हरियाणा दिवस आयोजन : फसल उत्पादन में अग्रणी

हिसार: प्रदेश में हरित क्रांति की सफलता व खाद्यान्न उत्पादन में अपार वृद्धि चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा अधिक पैदावार वाली विभिन्न फसलों की किस्में विकसित करना, नईनई तकनीकें ईजाद करना और प्रदेश के किसानों की कड़ी मेहनत का परिणाम है.

हरियाणा प्रदेश क्षेत्रफल की दृष्टि से अन्य प्रदेशों की तुलना में बहुत ही छोटा प्रदेश है, जबकि देश के खाद्यान्न भंडारण व फसल उत्पादन में अग्रणी प्रदेशों में शामिल है.

हकृवि के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने हरियाणा दिवस के मौके पर बोलते हुए प्रदेशवासियों को हरियाणा दिवस की हार्दिक बधाई दी और कहा कि यह बड़े गर्व का विषय है कि आज चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हरियाणा प्रदेश के साथ नए संकल्पों व लक्ष्यों के साथ नए वर्ष में प्रवेश कर रहा है.

उन्होंने यह भी कहा कि हरियाणा प्रदेश का 1 नवंबर, 1966 को जब अलग राज्य के रूप में गठन हुआ था, उस समय खाद्यान्न उत्पादन मात्र 25.92 लाख टन था, जोकि वर्ष 2022-23 में बढ़ कर 323 मिलियन टन होने की उम्मीद है.

उन्होंने आगे कहा कि आज हरियाणा की गेहूं की औसत पैदावार 46.8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर एवं सरसों की औसत पैदावार 20.6 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

60 प्रतिशत से अधिक बासमती चावल का निर्यात केवल हरियाणा से

खाद्यान्नों के अधिक उत्पादन के चलते हरियाणा राज्य केंद्रीय खाद्यान्न भंडार में योगदान देने वाला दूसरा सब से बड़ा राज्य है. उन्होंने कहा कि हरियाणा बासमती चावल के लिए भी विशेष रूप से विख्यात है और देश के 60 फीसदी से अधिक बासमती चावल का निर्यात केवल हरियाणा से ही होता है.

कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने सम्मेलन में यह भी कहा कि यह विश्वविद्यालय आज सफलता से भरा वर्ष पीछे छोड़ रहा है. मैं इन सफलताओं के पीछे रीढ़ की तरह काम करने वाले अपने शिक्षक व गैरशिक्षक कर्मचारियों का धन्यवाद करता हूं, जिन्होंने अधिकार व दायित्व में सामंजस्य बनाए रख कर विश्वविद्यालय के शिक्षा, अनुसंधान व विस्तार कार्यक्रमों में अनेक उपलब्धियां हासिल करने के साथ विश्वविद्यालय में विभिन्न कार्यक्रमों के सफल आयोजन में योगदान दिया.

सरसों की आरएच 1975, आरएच 1424 व आरएच 1706 नामक 3 नई उन्नत किस्में विकसित

प्रो. बीआर कंबोज ने कहा कि हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के बाजरा और चारा अनुभागों को इन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियों के परिणामस्वरूप दूसरी बार राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ अनुसंधान केंद्र अवार्ड प्रदान किया गया. इसी प्रकार, विश्वविद्यालय को सरसों में उत्कृष्ट अनुसंधानों के लिए सर्वश्रेष्ठ केंद्र अवार्ड से नवाजा गया. विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने सरसों की आरएच 1975, आरएच 1424 व आरएच 1706 नामक 3 नई उन्नत किस्में विकसित करने में सफलता प्राप्त की है.

कृषि शोध संस्थानों में 10वां स्थान

Haryana Diwas

कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने जानकारी देते हुए कहा कि हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय ने देशभर में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा वर्ष 2023 के लिए जारी नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) में कृषि शोध संस्थानों में 10वां स्थान प्राप्त किया है. विश्वविद्यालय में संरचनात्मक सुविधाओं में विस्तार करते हुए प्रशासनिक भवन में आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित नया सम्मेलन कक्ष भी बनाया गया है.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय का नाम आज विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों में शुमार है. यहां के छात्रों का न केवल देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा के लिए चयन हो रहा है अपितु विदेशों में भी फैलोशिप पर जा रहे हैं और दूसरे देशों के छात्र भी यहां पढ़ने आ रहे हैं.

उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय ने बीते अप्रैल माह में 25वां दीक्षांत समारोह आयोजित किया, जिस में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने शिरकत कर विश्वविद्यालय का मान बढ़ाया. वहीं देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का भी हकृवि में आयोजित तीनदिवसीय कृषि विकास मेला-2023 के उद्घाटन अवसर पर बतौर मुख्यातिथि आगमन हुआ. इस कृषि विकास मेला में हरियाणा व पड़ोसी राज्यों से तकरीबन 2 लाख किसान शामिल हुए, जिन्होंने 2.02 करोड़ रुपए के रबी फसलों के बीज खरीदे.

उन्होंने खुशी जाहिर करते हुए बताया कि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने नूंह में खुलने वाले विश्वविद्यालय के नए कृषि विज्ञान केंद्र का शिलान्यास किया. यह विश्वविद्यालय भविष्य में भी तरक्की के नए मुकाम बनाता रहेगा और किसानों की इसी प्रकार से सेवा करता रहेगा.

बकरियों में पीपीआर बीमारी के लक्षण व बचाव

बकरियां बीमार पड़ने पर खानापीना छोड़ देती हैं और आंख बंद कर किसी कोने में खड़ी हो कर हांफती नजर आती हैं.

पीपीआर बीमारी में बकरियों के शरीर का तापमान 105 से 106 डिगरी फारेनहाइट तक हो जाता है. नाक बहने लगती है. साथ ही, बदबूदार दस्त भी शुरू हो जाते हैं.

बकरी की आंखों के अंदर की तरफ और मसूड़ों में घाव हो जाता है, जिस से बकरियों का खानापीना प्रभावित होता है. यहां तक कि गर्भवती बकरियों का गर्भपात तक हो जाता है.

बचाव के उपाय

* जैसे कोरोना से बचाव के लिए एकदूसरे से लोग दूरी बना लेते हैं, उसी प्रकार बकरियों को भी उन के झुण्ड में से बीमार बकरी को अलग कर देना चाहिए, जिस से कि यह बीमारी स्वस्थ बकरियों में न फैल सके.

* बीमार बकरियों को रहने व खानेपीने की व्यवस्था अलग से करनी चाहिए.

* वैसे तो इस बीमारी का इलाज नहीं है, फिर भी बकरियों में हर साल इस बीमारी का टीकाकरण कराना चाहिए.

* बीमार बकरियों को एनरोसिन एंटीबायोटिक 3 से 5 दिन तक देने से मृत्युदर कम हो जाती है. बीमार बकरियों को हलका चारा और दलिया आदि देना चाहिए.

अधिक जानकारी हासिल करने के लिए नजदीक के पशु चिकित्सक से मिल कर संभव हो तो बकरियों का इलाज करवाएं.

आलू बोआई यंत्र पोटैटो प्लांटर

आलू की खेती में आजकल कृषि यंत्रों का अच्छाखासा इस्तेमाल होने लगा है. आलू बोआई के लिए पोटैटो प्लांटर है, तो आलू की खुदाई के लिए पोटैटो डिगर कृषि यंत्र है. यहां हम फिलहाल आलू बोआई यंत्र पोटैटो प्लांटर की बात कर रहे हैं.

पोटैटो प्लांटर आलू की बोआई करने के साथसाथ मेड़ भी बनाता है. इस यंत्र से आलू बोआई का काम बखूबी होता है.

मशीन द्वारा तय दूरी और उचित गहराई पर ही आलू बीज खेत में गिरता है, जिस से पैदावार भी अच्छी होती है. साथ ही, खरपतवार नियंत्रण भी आसान होता है. हालांकि आलू बोने का यंत्र सभी किसानों के पास नहीं है लेकिन आज के आधुनिक दौर में अनेक किसानों का रुख मशीनों की ओर होने लगा है.

आलू बोने के 2 तरह के यंत्र आजकल चलन में हैं, एक सैमीआटोमैटिक आलू प्लांटर. दूसरा पूरी तरह आटोमैटिक प्लांटर. दोनों ही तरह के यंत्र ट्रैक्टर में जोड़ कर चलाए जाते हैं.

सैमीआटोमैटिक प्लांटर में यंत्र की बनावट कुछ इस तरह होती है जिस में आलू बीज भरने के लिए एक बड़ा बौक्स लगा होता है. इस में आलू बीज भर लिया जाता है और उसी के साथ नीचे की ओर घूमने वाली डिस्क लगी होती है जो 2-3 या 4 भी हो सकती हैं.

इन डिस्क में आलू बीज निकलने के लिए होल बने होते हैं. बोआई के समय जब डिस्क घूमती है तो आलू बीज नीचे गिरते जाते हैं और उस के बाद यंत्र द्वारा मिट्टी से आलू दबते चले जाते हैं. इस यंत्र से आलू बोआई के साथसाथ मेंड़/कूंड़ भी बनते जाते हैं. आलू के लिए जितनी डिस्क लगी होगी, उतनी लाइन में ही आलू की बोआई होगी.

