पौलीहाउस में टमाटर  की  खेती

टमाटर अपने लाभदायक गुणों व तमाम उपयोगों के कारण सब से महत्त्वपूर्ण सब्जी वाली फसल है. यह एक बहुत अहम सुरक्षित खाद्य पदार्थ है. इस की खेती सभी जगहों पर की जा सकती है. संसार में आलू व शकरकंद के बाद टमाटर ही सब से अधिक पैदा की जाने वाली सब्जी है.

टमाटर का इस्तेमाल टमाटर सूप, सलाद, अचार, टोमेटो कैचप, प्यूरी व चटनी वगैरह बनाने में किया जाता है. इस के अलावा लगभग हर सब्जी के साथ टमाटर का भी इस्तेमाल किया जाता है.

टमाटर गरम मौसम की फसल है. इस की फसल उन इलाकों में ज्यादा अच्छी होती है, जहां पाला नहीं पड़ता है. लेकिन ज्यादा गरमी और सूखे मौसम में अधिक वाष्पीकरण होने के कारण टमाटर के कच्चे व छोटे फल तेजी से गिरने लगते हैं.

टमाटर की फसल में 38 डिगरी सेंटीग्रेड से ज्यादा तापमान होने पर फल नहीं बनते और पहले से मौजूद फलों का आकार भी बिगड़ जाता है. इसी तरह बहुत कम तापमान (0 से 12 डिगरी सेंटीगे्रड) पर भी फल नहीं बनते. टमाटर में लाइकोपिन नामक वर्णक की मात्रा 20-25 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान पर अधिक बनती है और 27 डिगरी सेंटीग्रेड पर इस वर्णक का उत्पादन तेजी से गिरने लगता है. तापमान 32 डिगरी सेंटीग्रेड  के ऊपर पहुंचने पर लाइकोपिन बनना बंद हो जाता है.

तापमान व फसल में लगने वाले कीड़ों व बीमारियों को ध्यान में रखते हुए अगर टमाटर की खेती पौलीहाउस में की जाए तो कम और ज्यादा तापमान से भी फसल को बचाया जा सकता है. साथ ही फसल को कीड़ों व बीमारियों से भी बचा कर अधिक उत्पादन लिया जा सकता है.

आजकल नेचुरल वैंटीलेटेड पौलीहाउस बनाए जाते हैं, जिन में अलग से पंखे लगाने की जरूरत नहीं होती.

मिट्टी व उस की तैयारी

पौलीहाउस के अंदर टमाटर की खेती के लिए चिकनी दोमट, दोमट या बलुई दोमट जीवांश युक्त मिट्टी जिस का पीएच मान 6.5-7.0 हो, अच्छी रहती है. जमीन की 4-5 बार जुताई कर के उस में 1 मीटर चौड़ा 8-9 इंच उठा हुआ बैड बना देना चाहिए.

बीज की मात्रा : 1 हेक्टेयर खेत की रोपाई के लिए देशी किस्मों का 400 ग्राम बीज या संकर किस्मों का 200 ग्राम बीज जरूरी होता है.

डिटरमिनेट प्रजाति: पूसा अर्ली ड्वार्फ, आजाद टी 6, पूसा गौरव, डीवी आरती 1 व डीवी आरती 2. आमतौर पर अगेती प्रजातियां डिटरमिनेट किस्म की होती हैं. इन की बढ़वार सीमित होती है.

इनडिटरमिनेट प्रजाति : अर्का सौरभ, अर्का विकास, पूसा रूबी, पंत बहार, पंत टमाटर 3 व केएस 17. इन प्रजातियों की लंबाई लगातार बढ़ती रहती है.

संकर किस्में : पूसा हाइब्रिड 2, रूपाली, अविनाश 2, एमटीएच 15, नवीन, राजा, अपूर्वा, अजंता व रश्मि.

खाद व उर्वरक

टमाटर की फसल में उन्नतशील प्रजाति के लिए प्रति हेक्टेयर 200-250 क्विंटल गोबर की खाद, 120-150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60-80 किलोग्राम फास्फोरस और 80-100 किलोग्राम पोटाश की जरूरत होती है. गोबर की खाद 1 माह पहले खेत की तैयारी के समय खेत में मिला देनी चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा रोपाई से पहले खेत में डाल कर 1 मीटर चौड़ा व 8-9 इंच ऊंचा बैड बना देना चाहिए.

Tomatoनर्सरी और रोपाई

1 हेक्टेयर खेत में रोपाई के लिए टमाटर की नर्सरी तैयार करने के लिए 8-9 इंच ऊंची, 1 मीटर चौड़ी व 3 मीटर लंबी क्यारियां लगभग 200 वर्ग मीटर में तैयार की जाती हैं. क्यारियां  (बैड) तैयार करते समय 10-15 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद व 15-20 ग्राम डीएपी प्रति वर्ग मीटर की दर से मिलाएं और 3-4 बार खुदाई कर के बैड को समतल कर लें. फिर उठी हुई क्यारियों में लगभग 1 सेंटीमीटर की गहराई पर 2 सेंटीमीटर की दूरी पर बीजों की बोआई करें. लाइन से लाइन की दूरी 10 सेंटीमीटर रखें. बोआई के बाद हजारे द्वारा हलकी सिंचाई करें.

1 हेक्टेयर खेत की रोपाई के लिए सामान्य किस्म का 400 ग्राम व संकर किस्मों का 200 ग्राम बीज लगता है. बीज हमेशा कार्बंडाजिम या थायरम से उपचारित कर के ही बोआई करें. जब पौधे 5-6 पत्ती वाले या 25-30 दिनों के हो जाएं तो तैयार खेत में 3 इंच गहरे गड्ढे खोद कर पौधे से पौधे की दूरी 45 सेंटीमीटर और लाइन से लाइन की दूरी 60 सेंटीमीटर रखते हुए रोपाई कर देनी चाहिए.

मैदानों व पौलीहाउसों में टमाटर की फसल साल में 2 बार ली जा सकती है. पहली फसल के लिए जुलाईअगस्त में बोआई की जाती है और रोपाई का काम अगस्त के आखिर तक किया जाता है. दूसरी फसल नवंबरदिसंबर में बोई जाती है और पौधों की रोपाई दिसंबरजनवरी में की जाती है.

टमाटर जल्दीजल्दी व उथली निराईगुड़ाई चाहने वाली फसल है, लिहाजा हर सिंचाई के बाद ‘हैंड हो’ या खुरपी द्वारा खेत की ऊपरी सतह को भुरभुरी बनाना चाहिए. गहरी निराईगुड़ाई नहीं करनी चाहिए, इस से जड़ों को नुकसान हो सकता है.

कटाईछंटाई व स्टैकिंग

बाजार में टमाटर शीघ्र उपलब्ध कराने के लिए पौधों की कटाई कर के एक तने के रूप में कर के तार द्वारा ऊपर चढ़ा देते हैं. इस से पौधे अधिक बढ़ते हैं. टमाटर बड़े आकार के होते हैं और ज्यादा पैदावार होती है.

सिंचाई : पौलीहाउस में टमाटर की फसल में सिंचाई ड्रिप (बूंदबूंद) या स्प्रिंकलर विधि द्वारा की जाती है. इस से लगभग 40-50 फीसदी पानी की बचत होती है. गरमियों में 4-5 दिनों के अंतर पर और सर्दियों में 8-10 दिनों के अंतर पर सिंचाई करते हैं.

पौधों को सहारा देना

इनडिटरमिनेट और संकर प्रजातियों में पौधों को सहारा देने की जरूरत होती है. इस के लिए लोहे के तारों को पौलीहाउस के पोलों में बांध देते हैं. जरूरत के मुताबिक तार बांधने के लिए बांसों को जमीन में गाड़ देते हैं. लोहे के तारों से सुतली या प्लास्टिक की रस्सी नीचे लटका कर पौधों की जड़ों के पास बांध देते हैं. इस प्रकार पौधों को सहारा मिल जाता है और वे ठीक ढंग से बढ़ते हैं.

कटाई : टमाटर के फल पकने की अवस्था उसे उगाने के मकसद व एक जगह से भेजे जाने वाली दूसरी जगह की दूरी पर निर्भर करती है. इस के फलों की तोड़ाई इन अवस्थाओं में की जाती है :

हरी अवस्था : अधिक दूर के बाजारों में भेजने के लिए हरे परंतु पूरी तरह विकसित फलों की तोड़ाई करते हैं.

गुलाबी अवस्था : स्थानीय बाजारों के लिए गुलाबी टमाटरों की तोड़ाई करते हैं.

पकी हुई अवस्था : घर के पास लगे पौधों से तुरंत इस्तेमाल के लिए पके लाल टमाटर तोड़े जाते हैं.

