किसानों की आमदनी बढ़ाने पर विशेष जोर

सागर : जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए जागरूकता अभियान चलाएं एवं किसानों को उन्नत एवं लाभप्रद खेती के लिए प्रोत्साहित करें. फसलों में विविधता लाएं और ऐसी फसलों को प्राथमिकता दें, जो कम समय में तैयार हो जाती हैं. साथ ही, किसानों को प्रमाणित बीज, संतुलित उर्वरक एवं आधुनकि कृषि यंत्रों के उपयोग के लिए प्रेरित करें, जिस से अधिक उत्पादन हो और किसानों की आमदनी बढ़े.

उक्त निर्देश कृषि उत्पादन आयुक्त  एसएन मिश्रा ने संभागीय समीक्षा बैठक में कृषि एवं उस से जुड़े विभागों की गतिविधियों की समीक्षा के दौरान दिए.

बैठक के पहले चरण में सागर संभाग में गत रबी मौसम में हुए उत्पादन और खरीफ मौसम की तैयारियों की समीक्षा की गई. वहीं दूसरे चरण में पशुपालन, मत्स्यपालन एवं दुग्ध उत्पादन की समीक्षा हुई.

कलक्टर कार्यालय के सभागार में आयोजित हुई बैठक में अतिरिक्त मुख्य सचिव किसान कल्याण एवं कृषि विकास विभाग  अशोक वर्णवाल, प्रमुख सचिव  गुलशन बामरा, प्रमुख सचिव उद्यानिकी  सुखवीर सिंह, संभागीय कमिश्नर डा. वीरेंद्र सिंह रावत, सागर कलक्टर  दीपक आर्य, दमोह कलक्टर  सुधीर कोचर,  सुरेश कुमार,  संदीप जीआर,  अरुण विश्वकर्मा,  अवधेश शर्मा सहित संभाग के सभी जिला उद्यानिकी, सहकारिता, बीज विकास निगम, विपणन संघ, बीज प्रमाणीकरण एवं कृषि से जुड़े अन्य विभागों के राज्य स्तरीय अधिकारी और दोनों संभागों के जिला पंचायतों के मुख्य कार्यपालन अधिकारी व संबंधित विभागों के संभागीय अधिकारी मौजूद थे.

कृषि उत्पादन आयुक्त एसएन मिश्रा ने संभाग के सभी जिलों में खाद व बीज भंडारण की समीक्षा की. साथ ही, सभी जिला कलक्टर को निर्देश दिए कि खरीफ के मौसम में किसानों को खादबीज मिलने में दिक्कत न हो. वितरण केंद्रों का लगातार निरीक्षण कर यह सुनश्चित किया जाए कि किसानों को कोई कठिनाई न हो.

कृषि उत्पादन आयुक्त  एसएन मिश्रा ने कहा कि सागर संभाग में उद्यानिकी अर्थात फल, फूल व सब्जियों के उत्पादन को बढ़ावा देने की बड़ी गुंजाइश है. इसलिए संभाग के हर जिले में स्थानीय परिस्थितियों व जलवायु के अनुसार क्लस्टर बना कर उद्यानिकी फसलों से किसानों को जोड़ें. साथ ही, हर जिले में किसानों के एफपीओ (किसान उत्पादक संगठन) बनाने पर भी बल दिया. उन्होंने कहा कि इस से किसानों की आमदनी बढ़ेगी.

कृषि उत्पादन आयुक्त  एसएन मिश्रा ने कम पानी में अधिक सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने वाली पद्धतियों को बढ़ावा देने पर विशेष बल दिया. उन्होंने कहा कि सागर संभाग में स्प्रिंकलर व ड्रिप सिंचाई पद्धति अपनाने के लिए किसानों को प्रेरित करें. साथ ही, खेत तालाब बनाने के लिए भी किसानों को बढ़ावा दें.

उन्होंने कहा कि इन सिंचाई पद्धतियों के लिए सरकार द्वारा बड़ा अनुदान दिया जाता है.

मौसम एप का व्यापक प्रचारप्रसार करने पर बैठक में विशेष रूप से निर्देश दिए गए. इस एप पर एक हफ्ते की मौसम की जानकारी उपलब्ध रहती है. यह एप गूगल प्ले स्टोर से आसानी से डाउनलोड किया जा सकता है.

कृषि उत्पादन आयुक्त एवं अतिरिक्त मुख्य सचिव, कृषि, ने कहा कि इस एप के माध्यम से किसानों को मौसम की जानकारी समय से मिल सकेगी और वे मौसम को ध्यान में रख कर अपनी खेती कर पाएंगे. साथ ही, अपनी फसल को भी सुरक्षित कर सकेंगे.

