कृषि मेले में कृषि योजनाओं की जानकारी

वाराणसी : कृषि सूचना तंत्र सुदृढ़ीकरण एवं कृषक जागरूकता कार्यक्रम के अंतर्गत जनपद वाराणसी में विकासखंड स्तरीय कृषि निवेश मेला/गोष्ठी का आयोजन पिछले दिनों बलदेव इंटर कालेज, बड़ागांव पर किया गया. कार्यक्रम के मुख्य अतिथि पिंडरा विधानसभा के विधायक डा. अवधेश सिंह ने किसानों को सरकार के द्वारा चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं के बारे में विस्तार से जानकारी दी.

विधायक डा. अवधेश सिंह ने बताया कि पीएम कुसुम योजना बहुत ही महत्वाकांक्षी योजना है, जिस में किसान 10 फीसदी मार्जिन मनी देख कर सोलर पैनल लगवा सकते हैं, जिस से किसानों को फ्री में बिजली प्राप्त होगी.

Krishi Melaविधायक डा. अवधेश सिंह द्वारा किसानों को बताया गया कि खरीफ मौसम की धान की फसल की कटाई चालू हो गई है. किसान अपना धान सरकारी क्रय केंद्र पर ही बेचें, जिस से अधिक लाभ प्राप्त कर सकें. साथ में फसल बीमा करने का आह्वाहन भी किया.

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे जिला कृषि अधिकारी संगम सिंह मौर्य के द्वारा किसानों को रबी फसल गेहूं चना, मटर, सरसों की बोआई के बारे में विस्तार से बताया गया.

उन्होंने आगे कहा कि किसान बोआई करने से पहले बीज का उपचार अवश्य करें. उन्होंने 1.5 फीसदी प्रीमियम दे कर फसल बीमा कराने के लिए किसानों से आग्रह भी किया.

सहायक निदेशक मृदा परीक्षण, वाराणसी, राजेश कुमार राय के द्वारा किसानों को मिट्टी में जीवांश बढ़ाने के लिए आग्रह किया गया, जिस से मिट्टी की उर्वरता बनी रहे और अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकें.

कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक राहुल सिंह के द्वारा समसामयिक खेती की तकनीकी जानकारी दी गई. इस के साथ ही मत्स्य विभाग, पशुपालन विभाग, उद्यान विभाग, नेडा विभाग, जिला अग्रणी प्रबंधक, मंडी, निर्यात एवं स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी द्वारा अपने विभाग की योजनाओं के बारे में विस्तृत चर्चा किया गया.

Krishi Melaकार्यक्रम के अंत में विधायक द्वारा ड्रोन से नैनो यूरिया के छिड़काव किए जाने की तकनीकी का आरंभ किया गया और लाभार्थियों को आयुष्मान कार्ड एवं सरसों की मिनीकिट वितरित की गई, जिस में किसान कृष्ण कुमार, तूफानी यादव, नंदलाल मिश्रा, सुरेश कुमार सभाजीत, कल्लू वर्मा, लाल बहादुर सिंह इत्यादि किसान उपस्थित रहे.

कार्यक्रम का संचालन सहायक विकास अधिकारी, कृषि, अशोक पाल के द्वारा किया गया, साथ में विभाग के सभी कर्मचारी उपस्थित रहे. गोष्ठी में कृषि विभाग, स्वास्थ्य विभाग, यूनियन बैंक औफ इंडिया, उद्यान विभाग, पशुपालन विभाग, मत्स्य विभाग, मंडी / निर्यात , इफको, कानपुर फर्टिलाइजर, कलश सीड, वीएनआर सीड, सौलिडेरिड, बायोशर्ट इंटरनेशनल एवं अन्य प्रमुख कंपनियों के द्वारा स्टाल का प्रदर्शन भी किया गया था.

क्या लाभकारी है काले गेहूं की खेती?

काले गेहूं के उत्पादन को ले कर देश के किसानों में आजकल होड़ लगी हुई है. न जाने कितने किसान काले गेहूं को बोने के लिए आगे आ रहे हैं और इस का बीज औनेपौने दामों में खरीद कर बोना चाहते हैं. कई किसानों ने तो जब फसल पक कर तैयार हुई थी, तभी अपने बीज बुक करा दिए थे. और अब वह बोने की तैयारी कर रहे हैं.

जिन लोगों को काले गेहूं का बीज उपलब्ध नहीं हो पाया है, वह कई गुना दामों में इस का बीज खरीद रहे हैं. कई किसान तो 3 से 4 गुना अधिक ऊंचे दाम चुका कर इस का बीज ले रहे हैं, जबकि सामान्य गेहूं बाजार में 1,600 से 1,800 रुपए प्रति क्विंटल के औसत भाव से बेचा जा रहा है.

लेकिन भेड़चाल के चलते काला गेहूं बाजार में 6,000 से 7,000 रुपए प्रति क्विंटल के भाव से बिकने लगा है. यहां पर ध्यान देने की बात है कि पिछले कुछ 1-2 सालों से काले गेहूं का उत्पादन करने वाले किसान फूले नहीं समा रहे हैं. वहीं जानकारी के अभाव में काले गेहूं को पौष्टिक बता रहे हैं. साथ ही, किसानों की आय दोगुना करने की बातें भी कही जाने लगी हैं, जबकि गेहूं, जौ अनुसंधान निदेशालय, करनाल के वैज्ञानिकों की मानें, तो देश में काले गेहूं की कोई किस्म ही जारी नहीं हुई है.

Black Wheatजिस काले गेहूं का उत्पादन किसान कर रहे हैं, वह पीली भूरी रोली के साथसाथ कई बीमारियों का वाहक है. काले गेहूं की पौष्टिकता पर तो इस में सामान्य गेहूं की किस्मों की तुलना में न तो अधिक प्रोटीन है और न ही आयरन व जिंक की मात्रा अधिक है. इस की चपाती भी बेस्वाद कही जाती है. काले गेहूं की चपाती देखने में काली होने के कारण भी लोग इस को ज्यादा खाने में पसंद नहीं करते.

यहां पर ध्यान देने की बात यह भी है कि काले गेहूं की सचाई जानने के लिए गेहूं अनुसंधान निदेशालय के वैज्ञानिकों ने शोध किया है. संस्थान के इस शोध में सामान्य गेहूं किस्म की तुलना में काले गेहूं में कोई अधिक पौष्टिक गुण नहीं मिले हैं.

संस्थान के निदेशक डा. ज्ञानेंद्र प्रताप सिंह ने बताया कि काले गेहूं की उत्पादकता और गुणवत्ता सामान्य गेहूं से कमजोर है. उन का यह भी कहना है कि देश के किसी भी कृषि संस्थान के द्वारा काले गेहूं की कोई किस्म जारी नहीं की गई है.

ऐसे में सवाल यह उठता है कि काले गेहूं का बीज किसानों के पास आया तो आया कहां से? कौन इस को बायोफोर्टीफाइड बता कर लगातार बढ़ावा देने में जुटा हुआ है. अब इस बात पर भी ध्यान देना है कि इस गेहूं में अधिक गुणवत्ता न होने के कारण इस को इतना आगे कैसे बढ़ाया जा रहा है.

यहां पर ध्यान देने की बात है कि किसी भी नई किस्म का बीज भारत सरकार से अधिसूचित होने के बाद ही किसानों को उपलब्ध कराया जाता रहा है, जबकि अब तक के इतिहास में काले गेहूं की किसी भी किस्म को भारत सरकार ने अधिसूचित नहीं किया है और न ही सरकारी संस्थानों व मान्यताप्राप्त संस्थानों के द्वारा इस का बीज बेचा जा रहा है, इसलिए किसानों को सतर्क रहने की जरूरत है कि वह जब तक सरकार द्वारा अनुमोदित बीज उपलब्ध न कराया जाए, तब तक ऐसे बीजों और भ्रामक प्रचार से बचा जाना चाहिए.