हर डिस्क के पीछे बैठने के लिए सीट लगी होती है जिस पर आलू डालने वाला एक शख्स बैठा होता है. जितनी डिस्क होंगी उतने ही आदमियों की जरूरत होगी क्योंकि जब ऊपर हौपर में से आलू नीचे आता है तो डिस्क में डालने का काम वहां बैठे आदमी द्वारा किया जाता है.

इस मशीन से 1 घंटे में तकरीबन 1 एकड़ खेत में आलू बोआई की जा सकती है.

पूरी तरह आटोमैटिक आलू प्लांटर में किसी शख्स की जरूरत नहीं होती, केवल ट्रैक्टर पर बैठा आदमी इसे नियंत्रित करता है. इस मशीन में भी वही सब काम होते हैं जो सैमीआटोमैटिक यंत्र में होते हैं. इस की खूबी यही है कि इस में आलू खुदबखुद बोआई के लिए गिरते चले जाते हैं और खेत में बोआई होती जाती है. साथ ही मेंड़ भी बनती जाती है लेकिन इस के लिए ट्रैक्टर चलाने वाले को यंत्र के इस्तेमाल करने की जानकारी होनी चाहिए.

यह यंत्र सैमीआटोमैटिक की तुलना में महंगा होता है.

2 लाइनों में बोआई करने वाले मैन्यूअल पोटैटो प्लांटर की कीमत तकरीबन 40,000 रुपए है, 3 लाइनों में बोआई करने वाले प्लांटर की कीमत तकरीबन 50,000 रुपए है.

4 लाइनों में बोआई करने वाले प्लांटर की कीमत तकरीबन 60,000 रुपए है. आटोमैटिक पोटैटो प्लांटर की कीमत तकरीबन 1 लाख, 20 हजार रुपए तक हो सकती है. यह अनुमानित कीमत है.

आजकल अनेक कृषि यंत्र निर्माता जैसे खालसा आटोमैटिक पोटैटो प्लांटर, मोगा इंजीनियरिंग वर्क्स, महिंद्रा ऐंड महिंद्रा कंपनी के पोटैटो प्लांटर बाजार में मौजूद हैं. आप अपने नजदीकी कृषि यंत्र निर्माता या विक्रेता से बात कर अधिक जानकारी ले सकते हैं.

मृदा परीक्षण से खेती में अच्छी उपज

फसलों की वृद्धि और विकास के लिए 16 पोषक तत्त्वों की आवश्यकता पड़ती है, जिसे पौधे अपने जीवनकाल में वातावरण, मृदा और पानी के स्रोतों से प्राप्त कर भरपूर उत्पादन देते हैं. असंतुलन की स्थिति में यदि जैविक घटक जैसे मृदा, बीज, सिंचाई, उर्वरक, पेस्टीसाइड और अन्य प्रबंधन आदि अथवा गैरजैविक घटक जैसे वर्षा (कम या ज्यादा), तापमान (कम या ज्यादा), तेजी से चलने वाली हवाएं, कुहरा, ओले पड़ना आदि के कारण भी कृषि उत्पादन प्रभावित होता है.

उपरोक्त घटकों में सब से महत्त्वपूर्ण मृदा को ही माना जाता है, जिस का स्वस्थ होना नितांत आवश्यक है. स्वस्थ मृदा का अनुकूल प्रभाव, लागत और उत्पादन सहित अन्य क्षेत्रों में भी पड़ता है.

उत्पादन लागत में कमी के साथ उपज में बढ़ोतरी

* मृदा परीक्षण के उपरांत अंधाधुंध उर्वरक के प्रयोग में कमी होने से संतुलित उर्वरकों के प्रयोग को बढ़ावा मिलना.

* पोषक तत्त्वों के असंतुलन की दशा में मृदा में विषाक्तता बढ़ने के कारण पौधों/फसलों में उपज की कमी को दूर करने में सहायक है मृदा परीक्षण/स्वायल हैल्थ कार्ड.

* मृदा परीक्षण से मौजूद जीवांश की स्थिति (0.80 फीसदी सामान्य दशा) जानने के बाद उसे स्थायी बनाने के लिए फसल चक्र, समन्वित पोषक तत्त्व प्रबंधन, फसल अवशेष प्रबंधन आदि उपायों पर जोर देने से मृदा की भौतिक, रासानिक व जैविक क्रियाओं में सुधार होने से कम लागत में भी अधिक गुणवत्तायुक्त उपज हासिल होती है.

किसान की आय में बढ़ोतरी

* कृषि उपज बढ़ने से किसान की आय में गुणात्मक वृद्धि होगी, यह कोई सर्वमान्य विधा नहीं है, जब तक कि कृषि उत्पादन लागत में कमी करते हुए अधिक उपज प्राप्त की जाए.

* मृदा परीक्षण के उपरांत मृदा में उपलब्ध पोषक तत्त्वों की मात्रा के अनुसार रासायनिक उर्वरक व अन्य उपलब्ध स्रोतों का प्रयोग करने से कम खर्च में ही फसलों का पोषण हो जाता है और अच्छी उपज के साथ आमदनी में भी वृद्धि होती है.

* पोषक तत्त्वों की कमी के लक्षण फसल/फल/पौधे के विभिन्न भागों पर प्रदर्शित होते हैं और कई बार बीमारियों के लक्षण मिलतेजुलते होते हैं. इस के निदान के लिए किसान पैस्टीसाइड का प्रयोग करने लगते हैं, जो लागत बढ़ाने के साथ उपज में कमी लाती है, इसलिए स्वस्थ मृदा ही प्रबंधन में आसानी के साथ आमदनी बढ़ाने में भी सहायक होती है.

वातावरण पर प्रभाव

* नाइट्रोजन के अत्यधिक प्रयोग से वातावरण में नाइट्रस औक्साइड गैस की मात्रा बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है, जो वाष्प के साथ संयोग कर के अम्लीय वर्षा को बढ़ावा देती है. इसलिए नाइट्रोजन का प्रयोग सदैव मृदा परीक्षण के आधार पर किया जाए.

* सिंचाई जल के साथ विलेय पोषक तत्त्व भूजल स्तर तक पहुंच कर उपलब्ध जल को भी प्रदूषित कर रहे हैं, जो इनसान की सेहत को प्रभावित करने के साथसाथ विषाक्तता को भी बढ़ाते हैं. इस की रोकथाम के लिए रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग को रोकने के लिए मृदा परीक्षण जरूरी है.

* अकसर यह देखा जाता है कि खेतों से पानी बहते हुए नालों/पोखरों  में चला जाता है, जिस के साथ रसायन (पोषक तत्त्व) भी घुल कर जाने से पानी में विषाक्तता के कारण मछलियों और अन्य जलीय जीव बीमारी के चलते मरने लगते हैं.

* मृदा परीक्षण के आधार पर फसलों में उर्वरक का उपयोग क्षमता में वृद्धि ला कर वातावरण, जल, जमीन, जानवर और इनसानियत को बचाया जा सकता है.

* पैस्टीसाइड के प्रयोग में पूरी तरह  सावधानी बरती जाए, अन्यथा वातावरण प्रदूषित होने से शहरों के अस्पतालों में मरीजों की संख्या काफी बढ़ने लगी है.

* रासायनिक उर्वरक और पैस्टीसाइड की अधिकता के दुष्परिणाम पशुओं, इनसानों और पक्षियों में भी देखने को मिलते हैं. जैसे, नाइट्रोजन की अधिकता से इनसानों में ‘ब्लू बेबी सिंड्रोम’ (आंखों का नीला होना), पशुओं में नपुसंकता और पक्षियों में विलुप्त की स्थिति आना आम है.

* पैस्टीसाइड के प्रयोग विधि में भी सावधानी न रखने के कारण वातावरण/हवा में धूलयुक्त रसायन/छिड़काव के दौरान सूक्ष्म भाग हवा में मिल कर सामान्य जनजीवन को प्रभावित करते हैं.

* स्वस्थ मृदा और वातावरण ही स्वस्थ समाज व समृद्ध समाज बना सकता है, जिस

का मूल आधार ‘स्वायल हैल्थ कार्ड’ के प्रति गंभीर जागरूकता ला कर ही हासिल किया जा सकता है.

* वर्तमान समय में मृदा में कैल्शियम, सल्फर, जिंक, बोरोन और लोहा आदि तत्त्वों की कमी पाई जाने लगी है. इस के चलते ऐसे क्षेत्रों में उगाई जाने वाली फसलों के उत्पाद में भी इन की कमी होने से इनसानों के खानेपीने और पशुओं के चारे में भी इन तत्त्वों की कमी पाई जाती है.

इस का दुष्परिणाम यह होता है कि इनसानों में औस्टियो पोरोसिस, मुंहासे, नाखून का टेढ़ामेंढ़ा होना, बाल गिरना, खून में कमी, मोटापा, औसत लंबाई में कमी आदि के साथ पशुओं में प्रतिरोधक क्षमता में कमी, अस्थायी बां?ापन, मांस और दूध की क्वालिटी में कमी वगैरह लक्षण पाए जाते हैं.                        ठ्ठ

मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना

Soil Testingभारत सरकार ने किसानों तक कृषि से संबंधित विभिन्न सुविधाओं को मुहैया कराने के लिए कई योजनाओं को आरंभ किया है. इन सभी योजनाओं के अंतर्गत किसानों की जरूरतों की पूर्ति की जाती है, जिस में सहायता राशि, उपकरण, बीज, खाद व फसलों के नुकसान की भरपाई भी करती है. ऐसी योजनाओं में से एक योजना ‘स्वायल हैल्थ कार्ड स्कीम’ भी है.