पूरी तरह पकी अवस्था : अचार व प्यूरी बनाने व डब्बों में बंद करने के लिए पूरी तरह पके टमाटर तोड़े जाते हैं.

उपज : पौलीहाउस में टमाटर की उपज 800-1000 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हासिल हो जाती है.

बीमारियां

आर्द्रगलन : बीज से पौधा बनते ही नर्सरी में पौधा मुरझा जाता है. ये लक्षण कुछ दिनों बाद दिखाई देते हैं. इस के उपचार के लिए क्यारियों को 1 भाग फार्मलीन में 7 भाग पानी मिला कर बोआई से 15-20 दिनों पहले से शोधित करें और पौलीथीन से ढक दें.

क्यारियों को मैंकोजेब (25 ग्राम दवा को 10 लीटर पानी में मिला कर) और कार्बंडाजिम (20 ग्राम दवा को 10 लीटर पानी में मिला कर) के घोल से लक्षण दिखाई देते ही सींचें.

मरोडिया (लीफ कर्ल) रोग : यह विषाणु से होने वाली बीमारी है, जो सफेद मक्खी द्वारा फैलती है. इस में टमाटर की पत्तियां मुड़ जाती हैं, उन का आकार छोटा हो जाता है, उन की सतह खुरदरी हो जाती है और बढ़वार रुक जाती है. इस की रोकथाम के लिए रोग प्रतिरोधी किस्में जैसे एस 12 लगाएं. इस के अलावा इमिडाक्लोरोपिड 0.5 मिली लीटर  को 1 लीटर पानी में घोल कर स्प्रे करें. पौधशाला में मच्छरदारी का प्रयोग करें.

जड़ों की गांठ वाले सूत्रकृमि : ये सूक्ष्मदर्शी जीव मिट्टी में रहते हैं. इन के प्रकोप से जड़ों में गांठें बन जाती हैं और पौधे पीले पड़ कर मुरझा जाते हैं. इस से बचाव के लिए सूत्रकृमि रहित पौधशाला से ही पौधे लें. रोगग्रस्त इलाकों में 2-3 सालों के लिए प्रतिरोधी किस्म एस 12 लगाएं. हर साल पौधशाला की जगह बदलें और 5-10 ग्राम फ्यूराडान 3जी की मात्रा प्रति वर्ग मीटर की दर से क्यारियों में मिलाएं.

कीट

फलछेदक कीट : यह टमाटर का खास दुश्मन है. इस कीड़े की इल्लियां हरे फलों में घुस जाती हैं और फलों को सड़ा देती हैं.

जैसिड : ये हरे रंग के छोटे कीड़े होते हैं, जो पौधों की कोशिकाओं से रस चूस लेते हैं, जिस के कारण पौधों की पत्तियां सूख जाती हैं.

सफेद मक्खी : ये सफेद छोटे मच्छर जैसे कीड़े होते?हैं, जो पौधों से रस चूस लेते हैं. ये पत्तियां मुड़ने वाली बीमारी फैलाते हैं.

उपचार : फसल की शुरुआती अवस्था में सफेद मक्खी और जैसिड की रोकथाम के लिए 0.05 फीसदी मेटासिस्टाक्स या रोगार का छिड़काव करना चाहिए.

फल छेदक कीट से प्रभावित फलों और कीड़ों के अंडों को जमा कर के नष्ट कर दें और 0.05 फीसदी मेलाथियान या 0.1 फीसदी कार्बारिल का छिड़काव करें. 10 दिनों बाद दूसरा छिड़काव करें.

प्याज व लहसुन में पौध संरक्षण

हमारे यहां प्याज व लहसुन कंद समूह की मुख्य रूप से 2 ऐसी फसलें हैं, जिन का सब्जियों के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है. देश में इन की खपत काफी है और विदेशी पैसा हासिल करने में इन का बहुत बड़ा योगदान है.

वैसे तो दुनिया में भारत प्याज और लहसुन की खेती में अग्रणी है, लेकिन इन की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता दूसरे कई देशों से कम है. इस के लिए दूसरे तमाम उपायों के साथ जरूरी है कि इन फसलों की रोगों व कीड़ों से सुरक्षा. फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले रोगों व कीड़ों की पहचान और उन की रोकथाम करने से काफी हद तक इन फसलों को बचाया जा सकता है.

मुख्य रोग झुलसा

लक्षण : यह रोग पत्तियों और डंठलों पर छोटेछोटे सफेद और हलके पीले धब्बों के रूप में पाया जाता है, जो बाद में एकदूसरे से मिल कर भूरे रंग के धब्बे में बदल जाते हैं व आखिर में ये धब्बे गहरे भूरे या काले रंग के हो जाते हैं.

धब्बे की जगह पर बीज का डंठल टूट कर गिर जाता है. पत्तियां धीरेधीरे सिरे की तरफ से सूखना शुरू करती हैं और आधार की तरफ बढ़ कर पूरी तरह सूख जाती हैं. अनुकूल मौसम मिलते ही यह रोग बड़ी तेजी से फैलता है और कभीकभी फसल को भारी नुकसान पहुंचाता है.

रोकथाम : साफसुथरी खेती फसल को निरोग रखती है. वहीं गरमी के महीने में गहरी जुताई और सौर उपचार काफी फायदेमंद रहता है.

दीर्घकालीन असंबंधित फसलों का फसलचक्र अपनाना चाहिए.

रोग के लक्षण दिखाई देते ही इंडोफिल एम-45 की 400 ग्राम या कौपर औक्सीक्लोराइड-50 की 500 ग्राम या प्रोपीकोनाजोल 20 फीसदी ईसी की 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ के हिसाब से 200 लिटर पानी में घोल बना कर और किसी चिपकने वाले पदार्थ के साथ मिला कर 10-15 दिन के अंतराल पर छिड़कें.

बैगनी धब्बा

लक्षण : यह रोग पत्तियों, तनों, बीज स्तंभों व शल्क कंदों पर लगता है. रोगग्रस्त भागों पर छोटेछोटे सफेद धंसे हुए धब्बे बनते हैं, जिन का मध्य भाग बैगनी रंग का होता है.

ये धब्बे जल्दी ही बढ़ते हैं. इन धब्बों की सीमाएं लाल या बैगनी रंग की होती हैं, जिन के चारों ओर ऊपर व नीचे कुछ दूर तक एक पीला क्षेत्र पाया जाता है.

रोग की उग्र अवस्था में शल्क कंदों का विगलन कंद की गरदन से शुरू हो जाता है. रोगग्रस्त पौधों में बीज आमतौर पर नहीं बनते और अगर बीज बन भी गए तो वह सिकुड़े हुए होते हैं.

रोकथाम : इस रोग की रोकथाम भी झुलसा रोग की तरह ही की जाती है.

आधारीय विगलन

लक्षण : इस रोग के प्रकोप से पौधों की बढ़वार रुक जाती है और पत्तियां पीली पड़ जाती हैं. बाद में पत्तियां ऊपर से नीचे की तरफ सूखना शुरू होती हैं. कभीकभी पौधे की शुरू की अवस्था में इस रोग के कारण जड़ें गुलाबी या पीले रंग की हो जाती हैं और आकार में सिकुड़ कर आखिर में मर जाती हैं.

रोग की उग्र अवस्था में शल्क कंद छोटे रहते हैं और इस रोग का प्रभाव कंदों के ऊपर गोदामों में सड़न के रूप में देखा जाता है.

रोकथाम : आखिरी जुताई के समय रोगग्रस्त खेतों में फोरेट दानेदार कीटनाशी 4.0 किलोग्राम प्रति एकड़ मिट्टी में अच्छी तरह से मिलाएं.

दीर्घकालीन असंबंधित फसलों से 2-3 साल का फसलचक्र अपनाएं. कंद को खुले व हवादार गोदामों में रखना चाहिए.

विषाणु

लक्षण : इस रोग के कारण पत्तियों पर हलके पीले रंग की धारियां बनती हैं और पत्तियां मोटी व अंदर का भाग लहरदार हो जाता है. ऐसे हालात में धारियां आपस में मिल कर पूरी पत्ती को पीला कर देती हैं और बढ़वार रुक जाती है.

रोकथाम : चूंकि यह रोग कीड़ों से फैलता है, इसलिए फसलवर्धन काल में जब भी इस रोग के लक्षण दिखें, उसी समय मैटासिस्टौक्स या रोगोर नामक किसी एक दवा का एक मिलीलिटर दवा का प्रति लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करें. जरूरत पड़ने पर दोबारा छिड़काव करें.

मुख्य कीड़े

इन फसलों को सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाले 2 मुख्य कीड़े हैं, थ्रिप्स (चुरड़ा) व लहसुन मक्खी. इन कीड़ों का प्रकोप फरवरी महीने तक होता है.