काले गेहूं की सोशल मीडिया पर खूबियां

गेहूं को ले कर आई मीडिया रिपोर्ट के बाद भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के महानिदेशक के निर्देश पर गेहूं, जौ अनुसंधान निदेशालय ने वर्ष 2018 और 2019 से 2 साल तक काले गेहूं की किस्मों पर परीक्षण किया गया.

परीक्षण के दौरान काले गेहूं की उत्पादकता सामान्य गेहूं किस्म की तुलना में काफी कम पाई गई. साथ ही, कई रोगों का प्रकोप भी इस किस्म में देखने को मिला है.

काले गेहूं की ट्रायल के मुख्य अन्वेषक डा. ज्ञानेंद्र सिंह ने बताया कि इस गेहूं पर उन के संस्थान में शोध कार्य किए जा रहे हैं. मीडिया रिपोर्ट की मानें, तो काले गेहूं का विकास पंजाब के मोहाली स्थित राष्ट्रीय कृषि खाद्य प्रौद्योगिकी संस्थान, नाबी ने किया है. नाबी के पास इस का पेटेंट भी है.

अब सवाल यह उठता है कि भारत सरकार के अधिसूचित किए बिना इस संस्थान ने काले गेहूं की किस्म का बीज किसानों को कैसे पहुंचा दिया.

छोटे किसानों पर भी पड़ता है माली बोझ

आय बढ़ाने के फेर में लघु व सीमांत किसान काले गेहूं की खेती करने के लिए लालायित हैं, लेकिन किसानों को यह नहीं पता कि कृषि उपज मंडियों में काले गेहूं का कोई खरीदार नहीं है. ऐसे में लघु व सीमांत श्रेणी के किसानों को समझदारी से काम लेने की जरूरत है. हालात कहीं ऐसे न हो जाएं कि वे घर के रहें न घाट के.

गौरतलब है कि प्रदेश के लघु व सीमांत श्रेणी के किसानों के पास 4 से 5 बीघा कृषि जोत है. ऐसे में महंगा बीज खरीद कर किसानों ने काले गेहूं की खेती कर भी ली, लेकिन बाजार में नहीं बिकने के कारण उन को माली नुकसान हो सकता है. किसानों को इस बात पर ध्यान देना है कि वे ऐसे बीजों की ही बोआई करें, जिस की बाजार में मांग अच्छी हो और उचित कीमत मिल रही हो. वे ऐसी फसलों को न बोएं, जिस को बेचने में काफी दिक्कत होती हो.

Black Wheatआखिर कितनी है पौष्टिकता

लैब में चले शोध के उपरांत पाया गया है कि काले गेहूं की पौष्टिकता और गुणवत्ता पर भी गेहूं, जौ अनुसंधान निदेशालय, करनाल में संचालित किया गया है. संस्थान के वैज्ञानिक डाक्टर सेवाराम के अनुसार, काले गेहूं की गुणवत्ता जांच में कुछ ऐसे तत्त्व सामने नहीं आए हैं, जिस से कहा जा सके कि काले गेहूं में पौष्टिक तत्त्वों की भरपूर मात्रा उपलब्ध है. उन का मानना है कि काले गेहूं में प्रोटीन, आयरन व जिंक सहित दूसरे पोषक तत्त्वों की मात्रा सामान्य गेहूं की किस्मों की तुलना में काफी कम पाई गई है.

काले गेहूं को ले कर सोशल मीडिया पर प्रचार

गेहूं को ले कर पिछले साल से तरहतरह के दावे किए जा रहे हैं, लेकिन यह दावे हकीकत से बहुत दूर हैं. इस से किसानों की लागत में इजाफा हो रहा है. साथ ही, जानकारी की कमी में उपभोक्ताओं को भी माली नुकसान उठाना पड़ रहा है.

ऐसे में प्रदेश के किसानों के साथसाथ मीडिया वालों और वक्ताओं को भी समझदारी से काम लेने की जरूरत है और हकीकत को आम लोगों तक पहुंचाने के लिए मीडिया वालों को भी काम करना होगा.

काले गेहूं को ले कर किसानों को भ्रमित किया जा रहा है. काले गेहूं की कोई किस्म देश के किसानों के लिए अधिसूचित नहीं हुई है. इस में कोई विशेष प्रकार के पोषक तत्त्व भी नहीं पाए गए हैं.

इतना ही नहीं, काले गेहूं के बारे में आईआईटीडब्ल्यूबीआर, करनाल में रिसर्च हुई है, जिस में तीनों वैरायटी गुणवत्ता मानकों पर खरी नहीं उतर पाई है. इस पर अभी आगे भी रिसर्च जारी है.

यदि यह वैरायटी पौष्टिकता में अच्छी पाई गई, तो यकीनन किसानों तक इस की जानकारी भविष्य में दी जाएगी, लेकिन अभी तक के अनुसंधान में उसे सामान्य गेहूं की प्रजाति की तुलना में कोई अधिक पौष्टिकता के गुण नहीं पाए गए हैं.

एक्वेरियम में ऐसे रखें रंगीन मछलियां

एक्वेरियम में रंगीन मछलियों को रखना और उस का पालन एक दिलचस्प काम है, जो न केवल घर की खूबसूरती बढ़ाता है, बल्कि मन को भी शांत करता है. रंगीन मछलियां व एक्वेरियम व्यवसाय स्वरोजगार के जरीए पैसे बनाने के मौके भी मुहैया कराता है.

दुनियाभर में 10-15 फीसदी वार्षिक वृद्धि दर के साथ रंगीन मछलियों व सहायक सामग्री का कारोबार 8 बिलियन डौलर से ज्यादा का है. इस में भारत की निर्यात क्षमता 240 करोड़ रुपए प्रति वर्ष है. दुनियाभर की विभिन्न जलीय पारिस्थितिकी से तकरीबन 600 रंगीन मछलियों की प्रजातियों की जानकारी हासिल है.

भारत सजावटी मछलियों के मामले में 100 से ऊपर देशी प्रजातियों के साथ बहुत ज्यादा संपन्न है. साथ ही, विदेशी प्रजाति की मछलियां भी यहां पैदा की जाती हैं. शहरों व कसबों में रंगीन मछलियों को एक्वेरियम में रखने का प्रचलन दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है.

रंगीन मछलियों को शीशे के एक्वेरियम में पालना एक खास शौक है. रंगबिरंगी मछलियां बच्चे व बूढ़े सभी का मन मोह लेती हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि रंगीन मछलियों के साथ समय बिताने से ब्लडप्रैशर कंट्रोल में रहता है और दिमागी तनाव कम होता है.

आजकल एक्वेरियम को घर में सजाना लोगों का एक प्रचलित शौक हो गया है. रंगीन मछलियों के पालन व एक्वेरियम बनाने की तकनीकी जानकारी से अच्छी आमदनी हासिल की जा सकती है.

बहुरंगी मछलियों की प्रजातियां

देशी और विदेशी मीठे जल की बहुरंगी मछलियों की प्रजातियों की मांग ज्यादा रहती है. व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए उन का प्रजनन और पालन भी आसानी से किया जा सकता है. व्यावसायिक किस्मों के तौर पर आसानी से उत्पादन की जा सकने वाली रंगीन मछलियों की प्रजातियां निम्न हैं :

बच्चे देने वाली मछलियां

गप्पी (पोयसिलिया रेटिकुलेटा), मोली (मोलीनेसिया स्पीशिज) और स्वार्ड टेल (जीफोफोरस स्पीशिज).

अंडे देने वाली मछलियां

गोल्ड फिश (कैरासियस ओराट्स), कोई कौर्प (सिप्रिनस कौर्पियो की एक किस्म), जैब्रा डेनियो (ब्रेकिडेनियो रेरियो), ब्लैक विडो टैट्रा (सिमोक्रो-सिंबस स्पीशिज), नियोन टैट्रा (हीफेसो-ब्रीकोन इनेसी), सर्पी टैट्रा (हाफेसोब्रीकौन कालिसट्स) व एंजिल वगैरह.

