एक कदम हरित शहर की ओर : शहरियों को लुभा रही छत पर बागबानी

एक ताजा सर्वे में नई दिल्ली को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा लगातार विश्व स्तर पर सब से प्रदूषित शहरों में शुमार किया गया है. भारतीय वन सर्वे की नई रिपोर्ट से पता चलता है कि दिल्ली का कुल हरित क्षेत्र केवल 23.06 फीसदी है, जो कि साल 1988 की राष्ट्रीय वन नीति के तहत एकतिहाई क्षेत्र की सिफारिश से काफी कम है.

रूफटौप बागबानी पौधों की खेती के लिए खाली छत का उपयोग कर के शहरी पर्यावरण को सुधारने का एक अनूठा अवसर है, जिस से जैव विविधता में वृद्धि, शहरी गरमी का प्रभाव को कम करना, हवा की क्वालिटी में सुधार और साथ ही साथ सतत शहरी जीवन को प्रोत्साहित किया जा सकता है.

कोरोना महामारी के बाद लोगों में सेहत और पर्यावरण को ले कर जागरूकता बढ़ी है. लोग भोजन में बिना कैमिकल, बिना कीटनाशक का प्रयोग किए फलसब्जियों का इस्तेमाल करना चाहते हैं.

छत पर बागबानी के लिए न बहुत ज्यादा मिट्टी और न ही बहुत ज्यादा पानी की जरूरत होती है. छत पर बागबानी में धनिया, पालक, मेथी के साथ टमाटर, लौकी या कोई बेल वाली सब्जी या फिर कोई फल उगाया जा सकता है. सुंदरता बढ़ाने के लिए और परागण के लिए फूलों के पौधे लगाना भी लाभकारी होता है.

मानूसन से प्रभावित और आर्द्र उपोष्ण कटिबंधीय और अर्धशुष्क है, जो विभिन्न प्रकार के पौधों एवं वनस्पतियों के लिए उपयुक्त है.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद यानी आईसीएआर, 2016 के अध्ययन से पता चला है कि दिल्ली क्षेत्र में छतों का उपयोग बागबानी के लिए उपयुक्त है, जो हरित शहरीकरण की दिशा में एक बेहतरीन कदम हो सकता है. दिल्ली के विकास को नई दिशा देने के लिए मास्टर प्लान 2041 में रूफटौप बागबानी को बढ़ावा देने के लिए नागरिकों को बढ़ावा देते हुए सलाह देने का प्रावधान भी शामिल हैं.

छत पर बागबानी छाया और वाष्पीकरण के जरीए तापमान में कमी के साथसाथ पर्याप्त पर्यावरणीय फायदा भी है. शारदा विश्वविद्यालय और आईआईआईटी, दिल्ली द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन के अनुसार, छत के बगीचे गरमियों में 5-7 डिगरी सैल्सियस तक छत के तापमान को कम कर सकते हैं, जिस से निवासियों के लिए बिजली के बजट में संभावित बचत हो सकती है.

रूफटौप बागबानी प्रदूषकों और कार्बनडाईऔक्साइड को अवशोषित कर के हवा की क्वालिटी में सुधार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. साथ ही, जलवायु परिवर्तन और भोजन के कार्बन पदार्थ को कम करने में भी मदद करते हैं.

हार्वर्ड विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि बागबानी से न केवल सामुदायिक जुड़ाव की भावना को बढ़ावा देती है, बल्कि तनाव निवारक यानी स्ट्रेस बस्टर, एकाग्रता में सुधार और सकारात्मक ऊर्जा पैदा कर के निवासियों की भलाई को भी बढ़ावा देती है. जापान जैसे देशों में प्रकृति की सैर एक थैरेपी की तरह प्रयोग की जाती है. छत पर बागबानी एक व्यावहारिक समाधान है, जो प्रदूषण को कम करने में मददगार है.

सामुदायिक जुड़ाव और भागीदारी

छत पर बागबानी ने स्थानीय और और्गैनिक खाद्य उत्पादन को बढ़ावा देने के साथ खाद्य सुरक्षा को बढ़ाने का एक मूल्यवान अवसर दिया है. वर्तमान में दिल्ली अपने सब्जी और फलों की आपूर्ति के लिए पड़ोसी राज्यों पर अधिक निर्भर है.

छत पर बागबानी के जरीए एक शहरी आम आदमी को भी विभिन्न प्रकार की ताजा और स्वास्थ्यपूर्ण खाद्य जैसे सब्जियां, फल और जड़ीबूटियां उगाने का मौका मिलता है. साथ ही, बाहरी खाद्य स्रोतों की जरूरत को कम करने और आपूर्ति को सुनिश्चित करने में मदद करता है.

Terrace Garden
Terrace Garden

लोगों ने की शुरुआत

कोरोना महामारी के बीच विभिन्न औनलाइन मंचों पर बहुत सी सफलता की कहानियां सामने आई हैं, जिन में निवासियों की वे कहानियां भी शामिल थीं, जिन्होंने छत और बालकनी में बागबानी की शुरुआत की थी.

एक उदाहरण है कि नांगलोई के रहने वाले कृष्ण कुमार, जो कि सरकारी सेवा से रिटायर हैं, ने अपनी खाली छत पर बागबानी की और टमाटर, भिंडी और आलू जैसी सब्जियां उगाने लगे. उन्होंने कहा कि मैं ने यूट्यूब ट्यूटोरियल्स के माध्यम से बागबानी की तकनीक सीखी.

शहरी खेती स्वामित्व के रूप में ताजा और्गैनिक सब्जियों का एक स्रोत है और प्राकृतिकता और समुदाय से जुड़ने का एक स्थान हो सकता है.

नजफगढ़ की रहने वाली किरण, जो कि एक गृहिणी हैं, काफी सालों से छत पर बागबानी कर रही हैं. उन्होंने कहा कि अखबार और मीडिया के माध्यम से पता चला कि मार्केट में ज्यादातर फलसब्जियों में जहरीले पदार्थ होते हैं. मुझे यह महसूस हो गया कि मेरे छत पर बिना कीटनाशक के ताजगी वाली सब्जियां उगाने में बहुत सुरक्षित होगा, लेकिन जगह की कमी के कारण मैं केवल उन्हीं सब्जियों को उगा रही हूं, जो कम जगह में जिंदा रह सकती हैं.

मेरा मानना है कि छत पर बागबानी योजना को प्रोत्साहित करना चाहिए. एक आम व्यक्ति, छात्र, गृहिणी, बुजुर्ग सभी इस से जुड़ सकते हैं. स्वयं उपजाई हुई सब्जी या फल खाने से पोषण और स्वास्थ्य के साथ खुशी की भावना आती है और प्रकृति के समीप होने की सुखानुभूति भी होती है.

सरकारी पहल और नीतियां

सरकार अपनी नीतियों से शहरी क्षेत्र में छतों पर हरित जगहों के बनाने और समर्थन को प्रोत्साहित करने में अहम भूमिका निभाने का काम कर रही है. हाल ही में दिल्ली सरकार ने भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के सहयोग से ‘स्मार्ट शहरी खेती’ की शुरुआत की है. लोगों को उन के बालकनी और छतों पर सब्जियां उगाने के लिए प्रोत्साहित करना ही मुख्य उद्देश्य है.

दिल्ली सरकार की योजना है कि 10,000 डीआईवाई (डू इट योरसैल्फ यानी खुद करो) किट्स बांटी जाएंगी, जिन में फसल के बीज, जैव उर्वरक, खाद और बागबानी कैसे की जाती है, के बारे में जानकारी दी जाएगी.

बिहार और उत्तराखंड सरकारों के उद्यानिकी विभाग ने भी छत पर बागबानी योजना की शुरुआत की है. इस योजना के तहत आवेदन करने वाले इच्छुक व्यक्ति को लागत का 50 फीसदी या कम से कम 25,000 रुपए तक सब्सिडी सरकार के माध्यम से दी जाती है.

इस योजना का लाभ लेने के लिए छत पर 300 वर्गफुट का खुला स्थान होना जरूरी है. इस योजना के तहत राज्य सरकारें ट्रेनिंग

और छत पर बागबानी के विकास के लिए तकनीकी जानकारी और उद्यान के लिए तकनीकी और विकास के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करती है.

मुंबई में शुरुआत

‘बृहन्मुंबई नगरपालिका महामंडल’ यानी बीएमसी जिसे भारत की सब से धनी नगरपालिका के रूप में जाना जाता है, ने हाल ही में एक प्रस्ताव पेश किया है, जिस में मुंबई में सभी नई इमारतों को, जिन का प्लाट आकार 2,000 वर्गमीटर से अधिक है, उन्हें छत या टैरेस बगीचों को अनिवार्य सुविधा के रूप में शामिल करने की जरूरत होगी.

केंद्र सरकार द्वारा भी ‘छत पर बागबानी’ नामक कार्यक्रम दूरदर्शन ‘किसान टीवी चैनल’ पर प्रसारित किया जाता है, जिस में छत पर बागबानी की प्रदर्शनीय तकनीकों और विधियों की चर्चा की जाती है. सरकार को हरित बुनावट और लगातार बना रही प्रथाओं को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों को प्राथमिकता देने की जरूरत है, यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है.

