कमाल का है रैबिट हर्बल हेयर औयल

अविकानगर (राजस्थान): दक्षिण भारत के राज्य तमिलनाडु, पुडुचेरी, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश एवं  तेलंगाना आदि में खरगोशपालन एक अच्छा रोजगार बन चुका है. इस के बढ़ते चाव को देखते हुए निदेशक, अविकानगर संस्थान डा. अरुण कुमार तोमर द्वारा सैंटर के आसपास के रैबिट इकाई का भ्रमण किया गया.

प्रगतिशील खरगोशपालक किसान एम. शर्मीला और करनाप्रकाश व मिसेस करनाप्रकाश जिला पोलाची द्वारा निदेशक एवं टीम को अवगत कराया कि रैबिट ब्लड मिक्स्ड हर्बल हेयर औयल, जिसे खरगोश के खून को मिला कर तैयार किया गया है, यह तेल सिर के बालों के लिए बहुत पसंद किया जा रहा है.

Rabbit Blood Oilरैबिट ब्लड मिक्स्ड हर्बल हेयर औयल के कई फायदों के बारे में किसानों ने बताया कि यह सिर के बालों के लिए बहुत फायदेमंद है. जैसे बालों की ग्रोथ न होना, बालों को काला करना व मजबूती देना और बालों के टूटने की समस्या को दूर करता है. इस तेल की पड़ोसी देशों मे भी खासी मांग है खासकर श्रीलंका, मलयेशिया, सिंगापुर आदि देशों में इस तेल की सप्लाई है.

तमिलनाडु राज्य के संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डा. एएस राजेंद्रयन, जो कि लंबे समय तक दक्षिण सैंटर पर काम कर चुके हैं ने बताया कि रैबिट ब्लड मिक्स्ड हर्बल हेयर औयल मानव में सिर के बालों का रूसी कम करने, बालों का झड़ना कम करना, बालों के सफेद होने को रोकना, सिर के बालों की थिकनैस, लंबाई और ग्रोथ को बढ़ाता है. साथ ही, समय से पहले सिर के बालों के काला रंग को कमजोर होने की दर को रोकता है.

उन्होंने यह भी बताया कि यह औयल कंप्यूटर और डिजिटल स्क्रीन पर लंबे समय तक काम करने के चलते होनी वाली  आखों की तिलमिलापन को रोकने और कम करने में मदद करता है.

Rabbit Blood Oilइन्हीं खूबियों की वजह से खरगोशपालक द्वारा 100 एमएल रैबिट ब्लड मिक्स्ड हर्बल हेयर की कीमत कम से कम 200 से 300 रुपए तक बेची जा रही है. इस के चलते दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य के खरगोशपालक इस औयल के निर्माण से खरगोश के मांस से भी ज्यादा कमाते हैं. जो लोग रैबिट मीट खाने में हिचकिचाते हैं, वे उस के औयल को आसानी से बिना कोई दिक्कत के उपयोग कर रहे हैं.

डा. राजेंद्रयन ने बताया कि अभी इस के उपभोक्ता ही इस का प्रचारप्रसार अपने अनुभव और फायदे के आधार पर कर रहे हैं, जिस के करना तमिलनाडु में कई किसान 1,000 से 2,000 तक रैबिट इकाई संचालित कर रहे हैं. इस का वास्तविक वैज्ञानिक कारण अभी तक पता नहीं, जो भविष्य का अनुसंधान का विषय है, जबकि माना यह जाता है कि रैबिट ब्लड में सल्फरयुक्त अमीनो एसिड और बायोटिन विटामिन की बहुतायत रहती है. इन सब के अलावा भी बहुत से अमीनो एसिड और उन के विभिन्न  अवयव की मात्रा भी मिलती है.

उत्तरप्रदेश में हाईटैक नर्सरी बढ़ाएगी किसानों की आमदनी

लखनऊ : उत्तर प्रदेश में किसानों को विभिन्न प्रजातियों के उच्च क्वालिटी के पौधे उपलब्ध कराने के उद्देश्य से इजराइली तकनीक पर आधारित हाईटैक नर्सरी तैयार की जा रही है. यह काम मनरेगा अभिसरण के तहत उद्यान विभाग के सहयोग से कराया जा रहा है और राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत गठित स्वयं सहायता समूहों की दीदियां भी इस में हाथ बंटा रही हैं. इस से स्वयं सहायता समूहों को काम मिल रहा है.

उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने बताया कि इस योजना के क्रियान्वयन से कृषि और औद्यानिक फसलों को नई ऊंचाई मिलेगी. विशेष तकनीक का प्रयोग कर के ये नर्सरी तैयार की जा रही हैं. सरकार की मंशा है कि प्रदेश का हर किसान समृद्ध बने और बदलते समय के साथ किसान हाईटैक भी बने.

उन्होंने आगे बताया कि सरकार पौधरोपण को बढ़ावा देने के साथ ही बागबानी से जुड़े किसानों को भी माली रूप से मजबूत बनाने का काम कर रही है. मनरेगा योजना से 150 हाईटैक नर्सरी बनाने के लक्ष्य के साथ तेजी से काम किया जा रहा है.

उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के निर्देश व पहल पर ग्राम्य विकास विभाग ने इस को ले कर प्रस्ताव तैयार किया था, जिस को ले कर जमीनी स्तर पर युद्धस्तर पर काम हो रहा है. हाईटैक नर्सरी से किसानों की माली हालत भी मजबूत हो रही है.

प्रदेशभर में 150 हाईटैक नर्सरी बनाने का लक्ष्य रखा गया है. बुलंदशहर के दानापुर और जाहिदपुर में हाईटैक नर्सरी बन कर तैयार भी हो चुकी है. 32 जिलों की 40 साइटों पर ऐसी नर्सरी बनाने का काम किया जा रहा है.

कन्नौज के उमर्दा में स्थित सैंटर औफ एक्सीलेंस फौर वेजिटेबल की तर्ज पर प्रदेश के सभी जनपदों में 2-2 मिनी सैंटर स्थापित करने की कार्यवाही जारी है. किसानों को उन्नत किस्म के पौध के लिए भटकना नहीं पड़ेगा.

समूह के सदस्यों को रोजगार

नर्सरी की देखरेख करने के लिए स्वयं सहायता समूह को जिम्मेदारी दी गई है. समूह के सदस्य नर्सरी का काम देखते हैं, जो पौधों की सिंचाई, रोग, खादबीज आदि का जिम्मा संभालते हैं. इस के लिए स्वयं सहायता समूह की महिलाओं को प्रशिक्षण भी दिया जा चुका है.

किसानों की आय में बढ़ोतरी के लिए सरकार उच्च क्वालिटी व उन्नत किस्म के पौधों की नर्सरी को बढ़ावा देने के लिए तेजी से काम कर रही है. प्रत्येक जनपद में पौधशालाएं बनाने का काम किया जा रहा है. इन में किसानों को फूल और फल के साथ सर्पगंधा, अश्वगंधा, ब्राह्मी, कालमेघ, कौंच, सतावरी, तुलसी, एलोवेरा जैसे औषधीय पौधों को रोपने के लिए जागरूक किया जा रहा है. किसानों को कम लागत से अधिक फायदा दिलाने के लिए पौधरोपण की नई तकनीक से जोड़ा जा रहा है.

अब तक 7 करोड़ रुपए से ज्यादा का भुगतान

उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने बताया कि हाईटैक नर्सरी के निर्माण में अब तक 7 करोड़ से ज्यादा की धनराशि खर्च की जा चुकी है. बुलंदशहर में 2, बरेली, बागपत, मुजफ्फरनगर, मेरठ, महोबा, बहराइच, वाराणसी, बलरामपुर समेत 9 जनपदों में हाईटैक नर्सरी की स्थापना के लिए अब तक 7 करोड़ रुपए की धनराशि का भुगतान किया जा चुका है.

ग्राम्य विकास आयुक्त जीएस प्रियदर्शी ने बताया कि प्रदेश में 150 हाईटैक नर्सरी के निर्माण की कार्यवाही मनरेगा कन्वर्जेंस के अंतर्गत की जा रही है, जिस के सापेक्ष 125 हाईटैक नर्सरी की स्वीकृति जनपद स्तर पर की जा चुकी है.

रसायनों का संतुलित प्रयोग कृषि में लाभकारी

हिसार: वर्तमान समय में कृषि में उपयोग किए जा रहे फफूंदनाशकों और कीटनाशकों के प्रति कीटों और खरपतवारों में प्रतिरोधकता का विकास कृषि उत्पादों की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा बना हुआ है. इस स्थिति से निबटने के लिए नई जैव रासायनिक क्रिया को प्रदर्शित करने वाले नए उत्पादों के विकास की अत्यधिक आवश्यकता है.