एक्वेरियम तैयार करने के लिए जरूरी सामग्री

एक्वेरियम तैयार करने के लिए निम्न सामग्री की जरूरत होती है :

5-12 एमएम की मोटाई का फ्लोट गिलास नाप के मुताबिक कटा हुआ. एक्वेरियम के सही आकार का ढक्कन, जरूरत के मुताबिक और मजबूत तकरीबन 30 इंच ऊंचाई वाला स्टैंड, सिलिकौन सीलेंट, पेस्टिंग गन, छोटेछोटे रंगबिरंगे पत्थर, जलीय पौधे (कृत्रिम या प्राकृतिक), एक्वेरियम के बैकग्राउंड के लिए रंगीन पोस्टर, सजावटी खिलौने व डिफ्यूजर स्टोन, थर्मामीटर व थर्मोस्टेट, फिल्टर उपकरण, एयरेटर व वायु संचरण की नलिकाएं, क्लोरीन फ्री स्वच्छ जल, रंगीन मछलियां पसंद के मुताबिक, मछलियों का भोजन जरूरत के अनुसार, हैंड नैट, बालटी, मग व साइफन नलिका, स्पंज वगैरह.

एक्वेरियम कहां रखें?

एक्वेरियम रखने की जगह समतल होनी चाहिए और धरातल मजबूत होना चाहिए. लोहे या लकड़ी के बने मजबूत स्टैंड या टेबल का इस्तेमाल किया जा सकता है, जहां एक्वेरियम रखना है, वहां बिजली का इंतजाम भी जरूरी है. ध्यान रहे कि एक्वेरियम पर सूरज की सीधी रोशनी न पड़े, वरना उस में काई जमा हो सकती है.

एक्वेरियम कैसा हो?

एक्वेरियम को खुद बनाने में सावधानी की जरूरत होती है. पौलिश किए हुए शीशे की प्लेट को सीलेंट से जोड़ कर आप एक्वेरियम बना सकते हैं.

बाजार में मुहैया एक्वेरियम विक्रेता से अपनी पसंद का एक्वेरियम भी खरीद सकते हैं. आमतौर पर घरों के लिए एक्वेरियम 60×30×45 सैंटीमीटर लंबाई, चौड़ाई व ऊंचाई की मांग ज्यादा रहती है.  शीशे की मोटाई 5-6 मिलीमीटर होनी चाहिए. इस से बड़े आकार का एक्वेरियम बनाने के लिए मोटे शीशे का इस्तेमाल करना चाहिए.

एक्वेरियम को ढकने के लिए फाइबर या लकड़ी के बने ढक्कन को चुन सकते हैं. ढक्कन के अंदर एक बल्ब व ट्यूबलाइट लगी होनी चाहिए. 40 वाट के बल्ब की रोशनी एक साधारण एक्वेरियम के लिए सही है.

Fishएक्वेरियम को कैसे सजाएं?

एक्वेरियम को खरीदने के बाद उसे सजाने से पहले अच्छी तरह साफ  कर लेना चाहिए. साफ करने के लिए साबुन या तेजाब का इस्तेमाल न करें. एक्वेरियम को रखने की जगह तय कर के उसे एक मजबूत स्टैंड पर रखना चाहिए. एक्वेरियम के नीचे एक थर्मोकौल शीट लगानी चाहिए. इस के बाद पेंदे में साफ बालू की 1-2 इंच की मोटी परत बिछा देते हैं और उस के ऊपर छोटेछोटे पत्थर की एक परत बिछा दी जाती है.

पत्थर बिछाने के साथ ही थर्मोस्टेट, एयरेटर व फिल्टर को भी लगा दिया जाता है. एक्वेरियम में जलीय पौधे लगाने से टैंक खूबसूरत दिखता है.

बाजार में आजकल तरहतरह के कृत्रिम पौधे मुहैया हैं. एक्वेरियम को आकर्षक बनाने के लिए तरहतरह के खिलौने अपनी पसंद से लगाए जा सकते हैं.

एक्वेरियम में भरा जाने वाला पानी क्लोरीन से मुक्त होना चाहिए, इसलिए यदि नल का पानी हो तो उसे कम से कम एक दिन संग्रह कर छोड़ देना चाहिए और फिर उस पानी को एक्वेरियम में भरना चाहिए.

एक्वेरियम में कितनी मछलियां रखें?

एक्वेरियम तैयार कर अनुकूलित करने के बाद उस में अलगअलग तरह की रंगबिरंगी मछलियां पाली जाती हैं. रंगीन मछलियों की अनेक प्रजातियां हैं, पर इन्हें एक्वेरियम में एकसाथ रखने के पहले जानना जरूरी है कि यह एकदूसरे को नुकसान न पहुंचाएं. छोटी आकार की मछलियां रखना एक्वेरियम के लिए ज्यादा बेहतर माना जाता है, जिन के नाम निम्नलिखित हैं:

ब्लैक मोली, प्लेटी, गप्पी, गोरामी, फाइटर, एंजल, टैट्रा, बार्ब, औस्कर, गोल्ड फिश.

इन मछलियों के अतिरिक्त कुछ देशी प्रजातियां हैं, जिन को भी एक्वेरियम में रखा जाने लगा है. जैसे लोच, कोलीसा, चंदा, मोरुला वगैरह. आमतौर पर 2-5 सैंटीमीटर औसतन आकार की 5-10 मछलियां प्रति वर्गफुट जल में रखी जा सकती हैं.

एक्वेरियम प्रबंधन के लिए जरूरी बातें

थर्मोस्टेट द्वारा पानी का तापमान 240 सैल्सियस से 280 सैल्सियस के बीच बनाए रखें. 8-10 घंटे तक एयरेटर द्वारा वायु प्रवाह करना चाहिए. पानी साफ रखने के लिए मेकैनिकल व जैविक फिल्टर का इस्तेमाल करना चाहिए.

एक्वेरियम में उपस्थित अनावश्यक आहार, उत्सर्जित पदार्थों को प्रति सप्ताह साइफन द्वारा बाहर निकालते रहना चाहिए. कम हुए पानी के स्थान पर स्वच्छ पानी भरना चाहिए.

यदि कोई मछली मर जाती है, तो उसे तुरंत निकाल दें और यदि कोई मछली बीमार हो, तो उस का उचित उपचार भी करना चाहिए.

एक्वेरियम कारोबार से अनुमानित आमदनी

रंगीन मछलियों के पालन व एक्वेरियम निर्माण से अच्छी आमदनी की जा सकती है. इस के लिए मुख्यत: निम्न आयव्यय का विवरण दिया जा रहा है. समय, जगह व हालात में इस में बदलाव हो सकता है :

स्थायी लागत

शैडनैट (500 वर्गफुट), छायादार जगह (100 वर्गफुट), फाइबर व सीमेंट की टंकियां (10-15), एयर कंप्रैसर और वायु नलिकाएं, औक्सीजन सिलैंडर-1, विद्युत व जल व्यवस्था व अन्य खर्च 1,25,000 रुपए.

कार्यशील पूंजी

शिशु मछलियां (6,000), प्रबंधन खर्च, बिजली, पानी, मत्स्य आहार, एक्वेरियम निर्माण व सहायक सामग्री, स्थायी लागत पर ब्याज व अन्य खर्चे 1,65,000 रुपए.

आय

मछलियां (10,000 × 20 रुपए), एक्वेरियम टैंक व सहायक सामग्री (120 × 2500 रुपए), बेचे गए एक्वेरियम टैंकों की वार्षिक मेंटेनैंस 1200 रुपए टैंक, कुल आय तकरीबन रुपए 5,80,000-6,40,000 रुपए, शुद्ध आय तकरीबन 3,55,000 से 4,15,000 रुपए प्रति वर्ष हासिल की जा सकती.

कृषक समाज के सतत विकास राष्ट्रीय सम्मेलन

हिसार: चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के मौलिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग द्वारा राष्ट्रीय कृषि उच्च शिक्षा परियोजना (एनएएचईपी)-आईडीपी प्रोजैक्ट के तहत “कृषक समाज के सतत विकास एवं सामाजिकआर्थिक उत्थान” विषय पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन का पिछले दिनों समापन हुआ, जिस में बतौर मुख्यातिथि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज रहे.

