीईडीएस) : केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई इस योजना का खास मकसद देश में दूध के कारोबार को बढ़ावा देना है. पशुपालन योजना के तहत आधुनिक डेरी या डेरी फार्म खोल कर आम किसान अपनी आमदनी में इजाफा कर सकते हैं.

इस योजना का फायदा किसान और पशुपालक दोनों ही ले सकते हैं. जो लोग डेरी कारोबार से जुड़े हैं, वह इस काम को और आगे बढ़ा सकते हैं और अनेक लोगों को रोजगार भी दे सकते हैं.

गंवई इलाकों के बेरोजगार नौजवान भी इस काराबार को शुरू कर सकते हैं. अगर आप को पशुपालन का तजरबा है तो अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं.

केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई इस योजना के तहत डेरी कारोबार से फायदा उठाने के लिए गायपालन और भैंसपालन के लिए लोन दिया जाता है. इस में सरकार द्वारा 25 से 33 फीसदी तक सब्सिडी दी जाती है.

अगर आप 10 दुधारू पशुओं से डेरी की शुरुआत करना चाहते हैं और इस पर होने वाला खर्चा तकरीबन 7 लाख रुपए आता है तो केंद्र के कृषि मंत्रालय द्वारा चलाई जा रही डीईडीएस योजना में आप को तकरीबन 1.75 लाख रुपए की सब्सिडी मिलेगी.

केंद्र सरकार के कृषि मंत्रालय द्वारा यह सब्सिडी राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास  बैंक यानी नाबार्ड के माध्यम से मुहैया कराई जाती है.

किस को कितनी सब्सिडी मिलेगी : डीईडीएस योजना के तहत आप को डेरी लगाने के लिए आमतौर पर 25 फीसदी की सब्सिडी मिलेगी. अगर आप अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से हैं, तो इस योजना के तहत आप को 33 फीसदी सब्सिडी दी जाएगी.

आप अगर राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक यानी नाबार्ड से डेरी खोलने के लिए लोन लेते हैं तो आप को कुछ नियमों का पालन करना होगा और अहम कागजात की जरूरत पड़ेगी. इस की जानकारी इस तरह से है:

* अगर आप के पास 2 से ज्यादा पशु हैं तो आप इस लोन के लिए आवेदन कर सकते हैं. अगर आप पहले से ही पशुपालन करते रहे हैं तो आप को लोन मिलने में भी आसानी होगी और लोन के लिए आवेदन करने के लिए आवेदनकर्ता की उम्र 18 साल से ज्यादा और 65 साल से कम होनी चाहिए.

* अगर आप 2 से ले कर 10 पशु के साथ डेरी शुरू करना चाहते हैं तो प्रति 5 पशु के लिए 0.25 एकड़ जमीन चारे के लिए मुहैया होनी चाहिए. अगर आप के पास जमीन है तो अच्छी बात है. अगर जमीन नहीं है तो आप किसी अन्य व्यक्ति की जमीन किराए पर ले कर यह काम शुरू कर सकते हैं. इस की जानकारी आप को बैंक को देनी होगी.

* आप जहां डेरी खोलना चाहते हैं, वहां का मूल निवास प्रमाणपत्र होना चाहिए.

क्याक्या कागजात जरूरी

* आवेदन फार्म (यह फार्म आप को औनलाइन इंटरनैट या फिर बैंक में मिल जाएगा).

* पहचान के लिए आधारकार्ड या वोटर आईडी कार्ड होना चाहिए.

* जिस बैंक में आप का अकाउंट है, उस बैंक की पासबुक होनी चाहिए.

* आप जहां डेरी खोलना चाहते हैं, वहां का मूल निवास प्रमाणपत्र होना चाहिए.

* आवेदन करने वाले व्यक्ति का पासपोर्ट साइज का फोटो भी चाहिए.

जरूरी कागजातों के अलावा आप को एक आवेदनपत्र देना होगा, जिस में यह लिखा होना चाहिए कि आप लोन क्यों ले रहे हैं? आप यह लोन कितने सालों में चुका देंगे? आप के पास कितने पशु हैं और फिलहाल इन से आप की कितनी आमदनी हो रही है? वगैरह.

इस तरह की जानकारी बैंक आप से मांगेगा, इसलिए ऐसे में आप को इन सवालों के जवाब की पहले से तैयारी कर लेनी चाहिए ताकि बाद में आप को किसी तरह की परेशानी न आए.

डेरी खोलने के लिए लोन का एप्लीकेशन फार्म लेते समय आप किसी भी बैंक कर्मचारी से सही जानकारी ले सकते हैं. बैंक कर्मचारी आप को बता देंगे, जैसे इस में कौनकौन से कागजात लगेंगे. आप को कितने दिन में यह लोन मिल सकता है वगैरह.