– डा. दीप्ति राय,  डा. अरुण यादव (मोबियस फाउंडेशन )

सरसों की समय पर बोआई करें किसान

रबी की फसलों में सरसों का महत्वपूर्ण स्थान है. देश के कई राज्य जैसे राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश में मुख्यता से की जाती है, लेकिन राजस्थान में प्रमुख रूप से भरतपुर, सवाई माधोपुर, अलवर, करौली, कोटा, जयपुर, धौलपुर आदि जिलों में सरसों की खेती की जाती है.

सरसों के बीज में तेल की मात्रा 30 से 48 फीसदी तक पाई जाती है.

जलवायु

सरसों की खेती शरद ऋतु में की जाती है. अच्छे उत्पादन के लिए 15 से 25 सैल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है.

मिट्टी

वैसे तो इस की खेती सभी मिट्टियों में की जा सकती है, लेकिन बलुई दोमट मिट्टी सर्वाधिक उपयुक्त होती है. यह फसल हलकी क्षारीयता को सहन कर सकती है. लेकिन मृदा अम्लीय नहीं होनी चाहिए.

सरसों की उन्नत किस्में

किसानों को हर साल बीज खरीदने की जरूरत नहीं है, क्योंकि बीज काफी महंगे आते हैं, इसलिए जो बीज किसानों ने पिछले साल बोया था, यदि उस का उत्पादन या आप के किसी किसान साथी का उत्पादन बेहतरीन रहा हो, तो आप उस बीज की सफाई और ग्रेडिंग कर के उस में से रोगमुक्त ओर मोटे दानों को अलग करें और उस को बीजोपचार कर के बोएं, तो भी अच्छे परिणाम प्राप्त होंगे, लेकिन जिन किसानों के पास ऐसा बीज नहीं है, वो निम्न किस्मों का बीज बो सकते हैं. जैसे :

राधिका : यह किस्म डीआरएमआर, भरतपुर द्वारा विकसित की गई है. वैज्ञानिकों का कहना कि इस का उत्पादन सभी जगह अच्छा मिला है.

1. आरएच-30 : सिंचित व असिंचित दोनों ही स्थितियों में गेहूं, चना एवं जौ के साथ खेती के लिए उपयुक्त है.

2. टी.- 59 (वरुणा) : इस की उपज असिंचित 15 से 18 दिन प्रति हेक्टेयर होती है. इस में तेल की मात्रा 36 फीसदी होती है.

3. पूसा बोल्ड आशीर्वाद (आरके 01से 03) : यह किस्म देरी से बोआई के लिए (25 अक्तूबर से 15 नवंबर तक) उपयुक्त पाई गई है.

4. अरावली (आरएन 393) : सफेद रोली के लिए मध्यम प्रतिरोधी है.

5. एनआरसी एचबी 101 : सेवर, भरतपुर से यह विकसित उन्नत किस्म है. इस का उत्पादन बहुत शानदार रहा है. सिंचित क्षेत्र के लिए बेहद उपयोगी किस्म है. 20-22 क्विंटल उत्पादन प्रति हेक्टेयर तक दर्ज किया गया है.

7. एनआरसी डीआर 2 : इस का उत्पादन अपेक्षाकृत अच्छा है. इस का उत्पादन 22 – 26 क्विंटल तक दर्ज किया गया है.

8. आरएच – 749 : इस का उत्पादन 24-26 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक दर्ज किया गया है.

9. आरएच 1975 : चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय ने सरसों की एक और उन्नत किस्म, जो सिंचित क्षेत्रों में समय पर बिजाई के लिए एक उत्तम है, जो कि मौजूदा किस्म आरएच 749 से लगभग 12 फीसदी अधिक पैदावार देगी.

आरएच 10 : यह वर्ष 2018 में विकसित की गई सरसों की किस्म आरएच 725 आज के दिन किसानों के बीच सब से अधिक प्रचलित व लोकप्रिय बन चुकी है, जो कि हरियाणा के अलावा उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश में लगभग 20 से 25 फीसदी क्षेत्रों में अकेली उगाई जाने वाली किस्म है. यह किस्म औसतन 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ पैदावार आराम से दे रही है व इस की उत्पादन क्षमता भी 14-15 क्विंटल प्रति एकड़ तक है.

खेत की तैयारी

सरसों के लिए भुरभुरी मिट्टी की जरूरत होती है. इसलिए खरीफ की कटाई के बाद एक गहरी जुताई प्लाऊ से करनी चाहिए और इस के बाद 3-4 बार देशी हल से जुताई करना लाभप्रद होता है. नमी संरक्षण के लिए पाटा लगाना चाहिए.

खेत में दीमक, चितकबरा एवं अन्य कीटों का प्रकोप अधिक हो, तो नियंत्रण के लिए आखिरी जुताई के समय क्विनालफास 1.5 फीसदी चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के साथ खेत मे मिलना चाहिए. साथ ही, उत्पादन बढ़ाने के लिए 2 से 3 किलोग्राम एजोटो बेक्टर एवं पीएसबी कल्चर की 50 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद या वर्मी कल्चर में मिला कर अंतिम जुताई से पूर्व मिला दें.

सरसों की बोआई का उचित समय

सरसों की बोआई के लिए उपयुक्त तापमान 25 से 26 डिगरी सैल्सियस तक रहता है. बारानी क्षेत्रों में सरसों की बोआई 05 अक्तूबर से 25 अक्तूबर तक कर देनी चाहिए.

सरसों की बोआई कतारों में करनी चाहिए. कतार से कतार की दूरी 45 सैंटीमीटर और पौधों से पौधे की दूरी 20 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. इस के लिए सीडड्रिल मशीन का उपयोग करना चाहिए,

सिंचित क्षैत्र में बीज की गहराई 5 सैंटीमीटर तक रखी जाती है.

बीज की दर

बोआई के लिए शुष्‍क क्षैत्र में 4 से 5 किलोग्राम और सिंचित क्षेत्र में 3- 4 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता है.

बीजोपचार

1. जड़ सड़न रोग से बचाव के लिए बीज को बोआई के पूर्व फफूंदनाशक बाबस्टीन वीटावैक्स, कैप्टान, थिरम, प्रोवेक्स में से कोई एक 3 से 5 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें.

2. कीटो से बचाव के लिए इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्लूपी, 10 मिलीलिटर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें.

3. कीटनाशक उपचार के बाद मे एजेटोबैक्टर और फास्फोरस घोलक जीवाणु खाद दोनों की 5 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीजों को उपचारित कर के बोएं.

खाद व उर्वरक प्रबंधन

सिंचित फसल के लिए 7 से 12 टन सड़ी गोबर, 175 किलोग्राम यूरिया, 250 सिंगल सुपर फास्फेट, 50 किलो म्यूरेट औफ पोटाश और 200 किलोग्राम जिप्सम बोने से पूर्व खेत में मिलानी है, यूरिया की आधी मात्रा बोते समय और बाकी बची आधी मात्रा पहली सिंचाई के बाद खेत में छिटकनी चाहिए.

असिंचित क्षेत्र में वर्षा से पूर्व 4 से 5 टन सड़ी गोबर खाद, 87 किलोग्राम यूरिया, 125 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट, 33 किलोग्राम म्यूरेट औफ पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से बोते समय खेत में डाल देवें.

सिंचाई : प्रथम सिंचाई बोने के 35 से 40 दिन बाद एवं द्वितीय सिंचाई दाने बनने की अवस्था में करें.

खरपतवार नियंत्रण

सरसों के साथ अनेक प्रकार के खरपतवार उग आते हैं, इन के नियंत्रण के लिए निराईगुड़ाई और बोआई के तीसरे सप्ताह के बाद से नियमित अंतराल पर 2 से 3 निराई करनी आवश्यक होती हैं.

रासायनिक नियंत्रण के लिए अंकुरण से पूर्व बोआई के तुरंत बाद खरपतवारनाशी पेंडीमेथालीन 30 ईसी रसायन की 3.3 लिटर मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से 800 से 1,000 लिटर पानी में घोल कर छिडकाव करना चाहिए.

उत्पादन : यदि जलवायु अच्छी हो, फसल रोगकीट व खरपतवारमुक्त रहे और पूरी तरह से वैज्ञानिक दिशानिर्देशों के साथ खेती करें, तो 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन लिया जा सकता है.

अधिक जानकारी के लिए नजदीकी कृषि विभाग में संपर्क करें

अक्तूबर महीने में खेतीबारी से जुड़े काम

यह महीना खेतीबारी के नजरिए से बहुत खास होता है. इस महीने में जहां खरीफ की अधिकांश फसलों की कटाई और मड़ाई का काम जोरशोर से किया जाता है, वहीं रबी के सीजन में ली जाने वाली फसलों की रोपाई और बोआई का काम भी तेजी पर होता है.

किसान खेती, बागबानी, मछलीपालन, मधुमक्खीपालन, पशुपालन, मशरूम उत्पादन आदि से अच्छी पैदावार और लाभ लेने के लिए इन कामों को अक्तूबर महीने में समय से निबटाएं.