यह योजना भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के अंतर्गत कृषि एवं सहकारिता विभाग द्वारा चलाई जा रही है. इस का कार्यान्वयन सभी राज्यों एवं केंद्रशासित सरकारों के कृषि विभाग और कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से होने वाले लाभ के बारे में किसानों तक पहुंचाना है.

इस योजना के तहत सरकार खेत की मिट्टी का परीक्षण कर इस में मौजूद जरूरी पोषक तत्त्वों की उपलब्धता के बारे में बताना है और किसानों को जानकारी के लिए मृदा स्वास्थ्य कार्ड बनाना है.

सरकार ने इस योजना का आरंभ किसानों को कम लागत पर अधिक और उच्च कोटि की फसल उत्पादन दिलाने के लिए किया है. इस के अंतर्गत मृदा परीक्षण कर इस में उपस्थित उर्वरकों के संतुलन को बनाए रखना है, जिस से कम लागत पर किसानों को उच्चतम पैदावार मिल सके. सरकार द्वारा बनाए जा रहे मृदा स्वास्थ्य कार्ड में निम्न विवरण रहते हैं :

1 मिट्टी का स्वास्थ्य या स्वभाव

2 मिट्टी की कार्यात्मक विशेषता

3 मिट्टी में उपस्थित पोषक तत्त्व एवं मिट्टी में पानी की मौजूदगी

4 मिट्टी में मौजूद अतिरिक्त गुण

मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजनांतर्गत 12 पैरामीटर की टैस्टिंग की जाती है, जिन का विवरण निम्नवत है :

  1. पीएच मान (अम्ल- क्षार अनुपात)
  2. ईसी (विद्युत चालकता)
  3. आर्गेनिक कार्बन (जीवांश कार्बन)

  मृदा में उपलब्ध –

  1. नाइट्रोजन
  2. फास्फोरस
  3. पोटाश
  4. सल्फर
  5. जिंक
  6. बोरोन
  7. लोहा
  8. मैंगनीज
  9. तांबा

गंवई महिलाएं पुरुषों पर पड़ रही हें भारी

आज भी गंवई इलाकों में रहने वाली ज्यादातर महिलाओं की हालत कमोबेश पहले जैसी ही रही है. गांवों में अभी भी महिलाओं की ज्यादातर आबादी चौकाचूल्हा और उपले बनाने में उलझी रहती है, जबकि महिलाओं को कई मामले में समान अधिकार भी प्राप्त हैं.

इन सब के बीच जिन महिलाओं ने आज के समाज में अपनी समान भागीदारी के महत्त्व को समझा है, वे आज के दौर में न केवल अलग पहचान रखती हैं, बल्कि आज वे परिवार और समाज को मजबूत बनाने में भी भागीदारी निभा रही हैं.

बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के ऐसे तमाम गांव हैं, जहां की महिलाएं आत्मनिर्भरता की मिसाल पेश कर रही हैं. और यह सब संभव हुआ है, आगा खान ग्राम समर्थन कार्यक्रम भारत व जॉन डियर इंडिया के कारण.

Village Womenमुजफ्फरपुर के तमाम गांवों में आगा खान ग्राम समर्थन कार्यक्रम भारत द्वारा जॉन डियर इंडिया के सहयोग से छोटे और मझोले किसानों की आय में इजाफा करने, गंवई महिलाओं के हालात में सुधार लाने, ग्रामीण ढांचे को मजबूत बनाने सहित कई ऐसे काम किए जा रहे हैं, जो गांवों से पलायन को रोकने में काफी मददगार साबित हुए हैं.

एकेआरएसपीआई द्वारा गंवई महिलाओं को कई तरीके से मजबूत बनाने का काम किया जा रहा है, जिस में महिलाओं को स्वयं सहायता समूहों से जोड़ कर बचत की आदत डालना, स्किल आधारित ट्रेनिंग, उन्नत खेती के तरीकों में निपुण बनाने जैसे तमाम काम शामिल हैं.

यही वजह है कि ये महिलाएं आज चौकेचूल्हे से ऊपर उठ कर परिवार की आमदनी को बढ़ाने में घर के मर्दों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं.

महिलाओं की भागीदारी से खेती में आई क्रांति

बिहार के मुजफ्फरपुर के गांव हरपुर उर्फ अजीतपुर की रहने वाली बबली देवी शिव गंगा सिंचाई समूह के सदस्य के रूप में जुड़ कर घर की माली हालत को सुधारने का काम कर रही हैं. वे घर के कामकाज के साथसाथ उन्नत खेती के तरीके सीख कर खेती से तिगुनी आमदनी ले रही हैं.

बबली का कहना है कि उन के गांव में पहले सिंचाई के साधन न होने से कम पानी में होने वाली हलदी और दलहन जैसी फसलों की खेती होती थी, जिस से घर का खर्च मुश्किल से ही चल पाता था.

ऐसे में एकेआरएसपीआई द्वारा गांव की महिलाओं को संगठित कर एक महिला समूह की स्थापना की गई, जिस के जरीए गांव में सोलर पंप की स्थापना के साथ ही मधुमक्खीपालन और सब्जियों की खेती को बढ़ावा दिया गया.

आज हरपुर उर्फ अजीतपुर गांव की लगभग सभी घरों की महिलाएं सब्जियों की अगेती खेती, मधुमक्खीपालन जैसे तमाम काम कर रही हैं, जिस से बाजार में सब्जियों की आवक पहले होने से उन्हें अच्छा रेट मिलता है.

इसी गांव की शिव गंगा सिंचाई समूह से जुड़ी महिलाएं रेखा देवी, सुनैना देवी, शिव दुलारी देवी, धर्मशीला देवी, सरिता देवी जैसी तमाम महिलाएं अगेती गोभी, सेम, नेनुआ, लौकी, चिनिया केला की खेती कर रही हैं, जिस से इन महिलाओं के परिवार की सभी बुनियादी जरूरतें तो पूरी हो ही रही हैं, साथ ही ये महिलाएं समूह और बैंक के जरीए बचत भी कर रही हैं.

वर्मी कंपोस्ट से तैयार होती हैं सब्जियां

Village Womenहरपुर गांव में एकेआरएसपीआई द्वारा जॉन डियर इंडिया के सहयोग से संचालित परियोजना के क्रम में गांव की महिलाओं को वर्मी कंपोस्ट तैयार करने की ट्रेनिंग दे कर गांव में ही इसे तैयार कराया जा रहा है, जिस से यहां के लोग अपनी सब्जियों की खेती में वर्मी कंपोस्ट का ही प्रयोग करते हैं. जैविक तरीके से सब्जियों की खेती करने के चलते सब्जियों की मांग और रेट अधिक होता है.

 

अलगअलग फ्लेवर में शहद को तैयार कर रही हैं महिलाएं

इसी गांव की रहने वाली पूनम देवी को एकेआरएसपीआई रोजगार से जोड़ने के लिए मधुमक्खीपालन की ट्रेनिंग दिलाई गई और उन्हें मधुमक्खीपालन के लिए बक्से मुहैया कराए गए.

Village Womenपूनम देवी के पास आज मधुमक्खीपालन के लिए 125 बक्से हैं, जिन से वे लीची, जामुन और तोरिया के फ्लेवर में शहद तैयार करती हैं.

विभिन्न फ्लेवर में शहद तैयार करने के सवाल पर पूनम ने बताया कि वे शहद में सुगंध और स्वाद लाने के लिए मधुमक्खीपालन के डब्बों को जामुन, लीची और तोरिया की फसल में रखती हैं, जहां मधुमक्खियां इन फसलों से पराग इकट्ठा कर के शहद तैयार करती हैं.

उन्होंने बताया कि उन के जैसी तमाम महिलाएं हैं, जो भारी मात्रा में फ्लेवर वाले शहद का उत्पादन कर रही हैं.

एफपीओ द्वारा शहद की मार्केटिंग

पूनम देवी ने बताया कि स्थानीय लैवल पर स्वतंत्र फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड द्वारा गांव की महिलाओं द्वारा तैयार शहद की खरीदारी वाजिब दाम पर की जाती है, जिस से प्रोडक्ट को बेचने के लिए कहीं भटकना नहीं पड़ता है.

उन्होंने बताया कि एक बक्से से 19 लिटर से ले कर 24 लिटर तक शहद तैयार होता है. यह शहद 300 रुपए प्रति लिटर में थोक रेट में आसानी से बिक जाता है. इस तरह से वे 125 बक्से में अच्छीखासी आमदनी हासिल कर लेती हैं.

हलदी की प्रोसैसिंग से तैयार किया जाता है हलदी पाउडर

मुजफ्फरपुर के तमाम गांव ऐसे हैं, जहां किसानों द्वारा सब्जियों की खेती के साथ ही हलदी की खेती प्रमुख रूप से की जाती है. किसानों द्वारा कच्ची हलदी का रेट उतना अच्छा नहीं मिल पाता है.