कैसे करें आवेदन : डेरी खोलने के लिए लोन कैसे मिलेगा तो इस के लिए आप को अपने बैंक जाना है. वहां आप को एप्लीकेशन फार्म के साथ जरूरी कागजात नत्थी करने हैं.

इन सभी कागजातों के साथ आप को बैंक में इन्हें जमा करना है. यहां बैंक कर्मचारी आप के लोन का आवेदन फार्म नाबार्ड यानी राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक में भेज देंगे.

आप चाहें तो अपने नजदीकी राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) जा कर लोन के लिए खुद भी फार्म जमा कर सकते हैं. इस के बाद आप के दस्तावेज सत्यापन यानी वैरीफिकेशन के लिए राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक जाएंगे.

डौक्यूमैंट वेरीफाई होने के बाद आप को पूछताछ के लिए बैंक बुलाया जाएगा. आप द्वारा दिए गए जवाब से संतुष्ट होने पर ही आप को लोन मिल सकेगा, अन्यथा बैंक कर्मचारी आप के लोन को रिजैक्ट कर सकता है. ऐसे में यह जरूरी है, आप को उस के सवालों का सही जवाब देना होगा. उसे भरोसा दिलाना होगा कि आप को वाकई लोन की जरूरत है.

डेरी फार्म कारोबार में होने वाला अनुमानित खर्च : अगर आप दूध देने वाले 10 पशुओं की डेरी खोलते हैं तो इस प्रोजैक्ट में तकरीबन 7 लाख रुपए की लागत आएगी.

डेरी उद्यमिता विकास योजना यानी डीईडीएस के तहत आप को इस में 1.75 लाख रुपए की सब्सिडी मिल जाएगी. तकरीबन सभी बैंक लोन देते समय अपने लोन की सुरक्षा के लिए आवेदनकर्ता से कुछ न कुछ गिरवी जरूर रखवाते हैं. इसे सिक्योरिटी डिपोजिट कहा जाता है. इस के लिए आप से जमीन के कागजात या घर के ऐसे कागजात मांगे जाते हैं, जिन की कीमत आप के लोन से ज्यादा हो और जब आप का लोन चुकता हो जाता है तो वह कागजात आप को वापस मिल जाते हैं.

अन्य योजनाओं में भी सब्सिडी

Pashupalanदूध उत्पादन के लिए उपकरण पर सब्सिडी : डेरी उद्यमिता विकास योजना (डीईडीएस) के तहत दूध से बनने वाली अनेक चीजें (मिल्क प्रोडक्ट) बनाने की यूनिट शुरू करने के लिए भी सब्सिडी दी जाती है. इस योजना के तहत आप दूध उत्पाद की प्रोसैसिंग के लिए उपकरण खरीद सकते हैं. खरीदे गए उपकरण पर आप को 25 फीसदी तक की कैपिटल सब्सिडी मिल सकती है.

अगर आप अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति में आते हैं तो आप को इस के लिए 33 फीसदी सब्सिडी मिल सकती है.

मिल्क कोल्ड स्टोरेज पर भी है सब्सिडी: इस योजना के तहत दूध और दूध से बने उत्पाद के संरक्षण के लिए कोल्ड स्टोरेज यूनिट शुरू कर सकते हैं. इस पर भी 33 फीसदी  सब्सिडी मिलेगी.

राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की तरफ से डेरी उद्यमिता विकास योजना के तहत पशु खरीदने, बछड़ापालन, वर्मी कंपोस्ट, डेरी लगाने, दूध शीतलन व अन्य कामों के लिए लघु एवं सीमांत किसानों समेत समूहों को प्राथमिकता दी जाती है.

डीईडीएस के बारे में अधिक जानकारी के लिए नाबार्ड की वैबसाइट पर जाए या अपने नजदीकी पशुपालन विभाग से संपर्क करें.

झींगा लार्वा फीड के उत्पादन के लिए साझेदारी

चेन्नई : भाकृअनुप- केंद्रीय खारा जल जीवपालन संस्थान (CIBA ), चेन्नई ने मेसर्स एमिटी एम्पिरिक टैक्नोलौजीज एलएलपी, कर्नाटक के साथ स्वदेशी झींगा लार्वा फीड के उत्पादन के लिए एक रणनीतिक गठबंधन बनाया. कार्यक्रम का आयोजन भाकृअनुप-सीबा की संस्थान प्रौद्योगिकी प्रबंधन इकाई द्वारा किया गया था.

सफल हैचरी संचालन के लिए गुणवत्तापूर्ण लार्वा फीड उत्पादन केंद्रीय तत्व हैं. भारत में उपयोग किया जाने वाला लार्वा फीड पूरी तरह से आयातित और महंगा है. इसलिए टिकाऊ जलीय कृषि के लिए झींगा उत्पादन अब लागत प्रभावी एवं स्वदेशी लार्वा फीड समय की मांग है.