यह विचार चैधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर काम्बोज ने व्यक्त किए. वे नोबल पुरस्कार विजेता फ्रांसीसी महिला वैज्ञानिक मैरी क्यूरी की याद में विश्वविद्यालय के मौलिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय के रसायन विज्ञान विभाग व कैंपस स्कूल के सयुक्ंत तत्वावधान में आयोजित रसायन पखवाड़ा के अंतिम दिन ‘किसानों के लिए रसायन विज्ञान’ कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि बोल रहे थे.

कुलपति प्रो. बीआर काम्बोज ने कहा कि लगभग आधी सदी से जैविक रसायन का उपयोग कृषि में खाद्य उत्पादन को बढ़ाने और फसल सुरक्षा के लिए हो रहा है. इन रसायनों का संतुलित प्रयोग कृषि में स्थिरता के लिए जरूरी है.

उन्होंने आगे कहा कि कृषि में कई ज्वलंत मुद्दे हैं, जिन का समाधान रसायन विज्ञान में नवाचार कर के किया जा सकता है.

इन मुद्दों में से एक कृषि में जहरीला धातु संदूषण है. आर्सेनिक, कैडमियम, सीसा और पारा जैसी धातुओं के उच्च स्तर के संपर्क में आने से मनुष्य में गंभीर सेहत संबंधी समस्याएं पैदा होती हैं, जबकि दूसरी ओर लोहा, बोरान और तांबा पौधों के विकास के लिए आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्व हैं. इसलिए ऐसी धातुओं का पता लगाने के लिए उन्नत विश्लेषणात्मक रसायन विज्ञान तकनीकों का उपयोग कर के समयसमय पर किसानों के खेतों से ऐसी जानकारी एकत्र करने की आवश्यकता है.

Fertilizersकुलपति बीआर काम्बोज ने रसायन वैज्ञानिकों से यह भी कहा कि उन के अनुसंधान किसानों के कल्याण के लिए केंद्रित होने चाहिए. जैसे, कम साइटोटौक्सिसिटी वाले नए रोगाणुरोधी और नेमाटीसाइडल का विकास, कृषि रसायन व्यवहार और खतरों की पहचान, कृषि अपशिष्ट के उपयोग के लिए प्रक्रियाओं का विकास, हरित रसायन अनुसंधान और नैनोकण विकास आदि.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि यह प्रशंसा की बात है कि हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के रसायन विज्ञान विभाग द्वारा इन विषयों को अपने अनुसंधान कार्यक्रमों में प्राथमिकता दी गई है.

हरियाणा राज्य उच्च शिक्षा परिषद के सदस्य प्रो. ओम प्रकाश अरोड़ा ने इस कार्यक्रम के विषय को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि हरित क्रांति से पहले भारत को अमेरिका से अनाज मंगाना पड़ता था, लेकिन कृषि वैज्ञानिकों के योगदान से अब हम दूसरे देशों को भी अनाज भेज रहे हैं. उस समय पैदावार बढ़ाने के लिए रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग किया जाता था, जो कि समय की जरूरत थी. लेकिन अब हम जैविक व प्राकृतिक खेती को अपना कर गुणवत्ता से परिपूर्ण अनाज की पैदावार की तरफ भी ध्यान दे रहे हैं.

उन्होंने कहा कि रसायन विज्ञान का फसलों की उपज बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है. बच्चों को किताबी जानकारी के साथसाथ व्याहवारिक जानकारी हासिल करने के लिए उन्होंने प्रेरित किया. उन्होंने हमारे देश के महापुरुषों पर भी प्रकाश डाला.

इस से पूर्व मौलिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. नीरज कुमार ने स्वागत भाषण देते हुए कहा कि विश्वविद्यालय के कैंपस स्कूल के सहयोग से आयोजित किए गए रसायन विज्ञान पखवाड़ा के दौरान भाषण प्रतियोगिता, प्रश्नोत्तरी और वर्किंग मौडल प्रदर्शनी जैसे कार्यक्रम आयोजित किए गए, जिन में स्कूलों और कालेज के विद्यार्थियों ने उत्साहपूर्वक हिस्सा लिया.

कार्यक्रम को रसायन विज्ञान विभाग के अध्यक्ष डा. रजनीकांत शर्मा ने भी संबोधित किया. कार्यक्रम के अंत में कैंपस स्कूल की निदेशक संतोष कुमारी ने धन्यवाद प्रस्ताव प्रस्तुत किया. मंच का संचालन पीएचडी छात्रा सुचेता छाबड़ा ने किया. इस अवसर पर विश्वविद्यालय के सभी महाविद्यालयों के अधिष्ठाता, निदेशक, विभागाध्यक्ष, वैज्ञानिक, विद्यार्थी व कर्मचारी मौजूद रहे.

ये रहे प्रतियोगिताओं के नतीजे

इस कार्यक्रम के तहत आयोजित की गई प्रतियोगिताओं के नतीजे इस प्रकार रहे: भाषण प्रतियोगिता: प्रथम पुरस्कार रिद्धी ने प्राप्त किया, जबकि द्वितीय पुरस्कार रितु और तृतीय पुरस्कार हिमांशी ने जीता. एप्रिसिएशन पुरस्कार प्रिया व अलांशा को मिला. इंटर कालेज प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता में गवर्नमेंट पीजी कालेज, हिसार की रेणुका भारद्वाज, मुस्कान व पंकज प्रथम, जबकि इंदिरा चक्रवर्ती सामुदायिक विज्ञान महाविद्यालय की गुंजन, रेणु व प्रतिभा को द्वितीय पुरस्कार मिला, वहीं हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि महाविद्यालय से नमन, अर्पित कंबोज व प्रिया यादव तीसरे स्थान पर रहे.

इंटर कालेज वर्किंग मौडल प्रदर्शनी में कृषि महाविद्यालय के अंकित गावड़ी व कल्पना यादव प्रथम, ओडीएम महिला कालेज, मुकलान की मुस्कान व दीप्ति द्वितीय और मौलिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय की खुशबू व पुजा देवी तृतीय स्थान पर रहीं.

अंतरविद्यालय प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता में सेंट एंथोनी स्कूल के लक्ष्य, देव मलिक व दिव्यांशी प्रथम, सिद्धार्थ इंटरनेशनल स्कूल के रचित मेहरा, राघव व कनिष्का द्वितीय और दि आर्यन स्कूल के प्रणव, अर्नव गांधी व सात्विकी रेहपड़े तृतीय स्थान पर रहे.

इंटर स्कूल वर्किंग मौडल प्रदर्शनी में: ओपी जिंदल मौडर्न स्कूल के नमन व गुन्मय को ‘प्रकृति से भविष्य तक’ विषय पर प्रथम पुरस्कार मिला, वहीं दि आर्यन स्कूल के आदित्य व दीपिका को ‘वेस्ट मैनेजमेंट’ विषय पर द्वितीय, जबकि डीएवी पुलिस पब्लिक स्कूल, हिसार की इशिका व अनु को तृतीय पुरस्कार मिला.

इसी प्रकार दि श्रीराम यूनिवर्सल स्कूल की समृद्धि व अनिंदया, सेंट मैरी स्कूल, हिसार की मनु सुनंदन व नंदिता और दिल्ली पब्लिक स्कूल, हिसार के अभय व शिवम को एप्रिसिएशन पुरस्कार मिला.

जंगल की आग – पलाश

पलाश को हिंदी में ढाक, बंगाली में पलाश, मराठी में पलस, गुजराती में खाखरो, तेलुगु में मोंदुगा, तमिल में परस, कन्नड़ में मुलुगा, मलयालम में पलास औैर वैज्ञानिक भाषा में ब्यूटिया मोनोस्पर्मा कहते हैं. मार्च माह में पूरा पेड़ सिंदूरी यानी लाल रंग के फूलों से लद जाता है और मीलों दूर से यह अपनी मौजूदगी की सूचना देता है. इसी वजह से इसे फ्लेम औफ फौरेस्ट यानी जंगल की आग भी कहते हैं.

भारत में लाख के कीड़े के परपोषी पेड़ के रूप में पलाश का स्थान कुसुम के बाद है. पलाश पर पैदा लाख अच्छी किस्म की नहीं होती, पर मात्रा दूसरी किसी परपोषी जाति पर पैदा लाख से ज्यादा होती है.