अगर आप ने अपने धान की फसल की कटाई कंबाइन से कराई है, तो पराली न जलाएं. इस से मिट्टी में मौजूद पोषक तत्त्व व लाभदायक कीट नष्ट हो जाते हैं.

पराली प्रबंधन यानी फसल अवशेष प्रबंधन के लिए स्ट्रा चौपर, सुपर सीडर, स्ट्रा बेलर, स्ट्रा रीपर, रीपर कम बाइंडर, श्रब मास्टर, रोटरी स्लेशर, कटर कम स्प्रैडर जैसे यंत्रों का इस्तेमाल किया जा सकता है.

यह ध्यान रखें कि अक्तूबर महीने में फसल की कटाई के बाद अधिकांश खेत खाली हो चुके होते हैं और किसान रबी के सीजन में ली जाने वाली फसलों की बोआई की तैयारी कर रहे होते हैं. ऐसी अवस्था में मिट्टी में संतुलित उर्वरकों की मात्रा के प्रयोग को ध्यान में रखते हुए खाली खेत से मिट्टी के नमूने ले कर मृदा जांच प्रयोगशाला अवश्य भेज दें. इस से मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटैशियम, सल्फर, जिंक, लोहा, तांबा,  मैंगनीज व अन्य सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की दी जाने वाली मात्रा का पता चल जाता है. खरीफ की फसलों की मड़ाई के उपरांत उचित भंडारण के लिए नई बोरियों का प्रयोग करें.

अक्तूबर महीने में खेतीबारी से जुड़े यंत्रों का उपयोग ज्यादा होता है. ऐसे में प्रतिदिन काम शुरू करने से पहले व बाद में यंत्रों की साफसफाई कर लेनी चाहिए. जरूरत पड़ने पर पानी से भी सफाई करें. काम करने से पहले व बाद में यंत्रों के नटबोल्ट की जांच जरूर करें. नटबोल्ट को तुरंत दुरुस्त कर दें. मशीन के बैयरिंग व दूसरे घूमने वाले भागों में मोबिल औयल व ग्रीस जरूर डालें. समयसमय पर यंत्रों की सर्विस का काम जरूर कराएं.

अक्तूबर महीने में धान की बालियों का रस चूसने वाले गंधीबग कीट का रस चूस लेने के कारण दाने नहीं बनते हैं, जिस से बालियां सफेद दिखाई देने लगती हैं. इस की रोकथाम के लिए ट्राइजोफास या मेथोमिल 1 लिटर मात्रा को 500 लिटर से 600 लिटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से फूल आने के समय छिड़काव करें.

इस माह धान में भूरे फुदके का प्रकोप भी देखा गया है, जिस में पौधे से रस चूस लेने के कारण पौधे सूख कर गिर जाते हैं और फसल झुलस सी जाती है. ऐसे में इस की रोकथाम के लिए खेत से पानी निकाल दें व नीम औयल 2.5 लिटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से 500-600 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

चूहों के नियंत्रण के लिए जिंक फास्फाइड से बने चारे अथवा एल्युमिनियम फास्फेट की गोली का प्रयोग करें.

धान की कटाई करने से एक हफ्ता पहले खेत से पानी निकाल दें. जब पौधे पीले पड़ने लगें व बालियां लगभग पक जाएं, तो समय से फसल की कटाई कर लें.

गेहूं की अगेती फसल लेने वाले किसान अक्तूबर के आखिरी हफ्ते से बोआई शुरू कर सकते हैं. इस के लिए उपयुक्त किस्में एचयूडब्लू-533, के-8027, के-9351, एचडी-2888, के-8962, के-9465, के-1317 वगैरह हैं.

जौ की अगेती फसल लेने के लिए किसान 15 अक्तूबर के बाद से बोआई शुरू कर सकते हैं. इस के लिए उन्नत छिलके वाली प्रजातियों में ज्योति (के-572/10), आजाद (के-125), हरित (के-560), प्रीति, जाग्रति, लखन, मंजुला, नरेंद्र जी-1 व 2 और 3, आरडी 2552 शामिल हैं, जबकि छिलकारहित प्रजातियों में गीतांजली (के-1149), नरेंद्र जौ 5 व उपासना व एनडीवी 934 जैसी प्रजातियां शामिल हैं. माल्ट के लिए के-508, ऋतंभरा (के-551), रेखा, डीएल-88, बीसीयू-3, डीडब्ल्यूआर-2 आदि प्रजातियां उपयुक्त पाई गई हैं.

शरदकालीन गन्ने की खेती के लिए अक्तूबर का महीना सही होता है. शरदकालीन गन्ने के बीज के पिछले साल शरद ऋतु में बोए गए गन्ने से बीज प्राप्त करें. शरदकालीन गन्ना बोआई में लाइनें 2 फुट दूर रखें. यदि लाइनों की दूरी 3 फुट रखते हैं, तो बीच में आलू की फसल भी ली जा सकती है.

Farmingगन्ने को खेत में बोने से पहले थिरम व कार्बोक्सिन दोनों 37.5 फीसदी डब्ल्यूपी 250 ग्राम मात्रा 100 लिटर पानी में घोल कर उस से 25 क्विंटल गन्ने के टुकड़े उपचारित किए जा सकते हैं.

जिन किसानों ने कपास की खेती की है, वे देशी कपास की चुनाई 8-10 दिन के अंतर पर करते रहें. अक्तूबर में अमेरिकन कपास भी चुनाई के लिए तैयार हो जाती है. चुनी हुई कपास को सूखे गोदामों में रखें.

जो किसान शीतकालीन मक्का की खेती करना चाहते हैं, वे उपयुक्त सिंचाई वाली जगहों पर अक्तूबर महीने के अंत तक बोआई जरूर कर लें. मक्के की संकर प्रजातियों के लिए प्रति हेक्टेयर 18-20 किलोग्राम व अन्य प्रजातियों के लिए 20-25 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है.

जो किसान चने की खेती करना चाहते हैं, वे चने की बोआई अक्तूबर महीने के दूसरे पखवारे से शुरू कर दें. चने की बोआई के लिए उन्नत प्रजातियों में पीडीजी-3 व 4, जीपीएफ-2, पीवीजी-1, जीएल-769, सी-235, एच-208, जी-24, हरियाणा चना 1 व 3 गौरव पूसा 256, राधे, के-850, पूसा-208, पूसा- 547, ऊसर क्षेत्र में बोआई के लिए करनाल चना-1 शामिल हैं.

इस के अलावा काबुली चना की एच-144, गोरा हिसारी, हरियाणा काबली-1, वीजी-1073, एल-771, एल-770, पूसा-1003, पूसा 5023, चमत्कार, शुभ्रा किस्मों की बोआई की जा सकती है. इस के लिए एक हेक्टेयर खेत में 70 किलोग्राम से 90 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है.

चने की फसल को उकठा रोग से बचाने के लिए ढाई किलोग्राम ट्राइकोडर्मा को 50 किलोग्राम गोबर की खाद में मिला कर कल्चर तैयार कर लें. इस तैयार कल्चर को एक हफ्ता पहले खेत में मिला दें. साथ ही, ट्राइकोडर्मा की 10 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज का उपचार करना चाहिए और फसल को बीमारयों से बचाने के लिए 1.7 ग्राम वाविस्टीन और 1.7 ग्राम थिरम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें.

फसल को दीमक से बचाने के लिए ब्युवेरिया बैसियाना की ढाई किलोग्राम मात्रा को 50 किलोग्राम गोबर में मिला कर मिट्टी उपचारित करें. चने के बीजों को ढाई ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से राइजोबियम जैव खाद से उपचारित कर के ही बोआई करें.

जिन किसानों ने अरहर की अगेती फसल ले रखी है, वे फसल को फली छेदक कीट से बचाने के लिए इंडोक्साकार्ब 14.8 ईसी 325 मिलीलिटर 500-600 लिटर पानी में मिला कर 15-20 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करें. अरहर में 70 फीसदी फलियां लगने पर स्पाइनोसेड 5 फीसदी एससी की 750 मिलीलिटर मात्रा को 500 लिटर पानी में घोल कर छिड़कें. इस से फली छेदक कीट की रोकथाम हो सकेगी.

मसूर की बोआई अक्तूबर के अंत से नवंबर के दूसरे हफ्ते तक बो दें. इस की उन्नत किस्में एल-9-12, सपना, गरिमा, एलएल-699 व 147 है. इस के बीज को राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर के ही बोएं.

जो किसान दाल वाली मटर की किस्मों की खेती करना चाहते हैं, वे अक्तूबर के आखिरी हफ्ते से इस की बोआई शुरू कर दें. इस की उन्नत किस्मों में फील्ड पी-48, पीजी-3, अपर्णा, जयंती, उत्तरा व टाइप-163 रचना, पंत मटर-5, मालवीय मटर-2, मालवीय मटर-15, शिखा व सपना प्रमुख हैं. बीमारियों से बचाव के लिए वाविस्टीन से बीजोपचार करें और मटर राइजोबियम जैव खाद से उपचारित करें.