पिछले 5 सालों में सीबा में केंद्रित अनुसंधान प्रयासों के परिणामस्वरूप सीबा श्रिम्प लारविप्लस का विकास हुआ. भारत सरकार के मेक इन इंडिया कार्यक्रम के अनुरूप झींगा लार्वा फीड उत्पादन को बढ़ावा देना एक प्राथमिकता है.

भाकृअनुप-सीबा ने 6 नवंबर, 2023 को सीबा के निदेशक डा. कुलदीप के. लाल की उपस्थिति में स्वदेशी झींगा लार्वा फीड के निर्माण के लिए एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए हैं.

उन्होंने एक्वा फीड क्षेत्र में आर्थिक लाभ, नवाचार, विकास, स्थिरता और प्रतिस्पर्धात्मकता के महत्व पर जोर दिया, जिस का लक्ष्य अनुभव और अनुभवों को साझा कर के दीर्घकालिक और लाभकारी यात्रा के लक्ष्य को हासिल किया जाए.

एमिटी एम्पिरिक टैक्नोलौजीज के सीईओ मोहन रेड्डी ने अपने हैचरी और खेती के अनुभव को गिनाया और सीबा के झींगा लार्वा प्लस के साथ प्राप्त उत्साहजनक परीक्षण परिणामों को साझा किया. इस तकनीकों से हितधारकों को लाभ पहुंचाने और मौजूदा झींगा लार्वा फ़ीड के लिए एक आयात विकल्प बनाने के अपने इरादे को साझा किया.

धान की खेती के बाद मसूर की खेती

मसूर एक ऐसी दलहनी फसल है, जिस की खेती भारत के ज्यादातर राज्यों में की जाती है. मसूर फसल तैयार होने में भी 130 से ले कर 140 दिन लेती है. ऐसे में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के वैज्ञानिकों ने मसूर की नई प्रजाति विकसित की है जो कम दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. धान के बाद खाली खेती में मसूर की बोआई अक्तूबर माह के मध्य के बाद किसानों को करनी चाहिए.

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के आनुवांशिकी एवं पादप प्रजनन विभाग के कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो राज्य उपसमिति की बैठक में प्रथम किस्म छत्तीसगढ़ मसूर-1 को प्रदेश के लिए अनुमोदित किया गया है. यह किस्म 88-95 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है, जिस की औसत उपज 14 क्विंटल है.

इस किस्म के पुष्प हलके बैंगनी रंग के होते हैं. इस के 100 दानों का औसत वजन 3.5 ग्राम होता है. छत्तीसगढ़ मसूर-1 किस्म, छत्तीसगढ़ में प्रचलित किस्म जेएल-3 की अपेक्षा 25 फीसदी अधिक उपज देती है.

मसूर की खेती के लिए जमीन को पहले से तैयार कर लें. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें और 2-3 जुताइयां देशी हल से कर के पाटा लगा कर एकसार कर लें.

मसूर की खेती के लिए बीजोपचार जरूरी होता है. इस के लिए 10 किलोग्राम बीज को 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर के बोना चाहिए.

मसूर में सिंचाई की कम जरूरत पड़ती है लेकिन इस के बाद भी इस की पहली सिंचाई फूल आने से पहले करनी चाहिए. धान के खेतों में बोई गई मसूर की फसल में सिंचाई फली बनने के समय करनी चाहिए.

वैज्ञानिकों की मानें तो अच्छी फसल की पैदावार के लिए मिट्टी का पीएच मान 5.8-7.5 के बीच होना चाहिए. अधिक क्षारीय व अम्लीय मिट्टी मसूर की खेती के लिए सही नहीं है.

कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक, पहली सिंचाई शाखा निकलते समय बोआई के 30-35 दिन और दूसरी सिंचाई फलियों में दाना भरते समय बोआई के 70-75 दिन बाद करनी चाहिए.

ध्यान रखें कि पानी ज्यादा न होने पाए. अगर मुमकिन हो तो टपक विधि यानी स्प्रिंकलर से सिंचाई करें या खेत में स्ट्रिप बना कर हलकी सिंचाई करना फायदेमंद रहता है. ज्यादा सिंचाई करने से मसूर की फसल में गलने की समस्या आती है.

छत्तीसगढ़ में मुख्य रूप से दुर्ग, कवर्धा, राजनांदगांव, बिलासपुर, कोरिया, धमतरी कांकेर समेत रायपुर जिलों में की जाती है, जिस से वर्तमान में इस की खेती तकरीबन 26.18 हजार हेक्टेयर में की जाती है, जिस का उत्पादन 8.72 हजार टन है और औसत पैदावार 333 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है. इस की बोआई अक्तूबर से नवंबर माह के बीच सही होती है. 80 फीसदी फलियां पकने पर कटाई की जानी चाहिए.

