ओडिशा में बढ़ेगा दूध उत्पादन

मयूरभंज : राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने बीते 13 जनवरी, 2025 को ओडिशा के मयूरभंज जिले में डेयरी और पशुधन क्षेत्र में महत्वपूर्ण पहलों की एक श्रृंखला का वर्चुअल माध्यम से उद्घाटन किया.

मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के तहत पशुपालन और डेयरी विभाग की अगुआई में इन कार्यक्रमों का उद्देश्य ग्रामीण स्तर पर आजीविका को बढ़ाना, पशुधन उत्पादकता में सुधार करना और क्षेत्र में महत्वपूर्ण पोषण संबंधी चुनौतियों का समाधान करना है.

इस कार्यक्रम में मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय और पंचायती राज मंत्री राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह, केंद्रीय  शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान, मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी और पंचायती राज राज्य मंत्री प्रो. एसपी सिंह बघेल, मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी और अल्पसंख्यक मामलों के राज्य मंत्री  जौर्ज कुरियन  और ओडिशा के मुख्यमंत्री मोहन चरण माझी सहित कई व्यक्ति उपस्थित थे.

कार्यक्रम के दौरान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने ‘राष्ट्रीय गोकुल मिशन’ के तहत मयूरभंज में ‘मवेशी प्रेरण’ कार्यक्रम का उद्घाटन किया. इस पहल में ओडिशा के मयूरभंज जिले में चुने गए लाभार्थियों को 3,000 उच्च आनुवंशिक गुणवत्ता वाले मवेशियों का वितरण किया गया. पशुपालन और डेयरी विभाग की ‘राष्ट्रीय गोकुल मिशन’ योजना के तहत राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड द्वारा मयूरभंज में 5 सालों में 37.45 करोड़ रुपए के आवंटन के साथ उत्पादकता वृद्धि परियोजना कार्यान्वित की जा रही है.

इस कार्यक्रम का उद्देश्य दूध उत्पादन को बढ़ाना, ग्रामीण आय को मजबूत करना और टिकाऊ पशुधन विधियों को बढ़ावा देना है. कार्यक्रम के हिस्से के रूप में गिफ्ट मिल्क प्रोग्राम भी शुरू किया गया. साथ ही, कुपोषण से निबटने और बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार के लिए डिजाइन किए गए  इस कार्यक्रम में मयूरभंज जिले के लगभग 1,200 स्कूली बच्चों को विटामिन ए और डी से भरपूर 200 मिलीलिटर फ्लेवर्ड दूध प्रदान किया जाएगा.

इस पहल का वर्चुअल उद्घाटन करते हुए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने पोषण और शिक्षा पर ऐसे कार्यक्रमों के सकारात्मक प्रभाव पर भी ध्‍यान दिया और उम्मीद जताई कि इस तरह के प्रयास देशभर में इसी तरह के कार्यक्रमों के लिए एक मौडल के रूप में काम करेंगे. इस के अलावा, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने ओडिशा राज्य में दूध खरीद, प्रसंस्करण और विपणन को मजबूत करने के लिए एक बाजार सहायता कार्यक्रम शुरू किया.

इस पहल का उद्देश्य राज्य में दूध खरीद क्षमता को 5 लाख लिटर प्रतिदिन से बढ़ा कर 10 लाख लिटर प्रतिदिन करना है. यह कार्यक्रम किसानों के लिए बेहतर लाभ सुनिश्चित करने के लिए ब्रांडिंग और वितरण नैटवर्क बनाने पर केंद्रित है.

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने डेयरी क्षेत्र में दूरदर्शी नीतियों और अभिनव कार्यक्रमों के  माध्यम से बदलाव लाने में पशुपालन और डेयरी विभाग के प्रयासों की भी सराहना की. उन्होंने दूध उत्पादन में भारत के प्रयासों पर प्रकाश डाला, जो पिछले दशक में वैश्विक रुझानों को पार करते हुए 6 फीसदी सालाना दर से बढ़ा है.

राष्ट्रपति ने पशुधन उत्पादकता बढ़ाने और डेयरी फार्मिंग में लाभ को बढ़ाने के लिए कृत्रिम गर्भाधान और उच्‍च गुणवत्तायुक्‍त वीर्य संवर्धन जैसी उन्नत तकनीकों को अपनाने की आवश्यकता पर भी जोर दिया.

केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह ने भी ‘राष्ट्रीय गोकुल मिशन’ की सफलता पर जोर दिया, जिस ने देशी गोजातीय नस्लों की नस्ल सुधार और उत्पादकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. उन्होंने ग्रामीण आर्थिक विकास को गति देने और किसानों के लिए बाजार संपर्क में सुधार करते हुए महत्‍वपूर्ण डेयरी पहलों के लिए निरंतर समर्थन प्रदान करने के लिए पशुपालन व डेयरी विभाग और राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) के प्रयासों की भी सराहना की.

ओडिशा के मुख्यमंत्री मोहन चरण माझी ने कहा कि स्थायी ग्रामीण आजीविका को बढ़ावा देने में पशुधन की महत्वपूर्ण भूमिका है. उन्होंने नवोन्मेषी और किसान केंद्रित कार्यक्रमों के माध्यम से डेयरी और पशुधन क्षेत्रों को आगे बढ़ाने के लिए राज्य की प्रतिबद्धता पर जोर दिया.

इस कार्यक्रम में ओडिशा के वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्री  गणेश राम सिंह खुंटिया, ओडिशा के पशु संसाधन विकास, मत्स्यपालन और एमएसएमई मंत्री  गोकुलानंद मल्लिक, पशुपालन और डेयरी विभाग की सचिव अलका उपाध्याय, पशुपालन और डेयरी विभाग की अतिरिक्त सचिव  वर्षा जोशी, राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के अध्यक्ष मीनेश शाह, ओडिशा के मत्स्यपालन और पशु संसाधन विकास विभाग के प्रधान सचिव सुरेश कुमार वशिष्ठ और अन्य वरिष्ठ अधिकारी भी उपस्थित थे.

पशुपालन में 40 योजनाओं का शुभारंभ : पशुपालकों को होगा मुनाफा

पुणे : पुणे के जीडी मदुलकर नाट्यगृह में 13 जनवरी, 2025 को उद्यमिता विकास सम्मेलन 2025, जिस का विषय था “उद्यमियों को सशक्त बनाना, पशुधन अर्थव्यवस्था में बदलाव लाना” का आयोजन किया गया.

इस कार्यक्रम का उद्घाटन केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्री  राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह ने राज्य मंत्री एसपी सिंह बघेल और जौर्ज कुरियन के साथ किया.  इस अवसर पर महाराष्ट्र की पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्री  पंकजा मुंडे भी मौजूद थीं.

इस सम्मेलन के दौरान केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह ने कुल 40 परियोजनाओं का शुभारंभ किया. इन में से 20 परियोजनाएं राष्ट्रीय पशुधन मिशन और 20 परियोजनाएं पशुपालन अवसंरचना विकास निधि के तहत शामिल हैं.

इस सम्मेलन में आए मंत्रियों ने प्रदर्शनी स्टालों का दौरा किया, उद्यमियों से बातचीत की और उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले राज्यों को सम्मानित किया गया. पशुपालन अवसंरचना विकास निधि के लिए महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु और उद्यमिता कार्यक्रम के लिए कर्नाटक, तेलंगाना और मध्य प्रदेश राज्यों को सम्मानित किया गया. साथ ही, कैनरा बैंक, भारतीय स्टेट बैंक और एचडीएफसी जैसे बैंकों को इन योजनाओं के तहत क्रेडिट सहायता के लिए भी सम्मानित किया गया.

मंत्रियों ने पशुपालन अवसंरचना विकास निधि और राष्ट्रीय पशुधन मिशन लाभार्थियों की सफलता की कहानियों पर प्रकाश डालने वाले 2 संग्रहों का अनावरण किया. राष्ट्रीय पशुधन मिशन 2.0 का शुभारंभ किया और राष्ट्रीय पशुधन मिशन योजना के लिए एक निगरानी डैशबोर्ड भी लौंच किया गया.

इस के अतिरिक्त पशुपालन और डेयरी विभाग ने 14 जनवरी से 13 फरवरी, 2025 तक “पशुपालन और पशु कल्याण माह” घोषित किया, जिस के दौरान देशभर में जागरूकता अभियान और शैक्षिक गतिविधियां आयोजित की जाएंगी.

केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह ने पंकजा मुंडे और महाराष्ट्र सरकार को इस सम्मलेन की मेजबानी के लिए धन्यवाद किया. उन्होंने ग्रामीण आर्थिक विकास में पशुपालन की भूमिका, “एफएमडीमुक्त भारत”  को प्राप्त करने के लिए एफएमडी टीकाकरण कार्यक्रमों की आवश्यकता और महाराष्ट्र सहित 9 एफएमडीमुक्त क्षेत्रों के बनाने पर जोर दिया.

उन्होंने  सरकारी उद्यमिता कार्यक्रमों में अधिक से अधिक भागीदारी को प्रोत्साहित किया और बैंकों से किसानों व महिला उद्यमियों का समर्थन करने के लिए लोन प्रक्रियाओं को आसान बनाने का निवेदन किया.