पलाश के पेड़ से हासिल लाख के कीडे़ के भू्रण से बेर और दूसरे लाख पोषियों को निवेशित भी किया जाता है, पर कुसुम पर निवेशित नहीं किया जाता है. इसे जड़ चूषकों यानी रूट सकर्स द्वारा पुनर्जीवित यानी फिर से जिंदा किया जा सकता है. इस के विभिन्न भाग भिन्नभिन्न रूपों में उपयोगी हैं :

पत्तियां : पलाश की पत्तियां फरवरी माह में झड़ जाती हैं और नई पत्तियां फूल खिलने के बाद मार्चअप्रैल माह में निकलती हैं. इस की पत्ती में 20-30 सैंटीमीटर वृत्ताकार माप के 3 पत्रक पाए जाते हैं. पत्तियां शीतल, रुक्ष, ग्राही और कफरात शामक होने से प्राचीन काल से ही रेशभर में दोनापत्तल बनाने के काम आती हैं.

ऐसा माना जाता है कि इन में भोजन करने से भूख बढ़ती हैं और पाचन क्रिया ठीक रहती है. आंखों और दिमाग को भी इस से ऊर्जा मिलती है. इन का उपयोग करने के बाद आसानी से अलग कर नष्ट कर सकते हैं.

पूरी तरह से विकसित एक पेड़ से तकरीबन 2,500 से 4,000 तक पत्तियां हासिल होती हैं जो 350 से 400 पत्तलें बनाने के लिए पर्याप्त है. पत्तियों का उपयोग फोड़ाफुंसी, मुहांसे, गिलटी, हीमोराइड्स वगैरह के उपचार में इस्तेमाल किया जाता है. इस की पत्तियों में मौजूद ग्लूकोसाइड के चलते ये पौष्टिक चारे के रूप में भी इस्तेमाल होती हैं.

बीज : पलाश की फली मई माह में पक कर तैयार हो जाती है. फली की नोक पर पाया जाने वाला बीज लालकथई रंग का, अंडाकार या गुरदाकार होता है. इस के बीजों में 8-10 फीसदी काइनो तेल, 18 फीसदी एल्युमिनाइड व कुछ फीसदी शर्करा पाई जाती है. बीज और तेल में कृमिनाशक गुणों के चलते इन का इस्तेमाल बुखार, मलेरिया, फीताकृमि व गोलकृमि के इलाज में किया जाता है. तेल व इस की खली में पाया जाने वाला लिपिडरहित पदार्थ कीटनाशक होता है. इसे तेल और खली से अलग कर कीटनाशक के रूप में उपयोगी बनाने के लिए अनुसंधान जारी है. पलाश के बीजों का इस्तेमाल तेल, साबुन उद्योग में भी किया जाता है, जबकि इस की खली प्रोटीन से भरपूर होती है.

फूल : इस के फूल बाहर से मखमली भूरे पीले व भीतर की ओर सिंदूरी लाल रंग के होते हैं और मार्च माह में पूरे वनों में अपनी मौजूदगी दिखाते हैं. इस वजह से ही इन्हें फ्लेम औफ फौरेस्ट कहते हैं. इस के फूलों में सुगंध न होने के चलते लुभावने रंग, पौष्टिक परागण और रस के कारण अनेक कीटों को लुभाते हैं.

Palashअर्क के रूप में पलाश के सूखे फूलों से पीला रंग हासिल होता है जिस में फिटकरी, चूना मिला कर गहरा सिंदूरी या नारंगी रंग हासिल करते हैं जो सिल्क, दूसरे कपड़े यानी फैब्रिक, लकड़ी या खाद्य पदार्थों को रंगने के काम आता है. इस रंग से रंगे हुए कपड़े पांडुरोगी को पहनाने से इस रोग की बढ़वार पर रोक लगती है और चर्म रोग व चेचक के प्रकोप से भी बचाव होता है. फूल सूजन, प्रदाह या जलन को कम करते हैं. होली पर आज भी पलाश के फूलों से रंग बनाया जाता है.

जड़ : पलाश की नई जड़ों से रेशा निकलता है, जो मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में रस्सियां वगैरह बनाने के काम आता है. इस की जड़ की छाल ब्लडप्रैशर के इलाज में फायदेमंद है.

लकड़ी : इस की लकड़ी आमतौर पर गांवदेहात में ईंधन के रूप में इस्तेमाल होती है. इस की छाल से हासिल अर्क का इस्तेमाल नजला और खांसी के इलाज में किया जाता है.

गोंद : इस की छाल की दरारों और कृत्रिम चीरों से लाल रस निकलता है जो सूख कर लाल गोंद बन जाता है. इसे ढाक का गोंद या बंगाल कीनो कहते हैं. इस में कार्नटिक अम्ल और गौलिक अम्ल 50 फीसदी पिच्छल द्रव्य व 2 फीसदी क्षार पाए जाते हैं. इस गोंद को पुनिया गोंद या कमरकस कहते हैं. यह त्वचा की बीमारियों, मुंह से संबंधित बीमारी, अतिसार, पेचिस, पेट संबंधी बीमारी और दूसरी बीमारियों में बेहद उपयोगी है.

लाख : लाख एक रेजिन स्राव है, जो लेसिफर लेक्का नामक कीट द्वारा स्रावित किया जाता है. यह कीट पलाश के पेड़ परजीवी के रूप में रहता है. एक साल में 2 बार यह हासिल किया जा सकता है.

अप्रैलमई माह में लाख का उत्पादन कम होता है, लेकिन सुनहरे रंग के कारण इस की कीमत ज्यादा होती है, जबकि अगस्तसितंबर माह में हासिल होने वाला लाख गहरे रंग का होने के चलते अपेक्षाकृत कम कीमत में बिकता है.

लाख का उपयोग खोखले गहनों के अंदर भरने, लाख के गहने, खिलौने व ग्रामोफोन रिकौर्ड बनाने में किया जाता है.

इस तरह पलाश दोना, पत्तल कारोबार व लाख उत्पादन के चलते किसानों के लिए कृषि वानिकी के तहत उपयुक्त होता है और प्रयोगों द्वारा इस से खेती की पैदावार पर भी कोई हानिकारक प्रभाव नहीं होने की पुष्टि हो चुकी है. यह लवणीय मिट्टी के सुधार के लिए भी काफी उपयोगी है.

गेहूं की उन्नत खेती कैसे करें

धान्य फसलों में गेहूं की फसल काफी महत्त्वपूर्ण है. भारत में इस का भूसा पशुओं को खिलाते हैं. गेहूं के आटे में खमीर पैदा कर के इस का इस्तेमाल डबलरोटी, बिसकुट वगैरह तैयार करने के लिए किया जाता है. गेहूं प्रोटीन का मुख्य स्रोत है, जिस में औसतन 14.7 फीसदी प्रोटीन पाया जाता है.

भारत में गेहूं का ज्यादातर क्षेत्रफल उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, मध्य प्रदेश वगैरह राज्यों में है. उत्तर प्रदेश देश का सर्वाधिक क्षेत्र 82.19 लाख हेक्टेयर में गेहूं पैदा करने वाला राज्य है. उत्तर प्रदेश गेहूं का सालाना उत्पादन 152.85 लाख टन करता है.

फसल की पूरी अवधि के लिए 10-15 सैंटीमीटर बारिश (पानी) और 25-26 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान सही है.

गेहूं को बलुई दोमट, बलुई, भारी दोमट या चिकनी मिट्टी वगैरह में उगा सकते हैं, लेकिन इन सभी मिट्टी में दोमट मिट्टी सब से अच्छी मानी जाती है. जमीन का पीएच मान 5.0 से 7.5 तक मुफीद होता है.

खेत की तैयारी

* बोआई के समय जमीन में 16 फीसदी नमी हो.

* खेत खरपतवाररहित हो.

* 21-22 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान हो, इस से कम या ज्यादा तापमान बीजों के अंकुरण के लिए सही नहीं होता है. खेत की अच्छी तैयारी के लिए खेत को एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करनी चाहिए और 3-4 जुताई देशी हल, हैरो या कल्टीवेटर से करनी चाहिए.

* जमीन में नमी बनाए रखने के लिए हर जुताई के बाद पाटा चलाना चाहिए. गेहूं के लिए खेत तब तैयार मानना चाहिए, जब खेत में गीली मिट्टी का लड्डू बना कर ऊपर से छोड़ा जाए तो वह टूटे नहीं.

* छत्तीसगढ़ राज्य के लिए गेहूं की संस्तुति किस्में सुजाता, संगम, राजकंचन डब्लूएच 147, सी 306 वगैरह हैं.