मुनाफा कमाना है तो बोइए मसूर की नई किस्म. छत्तीसगढ़ राज्य के लिए यह किस्म काफी मुफीद पाई गई है.

लीची के खास कीट व रोग

लीची के फल अपने मनमोहक रंग, स्वाद और गुणवत्ता के चलते भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया में अपना खास पहचान बनाए हुए हैं. लीची के सफल उत्पादन के लिए मुनासिब किस्मों का चयन बेहतर कृषि तकनीक, कीट बीमारी के रोकथाम व पौध संरक्षक के तरीकों को अपना कर किसान मुनाफा ले सकते हैं.

लीची के प्रमुख कीट

लीची फल बेधक व टहनी बेधक : इस कीट के लार्वा नई कोपलों की मुलायम टहनियों के भीतरी भाग को खाते हैं. नतीजतन, ग्रसित टहनियों में फूल व फलन ठीक से नहीं होता है. इस के प्रकोप से फल झड़ जाते हैं.

नियंत्रण : फल के लौंग आकार होने पर इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल कीटनाशक का छिड़काव 0.5-0.7 मिलीलिटर या नोवाल्यूरान 10 ईसी 1.5 मिलीलिटर नामक कीटनाशक का 2 छिड़काव 10-15 दिनों के फासले पर करें.

लीची की मकड़ी : इस कीट के नवजात और वयस्क दोनों ही नई कोपलों, पत्तियों, पुष्पक्रमों व फलों से लगातार रस चूसते हैं.

इस के लक्षण शुरू में निचली सतह पर धूसर रंग के मखमली सतह के रूप में बनते हैं. परिणामस्वरूप प्रकाश संश्लेषण की क्रिया रुक जाती है.

नियंत्रण : जुलाई माह में क्लोरफेनापार 10 ईसी या प्रोपरगाइट 57 ईसी मकड़ीनाशक कैमिकल का 3 मिलीलिटर की दर से 15 दिनों के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करना चाहिए.

लीची का बग : इस जाति के अर्भक व वयस्क दोनों ही नुकसान पहुंचाते हैं. ये मुलायम पत्तियों, टहनियों व फलों का रस चूस कर नुकसान पहुंचाते हैं.

रोकथाम : मिली बग अगर पौधे पर चढ़ गए हों तो क्लोरोपाइरीफास या मिथाइल डेमेटान या इमिडाक्लोप्रिड या रोगोर 0.08 फीसदी का छिड़काव करें.

नीबू का काला एफिड : कीटों द्वारा कोशिका रस चूस लिए जाने के कारण पत्तियां, कलियां और फूल मुरझा जाते हैं. इस के साथसाथ यह कीट एक किस्म के विषाणुओं को भी फैलाता है.

रोकथाम : इस कीट की रोकथाम के लिए औक्सीडिमेटान मिथाइल या फिर डाईमिथोएट के 0.03 या इमिडाक्लोप्रिड 17 एसएल घोल का छिड़काव करें.

लीची के प्रमुख रोग

पत्ती मंजर और फल झुलसा : इस रोग की शुरुआत पत्तियों के आखिरी सिरे पर ऊतकों के सूखने से होती है. इस के रोग कारक मंजरों को झुलसा देते हैं, जिस से प्रभावित मंजरों में कोई फल नहीं लग पाते.

रोकथाम : इस रोग पर नियंत्रण करने के लिए थायोफेनेट मिथाइल 75 डब्लूपी 2 ग्राम प्रति लिटर या डाईफेनोकोनाजोल 25 ईसी 1 मिलीलिटर प्रति लिटर या एजोक्सीस्ट्रोबिन 250 एससी 0.8 मिलीलिटर प्रति लिटर के घोल का छिड़काव करने से कुछ हद तक काबू पाया जा सकता है.

श्याम वर्ण यानी एंथ्रेक्नोज : यह फलों के साथसाथ पत्तियों और टहनियों को भी प्रभावित कर सकते हैं. फलों के छिलकों पर छोटेछोटे 0.2-0.4 सैंटीमीटर गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं.

रोग की अधिक तीव्रता की स्थिति में काले धब्बों का फैलाव फल के छिलकों पर आधे हिस्से तक हो सकता है.

रोकथाम : इस रोग की तीव्रता ज्यादा होने पर रोकथाम के लिए थायोफेनेट मिथाइल 75 डब्लूपी 2 ग्राम प्रति लिटर या डाईफेनोकोनाजोल 25 ईसी 1 मिलीलिटर प्रति लिटर के घोल का छिड़काव करें.

म्लानि या उकटा रोग : यह रोग पत्तियों के हलके पीले होने के साथसाथ मुरझाने से शुरू होती है जो क्रमिक उत्तरोत्तर बढ़ती हुई 4-5 दिनों में पेड़ को पूरी तरह सुखा देती है. जड़ों और फ्लोएम ऊतकों पर कुछ भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं, जो बाद में जाइलम ऊतकों में भी फैल जाते हैं. इस की वजह से पानी का बहाव रुक जाता है.