उन्होंने आगे बताया कि 24 जून, 2020 को ‘आत्मनिर्भर भारत’ पैकेज के तहत शुरू किया गया पशुपालन अवसंरचना विकास निधि 17,296 करोड़ रुपए की धनराशि के साथ  डेयरी प्रसंस्करण, मांस प्रसंस्करण, चारा उत्पादन और पशु चिकित्सा के बुनियादी ढांचे में परियोजनाओं को बढ़ावा दे रहा है, जिसे अब अतिरिक्त वित्त पोषण और विस्तारित लाभों के साथ बढ़ाया गया है. अब तक 10,356.90 करोड़ रुपए की लागत वाली 362 परियोजनाओं को मंजूरी दी गई है, जिस में 247.69 करोड़ रुपए ब्याज सब्सिडी जारी की गई है.

केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह ने बताया कि साल 2021 में शुरू की गई पुनर्गठित राष्ट्रीय पशुधन मिशन योजना के तहत राष्ट्रीय पशुधन मिशन- उद्यमिता विकास कार्यक्रम गतिविधि मुरगीपालन, भेड़, बकरी, सूअर, ऊंट और अन्य पशुधन के साथसाथ चारा उत्पादन और ग्रेडिंग बुनियादी ढांचे में परियोजनाओं के लिए 50 फीसदी पूंजी सब्सिडी (50 लाख रुपए तक) प्रदान करती है. अब तक 2,182.52 करोड़ रुपए की कुल लागत वाली 3,010 परियोजनाओं को 1,005.87 करोड़ रुपए की सब्सिडी के साथ मंजूरी दी गई है. यह योजना आनुवंशिक विकास कार्यक्रम, चारा एवं खाद्य पहल और राज्य वर्गीकरण के आधार पर प्रीमियम सब्सिडी के साथ पशुधन बीमा भी प्रदान करती है.

महाराष्ट्र की पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्री पंकजा मुंडे ने इस क्षेत्र के विकास, उत्पादकता वृद्धि के लिए उद्यमिता के महत्व पर जोर दिया और बैंकों से किसानों के लिए लोन प्रक्रिया को सरल बनाने का अनुरोध किया.

राज्य मंत्री जौर्ज कुरियन ने पुणे की एक शैक्षणिक केंद्र के रूप में प्रशंसा की और पशुपालन अवसंरचना विकास निधि  और राष्ट्रीय पशुधन मिशन के माध्यम से 15,000 से अधिक नौकरियों का सृजन होगा, इस की भी जानकारी दी.

मंत्री एसपी सिंह बघेल ने पारंपरिक प्रथाओं की तुलना में नवीन पशुपालन तकनीकों को अपनाने की वकालत की और सटीक पशुधन गणना और बेहतर प्रजनन प्रथाओं के महत्व पर बल दिया.

कार्यक्रम की शुरुआत भारत सरकार की सचिव अलका उपाध्याय के भाषण से हुई, जिन्होंने पशुपालन को “उदयशील क्षेत्र” बताया, जिस में निवेश की अपार संभावनाएं हैं. उन्होंने लंपी स्किन डिजीज के लिए वैक्सीन बनाने के महाराष्ट्र के प्रयासों की सराहना की और निजी क्षेत्र के निवेश, प्रयोगशाला मान्यता और उत्पादकता बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर दिया.

इस सम्मलेन में गोसेवा आयोग के अध्यक्ष शेखर मुंदड़ा और कई सांसदों व परिषद के सदस्यों सहित कई प्रमुख व्यक्तियों ने भी भाग लिया. सम्मेलन में 2 तकनीकी सत्र हुए, ‘पशुधन क्षेत्र  विकास को गति देना: उद्यमिता, प्रसंस्करण और अवसर’ और ‘पशुधन क्षेत्र और लोन सुविधा में बैंकों और एमएसएमई की भूमिका’, जहां विशेषज्ञों ने निवेश और उद्यमिता के अवसरों पर चर्चा की.

पशुओं के लिए बरसीम एक पौष्टिक दलहनी चारा (Pulse Fodder)

बरसीम हरे चारे की एक आदर्श फसल है. यह खेत को अधिक उपजाऊ बनाती है. इसे भूसे के साथ मिला कर खिलाने से पशु के निर्वाहक एवं उत्पादन दोनों प्रकार के आहारों में प्रयोग किया जा सकता है.

बरसीम शीतोष्ण जलवायु वाले भागों में उगाई जाने वाली फसल है. अधिक ठंड व पाले से इस के उत्पादन में कमी हो जाती है. बोआई के समय तापमान 25-30 डिगरी सैंटीग्रेड और वानस्पतिक बढ़ोतरी के लिए 15-25 डिगरी सैंटीग्रेड सही रहता है.

भूमि

बरसीम एक दलहनी फसल है, इसलिए इस की जड़ों में सूक्ष्म जीवाणु पाए जाते हैं. हर एक अवस्था में इन जड़ग्रंथियों में रह रहे जीवाणुओं का जिंदा रहना फसल की बढ़वार के लिए बेहद जरूरी है, इसलिए बरसीम की खेती के लिए भूमि में उचित जल निकासी और अच्छा मृदा वायु का संचार होना चाहिए.

इस की खेती सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन भारी दोमद मिट्टी, जिस में पानी सोखने की क्षमता अधिक होती है, इस फसल के लिए अधिक लाभदायक है. बरसीम की खेती सामान्य मिट्टी से ले कर क्षारीय मिट्टी तक में अच्छी तरह से उगाई जा सकती है, लेकिन अम्लीय मिट्टी इस की खेती के लिए अच्छी नहीं होती है.

उन्नतशील प्रजातियां

बरसीम में गुणसूत्र के आधार पर 2 तरह की प्रजातियां द्विगुणित और चतुर्गुणित पाई जाती हैं. द्विगुणित प्रजातियां मिसकावी, वरदान, बरसीम लुधियाना-1 हैं, वहीं चतुर्गुणित प्रजातियों में पूसा जौइंट, टाइप-526, 678, 780 हैं.

खेत की तैयारी

एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के बाद 4-5 बार हैरो या देशी हल लगा कर पाटा से खेत को समतल कर लेना चाहिए. साथ ही, जरूरत के मुताबिक समान सिंचाई के लिए क्यारियां भी बना लेनी चाहिए.

बोआई की विधि

आमतौर पर बरसीम की बोआई की 2 प्रमुख विधियां हैं :

पानी भरे खेत में बोआई : पानी भरे खेत में पटेला चला कर पानी गंदला करने के बाद छिटकवां विधि से बोआई की जाती है. इस विधि में खेत की तैयारी धान में पौध रोपण करने की तरह से ही की जाती है.

गंदले पानी में बोआई करने से मिट्टी की एक हलकी परत बीजों के ऊपर चढ़ जाती है, जिस से वे ढंक जाते हैं और उन्हें चिडि़या या दूसरे पक्षी नहीं खा पाते और पर्याप्त नमी होने के कारण बीज का अंकुरण भी बहुत अच्छा होता है.

सूखे खेत में बोआई : इस विधि में अच्छी प्रकार की भुरभुरी मिट्टी तैयार कर समतल किए गए खेत में पहले ही सिंचाई के लिए क्यारियां बना कर बोआई छिटकवां विधि द्वारा या लाइन में देशी हल की सहायता से की जाती है.

लाइन में बोआई करने पर लाइन से लाइन की दूरी 15-20 सैंटीमीटर रखनी चाहिए और बीज की गहराई 15-20 सैंटीमीटर से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. साथ ही, अंकुरण के लिए पर्याप्त नमी बनाए रखने के लिए बोआई के तुरंत बाद खेत में पानी लगा दिया जाना चाहिए.

बीज दर

द्विगुणित किस्मों के बीजों की दर 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और चतुर्गुणित किस्मों के बीजों का आकार में बड़ा होने के कारण 30-40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होती है.

बीजोपचार

बरसीम के बीज में आमतौर पर कासनी का बीज मिला रहता है. बीज को 5 फीसदी नमक के घोल में डुबो कर इसे अलग कर लें (कासनी का बीज पानी के ऊपर आ जाता है). बीज का उपचार दलहनी फसल होने के कारण राइजोबियम कल्चर से होना बहुत जरूरी है.

बरसीम में राइजोबियम ट्राईफोली नामक बैक्टीरिया का कल्चर में इस्तेमाल किया जाता है. इस के प्रयोग से पौधों में अच्छी प्रकार से जड़गांठों में मौजूद बैक्टीरिया हवा से नाइट्रोजन प्राप्त करते हैं.

कल्चर प्रयोग के लिए सब से पहले 100 ग्राम गुड़ को 1 लिटर पानी में उबाल कर ठंडा कर लें. उस के बाद इस में राइजोबियम कल्चर को घोल कर फिर बीज के बराबर मात्रा में भुरभुरी मिट्टी ले कर धीरेधीरे छिड़क कर इस प्रकार मिलाएं कि मिट्टी के ढेले न बनें.

इस संवर्धित घोल से तैयार की गई कल्चरयुक्त मिट्टी को 24 घंटे भिगोए गए बीज के साथ मिला कर बोआई के लिए प्रयोग कर सकते हैं.

ध्यान रखने वाली बात यह है कि कल्चर बीज को 24 घंटे से अधिक नहीं रखना चाहिए, क्योंकि फिर बैक्टीरिया नष्ट होने लगते हैं.