बोआई का सही समय

गेहूं की बोआई का सही समय 15-30 नवंबर है, लेकिन इस के बाद बोआई की जाए तो उपज में भारी कमी आने लगती है. बोआई में देरी होने पर सामान्य अरहर और गेहूं फसल चक्र अपनाना सही होता है.

बीज दर : यह बोने की विधि और समय पर निर्भर है. आमतौर पर 100 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर सही होता है.

बीजोपचार : बीजों को 2.5 ग्राम थीरम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर लेना चाहिए. इस से फसलों को बीजजनित रोगों से बचाया जा सकता है.

बोआई की गहराई : गेहूं के बीज की बोआई के लिए 5 सैंटीमीटर गहराई सही मानी जाती है. इस से ज्यादा गहराई में बीजों का अंकुरण ठीक से नहीं हो पाता है.

सीड ड्रिल से अच्छी बोआई

 

Seed Drill

गेहूं की बोआई आमतौर पर छिटकवां विधि से, हल के पीछे कूंड़ में, सीड ड्रिल द्वारा या हल के पीछे नाई बांध कर डिब्बर विधियों द्वारा की जाती है. इन सभी विधियों में सीड ड्रिल द्वारा बोआई सब से अच्छी विधि मानी जाती है.

 

खाद और उर्वरक : मिट्टी जांच के बाद ही खाद की जरूरत का निर्धारण किया जाना चाहिए.

गेहूं की फसल में आमतौर पर 100-200 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 40-50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर दिया जाना चाहिए. पोषक तत्त्वों को निम्न ढंग से दिया जाना चाहिए:

* आधा नाइट्रोजन और पूरी फास्फोरस व पोटाश बोआई के समय छिड़काव के रूप में.

* एकचौथाई भाग नाइट्रोजन पहली सिंचाई के बाद (25-30 दिन की अवस्था पर) टौप ड्रैसिंग के दौरान.

* बाकी एकचौथाई भाग नाइट्रोजन पर्णीय छिड़काव के समय.

जल प्रबंधन : साधारण गेहूं की फसल में 5-6 बार सिंचाई की जरूरत होती है.

* क्राउन रूट इनिटिएशन पर -बोआई के 20-25 दिन बाद.

* कल्ले फूटने पर – बोआई के 40-50 दिन बाद.

* गांठ बनने की अवस्था पर – बोआई के 60-65 दिन बाद.

* फूल आने के समय – बोआई के 90-95 दिन बाद.

* दानों में दूध पड़ने पर – 110-115 दिन बाद.

* दाना कड़ा होने पर – बोआई के 120-125 दिन बाद.

फसल सुरक्षा

Wheatखरपतवार पर नियंत्रण : गेहूं की खरपतवार मुख्य रूप से पोआ घास, जंगली जई, कृष्णनील, हिरनखुटी, गेहूं का मामा (गुल्लीडंडा, बंदराबंदरी) वगैरह पाए जाते हैं. इन की रोकथाम खुरपी से की जा सकती है, इन खरपतवारों को रासायनिक विधि से खत्म करने के लिए भी खरपतवानाशी का उपयोग किया जाता है. कम चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों जैसे गेहूं का मामा व जंगली जई के लिए आइसोप्रोट्यूरौन की 0.75 से 1.0 किलोग्राम दवा को 800-1000 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से अंकुरण से पहले या बाद में 30-35 दिन की अवस्था में करना सही होता है.

रोग नियंत्रण:गेहूं में मुख्य रूप से गेरूई और कंडुआ रोग का प्रकोप अधिक होता है.

गेरूई : इसे रतुआ रोग भी कहते हैं. इस रोग में पत्तियों पर जंग लगा हुआ जैसा लवण दिखाई देता है, इस की रोधक किस्में हैं:

* एचडी 2009 (अर्जुन), यूपी 262, सोनालिका.

* इस की रोकथाम डाइथेन एम 45 या डाइथेन जैड 78 की दवा को 0.2 फीसदी के हिसाब से पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

कंडुआ रोग : इस रोग में बालियों पर काला चूर्ण बन जाता है, जिस से पूरी बाली खराब हो जाती है. इस की रोकथाम के लिए केवल प्रमाणित बीज ही बोएं.

बीजोपचार के लिए 0.25 फीसदी की दर से थीरम या बीटावैक्स का इस्तेमाल करना चाहिए.

कीट नियंत्रण

गेहूं का एफिड : यह कीट पौधों में दाना पड़ने की अवस्था में लगता है, जो बालियों में पड़े दानों का रस चूसता है. इस की रोकथाम बीएचसी या 0.2 फीसदी फौलीडौल के छिड़काव से की जाती है.

दीमक : इस कीट की रोकथाम के लिए एल्ड्रिन की 5 फीसदी धूल 20-30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से करनी चाहिए.

कटाई : फसल पकने पर पत्तियां व बालियां सूख जाती हैं और बालियां मुड़ कर झुक जाती हैं. ऐसी अवस्था में फसल की कटाई की जानी चाहिए.

उपज : बौनी किस्मों में 40-50 क्विंटल दाना प्रति हेक्टेयर और 60-65 क्विंटल भूसा हासिल किया जा सकता है. देशी किस्मों से 25-30 क्विंटल दाना ही मिल पाता है.

हाइड्रोजैल : जल प्रबंधन और अधिक उपज

बढ़ती आबादी के साथसाथ कृषि, उद्योग और शहरी आबादी के बीच पानी की कमी होना अब चिता की बात है. इस समस्या से कैसे निबटा जाए, इस के लिए हर रोज नए प्रयोग भी हो रहे हैं.

जल प्रबंधन की अनेक तरकीबें जैसे ड्रिप व फव्वारा सिंचाई, छोटे पैमाने पर जल संचयन यानी पानी जमा करना मल्चिंग, शून्य या कम से कम जुताई जैसे तरीकों को अपनाया जा रहा है.

खेती में कम से कम पानी की जरूरत हो, इसी संदर्भ में विशेषज्ञों ने ऐसा पदार्थ ईजाद किया जिन्हें हाइड्रोजैल कहा जाता है. यह जल संरक्षण के लिए बेहद उपयोगी तकनीक है.

पूसा हाइड्रोजैल : कृषि की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए पूसा कृषि अनुसंधान संस्थान के कृषि रसायन संभाग के वैज्ञानिकों ने हाइड्रोजैल तैयार किया है जिसे पूसा हाइड्रोजैल का नाम दिया गया है.

यह कृषि रसायन प्राकृतिक पौलीमर सैल्यूलोस पर आधारित है. यह अपने शुष्क वजन के मुकाबले 350-500 गुना अधिक पानी ग्रहण कर फूल जाता है और पौधे की जरूरत के मुताबिक धीरेधीरे जड़ क्षेत्र में अपना प्रभाव छोड़ता है, जिस से पौधे की जड़ में नमी बनी रहती है. यह उत्पाद उच्च तापमान (40 से 50 डिगरी सैल्सियस) पर भी प्रभावी रहता है, इसलिए यह हमारे देश के गरम इलाकों के लिए भी बेहद लाभदायक है.

पूसा हाइड्रोजैल के लाभ : पौधों की जड़ों के आसपास की मिट्टी में नमी बनी रहती है. बारानी क्षेत्रों व सीमित सिंचाई वाले क्षेत्रों में किसानों के लिए पानी की बचत होती है. मिट्टी में पूसा हाइड्रोजैल डालने से सभी तरह की फसलों, जिन में खाद्यान्न व बागबानी फसलें शामिल हैं, में कम सिंचाई करनी पड़ती है. इस प्रकार यह तकनीक सिंचाई, पैसा और समय की लागत को कम करती है.

गेहूं की फसल में इस के असर को जानने लिए पूसा संस्थान व देश के अन्य कई संस्थानों द्वारा परीक्षण किए गए. इन परीक्षणों के नतीजों में पाया गया कि सामान्य तौर पर गेहूं के लिए 5-6 सिंचाइयों की जरूरत रहती है, जबकि पूसा हाइड्रोजैल का इस्तेमाल कर के उपज में नुकसान के बिना आसानी से 2 सिंचाई बचाई जा सकती हैं. इसी तरह मूंगफली, आलू, सोयाबीन, फूलों, शाकीय व अन्य फसलों में भी इस के अच्छे नतीजे देखे गए हैं.

