Drip Irrigation : सारी दुनिया में अपनाई जा रही ड्रिप प्रणाली से हमारे किसानों का संबंध बहुत पुराना है. पहले गरमी के दिनों में हमारे घरों के आंगन की तुलसी के पौधे के ऊपर मिट्टी के घड़े की तली में बारीक छेद कर के उस में पानी भर कर टांग दिया जाता था. वैसे ड्रिप प्रणाली का किसानी में व्यापक प्रयोग 1960 के दशक में इजरायल में किया गया, जिसे बाद में आस्ट्रेलिया और अमेरिका ने बखूबी अपनाया. ड्रिप सिंचाई के जरीए आज अमेरिका में 10 लाख हेक्टेयर रकबे में खेती होती है, जिस के बाद भारत और फिर स्पेन और इजरायल का स्थान है.

ड्रिप यानी टपक सिंचाई, सिंचाई का वह तरीका है जिस में पानी धीरेधीरे बूंदबूंद कर के फसलों की जड़ों में कम मोटाई के प्लास्टिक के पाइप से दिया जाता है. इस तरीके में पानी का इस्तेमाल कम से कम होता है. सिंचाई का यह तरीका सूखे इलाकों के लिए बेहद उपयोगी होता है, जहां इस का इस्तेमाल फल के बगीचों की सिंचाई के लिए किया जाता है. टपक सिंचाई ने लवणीय जमीन पर फलों के बगीचों को कामयाब बनाया है. इस सिंचाई विधि में खाद को घोल के रूप में दिया जाता है. टपक सिंचाई उन इलाकों के लिए बहुत ही सही है, जहां पानी की कमी होती है.

पिछले 15 सालों से भारत में ड्रिप सिंचाई से साढ़े 3 लाख हेक्टेयर जमीन में सिंचाई हो रही है, जिस में सब से अधिक महाराष्ट्र में 94000 हेक्टेयर, कर्नाटक में 66000 हेक्टेयर और तमिलनाडु में 55000 हेक्टेयर की सिंचाई की जा रही है.

ड्रिप सिंचाई पर आधारित खेती को अपनाए जाने की कई वजहें हैं. भारत की कुल जमीन के रकबे का महज 45 फीसदी भाग ही अभी तक सिंचाई सुविधा के तहत आता है, जबकि खेती में पानी का इस्तेमाल कुल पानी के इस्तेमाल का 83 फीसदी है. घरेलू उपयोग, उद्योग और ऊर्जा यानी बिजली के सेक्टर में पानी की खपत बढ़ने से जाहिर है कि खेती के लिए पानी की मौजूदगी पर आने वाले समय में दबाव और बढ़ेगा. पानी के संकट का एक मुख्य कारण जमीन के पानी के स्तर का लगातार गिरते जाना भी है.

कोलंबो स्थित इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट के अनुसार साल 2025 तक विश्व की एकतिहाई आबादी पानी की कमी से जूझ रही होगी. विश्व में मौजूद इस्तेमाल लायक पानी का महज 4 फीसदी पानी भारत में है, जबकि भारत की आबादी दुनिया की आबादी का 16 फीसदी है. जाहिर है कि पानी का दबाव बढ़ता जा रहा है. ऐसे में जरूरी है कि खेती में भी पानी के इस्तेमाल को ले कर नई तकनीकों को आजमाया जाए. ड्रिप यानी टपक बूंद सिंचाई तकनीक में पानी की हर बूंद के ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल समेत कई लाभ हैं.

टपक सिंचाई के लिए मुफीद फसलें: ड्रिप या टपक सिंचाई कतार वाली फसलों, पेड़ व लता फसलों के मामले में बेहद मुनासिब होती है, जहां एक या उस से ज्यादा निकास को हर पौधे तक पहुंचाया जाता है. ड्रिप सिंचाई को आमतौर पर अधिक कीमत वाली फसलों के लिए अपनाया जाता है, क्योंकि इस सिंचाई के तरीके को अपनाने में खर्च ज्यादा आता है. टपक सिंचाई का इस्तेमाल आमतौर पर फार्म, व्यावसायिक हरित गृहों और घरों के बगीचों में किया जाता है.

ड्रिप सिंचाई लंबी दूरी वाली फसलों के लिए बेहद मुफीद होती है. सेब, अंगूर, संतरा, नीबू, केला, अमरूद, शहतूत, खजूर, अनार, नारियल, बेर, आम आदि फल वाली फसलों की सिंचाई ड्रिप सिंचाई विधि से की जा सकती है. इन के अलावा टमाटर, बैगन, खीरा, लौकी, कद्दू, फूलगोभी, बंदगोभी, भिंडी, आलू, प्याज वगैरह कई सब्जी फसलों की सिंचाई भी टपक सिंचाई विधि से की जा सकती है. अन्य फसलों जैसे कपास, गन्ना, मक्का, मूंगफली, गुलाब व रजनीगंधा वगैरह को ड्रिप सिंचाई विधि से सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है.