ऐसे में समूह से जुड़ी महिलाओं ने एकेआरएसपीआई और जॉन डियर के सहयोग से हलदी प्रोसैसिंग प्लांट लगाने का निर्णय लिया, जिस से हलदी का पाउडर तैयार कर उसे मार्केट में अच्छे रेट पर बेचा जा सके.

इसी तरह बंदरा प्रखंड के मेघ रतवारा गांव में एक हलदी प्रोसैसिंग प्लांट लगाया गया है, जहां कच्ची हलदी को सुखाने और उस के छिलके छुड़ाने के लिए मशीनें लगाई गई हैं. इस के अलावा हलदी पाउडर तैयार करने के लिए अलग से मशीन लगाई गई है.

इस प्रोसैसिंग प्लांट का संचालन भी सामूहिक रूप से किया जाता है, जहां समूह से जुड़े लोग हलदी पाउडर तैयार करने के बाद उस के पैकेट बना कर स्थानीय मार्केट में सप्लाई देते हैं. इस से उन्हें अतिरिक्त आमदनी हो रही है.

गांव के ढांचागत विकास पर जोर

आगा खान ग्राम समर्थन कार्यक्रम (भारत) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अपूर्वा ओझा ने बताया कि एकेआरएसपीआई ने बिहार के कई जिलों से पलायन को रोकने के कई प्रयास किए हैं. इस के लिए छोटे, मझोले  और कम आय वर्ग को खेती, शिक्षा, रहनसहन आदि में सुधार के लिए तैयार कर उन के जीवनस्तर को ऊंचा उठाया जा रहा है.

एकेआरएसपीआई के बिहार प्रदेश के रीजनल मैनेजर सुनील कुमार पांडेय  ने बताया कि मुजफ्फरपुर के जिन गांवों में एकेआरएसपीआई द्वारा जॉन डियर इंडिया के सहयोग से परियोजना चलाई जा रही है, वहां गांव के पूरे ढांचागत विकास पर जोर दिया जाता है.

उन्होंने बताया कि गांव में स्कूल, आंगनबाड़ी, पंचायत भवन, साफसफाई, ऊर्जा के वैकल्पिक साधन आदि के स्थायीकरण पर जोर दिया जा रहा है. इस के लिए सामूहिक भागीदारी के साथ एकेआरएसपीआई द्वारा संसाधनों की उपलब्धता पर जोर दिया जाता है.

खेती को घाटे से उबारने में कामयाब

एकेआरएसपीआई में बिहार प्रदेश के कृषि प्रबंधक डा. बंसत कुमार ने बताया कि किसानों को खेती में घाटे से उबारने के लिए उन को गांव में ही समयसमय पर उन्नत खेती के लिए जरूरी टिप्स दिए जाते हैं. इस के लिए गांव में ही किसान खेत पाठशाला बनाई गई है, जिस में किसान खेतीबारी के गुर सीखते हैं.

गांव में सोलर पंप, पौलीहाउस, सोलर कोल्ड स्टोर आदि की उपलब्धता कराई जा रही है. इस से किसान खेती में जोखिम और लागत को कम करने में कामयाब रहे हैं और उन्हें अधिक उत्पादन भी मिल रहा है. इस से गांव वालों की आमदनी में काफी बढ़ोतरी हुई है.

नीम से किसानों की आमदनी बढ़ाने और पर्यावरण बचाने की कोशिश

मिट्टी और पर्यावरण के सुधार में नीम बहुत ही अधिक माने रखता है. हाल के सालों में नीम के पेड़ के महत्त्व को देखते हुए सरकारों और समुदाय दोनों में जागरूकता आई है. यही वजह है कि नीम के पौधे रोपने पर अब जोर दिया जाने लगा है.

नीम के बीज से बनने वाला तेल फसलों के लिए एक प्राकृतिक कीटनाशक, बीमारीनाशक का काम करता है, इसलिए इस के महत्त्व को देखते हुए खाली जमीनों पर इस के पौधों की रोपाई पर जोर देने की जरूरत है.

नीम के पौधे के इसी महत्त्व को देखते हुए उर्वरक और रसायन मंत्रालय, भारत सरकार में अवर सचिव के पद पर काम कर रहे सचिन कुमार सिन्हा ने लोगों को नीम के पौधे रोपने के लिए न केवल प्रेरित करने का काम किया, बल्कि आज वे लोगों में हजारों नीम के पौधे का मुफ्त वितरण भी कर चुके हैं.

Neemनीम के महत्त्व का पता उन्हें तब चला, जब उन्होंने देखा कि किसान अपने खेतों में कीट व बीमारियों के नियंत्रण के लिए निंबोली और उस की पत्तियों का उपयोग कर रहे हैं.

सचिन कुमार सिन्हा के मन में भी यह विचार आया कि अगर किसान और लोग अपने घरों के आसपास खाली पड़ी जमीनों, कालोनियों आदि में नीम के पौधे रोपें, तो यह न केवल पर्यावरण के सुधार में सहायक हो सकता है, बल्कि कम आय वर्ग के लोग निंबोली इकट्ठा कर के उसे मार्केट में बेच कर अच्छी आमदनी भी हासिल कर सकते हैं.

उन्होंने इस अभियान को शुरू ही किया था कि उर्वरक मंत्रालय में रहते हुए उन को नीमलेपित यूरिया को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई टीम का हिस्सा भी बनने का मौका मिला.

सचिन कुमार सिन्हा ने बताया कि नीमलेपित यूरिया के आ जाने से यूरिया की खपत में न केवल कमी आई है, बल्कि किसानों की आय में भी इजाफा हुआ है.

आमदनी बढ़ाने में मददगार

सचिन कुमार बताते हैं कि निंबोली कई प्रकार की बीमारियों को दूर करने में सहायक है. साथ ही, व्यवसायिक उपयोग कर गांवों में रोजगार को बढ़ावा भी दिया जा सकता है.

Neemसचिन कुमार सिन्हा ने बताया कि आज भी देश में नीम के तेल की जरूरत को पूरा करने के लिए निंबोली आयात किया जाता है, ताकि यहां भी नीम के तेल की कमी न हो. इस कड़ी में गुजरात के गांवों की महिलाओं को निंबोली से उन की आय बढ़ाने के लिए एक अभियान की शुरुआत की गई है.

सचिन कुमार सिन्हा खाली समय में ग्रेटर नोएडा और नोएडा के इलाकों में खाली पड़ी जमीनों और कालोनियों में मिशन मोड में नीम का पौधा रोपित करने में योगदान दे रहे हैं.

नीम के पौध रोपण को एक अभियान के रूप में बढ़ावा देने के लिए उन्होंने साल 2019 में अपने पिता के नाम पर ‘कृष्णा नीम फाउंडेशन’ की शुरुआत की, जिस के जरीए उन्होंने खाली और परती पड़ी जमीनों पर नीम के पेड़ लगवाए. साथ ही, इस अभियान में वे बिल्डर्स को शामिल कर नई बन रही कालोनियों में भी नीम के पौधे लगवा रहे हैं.

 अभियान से जुड़ रहे लोग

सचिन कुमार सिन्हा के इस अभियान में आज उत्तर प्रदेश के तमाम जिलों के लोग भी जुड़ चुके हैं, जिन के जरीए इन्होंने हजारों नीम के पौधे लगाने में कामयाबी पाई है. इस में उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जिले के स्मार्ट विलेज हसुड़ी औसानपुर में ग्राम प्रधान दिलीप त्रिपाठी और मेरठ के क्लब सिक्सटी के संस्थापक हरी बिश्नोई के साथ मिल कर ‘नीम क्रांति’ की शुरुआत कराई है.

इस के अलावा उन के अनुरोध पर देश की विभिन्न फर्टिलाइजर कंपनियों ने पूरे देश में 25,000 से ज्यादा नीम के पौधे रोपे हैं.

मोटे अनाजों की खेती

लघु या छोटी धान्य फसलों जैसे मंडुआ, सावां, कोदों, चीना, काकुन आदि को मोटा अनाज कहा जाता है. इन सभी फसलों के दानों का आकार बहुत छोटा होता है. लघु अनाज पोषक तत्त्वों और रेशे से भरपूर होने के चलते इस का औषधीय उपयोग भी है.

यह आयरन, कैल्शियम और प्रोटीन के साथसाथ फास्फोरस का भी अच्छा स्रोत है. मंडुआ से रोटी, ब्रेड, सत्तू, लड्डू, बिसकुट आदि तैयार किए जाते हैं, वहीं सावां, कोदों, चीना व काकुन को चावल, खीर, दलिया व मर्रा के रूप में उपयोग करते हैं और पशुओं को चारा भी मिल जाता है.

जहां मुख्य अन्य फसलें नहीं उगाई जा सकती हैं, वहां पर ये फसलें आसानी से उगा ली जाती हैं. ये फसलें सूखे व अकाल को सहन कर लेती हैं और 70-115 दिन में तैयार हो जाती हैं. फसलों पर कीट व रोगों का प्रकोप कम होता है.

ग्रामीण क्षेत्रों में इन मोटे अनाजों के बारे में अनेक कहावतें प्रचलित हैं, जैसे :

मंडुआ मीन, चीन संग दही,

कोदों भात दूध संग लही.

मर्रा, माठा, मीठा.

सब अन्न में मंडुआ राजा.

जबजब सेंको, तबतब ताजा.

सब अन्न में सावां जेठ.

से बसे धाने के हेठ.