नर्सरी व पौध रोपाई के अच्छे नतीजे : नर्सरी लगाते समय व पौध रोपण के समय पूसा हाइड्रोजैल का प्रयोग अंकुरण व जड़ फुटाव को बढ़ावा देता है. संस्थान के संरक्षित कृषि व प्रौद्योगिकी केंद्र के पौलीहाउस व खेतों में किए गए परीक्षणों में देखा गया है कि गुलदाउदी में पूसा हाइड्रोजैल के इस्तेमाल से अच्छी गुणवत्ता की नर्सरी मात्र 18-20 दिन में तैयार हो जाती है जबकि आमतौर पर नर्सरी तैयार होने में 28-30 दिन का समय लगता है.

मिट्टी में नमी बनाए रखने के लिए पूसा हाइड्रोजैल न केवल बीज के फुटाव, फसल विकास में भी सहायक है, बल्कि  यह पौधे को स्थायी रूप से मुरझाने की स्थिति में लंबे समय तक बचाता है.

कैसे काम करता है पूसा हाइड्रोजैल : मिट्टी में डालने पर पूसा हाइड्रोजैल इसी का एक हिस्सा बन जाता है. इस हाइड्रोजैल के चीनी के दानों जैसे छोटेछोटे कण जड़ के आसपास में सिंचाई या बारिश के बाद अतिरिक्त पानी, जो कि पौधों को नहीं मिल पाता है, को पा कर फूल जाते हैं और पौधों के विकास के दौरान पानी की कमी से पैदा होली वाली स्थिति में जड़ें इन फूले हुए कणों से जरूरत के मुताबिक पानी व पोषक तत्त्व लेती हैं.

कहां और किस कीमत पर : अनेक परिस्थितियों में उगाई जाने वाली अधिकांश फसलों के लिए पूसा हाइड्रोजैल 2.5 से 5.0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना सही माना गया है. बाजार में यह उत्पाद निम्नलिखित कंपनियों द्वारा उपलब्ध कराया जा रहा है:

# कार्बोरंडम यूनिवर्सल प्रा. लि. बैंगलुरु, ब्रांड का नाम कावेरी, मोबाइल नंबर 9449081339.

# अर्थ इंटरनैशनल प्रा. लि., नई दिल्ली, ब्रांड का नाम वारिधर, जी 1, मोबाइल नंबर 9868259735.

इस के अलावा 2 और कंपनियां, हंटिन आर्गेनिक्स प्राइवेट लि., फरीदाबाद व नागार्जुन फर्टिलाइजर्स प्रा. लि., हैदराबाद भी इस उत्पाद को जल्दी ही बाजार में उपलब्ध कराएंगी.

पूसा हाइड्रोजैल की शुरुआती कीमत 1,200 रुपए प्रति किलोग्राम से ले कर 1,400 रुपए प्रति किलोग्राम रखी गई है. कंपनियों से मिली जानकारी के आधार पर मांगानुसार कीमत के कम या ज्यादा होने की संभावनाएं हैं.

हाइड्रोजैल का इस्तेमाल : पूसा हाइड्रोजैल का इस्तेमाल तय किए गए तौरतरीकों के अनुसार ही करें. जरूरत के मुताबिक तय की जाने वाली प्रत्येक विधि में यह ध्यान रखना जरूरी है कि हाइड्रोजैल के कण बीज या पौध के एकदम नीचे या आसपास ही डालें, जिस से पौधें को पूरी नमी मिले.

खास तरीका:

गेहूं, मक्का, दालों, तिलहन वगैरह जैसी फसलों के लिए:

* खेती की तैयारी, पूर्व बोआई व सिंचाई, उर्वरक आदि का प्रयोग सामान्य रूप

से करें.

* हाइड्रोजैल का प्रयोग बोआई के समय सब से ज्यादा लाभदायक है.

* खेत से 20-25 किलोग्राम सूखी मिट्टी लें व उसे एकसमान कर लें. इस में जरूरत के मुताबिक 2.5-5.0 किलोग्राम हाइड्रोजैल व बीज मिलाएं.

* यदि आप डीएपी का प्रयोग कर रहे हैं तो इसे भी खेत में डालने की अपेक्षा मिट्टी जैल के मिश्रण में मिलाना फायदेमंद रहता है.

* तैयार किए गए मिश्रण को सीड ड्रिल या हल द्वारा लाइनों में डालें, बाद में फसल की अवस्था व मिट्टी में नमी के आधार पर सिंचाई करें.

Hydrogelपौध तैयार करने के लिए

कुछ फसलों के लिए पौध भी तैयार करनी होती है जिस के लिए सही वातावरण व पोषण तत्त्वों की तय मात्रा बेहद जरूरी है. पूसा हाइड्रोजैल इस संदर्भ में बहुत उपयोगी है. बोआई से पहले मिट्टी की तैयारी के समय भी इस के इस्तेमाल की सिफारिश की जाती है.

ट्रे में पौध तैयार करने के लिए हाइड्रोजैल (2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है) को सूखे मिट्टी रहित माध्यम में अच्छी तरह मिलाएं. ट्रे को इस मिश्रण से भर लें और ट्रे में बीज बो दें और सामान्य रूप से प्रथम सिंचाई या फर्टीगेशन करें. बाद की सिंचाइयां बीज अंकुरण व समयसमय पर नमी की स्थिति को देखते हुए करनी चाहिए. खेत में पौध तैयार करने के लिए हाइड्रोजैल (2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) और बीज जरूरत के मुताबिक उतनी सूखी मिट्टी में मिलाएं जिसे आसानी से नर्सरी क्षेत्र में समान रूप से फैलाया जा सके.

पौध की खेत में रोपाई के समय

हाइड्रोजैल को सूखी मिट्टी में मिलाएं. तैयार मिश्रण को खेत में बनाई गई कुंड पंक्तियों में समान रूप से डालें. बाद में पौध रोपाई इस तरीके से करें कि डाला गया जैल जड़ के आसपास ही रहे.

डिबलिंग विधि द्वारा फसल (आलू, गन्ना) की रोपाई के समय जैल मिट्टी मिश्रण बीज कलम लगाने के लिए बनाए गए गड्ढों या कुंडों में समान रूप से बांट कर के डालें. बाद में बीज कलम रोप कर कुंड या गड्ढे को ढक दें.

सावधानियां

* पैकेट को अच्छी तरह से बंद कर के रखें, ताकि इस पर नमी का असर न हो.

* बोआई या पौध रोपण के समय हाइड्रोजैल मिट्टी मिश्रण को पूर्ण रूप से नमी रहित सूखी मिट्टी में तैयार करें.

* बीज व मिट्टी के साथ जैल का सभाग मिश्रण करना जरूरी है.

* जैल मृदा मिश्रण का खेत में समान रूप से प्रयोग सुनिश्चित करें.

* नमी रहित स्थान पर ही इस का भंडारण करें.

इसबगोल की जैविक खेती

इसबगोल एक महत्त्वपूर्ण नकदी व औषधीय फसल है. इसबगोल को स्थानीय भाषा में घोड़ा जीरा भी कहते हैं. विश्व की कुल पैदावार की 80 फीसदी इसबगोल की पैदावार भारत में होती है. इस की खेती मुख्य रूप से राजस्थान व गुजरात में की जाती है. इसबगोल को मुख्यतया दानों के लिए उगाया जाता है, पर इस का कीमती भाग इस के दानों पर पाई जाने वाली भूसी है, जिस की मात्रा बीज के भार की 27-30 फीसदी तक होती है.

इसबगोल के भूसी रहित बीजों का इस्तेमाल पशुओं व मुरगियों के लिए आहार बनाने में किया जाता है.

साथ ही, इसबगोल का इस्तेमाल आयुर्वेदिक, यूनानी और एलोपैथिक इलाजों में किया जाता है. इस के अलावा इस का इस्तेमाल रंगाईछपाई, आइसक्रीम, ब्रेड, चौकलेट, गोंद और सौंदर्य प्रसाधन उद्योगों में भी होता है.

उन्नत किस्में

आरआई 89 : यह किस्म राजस्थान की पहली उन्नत किस्म है. इस के पौधों की ऊंचाई 30-40 सैंटीमीटर होती है. यह 110-115 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की उपज 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरआई 1 : सूखे और कम सूखे इलाकों के लिए मुनासिब इस किस्म के पौधों की ऊंचाई 29-47 सैंटीमीटर होती है. यह 115-120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 12-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

जलवायु व जमीन

इसबगोल के लिए ठंडी व शुष्क जलवायु अच्छी मानी जाती है. बीजों के अच्छे अंकुरण के लिए 20-25 डिगरी सैल्सियस के बीच का तापमान अच्छा माना जाता है. इस के पकने की अवस्था पर साफ, सूखा व धूप वाला मौसम बहुत अच्छा रहता है. पकाव के समय बारिश होने पर इस के बीज सड़ने लगते हैं और बीजों का छिलका फूल जाता है. इस से इस की पैदावार व गुणवत्ता में कमी आ जाती है. इस की खेती के लिए दोमट, बलुई मिट्टी, जिस में पानी के निकलने की अच्छी व्यवस्था हो, अच्छी रहती है.