रोकथाम : हैक्साकोनाजोल 5 एससी 1 मिलीलिटर प्रति लिटर या कार्बंडाजिम 50 डब्लूपी 2 ग्राम प्रति लिटर से पेड़ के सक्रिय जड़ क्षेत्र को भिगोएं.

फल विगलन : इस रोग के फैलने से छिलका मुलायम और फल सड़ने लगते हैं. प्रभावित फलों के छिलके भूरे से काले रंग के हो जाते हैं. सड़े हुए भाग पर फफूंद दिखने लगती है. फल फटने के बाद विगलन रोग जनकों के माइसिलियम फटे हुए भाग में पहुंच जाते हैं.

रोकथाम : फल तुड़ाई के 15-20 दिन पहले पेडों पर कार्बंडाजिम 50 डब्लूपी 2 ग्राम प्रति लिटर या थायोफेनेट मिथाइल 50 डब्लूपी 2 ग्राम प्रति लिटर या एजोक्सीस्ट्रोबिन 23 एससी 1 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी के घोल का छिड़काव करें.

उपज : लीची से प्रति पेड़ औसतन 1.5 से 2.0 क्विंटल उपज मिल जाती है. एक हेक्टेयर में तकरीबन 150 से 200 क्विंटल उपज मिल जाती है.

लीची की सफल बागबानी

भारत में लीची का उत्पादन  विश्व में दूसरे स्थान पर है. लीची के फल पोषक तत्त्वों से भरपूर और स्फूर्ति देने वाले होते हैं. इस के फल में शर्करा  की मात्रा 11 फीसदी, प्रोटीन 0.7 फीसदी, खनिज पदार्थ 0.7 फीसदी और वसा 0.3 फीसदी होती है.

लीची के फल से कई तरह के शरबत व जैम, नैक्टर कार्बोनेटैड पेय व डब्बाबंद उत्पाद बनाए जा सकते हैं. लीची नट फल को सुखा कर बनाया जाता है, जो कि बड़े ही चाव से खाया जाता है. लीची के कच्चे और खट्टे फलों को सुखा कर खटाई के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है.

Lichiसाल 2018-19 में भारत में लीची का रकबा 93,000 हेक्टेयर व उत्पादन 7,11,000 मिलियन टन हुआ. देश में लीची की बागबानी खासतौर से उत्तर बिहार, देहरादून की घाटी, उत्तर प्रदेश के तराई वाले इलाके और झारखंड के छोटा नागपुर इलाके में की जाती है.

जमीन और आबोहवा : लीची की बागबानी सभी तरह की मिट्टी, जिस में पानी के निकलने के इंतजाम वाली बलुई दोमट मिट्टी सब से कारगर पाई गई है. इस का पीएच मान 6.0 से 7.6 के बीच हो.

लीची के सफल उत्पादन के लिए नम या आर्द्र उपोष्ण जलवायु का होना जरूरी है. बारिश आमतौर पर 100-140 सैंटीमीटर पालारहित भूभाग व तापमान 15-30 डिगरी सैंटीग्रेड में पौधों की वानस्पतिक बढ़वार अच्छी होती है.

फलों की तुड़ाई के समय उच्च तापमान 30 डिगरी सैंटीग्रेड से ले कर 40 डिगरी सैंटीग्रेड और आपेक्षित आर्द्रता 84 फीसदी फायदेमंद है.

लीची की उन्नत किस्मों की सिफारिश : अर्ली बेदाना, शाही, त्रिकोलिया, अझोली, अर्ली लार्जरेड, कलकतिया, रोज सैंटेड, मुजफ्फरपुर, अर्ली सीडलैस, देहरादून, चाइना, स्वर्ण रूपा, सीएचईएस 2, कस्बा, पूर्वी वगैरह इस की उन्नत किस्में हैं.

लीची की खासमखास किस्मों का खुलासा

कलकतिया : इस किस्म के फल बड़े, लुभावने व फलों के गुच्छे घने लगते हैं. इस के फल रसभरे और स्वाद से भरे होते हैं.

देहरादून : यह लगातार फल देने वाली किस्म है. इस के फल लुभावने रंग वाले होते हैं. इस के फल मीठे, नरम, रसभरे और स्वाद होते हैं.

शाही : इस किस्म के फल गोल व गहरे लाल रंग वाले होते हैं. फल में गूदे की मात्रा ज्यादा होती है. इस किस्म के फल में खुशबू आती है. इस किस्म के 15-20 साल के पौधे से 100-120 किलाग्राम उपज हर साल हासिल की जा सकती है.