उर्वरक

बरसीम दलहनी फसल होने के कारण इस की जड़ों में राइजोबियम बैक्टीरिया होते हैं, जो खुद हवा से नाइट्रोजन लेते हैं, इसलिए फसल को बाहर से कम नाइट्रोजन देने की जरूरत पड़ती है.

उन्नत फसल के उत्पादन के लिए 25-30 किलोग्राम नाइट्रोजन और 50-60 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की जरूरत पड़ती है. अधिक उपज लेने के लिए हर एक कटाई के बाद पानी लगा कर 5-6 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से यूरिया का छिड़काव करना चाहिए. साथ ही, लक्षण दिखाई पड़ने पर सूक्ष्म तत्त्वों का प्रयोग करना लाभकारी होता है.

सिंचाई

बरसीम ठंडे मौसम में (मार्च माह तक) 15-20 दिन के अंतर पर सिंचाई की जरूरत पड़ती है. हर एक कटाई के बाद हलका पानी लगा देने से उत्पादन में बढ़ोतरी होती है.

फसल चक्र

खरीफ की फसल के बाद रबी के मौसम में बरसीम की खेती आसानी से की जा सकती है. बरसीम की खेती से अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए निम्न प्रकार से फसल चक्र अपनाने पर मिट्टी की गुणवत्ता में बढ़ोतरी के साथसाथ अधिक आय भी प्राप्त की जा सकती है.

फसल सुरक्षा

चारे की फसल होने के कारण चूंकि बारबार कटाई की जाती है, इसलिए रोग और कीड़ों का प्रकोप आमतौर पर दिखाई नहीं पड़ता है. इसलिए फसल सुरक्षा के उपायों की जरूरत पड़ती है.

परंतु रोग प्रतिरोधी किस्म की प्रजातियां बोने से जड़ गलन और गेरुई जैसे रोगों की संभावना नहीं रहती है, इसलिए बोआई के लिए उन्नतशील रोगरोधी प्रजातियों को बोएं.

कटाई

पहली कटाई बोआई के 50-60 दिन बाद करनी चाहिए. इस के बाद 30-35 दिन के अंतराल पर 5-6 कटाई की जाती है. कटाई हमेशा जमीन से 6-10 सैंटीमीटर की ऊंचाई से काटी जानी चाहिए, जिस से पौधे की दोबारा वृद्धि में भाग लेने वाली कलिकाओं को नुकसान न पहुंचे.

उपज

बरसीम से चारे की कुल उपज 1,000-1,200 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मिलती है. वहीं दूसरी ओर पशुपालकों को यह सलाह दी जाती है कि बरसीम अधिक खिलाने से पशुओं में अफरा रोग हो जाता है, इसलिए इसे सूखे चारे के साथ मिला कर खिलाएं.

बरसीम सर्दी के मौसम में पौष्टिक चारे का एक उत्तम स्रोत है. इस में रेशे की मात्रा कम और प्रोटीन की औसत मात्रा 20 से 22 फीसदी होती है. चारे की पाचनशीलता 70-75 फीसदी होती है.

इस के अलावा इस में कैल्शियम और फास्फोरस भी काफी मात्रा में पाए जाते हैं, जिस के कारण दुधारू पशुओं को अलग से खली या दाना आदि देने की जरूरत कम पड़ती है.

बरसीम पशुओं के लिए बहुत ही लोकप्रिय चारा है, क्योंकि यह बेहद पौष्टिक एवं स्वादिष्ठ होता है.

दुधारू पशुओं की प्रमुख बीमारियां और उन का उपचार

दुधारू पशुओं में अनेक कारणों से बहुत सी बीमारियां होती हैं. सूक्ष्म विषाणु, जीवाणु, फफूंदी, अंत: व बाह्य परजीवी, प्रोटोजोआ, कुपोषण और शरीर के अंदर की चयापचय (मैटाबोलिज्म) क्रिया में विकार आदि. इन बीमारियों में बहुत सी जानलेवा हैं और कई बीमारियां तो पशु के दूध देने की क्षमता पर बुरा असर डालती “हैं.

कुछ बीमारियां तो एक पशु से दूसरे पशु को लग जाती हैं, इसलिए सावधान रहने की जरूरत है जैसे मुंहपका व खुरपका की बीमारी, गलघोंटू आदि को ‘छूतदार बीमारी’ कहते हैं.

यहां तक कि कुछ बीमारियां पशुओं से इनसानों में भी आ जाती हैं जैसे रेबीज, क्षय यानी टीबी की बीमारी. इन्हें ‘जुनोटिक बीमारी’ कहते हैं.

ऐसे में पशुपालकों को इन प्रमुख बीमारियों के बारे में जानना बेहद जरूरी है, ताकि उचित समय पर सही कदम उठा कर अपना माली नुकसान होने से बचा जा सके और इनसान की सेहत को ठीक बनाए रखने में भी सहयोग कर सके.

विषाणुजनित बीमारी खुरपका व मुंहपका

यह सूक्ष्म विषाणु यानी वायरस से पैदा होने वाली बीमारी को विभिन्न जगहों पर विभिन्न स्थानीय नामों से जाना जाता है, जैसे खरेडू, मुंहपका, खुरपका, चपका, खुरपा वगैरह. यह बहुत तेजी से फैलने वाली ‘छूतदार बीमारी’ है, जो कि गाय, भैंस, भेड़, बकरी, ऊंट, सूअर आदि पशुओं में होती है.

विदेशी और संकर नस्ल की गायों में यह बीमारी अधिक गंभीर रूप से पाई जाती है. हमारे देश में यह बीमारी हर जगह होती है. इस बीमारी से ग्रसित पशु ठीक हो कर बहुत ही कमजोर हो जाते हैं. इस वजह से दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन बहुत ही कम हो जाता है. यहां तक कि बैल भी काफी समय तक काम करने योग्य नहीं रहते. पशु शरीर पर बालों का कवर खुरदरा और खुर कुरूप हो जाते हैं.

वजह

मुंहपका व खुरपका बीमारी एक अत्यंत सूक्ष्ण विषाणु, जिस के अनेक प्रकार और उपप्रकार हैं, से होती है. इन की प्रमुख किस्मों में ओ, ए, सी, एशिया-1, एशिया-2, एशिया-3, सैट-1, सैट-3 और इन की 14 उपकिस्में शामिल हैं.

हमारे देश में यह बीमारी मुख्यत: ओ, ए, सी और एशिया-1 प्रकार के विषाणुओं द्वारा होती है. नम वातावरण, पशु की अंदरूनी कमजोरी, पशुओं और लोगों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आनाजाना और नजदीकी क्षेत्र में बीमारी का प्रकोप ही इस बीमारी को फैलाने में सहायक कारक हैं.

संक्रमण से फैलती है बीमारी

यह बीमारी बीमार पशु के सीधे संपर्क में आने, पानी, घास, दाना, बरतन, दूध निकालने वाले व्यक्ति के हाथों से, हवा से और लोगों के आनेजाने से फैलती है.

इस के विषाणु बीमार पशु की लार, मुंह, खुर व थनों में पड़े फफोलों में बहुत अधिक संख्या में पाए जाते हैं. ये खुले में घास, चारा व फर्श पर 4 महीनों तक जीवित रह सकते हैं, लेकिन गरमी के मौसम में ये बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं.

ये विषाणु जीभ, मुंह, आंत, खुरों के बीच की जगह, थनों व घाव आदि के द्वारा स्वस्थ पशु के खून में पहुंचते हैं और तकरीबन 5 दिनों के अंदर उस में बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं.

लक्षण

इस बीमारी से ग्रसित पशु को 104-106 डिगरी फारेनहाइट तक बुखार हो जाता है. वह खानापीना व जुगाली करना बंद कर देता है. इस वजह से पशुओं का दूध देना कम हो जाता है, मुंह से लार गिरने लगती है और मुंह हिलाने पर चपचप की आवाज आती है. इसी कारण इसे ‘चपका बीमारी’ भी कहते हैं.

बुखार के बाद पशु के मुंह के अंदर, गालों, जीभ, होंठ, तालू व मसूड़ों के अंदर, खुरों के बीच और कभीकभी थनों पर छाले पड़ जाते हैं. ये छाले फटने के बाद घाव का रूप ले लेते हैं, जिस से पशु को बहुत दर्द होने लगता है. मुंह में घाव व दर्द के कारण पशु खापी नहीं पाता है. इस के चलते वह बहुत कमजोर हो जाता है. खुरों में दर्द के कारण पशु लंगड़ा कर चलने लगता है. गर्भवती मादा में कई बार गर्भपात भी हो जाता है.

नवजात बछड़े व बछिया बिना किसी प्रकार के लक्षण दिखाए मर जाते हैं. कई बार लापरवाही बरतने पर पशु के खुरों में कीड़े पड़ जाते हैं और कई बार खुरों के कवच भी निकल जाते हैं.

हालांकि व्यस्क पशु में मृत्युदर कम (तकरीबन 10 फीसदी) है, लेकिन इस बीमारी से पशुपालक को माली नुकसान बहुत ज्यादा उठाना पड़ता है. दूध देने वाले पशु बीमारी में कम दूध देते हैं. ठीक हुए पशुओं का शरीर खुरदरा और उन में कभीकभी हांफना शुरू हो जाता है. बैलों में भी भारी काम करने की क्षमता खत्म हो जाती है.

