आमदनी का साधन बनी काली मिर्च की खेती

काली मिर्च की खेती, वह भी बस्तर जैसे पिछड़े इलाके में, वह भी आदिवासी किसानों द्वारा. सुनने में यह बात शायद हजम न हो, लेकिन यह हकीकत है. बस्तर में पिछले 25 सालों से जैविक व औषधीय कृषि कामों में लगी संस्था ‘मां दंतेश्वरी हर्बल समूह’ ने इसे अमलीजामा पहनाया है.

बस्तर के बेहद पिछड़े आदिवासी वन गांव में पैदा हुए प्रगतिशील किसान डा. राजाराम त्रिपाठी ने बैंक अधिकारी की उच्च पद वाली नौकरी से इस्तीफा दे कर पिछले 20 सालों में काली मिर्च की इस नई प्रजाति की खोज में कामयाबी हासिल की.

नई प्रजाति एमडीबी-16 के विकास के बाद यह बात साबित हो गई है कि केरल ही नहीं, बल्कि भारत के शेष भागों में भी उचित देखभाल से काली मिर्च की इस विशेष प्रजाति की सफल और उच्च लाभदायक खेती की जा सकती है.

गांव जड़कोंगा, कांटा गांव, विकासखंड माकड़ी, जिला कोंडागांव, बस्तर के किसान संतुराम मरकाम, राजकुमारी मरकाम, रमेश साहू व उन के पूरे समूह सहित कई आदिवासी किसान सदस्य ‘मां दंतेश्वरी हर्बल समूह’ से सालों पहले से जुड़े हैं. उन्हें जोड़ने में तत्कालीन जनपद अध्यक्ष, समाजसेवी जानोबाई मरकाम की प्रमुख भूमिका रही. जैविक खेती और हर्बल खेती की ओर अग्रसर इन किसानों ने काली मिर्च के पौधे भी अपने घर की बाड़ी में लगाए थे.

संतुराम मरकाम बताते हैं कि उन्होंने तकरीबन 27 पौधे काली मिर्च के लगाए, किंतु गरमियों में साल (सरई) के सूखे पत्तों के नीचे आग लग जाने के कारण कई पौधे मर गए. फिर भी वर्तमान में 16 पौधे बचे हैं, जिन में पिछले 3 सालों से काली मिर्च के फल आ रहे हैं.

Black Pepper
Black Pepper

इन 16 काली मिर्च के पौधों से उन्हें कुल 16 किलोग्राम काली मिर्च प्राप्त हुई.

समूह के निदेशक अनुराग कुमार ने बताया कि स्पाइसेज बोर्ड औफ इंडिया के द्वारा तय की गई आज की तारीख पर काली मिर्च का थोक मूल्य 330-350 किलोग्राम दर्शाया गया है, जबकि समूह की ओर से नवाचारी किसानों को प्रोत्साहन के लिए 500 प्रति किलोग्राम की दर से तत्काल भुगतान कर दिया गया. इतना ही नहीं, आगे यदि इस काली मिर्च का निर्यात संभव हुआ और यदि उस में और अधिक मूल्य प्राप्त होता है, तो वह लाभ भी इन साथी किसानों को वितरित किया जाएगा.

6 जनवरी को मां दंतेश्वरी हर्बल एस्टेट में आयोजित एक सादा गरिमामय समारोह में सफल नवाचारी किसानों का नागरिक सम्मान शाल श्रीफल से किया गया. इस अवसर पर समाजसेवी जानो मरकाम, पत्रकार संघ के प्रांतीय सचिव जमील खान, ‘मां दंतेश्वरी हर्बल समूह’ के निदेशक अनुराग त्रिपाठी, श्रीशंकर नाग, कृष्णा नेताम, ‘संपदा समाजसेवी समूह’ के अध्यक्ष जयमति नेताम आदि सम्मिलित रहे.

बड़ी बात यह है कि इस काली मिर्च (एमडीबी-16) की बेलें किसान की घर की बाड़ी में पहले से ही उगे साल के पेड़ों पर चढ़ाई गईं और बस्तर में साल की पेड़ों की बहुतायत है. यहां तक कि बस्तर को साल वनों का द्वीप भी कहा जाता है.

आगे की संभावनाओं के बारे में पूछे जाने पर डा. अनुराग त्रिपाठी ने कहा कि यह योजना बस्तर की ही नहीं, बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ के किसानों की तसवीर और जिंदगी बदल सकती है, पर इस के लिए समुचित कार्ययोजना और उस के क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार पर रोक लगाना जरूरी है.

हाल में परंपरागत बायोफोर्टीफाइड राइस यानी पोषक तत्त्वों से भरपूर काले चावल की खेती में ‘मां दंतेश्वरी हर्बल समूह’ ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया. इस कार्यक्रम में आदिवासी किसानों को ‘मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म’ व रिसर्च सैंटर की ओर से अश्वगंधा के जैविक बीज भी खेती के लिए बांटे गए.

जैविक खेती से सवंर रही जिंदगी

हाल ही के सालों में किसानों ने अंधाधुंध रासायनिक खादों और कीटनाशकों का इस्तेमाल कर के धरती का खूब दोहन किया है. जमीन से बहुत ज्यादा उपज लेने की होड़ के चलते खेतों की उत्पादन कूवत लगातार घट रही है.

रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल के चलते मिट्टी में कार्बांश की मात्रा बेहद कम हो गई है. सेहत के नजरिए से भी रासायनिक उर्वरकों से पैदा किए जाने वाले अनाज और फलसब्जियां नुकसानदेह साबित हो रहे हैं.

कई देशों में कीटनाशकों के नुकसान को देखते हुए उन पर पूरी तरह से रोक लगा दी गई है, क्योंकि फसलों में इस्तेमाल किए जाने वाले कीटनाशकों के चलते कैंसर और कई तरह की जानलेवा बीमारियां भी सामने आई हैं. ऐसे में जरूरत है कि जमीन की उत्पादकता को बचाए रखने और सेहत को ध्यान में रख कर खेतों में जैव उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाए.

इसी चीज को ध्यान में रख कर उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के एक युवा ने जैविक खेती में मिसाल कयाम की है. वे बस्ती जनपद के एकमात्र किसान हैं, जो फसल में अलगअलग सूक्ष्म पोषक तत्त्वों को ध्यान में रख कर खाद और उर्वरकों को तैयार करते हैं.

बस्ती शहर से महज 8 किलोमीटर दूर गांव गौरा के रहने वाले शोभित मिश्र ने एमबीए और एलएलबी तक की पढ़ाई कर रखी है. उन की काबिलीयत को देखते हुए उन के पास नौकरियों के तमाम औफर भी आए, लेकिन उन्होंने अपने चाचा राममूर्ति मिश्र की खेती में लगन देख कर नौकरी न कर खेती में ही कुछ करने की ठानी.

इस के लिए सब से पहले उन्होंने मार्केट को सम झा तो पाया कि हर इनसान रासायनिक उत्पादों से पैदा किए अनाज और सब्जियां नहीं खाना चाहता है, लेकिन जैविक उत्पादों की कमी लोगों की मजबूरी बन चुकी है. ऐसे में उन्होंने जैविक खेती से जुड़ी कई जगहों पर जा कर जानकारी हासिल की, कई प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भी शामिल हुए. ऐसे किसानों के यहां भी भ्रमण किया, जो जैविक खेती के जरीए मुनाफा हासिल कर रहे हैं.

जब शोभित मिश्र को लग गया कि जैविक खेती को अगर पूरी तैयारी के साथ किया जाए, तो घाटे की संभावना कम होगी. उन्होंने जैविक खेती की शुरुआत कर दी. उन्होंने जैविक खेती एक बार शुरू की, तो इस से मिले फायदे ने उन का हौसला दोगुना कर दिया.

घर पर ही तैयार करते हैं खाद और उर्वरक

शोभित मिश्र जगहजगह जा कर सीखे गए जैव उर्वरकों और जैव कीटनाशकों को तैयार करते हैं. वे अलगअलग तरीकों से जैविक खाद तैयार करते हैं. उन के द्वारा जो जैव उर्वरक तैयार किए गए हैं, उन से उन्हें तमाम तरह के सूक्ष्म पोषक तत्त्व प्राप्त होते हैं, जिन में राख से फास्फोरस, सेंधा नमक से जिंक, मैग्नीज व लोहा गंधक से सल्फर, नीला थोथा से कौपर, सुहागा से बोरोन, सीप और अंडा से कैल्शियम, त्रिफला से लोहा व मैग्नीशियम, त्रिकूट से सल्फर, धान की भूसी से सिलिकन मिलता है.

पहले से तैयार किए गए इन सभी जैव उर्वरकों को वे अलगअलग बोरियों में एकसाथ 20 किलोग्राम की बराबर मात्रा में मिला कर रखते हैं. इस 20 किलोग्राम की मात्रा को प्रति एकड़ की दर से खेत में इस्तेमाल किया जाता है.