खेत की तैयारी

खरीफ फसल की कटाई के बाद खेत की 2-3 बार जुताई कर के मिट्टी को भुरभुरी बनाएं और फसल से ज्यादा पैदावार लेने के लिए 5-6 टन सड़ी गोबर की खाद या 3 टन सड़ी देशी खाद व फसल के अवशेष 3 टन प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलाएं. जैव उर्वरकों के रूप में 5 किलोग्राम पीएसबी व 5 किलोग्राम एजोटोबेक्टर प्रति हेक्टेयर की दर से 100 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद में मिला कर खेत में डालें.

बीज दर व बोआई

इसबगोल का बीज बहुत छोटा होता है. इसे क्यारियों में छिटक कर मिट्टी में मिलाना चाहिए. इस के फौरन बाद सिंचाई कर देनी चाहिए. इस प्रकार छिटक कर बोआई करने के लिए 4-5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है.

बीजोपचार : इसबगोल की जैविक खेती के तहत फसल को तुलासिया रोग से बचाने के लिए बीजों में नीम, धतूरा व आक की सूखी मिश्रित पत्तियों (1:1:1) से बना पाउडर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से मिलाएं.

Isabgolखरपतवारों की रोकथाम

इसबगोल में 2-3 निराइयों की जरूरत होती है. पहली निराई बोआई के तकरीबन 20 दिनों बाद व दूसरी निराई 40-45 दिनों बाद कर के फसल को खरपतवारों से बचाएं. इस से तुलासिया रोग का हमला भी कम होता है.

सिंचाई

इसबगोल में बोआई के समय, उस के 8 दिनों, 30 दिनों व 65 दिनों बाद सिंचाई करने से अच्छी उपज हासिल होती है.

इसबगोल की फसल में क्यारी विधि के बजाय फव्वारा विधि द्वारा 6 सिंचाइयां (बोआई के समय और 8, 20, 40, 55 व 70 दिनों बाद) करने से अच्छी उपज मिलती है.

कीट व रोग

रोगग्रस्त फसल के अवशेषों को खेत से बाहर कर के नष्ट कर देना चाहिए. गरमी में गहरी जुताई कर के खेत खाली छोड़ें. फसल चक्र अपनाएं यानी बारबार एक ही खेत में इसबगोल की खेती न करें. स्वस्थ, प्रमाणित व रोगरोधी किस्मों का चयन करें.

खेत में इस्तेमाल की जाने वाली गोबर की खाद अच्छी तरह से सड़ी हुई होनी चाहिए. खेत में ट्राइकोडर्मा कल्चर 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की अंतिम जुताई के समय मिलाएं. इसबगोल की जैविक खेती में नीम, धतूरा, आक की सूखी पत्तियों के पाउडर को 1:1:1 के अनुपात में मिला कर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें.

फसल को रोगों व मोयले से बचाने के लिए 12 पीले चिपचिपे पाश यानी फैरोमौन ट्रैप प्रति हेक्टेयर लगाएं. दीमक से बचाव के लिए जमीन में बेवेरिया बेसियाना या मोटाराइजियम (मित्र फफूंद) 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मिलाएं. पर्णीय छिड़काव के रूप में नीम की पत्तियों का अर्क, धतूरा (10 फीसदी) व गौमूत्र (10 फीसदी) का इस्तेमाल मृदरोमिल आसिता और मोयले की रोकथाम के लिए करें. जरूरत के मुताबिक दोबारा छिड़काव करें.

कटाई, मड़ाई व ओसाई

इसबगोल में 25 से 125 तक कल्ले निकलते हैं. पौधों में 60 दिनों बाद बालियां निकलना शुरू होती हैं. तकरीबन 115-130 दिनों में फसल पक कर तैयार हो जाती है.

फसल पकने पर सुनहरी पीली बालियां गुलाबीभूरी हो जाती हैं और बालियों को दबाने पर दाने बाहर आ जाते हैं.

Isabgolफसल के पूरी तरह पकने के 1-2 दिन पहले ही फसल को काट लेना चाहिए. कटाई सुबह के समय करें, जिस से बीजों के बिखरने का डर न रहे. कटी हुई फसल को 2-3 दिन खलिहान में सुखा कर जीरे की तरह झड़का लें व निकले हुए बीजों की सफाई कर के व सुखा कर बोरियों में भर कर सूखी व ठंडी जगह पर भंडारण करें.

उपज व उपयोगी भाग

इसबगोल की औसत उपज 9-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. इस की भूसी की मात्रा बीज के भार की 30 फीसदी होती है, जो सब से कीमती व उपयोगी भाग है. बाकी 65 फीसदी गोली, 3 फीसदी खली और 2 फीसदी खारी होती है. भूसी के अलावा सभी भाग जानवरों को खिलाने के काम आते हैं.

बड़े काम की खेती की मशीनें

पशु ताकत का इस्तेमाल खेती के कामों में दिनोंदिन कम हो रहा है, जिस के चलते इंजन, ट्रैक्टर, पावर टिलर व मोटरों का इस्तेमाल बढ़ रहा है, लेकिन ऐसा कहना ठीक होगा कि देश में सभी पावर साधनों का इस्तेमाल होता रहेगा.

खेती की मशीनों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए एक लंबी योजना तैयार कर के उसे लागू करना होगा. मौजूदा संसाधनों व सामाजिक और माली हालात को ध्यान में रखते हुए छोटे किसानों को सही फार्म मशीनरी के चुनाव पर ज्यादा बल देना होगा. देश के ज्यादातर किसान छोटे किसानों की कैटीगरी में आते हैं, जो ज्यादा पावर वाले व कीमती ट्रैक्टरों को नहीं खरीद सकते.

अगर बीज की बोआई और रोपाई वैज्ञानिक तरीके से की जाए तो पैदावार में औसतन 15 फीसदी की बढ़वार होती है. अगर खरपतवार की रोकथाम, कटाईमड़ाई, सिंचाई और धान या गेहूं व दलहनी फसलों की मड़ाई में वैज्ञानिक तकरीकों को अपनाया जाए तो पैदावार में काफी बढ़ोतरी हो सकती है.

मशीनीकरण व पावर के इस्तेमाल से पैदावार का सीधा संबंध है. भारतीय खेती में पशु पावर और खेतिहर मजदूर शामिल हैं. फिर भी छोटे व मध्यम दर्जे के किसानों के लिए यह पावर पूरी नहीं है. अगर प्रति हेक्टेयर मुहैया पावर को देखा जाए तो विकसित देशों के मुकाबले अभी भी हम काफी पिछड़े हुए हैं.

आधुनिक फार्म मशीनरी के इस्तेमाल से ज्यादातर खेतों से साल में कम से कम 2 फसलें लेना मुमकिन हो गया है. इस के साथसाथ बढि़या मशीनों, बीज व खाद को सही गहराई और दूरी पर डाल कर किसान पैदावार बढ़ाने में काबिल हो सकते हैं. प्रसार व ट्रेनिंग की कमी से किसानों में खेती की मशीनों के प्रति जानकारी की कमी, समय पर बैंकों से लोन हासिल न होना और अच्छी फार्म मशीनरी का समय पर मुहैया न होना वगैरह कुछ ऐसी वजहें हैं, जिन से फार्म मशीनरी का फायदा किसानों को नहीं मिल पा रहा है.

खेती में मशीनों की बढ़ती हुई मांग को देखते हुए ज्यादातर मशीनरी बनाने वाले किसानों को अच्छे ट्रैक्टर व फार्म मशीनरी मुहैया कराने में मददगार हो रहे हैं. किसानों के लिए आधुनिक फार्म मशीनरी मुहैया कराने व मशीनों की मरम्मत व देखभाल की सुविधा देने के लिए पूरे देश में ग्रामीण कारीगर हैं. इन ग्रामीण कारीगरों को मरम्मत की आधुनिकतम सुविधा मुहैया कराने की जरूरत है.

खेती की पैदावार बढि़या मशीनों से कई गुना बढ़ाई जा सकती है जो ताकत का जरीया, अच्छे काम, काम करने वाले की थकान में कमी को ध्यान में रख कर मुमकिन हो सकता है. बहुत सी सरकारी व प्राइवेट कंपनियां और विश्वविद्यालय लगातार फार्म मशीनरी में सुधार का काम कर रहे हैं जो कि इनसानी थकान को कम व भविष्य में खेती के काम को पूरी तरह मशीनी तरीके से करने के लिए प्रतिबद्ध हैं.