मुख्यातिथि प्रो. बीआर कंबोज ने सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि परिवार समाज का सब से छोटा हिस्सा है, इसलिए उस के सतत विकास के लिए उन्हें नई जानकारियां, नवाचारों व प्रौद्योगिकियों के प्रति प्रोत्साहित करना अनिवार्य है. इसी प्रकार देश के उत्थान में कृषक समाज का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है, इसलिए देश को विकास की पटरी पर लगातार बनाए रखने के लिए इन का उत्थान बहुत जरूरी है, लेकिन नई तकनीकों कों किसानों व समाज की आखिरी पंक्ति में खड़े व्यक्ति तक पहुंचाना एक चुनौती भरा काम है. इस प्रक्रिया में समाजशास्त्र से जुड़े विशेषज्ञ महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं.

उन्होंने यह भी कहा कि यदि नई तकनीकों को ईजाद करने वाले विभाग और समाजशास्त्री एकसाथ मिल कर काम करेंगे, तो इस के बहुत ही सार्थक परिणाम प्राप्त होंगे.

मुख्यातिथि बीआर कंबोज ने आंकड़ा प्रबंधन व विश्लेषण को भी अहम बताते हुए कहा कि इस से हर जगह से मिल रही जानकारियों को दुरुस्त व त्रुटिरहित समाज तक पहुंचाया जा सकता है. इस के लिए सरकारी व गैरसरकारी शिक्षण शोध संस्थानों को एक मंच पर आ कर एकजुटता के साथ जानकारी साझा करनी चाहिए. वर्तमान समय में खेती पर जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम बढ़ रहे हैं. इन्हीं चुनौतियों से निबटने के लिए विभिन्न नवीनतम एवं उन्नत सस्य क्रियाएं मदद कर सकती हैं.

इस अवसर पर कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने सम्मेलन में प्रस्तुत की गई मौखिक व पोस्टर प्रस्तुतियों के विजेता रहे प्रतिभागियों को पुरस्कृत कर उन का उत्साहवर्धन किया.

समाजशास्त्र विभाग की अध्यक्ष डा. विनोद कुमारी, सम्मेलन की आयोजक सचिव डा. जतेश काठपालिया व डा. रश्मि त्यागी ने दोदिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन की तमाम गतिविधियों की विस्तृत रिपोर्ट पेश की.

स्नातकोत्तर शिक्षा अधिष्ठाता व एनएएचईपी-आईडीपी प्रोजैक्ट के नोडल अधिकारी डा. केडी शर्मा ने सभी का स्वागत किया, जबकि मौलिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. नीरज कुमार ने धन्यवाद प्रस्ताव पारित किया.

इस कार्यशाला में मंच का संचालन डा. रिजुल सिहाग ने किया. हकृवि में आयोजित दोदिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन दौरान हुई पोस्टर व मौखिक प्रस्तुतियों के पोस्टर प्रस्तुतीकरण में प्रथम पुरस्कार अन्नू, निशा, मोनिका, एकता, प्रियंका भाटी, रमेश चंद्र, व विक्रांत हुड्डा ने प्राप्त किया, जबकि द्वितीय पुरस्कार काव्या सहराव, हेमंत कुमार व अन्नू ने प्राप्त किया, वहीं तृतीय पुरस्कार के विजेता प्रीति रानी व प्रियंका रहे, जबकि ज्योति सिहाग, युगुम ढींगड़ा, स्वाति, कीर्ति, प्रियंका ने सांत्वना पुरस्कार जीता.

इसी प्रकार विभिन्न विषयों में आयोजित मौखिक प्रस्तुतियों में मंजु कुमार राठौर, सुनिधि पिलानियां, कोथा सरामाती, आयुशी, रितू छिकारा, इंदु, सीफती, प्रीति, जोन, मोनिका शर्मा, प्रीति नैन, गायत्री पिला व सुभाष ने बेहतरीन प्रदर्शन कर उत्कृष्ट स्थान प्राप्त किया.

हरियाणा दिवस आयोजन : फसल उत्पादन में अग्रणी

हिसार: प्रदेश में हरित क्रांति की सफलता व खाद्यान्न उत्पादन में अपार वृद्धि चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा अधिक पैदावार वाली विभिन्न फसलों की किस्में विकसित करना, नईनई तकनीकें ईजाद करना और प्रदेश के किसानों की कड़ी मेहनत का परिणाम है.

हरियाणा प्रदेश क्षेत्रफल की दृष्टि से अन्य प्रदेशों की तुलना में बहुत ही छोटा प्रदेश है, जबकि देश के खाद्यान्न भंडारण व फसल उत्पादन में अग्रणी प्रदेशों में शामिल है.

हकृवि के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने हरियाणा दिवस के मौके पर बोलते हुए प्रदेशवासियों को हरियाणा दिवस की हार्दिक बधाई दी और कहा कि यह बड़े गर्व का विषय है कि आज चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हरियाणा प्रदेश के साथ नए संकल्पों व लक्ष्यों के साथ नए वर्ष में प्रवेश कर रहा है.

उन्होंने यह भी कहा कि हरियाणा प्रदेश का 1 नवंबर, 1966 को जब अलग राज्य के रूप में गठन हुआ था, उस समय खाद्यान्न उत्पादन मात्र 25.92 लाख टन था, जोकि वर्ष 2022-23 में बढ़ कर 323 मिलियन टन होने की उम्मीद है.

उन्होंने आगे कहा कि आज हरियाणा की गेहूं की औसत पैदावार 46.8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर एवं सरसों की औसत पैदावार 20.6 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

60 प्रतिशत से अधिक बासमती चावल का निर्यात केवल हरियाणा से

खाद्यान्नों के अधिक उत्पादन के चलते हरियाणा राज्य केंद्रीय खाद्यान्न भंडार में योगदान देने वाला दूसरा सब से बड़ा राज्य है. उन्होंने कहा कि हरियाणा बासमती चावल के लिए भी विशेष रूप से विख्यात है और देश के 60 फीसदी से अधिक बासमती चावल का निर्यात केवल हरियाणा से ही होता है.

कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने सम्मेलन में यह भी कहा कि यह विश्वविद्यालय आज सफलता से भरा वर्ष पीछे छोड़ रहा है. मैं इन सफलताओं के पीछे रीढ़ की तरह काम करने वाले अपने शिक्षक व गैरशिक्षक कर्मचारियों का धन्यवाद करता हूं, जिन्होंने अधिकार व दायित्व में सामंजस्य बनाए रख कर विश्वविद्यालय के शिक्षा, अनुसंधान व विस्तार कार्यक्रमों में अनेक उपलब्धियां हासिल करने के साथ विश्वविद्यालय में विभिन्न कार्यक्रमों के सफल आयोजन में योगदान दिया.

सरसों की आरएच 1975, आरएच 1424 व आरएच 1706 नामक 3 नई उन्नत किस्में विकसित

प्रो. बीआर कंबोज ने कहा कि हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के बाजरा और चारा अनुभागों को इन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियों के परिणामस्वरूप दूसरी बार राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ अनुसंधान केंद्र अवार्ड प्रदान किया गया. इसी प्रकार, विश्वविद्यालय को सरसों में उत्कृष्ट अनुसंधानों के लिए सर्वश्रेष्ठ केंद्र अवार्ड से नवाजा गया. विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने सरसों की आरएच 1975, आरएच 1424 व आरएच 1706 नामक 3 नई उन्नत किस्में विकसित करने में सफलता प्राप्त की है.