कृषि उपज मंडियों को बनाएं हाईटैक और कैशलेस

कृषि उत्पादन आयुक्त  एसएन मिश्रा ने कृषि उपज मंडियों को हाईटैक, कैशलेस व सर्वसुविधायुक्त बनाने पर विशेष बल दिया. उन्होंने कहा कि इस के लिए शासन से माली मदद दिलाई जाएगी. साथ ही यह भी कहा कि हाईटैक से मतलब यह है कि मंडी में किसान की उपज की तुरंत खरीदी हो जाए, उन के बैठने के लिए बेहतर व्यवस्था हो, कैशलेस भुगतान की सुविधा हो और कृषि उपज की आटो पैकेजिंग व्यवस्था हो.

एसएन मिश्रा ने सभी जिला कलक्टर को सहकारी बैंकों की वसूली करा कर बैंकों को मजबूत करने के निर्देश भी बैठक में दिए. उन्होंने किसान क्रेडिटधारी किसानों के साथसाथ गैरऋणी किसानों की फसल का बीमा कराने के लिए भी कहा.

अतिरिक्त मुख्य सचिव कृषि  अशोक वर्णवाल ने कहा कि कृषि यंत्रों का उपयोग किसानों के लिए हर तरह से लाभप्रद है. उन्होंने कृषि यंत्र एवं उपकरणों का प्रजेंटेशन दिखाया और निर्देश दिए कि अनुदान के आधार पर हर जिले में किसानों को आधुनिक कृषि यंत्र उपलब्ध कराएं.

उन्होंने सागर संभाग में अरहर की वैरायटी अपनाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने के निर्देश दिए. अरहर की पूसा वैरायटी 6 महीने में तैयार हो जाती है और इस फसल के बाद किसान दूसरी फसल भी ले सकते हैं.

अशोक वर्णवाल ने प्रमाणित बीज व उर्वरकों के संतुलित उपयोग व मिट्टी परीक्षण के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने पर भी विशेष बल दिया. उन्होंने कहा कि मिट्टी परीक्षण के लिए स्थानीय कृषि स्नातक युवाओं के जरीए चलित लैब स्थापित कराई जा सकती है. इस से किसानों की ओर से मिट्टी परीक्षण की मांग बढ़ेगी और किसानों व कृषि स्नातक दोनों को फायदा होगा.

कृषि उत्पादन आयुक्त  एसएन मिश्रा ने बैठक के दूसरे चरण में पशुपालन, मत्स्यपालन एवं डेयरी उत्पादन सहित कृषि से जुड़ी गतिविधियों की समीक्षा की. उन्होंने कहा कि कृषि आधारित अर्थव्यवस्था बगैर पशुपालन के मजबूत नहीं रह सकती. इसलिए किसानों को उन्नत नस्ल के पशुपालन के लिए प्रोत्साहित करें.

एसएन मिश्रा ने पशु नस्ल सुधार पर विशेष बल दिया. साथ ही, बरसात से पहले सभी जिलों में मौसमी बीमारियों से बचाव के लिए अभियान बतौर टीकाकरण कराने के निर्देश दिए.

उन्होंने कहा कि हर जिले में गौशालाओं को प्रमुखता दें. अधूरी गौशालाएं जल्द से जल्द पूरी कराई जाएं.  किसानों के दुग्ध व्यवसाय को संस्थागत रूप देने पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें दुग्ध समितियों से जोड़ें. बैठक में मत्स्यपालन को बढ़ावा देने और दुग्ध संघ को मजबूत करने के संबंध में आवश्यक दिशानिर्देश दिए गए.

एसएन मिश्रा ने सभी कलक्टरों को निर्देश दिए कि बैंक  अधिक से अधिक शासन की योजनाओं का लाभ हितग्राहियों को दे कर उन को लाभान्वित करें. उन्होंने समस्त किसानों से अपील की कि अधिक मात्रा में उर्वरक का छिड़काव न करें. सभी जिलों में पर्याप्त मात्रा में उर्वरक एवं बीज का भंडारण सुनिश्चित किया जाए.

दूसरे चरण की बैठक में प्रमुख सचिव मत्स्यपालन डा. नवनीत कोठारी सहित पशुपालन, डेयरी व मत्स्यपालन विभाग के राज्य स्तरीय अधिकारी मौजूद रहे.

संभाग आयुक्त डा. वीरेंद्र सिंह रावत ने कहा किसानों को जागरूक करने में सोशल मीडिया का उपयोग करें.