इस का इस्तेमाल जोताई व बोआई से पहले किया जाता है, साथ ही खड़ी फसल में घोल बना कर स्प्रे करते हैं. इस के लिए 200 लिटर पानी में पहले से एकसाथ मिला कर रखे गए सभी तरह के 4 किलोग्राम जैव उर्वरक को प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव किया जाता है.

इन जैव उर्वरकों को बनाने के लिए सभी के लिए अलगअलग एक फुट चौड़ाई, लंबाई और गहराई में गड्ढे खोद लेते हैं. एक दूसरे से गड्ढे की दूरी 6 इंच रखी जाती है.

जैव उर्वरक बनाने के लिए पहले से ही सेंधा नमक, नीला थोथा, चूना, सुहागा, नारियल का छिलका, गंधक, रौक फास्फेट और पत्थर के चूर्ण की खरीदारी कर लेनी ठीक होती है. गड्ढों में इन्हें भरने के पहले इन सब को अच्छी तरह से पीस कर चूर्ण बना लेते हैं. फिर इन सामग्रियों को गाय के गोबर में मिला कर अलगअलग गड्ढों में भर लेते हैं.

गड्ढे में भरने के पहले ही इन सभी सामग्रियों को अच्छे से तैयार किया जाता है. इस के लिए सुहागा को गरम कर फुला लेते हैं, फिर उसे पीस कर गड्ढे में गोबर के साथ भरते हैं. इसी तरह गंधक को भी पीस कर कर गोबर में मिलाते हैं. त्रिफला को भी पीस कर 20 किलोग्राम गोबर में मिला कर गड्ढे में भरते हैं.

नारियल के छिलके को जला कर इस्तेमाल में लाया जाता है और उसे पीस कर अलग गड्ढे में डालते हैं. यह चारकोल पाउडर कहलाता है. धान के 4 किलोग्राम भूसी को लोहे की कड़ाही में गरम कर के पूरा काला कर लेते हैं. औक्सीजन की अनुपस्थिति में गरम करने पर सिलिकन हासिल होता है. इसे सिलिकन भस्म भी कहते हैं. अंडे के चूर्ण से कैल्शियम मिलता है. इसे कैल्शियम भस्म कहते हैं. पत्थर के चूर्ण का भी इस्तेमाल उसी गड्ढे में किया जाता है. इन सभी को गड्ढों में भरने के बाद उस के ऊपर गाय के गोबर के उपले रख देते हैं, फिर उस के ऊपर मिट्टी से लीप देते हैं. ध्यान रखते हैं कि जो गड्ढे बनाए जा रहे हैं, वे छाया में हों.

इन गड्ढों में दबाए गए उर्वरक गड्ढे में 45 दिनों के बाद ऊपर लोहे की छड़ से छेद कर देते हैं. जब इन को दबाए 90 दिन का समय बीत जाता है, तो गड्ढों से इस तैयार उर्वरक को बाहर निकाल लेते हैं, जिन्हें हम अपनी फसल के इस्तेमाल में ला सकते हैं.

पराली नियंत्रण के लिए वेस्ट डीकंपोजर का इस्तेमाल

जहां देशभर के किसान पराली को ले कर हलकान दिखते हैं, वहीं शोभित मिश्र वेस्ट डीकंपोजर के जरीए नियंत्रित करते हैं. यह मात्र 20 रुपए की एक शीशी आती है, जिस में वे गुड़बेसन को एकसाथ मिला कर 500 लिटर पानी का घोल बनाते हैं. 20 दिनों के बाद इस तैयार घोल को अगर पराली या फसल के अवशेष पर छिड़का जाए, तो वह अवशेष पूरी तरह समाप्त हो जाता है.

शोभित मिश्र द्वारा तैयार इस वेस्ट डीकंपोजर घोल को आसपास के किसान भी इन के जरीए अपने खेतों में इस्तेमाल करते हैं.

Organic
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खेतों में लहलहा रही फसल

पिछले 3 सालों में शोभित मिश्र ने जैविक खेती के जरीए कई तरह की व्यावसायिक खेती करने में कामयाबी पाई है. वे मौसम के मुताबिक तमाम तरह की सब्जियों की खेती करते हैं. उन के खेतों में उस समय भी फसल लहलहा रही होती है, जब बाजार में कई तरह की सब्जियों की आवक बहुत कम होती है.

शोभित मिश्र कई तरह की सब्जियों की खेती करते हैं, जिन में लौकी, नेनुआ, पालक, सरपुतिया, सोया, टमाटर, करेला, मटर, गाजर, मूली सहित दर्जनों तरह की फसलें शामिल हैं. इस के अलावा वे अपने अनाज वाली फसलों में भी खुद के द्वारा तैयार किए गए जैविक उत्पादों का ही प्रयोग करते हैं. इस के जरीए वे काला नमक, अलसी, गेहूं जैसी तमाम फसलें भी उगा रहे हैं.

खेतों से सीधे होती है मार्केटिंग

शोभित मिश्र द्वारा उगाई गई जैविक फसलों की मार्केटिंग की अगर बात की जाए, तो आढ़ती इन के खेतों से ही मंडी मूल्य से ज्यादा कीमत पर खरीद कर ले जाते हैं. इस के चलते उन्हें मार्केटिंग के लिए किसी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता है.

‘हजार’ और्गेनिक फार्म के नाम से पौपुलर

शोभित मिश्र द्वारा शुरू की गई जैविक खेती को ‘हजार’ और्गेनिक फार्म का ब्रांड नाम दे रखा है. ‘हजार’ शब्द में उन के पुरखों का नाम छिपा हुआ है.

इस पर शोभित मिश्र का कहना है कि जिन पुरखों की जमीन ने उन्हें रोजगार दिया है, उन को सम्मान देने का इस से बढि़या जरीया और कुछ हो ही नहीं सकता है.

शोभित मिश्र द्वारा की गई जैविक खेती से मिली कामयाबी के मुद्दे पर उन के चाचा राममूर्ति मिश्र का कहना है कि जैविक खेती से भूमि की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि हो जाती है. साथ ही, सिंचाई के अंतराल में वृद्धि होती है. जैविक उर्वरकों के उपयोग से रासायनिक खाद पर निर्भरता कम होने से लागत में कमी आती है और फसलों की उत्पादकता में वृद्धि होती है.

Organic
Organic

जैविक खेती से मिट्टी को होने वाले फायदे पर शोभित मिश्र का कहना है कि अगर मिट्टी की दृष्टि से देखें, तो जैविक खाद के इस्तेमाल से भूमि की गुणवत्ता में सुधार आता है. भूमि की जल धारण की क्षमता बढ़ती है. भूमि से पानी का वाष्पीकरण भी कम होता है.

जैविक खेती की विधि रासायनिक खेती की विधि की तुलना में बराबर या अधिक उत्पादन देती है. जैविक खेती मिट्टी की उर्वरता और किसानों की उत्पादकता बढ़ाने में पूरी तरह सहायक है.

जैविक विधि द्वारा खेती करने से उत्पादन की लागत तो कम होती ही है, साथ ही साथ किसानों को आमदनी भी ज्यादा होती है. बाजार की स्पर्धा में जैविक उत्पाद अधिक खरे उतरते हैं. नतीजतन, सामान्य उत्पादन की अपेक्षा में किसान ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं.

एक कदम हरित शहर की ओर : शहरियों को लुभा रही छत पर बागबानी

एक ताजा सर्वे में नई दिल्ली को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा लगातार विश्व स्तर पर सब से प्रदूषित शहरों में शुमार किया गया है. भारतीय वन सर्वे की नई रिपोर्ट से पता चलता है कि दिल्ली का कुल हरित क्षेत्र केवल 23.06 फीसदी है, जो कि साल 1988 की राष्ट्रीय वन नीति के तहत एकतिहाई क्षेत्र की सिफारिश से काफी कम है.

रूफटौप बागबानी पौधों की खेती के लिए खाली छत का उपयोग कर के शहरी पर्यावरण को सुधारने का एक अनूठा अवसर है, जिस से जैव विविधता में वृद्धि, शहरी गरमी का प्रभाव को कम करना, हवा की क्वालिटी में सुधार और साथ ही साथ सतत शहरी जीवन को प्रोत्साहित किया जा सकता है.

कोरोना महामारी के बाद लोगों में सेहत और पर्यावरण को ले कर जागरूकता बढ़ी है. लोग भोजन में बिना कैमिकल, बिना कीटनाशक का प्रयोग किए फलसब्जियों का इस्तेमाल करना चाहते हैं.