कृषि शोध संस्थानों में 10वां स्थान

Haryana Diwas

कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने जानकारी देते हुए कहा कि हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय ने देशभर में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा वर्ष 2023 के लिए जारी नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) में कृषि शोध संस्थानों में 10वां स्थान प्राप्त किया है. विश्वविद्यालय में संरचनात्मक सुविधाओं में विस्तार करते हुए प्रशासनिक भवन में आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित नया सम्मेलन कक्ष भी बनाया गया है.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय का नाम आज विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों में शुमार है. यहां के छात्रों का न केवल देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा के लिए चयन हो रहा है अपितु विदेशों में भी फैलोशिप पर जा रहे हैं और दूसरे देशों के छात्र भी यहां पढ़ने आ रहे हैं.

उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय ने बीते अप्रैल माह में 25वां दीक्षांत समारोह आयोजित किया, जिस में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने शिरकत कर विश्वविद्यालय का मान बढ़ाया. वहीं देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का भी हकृवि में आयोजित तीनदिवसीय कृषि विकास मेला-2023 के उद्घाटन अवसर पर बतौर मुख्यातिथि आगमन हुआ. इस कृषि विकास मेला में हरियाणा व पड़ोसी राज्यों से तकरीबन 2 लाख किसान शामिल हुए, जिन्होंने 2.02 करोड़ रुपए के रबी फसलों के बीज खरीदे.

उन्होंने खुशी जाहिर करते हुए बताया कि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने नूंह में खुलने वाले विश्वविद्यालय के नए कृषि विज्ञान केंद्र का शिलान्यास किया. यह विश्वविद्यालय भविष्य में भी तरक्की के नए मुकाम बनाता रहेगा और किसानों की इसी प्रकार से सेवा करता रहेगा.

बकरियों में पीपीआर बीमारी के लक्षण व बचाव

बकरियां बीमार पड़ने पर खानापीना छोड़ देती हैं और आंख बंद कर किसी कोने में खड़ी हो कर हांफती नजर आती हैं.

पीपीआर बीमारी में बकरियों के शरीर का तापमान 105 से 106 डिगरी फारेनहाइट तक हो जाता है. नाक बहने लगती है. साथ ही, बदबूदार दस्त भी शुरू हो जाते हैं.

बकरी की आंखों के अंदर की तरफ और मसूड़ों में घाव हो जाता है, जिस से बकरियों का खानापीना प्रभावित होता है. यहां तक कि गर्भवती बकरियों का गर्भपात तक हो जाता है.

बचाव के उपाय

* जैसे कोरोना से बचाव के लिए एकदूसरे से लोग दूरी बना लेते हैं, उसी प्रकार बकरियों को भी उन के झुण्ड में से बीमार बकरी को अलग कर देना चाहिए, जिस से कि यह बीमारी स्वस्थ बकरियों में न फैल सके.

* बीमार बकरियों को रहने व खानेपीने की व्यवस्था अलग से करनी चाहिए.

* वैसे तो इस बीमारी का इलाज नहीं है, फिर भी बकरियों में हर साल इस बीमारी का टीकाकरण कराना चाहिए.

* बीमार बकरियों को एनरोसिन एंटीबायोटिक 3 से 5 दिन तक देने से मृत्युदर कम हो जाती है. बीमार बकरियों को हलका चारा और दलिया आदि देना चाहिए.

अधिक जानकारी हासिल करने के लिए नजदीक के पशु चिकित्सक से मिल कर संभव हो तो बकरियों का इलाज करवाएं.

आलू बोआई यंत्र पोटैटो प्लांटर

आलू की खेती में आजकल कृषि यंत्रों का अच्छाखासा इस्तेमाल होने लगा है. आलू बोआई के लिए पोटैटो प्लांटर है, तो आलू की खुदाई के लिए पोटैटो डिगर कृषि यंत्र है. यहां हम फिलहाल आलू बोआई यंत्र पोटैटो प्लांटर की बात कर रहे हैं.

पोटैटो प्लांटर आलू की बोआई करने के साथसाथ मेड़ भी बनाता है. इस यंत्र से आलू बोआई का काम बखूबी होता है.

मशीन द्वारा तय दूरी और उचित गहराई पर ही आलू बीज खेत में गिरता है, जिस से पैदावार भी अच्छी होती है. साथ ही, खरपतवार नियंत्रण भी आसान होता है. हालांकि आलू बोने का यंत्र सभी किसानों के पास नहीं है लेकिन आज के आधुनिक दौर में अनेक किसानों का रुख मशीनों की ओर होने लगा है.

आलू बोने के 2 तरह के यंत्र आजकल चलन में हैं, एक सैमीआटोमैटिक आलू प्लांटर. दूसरा पूरी तरह आटोमैटिक प्लांटर. दोनों ही तरह के यंत्र ट्रैक्टर में जोड़ कर चलाए जाते हैं.

सैमीआटोमैटिक प्लांटर में यंत्र की बनावट कुछ इस तरह होती है जिस में आलू बीज भरने के लिए एक बड़ा बौक्स लगा होता है. इस में आलू बीज भर लिया जाता है और उसी के साथ नीचे की ओर घूमने वाली डिस्क लगी होती है जो 2-3 या 4 भी हो सकती हैं.

इन डिस्क में आलू बीज निकलने के लिए होल बने होते हैं. बोआई के समय जब डिस्क घूमती है तो आलू बीज नीचे गिरते जाते हैं और उस के बाद यंत्र द्वारा मिट्टी से आलू दबते चले जाते हैं. इस यंत्र से आलू बोआई के साथसाथ मेंड़/कूंड़ भी बनते जाते हैं. आलू के लिए जितनी डिस्क लगी होगी, उतनी लाइन में ही आलू की बोआई होगी.

हर डिस्क के पीछे बैठने के लिए सीट लगी होती है जिस पर आलू डालने वाला एक शख्स बैठा होता है. जितनी डिस्क होंगी उतने ही आदमियों की जरूरत होगी क्योंकि जब ऊपर हौपर में से आलू नीचे आता है तो डिस्क में डालने का काम वहां बैठे आदमी द्वारा किया जाता है.

इस मशीन से 1 घंटे में तकरीबन 1 एकड़ खेत में आलू बोआई की जा सकती है.

पूरी तरह आटोमैटिक आलू प्लांटर में किसी शख्स की जरूरत नहीं होती, केवल ट्रैक्टर पर बैठा आदमी इसे नियंत्रित करता है. इस मशीन में भी वही सब काम होते हैं जो सैमीआटोमैटिक यंत्र में होते हैं. इस की खूबी यही है कि इस में आलू खुदबखुद बोआई के लिए गिरते चले जाते हैं और खेत में बोआई होती जाती है. साथ ही मेंड़ भी बनती जाती है लेकिन इस के लिए ट्रैक्टर चलाने वाले को यंत्र के इस्तेमाल करने की जानकारी होनी चाहिए.

यह यंत्र सैमीआटोमैटिक की तुलना में महंगा होता है.

2 लाइनों में बोआई करने वाले मैन्यूअल पोटैटो प्लांटर की कीमत तकरीबन 40,000 रुपए है, 3 लाइनों में बोआई करने वाले प्लांटर की कीमत तकरीबन 50,000 रुपए है.

4 लाइनों में बोआई करने वाले प्लांटर की कीमत तकरीबन 60,000 रुपए है. आटोमैटिक पोटैटो प्लांटर की कीमत तकरीबन 1 लाख, 20 हजार रुपए तक हो सकती है. यह अनुमानित कीमत है.

आजकल अनेक कृषि यंत्र निर्माता जैसे खालसा आटोमैटिक पोटैटो प्लांटर, मोगा इंजीनियरिंग वर्क्स, महिंद्रा ऐंड महिंद्रा कंपनी के पोटैटो प्लांटर बाजार में मौजूद हैं. आप अपने नजदीकी कृषि यंत्र निर्माता या विक्रेता से बात कर अधिक जानकारी ले सकते हैं.