अक्तूबर के आखिरी हफ्ते से नवंबर के पहले हफ्ते तक अलसी की बोआई का उचित समय होता है. इस फसल को चिकनी दोमट मिट्टी, अच्छे जल निकास वाली और धान की फसल के बाद उगाया जाता है.

अलसी की गरिमा, श्वेता, शुभ्रा, लक्ष्मी-27, पद्मिनी, शेखर, शारदा, मऊ आजाद, गौरव, शिखा, रश्मि, पार्वती, रुचि, के-2, एलसी-2023 व एलसी-74 किस्मों की बोआई की जा सकती है. इस के 20 किलोग्राम बीज को 50 ग्राम थिरम व कार्बाक्सिन मिश्रण से उपचारित करें.

मूंगफली की खेती करने वाले किसान फलियों की वृद्धि की अवस्था पर सिंचाई करें, इस से फसल खुदाई भी आसान हो जाती है. इस के अलावा इस पर विशेष ध्यान दें कि मानसून खत्म होने के बाद चेपा नाम का कीट मूंगफली के पौधों का रस चूसता है, जिस की रोकथाम के लिए 1 लिटर फिब्रोनिल 25 फीसदी ईसी को 500-600 लिटर पानी में मिला कर छिड़कें.

अक्तूबर महीने का पहला पखवारा राई की बोआई के लिए सब से उपयुक्त माना जाता है. इस समय बोआई के लिए उन्नत प्रजातियों में वरुणा, नरेंद्र राई-8501, शिवानी, पूसा बोल्ड, कांति, पूसा महक, पूसा अग्रणी उपयुक्त होती हैं.  अक्तूबर महीने में बोआई के लिए सरसों की पूसा तारक, पूसा विजय, पूसा सरसों 22, पूसा करिश्मा, पूसा बोल्ड, पूसा सरसों-27 उपयुक्त पाई गई हैं.

प्याज की नर्सरी अक्तूबर के दूसरे हफ्ते से नवंबर के दूसरे हफ्ते के बीच डालें. इस के लिए ऊंचा बैड बनाएं. इस की उन्नत किस्मों में भीमा सुपर, भीमा गहरा लाल, भीमा लाल, भीमा श्वेता, भीमा शुभ्रा, अलो ग्रनों, पूसा रैड, पूसा रतनार, पूसा ह्वाइट पलैट, पूसा ह्वाइट राउंड व पूसा माधवी शामिल हैं.

टमाटर की खेती के लिए अक्तूबर में नर्सरी डालें, जिस से उस के पौधों को नवंबर के दूसरे हफ्ते तक रोपा जा सके. इस की उन्नत किस्मों में नामधारी-4266 पूसा रूबी, पूसा अर्ली ड्वार्फ, पूसा-120, मारग्लोब, पंजाब छुआरा, सलैक्शन-120, पंत बहार, अर्का विकास, हिसार अरुणा (सलैक्शन-7), एचएस-101, सीओ-3, सलैक्शन-152, पंजाब केसरी, पंत टी-1, अर्का सौरभ, एस-32, डीटी-10. संकर किस्में कर्नाटक हाईब्रिड, रश्मि, सोनाली, पूसा हाईब्रिड-1, पूसा हाईब्रिड-2, एआरटीएच-1 या 2 या 3, एचओई-606, एनए-601, बीएसएस-20, अविनाश-2, एमटीएच-6 शामिल हैं.

अक्तूबर के महीने में फूलगोभी की पूसा स्नोबाल-1, पूसा स्नोबाल-2, स्नोबाल-16 व पूसा स्नोबाल के-1 किस्में नर्सरी में बोई जा सकती हैं. इन किस्मों को नर्सरी में डाले जाने के 4 हफ्ते बाद खेत में रोपा जा सकता है.

गांठगोभी की रोपाई पूरे महीने 30×20 सैंटीमीटर के अंतराल पर करें और रोपाई के समय प्रति हेक्टेयर 35 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फेट व 50 किलोग्राम पोटाश का प्रयोग करें.

अक्तूबर का महीना पालक व मेथी की बोआई व सितंबर में बोई गई फसल की कटाई के लिए सब से उपयुक्त होता है. पालक  पूसा भारती, मेथी-पूसा अर्ली बंचिंग अच्छी होती है. सितंबर में बोई गई फसल को बोआई के 30 दिन बाद काट सकते हैं.

मूलीगाजर अक्तूबर में बोई जा सकती हैं. मूली की ह्वाइट आइसकिल, रैपिड रैड ह्वाइट टिप्ड, स्कारलेट ग्लोब, पूसा हिमानी, गाजर की पूसा रुधिरा (लाल), पूसा वसुधा (संकर), पूसा आसिता (काली) की बोआई करें.

आलू की अगेती किस्मों में कुफरी अशोका, कुफरी चंद्रमुखी, कुफरी जवाहर की बोआई 10 अक्तूबर तक और मध्य एवं पछेती फसल के लिए कुफरी बादशाह, कुफरी सतलज, कुफरी पुखराज, कुफरी लालिमा की बोआई 15-25 अक्तूबर तक करें.

लहसुन को अक्तूबर महीने में लगाएं. इस की उन्नत किस्में भीमा ओंकार, भीमा पर्पल, यमुना सफेद (जी-1), एग्रीफाउंड ह्वाइट (जी- 41), गोदावरी (सलैक्शन-2), टी- 56-4, एग्रीफाउंड पार्वती (जी- 313) हैं.

मटर की अगेती किस्मों के लिए प्रति हेक्टेयर 120-150 किलोग्राम बीज का प्रयोग करें. सब्जी मटर के लिए बोआई के समय प्रति हेक्टेयर 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फेट और 40 किलोग्राम पोटाश का प्रयोग करें.

अक्तूबर महीने में पपीता की रोपाई करें और पहले रोपे गए पपीते को तना गलन रोग से बचाने के लिए मैंकोजेब 65 फीसदी व कार्बंडाजिम 12 फीसदी डब्ल्यूपीसी की 1.2 किलोग्राम मात्रा को 600 लिटर पानी में घोल कर 2 छिड़काव.

आंवला में शूट गाल मेकर से ग्रस्त टहनियों को काट कर जला दें. केला प्रति पौधा 55 ग्राम यूरिया, 155 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट व 200 ग्राम म्यूरेट औफ पोटाश का प्रयोग कर खेत में मिला दें.

अक्तूबर महीने में लीची की मकड़ी यानी लीची माइट की रोकथाम के लिए समयसमय पर ग्रसित पत्तियों व टहनियों को काट कर जला देना चाहिए. नई कोंपलों के आने से पहले प्रोपारगाइट 57 फीसदी ईसी की 1 लिटर मात्रा को 500 लिटर पानी में घोल बना कर 7-10 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव लाभप्रद पाया गया है.

केला में पौधों के नीचे पुआल अथवा गन्ने की पत्ती की 8 सैंटीमीटर मोटी परत बिछा देनी चाहिए. इस से सिंचाई की संख्या में 40 फीसदी की कमी हो जाती है, खरपतवार नहीं उगते और उपज हुआ भूमि की उर्वराशक्ति बढ़ जाती है.

काजू के पौधों को प्रारंभिक अवस्था में अच्छा ढांचा देने की जरूरत होती है. उपयुक्त काटछांट के द्वारा पौधों को अच्छा ढांचा देने के बाद फसल तोड़ाई के बाद सूखे, रोग एवं कीट ग्रसित शाखाओं को कैंची से काटते रहें.

अंगूर में मैंकोजेब 65 फीसदी व कार्बंडाजिम 12 फीसदी डब्ल्यूपीसी की 1.2 किलोग्राम मात्रा को 600 लिटर पानी में घोल कर एंथ्रेक्नोज की रोकथाम के लिए छिड़कें.

फूलों की खेती के लिए सब से अच्छा महीना अक्तूबर होता है. इस महीने कई तरह के फूलों की खेती की शुरुआत होती है, जो सर्दियों में अच्छी उपज देते हैं.

Farmingइस महीने में ग्लेडियोलस की पूसा शुभम, पूसा किरन, पूसा मनमोहक, पूसा विदुषी, पूसा सृजन व पूसा उन्नति किस्मों की बोआई करें. ग्लेडियोलस के लिए बीज दर 1.5 लाख कंद/ हेक्टेयर रखें. ग्लेडियोलस के कंदों को 2 ग्राम बाविस्टीन 1 लिटर पानी की दर से घोल बना कर 10-15 मिनट तक डुबो कर उपचारित करने के बाद 20-30×20 सैंटीमीटर पर 8-10 सैंटीमीटर की गहराई में रोपाई करें. रोपाई से पहले क्यारियों में प्रति वर्गमीटर 5 ग्राम कार्बोफ्यूरान जरूर मिलाएं.

गुलाब के पौधों की कटाईछंटाई कर कटे हुए भागों पर डाईथेन एम 45 का 2 ग्राम प्रति लिटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें.

पशुपालन से जुड़े किसान अपने पशुओं को खुरपका व मुंहपका का टीका जरूर लगवाएं. पशुओं को कृमिनाशक दवा पिलाएं. समयसमय पर गर्भ परीक्षण और बांझपन चिकित्सा व जांच कराते रहें. स्वच्छ दुग्ध उत्पादन के लिए पशुओं, स्वयं, वातावरण और बरतनों की स्वच्छता का खयाल जरूर रखें.