छत पर बागबानी के लिए न बहुत ज्यादा मिट्टी और न ही बहुत ज्यादा पानी की जरूरत होती है. छत पर बागबानी में धनिया, पालक, मेथी के साथ टमाटर, लौकी या कोई बेल वाली सब्जी या फिर कोई फल उगाया जा सकता है. सुंदरता बढ़ाने के लिए और परागण के लिए फूलों के पौधे लगाना भी लाभकारी होता है.

मानूसन से प्रभावित और आर्द्र उपोष्ण कटिबंधीय और अर्धशुष्क है, जो विभिन्न प्रकार के पौधों एवं वनस्पतियों के लिए उपयुक्त है.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद यानी आईसीएआर, 2016 के अध्ययन से पता चला है कि दिल्ली क्षेत्र में छतों का उपयोग बागबानी के लिए उपयुक्त है, जो हरित शहरीकरण की दिशा में एक बेहतरीन कदम हो सकता है. दिल्ली के विकास को नई दिशा देने के लिए मास्टर प्लान 2041 में रूफटौप बागबानी को बढ़ावा देने के लिए नागरिकों को बढ़ावा देते हुए सलाह देने का प्रावधान भी शामिल हैं.

छत पर बागबानी छाया और वाष्पीकरण के जरीए तापमान में कमी के साथसाथ पर्याप्त पर्यावरणीय फायदा भी है. शारदा विश्वविद्यालय और आईआईआईटी, दिल्ली द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन के अनुसार, छत के बगीचे गरमियों में 5-7 डिगरी सैल्सियस तक छत के तापमान को कम कर सकते हैं, जिस से निवासियों के लिए बिजली के बजट में संभावित बचत हो सकती है.

रूफटौप बागबानी प्रदूषकों और कार्बनडाईऔक्साइड को अवशोषित कर के हवा की क्वालिटी में सुधार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. साथ ही, जलवायु परिवर्तन और भोजन के कार्बन पदार्थ को कम करने में भी मदद करते हैं.

हार्वर्ड विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि बागबानी से न केवल सामुदायिक जुड़ाव की भावना को बढ़ावा देती है, बल्कि तनाव निवारक यानी स्ट्रेस बस्टर, एकाग्रता में सुधार और सकारात्मक ऊर्जा पैदा कर के निवासियों की भलाई को भी बढ़ावा देती है. जापान जैसे देशों में प्रकृति की सैर एक थैरेपी की तरह प्रयोग की जाती है. छत पर बागबानी एक व्यावहारिक समाधान है, जो प्रदूषण को कम करने में मददगार है.

सामुदायिक जुड़ाव और भागीदारी

छत पर बागबानी ने स्थानीय और और्गैनिक खाद्य उत्पादन को बढ़ावा देने के साथ खाद्य सुरक्षा को बढ़ाने का एक मूल्यवान अवसर दिया है. वर्तमान में दिल्ली अपने सब्जी और फलों की आपूर्ति के लिए पड़ोसी राज्यों पर अधिक निर्भर है.

छत पर बागबानी के जरीए एक शहरी आम आदमी को भी विभिन्न प्रकार की ताजा और स्वास्थ्यपूर्ण खाद्य जैसे सब्जियां, फल और जड़ीबूटियां उगाने का मौका मिलता है. साथ ही, बाहरी खाद्य स्रोतों की जरूरत को कम करने और आपूर्ति को सुनिश्चित करने में मदद करता है.

Terrace Garden
Terrace Garden

लोगों ने की शुरुआत

कोरोना महामारी के बीच विभिन्न औनलाइन मंचों पर बहुत सी सफलता की कहानियां सामने आई हैं, जिन में निवासियों की वे कहानियां भी शामिल थीं, जिन्होंने छत और बालकनी में बागबानी की शुरुआत की थी.

एक उदाहरण है कि नांगलोई के रहने वाले कृष्ण कुमार, जो कि सरकारी सेवा से रिटायर हैं, ने अपनी खाली छत पर बागबानी की और टमाटर, भिंडी और आलू जैसी सब्जियां उगाने लगे. उन्होंने कहा कि मैं ने यूट्यूब ट्यूटोरियल्स के माध्यम से बागबानी की तकनीक सीखी.

शहरी खेती स्वामित्व के रूप में ताजा और्गैनिक सब्जियों का एक स्रोत है और प्राकृतिकता और समुदाय से जुड़ने का एक स्थान हो सकता है.

नजफगढ़ की रहने वाली किरण, जो कि एक गृहिणी हैं, काफी सालों से छत पर बागबानी कर रही हैं. उन्होंने कहा कि अखबार और मीडिया के माध्यम से पता चला कि मार्केट में ज्यादातर फलसब्जियों में जहरीले पदार्थ होते हैं. मुझे यह महसूस हो गया कि मेरे छत पर बिना कीटनाशक के ताजगी वाली सब्जियां उगाने में बहुत सुरक्षित होगा, लेकिन जगह की कमी के कारण मैं केवल उन्हीं सब्जियों को उगा रही हूं, जो कम जगह में जिंदा रह सकती हैं.

मेरा मानना है कि छत पर बागबानी योजना को प्रोत्साहित करना चाहिए. एक आम व्यक्ति, छात्र, गृहिणी, बुजुर्ग सभी इस से जुड़ सकते हैं. स्वयं उपजाई हुई सब्जी या फल खाने से पोषण और स्वास्थ्य के साथ खुशी की भावना आती है और प्रकृति के समीप होने की सुखानुभूति भी होती है.

सरकारी पहल और नीतियां

सरकार अपनी नीतियों से शहरी क्षेत्र में छतों पर हरित जगहों के बनाने और समर्थन को प्रोत्साहित करने में अहम भूमिका निभाने का काम कर रही है. हाल ही में दिल्ली सरकार ने भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के सहयोग से ‘स्मार्ट शहरी खेती’ की शुरुआत की है. लोगों को उन के बालकनी और छतों पर सब्जियां उगाने के लिए प्रोत्साहित करना ही मुख्य उद्देश्य है.

दिल्ली सरकार की योजना है कि 10,000 डीआईवाई (डू इट योरसैल्फ यानी खुद करो) किट्स बांटी जाएंगी, जिन में फसल के बीज, जैव उर्वरक, खाद और बागबानी कैसे की जाती है, के बारे में जानकारी दी जाएगी.

बिहार और उत्तराखंड सरकारों के उद्यानिकी विभाग ने भी छत पर बागबानी योजना की शुरुआत की है. इस योजना के तहत आवेदन करने वाले इच्छुक व्यक्ति को लागत का 50 फीसदी या कम से कम 25,000 रुपए तक सब्सिडी सरकार के माध्यम से दी जाती है.

इस योजना का लाभ लेने के लिए छत पर 300 वर्गफुट का खुला स्थान होना जरूरी है. इस योजना के तहत राज्य सरकारें ट्रेनिंग

और छत पर बागबानी के विकास के लिए तकनीकी जानकारी और उद्यान के लिए तकनीकी और विकास के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करती है.

मुंबई में शुरुआत

‘बृहन्मुंबई नगरपालिका महामंडल’ यानी बीएमसी जिसे भारत की सब से धनी नगरपालिका के रूप में जाना जाता है, ने हाल ही में एक प्रस्ताव पेश किया है, जिस में मुंबई में सभी नई इमारतों को, जिन का प्लाट आकार 2,000 वर्गमीटर से अधिक है, उन्हें छत या टैरेस बगीचों को अनिवार्य सुविधा के रूप में शामिल करने की जरूरत होगी.

केंद्र सरकार द्वारा भी ‘छत पर बागबानी’ नामक कार्यक्रम दूरदर्शन ‘किसान टीवी चैनल’ पर प्रसारित किया जाता है, जिस में छत पर बागबानी की प्रदर्शनीय तकनीकों और विधियों की चर्चा की जाती है. सरकार को हरित बुनावट और लगातार बना रही प्रथाओं को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों को प्राथमिकता देने की जरूरत है, यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है.

– डा. दीप्ति राय,  डा. अरुण यादव (मोबियस फाउंडेशन )

मिलेट से बनाएं सेहतमंद पकवान

कोदो, कुटकी, नाचनी या रागी और बाजरा आदि मिलेट के अंतर्गत आने वाले अनाज हैं. ये अनाज ग्लूटेन फ्री और फायबर से भरपूर होते हैं, जिस से इन्हें पचाने के लिए हमारे पाचनतंत्र को अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती, इसीलिए इन्हें सुपर फ़ूड भी कहा जाता है. इन्हें अपनी रोज की डाइट में शामिल करना हमारे उत्तम स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक होता है.