उपचार

इस बीमारी का कोई निश्चित उपचार नहीं है, लेकिन बीमारी की गंभीरता को कम करने के लिए लक्षणों के आधार पर पशु का उपचार किया जाता है.

बीमार पशु में सैकंडरी संक्रमण को रोकने के लिए उसे पशु चिकित्सक की सलाह पर एंटीबायोटिक के टीके लगाए जाते हैं. मुंह व खुरों के घावों को फिटकरी या पोटाश के पानी से धोते हैं. मुंह में बोरोग्लिसरीन व खुरों में किसी एंटीसैप्टिक लोशन या क्रीम का प्रयोग किया जा सकता है.

बीमारी से बचाव

* बचाव के लिए पशुओं को पौलीवेलेंट वैक्सीन के साल में 2 बार टीके अवश्य लगवाने चाहिए. बछड़े व बछिया में पहला टीका 1 माह की उम्र में, दूसरा टीका तीसरे माह की उम्र में और तीसरा 6 माह की उम्र में और उस के बाद नियमित सारिणी के अनुसार टीका लगाया जाना चाहिए.

* बीमार होने पर पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए.

* बीमार पशु की देखभाल करने वाले व्यक्ति को भी स्वस्थ पशुओं के बाड़े से दूर रहना चाहिए.

* बीमार पशु के आनेजाने पर रोक लगा देनी चाहिए.

* बीमारी से प्रभावित क्षेत्र से पशु नहीं खरीदना चाहिए.

* पशुशाला को बहुत ही साफसुथरा रखना चाहिए.

* इस बीमारी से मरे पशु को खुला न छोड़ें और उसे जमीन में गाड़ देना चाहिए.

पशु प्लेग (रिंडरपेस्ट)

यह बीमारी भी एक विषाणु से पैदा होने वाली छूतदार बीमारी है, जो कि जुगाली करने वाले तकरीबन सभी पशुओं को होती है. इन में पशु को दस्त अथवा पेचिश लग जाती है.

यह बीमारी स्वस्थ पशु को बीमार पशु के सीधे संपर्क में आने से फैलती है. इस के अलावा बरतनों और देखभाल करने वाले व्यक्ति द्वारा भी यह बीमारी फैल सकती है.

इस में पशु को तेज बुखार हो जाता है और वह बेचैन हो जाता है. उस की आंखें सुर्ख लाल हो जाती हैं. पशु दूध देना कम कर देता है.

2-3 दिन बाद पशु के मुंह, होंठ, मसूड़े व जीभ के नीचे दाने निकल आते हैं, जो बाद में घाव का रूप ले लेते हैं. पशु के मुंह से लार निकलने लगती है और उसे पतले व बदबूदार दस्त लग जाते हैं, जिन में खून भी आने लगता है.

इस बीमारी में पशु के शरीर में पानी की बेहद कमी हो जाती है. इस वजह से वह बहुत कमजोर हो जाता है. यहां तक कि अगर समय रहते इलाज न मिले, तो पशु की 3-9 दिनों में मौत हो जाती है.

इस बीमारी के प्रकोप से दुनियाभर में लाखों की तादाद में पशु मरते हैं, लेकिन अब विश्वस्तर पर इस बीमारी के उन्मूलन की योजना के तहत भारत सरकार द्वारा लागू की गई रिंडरपेस्ट इरेडिकेशन परियोजना के तहत रोग निरोधक टीकों के लगातार प्रयोग से यह बीमारी प्रदेश और देश में तकरीबन खत्म सी हो चुकी है.

दुधारू पशु (dairy animal)पशुओं में पागलपन (रेबीज)

इस बीमारी को पैदा करने वाले सूक्ष्म विषाणु कुत्ते, बिल्ली, बंदर, गीदड़, लोमड़ी या नेवले के काटने से स्वस्थ पशु के शरीर में प्रवेश करते हैं और नाडि़यों के द्वारा दिमाग में पहुंच कर उस में बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं.

बीमारी से ग्रसित पशु की लार में यह विषाणु बहुतायत में होते हैं. बीमार पशु द्वारा दूसरे पशु को काट लेने अथवा शरीर में पहले से मौजूद किसी घाव के ऊपर रोगी की लार लग जाने से यह बीमारी फैल सकती है.

यह बीमारी रोगग्रस्त पशुओं से मनुष्यों में भी आ सकती है, इसलिए इस बीमारी के प्रति सावधान रहने की जरूरत है. एक बार पशु अथवा मनुष्य में इस बीमारी के लक्षण पैदा होने के बाद उस का फिर कोई इलाज नहीं है और उस की मृत्यु निश्चित है.

विषाणु के शरीर में घाव आदि के माध्यम से प्रवेश करने के बाद 10 दिन से 210 दिनों तक की अवधि में यह बीमारी हो सकती है. मस्तिष्क के जितना अधिक नजदीक घाव होता है, उतनी ही जल्दी बीमारी के लक्षण पशु में पैदा हो जाते हैं. जैसे सिर अथवा चेहरे पर काटे गए पशु में एक हफ्ते के बाद यह बीमारी पैदा हो सकती है.

लक्षण

रेबीज आमतौर पर 2 रूपों में देखी जाती है. पहला, जिस में बीमारी से ग्रसित पशु काफी भयानक हो जाता है और दूसरा, जिस में वह बिलकुल शांत रहता है. पहले अथवा उग्र रूप में पशु में बीमारी के सभी लक्षण स्पष्ट दिखाई देते हैं, लेकिन शांत रूप में बीमारी के लक्षण बहुत कम अथवा नहीं के बराबर होते हैं.

कुत्तों में इस बीमारी की शुरुआती अवस्था में व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है और उस की आंखें अधिक तेज नजर आती हैं. कभीकभी शरीर का तापमान भी बढ़ जाता है. 2-3 दिन के बाद उस की बेचैनी बढ़ जाती है और उस में बहुत ज्यादा चिड़चिड़ापन आ जाता है. वह काल्पनिक वस्तुओं की ओर अथवा बिना किसी प्रयोजन के इधरउधर काफी तेजी से दौड़ने लगता है और रास्ते में जो भी मिलता है, उसे काट लेता है.

अंतिम अवस्था में पशु के गले में लकवा हो जाने के कारण उस की आवाज बदल जाती है, शरीर में कंपकंपी, चाल में लड़खड़ाहट आ जाती है और वह लकवाग्रस्त हो कर अचेतन अवस्था में पड़ा रहता है. इसी अवस्था में उस की मौत हो जाती है.

गाय व भैंसों में इस बीमारी के गंभीर लक्षण दिखते हैं. पशु काफी उत्तेजित अवस्था में दिखता है और वह बहुत तेजी से भागने की कोशिश करता है. वह जोरजोर से रंभाने लगता है और बीचबीच में जम्हाइयां लेता हुआ दिखाई देता है. वह अपने सिर को किसी पेड़ अथवा दीवार के साथ टकराता है. कई पशुओं में पागलपन के लक्षण भी दिखाई दे सकते हैं. बीमारी से ग्रसित पशु दुर्बल हो जाता है और उस की मौत हो जाती है.

मनुष्य में इस बीमारी के प्रमुख लक्षणों में उत्तेजित होना, पानी अथवा कोई खाने की चीज को निगलने में काफी तकलीफ महसूस करना और आखिर में लकवा होना आदि है.

उपचार व रोकथाम

एक बार लक्षण पैदा हो जाने के बाद इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है. जैसे ही किसी स्वस्थ पशु को इस बीमारी से ग्रसित पशु काट लेता है, उसे तुरंत नजदीकी पशु चिकित्सालय में ले जा कर इस बीमारी से बचाव का टीका लगवाएं. इस काम में लापरवाही बिलकुल नहीं बरतनी चाहिए, क्योंकि ये टीके तब तक ही प्रभावकारी हो सकते हैं, जब तक कि पशु में बीमारी के लक्षण पैदा नहीं होते.

पालतू कुत्तों को इस बीमारी से बचाने के लिए नियमित रूप से टीके लगवाने चाहिए. साथ ही, आवारा कुत्तों को समाप्त कर देना चाहिए. पालतू कुत्तों का पंजीकरण स्थानीय संस्थाओं द्वारा करवाना चाहिए और उन के नियमित टीकाकरण की जिम्मेदारी पशु मालिक को निभानी चाहिए.

जीवाणुजनित बीमारी गलघोंटू

गायभैंसों में होने वाली एक बहुत ही घातक और छूतदार बीमारी है, जो कि अधिकतर बरसात के मौसम में होती है. यह गायों की अपेक्षा भैंसों में अधिक पाई जाती है.

यह बीमारी तेजी से फैल कर बड़ी तादाद मे पशुओं को अपनी चपेट में ले कर उन की मौत का कारण बन जाती है. इस से पशुपालकों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है.

इस बीमारी के प्रमुख लक्षणों में तेज बुखार, गले में सूजन, सांस लेने में तकलीफ,  सांस लेते समय तेज आवाज होना आदि शामिल हैं. कई बार बिना किसी स्पष्ट लक्षणों के ही पशु की अचानक मौत हो जाती है.