मुरगीपालन से जुड़े लोग मुरगियों व चूजों के लिए पर्याप्त रोशनी की व्यवस्था करें. संतुलित आहार निर्धारित मात्रा में दें. कृमिनाशक दवा पिलवाएं और बिछावन को नियमित रूप से पलटते रहें.

पशुओं के लिए उत्तम हरे चारे के प्रबंध के लिए अक्तूबर महीने में जिन चारा फसलों की बोआई की जाती है, उस में रिजका घास प्रमुख मानी जाती है. रिजका की उन्नत किस्में लुसर्न-9, एलएल कंपोजिट-7 और लुसर्न-टी है. यह किस्म चारे की अहम दलहनी फसल है, जो जून महीने तक हरा चारा देती है. इसे बरसीम की अपेक्षा सिंचाई की जरूरत कम होती है. इसे अक्तूबर से नवंबर महीने के मध्य तक बोया जा सकता है.

बरसीम की बोआई 15 अक्तूबर से शुरू करें. बरसीम की बोआई के लिए प्रति हेक्टेयर में 25-30 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है. बोआई के पहले प्रति हेक्टेयर 20-30 किलोग्राम नाइट्रोजन व 80 किलोग्राम फास्फेट का प्रयोग करें.

किसान हरे चारे के लिए जई की बोआई अक्तूबर के पहले पखवारे से ले कर नवंबर महीने तक कर सकते हैं. उन्नत किस्मों में ओएल-9, कैंट व हरियाणा जई है. बीज की बोआई के समय खेत में उपयुक्त नमी रहना जरूरी है.

औषधीय फसल ईसबगोल की खेती करने वाले किसान 17 अक्तूबर से 7 नवंबर के बीच इस की बोआई कर सकते हैं. बोआई के पहले बीज उपचारित करना न भूलें. 3 किलोग्राम बीज को 9 ग्राम थिरम से उपचारित किया जाता है.

नोट- लेख में कीटनाशकों के नाम कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती के वैज्ञानिक फसल सुरक्षा डा. प्रेम शंकर द्वारा सुझाए गए हैं, वहीं कृषि यंत्रों के रखरखाव से जुड़ी जानकारी विशेषज्ञ कृषि विज्ञान केंद्र, सुलतानपुर के वैज्ञानिक कृषि अभियंत्रण इं. वरुण कुमार द्वारा सुझाए गए हैं. बागबानी व सब्जियों की खेती से जुड़ी जानकारी कृषि विज्ञान केंद्र, चंदौली के उद्यान विशेषज्ञ डा. दिनेश यादव द्वारा सुझाई गई है.

ब्रोकली की प्रमुख किस्में

ब्रोकली काफी सेहतमंद सब्जी मानी गई है, जो देखने में सामान्य गोभी की तरह ही होती है. केवल रंग में फर्क होता है, जो हरापन लिए होती है. ब्रोकली से अच्छी उपज लेने के लिए इस की बेहतर किस्मों का चुनाव करें.

ब्रोकली के स्वस्थ पौधों के लिए अच्छी प्रकार से नर्सरी की तैयारी करनी चाहिए. मिट्टी में सड़ी गोबर की खाद मिला कर उसे तैयार किया जाता है.

पूसा ब्रोकली (केटीएस-1)

ब्रोकली की इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान क्षेत्रीय केंद्र, कटराई से विकसित किया गया है, जिसे आईएआरआई की किस्म अनुमोदन समिति द्वारा 1996 में उगाने के लिए अनुमोदित किया गया. इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई (65-70 सैंटीमीटर) के होते हैं. पत्तियों पर मोमी परत होती है. शीर्ष सख्त व हरे रंग का होता है. बीच का भाग थोड़ा उठा हुआ होता है.

पूर्ण विकसित शीर्ष का आकार 6×15.4 सैंटीमीटर (ऊंचाई×व्यास) और वजन 350-450 ग्राम होता है. इस किस्म के शीर्ष बोआई के 125-140 दिन बाद और रोपण के 90-105 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इस की औसत उपज पर्वतीय क्षेत्रों में 16.5 टन प्रति हेक्टेयर है.

पालम समृद्धि

इस किस्म को हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर से विकसित किया गया है और राज्य किस्म अनुमोदन समिति द्वारा 1995 में उगाने की संस्तुति की गई. इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई के होते हैं. पत्तियां औसत आकार की, हरे रंग की, शीर्ष बड़े, सख्त और लंबे प्ररोह पर लगते हैं. शीर्ष का औसत वजन 300-400 ग्राम.

इस किस्म में शीर्ष रोपण के 85-90 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इस में विटामिन और खनिज (कैल्शियम, फास्फोरस व आयरन) की मात्रा अत्यधिक होती है. इस की औसत उपज 150-200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस के शीर्ष ताजा, मुलायम व अच्छी सुगंध लिए होते हैं.

पालम कंचन

इस किस्म को भी हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर से विकसित किया गया है. यह एक पिछेती किस्म है. इस के पौधे लंबे, पत्तियां बड़ी व नीले रंग की होती हैं. शीर्ष बड़ा, सख्त, आकर्षक व पीले हरे रंग का होता है. शीर्ष सुगंधित होता है.

यह रोपण के 140-145 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 250-275 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पालम हरीतिका

इस किस्म को पुंज चयन विधि द्वारा हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर में विकसित किया गया है. इस की पत्तियां गहरे रंग की और ऊपर की ओर बढ़ने वाली होती हैं.

पत्तियों पर जगहजगह लाल रंग के धब्बे विकसित होते हैं. पौधे में बड़ा डंठल विकसित होता है, जिस पर शीर्ष विकसित होता है. शीर्ष में कलिकाएं छोटे आकार की होती हैं. इस किस्म में रोपण के 145-150 दिन बाद शीर्ष कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं.

ज्यादा आमदनी के लिए ब्रोकली की खेती

ब्रोकली अमेरिका की प्रमुख सब्जी मानी जाती है. ब्रोकली का सब्जी के अतिरिक्त सूप, सलाद और दूसरी तरह के व्यंजनों के बनाने में प्रयोग किया जाता है. ब्रोकली में गोभी की अपेक्षा प्रोटीन, कैल्शियम, कैरोटीन व विटामिन सी की मात्रा काफी अधिक पाई जाती है.

जलवायु और भूमि

ब्रोकली ठंडे मौसम की फसल है. मैदानी क्षेत्रों में इस की खेती जाड़े में की जाती है. इस के बीज के अंकुरण के लिए 25-30 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान होता है, जबकि पौधों की बढ़वार के लिए 20-25 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान अच्छा रहता है. शीर्ष बनने के लिए 16-20 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान चाहिए. तापमान में वृद्धि होने से शीर्ष ढीला पड़ जाता है.

ब्रोकली को विभिन्न प्रकार की भूमियों में कामयाबी से उगाया जा सकता है. मिट्टी का पीएच मान 5.0-6.5 उपयुक्त होता है. बलुई दोमट भूमि, जिस में जीवांश की मात्रा और जलनिकास की उपयुक्त सुविधा हो, इस की खेती के लिए उपयुक्त होती है.

बोआई का समय और बीज दर

उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में अगस्त से अक्तूबर के आखिरी हफ्ते तक इस के बीज की बोआई कर के पौध तैयार की जाती है. पर्वतीय क्षेत्रों में इस की बोआई मार्च व जुलाईअगस्त महीने में की जाती है. एक हेक्टेयर क्षेत्र में रोपण के लिए 300-400 ग्राम बीज पर्याप्त होता है.

पौध तैयार करना

Broccoli आमतौर पर क्यारियों की लंबाई जमीन की सतह के अनुसार रखते हैं, जबकि चौड़ाई 1 मीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए. क्यारियां जमीन की सतह से 15-20 सैंटीमीटर ऊंची उठी होनी चाहिए. एक हेक्टेयर क्षेत्र में रोपण लिए 70-80 वर्गमीटर में तैयार नर्सरी सही होती है.

बीज को बोआई से पहले ट्राईकोडर्मा से उपचारित करना चाहिए. बीज को बराबर लाइनों में बोना चाहिए और बोआई के बाद मिट्टी या खाद की पतली परत से ढक देना चाहिए और हलकी सिंचाई करनी चाहिए. बोआई के 4 हफ्ते बाद पौधे रोपण के लिए तैयार हो जाते हैं.

खाद और उर्वरक

इस की अच्छी उपज के लिए तकरीबन 20-25 टन सड़ी हुई गोबर की खाद या कंपोस्ट को प्रति हेक्टेयर की दर से दिया जाता है. इस

की अच्छी उपज के लिए प्रति हेक्टेयर की दर से 100-200 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60-80 किलोग्राम फास्फोरस और 40-60 किलोग्राम पोटाश देनी चाहिए. वहीं नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत की अंतिम तैयारी के समय देनी चाहिए और बाकी बची नाइट्रोजन की आधी मात्रा को 2 बराबर भागों में बांट कर रोपण के 30 व 40 दिन बाद टौप ड्रैसिंग के रूप में देनी चाहिए.