आज हम आप को ऐसे ही मिलेट की 2 रैसिपी बनाना बता रहे हैं, जिन्हें आप आसानी से घर पर बना सकती हैं. तो आइए देखते हैं कि इन्हें कैसे बनाया जाता है :

रागी मिक्स वेज परांठा

कितने लोगों के लिए : 4

बनने में लगने वाला समय:  30 मिनट
मील टाइप: वेज

सामग्री (कवर के लिए)
रागी का आटा –  2 कप
नमक – स्वादानुसार
घी –  1/2 टीस्पून
पानी – 1 कप

अजवाइन – 1 चुटकी
तेल – परांठा सेंकने के लिए

सामग्री (भरावन के लिए)

उबले मैश किए आलू  – 2
बारीक कटा प्याज  – 1
बारीक कटी हरी मिर्च  – 3
बारीक कटा हरा धनिया  – 1 लच्छी
बारीक कटी शिमला मिर्च  – 1/2 कप
बारीक कटी बींस  – 1/4 कप
नमक  – स्वादानुसार
लाल मिर्च पाउडर  – स्वादानुसार
अमचूर पाउडर  – 1/4 टीस्पून
जीरा  – 1/8 टीस्पून
गरम मसाला  – 1/4 टीस्पून
टोमेटो सौस  – 2 टेबलस्पून
तेल  – 1 टीस्पून

विधि :

एक नौनस्टिक पैन में तेल गरम कर के जीरा तड़का कर प्याज को सुनहरा होने तक भून लें. अब इस में हरी मिर्च, शिमला मिर्च, बींस और नमक डाल कर ढक कर 5 मिनट तक पकाएं. उस के बाद उबले हुए आलू और सभी मसाले डाल कर अच्छी तरह चलाएं. 2-3 मिनट भून कर हरा धनिया डाल कर गैस बंद कर दें.

अब आटा तैयार करने के लिए पानी को नमक, घी और अजवाइन के साथ एक भगौने में उबाल लें. जैसे ही पानी उबलने लगे तो गैस बंद कर दें और रागी का आटा डाल कर अच्छी तरह चलाएं. जब पानी में आटा अच्छी तरह मिक्स हो जाए, तो इसे एक प्लेट में निकाल कर हाथ से अच्छी तरह मिला कर एकदम गेहूं के आटे जैसा नरम कर लें.

अब चकले पर थोड़ा सा तेल या घी लगा कर 2 रोटी बेल लें. एक रोटी के किनारों पर उंगली से पानी लगाएं और ब्रश से पूरी रोटी पर टोमेटो सौस लगा कर 1 टेबलस्पून भरावन अच्छी तरह फैला दें. ऊपर से दूसरी रोटी रख कर उंगलियों की सहायता से चारों तरफ से दबा दें. तैयार परांठे को चिकनाई लगे तवे पर डाल कर घी लगा कर दोनों तरफ से सुनहरा होने तक सेंक लें.

गरमागरम परांठे को चटनी या अचार के साथ सर्व करें.

कोदो मिलेट पिज्जा

कितने लोगों के लिए:  6
बनने में लगने वाला समय:  30 मिनट
मील टाइप : वेज

सामग्री
कोदो मिलेट –  1 कप
चना दाल  – 1/4 कप
चावल  – 1/2 कप
दही  – 1/2 कप
ईनो फ्रूट साल्ट  – 1 सैशे
बारीक कटी हरी मिर्च  – 4
अदरक  – 1 छोटी गांठ
हींग  – 1 चुटकी
जीरा  – 1/8 टीस्पून
नमक  – स्वादानुसार
हल्दी पाउडर  – 1/4 टीस्पून
बारीक कटी लाल शिमला मिर्च – 1 टीस्पून
बारीक कटी हरी शिमला मिर्च – 1 टीस्पून
बारीक कटी पीली शिमला मिर्च – 1 टीस्पून
चीज क्यूब्स  – 6
चिली फ्लेक्स  – 1/2 टीस्पून
ओरेगेनो  – 1/2 टीस्पून
चाट मसाला  – 1 टीस्पून
घी  – 1 टीस्पून

विधि :

कोदो मिलेट, चावल और दाल को बनाने से पहले ओवरनाइट भिगो दें. सुबह पानी निकाल कर हरी मिर्च, नमक और दही के साथ बारीक पीस लें. अब इस में ईनो फ्रूट साल्ट, जीरा, हींग और हल्दी पाउडर डाल कर अच्छी तरह चलाएं. तैयार मिश्रण से चिकनाई लगे तवे पर एक बड़ा चम्मच मिश्रण ले कर मोटामोटा फैलाएं. जब इस का रंग बदल जाए तो पलट दें और एक पूरा चीज क्यूब ग्रेट कर दें. ऊपर से तीनों शिमला मिर्च डाल कर ढक कर एकदम धीमी आंच पर चीज के मेल्ट होने तक पकाएं. ऊपर से ओरेगेनो, चिली फ्लेक्स और चाट मसाला बुरक कर सर्व करें.

ट्राइकोडर्मा किसानों का दोस्त

ट्राइकोडर्मा जैविक खेती में उपयोगी एक हरफनमौला मित्र कवक है. यह मिट्टी से उत्पन्न होने वाले रोगों विशेष रूप से विल्ट रोग, उकठा रोग, म्लानि रोग के लिए एक कुशल जैविक नियंत्रक के रूप में काम करता है. इस के साथ ही यह जैव उर्वरक के रूप में भी काम करता है, जिस से उत्कृष्ट पौधे की वृद्धि होती है. यह सभी तरह की फसलों, सब्जियों, फलों और फूलों में इस्तेमाल किया जा सकता है.

प्रयोग की विधि

बीज उपचार : बीज उपचार के लिए प्रति किलोग्राम बीज में 5 ग्राम से 10 ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर को मिश्रित कर छाया में सुखा लें, फिर बोआई करें.

कंद उपचार : 10 ग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति लिटर पानी में डाल कर घोल बना लें. इस घोल में कंद को 30 मिनट तक डुबा कर रखें, फिर उसे छाया में आधा घंटा रखने के बाद बोआई करें.

नर्सरी उपचार : 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा उत्पाद प्रति लिटर पानी में घोल कर नर्सरी बैड में प्रयोग करें.

पौधा उपचार : प्रति लिटर पानी में 10 ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर को घोल कर पौधे के जड़ क्षेत्र को भिगोएं.

पौधों पर छिड़काव : कुछ खास तरह के रोग जैसे पर्ण चित्ती, ?ालसा आदि की रोकथाम के लिए पौधे में रोग के लक्षण दिखाई देने पर 5 ग्राम से 10 ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

फलदार वृक्ष : पेड़ के छत्रक की बाहरी सीमा से लगभग एक फुट अंदर की तरफ मिट्टी में 100 ग्राम से 200 ग्राम प्रति पेड़ (उम्र के हिसाब से) ट्राइकोडर्मा को 3 किलोग्राम से 5 किलोग्राम गोबर की सड़ी हुई खाद या वर्मी कंपोस्ट में मिला कर पेड़ के चारों तरफ 30 सैंटीमीटर की चौड़ाई में छिड़क दें और उसे कुदाल से मिलाएं.

मिट्टी में नमी की मात्रा पर्याप्त होनी चाहिए. अगर नहीं हो, तो ट्राइकोडर्मा डालने के बाद हलकी सिंचाई कर दें.

मृदा शोधन : एक किलोग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर को 25 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद में मिला कर एक हफ्ते तक छायादार जगह पर रख कर उसे गीले बोरे से ढकें, ताकि इस के बीजाणु अंकुरित हो जाएं.

इस कंपोस्ट को एक एकड़ क्षेत्र में फैला कर मिट्टी में मिला दें, फिर बोआई या रोपाई करें.

हरी खाद के लिए : अच्छी हरी खाद के लिए ढांचा को मिट्टी में पलटने के बाद 5 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति हेक्टेयर की दर से डाल कर जुताई कर दें.

ट्राइकोडर्मा के प्रयोग से लाभ

* यह रोगकारक जीवों की वृद्धि को रोकता है या उन्हें मार कर पौधे को रोग मुक्त करता है या पौधों की रासायनिक प्रक्रियाओं को बदलने के साथसाथ पौधों में रोग रोधी क्षमता को बढ़ाता है.

* यह मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों के अपघटन की दर बढ़ाता है, इसलिए यह जैव उर्वरक की तरह काम करता है.

* यह पौधों की वृद्धि को बढ़ाता है, क्योंकि यह फास्फेट और दूसरे सूक्ष्म पोषक तत्त्वों को घुलनशील बनाता है.

ट्राइकोडर्मा के प्रयोग में सावधानियां

* ट्राइकोडर्मा कल्चर 6 महीने से ज्यादा पुराना न हो.

* बीज या पौधों के उपचार का काम छायादार और सूखी जगह पर करें.

* ट्राइकोडर्मा के साथसाथ कवकनाशी रसायनों का प्रयोग न करें.

* ट्राइकोडर्मा के प्रयोग के 4 से 5 दिनों के बाद तक रासायनिक कवकनाशी का प्रयोग न करें.

* ट्राइकोडर्मा से उपचारित बीज को सूरज की सीधी किरणें न लगने दें.