मृदा परीक्षण से खेती में अच्छी उपज

फसलों की वृद्धि और विकास के लिए 16 पोषक तत्त्वों की आवश्यकता पड़ती है, जिसे पौधे अपने जीवनकाल में वातावरण, मृदा और पानी के स्रोतों से प्राप्त कर भरपूर उत्पादन देते हैं. असंतुलन की स्थिति में यदि जैविक घटक जैसे मृदा, बीज, सिंचाई, उर्वरक, पेस्टीसाइड और अन्य प्रबंधन आदि अथवा गैरजैविक घटक जैसे वर्षा (कम या ज्यादा), तापमान (कम या ज्यादा), तेजी से चलने वाली हवाएं, कुहरा, ओले पड़ना आदि के कारण भी कृषि उत्पादन प्रभावित होता है.

उपरोक्त घटकों में सब से महत्त्वपूर्ण मृदा को ही माना जाता है, जिस का स्वस्थ होना नितांत आवश्यक है. स्वस्थ मृदा का अनुकूल प्रभाव, लागत और उत्पादन सहित अन्य क्षेत्रों में भी पड़ता है.

उत्पादन लागत में कमी के साथ उपज में बढ़ोतरी

* मृदा परीक्षण के उपरांत अंधाधुंध उर्वरक के प्रयोग में कमी होने से संतुलित उर्वरकों के प्रयोग को बढ़ावा मिलना.

* पोषक तत्त्वों के असंतुलन की दशा में मृदा में विषाक्तता बढ़ने के कारण पौधों/फसलों में उपज की कमी को दूर करने में सहायक है मृदा परीक्षण/स्वायल हैल्थ कार्ड.

* मृदा परीक्षण से मौजूद जीवांश की स्थिति (0.80 फीसदी सामान्य दशा) जानने के बाद उसे स्थायी बनाने के लिए फसल चक्र, समन्वित पोषक तत्त्व प्रबंधन, फसल अवशेष प्रबंधन आदि उपायों पर जोर देने से मृदा की भौतिक, रासानिक व जैविक क्रियाओं में सुधार होने से कम लागत में भी अधिक गुणवत्तायुक्त उपज हासिल होती है.

किसान की आय में बढ़ोतरी

* कृषि उपज बढ़ने से किसान की आय में गुणात्मक वृद्धि होगी, यह कोई सर्वमान्य विधा नहीं है, जब तक कि कृषि उत्पादन लागत में कमी करते हुए अधिक उपज प्राप्त की जाए.

* मृदा परीक्षण के उपरांत मृदा में उपलब्ध पोषक तत्त्वों की मात्रा के अनुसार रासायनिक उर्वरक व अन्य उपलब्ध स्रोतों का प्रयोग करने से कम खर्च में ही फसलों का पोषण हो जाता है और अच्छी उपज के साथ आमदनी में भी वृद्धि होती है.

* पोषक तत्त्वों की कमी के लक्षण फसल/फल/पौधे के विभिन्न भागों पर प्रदर्शित होते हैं और कई बार बीमारियों के लक्षण मिलतेजुलते होते हैं. इस के निदान के लिए किसान पैस्टीसाइड का प्रयोग करने लगते हैं, जो लागत बढ़ाने के साथ उपज में कमी लाती है, इसलिए स्वस्थ मृदा ही प्रबंधन में आसानी के साथ आमदनी बढ़ाने में भी सहायक होती है.

वातावरण पर प्रभाव

* नाइट्रोजन के अत्यधिक प्रयोग से वातावरण में नाइट्रस औक्साइड गैस की मात्रा बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है, जो वाष्प के साथ संयोग कर के अम्लीय वर्षा को बढ़ावा देती है. इसलिए नाइट्रोजन का प्रयोग सदैव मृदा परीक्षण के आधार पर किया जाए.

* सिंचाई जल के साथ विलेय पोषक तत्त्व भूजल स्तर तक पहुंच कर उपलब्ध जल को भी प्रदूषित कर रहे हैं, जो इनसान की सेहत को प्रभावित करने के साथसाथ विषाक्तता को भी बढ़ाते हैं. इस की रोकथाम के लिए रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग को रोकने के लिए मृदा परीक्षण जरूरी है.

* अकसर यह देखा जाता है कि खेतों से पानी बहते हुए नालों/पोखरों  में चला जाता है, जिस के साथ रसायन (पोषक तत्त्व) भी घुल कर जाने से पानी में विषाक्तता के कारण मछलियों और अन्य जलीय जीव बीमारी के चलते मरने लगते हैं.

* मृदा परीक्षण के आधार पर फसलों में उर्वरक का उपयोग क्षमता में वृद्धि ला कर वातावरण, जल, जमीन, जानवर और इनसानियत को बचाया जा सकता है.

* पैस्टीसाइड के प्रयोग में पूरी तरह  सावधानी बरती जाए, अन्यथा वातावरण प्रदूषित होने से शहरों के अस्पतालों में मरीजों की संख्या काफी बढ़ने लगी है.

* रासायनिक उर्वरक और पैस्टीसाइड की अधिकता के दुष्परिणाम पशुओं, इनसानों और पक्षियों में भी देखने को मिलते हैं. जैसे, नाइट्रोजन की अधिकता से इनसानों में ‘ब्लू बेबी सिंड्रोम’ (आंखों का नीला होना), पशुओं में नपुसंकता और पक्षियों में विलुप्त की स्थिति आना आम है.

* पैस्टीसाइड के प्रयोग विधि में भी सावधानी न रखने के कारण वातावरण/हवा में धूलयुक्त रसायन/छिड़काव के दौरान सूक्ष्म भाग हवा में मिल कर सामान्य जनजीवन को प्रभावित करते हैं.

* स्वस्थ मृदा और वातावरण ही स्वस्थ समाज व समृद्ध समाज बना सकता है, जिस

का मूल आधार ‘स्वायल हैल्थ कार्ड’ के प्रति गंभीर जागरूकता ला कर ही हासिल किया जा सकता है.

* वर्तमान समय में मृदा में कैल्शियम, सल्फर, जिंक, बोरोन और लोहा आदि तत्त्वों की कमी पाई जाने लगी है. इस के चलते ऐसे क्षेत्रों में उगाई जाने वाली फसलों के उत्पाद में भी इन की कमी होने से इनसानों के खानेपीने और पशुओं के चारे में भी इन तत्त्वों की कमी पाई जाती है.

इस का दुष्परिणाम यह होता है कि इनसानों में औस्टियो पोरोसिस, मुंहासे, नाखून का टेढ़ामेंढ़ा होना, बाल गिरना, खून में कमी, मोटापा, औसत लंबाई में कमी आदि के साथ पशुओं में प्रतिरोधक क्षमता में कमी, अस्थायी बां?ापन, मांस और दूध की क्वालिटी में कमी वगैरह लक्षण पाए जाते हैं.                        ठ्ठ

मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना

Soil Testingभारत सरकार ने किसानों तक कृषि से संबंधित विभिन्न सुविधाओं को मुहैया कराने के लिए कई योजनाओं को आरंभ किया है. इन सभी योजनाओं के अंतर्गत किसानों की जरूरतों की पूर्ति की जाती है, जिस में सहायता राशि, उपकरण, बीज, खाद व फसलों के नुकसान की भरपाई भी करती है. ऐसी योजनाओं में से एक योजना ‘स्वायल हैल्थ कार्ड स्कीम’ भी है.

यह योजना भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के अंतर्गत कृषि एवं सहकारिता विभाग द्वारा चलाई जा रही है. इस का कार्यान्वयन सभी राज्यों एवं केंद्रशासित सरकारों के कृषि विभाग और कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से होने वाले लाभ के बारे में किसानों तक पहुंचाना है.

इस योजना के तहत सरकार खेत की मिट्टी का परीक्षण कर इस में मौजूद जरूरी पोषक तत्त्वों की उपलब्धता के बारे में बताना है और किसानों को जानकारी के लिए मृदा स्वास्थ्य कार्ड बनाना है.