 

खेत की तैयारी

 

मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई करें. इस के बाद 2-3 बार हैरो से गहरी जुताई करें.

मंडुआ की उन्नत किस्में

जल्दी पकने वाली प्रजाति (90-95 दिन) वीआर 708, वीएल 352, जीपीयू 45 है, जिस की उपज क्षमता प्रति बीघा (2500 वर्गमीटर/20 कट्ठा) 4-5 क्विंटल है.

मध्यम व देर से पकने वाली प्रजाति (100-115 दिन) जीपीयू 28, 67, 85, आरएयू 8 है. इस की उपज क्षमता 5-6 क्विंटल प्रति बीघा है.

सावां की प्रजाति

वीएल 172  (80-85 दिन), वीएल 207, आरएयू 3, 9 (85-90 दिन).

कोदों प्रजाति

जेके 65, 76, 13, 41, 155, 439 (अवधि 85-90 दिन), जीपीयूके पाली, डिडरी (अवधि 100-115 दिन) है.

चीना की प्रजाति

कम अवधि (60-70 दिन) एमएस 4872, 4884 व बीआर 7, मध्यम व देर से पकने वाली प्रजाति (70-75 दिन अवधि) जीपीयूपी 21, टीएनएयू 151, 145 है.

काकुन की उन्नत किस्में

आरएयू 2, को. 4, अर्जुन (75-80 दिन अवधि) व एसआईए 326, 3085, बीजी 1, मध्यम व देर से (80-85 दिन) पकने वाली है.

बीज की दर

प्रति बीघा मंडुआ 2.5-3.0 किलोग्राम सावां, कोदों, चीना, काकुन का 2.0 से 2.5 किलोग्राम की आवश्यकता होती है. सभी फसलों की बोआई जून से जुलाई महीने तक की जाती है.

बोआई की दूरी

मंडुआ में लाइन से लाइन की दूरी 20-25 सैंटीमीटर और पौध से पौध की दूरी 10 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. सावां, कोदों, चीना व काकुन के लिए 25-30 सैंटीमीटर लाइन से लाइन और पौध से पौध की दूरी 10 सैंटीमीटर रखें. सभी फसलों की बोआई की गहराई 2 सैंटीमीटर से ज्यादा नहीं होनी चाहिए.

खाद एवं उर्वरक

सभी फसलों में मिट्टी की जांच के आधार पर ही खाद व उर्वरक का प्रयोग करें. बोआई से पहले 17 किलोग्राम यूरिया, 62 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट व 10 किलोग्राम म्यूरेट औफ पोटाश का प्रयोग प्रति बीघा में करें. 25-30 दिन की पौध होने पर निराई के बाद 17 किलोग्राम यूरिया डालें.

उपज क्षमता

सावां, कोदों, चीना व काकुन की जल्दी पकने वाली प्रजातियों की 3-4 क्विंटल और मध्यम व देर से पकने वाली प्रजातियों की उपज 3.50 से 4.50 क्विंटल प्रति बीघा है.

अंत:वर्ती खेती

अरहर, ज्वार व मक्का के साथ आसानी से मोटे अनाजों की अंत:खेती की जा सकती है.

एमएसपी : ठगा जा रहा है अन्नदाता

अगर किसान को उस की फसल की लागत से थोड़ा अधिक पैसा मिल जाए तो वह संतुष्ट हो कर अगली फसल के लिए बेहतर बीज, खाद और पानी का इंतजाम कर सकेगा. इस से फसल भी अच्छी, अधिक और उम्दा होगी और इस का सीधा असर उस की खुशहाली पर दिखेगा.

कमजोर तबकों को जो अनाज बांटा जाता है, उस की क्वालिटी भी अच्छी होगी. अच्छे अनाज, दालें और सब्जियों का सीधा संबंध हमारी सेहत से है. लेकिन केंद्र और राज्य की सरकारें किसान की फसल के लिए एमएसपी तय करने में नानुकुर करती हैं. लिहाजा, न तो किसान अच्छे बीज खरीद पाता है, न खाद, न पानी, कीटाणुनाशक दवाओं आदि की व्यवस्था भी नहीं कर पाता है. कई बार तो पैसे के अभाव में अगली फसल की बोआई तक नहीं होती. खेत खाली ही पड़े रहते हैं.

हम में से बहुत से लोग वाकिफ नहीं होंगे कि यह एमएसपी क्या होता है और यह कैसे तय किया जाता है, इस से किसानों को क्या फायदा है. न्यूनतम सर्मथन मूल्य यानी एमएसपी किसानों की फसल की सरकार द्वारा तय कीमत होती है.

एमएसपी के आधार पर ही सरकार किसानों से उन की फसल खरीदती है. राशन सिस्टम के तहत जरूरतमंद लोगों को अनाज मुहैया कराने के लिए इस एमएसपी पर सरकार किसानों से उन की फसल खरीदती है. हालांकि उन किसानों की तादाद महज 6 फीसदी है, जिन को एमएसपी रेट मिल रहे हैं.

हर साल फसलों की बोआई से पहले उस का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय हो जाता है. बहुत से किसान तो एमएसपी देख कर ही फसल की बोआई करते हैं. सरकार विभिन्न एजेंसियों, जैसे एफसीआई आदि के माध्यम से किसानों से एमएसपी पर अनाज खरीदती है. एमएसपी पर खरीद कर सरकार अनाजों का बफर स्टौक बनाती है.

सरकारी खरीद के बाद एफसीआई और नैफेड के गोदामों में यह अनाज जमा होता है. इस अनाज का इस्तेमाल गरीब लोगों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी राशन प्रणाली में वितरण के लिए होता है.

केरल सरकार ने तो सब्जियों के लिए भी आधार मूल्य तय करने की पहल की है. सब्जियों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने वाला केरल पहला राज्य बन गया है. सब्जियों का यह न्यूनतम या आधार मूल्य उत्पादन लागत से तकरीबन 20 फीसदी अधिक होता है.

एमएसपी कौन तय करता है

सरकार हर साल रबी और खरीफ सीजन की फसलों का एमएसपी घोषित करती है. फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य कृषि लागत और मूल्य आयोग तय करता है. यह आयोग तकरीबन सभी फसलों के लिए दाम तय करता है, जबकि गन्ने का समर्थन मूल्य गन्ना आयोग तय करता है.

मूल्य आयोग समय के साथ खेती की लागत के आधार पर फसलों की कीमत तय कर के अपने सुरक्षा व सरकार के पास भेजता है. सरकार इन सुझाव पर स्टडी करने के बाद एमएसपी की घोषणा करती है.

किन फसलों का होता है एमएसपी

MSPकृषि लागत एवं मूल्य आयोग हर साल खरीफ और रबी सीजन की फसल आने से पहले एमएसपी की गणना करता है. इस समय 23 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार तय करती है, जिन में मुख्य हैं : धान, गेहूं, मक्का, जौ, बाजरा, चना, तुअर, मूंग, उड़द, मसूर, सरसों, सोयाबीन, सूरजमुखी, गन्ना, कपास और जूट वगैरह.

सब को नहीं मिलती एमएसपी

कोई किसान नहीं चाहता कि उस की फसल एमएसपी से कम दाम पर बिके, लेकिन 94 फीसदी किसानों को अपनी फसल औनेपौने दामों पर आढ़तियों को बेचनी पड़ती है. जिन किसानों की फसलें एमएसपी पर बिकती हैं, उन के सामने भी संकट कम नहीं हैं.

कई बार जब फसल की बिक्री का समय आता है, तो मंडियों में सरकारी खरीद केंद्रों पर फसलों से भरे ट्रैक्टरों व ट्रकों की लंबी लाइनें लग जाती हैं. किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए कईकई दिनों इंतजार करना पड़ता है.

इस के अलावा अधिकतर सरकारी केंद्रों पर कुछ न कुछ दिक्कतें रहती हैं. कभी लेबर की कमी, तो कभी सरकारी खरीद केंद्र तय समय से बहुत देरी से खुलते हैं. इस के चलते किसानों को अपनी फसल कम दाम पर आढ़तियों को बेचनी पड़ती है, जिस से उन्हें काफी नुकसान होता है.

कई बार तो किसानों को नुकसान इतना अधिक होता है कि अगली फसल के लिए बीज, खाद, पानी, बिजली, कीटनाशक और लेबर का खर्चा निकालना उन के लिए संभव नहीं होता है. ऐसे में वह कर्ज के बोझ तले दबता चला जाता है.

एक अनुमान के मुताबिक, देश में केवल 6 फीसदी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी का फायदा मिलता है, जिन में से सब से ज्यादा किसान उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा के हैं.

यह दर बहुत ही कम है. इस को बढ़ाए जाने की जरूरत है, ताकि ज्यादा से ज्यादा किसान अपनी लागत पर कुछ अतिरिक्त कमा सकें और उस पूंजी का इस्तेमाल अपनी अगली फसल को बेहतर बनाने में कर सकें.

एमएस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें

प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक प्रो. एमएस स्वामीनाथन को हरित क्रांति का जनक कहा जाता है. उन की अगुआई में 18 नवंबर, 2004 को राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया गया था. इस आयोन ने 4 अक्तूबर, 2006 को अपनी 5वीं और अंतिम रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी.