उपचार व रोकथाम

इस बीमारी से ग्रसित हुए पशु को तुरंत ही पशु चिकित्सक को दिखाना चाहिए, अन्यथा पशु की मौत हो जाती है. सही समय पर उपचार दिए जाने पर इस बीमारी से ग्रसित पशु को बचाया जा सकता है.

इस बीमारी की रोकथाम करने के लिए रोगनिरोधक टीके लगाए जाते हैं. पहला टीका 3 माह की उम्र में, दूसरा टीका 9 माह की उम्र में और इस के बाद हर साल यह टीका लगाया जाता है. ये टीके पशु चिकित्सा संस्थानों में मुफ्त में लगाए जाते हैं.

लंगड़ा बुखार

जीवाणुओं से फैलने वाली यह बीमारी गायभैंसों दोनों को होती है, लेकिन गायों में यह बीमारी अधिक देखी जाती है. इस से अच्छे व स्वस्थ पशु ही ज्यादातर प्रभावित होते हैं.

इस बीमारी में पिछली अथवा अगली टांगों के ऊपरी भाग में भारी सूजन आ जाती है, जिस से पशु लंगड़ा कर चलने लगता है या फिर बैठ जाता है. पशु को तेज बुखार हो जाता है और सूजन वाली जगह को दबाने पर कड़कड़ की आवाज आती है.

उपचार व रोकथाम

बीमारी से ग्रसित पशु के उपचार के लिए तुरंत नजदीकी पशु चिकित्सालय में संपर्क करना चाहिए, ताकि पशु को शीघ्र उचित उपचार मिल सके. देर करने से पशु का बचना लगभग असंभव हो जाता है, क्योंकि जीवाणुओं द्वारा पैदा हुआ जहर शरीर में पूरी तरह से फैल जाता है और पशु मर जाता है.

उपचार के लिए पशु को ऊंची डोज में प्रोकेन पेनिसिलीन के टीके लगाए जाते हैं और सूजन वाली जगह पर भी इसी दवा को सूई द्वारा मांस में डाला जाता है.

इस बीमारी से बचाव के लिए पशु चिकित्सक संस्थाओं में रोग निरोधक टीके मुफ्त में लगाए जाते हैं, इसलिए पशुपालकों को इस सुविधा का अवश्य लाभ उठाना चाहिए.

दुधारू पशु (dairy animal)

पशुओं का छूतदार गर्भपात

जीवाणुजनित इस बीमारी में गायभैंसों में गर्भावस्था के अंतिम 3 माह में गर्भपात हो जाता है. यह बीमारी पशुओं से मनुष्यों में भी आ सकती है. मनुष्यों में यह उतारचढ़ाव वाला बुखार ‘एजोलेंट फीवर’ नामक बीमारी पैदा करता है.

पशुओं में गर्भपात से पहले अंग से अपारदर्शी पदार्थ निकलता है और गर्भपात के बाद पशु की जेर रुक जाती है. इस के अलावा यह जोड़ों में सूजन यानी अर्थराइटिस पैदा कर सकता है.

उपचार व रोकथाम

अब तक इस बीमारी का कोई प्रभावी इलाज नहीं है. अगर इलाके में इस बीमारी के 5 फीसदी से अधिक पौजीटिव केस हों, तो बीमारी की रोकथाम करने के लिए बछियों में 3-6 माह की उम्र में ब्रूसेल्ला एबोर्ट्स स्ट्रेन-19 के टीके लगाए जा सकते हैं. पशुओं में प्रजनन की कृत्रिम गर्भाधान पद्धति अपना कर भी इस बीमारी से बचा जा सकता है.

पशुओं के पेशाब में खून आना

यह बीमारी पशुओं में एक कोशिकीय जीव, जिसे प्रोटोजोआ कहते हैं, से होती है. बबेसिया प्रजाति के प्रोटोजोआ पशुओं के रक्त में चिचडि़यों के माध्यम से प्रवेश कर जाते हैं और वे रक्त की लाल रक्त कोशिकाओं में जा कर अपनी संख्या बढ़ाने लगते हैं, जिस के फलस्वरूप लाल रक्त कोशिकाएं नष्ट होने लगती हैं.

लाल रक्त कोशिकाओं में मौजूद हीमोग्लोबिन पेशाब के द्वारा शरीर से बाहर निकलने लगता है, जिस से पेशाब का रंग कौफी के रंग जैसा हो जाता है. कभीकभी उसे खून वाले दस्त भी लग जाते हैं. इस में पशु खून की कमी हो जाने से बहुत कमजोर हो जाता है. पशु में पीलिया के लक्षण भी दिखाई देने लगते हैं और समय पर इलाज न कराया जाए, तो पशु की मौत हो जाती है.

उपचार व रोकथाम

यदि समय पर पशु का इलाज कराया जाए, तो पशु को इस बीमारी से बचाया जा सकता है. इस में बिरेनिल के टीके पशु के भार के अनुसार मांस में दिए जाते हैं और खून बढ़ाने वाली दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है.

इस बीमारी से पशुओं को बचाने के लिए उन्हें चिचडि़यों के प्रकोप से बचाना जरूरी है, क्योंकि यह बीमारी चिचडि़यों के द्वारा ही पशुओं में फैलती है.

पशुओं के शरीर पर जुएं,चिचड़ी व पिस्सू का प्रकोप

पशुओं के शरीर पर बाह्म परजीवी जैसे कि जुएं, पिस्सू या चिचड़ी आदि का प्रकोप होने पर वे पशुओं का खून चूसते हैं, जिस से पशु में खून की कमी हो जाती है और वे कमजोर हो जाते हैं. साथ ही, इन पशुओं की दूध देने की क्षमता भी घट जाती है और वे दूसरी बहुत सी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं.

बहुत से परजीवी जैसे कि चिचडि़यों आदि पशुओं में कुछ अन्य बीमारी भी कर देते हैं. पशुओं में बाह्म परजीवी के प्रकोप को रोकने के लिए अनेक दवाएं हैं, जिन्हें पशु चिकित्सक की सलाह के अनुसार प्रयोग कर इन से बचा जा सकता है.

पशुओं में अंत:परजीवी प्रकोप

पशुओं की पाचन नली में भी अनेक प्रकार के परजीवी पाए जाते हैं, जिन्हें अंत:परजीवी कहते हैं. ये पशु के पेट, आंत, लिवर, उस के खून व खुराक पर निर्वाह करते हैं, जिस से पशु कमजोर हो जाता है और वह दूसरी बहुत सी बीमारियों का शिकार हो जाता है. इस से पशु की उत्पादन क्षमता में भी कमी आ जाती है.

पशुओं को उचित आहार देने के बावजूद अगर वे कमजोर दिखाई दें, तो इस के गोबर के नमूनों का पशु चिकित्सालय में परीक्षण करना चाहिए. परजीवी के अंडे गोबर के नमूनों में देख कर पशु को उचित दवा दी जाती है, जिस से परजीवी नष्ट हो जाते हैं.

कीटरक्षक फसलों (Insect Repellent Crops) को लगाने का तरीका

फसल कीटरक्षक वे फसलें होती हैं, जो खेत में एक खास अवधि के दौरान मुख्य फसल को कीटों से बचाती हैं. इस तकनीक में मुख्य फसल के साथसाथ कोई दूसरी फसल साथ में लगाई जाती है, जो मुख्य फसल में नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं.

इस के लिए हानिकारक कीटों के बारे में जानकारी होनी चाहिए. उस के लिए किस तरह के पौधों को लगाते हैं या उस के बीचबीच में कौन सी दूसरी फसल लगानी चाहिए, यह भी जानकारी होनी चाहिए.

खासकर निमेटोड जैसी बीमारी के लिए यह तकनीक बहुत अच्छी है. फसल को कीटों से बचाने का यह एक प्राकृतिक तरीका है, जिस में किसी भी तरह के कृषि रसायन का इस्तेमाल नहीं होता.

इसी के बारे में कुछ खास जानकारी यहां दी गई है :

* गोभी में हीरकपृष्ठ शलभ की रोकथाम के लिए बोल्ड सरसों को गोभी के प्रत्येक 25 कतारों के बाद 2 कतारों में लगाना.

* कपास की इल्ली/छेदक की रोकथाम के लिए लोबिया को कपास के प्रत्येक 5 कतारों के बाद 1 कतार में लगाना. कपास की इल्ली/छेदक की रोकथाम के लिए तंबाकू को कपास के प्रत्येक 20 कतारों के बाद 2 कतारों में लगाना.

* टमाटर में फल छेदक/निमेटोड की रोकथाम के लिए अफ्रीकन गेंदे को टमाटर के प्रत्येक 14 कतारों के बाद 2 कतारों में लगाना.

* बैगन में तना छेदक व फल छेदक की रोकथाम के लिए धनिया/मेथी को बैगन के प्रत्येक 2 कतारों के बाद 1 कतार में लगाना.

* चने में इल्ली की रोकथाम के लिए धनिया/गेंदा को चना के प्रत्येक 4 कतारों के बाद 1 कतार में लगाना.

* अरहर में चना की इल्ली की रोकथाम के लिए गेंदा को अरहर के चारों तरफ बौर्डर में लगाना.

* मक्का में तना छेदक की रोकथाम के लिए नेपियर/सूडान घास को मक्के के चारों तरफ बौर्डर में लगाना.