त्रिकोलिया : फल गोल व लाल रंग के होते हैं. फलों का वजन 14.5 ग्राम होता है, जिस में 11.4 ग्राम खाने योग्य गूदा पाया जाता है. पूरी तरह विकसित एक पेड़ से 90-110 किलोग्राम फल हर साल मिल जाते हैं.

रोज सैंटेड : इस किस्म के फलों में गुलाब जैसी खुशबू आती है और फल फटने की समस्या देखी गई है. पूरी तरह विकसित पौधे से 90-100 किलोग्राम फल लिया जा सकता है.

अर्ली बेदाना : फलों में बीज बहुत ही छोटा होता है. इस किस्म के फलों का वजन 18.4 ग्राम होता है. इस में 14.3 ग्राम गूदा पाया जाता है.

चाइना : फल बड़े ही नुकीले शंक्वाकार और चटकने की समस्या से मुक्त होते हैं. फलों का रंग गहरा लाल व गूदे की मात्रा अधिक होने के कारण इस की अत्यधिक मांग है. एक बड़े पेड़ से 120-150 किलोग्राम उपज हर साल मिल जाती है.

स्वर्ण रूपा : इस किस्म के फल देरी से पकते हैं. यह फल चटकने की समस्या से मुक्त होते हैं. फल लुभावने, गहरे गुलाबी रंग, जिन में बीज का आकार छोटा होता है. फल का गूदा अधिक जायकेदार व मीठा होता है.

सीएचईएस 2 : फल शंक्वाकार और गहरे लाल रंग व फलों का वजन 20-22 ग्राम व 15-20 फलों के गुच्छे में आते हैं.

कस्बा : फल बड़े यानी तकरीबन 20.2 ग्राम, गूदे की मात्रा अधिक व फल चटकने की समस्या से मुक्त होते हैं. इस किस्म के फल अलगअलग मंजरी पर आते हैं.

पूर्वी : फल छोटे और फलत अधिक होती है. एक बड़े पेड़ से तकरीबन 80-100 किलोग्राम फल की उपज हर साल मिल जाती है.

पौध तैयार करना : वैसे तो गूटी, भेंट कलम, दाब कलम, मुकुलन व बीज द्वारा पौधे तैयार कर सकते हैं, लेकिन व्यावसायिक खेती के लिए गूटी विधि द्वारा तैयार पौधों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए.

गूटी द्वारा पौध तैयार करने के लिए जूनजुलाई माह में चुनी हुई डाली पर शीर्ष से 40-50 सैंटीमीटर पहले गांठ के पास 2 सैंटीमीटर की छाल उतार कर छल्ला बना देते हैं. छल्ले के ऊपरी सिरे पर 1,000 पीपीएमआई बीए के पेस्ट का लेप लगा कर छल्ले को नम मौस घास से ढक कर 400 गेज की पौलीथिन का टुकड़ा लपेट कर सुतली से बांध देना चाहिए.

गूटी बांधने के तकरीबन 2 माह के अंदर जड़ें पूरी तरह से निकल आती हैं. इस समय डाली की तकरीबन आधी पत्तियों को निकाल कर व उसे मुख्य पौध से काट कर नर्सरी में कम छायादार जगह पर लगा देना चाहिए. इस प्रकार गूटी बांधने से जड़ें अच्छी निकलती हैं और पौध स्थापना अच्छी होती है.

पौध रोपण : लीची का पूरा विकसित पेड़ आकार में बड़ा होता है इसलिए इसे तकरीबन 10×10 मीटर की दूरी पर लगाना चाहिए.

लीची के पौधे की रोपाई से पहले खेत में लाइन बना कर पेड़ लगाने की जगह तय कर लेते हैं. इस के बाद निशान लगी जगह पर अप्रैलमई महीने में 90×90×90 सैंटीमीटर आकार के गड्ढे खोद कर मिट्टी को अच्छी तरह फैला देना चाहिए.

बारिश शुरू होते ही जून महीने में 2-3 टोकरी 25-30 किलोग्राम गोबर की सड़ी हुई खाद, 2 किलोग्राम करंज या नीम की खली, 1.0 किलोग्राम हड्डी का चूरा या सिंगल सुपर फास्फेट व 50 ग्राम हेप्टाक्लोर या 20 ग्राम थीमेट 10 जी को खेत की ऊपरी सतह की मिट्टी में अच्छी तरह मिला कर गड्ढे भर देने चाहिए.

बारिश में गड्ढे की मिट्टी दब जाने के बाद उस के बीच में खुरपी की मदद से पौधों की पिंडी के आकार की जगह बना कर पौधा लगा देना चाहिए.

पौधा लगाने के बाद उस के पास की मिट्टी को ठीक से दबा कर और एक थाला बना कर 2-3 बालटी यानी 25-30 लिटर पानी उस में डाल देना चाहिए.