थ्रिप्स : इस कीड़े के शिशु व प्रौढ़ दोनों ही पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. प्रौढ़ काले रंग के बहुत ही छोटे, पतले व लंबे होते हैं, जबकि शिशु यानी बच्चे हलके भूरे व पीले रंग के होते हैं. जहां से पत्तियां निकलती हैं, उसी जगह ये कीड़े रहते हैं और नईनई कोमल पत्तियों का रस चूसते हैं.

इन के प्रकोप से पत्ते के सिरे ऊपर से सफेद व भूरे हो कर सूखने व मुड़ने लगते हैं. इस वजह से पौधों की बढ़वार रुक जाती है. ज्यादा प्रकोप होने पर पत्ते चोटी से चांदीनुमा हो कर सूख जाते हैं. बाद की अवस्था में इस कीड़े का प्रकोप होने पर शल्क कंद छोटे रहते हैं और आकृति में भी टूटेफूटे होते हैं. बीज की फसल पर इस कीड़े का बहुत ज्यादा असर पड़ता है.

रोकथाम : इस कीड़े की रोकथाम के लिए बारीबारी से किसी एक कीटनाशक को 200-250 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें.

(क) 1. 75 मिलीलिटर फैनवैलरेट 20 ईसी

      1. 175 मिलीलिटर डैल्टामेथ्रिन 2.8 ईसी
      2. 60 मिलीलिटर साइपरमेथ्रिन 25 ईसी या 150 मिलीलिटर साइपरमेथ्रिन 10 ईसी

(ख) 1.300 मिलीलिटर मेलाथियान 50 ईसी

प्याज व लहसुन में चुरड़ा कीट की रोकथाम के लिए लहसुन का तेल 150 मिलीलिटर और इतनी ही मात्रा में टीपोल को 150 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ में 3 से 4 छिड़काव करें.

थ्रिप्स की रोकथाम के समय बरतें सावधानी

* एक ही कीटनाशी का बारबार इस्तेमाल न करें.

* छिड़काव की जरूरत मार्चअप्रैल महीने में पड़ती है, क्योंकि कीड़ा फरवरी से मई महीने तक नुकसान करता है, इसलिए कोई चिपकने वाला पदार्थ घोल में जरूर मिलाएं.

* छिड़काव के कम से कम 15 दिन बाद ही प्याज इस्तेमाल में लाएं.

Lahsunप्याज व लहसुन मक्खी

कभीकभी इस कीड़े का प्रकोप भी इन फसलों पर देखने में आता है. लहसुन की मक्खी घरों में पाई जाने वाली मक्खी से छोटी होती है. इस के शिशु (मैगट) व प्रौढ़ दोनों ही फसल को नुकसान पहुंचाते हैं.

मादा सफेद मक्खी मटमैले रंग की होती है, जो मिट्टी आमतौर पर बीज स्तंभों के पास मिट्टी में अंडे देती है. अंडों से नवजात मैगट स्तंभों के आधार पर खाते हुए फसल के भूमिगत तने वाले हिस्सों में आक्रमण करते हैं और बाद में कंदों को खाना शुरू कर देते हैं, जिस से पौधे सूख जाते हैं. बाद में इन्हीं कंदों पर आधारीय विगलन रोग का आक्रमण होता है, जिस से बल्ब सड़ने लगते हैं.

रोकथाम : आखिरी जुताई के समय खेत में फोरेट कीटनाशी 4.0 किलोग्राम प्रति एकड़ मिट्टी में अच्छी तरह से मिलाएं और बाद में थ्रिप्स में बताई गई कीटनाशियों का इस्तेमाल करें.

अनार की खेती : कीटरोगों से बचाव व प्रबंधन

अनार की खेती से अच्छी पैदावार लेने के लिए उन्नत किस्मों को इस्तेमाल करने के साथसाथ अनार के बागों को कीट व बीमारी से बचाना भी जरूरी है. अनार में कीट बीमारी लगने पर फल का विकास रुक जाता है. जिस से फल का बाजार भाव भी ठीक नहीं मिलता. इसलिए समय रहते अनार के बागों में कीट बीमारी न पनपने दें, समय रहते उन का निदान करें.

कीट से नुकसान

अनार की तितली या फल छेदक: यह अनार का एक प्रमुख कीट है, जो अनार के विकासशील फलों में छेद कर देता है और अंदर से खाता रहता है. इस वजह से फल फफूंद और जीवाणु संक्रमण के प्रति अतिसंवेदनशील हो जाते हैं.

नियंत्रण : शुरुआती अवस्था में फलों को पौलीथिन बैग से बैगिंग कर के या ढक कर नियंत्रित किया जा सकता है. फास्फोमिडान का 0.03 फीसदी या सेविन का 4 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव कर के भी इस कीट से छुटकारा पाया जा सकता है.

छाल भक्षक : यह कीट रात को तने की छाल खाता है. कीट द्वारा बनाए गए छेद इस के मलमूत्र से भरते जाते हैं, जिस के कारण इस के लक्षणों को भी पहचान पाना बहुत मुश्किल होता है. यह कीट मुख्य तने पर छेद बनाता है और तने के अंदर सुरंगों का एक जाल बना लेता है, जिस के कारण पौधे की शाखाएं तेज हवा चलने पर टूट जाती हैं.

नियंत्रण : इस कीट के प्रभावी नियंत्रण के लिए कीट द्वारा बनाए गए छेदों को डीजल या केरोसिन में रूई भिगो कर बंद कर देते हैं. कीट द्वारा बनाए हुए छेदों में केरोसिन का तेल भर देते हैं. आजकल किसानों द्वारा फलों की बैगिंग की जाती है, जो फलों की गुणवत्ता में सुधार करती है.

रोग

जीवाणु पत्ती धब्बा रोग या औयली धब्बा रोग : यह रोग जेंथोमोनास औक्सोनोपोडिस पीवी पुनिका नामक रोगकारक के द्वारा फैलता है. इस रोग की सब से अधिक समस्या बारिश के मौसम में आती है. इस रोग में पादप के तने, पत्तियां व फलों पर छोटे गहरे भूरे रंग के पानी से लथपथ धब्बे बनते हैं. जब संक्रमण अधिक हो जाता है, तो फल फटने लग जाते हैं.

नियंत्रण : इस के प्रभावी नियंत्रण के लिए स्ट्रेप्टोमाइसीन 0.5 ग्राम प्रति लिटर और कौपर औक्सीक्लोराइड 2.0 ग्राम प्रति लिटर के हिसाब से मिश्रण कर के छिड़काव करें.

फल फटना या फल फूटना : यह अनार में एक गंभीर दैहिक विकार है, जो आमतौर पर अनियमित सिंचाई, बोरोन की कमी और दिन या रात के तापमान में अचानक उतारचढ़ाव के कारण होता है. इस विकार में फल फट जाते हैं, जिस के कारण फलों का बाजार मूल्य कम हो जाता है. इस का सीधा नुकसान उत्पादक को होता है.

नियंत्रण : इस के नियंत्रण के लिए बोरोन का 0.1 फीसदी की दर से और जीए3 का 250 पीपीएम की दर से पर्णीय छिड़काव करें. इस के अलावा मिट्टी में सही नमी बनाए रखें. प्रतिरोधी किस्मों का चयन करें.

सनबर्न : यदि फलों की उचित अवस्था में तुड़ाई नहीं की जाए, तो यह विकार भी एक समस्या के तौर पर उभरता है. इस विकार में फलों की ऊपरी सतह पर काले रंग का गोल स्थान दिखाई देता है. यह फलों की सुंदरता व गुणवत्ता दोनों में कमी करता है, जिस के कारण फलों का बाजार मूल्य कम हो जाता हैं.

नियंत्रण : फलों की बैगिंग करें.

फलों की तुड़ाई

अनार के फलों की तुड़ाई फूल आने से ले कर फल के पकने तक 150 से 180 दिनों के बाद शुरू होती है. लेकिन यह जीनोटाइप, जलवायु हालात और उगाने के क्षेत्र पर निर्भर करता है. फलों की तुड़ाई इष्टतम परिपक्व अवस्था पर करनी चाहिए, क्योंकि जल्दी तुड़ाई करने से फल अधपके और अनुचित पकने लगते हैं, जबकि देरी से तुड़ाई करने पर विकारों का प्रकोप अधिक होने लगता है. इस प्रकार से अनार एक नौनक्लाईमैट्रिक फल (ऐसे फल, जिन्हें तोड़ कर नहीं पकाया जा सकता) है. लिहाजा, फलों को पकने के बाद एक उचित अवस्था में तोड़ना चाहिए.