* सोयाबीन में तंबाकू की इल्ली की रोकथाम के लिए सूरजमुखी या अरंडी को सोयाबीन के चारों तरफ 1 कतार में लगाना. रक्षक फसलों की सफलता के कुछ महत्त्वपूर्ण उपाय

* सब से पहले एक फार्म प्लान बनाना चाहिए, जो यह दर्शाए कि कब व कहां कीटरक्षक फसलों को उगाएं.

* फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों की पहचान व जानकारी होना बहुत ही जरूरी है.

* कीट रक्षक फसलों के रूप में ऐसी फसलों का चुनाव करें, जो कीटों को अधिक आकर्षित कर के मुख्य फसलों की रक्षा करे. इस के लिए कृषि वैज्ञानिकों से सलाह लेनी चाहिए.

* फसलों की नियमित रूप से देखरेख होनी चाहिए.

* इन फसलों पर अगर कीट अधिक आकर्षित होते हैं एवं इन की संख्या बहुत अधिक हो जाती है या मुख्य फसल में कीट प्रकोप बढ़ने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं, तो रक्षक फसलों को समयसमय पर काटछांट करते रहना चाहिए.

* अगर बहुत ही जरूरी हो, तो कीटनाशी/जैविक कीटनाशकों का भी छिड़काव करना चाहिए या इन्हें उखाड़ने या नष्ट करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए, ताकि समय पर रोकथाम की जा सके.

मटर की वैज्ञानिक खेती

मटर की खेती हरी फली, साबुत मटर व दाल के लिए की जाती है. मटर की हरी फलियां सब्जी के लिए और सूखे दानों का इस्तेमाल दाल और दूसरी खाने की चीजों को तैयार करने में किया जाता है. हरी मटर के दानों को सुखा कर या डब्बाबंद कर महफूज रखने के बाद भी इस्तेमाल कर सकते हैं.

फलियां निकालने के बाद हरे व सूखे पौधों का इस्तेमाल पशुओं के चारे में इस्तेमाल किया जाता है. दलहनी फसल होने के चलते इस की खेती से उर्वराशक्ति बढ़ती है.

सब्जी वाली मटर की खेती हमारे देश के मैदानी इलाकों में सर्दियों में और पहाड़ी इलाकों में गरमियों में की जाती है. मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब व हरियाणा में बड़े पैमाने पर इस की खेती की जाती है.

खेत की तैयारी : मटर की खेती के लिए खेत में पाटा लगा कर पहले खेत को भुरभुरा व समतल कर लेना चाहिए. इस के बाद राइजोबियम कल्चर   (5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) से उपचारित करने से फायदा होता है.

बोआई का समय : मटर की अच्छी उपज के लिए मध्य अक्तूबर से मध्य नवंबर तक इस की बोआई कर देनी चाहिए. सिंचित अवस्था में 30 नवंबर तक बोआई की जा सकती है.

बोने की विधि : मटर की बोआई अधिकतर हल के पीछे कूंड़ों में की जाती है. अगेती किस्मों को 30 सैंटीमीटर और देर से पकने वाली किस्मों को 45 सैंटीमीटर की दूरी पर कतारों में बोना चाहिए और बोआई में ’सीड ड्रिल’ का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

पौधे से पौधे की दूरी 8-10 सैंटीमीटर और बीज की बोआई 4-5 सैंटीमीटर की गहराई तक करनी चाहिए.

खाद एवं उर्वरक: मिट्टी जांच के आधार पर ही खाद और उर्वरक का इस्तेमाल फायदेमंद रहता है. अगर मिट्टी की जांच नहीं हुई है, तो निम्न मात्रा में खाद व उर्वरक का इस्तेमाल करना चाहिए :

गोबर की खाद या कंपोस्ट 10-15 टन प्रति हेक्टेयर खेत की तैयारी के समय दें. नाइट्रोजन 20-25 किलोग्राम दें, क्योंकि फसल दलहनी है, इसलिए इस की जड़ नाइट्रोजन स्थिरीकरण का काम करती है.

फसल को कम नाइट्रोजन देने की जरूरत होती है. फास्फोरस 40-50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और पोटाश 46-50 किलोग्राम बीज बोने के समय कतारों में दी जानी चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण : बोने के समय खरपतवार का रासायनिक विधि द्वारा नियंत्रण करना चाहिए. इस के लिए पेंडीमिथेलीन 30 ईसी की 3.3 लिटर मात्रा को 600-800 लिटर पानी में घोल कर बोने के 2 दिन बाद प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

बोआई के 25-30 दिनों बाद निराईगुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रण के साथसाथ जड़ों को हवा भी मिल जाती है.

सिंचाई : पहली सिंचाई फूल आते समय करें. अगर बरसात आ जाए तो न करें. दूसरी सिंचाई फलियां बनते समय करें. सूखे इलाकों में बौछारी सिंचाई बेहतर होती है.

खास रोग व बचाव

चूर्णी आसिता : यह एक बीजजनित रोग है. यह रोग तना, पत्तियों व फलियों को प्रभावित करता है. इस रोग में पत्तियों पर हलके निशान बन जाते हैं, जो सफेद पाउडर (चूर्ण) से पत्तियों को ढक देते हैं और पत्तियां गिर जाती हैं.

इस रोग की उचित रोकथाम के लिए 2.3 किलोग्राम गंधक का चूर्ण 600-800 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

उकठा : यह फफूंद से होने वाला रोग है. इस से पौधों की पत्तियां नीचे से ऊपर की ओर पीली पड़ जाती हैं और अंत में पूरा पौधा सूख जाता है.

यह रोग गरमी ज्यादा पड़ने पर बढ़ने लगता है. इस की रोकथाम के लिए बीजों को बोने से पहले 2.5 ग्राम कार्बंडाजिम से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करें.

रस्ट : यह रोग फफूंद द्वारा फैलता है. यह नम जगह पर ज्यादा फैलता है. इस रोग के बचाव के लिए रोगी वाले पौधों को मिट्टी में दबा देना चाहिए. उस के बाद हेक्साकोनाजोल की 1 मिलीलिटर मात्रा को 3 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

एंथ्रेक्नोज : यह भी बीजजनित रोग है. इस रोग के बचाव के लिए रोगरोधी किस्मों को बोएं और बीज को बोने से पहले 2.5 ग्राम कार्बंडाजिम से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करें.

बैक्टीरियल ब्लाइट : यह रोग भी बीजजनित है, जो नमी वाली जगहों पर ज्यादा फैलता है. इस रोग में डंठल के नीचे की पत्तियों व तनों पर पीला धब्बा बन जाता है.

इस के बचाव के लिए रोगरहित बीज का इस्तेमाल करें. फसल प्रभावित होने पर स्ट्रेप्टोसाइक्लीन दवा का छिड़काव करें.

कीट पर नियंत्रण

माहू : इस कीड़े का प्रकोप जनवरी माह में ज्यादा होता है. इस के बचाव के लिए मैलाथियान 50 ईसी की 1.5 मिलीलिटर मात्रा को 1 लिटर पानी में घोल कर 10-10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.

लीफ माइनर (पत्ती में सुरंग बनाने वाला कीट) : यह कीट पौधे की पत्तियों से सफेद धागे की तरह बारीक सुरंग बनाता है. इस के प्रकोप से पत्तियां सूख जाती हैं.

बचाव के लिए सुरंग बनाने वाले कीड़ों से प्रभावित पत्तियों को सूंड़ी सहित तोड़ कर जमीन से कहीं दूर गाड़ देना चाहिए.

फली छेदक : यह कीट फलियों में छेद कर दानों को खाता है. इस के बचाव के लिए थायोडीन नामक दवा की 2 मिलीलिटर मात्रा को 1 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

तुड़ाई : ज्यादा आमदनी लेने के लिए समय से मटर फसल की तुड़ाई करना जरूरी होता है. फलियां भरी हुईं व मुलायम ही तोड़नी चाहिए. तुड़ाई सुबह या शाम को 10 दिनों अंतर पर 3-4 बार करनी चाहिए.

भंडारण : बीज भंडारण के लिए निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए:

* बीज में नमी की मात्रा 9 फीसदी से कम होनी चाहिए, ताकि कीट इतनी कम नमी में प्रजनन नहीं कर पाते.

* नए बीजों को रखने से पहले अच्छी तरह साफ कर के कीटनाशी द्वारा कीटरहित कर लेना चाहिए.

* बीज भंडारण के लिए नए बैग का इस्तेमाल करना चाहिए.

मटर की किस्मों को 2 वर्गों में बांटा गया है, जिस से एक फील्ड मटर व दूसरा गार्डन मटर या सब्जी मटर है.

फील्ड मटर:  इस वर्ग की किस्मों का इस्तेमाल साबुत मटर दाल के अलावा दाने व चारे के लिए किया जाता है. इन किस्मों में रचना स्वर्णरेखा, अपर्णा हंस, जेपी 885, पारस वगैरह खास हैं.

गार्डन मटर:  इस वर्ग की किस्मों को सब्जियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. इस की प्रमुख उन्नत किस्में इस प्रकार हैं:

अगेती किस्में (जल्दी तैयार होने वाली) : ये किस्में बोने के तकरीबन 64-65 दिनों बाद पहली तुड़ाई लायक हो जाती हैं. जैसे आर्केल, अलास्का, लिकोलन, काशी नंदिनी, पंजाब 88, अगेती मटर 3, हरभजन, पंत सब्जी मटर 3.5, पूसा प्रगति, उदय वगैरह.