बढि़या मशीनों द्वारा कम समय, पैसा, मेहनत और ऊर्जा का इस्तेमाल कर असरदार तरीके से कम थकान व बिना किसी नुकसान के खेती के काम को अंजाम दिया जा सकता है.

Machineहालांकि किसान बढि़या बीज, खाद, फसल हिफाजत के तरीके, सिंचाई व ताकत का इस्तेमाल कर के पैदावार को बढ़ा रहे हैं, लेकिन अभी भी खेती की मशीनों का इस्तेमाल जानकारी की कमी में कम ही कर रहे हैं. नई व बढि़या मशीनों का इस्तेमाल कर के फसलों की पैदावार को काफी तक बढ़ाया जा सकता है.

हमारे देश में खेत छोटेछोटे हैं. खेतों का आकार छोेटा होने की वजह से किसान बड़ीबड़ी व ज्यादा कीमती मशीनें खरीदने और उन का इस्तेमाल करने में नाकाम हैं.

फार्म मशीनरी का इस्तेमाल खेत और दूसरी बातों पर निर्भर करता है. बीज, खाद व कैमिकल बहुत ही खर्चीले तरीके हैं, जिन का इस्तेमाल कर के पैदावार ज्यादा की जाती है.

इस बात को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी हो गया है कि सुधरे व विकसित फार्म मशीनरी का इस्तेमाल किया जाए जो कि बीजों की बोआई की दर पर जरूरत के मुताबिक कंट्रोल व खेत में बोआई समय से करें.

इनसान व पशु पावर स्रोत पर निर्भरता को कम करने के लिए यह जरूरी है कि खेती के कामों को पूरा करने के लिए आधुनिक फार्म मशीनरी का इस्तेमाल किया जाए.

साल 2000-01 में पशु पावर 16.38 फीसदी तक कम हुई व मशीनी पावर में 83.62 की बढ़ोतरी साल 1971-72 के मुकाबले में हुई है. प्रति हेक्टेयर खेती के मजदूरों की संख्या में 0.82-1.44 फीसदी की बढ़वार हुई है, लेकिन फिर भी प्रति हेक्टेयर खेती के मजदूरों की प्रति घंटे पिछले सालों में कई फसलों के लिए कमी पाई गई है.

यह अनुमानित किया गया है कि कुल ऊर्जा का 66-80 फीसदी हिस्सा ग्रामीण इलाकोें में घरों की देखभाल और 16-25 फीसदी खेती उत्पादन में इस्तेमाल होता है.

बिजली विभाग ने कुल बिजली का तकरीबन 85 फीसदी गांवों को मुहैया किया है. खेती में मशीनीकरण का हिस्सा तकरीबन 9-10 फीसदी तक है. खेती हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है जो कि कुल पैदावार का तकरीबन 25 फीसदी है.

पिछले 10 दशकों में फार्म मशीनरी का इस्तेमाल बहुत ही ज्यादा हुआ है. आज के समय में तकरीबन 126 लाख से अधिक ट्रैक्टर, लगभग 9650 कंबाइन, 38.8 लाख से अधिक थ्रेशर व 168 लाख से अधिक सिंचाई के पंप हैं. फार्म मशीनरी कई खेती के कामों जैसे जुताई, बोआई, फसल हिफाजत व गहाई, जोकि तकरीबन 41 फीसदी, 30 फीसदी, 35 फीसदी तक हर किसी के लिए है.

इन बातों को ध्यान में रखते हुए यह बहुत जरूरी है कि बढि़या फार्म मशीनरी को गंवई इलाके में खेती के कामों के लिए इस्तेमाल किया जाए, जिस से उत्पादकता को ज्यादा व फसलों की पैदावार में लगने वाले माली बजट को कम किया जाए.

सरकार द्वारा छोटे और मध्यम कैटीगरी के फार्म मशीनरी बनाने वाले को काफी सुविधाएं दी जा रही हैं. कईर् निर्माता किसानों के लिए ट्रेनिंग का भी प्रावधान रखते हैं, जिस से किसानों को फार्म मशीनरी के इस्तेमाल, देखभाल और मरम्मत की जानकारी हो सके.

सांप हमारे मित्र भी हैं

राजस्थान के जोधपुर जिले के वाइल्ड लाइफर शरद पुरोहित सांपों के व्यवहार के बारे में बताते हैं, ‘‘ मुझे बचपन से ही सांपों ने अपनी ओर आकर्षित किया. मैं ने हमेशा ही इन्हें असहाय पाया. सांपों के कहीं भी दिखाई दे जाने पर इन्हें मार दिए जाने की परंपरा ने मुझे भीतर तक झंझोर दियाहै. उन की इसी अनदेखी के चलते न जाने कब मेरा स्वाभाविक स्नेह इन्हें जिंदगी देने की वजह बन गया.’’

दुनियाभर में सांपों की 3,400 प्रजातियां हैं. इन में से तकरीबन 2,000 तो भारत में ही पाई जाती हैं. चूंकि मेरे काम का क्षेत्र पश्चिमी राजस्थान है, इसलिए मैं ने यहीं पाई जाने वाली प्रजातियों पर ज्यादा काम किया है. तकरीबन 25 ऐसी प्रजातियां हैं, जो राजस्थान में मिल जाती हैं. इन में से कुछ ही सांप जहरीले और घातक होते हैं.

आम लोगों की जिंदगी और किसानों के लिए सांपों का होना क्यों जरूरी है? जैव संतुलन में चूहे इनसानी जिंदगी में सब से बड़े घाटे का सौदा हैं. वे हमारे सब से बड़े दुश्मन हैं. ये चूहे हर साल खाद्यान्न का एक बड़ा हिस्सा चट कर जाते हैं. सांप इन चूहों के सब से बड़े दुश्मन हैं, इसलिए सांपों का सरंक्षण किया जाना बेहद जरूरी है.

सांपों की प्रजातियों में 3 सांप ऐसे भी हैं, जो हमारे लिए घातक हैं, वह भी मुठभेड़ हो जाने पर या छू लेने भर से, वरना खुद से हमला करना इन की फितरत नहीं.

मेरा अनुभव कहता है कि हमारी असावधानी से ही हमारी जानें जाती हैं. कोबरा, करैत, वाइपर ये कुछ ऐसे सांप हैं, जिन से हमारी जान जोखिम में पड़ सकती है.

कोबरा

यह सांप हमारे घरों के आसपास रहना ज्यादा पसंद करता है. यह बहुत ही समझदार  होता है. पहले तो यह हमें सचेत करता है. एकदम हमला नहीं करता. हमारे द्वारा दूरी बनाए रहने तक हम से दूर जाने की कोशिश करता है.

करैत

यह सांप बहुत ही घातक है. अकसर रात को निकलने वाला यह सांप ठंडक से बचने के लिए इनसानी इलाकों के नजदीक चला आता है और नींद में सोए हुए बेकुसूर लोग इस का शिकार बनते हैं. इस के दंश यानी काटने के निशान बहुत सूक्ष्म होते हैं. इस वजह से इस की पहचान बड़ी मुश्किल से हो पाती है.

लोगों में एक गलतफहमी है कि एक पीवणा सांप भी होता है, उस का जिम्मेदार भी यही होता है, लेकिन यह भी बिना छेड़े, हम से दूर भागना पसंद करता है.

वाइपर

इस सांप को शुष्क इलाकों का राजा कहते हैं. यह घातक और विषैला सांप है. यह सांप छोटीछोटी झाड़ियों और मिट्टी में रहना ज्यादा पसंद करता है. करीब जाने पर यह फुंफकारता है. इस की फुंफकार बहुत डरावनी होती है. आम आदमी इसे सुनते ही दूर हट जाता है.

इस की खराबी या अवगुण यह है कि यह बिना छेड़े ही हम पर हमला कर सकता है. इस से दूर रहना ही बचाव है. आम भाषा में इसे ‘भांडी’ यानी ‘पूंछ कटी’ भी कहते हैं.

वाइपर चूहों का बड़ा शिकारी है. जैसलमेर और बाड़मेर जैसे सीमांत इलाकों में इस के डसने की सब से ज्यादा खबरें मिलती हैं.