फलों के पकने और तुड़ाई का आकलन करने के लिए अनेक प्रकार के संकेतों का उपयोग किया जाता है, जैसे गहरा गुलाबी रंग फल की सतह पर विकसित होना. गहरे गुलाबी रंग का निशान ज्यादातर उपभोक्ताओं द्वारा पसंद किया जाता है. अनार के फलों के तल में स्थित कैलिक्स का अंदर की तरफ मुड़ जाना. एरिल का गहरे लाल या गुलाबी रंग में बदलना.

इन निशानों के अलावा फल ज्यादा नहीं पकने चाहिए. फलों की तुड़ाई स्केटर्स या क्लिपर की मदद से करनी चाहिए, क्योंकि फलों को मरोड़ कर खींचने से नुकसान हो जाता है.

उपज

एक स्वस्थ अनार का पेड़ पहले साल में 12 से 15 किलोग्राम प्रति पौधा उपज दे सकता है. दूसरे साल से प्रति पौधे से उपज तकरीबन 15 से 20 किलोग्राम हासिल होती है.

तुड़ाई के बाद प्रबंधन

सफाई और धुलाई : इस विधि में कटाई के बाद फलों को छांट लिया जाता है और रोगग्रस्त और फटे हुए फलों को हटा दिया जाता है. शेष बचे हुए स्वस्थ फलों को आगे के उपचार के लिए चुन लिया जाता है.

छंटाई के बाद फलों को सोडियम हाइपोक्लोराइट के 100 पीपीएम पानी के घोल से धोना चाहिए. यह उपचार माइक्रोबियल संदूषण को कम करने और लंबे शैल्फ जीवन को बनाए रखने में मदद करता है.

पूर्व ठंडा : यह फलों के भंडारण से पहले एक आवश्यक आपरेशन है, इसलिए यह फलों से प्रक्षेत्र ऊष्मा व महत्त्वपूर्ण गरमी को हटाने में मदद करता है, जिस के चलते फलों की शेल्फलाइफ में वृद्धि होती है.

अनार के फलों के लिए मजबूत हवा शीतलन प्रणाली को पूर्व शीतलन के लिए उपयोग किया जाता है, इसलिए इसे 90 फीसदी सापेक्ष आर्द्रता के साथ 5 डिगरी सैल्सियस तापमान के आसपास बनाए रखा जाना चाहिए.

फलों की ग्रेडिंग : फलों को उन के वजन, आकार और रंग के आधार पर बांटा जाता है. विभिन्न ग्रेड फल सुपर, किंग, क्वीन और प्रिंस आकार में बांटें जाते हैं. इस के अलावा अनार को और भी 2 ग्रेडों में बांटा जाता है- 12ए और 12बी. 12ए ग्रेड के फल आमतौर पर दक्षिणी और उत्तरी क्षेत्र में पसंद किए जाते हैं.

ग्रेडेड फल उपभोक्ताओं को आकर्षित करते हैं, जो घरेलू बाजार के साथसाथ अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में अधिक कीमत पाने में मददगार साबित होते हैं.

अनार के फल आमतौर पर उन के आकार और वजन के अनुसार बांट दिए जाते हैं. हालांकि, ग्रेडिंग मानक देश दर देश भिन्न होते हैं. निर्यात के उद्देश्य के लिए राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड के अनुसार ग्रेड विनिर्देश निम्नानुसार हैं :

Anarअनार की पैकेजिंग : अनार के फल घरेलू और स्थानीय बाजारों के लिए लकड़ी के या प्लास्टिक के बक्से में पैक किए जाते हैं. अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए मुख्य रूप से नालीदार फाइबरबोर्ड बक्से का उपयोग किया जाता है और बक्से की क्षमता 4 किलोग्राम या 5 किलोग्राम होनी चाहिए. एगमार्क के विनिर्देशों के अनुसार 4 किलोग्राम क्षमता वाले बक्से का आयाम 375×275×100 मिलीमीटर 3 है और 5 किलोग्राम के लिए बक्से 480×300×100 मिलीमीटर 3 है.

भंडारण : अनार की शैल्फलाइफ के लिए तापमान सब से महत्त्वपूर्ण कारक है, क्योंकि अनार जल्दी खराब होने लग जाते हैं, इसलिए दीर्घकालिक भंडारण के लिए एक इष्टतम तापमान की आवश्यकता होती है.

बहुत कम तापमान फलों में ठंड लगने की चोट को प्रेरित कर सकता है, इसलिए ताजा अनार के फल को भंडारण के लिए एक आदर्श तापमान 5 डिगरी से 6 डिगरी सैल्सियस और 90 से 95 फीसदी सापेक्ष आर्द्रता में भंडारित किया जाता है. इस तापमान पर अनार के फल 3 महीने तक रखे जा सकते हैं.

विपणन

घरेलू बाजारों में अनार के फल 60 से 80 रुपए प्रति किलोग्राम फलों की थोक दर पर बिक्री कर सकते हैं, जबकि दूर के बाजार में इस की कीमत 90 से 150 रुपए प्रति किलोग्राम तक होती है.

मसूर की फसल को कीट व बीमारियों से बचाएं

माहू

मसूर में आमतौर पर माहू सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला कीड़ा है. यह कीट 45 से 50 दिन की अवस्था में पौधों का रस चूसता है, जिस से पौधे कमजोर हो जाते हैं. उपज में 25 से 30 फीसदी तक की कमी हो जाती है.

यह कीट पौधों का रस चूसने के साथसाथ अपने उदर से एक चिपचिपा पदार्थ भी छोड़ता है, जिस से पत्तियों पर काले रंग की फफूंद पैदा हो जाती है. साथ ही, पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया प्रभावित होती है.

प्रबंधन

* फसल की बोआई समय से करने से इस का प्रकोप कम होता है.

* फसल में नाइट्रोजन का ज्यादा इस्तेमाल न करें.

* माहू का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे ट्रैप का इस्तेमाल करें, जिस से माहू ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं.

* परभक्षी कौक्सीनेलिड्स या सिरफिड या फिर क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर 50,000-10,0000 अंडे या सूंड़ी प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.

* नीम का अर्क 5 फीसदी या 1.25 लिटर नीम का तेल 100 लिटर पानी में मिला कर छिड़कें.

* बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

* इंडोपथोरा व वरर्टिसिलयम लेकानाई इंटोमोपथोजनिक फंजाई (रोगकारक कवक) का माहू का प्रकोप होने पर छिड़काव करें.

* जरूरी होने पर इमिडाक्लोप्रिड 200 एसएल/0.5 मिलीलिटर प्रति लिटर, थियोमेथोक्सम 25 डब्लूजी/1-1.5 ग्राम प्रति लिटर या मेटासिस्टौक्स 25 ईसी 1.25-2.0 मिलीलिटर प्रति लिटर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

कर्तन कीट (एग्रोटिस एप्सिलान)

यह कीट मसूर के अलावा सोलेनियसी परिवार के पौधों और कपास व दलहनी फसलों पर भी हमला करता है. यह रात के वातावरण में निकल कर नर व मादा संभोग कर के पत्तियों पर अंडे देते हैं. इन की जीवनचक्र क्रिया वातावरण के हिसाब से 1-2 महीने में पूरी होती है. इस की सूंड़ी जमीन में मसूर के पौधे के पास मिलती है और जमीन की सतह से पौधे और इस की शाखाओं के 30-35 दिन की फसल में काटती है.

प्रबंधन

* खेतों के पास प्रकाश प्रपंच 20 फैरोमौन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगा कर प्रौढ़ कीटों को आकर्षित कर के नष्ट किया जा सकता है, जिस की वजह से इस की संख्या को कम किया जा सकता है.

* खेतों के बीचबीच में घासफूस के छोटेछोटे ढेर शाम के समय लगा देने चाहिए. रात में जब सूंडि़यां खाने को निकलती हैं, तो बाद में इन्हीं में छिपेंगी, जिन्हें घास हटाने पर आसानी से नष्ट किया जा सकता है.

* प्रकोप बढ़ने पर क्लोरोपायरीफास 20 ईसी 1 लिटर प्रति हेक्टेयर या नीम का तेल 3 फीसदी की दर से छिड़काव करें.

सैमीलूपर (प्लूसिया ओरिचेल्सिया)

इस कीट की सूंडि़यां हरे रंग की होती हैं, जो पीठ को ऊपर उठा कर यानी अर्धलूप बनाती हुई चलती हैं, इसलिए इसे सैमीलूपर कहा जाता है. यह पत्तियों को कुतर कर खाती है.

एक मादा अपने जीवनकाल में 400-500 तक अंडे देती है. अंडों से 6-7 दिन में सूंडि़यां निकलती हैं जो 30-40 दिन तक सक्रिय रह कर पूर्ण विकसित हो जाती हैं.

पूर्ण विकसित सूंडि़यां पत्तियों को लपेट कर उन्हीं के अंदर प्यूपा बनाती हैं, जिन से 1-2 हफ्ते बाद सुनहरे रंग का पतंगा बाहर निकलता है.