सरकार ने इस योजना का आरंभ किसानों को कम लागत पर अधिक और उच्च कोटि की फसल उत्पादन दिलाने के लिए किया है. इस के अंतर्गत मृदा परीक्षण कर इस में उपस्थित उर्वरकों के संतुलन को बनाए रखना है, जिस से कम लागत पर किसानों को उच्चतम पैदावार मिल सके. सरकार द्वारा बनाए जा रहे मृदा स्वास्थ्य कार्ड में निम्न विवरण रहते हैं :

1 मिट्टी का स्वास्थ्य या स्वभाव

2 मिट्टी की कार्यात्मक विशेषता

3 मिट्टी में उपस्थित पोषक तत्त्व एवं मिट्टी में पानी की मौजूदगी

4 मिट्टी में मौजूद अतिरिक्त गुण

मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजनांतर्गत 12 पैरामीटर की टैस्टिंग की जाती है, जिन का विवरण निम्नवत है :

  1. पीएच मान (अम्ल- क्षार अनुपात)
  2. ईसी (विद्युत चालकता)
  3. आर्गेनिक कार्बन (जीवांश कार्बन)

  मृदा में उपलब्ध –

  1. नाइट्रोजन
  2. फास्फोरस
  3. पोटाश
  4. सल्फर
  5. जिंक
  6. बोरोन
  7. लोहा
  8. मैंगनीज
  9. तांबा

गंवई महिलाएं पुरुषों पर पड़ रही हें भारी

आज भी गंवई इलाकों में रहने वाली ज्यादातर महिलाओं की हालत कमोबेश पहले जैसी ही रही है. गांवों में अभी भी महिलाओं की ज्यादातर आबादी चौकाचूल्हा और उपले बनाने में उलझी रहती है, जबकि महिलाओं को कई मामले में समान अधिकार भी प्राप्त हैं.

इन सब के बीच जिन महिलाओं ने आज के समाज में अपनी समान भागीदारी के महत्त्व को समझा है, वे आज के दौर में न केवल अलग पहचान रखती हैं, बल्कि आज वे परिवार और समाज को मजबूत बनाने में भी भागीदारी निभा रही हैं.

बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के ऐसे तमाम गांव हैं, जहां की महिलाएं आत्मनिर्भरता की मिसाल पेश कर रही हैं. और यह सब संभव हुआ है, आगा खान ग्राम समर्थन कार्यक्रम भारत व जॉन डियर इंडिया के कारण.

Village Womenमुजफ्फरपुर के तमाम गांवों में आगा खान ग्राम समर्थन कार्यक्रम भारत द्वारा जॉन डियर इंडिया के सहयोग से छोटे और मझोले किसानों की आय में इजाफा करने, गंवई महिलाओं के हालात में सुधार लाने, ग्रामीण ढांचे को मजबूत बनाने सहित कई ऐसे काम किए जा रहे हैं, जो गांवों से पलायन को रोकने में काफी मददगार साबित हुए हैं.

एकेआरएसपीआई द्वारा गंवई महिलाओं को कई तरीके से मजबूत बनाने का काम किया जा रहा है, जिस में महिलाओं को स्वयं सहायता समूहों से जोड़ कर बचत की आदत डालना, स्किल आधारित ट्रेनिंग, उन्नत खेती के तरीकों में निपुण बनाने जैसे तमाम काम शामिल हैं.

यही वजह है कि ये महिलाएं आज चौकेचूल्हे से ऊपर उठ कर परिवार की आमदनी को बढ़ाने में घर के मर्दों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं.

महिलाओं की भागीदारी से खेती में आई क्रांति

बिहार के मुजफ्फरपुर के गांव हरपुर उर्फ अजीतपुर की रहने वाली बबली देवी शिव गंगा सिंचाई समूह के सदस्य के रूप में जुड़ कर घर की माली हालत को सुधारने का काम कर रही हैं. वे घर के कामकाज के साथसाथ उन्नत खेती के तरीके सीख कर खेती से तिगुनी आमदनी ले रही हैं.

बबली का कहना है कि उन के गांव में पहले सिंचाई के साधन न होने से कम पानी में होने वाली हलदी और दलहन जैसी फसलों की खेती होती थी, जिस से घर का खर्च मुश्किल से ही चल पाता था.

ऐसे में एकेआरएसपीआई द्वारा गांव की महिलाओं को संगठित कर एक महिला समूह की स्थापना की गई, जिस के जरीए गांव में सोलर पंप की स्थापना के साथ ही मधुमक्खीपालन और सब्जियों की खेती को बढ़ावा दिया गया.

आज हरपुर उर्फ अजीतपुर गांव की लगभग सभी घरों की महिलाएं सब्जियों की अगेती खेती, मधुमक्खीपालन जैसे तमाम काम कर रही हैं, जिस से बाजार में सब्जियों की आवक पहले होने से उन्हें अच्छा रेट मिलता है.

इसी गांव की शिव गंगा सिंचाई समूह से जुड़ी महिलाएं रेखा देवी, सुनैना देवी, शिव दुलारी देवी, धर्मशीला देवी, सरिता देवी जैसी तमाम महिलाएं अगेती गोभी, सेम, नेनुआ, लौकी, चिनिया केला की खेती कर रही हैं, जिस से इन महिलाओं के परिवार की सभी बुनियादी जरूरतें तो पूरी हो ही रही हैं, साथ ही ये महिलाएं समूह और बैंक के जरीए बचत भी कर रही हैं.

वर्मी कंपोस्ट से तैयार होती हैं सब्जियां

Village Womenहरपुर गांव में एकेआरएसपीआई द्वारा जॉन डियर इंडिया के सहयोग से संचालित परियोजना के क्रम में गांव की महिलाओं को वर्मी कंपोस्ट तैयार करने की ट्रेनिंग दे कर गांव में ही इसे तैयार कराया जा रहा है, जिस से यहां के लोग अपनी सब्जियों की खेती में वर्मी कंपोस्ट का ही प्रयोग करते हैं. जैविक तरीके से सब्जियों की खेती करने के चलते सब्जियों की मांग और रेट अधिक होता है.

 

अलगअलग फ्लेवर में शहद को तैयार कर रही हैं महिलाएं

इसी गांव की रहने वाली पूनम देवी को एकेआरएसपीआई रोजगार से जोड़ने के लिए मधुमक्खीपालन की ट्रेनिंग दिलाई गई और उन्हें मधुमक्खीपालन के लिए बक्से मुहैया कराए गए.

Village Womenपूनम देवी के पास आज मधुमक्खीपालन के लिए 125 बक्से हैं, जिन से वे लीची, जामुन और तोरिया के फ्लेवर में शहद तैयार करती हैं.

विभिन्न फ्लेवर में शहद तैयार करने के सवाल पर पूनम ने बताया कि वे शहद में सुगंध और स्वाद लाने के लिए मधुमक्खीपालन के डब्बों को जामुन, लीची और तोरिया की फसल में रखती हैं, जहां मधुमक्खियां इन फसलों से पराग इकट्ठा कर के शहद तैयार करती हैं.

उन्होंने बताया कि उन के जैसी तमाम महिलाएं हैं, जो भारी मात्रा में फ्लेवर वाले शहद का उत्पादन कर रही हैं.

एफपीओ द्वारा शहद की मार्केटिंग

पूनम देवी ने बताया कि स्थानीय लैवल पर स्वतंत्र फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड द्वारा गांव की महिलाओं द्वारा तैयार शहद की खरीदारी वाजिब दाम पर की जाती है, जिस से प्रोडक्ट को बेचने के लिए कहीं भटकना नहीं पड़ता है.

उन्होंने बताया कि एक बक्से से 19 लिटर से ले कर 24 लिटर तक शहद तैयार होता है. यह शहद 300 रुपए प्रति लिटर में थोक रेट में आसानी से बिक जाता है. इस तरह से वे 125 बक्से में अच्छीखासी आमदनी हासिल कर लेती हैं.

हलदी की प्रोसैसिंग से तैयार किया जाता है हलदी पाउडर

मुजफ्फरपुर के तमाम गांव ऐसे हैं, जहां किसानों द्वारा सब्जियों की खेती के साथ ही हलदी की खेती प्रमुख रूप से की जाती है. किसानों द्वारा कच्ची हलदी का रेट उतना अच्छा नहीं मिल पाता है.