सिंचाई : लीची के सफल उत्पादन के लिए मिट्टी में मुनासिब नमी का रहना बेहद जरूरी है. इस के लिए जल संरक्षण व मल्चिंग का इस्तेमाल लाभदायक माना जाता है.

लीची के पौधों में फल पकने के 6 हफ्ते पहले अप्रैल के शुरू में पानी की कमी से फल की बढ़वार रुक जाती है और फल चटकने लगते हैं इसलिए अप्रैल व मई माह में 2-3 दिनों के फासले पर हलकी सिंचाई करने से लीची के फलों में गूदे का विकास अच्छा और फल चटकने की समस्या कम हो जाती है.

पेड़ों की कटाईछंटाई : शुरू के 3-4 सालों की अवांछित शाखाओं को निकाल कर पौधों को तय आकार देना चाहिए. जमीन से तकरीबन आधा मीटर दूरी तक की शाखाओं को निकाल देना चाहिए ताकि मुख्य तने का सही विकास हो सके.

उस के बाद में 3-4 मुख्य शाखाओं को बढ़ने देना चाहिए जिस से पेड़ का आकार सुडौल, ढांचा मजबूत व फसल अच्छी आती है.

फलों को तोड़ते समय 10 सैंटीमीटर लंबी टहनी को तोड़ देना चाहिए, जिस से अगले साल स्वस्थ शाखाएं निकलती हैं और फसल अच्छी आती है.

अंत:फसल करें : लीची के पेड़ पूरी तरह तैयार होने में तकरीबन 15-16 साल का समय लगता है, इसलिए लीची के पौधों के बीच की खाली पड़ी जमीन का इस्तेमाल दूसरे फलदार पौधों व दलहनी फसलों या सब्जियों को लगा कर किया जा सकता है.

इस के अलावा मिट्टी की उर्वराशक्ति में भी काफी इजाफा होता है. लीची के बाग में अमरूद, शरीफा व पपीता जैसे फल के पेड़ लगाए जा सकते हैं.

फूल और फल : गूटी द्वारा तैयार लीची के पौधों में 4-5 सालों के बाद फूल व फल आना शुरू हो जाता है. फूल आने के समय से तकरीबन 2 माह पहले पौधों में सिंचाई बंद करने से मंजर बहुत ही बढि़या आते हैं.

लीची में परागण मधुमक्खियों द्वारा होता है इसलिए फूल आने के समय कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल न करें वरना फलों पर बुरा असर पड़ेगा.

लीची में मुख्य रूप से नर, मादा व उभयलिंगी फूल आते हैं, जिन में से केवल मादा व उभयलिंगी फूलों में ही फल बनते हैं इसलिए अधिक फलन के लिए मादा फूलों का परागण जरूरी होता है.

फलों का फटना : फल विकसित होने के समय मिट्टी में नमी की कमी और तेज गरम हवाओं से फल अधिक फटते हैं. आमतौर पर जल्दी पकने वाली किस्मों में फल चटकने की समस्या देर से पकने वाली किस्मों की अपेक्षा अधिक पाई जाती है. इस के लिए वायुरोधी पेड़ों को बाग के चारों तरफ लगाएं और फरवरी माह में पौधों के नीचे मल्चिंग करें.

मिट्टी में नमी बनाए रखने के लिए अप्रैल महीने के पहले हफ्ते से फलों के पकने और उन की तुड़ाई तक बाग की हलकी सिंचाई करते रहनी चाहिए और पौधों पर पानी का छिड़काव करें.

अप्रैल माह में पौधों पर 10 पीपीएम एनएए और 0.4 फीसदी बोरेक्स के छिड़काव से फलों के फटने की समस्या कम हो जाती है.

फलों का झड़ना : जमीन में नाइट्रोजन व पानी की कमी और गरम व तेज हवाओं के चलते लीची के फल छोटी अवस्था में ही झड़ने लगते हैं. फल लगने के बाद जमीन में नाइट्रोजन व पानी की कमी न होने दें और जरूरत पड़ने पर एनएए (प्लैनाफिक्स) के 100 पीपीएम घोल का छिड़काव करें.

रबी फसलों को पाले से बचाएं

आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या द्वारा  संचालित कृषि विज्ञान केंद्र, बेलीपार, गोरखपुर के पादप सुरक्षा वैज्ञानिक डा. शैलेंद्र सिंह ने किसानों को सलाह देते हुए बताया कि दिसंबर से जनवरी माह में पाला पड़ने की संभावना अधिक होती है, जिस से फसलों को काफी नुकसान होता है.

उन्होंने जानकारी देते हुए बताया कि जिस दिन ठंड अधिक हो, शाम को हवा का चलना रुक जाए, रात में आकाश साफ हो व आर्द्रता प्रतिशत अधिक हो, तो उस रात पाला पड़ने की संभावना सब से अधिक होती है. दिन के समय सूरज की गरमी से धरती गरम हो जाती है, जमीन से यह गरमी विकिरण के द्वारा वातावरण में स्थानांतरित हो जाती है, जिस के कारण जमीन को गरमी नहीं मिल पाती है और रात में आसपास के वातावरण का तापमान कई बार जीरो डिगरी सैंटीग्रेड या इस से नीचे चला जाता है.