रिपोर्ट का उद्देश्य कृषि क्षेत्र में व्यापक और स्थायी बदलाव लाने के साथसाथ खेती को कमाई व रोजगार का जरीया बनाना था. उन्होंने किसानों की आय बढ़ाने के लिए जो सुझाव  दिए थे, अगर वे लागू कर दिए जाते तो देशभर के किसानों की दशा बदल जाती. लेकिन मोदी सरकार ने उन की 201 सिफारिशों में से मात्र 25 को ही बमुश्किल लागू किया है और वह भी जमीनी स्तर पर पूरी तरह फायदा नहीं दे रही हैं.

महात्मा गांधी ने 1946 में कहा था कि जो लोग भूखे हैं, उन के लिए रोटी भगवान है. देश में जबजब किसान आंदोलन होता है व किसान जब सड़क पर आते हैं, तबतब स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों की चर्चा होती है.

भूमि सुधार के लिए आयोग की सिफारिशें

इस रिपोर्ट में भूमि सुधारों की गति को बढ़ाने पर खास जोर दिया गया है. सरप्लस व बेकार पड़ी जमीनों को भूमिहीनों में बांटना, आदिवासी क्षेत्रों में पशु चराने के हक यकीनी बनाना व राष्ट्रीय भूमि उपयोग सलाह सेवा सुधारों के विशेष अंग हैं.

किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए

आयोग की सिफारिशों में किसान आत्महत्या की समस्या के समाधान, राज्य स्तरीय किसान कमीशन बनाने, सेहत सुविधाएं बढ़ाने व वित्त बीमा की स्थिति पुख्ता बनाने पर भी विशेष जोर दिया गया है.

एमएसपी औसत लागत से 50 फीसदी ज्यादा रखने की सिफारिश भी की गई है ताकि छोटे किसान भी मुकाबले में आएं, यही ध्येय खास है. किसानों की फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य कुछेक नकदी फसलों तक सीमित न रहें, इस लक्ष्य से ग्रामीण ज्ञान केंद्र व मार्केट दखल स्कीम भी लौंच करने की सिफारिश रिपोर्ट में है.

सिंचाई के लिए

सभी को पानी की सही मात्रा मिले, इस के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग व वाटर शेड परियोजनाओं को बढ़ावा देने की बात रिपोर्ट में है. इस लक्ष्य से पंचवर्षीय योजनाओं में ज्यादा धन आवंटन की सिफारिश की गई है.

फसली बीमा के लिए

रिपोर्ट में बैंकिंग व आसान वित्तीय सुविधाओं को आम किसान तक पहुंचाने पर विशेष जोर दिया गया है. सस्ती दरों पर फसल लोन मिले यानी ब्याजदर सीधे 4 प्रतिशत कम कर दी जाए. कर्ज उगाही में नरमी यानी जब तक किसान कर्ज चुकाने की स्थिति में न आ जाए, तब तक उस से कर्ज न वसूला जाए. उन्हें प्राकृतिक आपदाओं में बचाने के लिए कृषि राहत फंड बनाया जाए.

उत्पादकता बढ़ाने के लिए

भूमि की उत्पादकता बढ़ाने के साथ ही खेती के लिए ढांचागत विकास संबंधी बातें भी रिपोर्ट में कही गई हैं. मिट्टी की जांच व संरक्षण भी एजेंडे में है. इस के लिए मिट्टी के पोषण से जुड़ी कमियों को सुधारा जाए व मिट्टी की टैस्टिंग वाली लैबों का बड़ा नैटवर्क तैयार हो.

MSPखाद्य सुरक्षा के लिए

प्रति व्यक्ति भोजन की उपलब्धता बढ़े, इस मकसद से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में आमूल सुधारों पर बल दिया गया है. कम्यूनिटी फूड व वाटर बैंक बनाने व राष्ट्रीय भोजन गारंटी कानून की संस्तुति भी रिपोर्ट में है.

इस के साथ ही वैश्विक सार्वजनिक वितरण प्रणाली बनाने की सिफारिश की गई है, जिस के लिए जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के एक फीसदी हिस्से की जरूरत होगी. उन्होंने लिखा है, ‘महिला स्वयंसेवी ग्रुप की मदद से ‘सामुदायिक खाना और पानी बैंक’ स्थापित करने होंगे, जिन से ज्यादा से ज्यादा लोगों को खाना मिल सके. कुपोषण को दूर करने के लिए इस के अंतर्गत प्रयास किए जाएं.’ वादा तो था स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश लागू करने का, पर अब एमएसपी ही खतरे में है.

स्वामीनाथन आयोग की एक प्रमुख सिफारिश एमएसपी को ले कर थी. उन्होंने कहा कि किसानों को उन की फसलों के दाम उन की लागत में कम से कम 50 प्रतिशत जोड़ कर दिया जाना चाहिए. देशभर के किसान इसी सिफारिश को लागू करने की मांग ले कर सड़कों पर कई बार आंदोलन कर चुके हैं.

कभी गन्ने के बकाया भुगतान को ले कर, तो कभी प्याज की अचानक घट जाती कीमतों को ले कर, तो कभी कारपोरेट के इशारे पर जमीन के जबरन अधिग्रहण को ले कर, तो कभी बिजली, खाद, डील को रियायती दर पर देने की मांग को ले कर, तो कभी अपनी उपज की वाजिब कीमत को ले कर देश का किसान सड़कों पर उतरता रहा है. लेकिन तमाम वादे करने के बाद भी स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को न तो संप्रग सरकार ने लागू किया और न ही वर्तमान भाजपा सरकार ने.

भाजपा ने साल 2014 के आम चुनाव के समय अपने घोषणापत्र, जिसे वह ‘संकल्पपत्र’ कहती है, में वादा किया है कि वह फसलों का दाम लागत में 50 प्रतिशत जोड़ कर के देगी. लेकिन जब हरियाणा के एक आरटीआई एक्टिविस्ट पीपी कपूर ने आरटीआई दायर कर के सरकार से इस वादे के बारे में पूछा, तो सरकार ने जवाब दिया कि वह इसे लागू नहीं कर सकती है.

विडंबना है कि जो लोग सरकारी नौकरियों में हैं, उन का वेतन तो 150 गुना तक बढ़ाया गया है और किसान के लिए यही वृद्धि 70 बरस में सिर्फ 21 गुना तक बढ़ी है. लगता यही है कि पूरा तंत्र ही किसानों का विरोधी है.

सरकार क्यों नहीं दे रही एमएसपी की गारंटी

सरकार का सोचना है कि एमएसपी से देश में महंगाई बढ़ेगी. इस से सरकारी खजाने पर बोझ  के साथसाथ आम उपभोक्ताओं की जेब पर भी भारी बोझ पड़ेगा. कृषि उपज में महंगाई की आग भड़केगी, जिस से रसोईघर की लागत बढ़ जाएगी.

सरकार कहती है कि किसानों के लिए कहने को तो यह न्यूनतम समर्थन मूल्य है, लेकिन बाजार में यही अधिकतम मूल्य बन कर महंगाई का दंश देगा. इस से मुट्ठीभर किसानों का हित भले ही हो, पर उपभोक्ताओं के लिए एमएसपी मुश्किलों का सबब बन जाएगा.

आमतौर पर एमएसपी पर होने वाली सरकारी खरीद में अनाज की गुणवत्ता भी सवालों के घेरे में होती है. इस से सरकारी खरीद एजेंसी भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) को सालाना कई हजार करोड़ रुपए की चपत लगती है.

खराब अनाज ही राशन में बांटने की होगी मजबूरी

एमएसपी की गारंटी पर खाद्यान्न की खरीद बढ़ने के साथ कम गुणवत्ता वाले अनाज की खरीद भी अधिक करनी पड़ेगी. लिहाजा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत गरीब उपभोक्ताओं को घटिया अनाज प्राप्त करना उन की नियति बन जाएगी.

आमतौर पर मुफ्त अनाज मिलने की वजह से उन का मुखर विरोध कहीं सुनाई नहीं पड़ता. लिहाजा, इस का पूरा खमियाजा सरकारी खजाने के साथ गरीबों और आम उपभोक्ताओं को भुगतना पड़ेगा. इन्हीं गंभीर चुनौतियों को ध्यान में रख कर पहले की सरकारें भी एमएसपी की गारंटी देने से बचती रही हैं.

पीडीएस में जाता है 90 फीसदी अनाज

सरकारी एजेंसियां सालाना 3.50 करोड़ टन से ले कर 3.90 करोड़ टन तक गेहूं और 5.19 करोड़ टन तक चावल की खरीद करती हैं. गेहूं व चावल की ही सर्वाधिक खरीद होती है, जो कुल पैदावार का 30 फीसद होता है. सरकारी खरीद का 90 फीसदी हिस्सा पीडीएस में वितरित किया जाता है, जबकि 10 फीसदी हिस्सा स्ट्रैटेजिक बफर स्टौक के तौर पर रखा जाता है. एमएसपी पर होने वाली खरीद केवल 6 फीसद किसानों से ही होती है.

एमएसपी को ले कर ज्यादातर किसान अनजान

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के मुताबिक, देश के मुश्किल से 10 फीसदी किसानों को ही एमएसपी अथवा न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में जानकारी है. एमएसपी पर होने वाली सरकारी खरीद का कोई निश्चित क्वालिटी मानक न होने से जैसा भी अनाज बिकने को आता है, सरकारी एजेंसियों पर उन्हें खरीदने का दबाव होता है. यही वजह है कि एफसीआई हर साल कई लाख टन अनाज डैमेज क्वालिटी के नाम पर कौडि़यों के भाव नीलाम करती है.