संभाग के आयुक्त डा. वीरेंद्र सिंह रावत ने प्रगतिशील किसानों द्वारा की जा रही उन्नत खेती की वीडियो क्लीपिंग बना कर सोशल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से अन्य किसानों को जागरूक करने का सुझाव दिया. साथ ही कहा कि किसानों को स्वसहायता समूहों में संगठित करें, जिस से वे अधिक लाभ कमा सकें. उन्होंने समय के अनुसार खेती में बदलाव लाने पर भी बल दिया.

सभी जिलों के कलक्टर ने बताई अपनेअपने जिले की कार्ययोजना

खेती को लाभप्रद बनाने के लिए संभाग के सभी जिलों में बनाई गई कार्ययोजना के बारे में सभी कलक्टरों ने अपनेअपने सुझाव दिए. जिले में नैनो यूरिया अपनाने के लिए किसानों को प्रेरित किया जा रहा है. जिले में ज्वार, मक्का व उड़द और उद्यानिकी फसलों का रकबा बढ़ाया जाएगा.

टिशु कल्चर (Tissue Culture) तकनीक और पौलीबैग प्लांटिंग (Polybag Planting) से उगाएं गन्ने के बीज

गन्ने की खेती काफी बड़े पैमाने पर की जाती है. उत्तरी भारत में ज्यादातर किसान गन्ने की बोआई करते हैं. फसल की उपयोगिता को देखते हुए शुद्ध बीज की मांग लगातार बढ़ रही है.

उल्लेखनीय है कि गन्ने से शुद्ध बीज लेने और नई प्रजातियों के बीज के जल्दी फैलाव की एकमात्र नई तकनीक टिशु कल्चर है.

टिशु कल्चर तरीके से बीज को अगर पौलीबैग में रोपा जाए तो परंपरागत उत्पादन तकनीक की अपेक्षा डेढ़ से दोगुनी उपज ली जा सकती है.

पौलीबैग प्लांटिंग द्वारा सामान्य फसल के रोपने में भी बहुत अच्छी फसल मिल जाती है. यह तकनीक धीरेधीरे लोकप्रिय हो रही है. यह एक ऐसी तकनीक है जिस में पोषक घोल को पौधों के किसी भी अंग के टिशु से एकसमान पौधों को विकसित किया जाता है. पादप हार्मोनों को पोषक घोल में सही मात्रा डाल कर और उक्त घोल को जीवाणुरहित कर टिशु का कल्चर तैयार किया जाता है.

इस तरह से विकसित सूक्ष्म पौधों को पौलीहाउस में लगाने के बाद खेतों और बगीचों में रोप दिया जाता है. अब टिशु कल्चर तकनीक की उपयोगिता की प्रचुर संभावनाएं नजर आने लगी हैं.

टिशु कल्चर है क्या

टिशु कल्चर तकनीक को अपना कर तैयार किए गए पौधों को टिशु कल्चर कहा जाता है. यह शुद्ध गन्ने के बीज हासिल करने की नई व बढि़या तकनीक है. इस तरह के पौधे उच्चस्तरीय प्रयोगशाला में ही तैयार हो सकते हैं.

उत्तर प्रदेश में गन्ने की खेती में अच्छी

बढ़वार होने की वजह से उन्नतशील नई विकसित प्रजातियों के बीज की कमी लगातार महसूस की जाती रही है.

पहले से प्रचलित विधियों द्वारा ब्रीडर व फाउंडेशन सीड सफलतापूर्वक बढ़ाए जाने के बाद भी सही मत्रा में किसानों को गन्ने का बीज नहीं मिल पा रहा है.

नई प्रजातियों के लिए वैज्ञानिकों द्वारा समयसमय पर विभिन्न विधियों जैसे एसटीपी, हाइड्रोपोनिक नर्सरी में एक आंख के टुकड़ों से बोआई बड़ चिप वगैरह विकसित की गई, पर कुछ वजहों से इन्हें इस्तेमाल में नहीं लाया जा सका. लेकिन अब टिशु कल्चर की तकनीक लोगों को लुभा रही है.

टिशु कल्चर की माइक्रोप्रोपेगेशन तकनीक में तमाम तरह के पौधों का कल्चर तैयार किया जा रहा है. अब तक विभिन्न प्रयोगशालाओं में गन्ने पर किए गए कामों से यह संकेत मिलता है कि गन्ने में टिशु कल्चर तकनीक द्वारा क्वालिटी वाले गन्ने के बीज को तैयार किया जा रहा है.

पौध उत्पादन की विधियां

* कक्षीय पौधों के विकास द्वारा.

* अपस्थनिक पौधों के विकास द्वारा.

* सोमैटिक इंब्रायोजैनेसिस द्वारा.