मध्यम किस्में : ये किस्में बोने के तकरीबन 85-90 दिनों बाद पहली तुड़ाई लायक हो जाती हैं, जैसे बोनविले, काशी शक्ति, जवाहर मटर 1,4, जवाहर मटर 83, पंत उपहार, विवेक आजाद 1,4 वगैरह.

पछेती किस्में (देर से तैयार होने वाली) : ये किस्में बोने के तकरीबन 100-110 दिनों बाद पहली तुड़ाई लायक हो जाती हैं. जैसे आजाद मटर, जवाहर मटर 2 वगैरह.

बीज की मात्रा व बीजोपचार : अगेती किस्मों के लिए 100 किलोग्राम और मध्यम पछेती किस्मों के लिए 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज लगता है.

बीजों को बोने से पहले कार्बंडाजिम या बाविस्टिन (3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) से उपचारित कर लेना चाहिए, ताकि बीज व मृदाजनित रोगों से बचाव हो सके.

पशुओं में गर्भाधान

गोवंशीय पशुओं का बारबार गरमी में आना और स्वस्थ व प्रजनन योग्य नर पशु से गर्भाधान या फिर कृत्रिम गर्भाधान सही समय पर कराने पर भी मादा पशु द्वारा गर्भधारण न करने की अवस्था को ‘रिपीट ब्रीडिंग’ कहते हैं.

ऐसे पशुओं का आमतौर पर नियमित मदचक्र 18-22 दिन होता है और अंग से कोई मवाद या गंदा स्राव आदि नहीं आता है, फिर भी पशु को 3 या इस से अधिक बार गर्भाधान कराने पर भी बच्चा नहीं ठहरता है.

पशुओं में ब्रीडिंग की दर 10-20 फीसदी है, जो कि खराब प्रबंधन व कुपोषण की स्थिति में और ज्यादा हो सकती है. अगर भू्रण की मृत्यु पुश के गाभिन होने के 8-16 दिनों के भीतर होती है, तो पशु के मदचक्र पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है, परंतु उस के बाद भ्रूण की मृत्यु होने की दशा में गरमी में आने का अंतराल बढ़ जाता है.

कारण

* निषेचन प्रक्रिया का न होना.

* अंडोत्सर्ग न होना या अंडोत्सर्ग के बिना गरमी में आना.

* अंडोत्सर्ग में देरी.

* अंडवाहिका मार्ग में अवरोध या फिर संक्रमण का होना.

* शुक्राणुओं और अंडाणुओं की बनावट व वंशानुगत/प्राप्त त्रुटियां या उन की अधिक उम्र.

* जननांगों में जन्मजात संरचनात्मक संबंधी त्रुटियां.

* भ्रूण की मृत्यु हो जाना.

* भ्रूण की प्रारंभिक अवस्था में मृत्यु.

* निषेचित अंडों के प्रत्यारोपण या फिर निषेचन में बाधा.

* विभिन्न प्रकार के हार्मोंस में कमी  जैसे प्रोजैस्ट्रोन में कमी व एस्ट्रोजन की अधिकता इत्यादि.

* अत्यधिक वातावरणीय ताप और आर्द्रता होना.

* गर्भाशय में संक्रमण, भू्रूणीय विसंगतियां और विभिन्न जननांगों का संक्रमण.

* प्रतिरक्षा संबंधित बीमारियां.

समाधान

* रिपीट ब्रीडिंग (बारबार गरमी में आना) वाले पशुओं को उचित मात्रा में संतुलित आहार और पर्याप्त हरा चारा यानी चारा मिश्रण अवश्य दें.

* विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं और विषाणुजनित बीमारियों के विरुद्ध टीकाकरण और परजीवी रोगों की रोकथाम के लिए प्रबंधन करना चाहिए.

* उचित आवास व्यवस्था का प्रबंध और नियमित साफसफाई रखनी चाहिए.

* स्वच्छ व पारदर्शी योनि स्राव होने पर गर्भाधान कराना चाहिए.

* पशु को सही समय से गाभिन करवाने की सफलता की दर अधिकतम रहती है.

* ध्यान देने वाली बात यह है कि अगर पशु शाम को गरमी में आए, तो अगले दिन सुबह और यदि गरमी के लक्षण सुबह दिखाई पड़ें, तो उसी दिन शाम तक गाभिन कराने के लिए अवश्य ले जाना चाहिए.

* पशुओं में गरमी के लक्षण दिन में 2 बार (सुबह या शाम) अवश्य देखने चाहिए, जिस से गर्भाधान के उचित समय की जानकारी हासिल की जा सके.

* गर्भाधान से पहले वीर्य की जांच अवश्य करनी चाहिए. साथ ही, यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इन में प्रयुक्त सांड़ में कोई संक्रमण न हो या वीर्य में अग्र दिशा में गतिशील शुक्राणुओं की उचित संख्या (5-10 मिलियन) होनी चाहिए. इस के अलावा हिमीकृत वीर्य का तरलीकरण प्रबंधन बहुत ही सावधानी से करना चाहिए.

* यह काम कृत्रिम गर्भाधान विशेषज्ञों द्वारा ही किया जाना चाहिए और वीर्य को गर्भाशय ग्रीवा से गर्भाधान की स्थिति में सांड़ों को समयसमय पर बदलते रहना चाहिए.

* समयसमय पर ऐसे पशुओं के अंगों की जांच पशु विशेषज्ञों द्वारा कराई जानी चाहिए.

* जननांगों की संक्रमित अवस्था में गर्भाधान नहीं कराना चाहिए.

* ब्याने के तुरंत बाद जननांगों का संक्रमण रोकने के लिए उचित उपचार व रोकथाम करनी चाहिए. साथ ही, माहिर पशु चिकित्सक की सलाह से उन की देखरेख में काम करना चाहिए.

अधिक जानकारी के लिए पशुपालक अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिकों से संपर्क करें.

स्वास्थ्य के लिए खास है करेला

करेला में औषधीय गुण होने के कारण लोग इसे काफी पसंद करते है. करेले का रस शुगर और हाई ब्लडप्रेशर के मरीजों के लिए काफी फायदेमंद है. इस में मौजूद कड़वाहट वाला तत्त्व खून को साफ करता है. इन सब गुणों के चलते करेले का बाजार भाव भी अन्य सब्जियों की तुलना में काफी अच्छा रहता है. आज करेले की कई किस्में चलन में हैं. नीचे कुछ खास प्रजातियों की विस्तार से जानकारी दी गई है:

करेले की उन्नतशील प्रजातियां

पूसा (2 मौसमी) : नाम से ही मालूम है कि यह किस्म 2 मौसम (खरीफ व जायद) में बोई जाती है. फसल बोने के तकरीबन 55 दिन बाद करेला तोड़ाईर् लायक हो जाता है. इस प्रजाति के करेले का साइज तकरीबन 15 सेंटीमीटर के आसपास होता है. इस किस्म से औसत उपज 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती है.

पूसा विशेष : इस प्रजाति के करेले हरे, पतले, मध्यम आकार के और 20 सेंटीमीटर लंबे होते हैं. औसतन एक करेले का वजन 115 ग्राम होता है. इस की उपज 115-130 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

अर्का हरित : इस प्रजाति के करेले चमकीले हरे, चिकने, ज्यादा गूदेदार और मोटे छिलके वाले होते हैं. फलों की पहली तुड़ाई बोआई के 65 दिन बाद की जा सकती है. ऐसे करेले में बीज और कड़वापन भी कम होता है. फल की लंबाई 15 सेंटीमीटर और वजन 90 ग्राम होता है. इस की उपज 130 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

वीके 1 (प्रिया) : इस के फल 40 सेंटीमीटर तक लंबे और मोटे छिलके वाले होते हैं. बोआई के 60 दिन बाद फल तोड़ाई लायक हो जाते हैं. करेले का वजन औसतन 120 ग्राम होता है. इस की औसत उपज 140 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

पंत करेला 1 : इस के फलों की पहली तोड़ाई बोआई के 55 दिनों बाद की जा सकती है. इस प्रजाति के करेले मोटे, 15 सेंटीमीटर लंबे, हरे और शुरू में पतले होते हैं. इन की औसत पैदावार कूवत लगभग 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह प्रजाति पहाड़ों के लिए अच्छी मानी गई है.

काशी हरित : फल चमकीले हरे, चिकने, गूदेदार होते हैं. एक फल का वजन 80-100 ग्राम होता है. पहली तोड़ाई 50 दिन बाद कर सकते हैं.

पूसा औषधि : हलके हरे, परचम लंबाई वाले और औसत, फल वजन 85 ग्राम, फसल तैयार होने का समय लगभग 48-52 दिन. यह अधिक उपज देने वाली प्रजाति है.

पूसा हाईब्रिड 1 : मध्यम लंबाई का फल, ज्यादा उपज. पहली तोड़ाई 55-60 दिनों में की जा सकती है. औसत उपज 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पूसा हाईब्रिड 2 : फल गहरा हरा मध्यम लंबाई का, फल का औसत वजन 85-90 ग्राम, पहली तोड़ाई 52 दिनों में, औसत उपज 180 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

कल्याणपुर बारहमासी :  यह किस्म चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गई है.