बढ़ रहा है खाद्य सब्सिडी का बोझ

एमएसपी में लगातार होने वाली वृद्धि और पीडीएस पर बहुत ज्यादा रियायती दरों पर खाद्यान्न के वितरण से खाद्य सब्सिडी का बोझ बढ़ता जा रहा है. समर्थन मूल्य की गारंटी के साथ सरकारी खरीद कई गुना तक बढ़ सकती है. इतने अधिक अनाज को रखने और उस की खपत कहां होगी, इस का बंदोबस्त करना संभव नहीं होगा. स्वाभाविक तौर पर खुले बाजार में अनाज की कमी का सीधा असर कीमतों पर पड़ेगा, जो महंगाई को सातवें आसमान पर पहुंचा देगा.

ये तमाम बातें सरकार को एमएसपी की गारंटी देने से रोकती हैं. एमएसपी पर सरकारी खरीद चालू रहे और उस से कम पर फसल की खरीद को अपराध घोषित करना इतना आसान नहीं हैं जितना किसान संगठनों को लग रहा है.

यह भी सच है कि सरकार हर किसान का अनाज नहीं खरीद सकती. लिहाजा, खुला बाजार और मंडी में बैठे कालाबाजारियों के हाथों किसान लुटता व बरबाद होता रहेगा.

‘लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड’ से सम्मानित हुए डा. राजाराम त्रिपाठी

पिछले 30 सालों से अधिक समय से हर्बल कृषि के क्षेत्र में नित नएनए शोध एवं प्रयोगों की वजह से हर्बल कृषि में वैश्विक स्तर पर लगातार कई कीर्तिमान स्थापित करते हुए कृषि को फायदे का सौदा बना कर उस से लाभ प्राप्त करने वाले बस्तर संभाग के कोंडागांव जिले के प्रसिद्ध हर्बल किसान डा. राजाराम त्रिपाठी को थिंक मीडिया, बालाजी समूह ने उद्यानिकी विभाग, छत्तीसगढ़ शासन की सहभागिता में छत्तीसगढ़ व बस्तर की कृषि के ज्वलंत मुद्दों पर जीवंत चर्चापरिचर्चा आयोजित की एवं बस्तर के प्रगतिशील किसानों को मंच से सम्मानित किया.

इस आयोजन का प्रमुख आकर्षण था बस्तर के डा. राजाराम त्रिपाठी के द्वारा अंचल की खेतीकिसानी और मुख्य रूप से जनजातीय समुदाय की 30 वर्षों से की गई अनवरत सेवा के लिए ‘लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड’ से सम्मानित करना. उन को यह सम्मान बस्तर के अंचल के लोकप्रिय जननायक केबिनेट मंत्री एवं पूर्व पीसीसी अध्यक्ष मोहन मरकाम और वरिष्ठ पत्रकार एएन द्विवेदी के द्वारा प्रदान किया गया.

इस कार्यक्रम में प्रदेश में सब से कम उम्र में मंत्री बनाए गए और 15 वर्षों तक लगातार मंत्री रहे कद्दावर नेता केदार कश्यप, शाकंभरी बोर्ड के सदस्य रितेश पटेल, जनप्रतिनिधि तरुण गोलछा, जिजप सदस्य बाल सिंह बघेल, उद्यानकी व कृषि विभाग के उच्चाधिकारी गौतम, ध्रुव, समाजसेवी यतीद्र छोटू सलाम, मां दंतेश्वरी हर्बल समूह के निदेशक अनुराग कुमार, बलई चक्रवर्ती, शंकर नाग, कृष्णा नेताम, मेंगो नेताम और अनुज नाहरिया, अजय यादव सहित मीडिया जगत के साथियों की मौजूदगी रही.

इस आयोजन में सम्मानित होने वाले प्रगतिशील किसान महिला समूहों ने भी सैकड़ो की संख्या में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. इस अवसर पर डा. राजाराम त्रिपाठी ने उन्हें सम्मानित करने वाली संस्थाओं और स्थानीय जनप्रतिनिधियों, स्थानीय प्रशासन और स्थानीय मीडिया के साथियों को हमेशा सहयोग देने और हौसला बढ़ाने के लिए विशेष रूप से धन्यवाद दिया.

उन्होंने कहा कि यह सम्मान दरअसल उन का सम्मान नहीं है, यह तो बस्तर की माटी का सम्मान है और उन्होंने अपने सम्मान को मां दंतेश्वरी हर्बल समूह परिवार के सभी सदस्यों को सादर समर्पित किया.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि मां दंतेश्वरी, बस्तर की माटी के प्रताप एवं मां दंतेश्वरी हर्बल समूह के साथियों के कठोर परिश्रम से उन्हें देशविदेश में सैकड़ों अवार्ड और पुरस्कार मिले हैं, किंतु अपनी कर्मभूमि में अपने क्षेत्र के जननायकों के हाथों सम्मानित होना मेरे जीवन का सब से बड़ा सम्मान है.

गौरतलब है कि डा. राजाराम त्रिपाठी द्वारा “मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म एवं रिसर्च सैंटर” के जरीए विगत 3 दशकों से कई प्रकार के देशविदेश में भारी मांग वाली हर्बल फसलों जैसे सफेद मूसली, स्टीविया, काली मिर्च, आस्ट्रेलियन टीक आदि फसलों की गुणवत्ता, उत्पादकता और लाभदायकता बढ़ाने के दृष्टिकोण से इन पर निरंतर शोध का काम करते हुए कई हर्बल फसलों की उन्नत किस्में भी डा. राजाराम त्रिपाठी के द्वारा विकसित की गई हैं. इन नई किस्मों की अंकुरण दर और उन की उत्पादन क्षमता में भी उल्लेखनीय बढ़ोतरी दर्ज हुई है. इन के द्वारा विकसित की गई उन्नत किस्म की काली मिर्च “मां दंतेश्वरी काली मिर्च-16” और ‘आस्ट्रेलियन टीक’ की सफल जुगलजोड़ी ने कृषि जगत में ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय खबरों में भी धूम मचाई है. हाल में ही इन्हें 40 लाख रुपए में बनने वाले 1 एकड़ के “पौलीहाउस” का मात्र डेढ़ लाख रुपए में सस्ता टिकाऊ और ज्यादा लाभ देने वाला नैसर्गिक विकल्प “नेचुरल ग्रीनहाउस” के सफल मौडल के लिए देश के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के हाथों देश के सर्वश्रेष्ठ किसान का अवार्ड भी प्रदान किया गया है.

बीएससी (गणित), एलएलबी, कार्पोरेट- ला एवं 5 अलगअलग विषयों में स्नातकोत्तर की डिगरियों और डाक्टरेट की उपाधि के साथ डा. राजाराम त्रिपाठी देश के सब से ज्यादा पढ़ेलिखे अग्रिम पंक्ति के किसान नेता के रूप में भी जाने जाते हैं.

सब से बड़ी बात यह है कि इन के इन रिसर्च एवं नवाचारों के फायदे बस्तर, छत्तीसगढ़ में ही नहीं, बल्कि पूरे देश के किसान उठाने लगे हैं.

5 राज्यों के चुनावों के केंद्र में “किसान और घोषणापत्र”

नवंबर की सर्दी में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलगाना और मिजोरम सहित पांच राज्यों के चुनाव होने हैं. इधर जैसेजैसे ठंड बढ़ रही है, वैसेवैसे इन राज्यों की हवाओं में राजनीति की गरमी बढ़ते जा रही है.

यों तो लोकतांत्रिक देश भारत में आएदिन सहकारी समितियों से ले कर सिंचाई समितियों तक नाना प्रकार की समितियों के चुनाव, ग्राम पंचायत, जनपद, जिला जनपद, नगरपालिका, निगम  चुनाव, विधानसभा, राज्यसभा, लोकसभा के चुनाव, उपचुनाव होते ही रहते हैं, पर कई मायनों में इस बार हो रहे इन 5 राज्यों के चुनाव कुछ अलग हट कर हैं.

सब से महत्वपूर्ण बात यह कि इन 5 राज्यों के चुनावों में पहली बार “किसान” केंद्रीय भूमिका में है. इन सभी चुनावों में प्रदेश के किसानों के जरूरी मुद्दों के अलावा प्रमुख राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पार्टियों के घोषणापत्रों का महत्व भी बढ़ा है, जबकि इस से पहले जिस जनता के लिए यह घोषणापत्र तैयार किए जाते थे, वह जनता स्वयं ही इन घोषणापत्रों को गंभीरता से नहीं लेती थी और स्थानीय मुद्दों, उम्मीदवार की छवि, जाति, धर्म अथवा अन्यान्य मापदंडों के आधार पर वोट देने के लिए अपने प्रत्याशी का चयन करती थी.

चूंकि यदि जनता ही पार्टियों के घोषणापत्रों और जीतने के बाद घोषणापत्र में किए गए वादों के बिंदुवार क्रियान्वयन के आधार पर अगले चुनावों में वोट नहीं डालती, तो फिर भला राजनीतिक पार्टियां अपने घोषणापत्रों को गंभीरता से ले कर उन पर बिंदुवार अमल क्यों करेंगी. इसीलिए चुनाव जीतने के बाद प्रायः घोषणापत्र को डस्टबिन के हवाले कर देती थीं और उन से कोई सवाल भी नहीं पूछता था.