ड्रिप सिंचाई पर एक रिपोर्ट : कर्नाटक के गन्ना किसानों पर हुए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि वहां के 10.85 लाख हेक्टेयर रकबे में उगाए जाने वाले गन्ने के लिए बहाव प्रणाली वाली खेती में सिंचाई के लिए 330 टीएमसीएफटी पानी की जरूरत होगी, जबकि इतने ही रकबे में ड्रिप सिंचाई तकनीक से महज 144 टीएमसीएफटी पानी की जरूरत होती है. पानी की 186 टीएमसीएफटी मात्रा का ही नहीं, बल्कि इस की सिंचाई में लगने वाली बिजली में 450 करोड़ रुपए की बचत का अनुमान किया गया जो कुल मिला कर 1200 मेगावाट के बराबर होगी.

अब बात पैदावार की करें तो इतने ही रकबे में फ्लड सिंचाई के जरीए प्रति हेक्टेयर 35 टन की पैदावार होती है, जबकि ड्रिप सिंचाई के जरीए 68 टन तक की पैदावार हासिल की जा सकती है. अकेले गन्ने की पैदावार में लगभग 95 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है, जिस का बाजारी कीमतों पर प्रति एकड़ कुल लाभ 65 हजार रुपए से अधिक बैठता है.

Drip Irrigation

ड्रिप सिंचाई तकनीक के लाभ : ड्रिप सिंचाई तकनीक को सब्जियों,  फलों और तमाम फसलों में बड़ी सफलता के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है. इस तकनीक में पानी के स्टोरेज टैंक से एक खास दबाव पर 2-20 लीटर प्रति घंटे की दर से पानी को जमीन की सतह पर पाइपों के जाल से पौधों के पास बने छेदों से टपकते हुए पहुंचाया जाता है. इस प्रणाली में जमीन में नमी बनाए रखने में मदद मिलती है.

ड्रिप सिंचाई प्रणाली में पानी का बेहतर इस्तेमाल ही नहीं होता, बल्कि पानी की खपत में 45 फीसदी कमी आ जाती है. उर्वरकों और कीटनाशकों को ड्रिप प्रणाली में सीधे पौधों की जड़ों तक पहुंचाया जाता है. सिंचाई के पुराने तरीकों में पोषण उपयोग क्षमता 60 फीसदी से कम रहती है, जबकि ड्रिप प्रणाली में 90 फीसदी से ज्यादा है.

आम सिंचाई में पौधों को अधिक पानी मिलने से पानी के जमीन के भीतर रिसाव से 50 फीसदी तक उर्वरक घुल कर मिट्टी के निचले स्तरों में जा पहुंचते हैं, जबकि ड्रिप प्रणाली में रिसाव के जरीए उर्वरकों की हानि महज 10 फीसदी होती है. सब से खास बात यह है कि उर्वरकों के रिसाव से जमीन के अंदर का पानी खराब होता है. ड्रिप सिंचाई से उर्वरकों की खपत में 20 फीसदी की कमी के साथ पैदावार में 20-90 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो सकती है. ड्रिप सिंचाई से किसान अपनी फसल की लागत को कम करने के साथसाथ भूमिगत जल को भी गंदा होने से बचा सकते हैं.

ड्रिप सिंचाई से पौधों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को अपनी संख्या को बढ़ाने के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिल पाता है, जिस से पौधों की सुरक्षा बढ़ती है और कीटनाशकों की खपत कम हो जाती है. नाली प्रणाली से सिंचाई करने पर पानी के बहाव के साथ मिट्टी का कटाव होता है, जबकि ड्रिप प्रणाली में मिट्टी का कटाव नहीं होता है. इस से मिट्टी की उर्वरता और उस की परतों को कोई नुकसान नहीं होता है.

ड्रिप सिंचाई प्रणाली में सिंचाई के लिए खेतों की असमान सतह होना बाधक नहीं है, जबकि नाली सिंचाई में किसानों को खेत को समतल बनाने में खर्च करना पड़ता है. ड्रिप प्रणाली में सिंचाई में मेहनत कम लगती है. ड्रिप सिंचाई के दौरान भूमि सूखी होने के कारण फसलों की तोड़ाई में परेशानी नहीं होती है.

ड्रिप सिंचाई की सुविधा और ढांचे को तैयार करने के लिए केंद्र व विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा सब्सिडी दी जाती है.

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