प्रबंधन

* खेतों की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करनी चाहिए और रोग व कीट प्रतिरोधी जातियों की बोआई करनी चाहिए.

* बीज को कीटनाशी व फफूंदनाशकों से उपचार कर लेना चाहिए.

* खेत में 20 फैरोमौन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं.

* खेत में परजीवी पक्षियों के बैठने के लिए 10 ठिकाने प्रति हेक्टेयर के अनुसार लगाएं.

* प्रकोप बढ़ने पर क्लोरोपायरीफास 20 ईसी 1 लिटर प्रति हेक्टेयर या नीम का तेल 3 फीसदी की दर से छिड़काव करें.

बीमारियों की रोकथाम

उकठा

यह भूमिजनित बीमारी है. बोआई के 20 से 25 दिन के बाद इस बीमारी के प्रकोप से पौधे पीले पड़ने शुरू हो जाते हैं. पौधों का ऊपरी भाग एक तरफ  ?ाक जाता है और अंत में मुर?ा कर पौधा मर जाता है.

उकठा बीमारी से बचाने के लिए उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए. साथ ही, पुरानी फसलों के अवशेषों को मिट्टी में दबा देना चाहिए. खेतों के आसपास सफाई रखें.

रोकथाम

* उकठा बीमारी की रोकथाम के लिए सदैव रोगरोधी प्रजातियों की बोआई करनी चाहिए. जिन क्षेत्रों में यह बीमारी बारबार आती हो, वहां पर 3 से 4 वर्षा तक मसूर की फसल नहीं लेनी चाहिए.

* इस के अलावा बीजों को बोने से पहले थाइरम नामक फफूंदीनाशक से उपचारित करना लाभकारी पाया गया है.

* आजकल उकठा बीमारी के नियंत्रण के लिए पर्यावरण हितैषी ट्राइकोडर्मा नाम फफूंद का प्रयोग भी लाभकारी सिद्ध हो रहा है, जो नियंत्रण के रूप में विभिन्न मृदाजनित बीमारियों की रोकथाम के लिए उपयोगी है.

रतुआ

इस बीमारी में फरवरी या इस के बाद तनों व पत्तियों पर गुलाबी से भूरे रंग के धब्बे बनने लगते हैं, जो बाद में काले पड़ने लगते हैं.

रोकथाम

* इस की रोकथाम के लिए रोगरोधी किस्मों जैसे पंत एल-236, पंत एल-406 व नरेंद्र मसूर-1 का प्रयोग करना चाहिए.

* कटाई के उपरांत रोगग्रसित पौधों को इकट्ठा कर जला देना चाहिए.

* इस के अतिरिक्त बीमारी का अधिक प्रकोप होने पर डाइथेन एम-45 का 0.2 फीसदी घोल का 12 से 15 दिन के अंतराल पर आवश्यकतानुसार छिड़काव करें.

चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू)

आमतौर पर इस बीमारी के लक्षण फसल बोआई के 80 से 90 दिन बाद पत्तियों की निचली सतह पर छोटेछोटे सफेद धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं, जो बाद में सफेद चूर्ण के रूप में पूरी पत्ती, तने और फलियों पर फैल जाते हैं. ज्यादा संक्रमण की हालत में पौधों में हरे रंग की कमी क्लोरोसिस हो जाती है.

रोकथाम

*  रोगग्रस्त पौधों के अवशेषों को इकट्ठा कर के जला देना चाहिए.

* मसूर की रोगरोधी किस्मों को चुनें.

* गंधक 20 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से संक्रमित खेत में बिखेर कर इस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है.

* कुछ सल्फरयुक्त पदार्थ जैसे सल्फेक्स या एक्सेसाल 0.3 फीसदी छिड़काव करने से भी बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है.

कटाई एवं मड़ाई

जब 70 से 80 फीसदी फलियां भूरे रंग की हो जाएं और पौधा पीला पड़ जाए, तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए.

पौधशाला में एकीकृत जीवनाशी प्रबंधन

सही समय पर किसान खेत की जुताई कर के उस में गोबर, कंपोस्ट व बालू मिला कर अच्छी तरह तैयार कर लें. पौधशाला की क्यारी बनाते समय यह भी ध्यान रखें कि वह जमीन से 6-8 सैंटीमीटर उठी हुई हो और चौड़ाई 80-100 सैंटीमीटर ही रखें.

पौधशाला में ट्राईकोडर्मा और सड़ी हुई गोबर की खाद का मिश्रण अच्छी तरह से मिलाएं. जीवाणु आधारित स्यूडोसैल की 25 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से मिट्टी में मिला कर बोआई करें.

बीजों की बोआई करते समय पौधशाला में बीज से बीज व लाइन से लाइन व बीज की गहराई का खास ध्यान रखें.

पौधों को जमने के बाद ट्राईकोडर्मा का 10 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल तैयार कर छिड़काव करें.

पौधशाला में पौध उखाड़ते समय सही नमी होनी चाहिए.

रोपाई के एक दिन पहले पौधशाला में से निकाल कर पौधे को ट्राईकोडर्मा 10 ग्राम प्रति लिटर पानी के हिसाब से खेत में छायादार जगह पर एक फुट गहरा गड्ढा खोद कर उस में पौलीथिन शीट बिछा कर नाप कर पानी भर कर दें और जरूरी मात्रा में ट्राईकोडर्मा को मिला लें, फिर उस में पौधे के गुच्छे बना कर रातभर खड़ा कर दें, जिस से निकट भविष्य में फसल में रोग लगने का खतरा खत्म हो जाता है.

प्रसवकाल में डेरी पशुओं की देखभाल

* पशुशाला में पशुओं के प्रसव के लिए अलग से प्रसवघर का इंतजाम करना चाहिए, जो कि साफसुथरा और हवादार होना चाहिए. फर्श को फिनाइल से धो कर सुखा लें. इस के बाद तुड़ी या पराली बिछा दें. फर्श ऊंचानीचा और फिसलने वाला यानी चिकना नहीं होना चाहिए. इस जगह में रोशनी का सही इंतजाम होना चाहिए.

* ब्याने से लगभग 10 दिन पहले पशु को प्रसवघर में बांधना शुरू कर दें. प्रसव के समय पशु के पास अधिक व्यक्तियों को खड़ा न होने दें और पशु के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ न करें.

* ब्याने के समय यदि पशु खड़ा है तो ध्यान रखें कि बच्चा जमीन पर जोर से न गिरे. जब बच्चा योनि द्वार से बाहर आने लगे तो हाथों द्वारा बाहर निकालने में मादा की मदद करें.

* प्रसव के दौरान मादा को तकलीफ होने लगे या बच्चे का कुछ भाग बाहर आ जाए और पूरा बच्चा बाहर न आए तो उसी समय पशु चिकित्सक की मदद लें. कोशिश करें कि प्रसव के समय पशु विशेषज्ञ आप की पहुंच में हो जिस से पशु को कोई समस्या होने पर उस की तुरंत मदद ली जा सके.

* प्रसव क्रिया शुरू होते ही पशु बेचैन हो जाता है और योनि द्वार से तरल पदार्थ निकलना इस का मुख्य लक्षण है.

* इस समय पानी की थैली बाहर निकलती है जिसे अपनेआप ही फटने दें और छेड़छाड़ न करें. प्रसव के समय बच्चा पहले सामने के पैरों पर सिर टिकी अवस्था में बाहर आता है.

* प्रसव के बाद योनि द्वार पूंछ और पीछे के हिस्से को कुनकुने पानी में तैयार पोटैशियम परमैगनेट के घोल से साफ कर दें. पशु के पास गंदगी को तुरंत हटा दें.

* यदि प्रसव 4 घंटे में न हो तो पशु चिकित्सक की मदद लेनी चाहिए.

* अकसर जेर 5-6 घंटे में बाहर निकल जाता है. यदि जेर 13-14 घंटे तक न निकले तो पशु चिकित्सक को दिखाएं.

विदेशी बागबानी पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी

बेंगलुरु: भाकृअनुप-भारतीय बागबानी अनुसंधान संस्थान (आईआईएचआर), बेंगलुरु में ‘‘विदेशी और कम उपयोग की गई बागबानी फसलें: प्राथमिकताएं एवं उभरते रुझान‘‘ पर 17 अक्तूबर से 19 अक्तूबर, 2023 तक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया.