हिसार सलैक्शन : यह किस्म पंजाब और हरियाणा में काफी पसंद की जाती है.

जमीन की तैयारी : खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और बाद में 2-3  जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए. हर जुताई के बाद पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरी और खेत को समतल कर लेना चाहिए, जिस से पानी खेत में समान रूप से फैल सके.

बीज की मात्रा और बोआई :

1 हेक्टेयर खेत की बोआई के लिए अच्छी अंकुरण कूवत वाले बीज की 5 किलोग्राम मात्रा की जरूरत पड़ती है.

एक जगह पर 2-3 बीज 3-4 सेंटीमीटर की गहराई पर बोने चाहिए. बोने से पहले खराब बीज निकाल दें.

बोआई का समय : इस की बोआई गरमी के मौसम के लिए (जायद) में 15 फरवरी से 15 मार्च तक और बरसात के मौसम (खरीफ) के लिए 15 जून से 15 जुलाई तक करते हैं. पहाड़ी इलाकों में बोआई अप्रैल के महीने में की जाती है.

बोआई की दूरी : करेले की बोआई जहां तक हो सके मेंड़ों पर करनी चाहिए. कतार से कतार की दूरी 1.5 से 2.5 मीटर और पौधे से पौधे की दूरी 45 से 60 सेंटीमीटर के बीच रखनी चाहिए.

खाद और उर्वरक : आमतौर पर 20-22 टन सड़ी गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद को खेत तैयार करते समय मिट्टी में मिला देना चाहिए. इस के बाद 1 हेक्टेयर खेत के लिए 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देनी चाहिए. नाइट्रोजन  की एकतिहाई मात्रा, फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय दें. बीज बोने के 30 व 45 दिन बाद जड़ के पास नाइट्रोजन टाप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिए.

सिंचाई : खरीफ के मौसम में खेत की खास सिंचाई करने की जरूरत नहीं होती और बारिश न होने पर सिंचाई की जरूरत 10-15 दिन बाद होती है. ज्यादा बारिश के समय पानी की निकासी ठीक होनी चाहिए. गरमियों में तापमान ज्यादा होने के कारण जल्दीजल्दी सिंचाई की जरूरत होती है.

खरपतवार : बारिश या गरमी के मौसम में सिंचाई के बाद खेत में काफी खरपतवार उग आते हैं, उन्हें खुरपी से निकाल देना चाहिए. करेले में पौधे की बढ़ोतरी और विकास के लिए 2-3 बार गुड़ाई कर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए. समय पर निराईगुड़ाई से अच्छी पैदावार मिलती है.

मचान बेहतर तरीका

करेले की बेहतर पैदावार लेने के लिए मचान खेती अच्छा तरीका है. करेले की बेलों को लकड़ी का सहारा देने से या मचान पर चढ़ा देने से फल जमीन के संपर्क से दूर रहते हैं. इस से फलों का आकार और गुणवत्ता अच्छी रहती है और पैदावार भी मिलती है.

मचान पर फल लगने से सड़ते नहीं हैं. इस के लिए पौधे जब 30 सेंटीमीटर के हो जाएं तो उन्हें नायलौन या जूट की रस्सी के सहारे मचान तक चढ़ाया जाता है.

इस के लिए लोहे या लकड़ी के खंभे गाड़ कर उन के सिरे पर तार बांध कर मचान बनाया जाता है. खंभों के आपस की दूरी 2 से 3 मीटर रख सकते हैं. सामान्यत: मचान की ऊंचाई 4.5 फुट तक रखते हैं.

फलों की तोड़ाई : जब फलों का रंग गहरे हरे से हलका हरा होना शुरू हो जाए और वे अपना सही आकार ले लें, तो यह समय फलों की तोड़ाई करने के लिए सही माना जा सकता है. फलों की तोड़ाई एक तय समय के दौरान करनी चाहिए ताकि फल कड़े न हों अन्यथा उन की बाजार में मांग कम हो जाती है.

सुखा कर भी रख सकते हैं करेला

करेले को काट कर छोटेछोटे टुकड़े कर के सुखा कर भी रखा जा सकता है और जब मन करे तब उस की सब्जी बनाई जा सकती है. करेले को सुखाने से पहले छोटेछोटे टुकड़ों में काट कर उस में हलका सोडा या नमक छिड़क दें, जिस से करेले की कड़वाहट कम हो जाएगी. उस के बाद उन्हें धूप में अच्छी तरह सुखा कर किसी भी एयरटाइट डब्बे में रख लें और जब सब्जी बनानी हो तो कुछ समय पानी में भिगो कर रख दें, जिस से वह फूल जाएंगे फिर उन को निचोड़ कर सब्जी बना सकते हैं.

22 से 24 फरवरी तक लगेगा पूसा संस्थान, नई दिल्ली में कृषि मेला

नई दिल्ली : भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा आयोजित किया जाने वाला पूसा कृषि विज्ञान मेला इस वर्ष फरवरी 22-24, 2025 के दौरान संस्थान के मेला ग्राउंड में आयोजित किया जा रहा है. इस मेले का मुख्य विषय “उन्नत कृषि – विकसित भारत” है. इस में विभिन्न कृषि कंपनियां, सरकारी व गैरसरकारी संस्थान, उद्यमी और प्रगतिशील किसान अपना स्टाल लगाएंगे. इस मेले में हर साल देश के विभिन्न भागों से 1 लाख से अधिक किसान, उद्यमी, राज्यों के अधिकारी, छात्र एवं अन्य उपयोक्ता भाग लेते हैं.

इस मेले के प्रमुख आकर्षणों में फसलों का जीवंत प्रदर्शन, फूलों और सब्जियों की संरक्षित खेती, गमलों में खेती, ऊर्ध्वाधर (वर्टिकल) खेती, मिट्टी एवं पानी की मुफ्त जांच, कट फ्लावर, विदेशी सब्जियों एवं उन्नत किस्म के फलों की प्रदर्शनी और विभिन्न भागीदारों द्वारा उच्च उपजशील बीजों/पौधों, कृषि प्रकाशनों की बिक्री और वैज्ञानिकों व किसानों की परस्पर चर्चा शामिल हैं.

इस अवसर पर किसानों को नवोन्मेषी एवं अध्येता सम्मान से सम्मानित किया जाएगा, जिस के लिए उन से आवेदन मांगे गए हैं. किसान अधिक से अधिक संख्या में इस सम्मान के लिए अपना आवेदन अतिशीघ्र भेजें. संबंधित विवरण पूसा संस्थान की वैबसाइट पर उपलब्ध है :

https://iari.res.in/en/krishi-vigyan-mela-2025.php.

कुलपति डा. कर्नाटक नई दिल्ली में मानद फैलो 2024 पुरस्कार से सम्मानित

नई दिल्ली : भारतीय कीट विज्ञान सोसाइटी ने 7 जनवरी, 2025 को नई दिल्ली में कीट विज्ञान में स्थापना दिवस समारोह और फ्रंटियर्स इन एंटोमोलौजी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी के दौरान महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक को मानद फैलो 2024 पुरस्कार से सम्मानित किया.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक को पुरस्कार प्रदान करते हुए सोसाइटी के अध्यक्ष डा. वीवी राममूर्ति ने कीट विज्ञान शिक्षण, अनुसंधान व प्रसार में उन के आजीवन योगदान की सराहना की.

उल्लेखनीय है कि डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने 40 साल तक कृषि एवं कीट विज्ञान क्षेत्र में अपनी उत्कृष्ट सेवाएं दी हैं. इन्हें मधुमक्खीपालन, चावलगेहूं और गन्ना पारिस्थितिकी तंत्र के कीट प्रबंधन और मृदा जैव प्रबंधन में विशेषज्ञता प्राप्त है.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने तराई क्षेत्र में मधुमक्खी की एपिस मेलिफेरा प्रजाति स्थापित की और इस के पालन के लिए प्रबंधन पद्धतियां विकसित कीं, जिस से शहद, मोम और दूसरे शहद उत्पादों के उत्पादन से किसानों की आय में वृद्धि हुई है और परपरागण वाली फसलों की उत्पादकता में भी वृद्धि हुई है.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने उत्तराखंड सरकार के कृषि पोर्टल का मधुमक्खीपालन भाग विकसित किया. डा. कर्नाटक को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री द्वारा साल 2021 का सर्वश्रेष्ठ कुलपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

पिछले कुछ सालों में डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त किए हैं, जिन में सोसाइटी फौर कम्युनिटी मोबिलाइजेशन फौर सस्टेनेबल डवलपमेंट, नई दिल्ली द्वारा लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड, प्लांटिका एसोसिएशन औफ प्लांट साइंस रिसर्चर्स, देहरादून द्वारा डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन शिक्षाविद सम्मान और सतत कृषि व संबद्ध विज्ञान के लिए वैश्विक अनुसंधान पहल पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान कीट विज्ञान अनुसंधान में उन के योगदान के लिए चौधरी हंसा सिंह पुरस्कार शामिल हैं.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली और राजस्थान के राज्यपाल द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के कार्यान्वयन के लिए कई महत्वपूर्ण समितियों में नामित भी किया गया है.