बीज गन्ना कल्चर के लिए कक्षीय पौधों के विकास की विधि को सब से अच्छा माना जाता है, क्योंकि इस विधि में उत्पादित पौधों के गुणों में विभिन्नता की कम ही संभावना रहती है.

शूट टिप और मेरिस्टेम द्वारा पौध उत्पादन

बीज गन्ना कल्चर के लिए शूट टिप और मेरिस्टेम सही होते हैं. प्रक्षेत्र से 6 से 8 माह के स्वस्थ पौधों के अगोलों से आसपास 8-10 सैंटीमीटर लंबे टुकड़े काट कर किसी हलके डिटर्जैंट में 8-10 मिनट तक धो लेते हैं. फिर इन टुकड़ों को लैमिनार फ्लो के अंदर 8-10 मिनट तक 0.1 फीसदी मरक्यूरिक क्लोराइड के घोल से सतही विसंक्रमण कर लेते हैं. इस के बाद साफ पानी से 3-4 बार धोने के बाद चिमटी या चाकू की मदद से 1.0-1.5 सैंटीमीटर लंबे टुकड़े काट कर ठोस या द्रव एमएस मीडियम पर कल्चर कर दिया जाता है. इस मीडियम में साइटोकाइनिन, औक्सिन व जिब्रैलिन की मौजूदगी जरूरी है.

शुरू में टिशु की बहुत ही धीमी बढ़वार होती है. फिनालिक्स स्राव के चलते मीडियम का रंग भूरा हो जाता है, जिस से ऊतक मर जाते हैं इसलिए ऊतकों को शुरू के 5-7 दिनों तक हर रोज या एक दिन के अंतराल पर जरूरत के मुताबिक फ्रेश मीडियम पर स्थानांतरित करना चाहिए.

पौध कल्चर : टिशु की बढ़वार के मुताबिक तकरीबन 30 से 45 दिन बाद इन्हें शूट मल्टीप्लीकेशन द्रव मीडियम पर स्थानांतरित कर दिया जाता है. तकरीबन 6 हफ्ते में नए शूट विकसित हो कर पौधों का गुच्छा बना लेते हैं. इन गुच्छों से पौधों को 2-3 के समूह में काट कर अलगअलग कर लेते हैं और अलगअलग जैम बोतल में इसी मीडियम पर स्थानांतरित कर लिया जाता है. यह क्रिया प्रत्येक 10 से 15 दिन पर दोहराई जाती है. इस तरह एक एक्स प्लांट से हजारों पौधे विकसित कर लिए जाते हैं.

पौधों में जड़ पैदा करना : जड़विहीन पौधों में जड़ पैदा करने के लिए 8-10 पौधों के समूह में उन्हें रूटिंग मीडियम पर स्थानांतरित किया जाता है. प्रजाति के मुताबिक जड़ विकसित होने में 10 से 20 दिन लग सकते हैं. आमतौर पर 15 दिनों में सही तरह से जड़ विकसित हो जाती है.

हार्डेनिंग : सही जड़ विकसित होने के बाद पौधों को जैम बोतल से निकाल कर धो लिया जाता है. इस के बाद इन पौधों को आधुनिक पौलीहाउस में छोटीछोटी पौलीथिन में मिट्टी का मिश्रण यानी मिट्टी, कंपोस्ट, रेत बराबरबराबर मात्रा में भर कर लगा देते हैं. तकरीबन 1 माह में पौधे खेत में लगाने के लिए तैयार हो जाते हैं.

प्रक्षेत्र प्रत्यारोपण : एक माह के बाद पौधों को प्रक्षेत्र पर 90×45 सैंटीमीटर की दूरी पर प्रत्यारोपित कर तत्काल पानी निकाल देना चाहिए. इस तरह से 1 एकड़ के लिए तकरीबन 9500 पौधों की जरूरत होगी.

कर्षण क्रियाएं : प्रत्यारोपण के 6 से 8 दिन बाद जरूरत पड़ने पर फिर हलकी सिंचाई करनी चाहिए. समयसमय पर खरपतवारों के नियंत्रण के लिए निराईगुड़ाई करते रहना चाहिए. आमतौर पर 5 से 6 निराईगुड़ाई करना जरूरी है. गुड़ाई सदैव उथली करनी चाहिए ताकि पौधों को नुकसान न हो.

दूसरी सिंचाई के बाद 2-3 ग्राम प्रति पौधा यूरिया देना चाहिए. खेत में अगर कोई गैप दिखाई दे तो उस जगह पर नए पौधे लगा देने चाहिए. सही बढ़ोतरी होने के बाद पौधों पर मिट्टी चढ़ाने का काम किया जाता है. पौधे जब तकरीबन 150 से 180 सैंटीमीटर के हो जाएं तो बधाई कर देनी चाहिए.