कर्नाटक के राज्यपाल थावरचंद गहलोत ने प्रोफैसर डा. संजय कुमार सिंह, निदेशक, भाकृअनुप-आईआईएचआर, बेंगलुरु, डा. एनके कृष्ण कुमार, पूर्व उपमहानिदेशक (बागबानी विज्ञान), भाकृअनुप, डा. जेसी राणा, देश के प्रतिनिधि, एलायंस औफ बायोवर्सिटी इंटरनैशनल और डा. वीबी पटेल, सहायक महानिदेशक (फल एवं रोपण फसलें), भाकृअनुप की उपस्थिति में सम्मेलन का उद्घाटन किया.

कर्नाटक के राज्यपालज थावरचंद गहलोत ने विदेशी और कम उपयोग वाली फसलों के टिकाऊ उत्पादन के लिए नवीनतम प्रौद्योगिकियों के बारे में किसानों और अन्य हितधारकों के बीच जागरूकता पैदा करने के लिए भाकृअनुप-आईआईएचआर, बेंगलुरु की सराहना की.

उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि बागबानी फसलों का उत्पादन साल 1950- 51 में 25 मिलियन टन से 14 गुना बढ़ कर तकरीबन 350 मिलियन टन हो गया है और खाद्यान्न उत्पादन से भी आगे निकल गया है.

राज्यपाल थावरचंद गहलोत ने कहा कि आने वाले दिनों में देश कृषि, बागबानी, दुग्ध उत्पादन सहित सभी क्षेत्रों में चमकेगा और विश्व गुरु बनेगा.

इस अवसर पर पांच प्रकाशन जारी किए गए और राज्यपाल थावरचंद गहलोत ने लाइसेंसधारक अर्का कमलम आरटीएस बेवरेज के प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) प्रस्तुत किया.

सैमिनार में शामिल प्रमुख सिफारिशें हैं:

मुख्यधारा के अनुसंधान एवं विकास संस्थानों में कम उपयोग वाली फसलों पर अनुसंधान कार्यक्रमों को समायोजित करने के लिए टास्क फोर्स समितियों का गठन किया जा सकता है. एफएओ के सतत विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिए पोषण सुरक्षा और पर्यावरणीय स्थिरता के लिए जैव पूर्वेक्षण और कम उपयोग वाली फसलों के मूल्यवर्धन के क्षेत्रों में अनुसंधान एवं विकास को मजबूत किया जा सकता है. इंटरनैशनल सैंटर फौर अंडर यूटिलाइज्ड क्रौप्स, यूके के अनुरूप महत्वपूर्ण अपितु कम उपयोग वाली बागबानी फसलों के लिए भाकृअनुप-आईआईएचआर में एक उत्कृष्टता केंद्र (सीओई) स्थापित किया जा सकता है.

फसल संग्रहालयों की स्थापना के माध्यम से कम उपयोग वाली फल फसलों के संरक्षण को मुख्यधारा में लाने के लिए राष्ट्रीय और साथ ही वैश्विक नैटवर्क की स्थापना और जैव विविधता को आजीविका के अवसरों से जोड़ने के लिए कम उपयोग वाली फल फसलों के संरक्षक किसानों की पहचान एवं उन्हें मान्यता देना. पीपीवी और एफआरए संबद्ध आईटीके के साथ कम उपयोग वाली बागबानी फसलों का पंजीकरण शुरू करना शामिल था.

निर्यात के लिए गुंजाइश प्रदान करने वाले सीएसआईआर संस्थानों के सहयोग से फार्मास्युटिकल और औद्योगिक उद्देश्यों के लिए कम उपयोग की गई सब्जियों का उपयोग कर के पोषक तत्वों से भरपूर भोजन व उत्पादों के विकास के माध्यम से छिपी हुई भूख को हल करने के लिए कम उपयोग की गई सब्जियों सहित खाद्य स्रोतों के विविधीकरण पर जोर दिया जाना चाहिए.

नई संभावित देशी और कम उपयोग वाली सजावटी, औषधीय, सुगंधित और मसाला फसलों की पहचान करने और उन के उत्पादन, संरक्षण व कटाई के बाद प्रबंधन प्रथाओं को विकसित करने और सौंदर्य प्रसाधन, न्यूट्रास्यूटिकल्स एवं फार्माकोलौजी के लिए उन के मूल्य की आवश्यकता पर जोर दिया गया.

एफपीओ को प्रोत्साहित कर के पहचानी गई विदेशी और कम उपयोग वाली बागबानी फसलों के लिए समर्पित समूहों का विकास और घाटे को कम करने एवं रिटर्न को अधिकतम करने के लिए मूल्यवर्धन के लिए पायलट पौधों के साथ प्रभावी डेटाबेस व एकीकृत बाजार विकसित करना.

डा. टी. जानकीराम, कुलपति, डा. वाईएसआर बागबानी विश्वविद्यालय, आंध्र प्रदेश समापन सत्र के मुख्य अतिथि थे. इस के अलावा डा. बीएनएस मूर्ति, पूर्व बागबानी आयुक्त, भारत सरकार, सम्मानित अतिथि थे.

सेमिनार में अमेरिका, आस्ट्रेलिया, यूके, इजराइल, मलयेशिया, मैक्सिको, कोरिया और जांबिया जैसे देशों के प्रतिनिधियों सहित कुल 400 प्रतिनिधियों ने भाग लिया. प्रतिभागियों में 71 विश्वविद्यालयों का प्रतिनिधित्व करने वाले 24 राज्यों के लगभग 220 वैज्ञानिक, 160 छात्र और 40 आरए और एसआरएफ शामिल थे. सैमिनार में 150 किसानों और उद्यमियों ने भी हिस्सा लिया.

सेहत के लिए सहजन

सब्जी की दुकान पर आप ने लंबी हरी सहजन की फलियां तो देखी होंगी, सुरजने की फली या कुछ इलाकों में मुनगे की फली भी कहा जाता है. सहजन की यह फली केवल बढि़या स्वाद ही नहीं, बल्कि सेहत और सौंदर्य के बेहतरीन गुणों से भी भरपूर है.

सहजन में एंटीबैक्टीरियल गुण पाया जाता है, इसलिए त्वचा पर होने वाली कोई समस्या या त्वचा रोग में यह बेहद लाभदायक है. सहजन का सूप खून की सफाई करने में मददगार है. खून साफ होने की वजह से चेहरे पर भी निखार आता है. इस की कोमल पत्तियों और फूलों को सब्जी के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है, जो आप को त्वचा की समस्याओं से दूर रख जवां बनाए रहने में मददगार है.

महिलाओं के लिए तो सहजन का सेवन बहुत फायदेमंद होता है. यह पीरियड्स संबंधी परेशानियों के अलावा गर्भाशय की समस्याओं से भी बचाए रखता है.

इस में जरा भी शक नहीं है कि सहजन आप की सैक्स पावर को बढ़ाने में मदद करता है. इस मामले में यह महिलाओं और पुरुषों दोनों के लिए फायदेमंद है. गर्भावस्था के दौरान इस का सेवन मां और बच्चा दोनों के लिए फायदेमंद होता है. गर्भावस्था में इस का सेवन करते रहने से शिशु के जन्म के समय आने वाली समस्याओं से भी बचा जा सकता है.

बचपन में नानीदादी सहजन की सब्जी, सूप वगैरह कितने चाव से बनातीखिलाती थीं. हम सहजन के टुकड़ों को दाल में, सांभर में, सब्जी या गोश्त के साथ कैसे मजे ले कर चूसचूस कर खाते थे.

दक्षिण भारतीय लोग तो अपने खाने में ज्यादातर सहजन का इस्तेमाल करते हैं, चाहे सांभर हो, रस्म हो या मिक्स वेज. दरअसल, हमारे बुजुर्ग जानते हैं कि सहजन में कई तरह के रोगों को दूर करने की कूवत है. सर्दीखांसी, गले की खराश और छाती में बलगम जम जाने पर सहजन खाना बहुत फायदेमंद होता है.

सर्दी लग जाने पर तो मां सहजन का सूप पिलाती थीं. सहजन में विटामिन सी, बीटा कैरोटीन, प्रोटीन और कई प्रकार के लवण पाए जाते हैं. ये सभी तत्त्व शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं और शरीर के पूरे विकास के लिए बहुत जरूरी है.

सहजन में विटामिन सी का लैवल काफी उच्च होता है जो आप की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा कर कई बीमारियों से आप की हिफाजत करता है. बहुत ज्यादा सर्दी होने पर सहजन फायदेमंद है. इसे पानी में उबाल कर उस पानी की भांप लेना बंद नाक को खोलता है और सीने की जकड़न को कम करने में मदद करता है, वहीं अस्थमा की शिकायत होने पर सहजन का सूप पीना फायदेमंद होता है. सहजन का सूप पाचन तंत्र को मजबूत बनाने का काम करता है और इस में मौजूद फाइबर्स कब्ज की समस्या को होने नहीं देते हैं. कब्ज ही बवासीर की जड़ है.