रोपण

जब पौधे 3-4 हफ्ते के हो जाएं, तब उन को मुख्य खेत में रोप दिया जाता है. रोपण के लिए पौध अंतराल 50×45 सैंटीमीटर रखा जाता है.

सिंचाई व अंत:सस्य

क्रियाएं

रोपण के बाद एक हलकी सिंचाई करें, जिस से पौधे अच्छी तरह लग जाएं. खेत में खरपतवार के नियंत्रण के लिए स्टांप (पेंडीमेथिलिन) की 3 लिटर मात्रा या बैसेलीन (फ्लूक्लोरेलीन) की 2-2.5 लिटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग की जा सकती है.

पौधे जब एक महीने के हो जाते हैं, तब उन के चारों तरफ गुड़ाई कर के मिट्टी चढ़ा दी जाती है, जिस से पौधे गिरते नहीं हैं.

कटाई व उपज

ब्रोकली में रोपण के 65-70 दिन बाद शीर्ष बन जाते हैं. अगेती किस्मों की कटाई आमतौर पर दिसंबर महीने में की जाती है. मध्य मौसमी किस्में जनवरी के अंत से फरवरी तक व पिछेती किस्में मध्य फरवरी के बाद तैयार होती हैं.

जब शीर्ष गठे हुए और सख्त होते हैं और उन की कलियां खिलना शुरू न करें, तभी फसल की कटाई की जाती है. शीर्ष की कटाई करने के लिए लगभग 15 सैंटीमीटर का लंबा डंठल उस के साथ काटना सही होता है.

कटाई के समय शीर्ष का औसत व्यास 15-20 सैंटीमीटर और वजन 400-600 ग्राम होना चाहिए. ब्रोकली की औसत उपज 200-250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

भंडारण

कटाई के बाद ब्रोकली के शीर्षों की छंटाई व श्रेणीकरण कर के पैकिंग कर ली जाती है. कटाई के तुरंत बाद ब्रोकली को ठंडा कर के कम तापमान पर भंडारित कर लिया जाता है. इस के लिए हाइड्रोकूलिंग कर के या आइस पैक में रख कर जीरो डिगरी सैंटीग्रेड तापमान पर रखा जाता है, जिस से उस का हरा रंग और विटामिन सी की मात्रा बनी रहती है.

यदि हवा का संचार अच्छा रहे और गरमी अधिक न उत्पन्न हो, तब इसे 10 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान पर 10-14 दिन तक रखा जा सकता है.

प्रसंस्करण

ब्रोकली को अच्छी तरह फ्रोजेन किया जाता है. इस के बाद 10-15 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान पर ठंडा कर दिया जाता है, जिस से उस का रंग और सुगंध सुरक्षित रहे. इस के बाद कार्टन में पैक कर के 20 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान पर फ्रोजेन कर भंडारित कर लिया जाता है.

तोरिया (लाही) की उन्नत उत्पादन तकनीक

तोरिया ‘कैच क्रौप’ के रूप में खरीफ व रबी के मध्य में बोई जाने वाली तिलहनी फसल है. इस की खेती कर के अतिरिक्त लाभ हासिल किया जा सकता है. यह 90-95 दिन के अंदर पक कर तैयार हो जाती है. इस की उत्पादन क्षमता 12-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

खेत की तैयारी

तोरिया के लिए हलकी बलुई दोमट भूमि सर्वाधिक उपयुक्त होती है. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और 2-3 जुताइयां देशी हल, कल्टीवेटर/हैरो से कर के पाटा लगा कर मिट्टी भुरभुरी बना लेनी चाहिए.

उन्नतशील प्रजातियां

पीटी 303, तपेश्वरी, गोल्डी, बी-9, उत्तरा इस की उन्नतशील प्रजातियां हैं.

बीज की मात्रा और बीज शोधन

बीज की मात्रा 4 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए. कवकजनित रोगों से बचाव के लिए शोधित व प्रमाणित बीज ही बोएं. इस के लिए बोआई से पहले थीरम अथवा मैंकोजेब की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज को शोधित करें. मैटालेक्सिल 1.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधन करने पर प्रारंभिक अवस्था में सफेद गेरूई व तुलासिता रोग की रोकथाम हो जाती है.

बोआई का समय व विधि

तोरिया की समय पर बोआई कराने से अधिक उत्पादन के साथ फसल पर रोग और कीटों का प्रकोप कम हो जाता है. तोरिया के बाद गेहूं की फसल लेने के लिए बोआई सितंबर के प्रथम पखवारा (1 सितंबर से 15 सितंबर) में जरूर कर लें. तोरिया की बोआई 30 सैंटीमीटर की दूरी पर कतारों में करें. इस से अंत:कर्षण और निराईगुड़ाई में आसानी रहती है.

खाद व उर्वरक

Farmingबोआई के 3-4 हफ्ते पहले खेत में 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी हुई गोबर या कंपोस्ट खाद का प्रयोग करना चाहिए. उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी परीक्षण की संस्तुति के आधार पर किया जाए, यदि मिट्टी का परीक्षण न हो सके, तो 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30 किलोग्राम फास्फेट व 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए.

फास्फेट का प्रयोग सिंगिल सुपर फास्फेट के रूप में ज्यादा फायदेमंद होता है, क्योंकि इस से 12 फीसदी गंधक की पूर्ति हो जाती है.

यदि सिंगिल सुपर फास्फेट का प्रयोग न किया जाए, तो गंधक की पूर्ति के लिए 25 किलोग्राम गंधक या 2 क्विंटल जिप्सम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें. फास्फेट, पोटाश व गंधक की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा अंतिम जुताई के समय इस्तेमाल करनी चाहिए. नाइट्रोजन की बाकी बची मात्रा पहली सिंचाई के बाद टौप ड्रैसिंग के रूप में दें.

निराईगुड़ाई

तोरिया की अच्छी उपज लेने के लिए बोआई के 20-25 दिन बाद निराई के साथ घने पौधों को निकाल कर पौधे से पौधे की दूरी 10-15 सैंटीमीटर कर दें. यदि खरपतवार ज्यादा हो, तो पेंडीमिथेलिन 30 ईसी का 3.3 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से 700-800 लिटर पानी में घोल बना कर बोआई के 3 दिन के अंदर एकसमान छिड़काव करें.

सिंचाई प्रबंधन

तोरिया फूल निकलने और दाना भरने की अवस्थाओं पर जल की कमी के प्रति विशेष संवेदनशील है. पहली सिंचाई फूल बनते समय (बोआई के 25-30 दिन बाद) व दूसरी सिंचाई 50-55 दिन पर करनी चाहिए.

यदि एक ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो, तो फूल निकलने पर करें. तोरिया की फसल जलभराव को सहन नहीं कर सकती है, इसलिए खेत में उचित जल निकास की व्यवस्था जरूर करनी चाहिए.

सहजन पौष्टिक व लाभकारी

प्रोफैसर रवि प्रकाश मौर्य ने सहजन के बारे में बताया कि सहजन भोजन के रूप में अत्यंत पौष्टिक है और इस में औषधीय गुण हैं. इस में पानी को शुद्ध करने के गुण भी मौजूद हैं

प्रोफैसर रवि प्रकाश मौर्य ने सहजन के बारे में बताया कि सहजन भोजन के रूप में अत्यंत पौष्टिक है और इस में औषधीय गुण हैं. इस में पानी को शुद्ध करने के गुण भी मौजूद हैं.

पूरा पौधा है काम का

सहजन के पौधे का लगभग सारा हिस्सा खाने के योग्य है. पत्तियां हरी सलाद के तौर पर खाई जाती हैं और करी में भी इस्तेमाल की जाती हैं. सहजन के बीज से तेल निकाला जाता है. इस के बीज से तकरीबन 38-40 फीसदी तेल पैदा होता है, जिसे बेन तेल के नाम से जाना जाता है.

सहजन का इस्तेमाल घडि़यों में भी किया जाता है. इस का तेल साफ, मीठा और गंधहीन होता है और कभी खराब नहीं होता है. इसी गुण के कारण इस का इस्तेमाल इत्र बनाने में किया जाता है. छाल, पत्ती, गोंद, जड़ आदि से दवाएं तैयार की जाती हैं.

पत्तियों की चटनी बनाने के लिए पौधे के बढ़ते अग्रभाग और ताजा पत्तियों को तोड़ लें. पुरानी पत्तियों को कठोर तना से तोड़ लेना चाहिए, क्योंकि इस से सूखी पत्तियों वाला पाउडर बनाने में ज्यादा मदद मिलती है.

सहजन की खेती

इस की खेती पूर्वी उत्तर प्रदेश में आसानी से की जा सकती है. पूरे खेत में न लगा सकें, तो खेती की मेंड़ों पर, बगीचों के किनारे, बेकार पड़ी भूमि में लगाएं.