* कार्बनिक खाद में मिलाने के बाद उसे लंबी अवधि के लिए न रखें.

नोट : ट्राइकोडर्मा की संगतता-ट्राइकोडर्मा रासायनिक कवकनाशी मेटैलैक्सिल और थीरम द्वारा उपचारित बीज के साथ प्रयोग किया जा सकता है, पर दूसरे किसी भी रासायनिक कवकनाशी के साथ नहीं.

आदर्श पोषण वाटिका से स्वच्छ और संतुलित आहार

उस वाटिका को ‘पोषण वाटिका’ या ‘रसोईघर बाग’ या ‘गृहवाटिका’ कहा जाता है जो घर के अगलबगल में या घर के आंगन में ऐसी खुली जगह, जहां पारिवारिक श्रम से परिवार के इस्तेमाल के लिए विभिन्न मौसम में मौसमी फल और विभिन्न प्रकार की सब्जियां उगाई जाती हैं.

पोषण वाटिका का मुख्य मकसद ही रसोईघर का पानी व कूड़ाकरकट को पारिवारिक श्रम से उपयोग कर, घर की फल व सागसब्जियों की दैनिक जरूरतों की पूरा करने या आंशिक रूप से भरपाई करने की कोशिश करना व दैनिक आहार में उपयोग होने वाली सब्जी व फल शुद्ध, ताजा और जैविक उत्पाद रोजाना हासिल करना होता है.

आजकल बाजार में बिकने वाली ज्यादातर चमकदार फल और सागसब्जियों को रासायनिक उर्वरक का प्रयोग कर उगाया जाता है. इन फसल सुरक्षा पर तरहतरह के रसायनों का इस्तेमाल खरपतवार पर नियंत्रण, कीड़े और बीमारी को रोकने के लिए किया जाता है, परंतु इन रासायनिक दवाओं का कुछ अंश फल और सागसब्जी में बाद तक भी बना रहता है.

इस के चलते इन्हें इस्तेमाल करने वालों में बीमारियों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता कम होती जा रही है और आम आदमी तरहतरह की बीमारियों से ग्रसित होता जा रहा है.

इस के अलावा फल और सागसब्जियों के स्वाद में भी काफी अंतर देखने को मिल जाता है, इसलिए हमें अपने घर के आंगन या आसपास की खाली खुली जगह में छोटीछोटी क्यारियां बना कर जैविक खादों का इस्तेमाल कर के रसायनरहित फल और सागसब्जियों का उत्पादन करना चाहिए.

जगह का चुनाव

इस के लिए जगह चुनने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती, क्योंकि ज्यादातर यह जगह घर के पीछे या आसपास ही होती है. घर से मिले होने के कारण थोड़ा कम समय मिलने पर भी काम करने में सुविधा रहती है.

गृहवाटिका के लिए ऐसे स्थान का चुनाव करना चाहिए, जहां पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सके, जैसे नलकूप या कुएं का पानी, स्नान का पानी, रसोईघर का पानी आदि पोषण वाटिका तक पहुंच सके.

जगह खुली हो, जिस में सूरज की रोशनी मिल सके. ऐसी जगह, जो जानवरों से सुरक्षित हो और उस जगह की मिट्टी उपजाऊ हो, ऐसी जगह का चुनाव पोषण वाटिका के लिए करना चाहिए.

पोषण वाटिका का आकार

जहां तक पोषण वाटिका के आकार का संबंध है, वह जमीन की उपलब्धता, परिवार के सदस्यों की तादाद और समय की उपलब्धता पर निर्भर होता है.

लगातार फसल चक्र अपनाने, सघन बागबानी और अंत:फसल खेती को अपनाते हुए एक औसत परिवार, जिस में एक औरत, एक मर्द व 3 बच्चे यानी कुल 5 सदस्य हैं, ऐसे परिवार के लिए औसतन 25×10 वर्गमीटर जमीन काफी है. इसी से ज्यादा पैदावार ले कर पूरे साल अपने परिवार के लिए फल व सब्जियां हासिल की जा सकती हैं.

लेआउट करें तैयार

एक आदर्श पोषण वाटिका के लिए उत्तरी भारत खासकर उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा व दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में उपलब्ध तकरीबन 250 वर्गमीटर क्षेत्र में बहुवर्षीय पौधों को वाटिका के किसी एक तरफ  लगाना चाहिए, जिस से कि इन पौधों की दूसरे पौधों पर छाया न पड़ सके और साथ ही, एकवर्षीय सब्जियों के फसल चक्र व उन के पोषक तत्त्वों की मात्रा में बाधा न डाल सके. पूरे क्षेत्र को 8-10 वर्गमीटर की 15 क्यारियों में बांट लें.

* वाटिका के चारों तरफ बाड़ का इस्तेमाल करना चाहिए, जिस में 3 तरफ  गरमी और बरसात के समय कद्दूवर्गीय पौधों को चढ़ाना चाहिए और बची हुई चौथी तरफ सेम लगानी चाहिए.

* फसल चक्र, सघन फसल पद्धति और अंत:सस्य फसलों के उगाने के सिद्धांत को अपनाना चाहिए.

* 2 क्यारियों के बीच की मेंड़ों पर जड़ों वाली सब्जियों को उगाना चाहिए.

* रास्ते के एक तरफ  टमाटर व दूसरी तरफ चौलाई या दूसरी पत्ती वाली सब्जी उगानी चाहिए.

* वाटिका के 2 कोनों पर खाद के गड्ढे होने चाहिए, जिन में से एक तरफ वर्मी कंपोस्ट यूनिट व दूसरी ओर कंपोस्ट खाद का गड्ढा हो, जिस में घर का कूड़ाकरकट और फसल अवशेष डाल कर खाद तैयार कर सकें.

* इन गड्ढ़ों के ऊपर छाया के लिए सेम आदि की बेल चढ़ा कर छाया बनाए रखें. इस से पोषक तत्त्वों का नुकसान भी कम होगा व गड्ढा भी छिपा रहेगा.

पोषण वाटिका के फायदे

* जैविक उत्पाद (रसायनरहित) होने के कारण फल और सब्जियों में पर्याप्त मात्रा में पौषक तत्व मौजूद रहते हैं.

* बाजार में फल और सब्जियों की कीमत ज्यादा होती है, जिसे न खरीदने से लगाई गई पूंजी में कमी होती है.

* परिवार के लिए ताजा फलसब्जियां मिलती रहती हैं.

* उपलब्ध सब्जियां बाजार के बजाय अच्छे गुणों वाली होती हैं.

* गृहवाटिका लगा कर औरतें परिवार की माली हालत को मजबूत बना सकती हैं.

* पोषण वाटिका से मिलने वाले मौसमी फल व सब्जियों को परिरक्षित कर सालभर तक उपयोग किया जा सकता है.

* यह मनोरंजन व कसरत का भी एक अच्छा साधन है.

* बच्चों के लिए ट्रेनिंग का यह एक अच्छा साधन भी है.

* मनोवैज्ञानिक नजरिए से खुद के द्वारा उगाई गई फलसब्जियां, बाजार के मुकाबले ज्यादा स्वादिष्ठ लगती हैं.

Home Gardenफसल की व्यवस्था

पोषण वाटिका में बोआई करने से पहले योजना बना लेनी चाहिए, ताकि पूरे साल फल व सब्जियां मिलती रहें. इस में निम्न बातों का उल्लेख होना चाहिए :

* क्यारियों की स्थिति.

* उगाई जाने वाली फसल का नाम और प्रजाति.

* बोआई का समय.

* अंत:फसल का नाम और प्रजाति.

* बोनसाई तकनीक का इस्तेमाल.

* इन के अलावा दूसरी सब्जियों को भी जरूरत के मुताबिक उगा सकते हैं.

* मेंड़ों पर मूली, गाजर, शलजम, चुकंदर, बाकला, धनिया, पोदीना, प्याज, हरा साग जैसी सब्जियां लगानी चाहिए.

* बेल वाली सब्जियां जैसे लौकी, तोरई, छप्पनकद्दू, परवल, करेला, सीताफल आदि को बाड़ के रूप में किनारों पर ही लगानी चाहिए.

* वाटिका में फल वाले पौधों जैसे पपीता, अनार, नीबू, करौंदा, केला, अंगूर, अमरूद आदि के पौधों को सघन विधि से इस तरह किनारे की तरफ  लगाएं, जिस से कि सब्जियों पर छाया या पोषक तत्त्वों के लिए होड़ न हो.

* इस फसल चक्र में कुछ यूरोपियन सब्जियां भी रखी गई हैं, जो अधिक पोषणयुक्त और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता रखती हैं.

* पोषण वाटिका को और ज्यादा आकर्षक बनाने के लिए उस में कुछ सजावटी पौधे भी लगाए जा सकते हैं.