सहजन का सेवन करते रहने से बवासीर और कब्जियत की समस्या नहीं होती है, वहीं पेट की दूसरी बीमारियों के लिए भी यह फायदेमंद है. डायबिटीज नियंत्रित करने के लिए भी सहजन का सेवन करने की सलाह दी जाती है. तो अगर बीमारियों को दूर रखना है तो सहजन से दूरी न बनाएं.

कैसे बनाएं सूप

जरूरी चीजें : 2 कप सहजन के पत्ते, 6 सफेद प्याज टुकड़ों में कटी हुई, 6 लहसुन की कलियां, 2 टमाटर टुकड़ों में कटे हुए, 1 छोटा चम्मच साबुत जीरा, 1 छोटा चम्मच साबुत काली मिर्च, 1 छोटा चम्मच धनिया पाउडर, एकचौथाई छोटा चम्मच हलदी, नमक स्वादानुसार.

बनाने की विधि : सब से पहले सहजन की पत्तियों को धो कर साफ कर लें और इस के मोटे डंठल को तोड़ कर निकाल दें.

धीमी आंच पर एक प्रैशर कुकर में सहजन की पत्तियों, नमक, प्याज, लहसुन, टमाटर, जीरा, साबुत काली मिर्च, हलदी, धनिया पाउडर और पानी डाल कर इसे 4 सीटी लगा कर पकाएं और चूल्हा बंद कर दें.

कुकर का प्रैशर खत्म हो जाने के बाद ढक्कन खोलें. एक बड़े बरतन में उबली हुई सब्जियों को एक चम्मच से दबाते हुए छलनी से छान कर इस का सूप निकाल लें. अब इसे सर्विंग बाउल में निकालें और काली मिर्च बुरक कर गरमागरम सूप सर्व करें और खुद भी पीएं.

सरसों की फसल में माहू कीट का प्रकोप

अगर सरसों की फसल में माहू कीट का प्रकोप हो जाता है, तो ऐसी स्थिति में सरसों के उत्पादन में तकरीबन 25 से 30 फीसदी तक की कमी हो सकती है.

जानिए, माहू कीट क्या है, यह कीट किस तरह से फसल को नुकसान पहुंचाता है और इस कीट का रासायनिक और जैविक विधि से नियंत्रण कैसे करें.

माहू कीट की पहचान : यह कीट छोटे आकार के सलेटी या जैतूनी हरे रंग के होते हैं. इस की लंबाई 1.5-2 मिलीमीटर तक होती है. इस कीट को एफिड, मोयला, चैंपा, रसचूसक कीट आदि अन्य नामों से भी जाना जाता है.

sarsonमाहू कीट के प्रकोप की संभावना : इस कीट का प्रकोप देरी से बोई गई सरसों में ज्यादा होता है. आमतौर पर जब मौसम बदलने लगता है या सर्दी कम होने लगती है, उस समय फरवरीमार्च महीने में माहू कीट का प्रकोप तेजी से होने लगता है.

माहू कीट द्वारा सरसों में नुकसान : यह कीट कोमल पत्तियों और फूलों का रस चूस लेते हैं. जो फली बन रही होती है, उन का भी रस चूस लेते हैं, जिस से फलियां गूदेदार नहीं हो पाती हैं. इस में फलियों में जो दाने बनने चाहिए, वे नहीं बन पाते हैं.

माहू कीट पौधों पर लिसलिसा या चिपचिपा पदार्थ भी छोड़ते हैं. इस वजह से प्रभावित जगह पर काले रंग की फफूंदी आ जाती है, जिस से फूलों की वृद्धि रुक जाती है और फलियों का विकास नहीं हो पाता है. इस के चलते उत्पादन में काफी कमी आ जाती है.

माहू कीट को ऐसे करें काबू : इस कीट के नियंत्रण के लिए मैलाथियान 50 ईसी या डाईमिथोएट 30 ईसी एक लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से पानी में मिला कर छिड़काव करें. साथ में स्टीकर भी मिला लें, जिस से दवा पौधों पर चिपक सके.

जैविक नियंत्रण के लिए नीम की निंबोली के सत का 5 फीसदी पानी में घोल बना कर कीट दिखाई देने पर तुरंत छिड़काव करें.

अनार की उन्नत उत्पादन तकनीक और किस्में

भारत में प्रमुख अनार उत्पादक राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु और राजस्थान हैं. राजस्थान में अनार को जोधपुर, बाड़मेर बीकानेर, चुरू और झुंझुनूं में व्यावसायिक स्तर पर उगाया जाता है. अनार का इस्तेमाल सिरप, स्क्वैश, जैली, रस केंद्रित कार्बोनेटेड कोल्ड ड्रिंक्स, अनारदाना की गोलियां, अम्ल आदि जैसे प्रसंस्कृत उत्पादों के तैयार के लिए भी किया जाता है.

जलवायु

अनार फल की सफलतापूर्वक खेती के लिए शुष्क और अर्धशुष्क मौसम जरूरी होता है. ऐसे क्षेत्र, जहां ठंडी सर्दियां और उच्च शुष्क गरमी होती है, उन क्षेत्रों में गुणवत्तायुक्त अनार के फलों का उत्पादन होता है.

अनार का पौधा कुछ हद तक ठंड को सहन कर सकता है. इसे सूखासहिष्णु फल भी माना जा सकता है, क्योंकि एक निश्चित सीमा तक सूखा और क्षारीयता व लवणता को सहन कर सकता है, परंतु यह पाले के प्रति संवेदनशील होता है.

इस के फलों के विकास के लिए अधिकतम तापमान 35-38 डिगरी सैल्सियस जरूरी होता है. इस के फल के विकास व परिपक्वता के दौरान गरम व शुष्क जलवायुवीय दशाएं जरूरी होती हैं.

मिट्टी

जल निकास वाली गहरी, भारी दोमट भूमि इस की खेती के लिए उपयुक्त रहती है. मिट्टी की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए इसे कम उपजाऊ मिट्टी से ले कर उच्च उपजाऊ मिट्टी तक विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है. हालांकि, गहरी दोमट मिट्टी में यह बहुत अच्छी उपज देता है. यह कुछ हद तक मिट्टी में लवणता और क्षारीयता को सहन कर सकता है.

अनार की खेती के लिए मृदा का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच उपयुक्त रहता है. अनार के पौधे 6.0 डेसी साइमंस प्रति मीटर तक की लवणता और 6.78 फीसदी विनिमयशील सोडियम को सहन कर सकते हैं.

प्रवर्धन विधि

अनार के पौधे को व्यावसायिक रूप से कलम, गूटी और टिश्यू कल्चर के माध्यम से प्रसारित किया जा सकता है.

कलम विधि

यह आसान तरीका है, लेकिन इस की सफलता दर कम है, इसलिए यह विधि किसानों के बीच लोकप्रिय नहीं है. कटिंग या कलम के लिए 9 से 12 इंच (25 से 30 सैंटीमीटर) लंबी एक साल पुरानी शाखा, जिस में 4-5 कलियां हों, का चयन कर लें. कलम लगाने के लिए सब से उपयुक्त समय फरवरी माह होता है.

गूटी या एयर लेयरिंग विधि

एयर लेयरिंग विधि में बेहतर रूटिंग के लिए 2 से 3 साल पुराने स्वस्थ पौधों का चयन करें. इस के बाद पैंसिल आकार की शाखा का चुनाव करें. इस के बाद चुनी गई शाखा में से 2.5-3.0 सैंटीमीटर छाल को उतार लें. इस के बाद जड़ फुटान हार्मोन से 1.5-2.5 ग्राम की दर से उपचारित कर के नम मास घास या फिर कोकोपिट से छिली हुई शाखा को लपेट दें. इस के बाद 300 गेज की पौलीथिन शीट से घास या फिर कोकोपिट से लपेट दें.

पौलीथिन सीट पारदर्शी होनी चाहिए, इस का फायदा यह है कि जड़ें आसानी से दिख जाती हैं. एयर लेयर या गूटी बांधने के बाद आईबीए और सेराडैक्स बी (1,500 से 2,500 पीपीएम) से उपचार करें. इस प्रकार अच्छी रूटिंग 25-30 दिन में पूरी हो जाती है. एकल पौधे से लगभग 150 से 200 गूटी पौधे हासिल किए जा सकते हैं. बारिश का मौसम गूटी के लिए सब से सही है. जड़ों के लिए लगभग 30 दिन का समय लगता है.

45 दिनों के बाद गूटी किए गए पौधों को मातृ पौधे से अलग कर देना चाहिए. जब गूटी किए गए भाग की जड़ें भूरे रंग की होने लग जाएं, तब गूटी किए भाग से तुरंत नीचे के भाग से कट लगा कर मातृ पौधे से अलग कर लेना चाहिए. इस के बाद इन्हें पौलीबैग में उगाया जाता है और शैड नैट या ग्रीनहाउस के तहत 90 दिनों तक सख्त करने के लिए रख दिया जाता है.