प्रो. रवि प्रकाश मौर्य ने बताया कि  सहजन की खेती की सब से बड़ी बात यह है कि यह पौधा सूखे की स्थिति में कम से कम पानी में भी जिंदा रह सकता है. कम गुणवत्ता वाली मिट्टी में भी यह पौधा लग जाता है. इस की वृद्धि के लिए गरम और नमीयुक्त जलवायु और फूल खिलने के लिए सूखा मौसम सटीक है. सहजन के फूल खिलने के लिए 25 से 30 डिगरी तापमान अनुकूल है.

बीजारोपण से पहले 50 सैंटीमीटर गहरा और 50 सैंटीमीटर चौड़ा गड्ढा 3-3 मीटर की दूरी पर खोद लें. सहजन के सघन उत्पादन के लिए एक पेड़ से दूसरे पेड़ के बीच की दूरी 3 मीटर हो और लाइन के बीच की दूरी भी 3 मीटर होनी चाहिए.

सूर्य की सही रोशनी और हवा को तय करने के लिए पेड़ को पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर लगाएं. पौध रोपण से 8 से 10 दिन पहले प्रति पौधा 8-10 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद डाली जानी चाहिए.

सहजन के पौधे को ज्यादा पानी नहीं देना चाहिए. पूरी तरह से सूखे मौसम में शुरुआत के पहले 2 महीने नियमित पानी देना चाहिए और उस के बाद तभी पानी डालना चाहिए, जब इसे पानी की जरूरत हो.

अगर सालभर बरसात होती रहे, तो पेड़ भी सालभर उत्पादन दे सकता है. सूखे की स्थिति में फूल खिलने की प्रक्रिया को सिंचाई के माध्यम से तेज किया जा सकता है.

कटाईछंटाई

पेड़ की कटाईछंटाई का काम पौधारोपण के एक या डेढ़ साल बाद ठंडे मौसम में किया जा सकती है. 2 फुट की ऊंचाई पर हर पेड़ में 3 से 4 शाखाएं छांट सकते हैं.

खाने के लिए जब कटाई की जाती है, तो फली को तभी तोड़ लिया जाना चाहिए जब वह कच्चा (तकरीबन एक सैंटीमीटर मोटा) हो और असानी से टूट जाता हो. पुरानी फली (जब तक पकना शुरू न हो जाए) का बाहरी भाग कड़ा हो जाता है, लेकिन सफेद बीज और उस का गूदा खाने लायक रहता है.

बीज उत्पादन

पौधा रोपने के लिए बीज या तेल निकालने के मकसद से फली को तब तक सूखने देना चाहिए, जब तक वह भूरी न हो जाए.

कुछ मामलों में ऐसा जरूरी हो जाता है कि जब एक ही शाखा में कई सारी फलियां लगी होती हैं, तो उन्हें टूटने से बचाने के लिए सहारा देना पड़ता है.

फसल की पैदावार खासतौर पर बीज के प्रकार और किस्म पर निर्भर करती है.

सहजन की प्रमुख किस्में

रोहित -1. (एक साल में दो फसल), कोयंबटूर 2. पीकेएम-1, पीकेएम-2 आदि हैं.

पौधा रोपण के बाद इस में फूल आने लगते हैं और 8 से 9 महीने के बाद इस की उपज शुरू हो जाती है. साल में एक से दो बार इस की फसल होती है. यह लगातार 4 से 5 साल तक उपज देती है.

आदर्श पोषण वाटिका से स्वच्छ और संतुलित आहार

उस वाटिका को ‘पोषण वाटिका’ या ‘रसोईघर बाग’ या ‘गृहवाटिका’ कहा जाता है जो घर के अगलबगल में या घर के आंगन में ऐसी खुली जगह, जहां पारिवारिक श्रम से परिवार के इस्तेमाल के लिए विभिन्न मौसम में मौसमी फल और विभिन्न प्रकार की सब्जियां उगाई जाती हैं.

पोषण वाटिका का मुख्य मकसद ही रसोईघर का पानी व कूड़ाकरकट को पारिवारिक श्रम से उपयोग कर, घर की फल व सागसब्जियों की दैनिक जरूरतों की पूरा करने या आंशिक रूप से भरपाई करने की कोशिश करना व दैनिक आहार में उपयोग होने वाली सब्जी व फल शुद्ध, ताजा और जैविक उत्पाद रोजाना हासिल करना होता है.

आजकल बाजार में बिकने वाली ज्यादातर चमकदार फल और सागसब्जियों को रासायनिक उर्वरक का प्रयोग कर उगाया जाता है. इन फसल सुरक्षा पर तरहतरह के रसायनों का इस्तेमाल खरपतवार पर नियंत्रण, कीड़े और बीमारी को रोकने के लिए किया जाता है, परंतु इन रासायनिक दवाओं का कुछ अंश फल और सागसब्जी में बाद तक भी बना रहता है.

इस के चलते इन्हें इस्तेमाल करने वालों में बीमारियों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता कम होती जा रही है और आम आदमी तरहतरह की बीमारियों से ग्रसित होता जा रहा है.

इस के अलावा फल और सागसब्जियों के स्वाद में भी काफी अंतर देखने को मिल जाता है, इसलिए हमें अपने घर के आंगन या आसपास की खाली खुली जगह में छोटीछोटी क्यारियां बना कर जैविक खादों का इस्तेमाल कर के रसायनरहित फल और सागसब्जियों का उत्पादन करना चाहिए.

जगह का चुनाव

इस के लिए जगह चुनने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती, क्योंकि ज्यादातर यह जगह घर के पीछे या आसपास ही होती है. घर से मिले होने के कारण थोड़ा कम समय मिलने पर भी काम करने में सुविधा रहती है.

गृहवाटिका के लिए ऐसे स्थान का चुनाव करना चाहिए, जहां पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सके, जैसे नलकूप या कुएं का पानी, स्नान का पानी, रसोईघर का पानी आदि पोषण वाटिका तक पहुंच सके.

जगह खुली हो, जिस में सूरज की रोशनी मिल सके. ऐसी जगह, जो जानवरों से सुरक्षित हो और उस जगह की मिट्टी उपजाऊ हो, ऐसी जगह का चुनाव पोषण वाटिका के लिए करना चाहिए.

पोषण वाटिका का आकार

जहां तक पोषण वाटिका के आकार का संबंध है, वह जमीन की उपलब्धता, परिवार के सदस्यों की तादाद और समय की उपलब्धता पर निर्भर होता है.

लगातार फसल चक्र अपनाने, सघन बागबानी और अंत:फसल खेती को अपनाते हुए एक औसत परिवार, जिस में एक औरत, एक मर्द व 3 बच्चे यानी कुल 5 सदस्य हैं, ऐसे परिवार के लिए औसतन 25×10 वर्गमीटर जमीन काफी है. इसी से ज्यादा पैदावार ले कर पूरे साल अपने परिवार के लिए फल व सब्जियां हासिल की जा सकती हैं.

लेआउट करें तैयार

एक आदर्श पोषण वाटिका के लिए उत्तरी भारत खासकर उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा व दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में उपलब्ध तकरीबन 250 वर्गमीटर क्षेत्र में बहुवर्षीय पौधों को वाटिका के किसी एक तरफ  लगाना चाहिए, जिस से कि इन पौधों की दूसरे पौधों पर छाया न पड़ सके और साथ ही, एकवर्षीय सब्जियों के फसल चक्र व उन के पोषक तत्त्वों की मात्रा में बाधा न डाल सके. पूरे क्षेत्र को 8-10 वर्गमीटर की 15 क्यारियों में बांट लें.

* वाटिका के चारों तरफ बाड़ का इस्तेमाल करना चाहिए, जिस में 3 तरफ  गरमी और बरसात के समय कद्दूवर्गीय पौधों को चढ़ाना चाहिए और बची हुई चौथी तरफ सेम लगानी चाहिए.

* फसल चक्र, सघन फसल पद्धति और अंत:सस्य फसलों के उगाने के सिद्धांत को अपनाना चाहिए.

* 2 क्यारियों के बीच की मेंड़ों पर जड़ों वाली सब्जियों को उगाना चाहिए.

* रास्ते के एक तरफ  टमाटर व दूसरी तरफ चौलाई या दूसरी पत्ती वाली सब्जी उगानी चाहिए.

* वाटिका के 2 कोनों पर खाद के गड्ढे होने चाहिए, जिन में से एक तरफ वर्मी कंपोस्ट यूनिट व दूसरी ओर कंपोस्ट खाद का गड्ढा हो, जिस में घर का कूड़ाकरकट और फसल अवशेष डाल कर खाद तैयार कर सकें.

* इन गड्ढ़ों के ऊपर छाया के लिए सेम आदि की बेल चढ़ा कर छाया बनाए रखें. इस से पोषक तत्त्वों का नुकसान भी कम होगा व गड्ढा भी छिपा रहेगा.

पोषण वाटिका के फायदे

* जैविक उत्पाद (रसायनरहित) होने के कारण फल और सब्जियों में पर्याप्त मात्रा में पौषक तत्व मौजूद रहते हैं.

* बाजार में फल और सब्जियों की कीमत ज्यादा होती है, जिसे न खरीदने से लगाई गई पूंजी में कमी होती है.

* परिवार के लिए ताजा फलसब्जियां मिलती रहती हैं.

* उपलब्ध सब्जियां बाजार के बजाय अच्छे गुणों वाली होती हैं.