पोषण वाटिका में फसल चक्र अपनाने से ज्यादा फलसब्जियां

प्लाट नं. : सब्जियों व फल का नाम

प्लाट नं. 1 : आलू, लोबिया, अगेती फूलगोभी

प्लाट नं. 2 : पछेती फूलगोभी, लोबिया, लोबिया (वर्षा)

प्लाट नं. 3 : पत्तागोभी, ग्वार फ्रैंच बीन

प्लाट नं. 4 : मटर, भिंडी, टिंडा

प्लाट नं. 5 : फूलगोभी, गोठगोभी (मध्यवर्ती) मूली, प्याज

प्लाट नं. 6 : बैगन के साथ पालक, अंत: फसल के रूप में खीरा

प्लाट नं. 7 : गाजर, भिंडी, खीरा

प्लाट नं. 8 : मटर, टमाटर, अरवी

प्लाट नं. 9 : ब्रोकली, चौलाई, मूंगफली

प्लाट नं. 10 : स्प्राउट ब्रसेल्स बैंगन (लंबे वाले

प्लाट नं. 11 : लीक खीरा, प्याज

प्लाट नं. 12 : लहसुन, मिर्च, शिमला मिर्च

प्लाट नं. 13 : चाइनीज कैवेजलैट्रस-प्याज (खरीफ)

प्लाट नं. 14 : अश्वगंधा (सालभर) (शक्तिवर्धक व दर्द निवारक) अंत: फसल लहसुन

प्लाट नं. 15 : पौधशाला के लिए (सालभर)

जैविक खेती : किसानों की आय दोगुनी करने का माध्यम

बढ़ती जनसंख्या को अनाज उपलब्ध कराने के लिए घटती जोत के साथसाथ संसाधनों की कमी को देखते हुए कृषि वैज्ञानिक किसानों को सघन खेती पद्धति अपनाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं. इस आधुनिक ऊर्जा आधारित कृषि पद्धति ने, जिस में उन्नत किस्मों के साथसाथ रासायनिक उर्वरक व कीटनाशकों का प्रयोग मुख्य है, आज खेती को एक विवादास्पद मोरचे पर ला खड़ा किया है. इस में उत्पादन बनाम प्रदूषण, उत्पादकता बनाम टिकाऊपन, उत्पादन बनाम ऊर्जा आदि पर गहन विचारविमर्श चल रहा है.

असंतुलित कृषि गतिविधियों के परिणामस्वरूप पर्यावरण विघटन का खतरा पैदा हो गया है, जिस ने कृषि वैज्ञानिकों का ध्यान ऐसी कृषि पद्धति की तरफ खींचा है, जो पर्यावरण के अनुकूल हो और टिकाऊ भी.

इस समस्या से नजात पाने में कार्बनिक खेती एक अच्छा विकल्प साबित हो रही है, जो मिट्टी को स्वस्थ बनाए रखती है और पर्यावरण को हानिकारक प्रभावों से बचाती है.

कार्बनिक खेती आमतौर पर ‘प्रकृति की तरफ झुकाव’ आंदोलन के एक हिस्से के रूप में जानी जाती है. यह खेती की एक ऐसी पद्धति है, जिस में रासायनिक कीटनाशकों एवं उर्वरकों के उपयोग के स्थान पर मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने के लिए फार्मवेस्ट, कंपोस्ट, सीवेज, पौधों के बचे भाग आदि का प्रयोग किया जाता है.

आधुनिक कार्बनिक खेती की शुरुआत ब्रिटेन में हुई, जहां एक प्रकार की कृषि पद्धति में मृदा उर्वरता बनाए रखने के लिए कंपोस्ट पर अधिक जोर दिया गया.

सर अलबर्ट होवार्ड (ब्रिटेन) को इस पद्धति का जनक माना जाता है. कार्बनिक किसान वे लोग थे, जो मिट्टी में पोषक तत्त्वों की आपूर्ति खेत अवशिष्ट और हरी खाद से करते थे. रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग बिलकुल भी नहीं करते थे.

जैविक खेती के लाभ

आज जैविक (कार्बनिक) खेती अपनाने के कई फायदे हैं और कार्बनिक उत्पादों का दाम भी अधिक मिल रहे है.

कम ऊर्जा : इस कार्बनिक खेती में ऊर्जा की आवश्यकता कम होती है, अत: लागत भी कम आती है.

अधिक मूल्य : कार्बनिक उत्पादों का दाम भी अधिक मिलता है. ये उत्पाद स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छे माने जाते हैं, अत: लोग इन्हें अधिक खरीदने लगे हैं.

कम मशीनीकरण : इस पद्धति में कृषि कियाएं अधिक नहीं की जाती हैं, अत: कम मशीनों के उपयोग से खेती संभव है और छोटे किसान भी इस को आसानी से अपना सकते हैं.

अच्छी गुणवत्ता : कार्बनिक उत्पाद में अधिक रसायनों का उपयोग नहीं किया जाता, अत: इस में ‘हैल्थ हेजार्ड’ की समस्या नहीं होती है.

कम अवशेष की समस्या : खेत से प्राप्त अवशेष को कंपोस्ट बना कर वापस काम में ले लिया जाता है.

कम प्रदूषण : चूंकि इस कृषि पद्धति में रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का प्रयोग नहीं होता, अत: मृदा प्रदूषण एवं जल प्रदूषण कम होता है. अवशेष की समस्या भी कम होती है.

अवरोधक

अकार्बनिक खेती से कार्बनिक खेती अपनाने में शुरुआत में निम्न रुकावटें आ सकती हैं, जो किसानों को हतोत्साहित कर सकती हैं:

* आधुनिक अकार्बनिक खेती ने मिट्टी में उपस्थित सूक्ष्म जीवाणुओं को नष्ट कर दिया है. अत: उन के पुनर्निर्माण में 3-4 वर्ष लग सकते हैं.

* शुरुआती समय में फार्म उत्पाद में कुछ गिरावट आ सकती है, जो किसान सह नहीं सकते. अत: उन्हें कार्बनिक खेती अपनाने के लिए अलग से प्रोत्साहन देना जरूरी है.

* भूमि संसाधनों को कार्बनिक खेती से अकार्बनिक खेती की तरफ बदलने में अधिक समय नहीं लगता, लेकिन विपरीत दिशा जाने में समय लगता है.

* सरकारी प्रोत्साहन के अभाव में किसान इस नए आयाम और बाजार में प्रवेश से भयभीत हैं.

अवयव

कार्बनिक खेती मुख्यत: फसलचक्र, उर्वरकों का उपयोग, कीट एवं बीमारियों के नियंत्रक विधियों के संदर्भ में अकार्बनिक खेती से भिन्न है. इस पद्धति के मुख्य अवयव निम्न प्रकार से हैं :

जैविक खाद (आर्गेनिक मैन्योर) : कार्बनिक पदार्थ जैसे फार्म यार्ड मैन्योर (गोबर की खाद), स्लरी, कंपोस्ट, भूसा एवं फसल अवशेष, अन्य फसल उत्पाद, जीवाणु खाद, हरी खाद, फसल अवशेष आदि के माध्यम से भूमि में पोषक तत्त्वों की पूर्ति की जाती है और रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग न के बराबर किया जाता है, जो पर्यावरण की गुणवत्ता बनाए रखने में सहायक होती है.

इन के अलावा कार्बनिक किसान समुद्री खरपतवार, जलीय खरपतवार, खली एवं मछली खादों का उपयोग करते हैं. जैविक खादों के उपयोग से भूमि में कार्बनिक तत्त्वों की मात्रा में वृद्धि होगी, जो इस की जलधारण क्षमता में भी वृद्धि करेगी.

मृदा क्षरण एवं वाष्पोत्सर्जन दर भी कार्बनिक तत्त्वों द्वारा नियंत्रित की जा सकती है. फसलचक्र में दालों वाली फसलों को शामिल करने से मृदा उर्वरता बनाए रखने में सहायता होती है.

जैविक कीट प्रबंधन : कृषि में कीट व बीमारियों का नियंत्रण किसानों व कृषि वैज्ञानिकों दोनों के लिए एक विकट समस्या है. यहां अरासायनिक जैविक कीट नियंत्रण को प्रोत्साहित किया जाता है.

कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं का संरक्षण रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. वानस्पतिक कीटनाशक (बायोपेस्टिसाइड्स) जैसे नीम आधारित उत्पादों के प्रयोग को बढ़ावा देना चाहिए. कुछ चुने हुए जीवाणु कीटनाशक (बीटी आधारित स्ट्र्रेन) भी उपयोगी सिद्ध हुए हैं.

अरासायनिक खरपतवार नियंत्रण : अकार्बनिक खेती के बजाय कार्बनिक किसान खरपतवार नियंत्रण के लिए अधिक यांत्रिक विधियों का प्रयोग करते हैं. खरपतवारनाशियों का उपयोग कम से कम किया जाता है, क्योंकि ये पर्यावरण प्रदूषण का मुख्य कारण है.