ऐसे में समूह से जुड़ी महिलाओं ने एकेआरएसपीआई और जॉन डियर के सहयोग से हलदी प्रोसैसिंग प्लांट लगाने का निर्णय लिया, जिस से हलदी का पाउडर तैयार कर उसे मार्केट में अच्छे रेट पर बेचा जा सके.

इसी तरह बंदरा प्रखंड के मेघ रतवारा गांव में एक हलदी प्रोसैसिंग प्लांट लगाया गया है, जहां कच्ची हलदी को सुखाने और उस के छिलके छुड़ाने के लिए मशीनें लगाई गई हैं. इस के अलावा हलदी पाउडर तैयार करने के लिए अलग से मशीन लगाई गई है.

इस प्रोसैसिंग प्लांट का संचालन भी सामूहिक रूप से किया जाता है, जहां समूह से जुड़े लोग हलदी पाउडर तैयार करने के बाद उस के पैकेट बना कर स्थानीय मार्केट में सप्लाई देते हैं. इस से उन्हें अतिरिक्त आमदनी हो रही है.

गांव के ढांचागत विकास पर जोर

आगा खान ग्राम समर्थन कार्यक्रम (भारत) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अपूर्वा ओझा ने बताया कि एकेआरएसपीआई ने बिहार के कई जिलों से पलायन को रोकने के कई प्रयास किए हैं. इस के लिए छोटे, मझोले  और कम आय वर्ग को खेती, शिक्षा, रहनसहन आदि में सुधार के लिए तैयार कर उन के जीवनस्तर को ऊंचा उठाया जा रहा है.

एकेआरएसपीआई के बिहार प्रदेश के रीजनल मैनेजर सुनील कुमार पांडेय  ने बताया कि मुजफ्फरपुर के जिन गांवों में एकेआरएसपीआई द्वारा जॉन डियर इंडिया के सहयोग से परियोजना चलाई जा रही है, वहां गांव के पूरे ढांचागत विकास पर जोर दिया जाता है.

उन्होंने बताया कि गांव में स्कूल, आंगनबाड़ी, पंचायत भवन, साफसफाई, ऊर्जा के वैकल्पिक साधन आदि के स्थायीकरण पर जोर दिया जा रहा है. इस के लिए सामूहिक भागीदारी के साथ एकेआरएसपीआई द्वारा संसाधनों की उपलब्धता पर जोर दिया जाता है.

खेती को घाटे से उबारने में कामयाब

एकेआरएसपीआई में बिहार प्रदेश के कृषि प्रबंधक डा. बंसत कुमार ने बताया कि किसानों को खेती में घाटे से उबारने के लिए उन को गांव में ही समयसमय पर उन्नत खेती के लिए जरूरी टिप्स दिए जाते हैं. इस के लिए गांव में ही किसान खेत पाठशाला बनाई गई है, जिस में किसान खेतीबारी के गुर सीखते हैं.

गांव में सोलर पंप, पौलीहाउस, सोलर कोल्ड स्टोर आदि की उपलब्धता कराई जा रही है. इस से किसान खेती में जोखिम और लागत को कम करने में कामयाब रहे हैं और उन्हें अधिक उत्पादन भी मिल रहा है. इस से गांव वालों की आमदनी में काफी बढ़ोतरी हुई है.

नीम से किसानों की आमदनी बढ़ाने और पर्यावरण बचाने की कोशिश

मिट्टी और पर्यावरण के सुधार में नीम बहुत ही अधिक माने रखता है. हाल के सालों में नीम के पेड़ के महत्त्व को देखते हुए सरकारों और समुदाय दोनों में जागरूकता आई है. यही वजह है कि नीम के पौधे रोपने पर अब जोर दिया जाने लगा है.

नीम के बीज से बनने वाला तेल फसलों के लिए एक प्राकृतिक कीटनाशक, बीमारीनाशक का काम करता है, इसलिए इस के महत्त्व को देखते हुए खाली जमीनों पर इस के पौधों की रोपाई पर जोर देने की जरूरत है.

नीम के पौधे के इसी महत्त्व को देखते हुए उर्वरक और रसायन मंत्रालय, भारत सरकार में अवर सचिव के पद पर काम कर रहे सचिन कुमार सिन्हा ने लोगों को नीम के पौधे रोपने के लिए न केवल प्रेरित करने का काम किया, बल्कि आज वे लोगों में हजारों नीम के पौधे का मुफ्त वितरण भी कर चुके हैं.

Neemनीम के महत्त्व का पता उन्हें तब चला, जब उन्होंने देखा कि किसान अपने खेतों में कीट व बीमारियों के नियंत्रण के लिए निंबोली और उस की पत्तियों का उपयोग कर रहे हैं.

सचिन कुमार सिन्हा के मन में भी यह विचार आया कि अगर किसान और लोग अपने घरों के आसपास खाली पड़ी जमीनों, कालोनियों आदि में नीम के पौधे रोपें, तो यह न केवल पर्यावरण के सुधार में सहायक हो सकता है, बल्कि कम आय वर्ग के लोग निंबोली इकट्ठा कर के उसे मार्केट में बेच कर अच्छी आमदनी भी हासिल कर सकते हैं.

उन्होंने इस अभियान को शुरू ही किया था कि उर्वरक मंत्रालय में रहते हुए उन को नीमलेपित यूरिया को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई टीम का हिस्सा भी बनने का मौका मिला.

सचिन कुमार सिन्हा ने बताया कि नीमलेपित यूरिया के आ जाने से यूरिया की खपत में न केवल कमी आई है, बल्कि किसानों की आय में भी इजाफा हुआ है.

आमदनी बढ़ाने में मददगार

सचिन कुमार बताते हैं कि निंबोली कई प्रकार की बीमारियों को दूर करने में सहायक है. साथ ही, व्यवसायिक उपयोग कर गांवों में रोजगार को बढ़ावा भी दिया जा सकता है.

Neemसचिन कुमार सिन्हा ने बताया कि आज भी देश में नीम के तेल की जरूरत को पूरा करने के लिए निंबोली आयात किया जाता है, ताकि यहां भी नीम के तेल की कमी न हो. इस कड़ी में गुजरात के गांवों की महिलाओं को निंबोली से उन की आय बढ़ाने के लिए एक अभियान की शुरुआत की गई है.

सचिन कुमार सिन्हा खाली समय में ग्रेटर नोएडा और नोएडा के इलाकों में खाली पड़ी जमीनों और कालोनियों में मिशन मोड में नीम का पौधा रोपित करने में योगदान दे रहे हैं.

नीम के पौध रोपण को एक अभियान के रूप में बढ़ावा देने के लिए उन्होंने साल 2019 में अपने पिता के नाम पर ‘कृष्णा नीम फाउंडेशन’ की शुरुआत की, जिस के जरीए उन्होंने खाली और परती पड़ी जमीनों पर नीम के पेड़ लगवाए. साथ ही, इस अभियान में वे बिल्डर्स को शामिल कर नई बन रही कालोनियों में भी नीम के पौधे लगवा रहे हैं.

 अभियान से जुड़ रहे लोग

सचिन कुमार सिन्हा के इस अभियान में आज उत्तर प्रदेश के तमाम जिलों के लोग भी जुड़ चुके हैं, जिन के जरीए इन्होंने हजारों नीम के पौधे लगाने में कामयाबी पाई है. इस में उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जिले के स्मार्ट विलेज हसुड़ी औसानपुर में ग्राम प्रधान दिलीप त्रिपाठी और मेरठ के क्लब सिक्सटी के संस्थापक हरी बिश्नोई के साथ मिल कर ‘नीम क्रांति’ की शुरुआत कराई है.

इस के अलावा उन के अनुरोध पर देश की विभिन्न फर्टिलाइजर कंपनियों ने पूरे देश में 25,000 से ज्यादा नीम के पौधे रोपे हैं.