* गृहवाटिका लगा कर औरतें परिवार की माली हालत को मजबूत बना सकती हैं.

* पोषण वाटिका से मिलने वाले मौसमी फल व सब्जियों को परिरक्षित कर सालभर तक उपयोग किया जा सकता है.

* यह मनोरंजन व कसरत का भी एक अच्छा साधन है.

* बच्चों के लिए ट्रेनिंग का यह एक अच्छा साधन भी है.

* मनोवैज्ञानिक नजरिए से खुद के द्वारा उगाई गई फलसब्जियां, बाजार के मुकाबले ज्यादा स्वादिष्ठ लगती हैं.

Home Gardenफसल की व्यवस्था

पोषण वाटिका में बोआई करने से पहले योजना बना लेनी चाहिए, ताकि पूरे साल फल व सब्जियां मिलती रहें. इस में निम्न बातों का उल्लेख होना चाहिए :

* क्यारियों की स्थिति.

* उगाई जाने वाली फसल का नाम और प्रजाति.

* बोआई का समय.

* अंत:फसल का नाम और प्रजाति.

* बोनसाई तकनीक का इस्तेमाल.

* इन के अलावा दूसरी सब्जियों को भी जरूरत के मुताबिक उगा सकते हैं.

* मेंड़ों पर मूली, गाजर, शलजम, चुकंदर, बाकला, धनिया, पोदीना, प्याज, हरा साग जैसी सब्जियां लगानी चाहिए.

* बेल वाली सब्जियां जैसे लौकी, तोरई, छप्पनकद्दू, परवल, करेला, सीताफल आदि को बाड़ के रूप में किनारों पर ही लगानी चाहिए.

* वाटिका में फल वाले पौधों जैसे पपीता, अनार, नीबू, करौंदा, केला, अंगूर, अमरूद आदि के पौधों को सघन विधि से इस तरह किनारे की तरफ  लगाएं, जिस से कि सब्जियों पर छाया या पोषक तत्त्वों के लिए होड़ न हो.

* इस फसल चक्र में कुछ यूरोपियन सब्जियां भी रखी गई हैं, जो अधिक पोषणयुक्त और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता रखती हैं.

* पोषण वाटिका को और ज्यादा आकर्षक बनाने के लिए उस में कुछ सजावटी पौधे भी लगाए जा सकते हैं.

पोषण वाटिका में फसल चक्र अपनाने से ज्यादा फलसब्जियां

प्लाट नं. : सब्जियों व फल का नाम

प्लाट नं. 1 : आलू, लोबिया, अगेती फूलगोभी

प्लाट नं. 2 : पछेती फूलगोभी, लोबिया, लोबिया (वर्षा)

प्लाट नं. 3 : पत्तागोभी, ग्वार फ्रैंच बीन

प्लाट नं. 4 : मटर, भिंडी, टिंडा

प्लाट नं. 5 : फूलगोभी, गोठगोभी (मध्यवर्ती) मूली, प्याज

प्लाट नं. 6 : बैगन के साथ पालक, अंत: फसल के रूप में खीरा

प्लाट नं. 7 : गाजर, भिंडी, खीरा

प्लाट नं. 8 : मटर, टमाटर, अरवी

प्लाट नं. 9 : ब्रोकली, चौलाई, मूंगफली

प्लाट नं. 10 : स्प्राउट ब्रसेल्स बैंगन (लंबे वाले

प्लाट नं. 11 : लीक खीरा, प्याज

प्लाट नं. 12 : लहसुन, मिर्च, शिमला मिर्च

प्लाट नं. 13 : चाइनीज कैवेजलैट्रस-प्याज (खरीफ)

प्लाट नं. 14 : अश्वगंधा (सालभर) (शक्तिवर्धक व दर्द निवारक) अंत: फसल लहसुन

प्लाट नं. 15 : पौधशाला के लिए (सालभर)

धान में कंडुआ रोग से बचने पर दें ध्यान

प्रोफैसर रवि प्रकाश मौर्य ने बताया कि पौधे से बाली निकलने के समय धान पर कंडुआ रोग का असर बढ़ने लगता है. इस रोग के कारण धान के उत्पादन पर बुरा असर पड़ने की संभावना बनी रहती है.

धान की बालियों पर होने वाले रोग को आम बोलचाल की भाषा में लेढ़ा रोग, बाली का पीला रोग से किसान जानते हैं. वैसे, अंगरेजी में इस रोग को फाल्स स्मट और हिंदी में मिथ्या कंडुआ रोग के नाम से जाना जाता है.

यह रोग अक्तूबर माह के मध्य से नवंबर माह तक धान की अधिक उपज देने वाली प्रजातियों में आता है. परंतु मौसम में बदलाव के कारण पूर्वांचल के कई जनपदों में अभी से यह रोग बालियों में देखा जा रहा है. जब वातावरण में काफी नमी होती है, तब इस रोग का प्रकोप अधिक होता है. धान की बालियों के निकलने पर इस रोग के लक्षण दिखाई देने लगते हैं. रोग ग्रसित धान का चावल खाने पर स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है. प्रभावित दानों के अंदर रोगजनक फफूंद अंडाशय को एक बड़े कटु रूप में बदल देता है, बाद में जैतूनी हरे रंग के हो जाते है.

इस रोग के प्रकोप से दाने कम बनते हैं और उपज में 10 से 25 प्रतिशत की कमी आ जाती है. मिथ्या कंडुआ रोग से बचने के लिए नियमित खेत की निगरानी करते रहें. यूरिया की मात्रा आवश्यकता से अधिक न डालें.

इस के बाद भी खेत में रोग के लक्षण दिखाई देने पर तुरंत कार्बंडाजिम 50 डब्लूपी 200 ग्राम अथवा प्रोपिकोनाजोल-25 डब्ल्यूपी 200 ग्राम को 200 लिटर पानी में घोल कर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करने से रोग से नजात मिलेगी. बहुत ज्यादा रोग फैल गया हो, तो रसायन का छिड़काव न करें. कोई फायदा नहीं होगा. रोग वाले बीज को अगली बार प्रयोग न करे.

गेहूं की 5 खास किस्में

गेहूं की खेती में अगर उन्नत किस्मों का चयन किया जाए, तो किसान ज्यादा उत्पादन के साथसाथ ज्यादा मुनाफा भी कमा सकते हैं. किसान इन किस्मों का चयन समय और उत्पादन को ध्यान में रखते हुए कर सकते हैं. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद यानी आईसीएआर-भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान यानी आईआईडब्ल्यूबीआर, करनाल की मानें, तो गेहूं की ये 5 किस्में सब से नई हैं और इन से उत्पादन भी बंपर होता है.

करण नरेंद्र

यह गेहूं की नई किस्मों में से एक है. इसे डीबीडब्ल्यू-222 भी कहते हैं. गेहूं की यह किस्म बाजार में साल 2019 में आई थी और 25 अक्तूबर से 25 नवंबर के बीच इस की बोवनी कर सकते हैं. इस की रोटी की गुणवत्ता अच्छी मानी जाती है.

दूसरी किस्मों के लिए जहां 5 से 6 बार सिंचाई की जरूरत पड़ती है, पर इस में 4 सिंचाई की ही जरूरत पड़ती है. यह किस्म 143 दिनों में काटने लायक हो जाती है और प्रति हेक्टेयर 65.1 से 82.1 क्विंटल तक पैदावार होती है.

करन वंदना

इस किस्म की सब से खास बात यह होती है कि इस में पीला रतुआ और ब्लास्ट जैसी बीमारियां लगने की संभावना बहुत कम होती है. इस किस्म को डीबीडब्ल्यू-187 भी कहा जाता है.

गेहूं की यह किस्म गंगातटीय इलाकों के लिए अच्छी मानी जाती है. फसल तकरीबन 120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस किस्म से प्रति हेक्टेयर तकरीबन 75 क्विंटल गेहूं पैदा होता है.

पूसा यशस्वी

गेहूं की इस किस्म की खेती कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के लिए सब से सही मानी जाती है. यह फफूंदी और गलन रोग प्रतिरोधक होती है. इस की बोआई का सही समय 5 नवंबर से 25 नवंबर तक ही माना जाता है. इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 57.5 से 79.60 क्विंटल तक पैदावार होती है.

करण श्रिया

गेहूं की यह किस्म जून, 2021 में आई थी. इस की खेती के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, ?ारखंड, पश्चिम बंगाल जैसे राज्य ठीक माने जा रहे हैं.

तकरीबन 127 दिनों में पकने वाली किस्म को मात्र एक सिंचाई की जरूरत पड़ती है. प्रति हेक्टेयर अधिकतम पैदावार 55 क्विंटल है.

डीडीडब्ल्यू-47

गेहूं की इस किस्म में प्रोटीन की मात्रा सब से ज्यादा तकरीबन 12.69 फीसदी होती है. इस के पौधे कई तरह के रोगों से लड़ने में सक्षम होते हैं. कीट और रोगों से खुद की सुरक्षा करने में यह किस्म सक्षम है. प्रति हेक्टेयर उत्पादन तकरीबन 74 क्विंटल है.