शुरुआत कैसे करें

जैविक खेती अपनाने के लिए समुचित व्यवस्था और प्रबंधन के लिए रुके रहने की आवश्यकता नहीं है. इसे सभी किसान आसानी से अपना सकते हैं. इस के लिए जैविक खेती की विधियों का अपनी सुविधानुसार कहीं से भी अनुसरण शुरू करें. छोटे स्तर पर किए गए उपाय ही इस विधा को अपनाने में सहायक होते हैं.

अपनी जोत का कुछ हिस्सा जैविक विधियों द्वारा आधारित खेती के लिए निर्धारित करें और उस के लिए अलग से कार्य योजना अपनाएं. फसलों का चुनाव, कार्बनिक खादों की उपलब्धता और कीट एवं बीमारियों के जैविक नियंत्रण के बारे में जानकारी हासिल करें. उपलब्ध आदानों का समुचित प्रबंधन करें. शुरू में इस विधि को अकार्बनिक खेती के संदर्भ में जांच के लिए अपनाएं और अपने अनुभवों के आधार पर आगे बढ़ें.

कार्य योजना

जैव स्रोतों से पौध पोषण

मिट्टी परीक्षण/भूमि का स्वास्थ्य

  • भूमि की सजीवता बनाए रखें.
  • फसलचक्र दलहन अनाज/तिलहन/नकदी फसलचक्र, भूमि की उर्वरता बनाए रखती है.
  • जीवाणु कल्चरों का प्रयोग लाभदायक है. द्य अंतर्वर्तीय, मिश्रित, बहुफसल, बहुस्तरीय फसल, प्रकृति के पूरक सिद्धांतों/सहअस्तित्व के सिद्धांत को प्रोत्साहित करती है.

जीवांश खाद/कंपोस्ट

उपलब्ध जीवांश को संवर्धित करें : (अ) जीवांश को कदापि न जलाएं. (ब) आवश्यक रूप से कंपोस्ट बनाने की कोई भी विधि अपनाएं. (स) नाडेप कंपोस्ट विधि एक वरदान है. इस विधि से उपलब्ध कंपोस्ट की मात्रा जीवांश में मिट्टी के सम्मिश्रण से दोगुनी करना संभव है. (द) बायोगैस अपनाएं. जीवांश बनाएं खेत के लिए. (ध) कंपोस्ट की गुणवत्ता की वृद्धि के लिए खनिज रौक फास्फेट व नाइट्रोजन स्थिर करने वाले व स्फुट घोलक जीवाणु का उपयोग करें.

वर्मी कंपोस्ट : केंचुए शीघ्रता से जैव पदार्थों को कंपोस्ट में बदल देते हैं.

रासायनिक पौध पोषण : (यदि बहुत ज्यादा जरूरी हो तो) : द्य जैव पौध पोषण की कमी की पूर्ति रासायनिक उर्वरकों से की जाए.

  • उर्वरक की उपयोग क्षमता बढ़ाने के लिए इसे विभाजित एवं उपयुक्त स्थान पर दिया जाए.

एकीकृत भूमि व जल प्रबंघन

भूमि प्रबंधन :

  • भूमि को शोषण, क्षरण, लवणीयता व जल जमाव से बचाएं.
  • खेत की मिट्टी खेत में ही रहे, इस के लिए खेत के चारों तरफ नाली व हलकी मेंड़ बनाएं.
  • अनावश्यक रूप से गहरी जुताई को निरुत्साहित करें.
  • न्यूनतम जुताई पद्धति अपनाएं. ऐसा करने से जमीन में आश्रय पा रहे कार्बनिक जीवांश, सूक्ष्म जीवाणु, केंचुए आदि संरक्षित रहते हैं.
  • भूमि पर किसी भी जीवांश इत्यादि को जलाएं नहीं, अन्यथा भूमि की जैव क्रिया विपरीत रूप से प्रभावित हो जाती है.
  • कटाई के उपरांत बचे हुए पौध अवशेष (गेहूं, धान आदि) को जमीन में रोटावेटर/कृषि कार्य कर मिला दें या उस का कंपोस्ट बनाएं.
  • जैव पदार्थ क्षारीय व लवणीय भूमि सुधार का सशक्त माध्यम है. उन का उपयोग भूमि को स्वस्थ बनाए रखने में करें.

जल प्रबंधन :

  • खेत का पानी खेत में रहे, इस के लिए खेत की हलकी मेंड़बंदी करें व जैव अवरोधक वनस्पति का उपयोग करें.
  • ड्रिप सिंचाई पद्धति अपनाएं.
  • भूमि जल की क्षमता के आधार पर दोहन करें.
  • वर्षा पर निर्भर कृषि में उपलब्ध जल का उपयोग सही बीज अंकुरण एवं जीवनरक्षक सिंचाई के लिए करें.

पारिस्थितिक संतुलन :

  • सूक्ष्म जीवाणुओं का उपयोग कीट व बीमारी नियंत्रण में करें.
  • एंटीफीडेंट, बायोपैस्टीसाइड्स एवं कम जहरीले रसायनों का उपयोग यदि आवश्यक हो, तो उचित समय एवं मात्रा में करें.
  • पक्षी, सर्पवर्ग एवं मेढक को संरक्षण प्रदान करें, क्योंकि ये कीटों को नियंत्रण में रखते हैं.
  • उपयुक्त परजीवियों एवं परभक्षियों का उपयोग कीट नियंत्रण में करें.
  • प्रकाश प्रपंच (फैरोमौन ट्रैप) का उपयोग करें. ये कीट तीव्रता का संकेत देते हैं.

जैविक खेती की नई अवधारणा को अब विश्वस्तर पर मान्यता मिलने लगी है. आज प्रत्येक पर्यावरण संरक्षक इस नई कृषि पद्धति को अपनाने की बात कर रहा है. असंतुलित कृषि प्रक्रियाओं एवं अनियंत्रित कृषि आदानों के उपयोग से आज पर्यावरण को खतरा पैदा हो गया है. इसलिए जैविक खेती दिशा बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी.

जैविक खेती पर्यावरण संरक्षण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है. इस के माध्यम से प्रदूषण फैलाने वाले कारक जैसे : रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, खरपतवारनाशी आदि का उपयोग कम हो जाएगा, जो पर्यावरण प्रदूषण को कम करने में सहायक होगा.

यदि सब्जी उत्पादक पादप पोषण तत्त्वों की आपूर्ति रासायनिक उर्वरकों के बजाय जैव उर्वरकों एवं बायोपैस्टीसाइड्स से करें, तो फसलोत्पादन की कीमत घटने के साथसाथ पर्यावरण भी सुधरेगा. बाजार में रसायनविहीन इन सब्जियों की कीमत भी बहुत अच्छी मिलती है.

आर्थिक एवं पोषण सुरक्षा प्रदान करने वाली फसलों के उत्पादन में सब से बड़ी समस्या है, फसलों की उच्च रासायनिक उर्वरक की मांग. जैव उर्वरक एक ऐसा उर्वरक है, जिस में नाइट्रोजन स्थिरीकरण अथवा फास्फोरस विलायक या फिर सल्फर जैसे अन्य पोषक तत्त्वों के रूपांतरित करने वाले सूक्ष्म जीवों के लिए आवश्यक पोषक तत्त्व, विटामिन और हार्मोन की उपलब्धता बढ़ जाती है. फलस्वरूप, उत्पादन काफी बढ़ जाता है.

आज रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग से स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ने लगी हैं. इस के निवारण के लिए कार्बनिक खाद्य पदार्थ पैदा होने लगे हैं, जो बाजार में आर्गेनिक उत्पाद के लेबल के साथ मिलते हैं. एक तो इन की गुणवत्ता अच्छी होती है. दूसरे, ये स्वास्थ्य के लिए अच्छे साबित हो रहे हैं. इसलिए जैविक खेती की आवश्यकता एवं संभावनाएं अधिक प्रभावी होती जा रही हैं.

जैविक खेती का महत्त्व

हमारे देश में जैविक खाद आधारित कृषि पुराने समय से की जा रही है. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हरित क्रांति के दौर में रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों का शीघ्रता से प्रयोग हुआ जिस के परिणामस्वरूप खाद्य उत्पादन में वृद्धि हुईं परंतु अधिक मात्रा में रासायनिक खादों के प्रयोग से वातावरण दूषित हुआ जिस से मानव जीवन प्रभावित हुआ.

जैविक खेती के लिए किसान निम्नलिखित तकनीकी को प्रयोग में ला सकते हैं.

* मृदा संरक्षण के लिए पलवार प्रयोग.

* मिट्टी में पोषक तत्त्व संतुलन हेतु दलहनी फसलों की एकल, मिश्रित तथा अंतर्शस्ययन.