कुलमिला कर ‘घोषणापत्र’ का मतलब ही हो गया वो थोथी घोषणाएं, जो केवल लोगों की रुचि के लिए घोषित की जाएं, पर जिन का अमल करना जरूरी नहीं है.

जनता में शिक्षा और जागरूकता की कमी, धर्म, जातियोंउपजातियों में सामाजिक बंटवारा और तदनुसार वोटों के ध्रुवीकरण व बंटवारा आदि इस की प्रमुख वजह रही हैं. वजह चाहे जो भी रही हों, पर इस से भारत का लोकतंत्र धीरेधीरे कमजोर ही हुआ है.

किंतु वर्तमान चुनाव में ‘घोषणापत्र’ महत्वपूर्ण व निर्णायक मुद्दा बन कर उभरा है. इस का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि केंद्र की सत्ता में काबिज और दुनिया की सब से बड़ी पार्टी कहलाने वाली भाजपा ने आज पर्यंत, जबकि चुनाव होने में केवल एक हफ्ता ही शेष है, किंतु अभी तक अपने घोषणापत्र जारी नहीं किए हैं. और यह जानबूझ कर रणनीतिक कारणों से है.

कांग्रेस की ब्रह्मास्त्ररूपी ‘चुनावी-गारंटियों’ को पर्याप्त टक्कर देने के लिए भाजपा में भारी माथापच्ची और विचारविमर्श जारी है. यही वजह है कि इन का घोषणापत्र अथवा संकल्पपत्र अभी तक जारी नहीं हुआ है.

घोषणापत्रों पर अमल करने के मामले में सब से पहले ठोस उदाहरण, 15 सालों के राजनीतिक वनवास के बाद किसानों के वोटों के दम पर सत्ता में दमदार तरीके से वापस लौटी छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने प्रस्तुत किया. छत्तीसगढ़ में लगभग 80 फीसदी वोटर किसान परिवारों से हैं और इन में भी ज्यादातर किसान धान की खेती करते हैं.

15 साल तक सत्ता में रही भाजपा ने बढ़ती लागत से परेशान इन धान किसानों को प्रति क्विंटल धान पर 270 रुपए का बोनस देने की घोषणा की, लेकिन सत्ता में आने के बाद एकदम से मुकर गई.

किसानों ने सरकार को उन के वादे की लगातार याद दिलाई और घोषित बोनस देने की मांग की, पर सरकार ने इन बेचारे रिरियाते किसानों की ओर दोबारा मुड़ कर भी नहीं देखा.

इसी क्रम में छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने औषधीय पौधों के किसानों को केंद्र के अनुदान के अलावा 25 फीसदी अनुदान की घोषणा की, पर 15 सालों के शासन में एक भी किसान को यह अनुदान नहीं दिया गया.

अलगअलग राजनीतिक तिकड़मों के जरीए भाजपा की सरकार बनती रही, किसान मन मसोस कर बैठे रहे और खून के आंसू रोते रहे. पिछले चुनाव में जब कर्जमाफी और 2500 रुपए पर धान खरीदने के वादे को घोषणापत्र में शामिल कर छत्तीसगढ़ कांग्रेस पार्टी किसानों के पास गई, तो पहलेपहल किसानों ने इन की घोषणाओं पर भरोसा नहीं किया. आखिरकार कांग्रेस को गांवगांव जा कर कर्जमाफी एवं 2500 रुपए प्रति क्विंटल धान खरीदी करने की गंगाजल ले कर शपथ लेनी पड़ी. अंततः किसानों ने कांग्रेस की शपथ पर भरोसा किया और 90 सीट में 68 सीट दे कर बंपर जीत दिलाई.

अब बारी कांग्रेस की थी. कांग्रेस ने भी सत्ता में वापसी व ताजपोशी के 2 घंटे के भीतर ही किसानों के कर्जमाफी के वादे को पूरा करने का प्रयास किया. घोषणाओं के क्रियान्वयन की छुटपुट खामियों और शराबबंदी को तकनीकी रूप से न कर पाने के अलावा कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र की सभी घोषणाओं को पूरा करने में पूरा जोर लगाया.

कुछ महीने पहले हुए हिमाचल प्रदेश के चुनाव में भाजपा की नई पेंशन योजना से असंतुष्ट 2 लाख से ज्यादा कर्मचारी परिवारों के लिए ओल्ड पेंशन एक बड़ा व संवेदनशील मुद्दा था. कांग्रेस ने इस मुद्दे के महत्व को समझते हुए इसे अपने घोषणापत्र में शामिल किया और जीतने पर पुरानी पेंशन योजना लागू करने का वादा किया.

चुनाव जीतने के बाद इस पर कांग्रेस ने तत्काल अमल भी किया. इस से सरकारी कर्मचारियों में और जनता में भी कांग्रेस की विश्वसनीय कुछ और बढ़ी.

छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश के चुनावी घोषणापत्रों पर अमल के बाद कांग्रेस ने कर्नाटक चुनावों में अपने घोषणापत्र में जरूरी जमीनी मुद्दों को शामिल कर घोषणापत्र के दम पर न केवल बाजी मारी, बल्कि कर्नाटक की सत्ता पर बैठते ही उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपने घोषणापत्र का बिंदुवार क्रियान्वयन करने का प्रयास किया. सोशल मीडिया के बूते इसे पड़ोसी प्रदेशों और देश के वोटरों ने देखा भी और समझा भी.

राजनीतिक पार्टियों के ढपोरशंखी घोषणाओं व थोथे घोषणापत्रों के प्रति जनता के बढ़ते अविश्वास, उदासीनता व बेजारी को देखते हुए ही अब इसे घोषणापत्र के बजाय ‘संकल्पपत्र’ और ‘गारंटीपत्र’ आदि ज्यादा विश्वसनीय नाम दिए जा रहे हैं.

कांग्रेस को भी यह सद्बुद्धि रातोंरात नहीं आई. केंद्र व राज्यों में जब कांग्रेस की लुटिया पूरी तरह डूबने लगी, तब उन्हें किसानों के वोटों और घोषणापत्रों का महत्व समझ में आया‌. उन्होंने किसानों की समस्याओं और दूसरे तबकों की जरूरत का ध्यान रखते हुए व्यावहारिक घोषणापत्र बनाए और उस पर ईमानदारी से अमल करने की कवायद शुरू की. फलत: कांग्रेस का बढ़ता हुआ ग्राफ सामने है.

कांग्रेस के कायाकल्प में राहुल गांधी की भूमिका का अगर जिक्र न हो, तो नाइंसाफी होगी. ‘भारत जोड़ो’ की 3500 किलोमीटर की यात्रा में पगपग पर जनता के हर तबके के साथ जुड़ने की प्रक्रिया में उन के व्यक्तित्व के कई सकारात्मक पहलू देश की जनता ने देखे, राहुल गांधी को ले कर गाड़े गए कई नकारात्मक मिथक टूटे और कई नए बने.

राहुल गांधी के लिए यह कायाकल्प की अंतर्यात्रा साबित हुई, वहीं कांग्रेस के लिए भी यह यात्रा एक नई संजीवनी बूटी साबित हुई.

अब अगर भाजपा की बात करें, तो कांग्रेस पर लगातार लग रहे घोटालों, भ्रष्टाचार के आरोपों और बदइंतजामी के चलते जनता ने साल 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी और भाजपा पर यकीन कर उन्हें एक मौका दिया और केंद्र की सत्ता पर बिठाया.

वहीं साल 2019 के चुनाव में नरेंद्र मोदी व भाजपा ने किसानों की आय को दोगुना करने, 100 स्मार्ट सिटी बनाने, प्रतिवर्ष 2 करोड़ युवाओं को रोजगार देने जैसे बड़ेबड़े वादे किए, बुलेट ट्रेन चलाने, गंगा की समग्र सफाई और उस पर नौपरिवहन स्थापित करने जैसे कितने ही सुनहरे सपने दिखाए. वह वादे और इरादे एवं घनगर्जन के साथ की गई ढपोरशंखी घोषणाएं आज केवल जनता को ही नहीं, बल्कि स्वयं भाजपा को भी मुंह चिढ़ा रही हैं.

वैसे, देश के किसानों द्वारा लंबे समय से मांगी जा रही उन की सभी फसलों के लिए एक सक्षम “न्यूनतम समर्थन मूल्य- गारंटी कानून” ( एमएसपी गारंटी-कानून) जल्द से जल्द ला कर देश के किसानों की नाराजगी कुछ हद तक कम की जा सकती है. देश के किसानों, किसान संगठनों, युवाओं से सीधी जमीनी चर्चा कर के इन की समस्याओं के दीर्घकालिक हल भी ढूंढे जा सकते हैं, किंतु आगामी साल 2024 के चुनाव में कौन सा मुंह ले कर देश के किसानों, बेरोजगारों और आम जनता के पास जाएंगे, मोदी और भाजपा के सामने सीना ताने खड़ा यह वो सवाल है, जिस का कोई संतोषजनक जवाब फिलहाल इन के पास नहीं है.