ऐसी दशा में ओस की बूंदें/जल वाष्प बिना द्रव रूप में बदले सीधे ही सूक्ष्म हिमकणों में बदल जाती हैं. इसे ही ‘पाला’ कहते हैं.

पाला पड़ने से पौधों की कोशिकाओं के रिक्त स्थानों में उपलब्ध जलीय घोल ठोस बर्फ में बदल जाता है, जिस का घनत्व अधिक होने के कारण पौधों की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और रंध्रावकाश नष्ट हो जाते हैं. इस के कारण कार्बन डाईऔक्साइड, औक्सीजन, वाष्प उत्सर्जन व अन्य दैहिक क्रियाओं की विनिमय प्रक्रिया में बाधा पड़ती है, जिस से पौधा नष्ट हो जाता है.

उन्होंने यह भी कहा कि पाला पड़ने से पत्तियां व फूल मुरझा जाते हैं और झुलस कर बदरंग हो जाते हैं. दाने छोटे बनते हैं. फूल झड़  जाते हैं. उत्पादन अधिक प्रभावित होता है.

पाला पड़ने से आलू, टमाटर, मटर, मसूर, सरसों, बैगन, अलसी, जीरा, अरहर, धनिया, पपीता, आम व अन्य नवरोपित फसलें अधिक प्रभावित होती हैं. पाले की तीव्रता अधिक होने पर गेहूं, जौ, गन्ना आदि फसलें भी इस की चपेट में आ जाती हैं.

पाले से बचाव के तरीके

* खेतों की मेंड़ों पर घासफूस जला कर धुआं करें. ऐसा करने से फसलों के आसपास का वातावरण गरम हो जाता है. पाले के प्रभाव से फसलें बच जाती हैं.

* पाले से बचाव के लिए किसान फसलों में सिंचाई करें. सिंचाई करने से फसलों पर पाले का प्रभाव नहीं पड़ता है.

* पाले के समय 2 लोग सुबह के समय एक रस्सी के दोनों सिरों को पकड़ कर खेत के एक कोने से दूसरे कोने तक फसल को हिलाते रहें, जिस से फसल पर पड़ी हुई ओस गिर जाती है और फसल पाले से बच जाती है.

* यदि किसान नर्सरी तैयार कर रहे हैं, तो उस को घासफूस की टाटिया बना कर अथवा प्लास्टिक से ढकें. ध्यान रहे कि दक्षिणपूर्व भाग खुला रखें, ताकि सुबह और दोपहर में धूप मिलती रहे.

* पाले से दीर्घकालिक बचाव के लिए उत्तरपश्चिम मेंड़ पर और बीचबीच में उचित स्थान पर वायुरोधक पेड़ जैसे शीशम, बबूल, खेजड़ी, शहतूत, आम व जामुन आदि को लगाएं, तो सर्दियों में पाले से फसलों को बचाया जा सकता है.

* यदि किसान फसलों पर कुनकुने पानी का छिड़काव करते हैं, तो फसलें पाले से बच जाती हैं.

* पाले से बचाव के लिए किसानों को पाला पड़ने के दिनों में यूरिया की 20 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए अथवा थायोयूरिया की 500 ग्राम मात्रा को 1,000 लिटर पानी में घोल कर 15-15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें अथवा 8 से 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करें अथवा घुलनशील सल्फर 80 फीसदी डब्लूडीजी की 40 ग्राम मात्रा को प्रति 15 लिटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव किया जा सकता है.

* ऐसा करने से पौधों की कोशिकाओं में उपस्थित जीवद्रव्य का तापमान बढ़ जाता है और वह जमने नहीं पाता है. इस तरह फसलें पाले से बच जाती हैं.

* फसलों को पाले से बचाव के लिए म्यूरेट औफ पोटाश की 15 ग्राम मात्रा प्रति 15 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव कर सकते हैं.

* फसलों को पाले से बचाने के लिए ग्लूकोज 25 ग्राम प्रति 15 लिटर पानी की दर से घोल बना कर किसान अपने खेतों में छिड़काव करें.

* फसलों को पाले से बचाव के लिए एनपीके 100 ग्राम व 25 ग्राम एग्रोमीन प्रति 15 लिटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव किया जा सकता है.

अधिक जानकारी के लिए कृषि विज्ञान केंद्र, बेलीपार, गोरखपुर के वैज्ञानिकों से संपर्क करें या पादप सुरक्षा वैज्ञानिक डा. शैलेंद्र सिंह के मोबाइल नंबर 9795160389 पर संपर्क करें.