Anarउन्नत किस्में

नरम बीज वाली किस्में : गणेश, जालौर सीडलेस, मृदुला, जोधपुर रैड, जी-137 के साथसाथ वर्तमान में गहरे लाल बीजावरण वाली भागवा (सिंदूरी) किस्म पूरे भारत में उगाई जा रही हैं. गणेश किस्म के फल गुलाबी पीले रंग से लालपीले रंग के होते हैं. इस किस्म में नरम बीज होते हैं.

एनआरसी हाईब्रिड-6 और एनआरसी हाईब्रिड-14 दोनों ही अनार की किस्में वर्तमान में प्रचलित किस्म भागवा से उपज व गुणवत्ता में बेहतरीन हैं.

एनआरसी हाईब्रिड-6 : इस किस्म में फल के छिलके और एरिल का रंग लाल, नरम बीज, फल का स्वाद मीठा, न्यूनतम अम्लता (0.44 फीसदी) और अधिक उपज 22.52 किलोग्राम प्रति पौधा व प्रति हेक्टेयर उपज 15.18 टन तक होती है.

एनआरसी हाईब्रिड-14 : इस किस्म में फल के छिलके का रंग गुलाबी व एरिल का रंग लाल, नरम बीज, फल का स्वाद मीठा, न्यूनतम अम्लता (0.45 फीसदी) और अधिक उपज 22.62 किलोग्राम प्रति पौधा व प्रति हेक्टेयर उपज 16.76 टन तक होती है.

भागवा : अनार की भागवा किस्म उपज में बाकी अन्य किस्मों से उत्तम है. यह किस्म 180-190 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस के फल आकार में बड़े, स्वाद में मीठे, बोल्ड, आकर्षक, चमकदार और केसरिया रंग के उच्च गुणवत्ता वाले होते हैं. फल के एरिल का रंग गहरा लाल और बोल्ड आर्टिल वाले आकर्षक बीज होते हैं, जो टेबल और प्रोसैसिंग दोनों उद्देश्यों के लिए उपयुक्त होते हैं.

यह किस्म दूर के बाजारों के लिए भी सही है. यह किस्म अनार की अन्य किस्मों की तुलना में फलों के धब्बों और थ्रिप्स के प्रति कम संवेदनशील पाई गई. इन सभी विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए, महाराष्ट्र के क्षेत्रों में बढ़ते अनार में इस की खेती के लिए ‘भागवा’ किस्म की सिफारिश की जाती है.

अन्य किस्में : रूबी, फुले अरकता, बेदाना, मस्कट, ज्योति, दारू, वंडर और जोधपुर लोकल. यह कुछ महत्त्वपूर्ण किस्में हैं, जिन को व्यावसायिक स्तर पर रोपण सामग्री के रूप में काम में लिया जाता है.

गड्ढे की तैयारी व रोपण

90 दिन पुराने अनार के पौधे मुख्य खेत में रोपाई के लिए तैयार हो जाते हैं. पौधों को लगाने के लिए गड्ढे का उपयुक्त आकार 60 सैंटीमीटर लंबा, 60 सैंटीमीटर चौड़ा, 60 सैंटीमीटर गहरा रखा जाता है.

अनार को लगाने के लिए सब से अधिक वर्गाकार विधि काम में ली जाती है. आमतौर पर रोपण दूरी मिट्टी के प्रकार और जलवायु के आधार पर निश्चित की जाती है.

किसानों द्वारा सब से ज्यादा काम में ली जाने वाली सब से आदर्श रोपण दूरी पौधों के बीच 10 से 12 फुट (3.0 से 4.0 मीटर) और पंक्तियों के बीच 13-15 फुट (4.0 से 5.0 मीटर) है. गड्ढों की खुदाई के बाद इन्हें 10-15 दिन तक धूप में खुला छोड़ दिया जाता है, ताकि गड्ढों में हानिकारक कीडे़मकोडे़ व कवक आदि मर जाएं.

मानसून के दौरान गड्ढों को गोबर की खाद या कंपोस्ट या वर्मी कंपोस्ट (10 किलोग्राम), सिंगल सुपर फास्फेट (500 ग्राम), नीम की खली (1 किलोग्राम) और क्विनालफास 50-100 ग्राम से भर दिया जाता है.

अनार रोपण के लिए इष्टतम समय बारिश का मौसम (जुलाईअगस्त माह) होता है. इस समय पौधों की इष्टतम वृद्धि के लिए मिट्टी में पर्याप्त नमी उपलब्ध होती है.

यद्यपि, अनार को कम उपजाऊ मिट्टी में भी उगाया जा सकता है, परंतु अच्छे उत्पादन व गुणवत्ता वाले फलों के लिए कार्बनिक और रासायनिक खाद का प्रयोग किया जाता है.

अंतरासस्यन : अनार का बगीचा लगाने के बाद 1 से 2 साल अफलन अवस्था में रहता है, इसलिए किसान को इस अवधि के दौरान कोई भी अतिरिक्त आय प्राप्त नहीं होती है. इस फसल प्रणाली में कम या धीरे उगने वाली सब्जियों, दालों या हरी खाद वाली फसलों को इंटरक्रौप के रूप में लेना फायदेमंद रहता है.

शुष्क क्षेत्रों में, बारिश के मौसम में ही अंतरफसल संभव है, जबकि सिंचित क्षेत्रों में सर्दियों की सब्जियां भी अंतरासस्यन के रूप में ली जा सकती हैं. इस प्रकार किसान अंतरासस्यन को अपना कर बगीचे की अफलन अवस्था पर अतिरिक्त आय कमा सकते हैं.

खाद व उर्वरक

खाद व उर्वरक की संस्तुत खुराक के तौर पर 600-700 ग्राम नाइट्रोजन, 200-250 ग्राम फास्फोरस और 200-250 ग्राम पोटाश प्रति पौधे के हिसाब से प्रत्येक वर्ष देनी चाहिए. इस के पश्चात खाद की मात्रा को तालिका के अनुसार दें और 5 वर्ष के बाद खाद की मात्रा को स्थिर कर दें. (बाक्स देखें)

देशी खाद, सुपर फास्फेट व पोटाश की पूरी मात्रा व यूरिया की आधी मात्रा फूल आने के करीब 6 हफ्ते पहले दें. यूरिया की शेष मात्रा फल बनने पर दें. अंबे बहार के लिए उर्वरक दिसंबर माह में देना चाहिए और मृगबहार के फलों के लिए उर्वरक मई माह में देना चाहिए.

सिंचाई

अनार एक सूखा सहनशील फसल है, जो कुछ सीमा तक पानी की कमी में भी पनप सकती है. इस फसल में फल फटने की एक प्रमुख समस्या है, इसलिए इस से बचने के लिए नियमित सिंचाई आवश्यक होती है.

सर्दियों के दौरान 10-12 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें, जबकि गरमियों के मौसम में 4-5 दिन के अंतराल में सिंचाई जरूर करें. सिंचाई के लिए ड्रिप पद्धति का प्रयोग करें. इस से 40 से 80 फीसदी तक पानी की बचत कर सकते हैं और पानी के साथ उर्वरक का भी प्रयोग कर सकते हैं, जिसे फर्टिगेशन के नाम से जाना जाता है. अगर पानी की सुविधा हो, तो अंबे बहार से उत्पादन लें, क्योंकि इस बहार के फल अधिक गुणवत्ता वाले होते हैं, वरना मृगबाहर से ही काम लें.

कटाई और छंटाई

यह वानस्पतिक वृद्धि को नियंत्रित करने व पौधे के आकार और ढांचे को बनाए रखने की एक आशाजनक तकनीक है. इस विधि का सब से मुख्य फायदा यह है कि सूर्य का प्रकाश पौधे के सभी भागों अथवा पौधे के केंद्र तक आसानी से पहुंचता है और खेती किसानी के काम जैसे पादप रसायनों का छिड़काव व फलों की तुड़ाई भी आसान हो जाती है.

अनार में संधाई ट्रेनिंग की मुख्य रूप से 2 विधियां काम में ली जाती हैं :

एकल तना विधि : इस विधि में अनार के पौधे से अन्य शूट यानी तना हटा कर केवल एक शूट रखा जाता है.

बहुतना विधि : इस विधि में पौधे के आधार में 3-4 शूट रख कर पौधे को झाड़ीनुमा आकार में बनाए रखा जाता है. यह विधि बहुत लोकप्रिय और किसानों द्वारा व्यावसायिक खेती के लिए अपनाई जाती है, क्योंकि इस में शूट भेदक के आक्रमण का असर कम होता है और बराबर उपज प्राप्त हो जाती है.