* मृदा में कृषि अवशेष, वर्मी कंपोस्ट, कंपोस्ट, जीवाणुखाद तथा बायोडायनामिक कंपोस्ट का प्रयोग.

* जैविक उवरकों के प्रयोग का महत्त्व है जिस में राइजोबियम, एजोटोबैकटर, पीएसबी एवं बीजीए प्रमुख हैं. जैविक उवरकों के प्रयोग का मुख्य आकर्षण है उन के उत्पादन और उपयोग की सफलता एवं न्यून लागत.

* पौध सुरक्षा हेतु खरपतवार की सफाई तथा जैविक कीटनाशियों का प्रयोग.

* फसल चक्र, हरित खाद, भूपरिष्करण तथा खाद प्रबंधन द्वारा फसलों में खरपतवार प्रबंधन.

* उपरोक्त तकनीकी द्वारा जैविक किसान अपने फसलों में पोषक तत्त्व तथा कीट एवं व्याधि प्रबंधन करते हैं.

* पोषक तत्त्व प्रबंधन हेतु देश के विभिन्न भागों में समाहित देशी तकनीक.

* देश के विभिन्न भागों में मृदा में पोषक तत्त्व प्रबंधन हेतु किसानों द्वारा अपनाई जा रही तकनीकियों का अवलोकन करें तो पता चलता है कि देश के अधिकतर हिस्से में किसान स्थानीय रूप से उपलब्ध पोषक तत्त्वों के जैविक श्रोतों का ही प्रयोग करते हैं.

* ऐसे स्थानीय खाद, जीवांश अथवा जैविक अवशिष्ट का प्रयोग किसानों के एक लंबे प्रयोग का परिणाम है.

* ये कृषि क्रियाएं क्षेत्र विशेष के किसानों के सामाजिक परंपराओं तथा मान्यताओं को भी अहमियत देते हैं.

वैकल्पिक उर्वरकों को प्रोत्साहन देने के लिए कदम

नई दिल्ली : कृषि में रासायनिक उर्वरकों के उपयोग को कम करने के लिए भारत सरकार जैविक उर्वरक और जैव उर्वरकों के संयोजन के साथ मिट्टी जांच को ध्यान में रखते हुए उर्वरकों के संतुलित और विवेकपूर्ण उपयोग को बढ़ावा दे रही है. इस के अलावा परंपरागत कृषि विकास योजना यानी पीकेवीवाई, नमामि गंगे, भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति यानी बीपीकेपी, उत्तरपूर्वी क्षेत्र के लिए मिशन जैविक मूल्य श्रृंखला विकास यानी एमओवीसीडीएनईआर, राष्ट्रीय जैविक खेती परियोजना यानी एनपीओएफ आदि के तहत किसानों को जैविक और जैव उर्वरकों के उपयोग के लिए सहायता प्रदान की जाती है. इस के अलावा, राष्ट्रीय जैविक खेती केंद्र यानी एनसीओएफ जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए जागरूकता फैलाने और प्रशिक्षण गतिविधियों में शामिल है.

आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति यानी सीसीईए ने अपनी बैठक में “पीएम प्रोग्राम फौर रेस्टोरेशन, अवेयरनेस जनरेशन, नरिशमेंट एंड एमेलिओरेशन औफ मदर अर्थ (पीएम प्रणाम)” को मंजूरी दे दी है.

इस पहल का उद्देश्य उर्वरकों के टिकाऊ और संतुलित उपयोग को बढ़ावा देने, वैकल्पिक उर्वरकों को अपनाने, जैविक खेती को बढ़ावा देने और संसाधन संरक्षण प्रौद्योगिकियों को लागू कर के धरती के स्वास्थ्य को बचाने के लिए राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों द्वारा शुरू किए गए जन आंदोलन का समर्थन करना है.

उक्त योजना के तहत पिछले 3 वर्षों की औसत खपत की तुलना में रासायनिक उर्वरकों यानी यूरिया, डीएपी, एनपीके, एमओपी आदि की खपत में कमी के माध्यम से एक विशेष वित्तीय वर्ष में राज्य/केंद्रशासित प्रदेश द्वारा उर्वरक सब्सिडी का जो 50 फीसदी बचाया जाएगा, उसे अनुदान के रूप में उस राज्य/संघ राज्य क्षेत्र को दे दिया जाएगा.

इस के अलावा सीसीई ने 28 जून, 2023 को आयोजित अपनी बैठक में 1,500 रुपए प्रति मीट्रिक टन की दर से बाजार विकास सहायता (एमडीए) को मंजूरी दे दी है, ताकि जैविक उर्वरकों को बढ़ावा दिया जा सके. इस का अर्थ है, गोबरधन पहल के तहत संयंत्रों द्वारा उत्पादित खाद को प्रोत्साहन देना.

इस पहल में विभिन्न बायोगैस/सीबीजी समर्थन योजनाएं/कार्यक्रम शामिल हैं. ये सभी हितधारक मंत्रालयों/विभागों से संबंधित हैं, जिन में पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय की किफायती परिवहन के लिए सतत विकल्प (एसएटीएटी) योजना, नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय का अपशिष्ट से ऊर्जा कार्यक्रम, पेयजल एवं स्वच्छता विभाग का स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) को शामिल किया गया है. इन का कुल परिव्यय 1451.84 करोड़ रुपए (वित्त वर्ष 2023-24 से 2025-26) है, जिस में अनुसंधान संबंधी वित्त पोषण के लिए 360 करोड़ रुपए की निधि शामिल है.

यह जानकारी रसायन एवं उर्वरक राज्य मंत्री भगवंत खुबा ने लोकसभा में एक लिखित उत्तर में दी.

खेती को बनाएं फायदेमंद

गरमी में खेतों की गहरी जुताई करनी चाहिए. ऐसा करने से खेत की पानी सोखने की कूवत बढ़ेगी,साथ ही नुकसान पहुंचाने वाले कीटों का सफाया होगा और फायदेमंद कीटों को पनपने का मौका मिलेगा. इस से कीटनाशकों पर होने वाले गैरजरूरी खर्च में कमी आएगी.

* बरसात के पानी को सहेजने का इंतजाम करना चाहिए. खेत की उपजाऊ मिट्टी को बह कर जाने से रोकने के लिए मजबूत व ऊंची मेंड़ बनानी चाहिए. पानी रोकने के उपाय करने चाहिए. पहली बरसात का पानी खेत में जरूर रोकें.

* जिस फसल की बोआई करनी हो, उस की क्षेत्र के लिए स्वीकृत प्रजातियों के आधार पर या प्रमाणित बीज की ही बोआई करें.

* हमेशा खेत की मिट्टी की जांच के आधार पर खेत में खाद व उर्वरक का इस्तेमाल करें.

* धान और गेहूं फसल चक्र में हरी खाद का इस्तेमाल जरूर  करना चाहिए.

* मृदा स्वास्थ्य सुधार के लिए कार्बनिक खादों, जैविक खाद/जैविक उर्वरक, दलहनी फसलों का इस्तेमाल जरूर करें.

* फसलों की सिंचाई पलेवा या पारंपरिक तरीके से न करें. आधुनिक व सूक्ष्म सिंचाई के तरीकों जैसे टपक सिंचाई, फव्वारा सिंचाई, रेन गन सिंचाई वगैरह का प्रयोग करें. इस से समय, मेहनत और पानी की बचत होगी और फसल से अच्छा उत्पादन मिलेगा.

* खेती से ज्यादा आमदनी लेने के लिए फसल उत्पादन के साथ ही साथ पशुपालन, बागबानी, सब्जी उत्पादन, फलफूल, मत्स्यपालन, कुक्कुटपालन, मौनपालन वगैरह कामों को भी करें.

* कम समय में तैयार होने वाली नकदी फसलें, जैसे तोरिया, आलू, प्याज, उड़द, मूंग, लोबिया, ग्वार, मशरूम उत्पादन जरूर करें.

* कम लागत में टिकाऊ व ज्यादा उत्पादन के लिए समेकित पोषक तत्त्व प्रबंधन, समेकित कीट व रोग प्रबंधन अपनाएं.

* खेतों में कभी भी धान का पुआल, गेहूं के डंठल, भूसा वगैरह न जलाएं, उन्हें मिट्टी में ही मिला दें.

Farmingइन बातों को अपनाने से खेती फायदेमंद, टिकाऊ होगी, मिट्टी और खेत का स्वास्थ्य ठीक होगा, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण व समुचित उपयोग होगा और खेत की मिट्टी की पानी सोखने की कूवत बढ़ेगी. फसल में कीट व बीमारियां कम लगेगीं. साथ ही, फसल पैदावार में बढ़ोतरी होगी.

ऐसा होने से निश्चित रूप से गांव, जिला, प्रदेश व देश की तरक्की होगी, इसलिए किसानों से अनुरोध है कि इन बातों पर जरूर ध्यान दें और अपने खेतों में इन का इस्तेमाल करें.