शहरी इलाकों में है इन का राज

शहरी इलाकों या पुराने शहरी इलाकों में ‘सैंड बोआ’, ‘ग्लोसी बेलिड’, ‘अर्थ बोआ’, ‘वर्मस्नेक’, ‘कोबरा’ जैसे सांप सब से ज्यादा पाए जाते हैं, जो बरसात के दिनों में ज्यादा सक्रिय दिखते हैं.

गांवों और कसबों में बसे खेतों की बात करें, तो ‘सिंड अवल हैडेड’, ‘रैड स्पाटेड’, ‘ब्लैक हैडेड रौयल स्नेक’, ‘एफ्रो एशियन सैंड स्नेक’, ‘कैट स्नेक’, ‘रैट स्नेक’, ‘वुल्फ स्नेक’ जैसे सांप अधिक मिलते हैं.

तो बचाव किस तरह हो

सर्प व्यवहार विशेषज्ञ शरद पुरोहित बताते हैं कि हम क्या करें, जब ये हमारे सामने हों. ऐसे सवाल अकसर ही पूछे जाते हैं. मेरा जवाब होता है, बस अपनी नजरें उन पर जमाए रहें. अगर ये खुली जगह पर हैं तो खुद ही चले जाएंगे और यदि घर में निकल आए हैं तो आप का फर्ज बनता है, कि बिना कोई हलचल किए, बहादुरी दिखाने की कोशिश किए बगैर किसी माहिर सांप विशेषज्ञ की मदद ले कर इन का पुनर्वास सुनिश्चित किया जाए.

इन को भूल कर भी बिना पहचान किए छूने की कोशिश से बचें. लाठी, चिमटा, टोंग वगैरह से प्रहार इन के लिए घातक साबित हो सकता है, ये जितने ताकतवर दिखाई पड़ते हैं, उस से ज्यादा कमजोर इन की हड्डियां और सिर होते हैं. रैस्क्यू के बाद ये जी नहीं पाते, यथासंभव प्रबंधन होना चाहिए, हैंडलिंग बिलकुल भी न करें.

कुछ इलाकों में इन्हें देखते ही मार देने का रिवाज है. मेरा मानना है, चूंकि यह किसानों के परम मित्र हैं, इन्हें सम्मान दिया जाना जरूरी है. ये हमारे जीने की वजह हैं, हमारी जिंदगी में इन की उपयोगिता भी बराबर की है.

सांप को पलकें नहीं दीं, इन्हें सुनाई नहीं देता, इन के हाथपैर, सींग नहीं होते, महज मुंह और रेंगने के लिए पूरा शरीर धरती से चिपकाए रहते हैं. इन की फुंफकार या सर्र की आवाज ही एक हथियार है जो संकट में इन की हिफाजत करती है. अगर यह खुद को फंसा हुआ पाएंगे तो ही आक्रामक होंगे, मुठभेड़ करेंगे. ऐसे सांप जो घातक नहीं हैं, उन्हें खेतों, गोदामों वगैरह में घूमने दें. ये आप को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाएंगे.

तकरीबन 3,000 से भी ज्यादा सांपों की जिंदगी बचा चुके शरद पुरोहित कहते हैं, ‘‘अकसर देखता हूं कि मेरे पहुंचने से पहले ही इन से कोई छेड़खानी हुई हो तो यह सांप आक्रामक नजर आते हैं. इस के उलट अगर माहौल शांत रहा हो तो ऐसा लगता है मानो सांप बहुत कहने में लगता है और खुद ही रैस्क्यू का हिस्सा बन हमारा सहयोगी हो जाता है.

‘‘मुझे ये सांप बेहद शरीफ, सुंदर और आकर्षक लगने के साथसाथ असहाय लगते हैं. रेस्क्यू करने के शुरुआती दिनों में पहलेपहल मेरा परिवार बहुत घबराता था, पर अब वे सहयोगी हैं. हर साल वन विभाग द्वारा इस तरह की कार्यशालाओं का आयोजन किया जाता है.

‘‘मैं जिज्ञासुओं को इन सांपों की पहचान, रैस्क्यू और बाइट प्रबंधन के तरीकों पर ट्रेनिंग देता हूं.  शहर के कई नौजवानों को मैं ने अपने साथ वालंटियर की तरह तैयार कर रखा है. मैं इस काम को वैज्ञानिक तरीके से करने की बारीकियां इन नौजवानों को सिखला रहा हूं.

‘‘कालेज, स्कूल समेत कई विभागों को मैं ने अपनी इस जागरूकता मुहिम में शामिल किया है, पत्रपत्रिकाओं के जरीए भी मेरा प्रयास जारी है.

‘‘खुशी की बात है कि अब मुझे जैसे कुछ जागरूक नौजवानों की बात का असर रंग दिखा रहा है, खासकर जोधपुर में अब कोई इन सांपों को मारता नहीं है.

हर साल जुलाई से अक्तूबर माह तक हम नौजवानों की टीम ‘यूथ अरण्य’ दिनरात मुफ्त सेवा देती रहती है. पर, अफसोस इस बात का है कि प्रशासन इस विषय को कभी आपदा प्रबंधन का हिस्सा नहीं मानता, जबकि यह एक जरूरी काम है कि इनसान और जानवर दोनों बचे रहें, सुरक्षित रहें.

‘‘हमारी जैसी कोशिशें शायद पूरे देश में जारी हैं. सुझाव  है कि सरकारी अस्पतालों में भी इस तरह की एक कार्यशाला रखी जाए और इन की पहचान संबंधी समझ को आम लोगों में गहरे उतारा जाए, को समझाया  जाए. आपातकाल में इन के संबंधित चित्र डिसप्ले हों, ताकि इन के डसने से पीडि़तों को तुरंत इलाज मिल सके.’’

 

सीआरपीएफ के मेन्यू में अब मिलेट्स

रांची : बेहतर स्वास्थ्य, पोषण और ऊर्जा के लिए अब केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल यानी सीआरपीएफ के झारखंड सैक्टर के जवानों और अधिकारियों के भोजन मेन्यू में स्माल मिलेट्स यानी श्रीअन्न भी शामिल किए जाएंगे. स्माल मिलेट्स में आयरन, सूक्ष्म पोषक तत्वों, प्रोटीन और फाइबर की मात्रा गेहूंचावल की तुलना में अधिक रहती है. इसी उद्देश्य से सीआरपीएफ के 10 जवानों के एक दल ने बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के सामुदायिक विज्ञान विभाग में स्माल मिलेट्स के गुणों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और इस से बनने वाले विभिन्न प्रोसैस्ड पदार्थों की निर्माण प्रक्रिया की विधिवत जानकारी प्राप्त करने के लिए तीन दिनों का प्रशिक्षण प्राप्त किया.

सामुदायिक विज्ञान विभाग की अध्यक्ष डा. रेखा सिन्हा और एसआरएफ बिंदु शर्मा ने उन्हें मिलेट्स से तैयार होने वाले विभिन्न उत्पाद जैसे चावल, रोटी, दलिया, खिचड़ी, हलवा, बिसकुट, कुकीज, केक, लड्डू, सेवई, चाऊमीन, मैक्रोनी आदि बनाने की तकनीकी जानकारी दी और विभिन्न मशीनों की कार्यप्रणाली, क्षमता और अनुमानित कीमत के बारे में बताया.

पार्टी कमांडर शिव नारायण किस्कू के नेतृत्व में सीआरपीएफ प्रशिक्षणार्थियों का एक दल आया था.
संयुक्त राष्ट्र के निर्णयानुसार वर्ष 2023 को पूरी दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है. श्रीअन्न में मड़ुआ, गुंदली, बाजरा, कंगनी, सावां, कोदो, कुटकी, चेना, हरी कंगनी आदि शामिल हैं.

विभागाध्यक्ष डा. रेखा सिंह ने बताया कि सीआरपीएफ के आईजी ने कुछ दिन पहले विभाग का भ्रमण किया था और यहां से मड़ुवा कुकीज खरीद कर ले गए थे. इस के स्वाद और गुणों से प्रभावित हो कर उन्होंने अपने दल को प्रशिक्षण के लिए भेजा और कहा कि आवश्यकता के अनुसार वहां मिलेट्स के प्रसंस्कृत उत्पादों के निर्माण के लिए छोटेछोटे प्लांट भी लगाए जाएंगे.

उन्होंने आगे कहा कि अभी कई मिलेट्स बाजार में महंगे मिल रहे हैं, किंतु जैसेजैसे मांग बढ़ेगी, किसान दूसरी फसलें छोड़ कर उन के उत्पादन में लगेंगे और उत्पादकता बढ़ने से आने वाले समय में इन की कीमतों में स्वत: कमी आएगी.