पौलीबैग तकनीक से गन्ने की पौध का विकास : पौलीबैग तकनीक में गन्ने की एक आंख का टुकड़ा पौलीथिन बैग में लगा कर तैयार किया जाता है और इस तरह तैयार पौधा पौलीबैग पौधा कहलाता है.

पौलीबैग में आमतौर पर बोआई के मुकाबले बीज की मात्रा 1/3 से 1/4 (20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) ही लगती है. इस तकनीक में डेढ़ से 2 माह की अगेती बोआई का फायदा मिलता है. साथ ही, पौधे की बोआई से डेढ़ माह की अवधि तक जमाव की अवस्था तक खेत में दी जाने वाली 3 से 4 सिंचाई और निराई की बचत होती है.

पौधशाला में पौलीथिन की थैलियों में गन्ने के आंखों को झारे की मदद से सिंचाई करने में बहुत ही कम पानी लगता है और अंकुरण जल्दी फूटता है. इस तरह से तैयार पौधे खाली जगह की भराई के लिए भी बहुत कामयाब रहते हैं.

टिशु कल्चर (Tissue Culture)

पौलीबैग में पौध तैयार करना : दोमट या मटियार मिट्टी, सड़ी हुई गोबर की खाद और बालू को बराबरबराबर मात्रा में या अनुपात में ले कर अच्छी तरह मिला देते हैं. 6×5 इंच (15 से 22 सैंटीमीटर) की थैली लें. इस में नीचे की तरफ मोटी कील से 4-5 छेद करें. 2 भाग मिट्टी, 1 भाग वर्मी कंपोस्ट या गोबर की खाद और 1 भाग रेत आपस में अच्छी तरह मिला कर महीन कर थैली का 3/4 भाग इस मिश्रण से भर दें, बाकी 1/4 भाग टुकड़े लगाने के बाद भरें.

पौलीथिन बैग में भरी मिट्टी में 10 फीसदी बीएचसी धूल (20 से 25 किलोग्राम एक हेक्टेयर में पौध रोपाई के लिए) को मिट्टीखाद के मिश्रण में अच्छी तरह मिलाएं. एक पौलीथिन थैली में तकरीबन 1 किलोग्राम मिट्टी, खाद और रेत का मिश्रण भरना चाहिए. एक हेक्टेयर खेत की रोपाई के लिए 74,000 थैलियों की जरूरत होती है.

गन्ने के सेहतमंद पौधे से एक आंख के टुकड़े तैयार करें. गांठ के पास के  ऊपर 1 इंच और नीचे 2 से ढाई इंच छोड़ कर तेज धार कत्ते से टुकड़े काटें. पारायुक्त रसायन बेगाला 6 या एमीसानान 5 के घोल (1 किलोग्राम दवा 200 लिटर पानी में घोल कर) से गन्ने के टुकड़ों को उपचारित करें यानी काटे गए एक आंख वाले गन्ने के टुकड़ों को 10 मिनट तक घोल में डुबो देना चाहिए.

उपचारित टुकड़ों को थैली के बीचोंबीच सीधा खड़ा लगाएं. टुकड़े के लंबे भाग को नीचे रखें, जिस से आंख सीधे ऊपर की तरफ रहे. इस से अंकुरण जल्दी होगा. अगर आंखें खड़ी लगाने में कठिनाई हो तो आंखों को 1 इंच ऊपर और नीचे से काट कर आड़ा लगाएं.

पौलीबैग में पौधा 30 दिन में खेत में रोपने के लिए तैयार हो जाता है. पौलीबैग में लगाने के लिए बड चिपर यानी गन्ने से आंख निकालने का यंत्र द्वारा आंख निकाल कर बीजोपचार के बाद पौलीबैग में लगा सकते हैं. इस से बीज की मात्रा केवल 35 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर ही रह जाएगी.

पौलीबैग में इस्तेमाल किए जाने वाले गन्ने को उपचारण संयंत्र में जरूर उपचारित किया जाना चाहिए. इस से रोग रहित आधार बीज उत्पादित किया जा सकता है.

प्रक्षेत्र रोपण : पौलीथिन की थैलियों को अलग कर पौधों को पिंड सहित गड्ढे में उतार दें और मिट्टी को हलका दबाने के बाद सिंचाई कर दें. इस तरह से 1 हेक्टेयर में 15,000 से 18,000 पौधे लगते हैं. खेत में अच्छी बढ़त और ज्यादा कल्ले के लिए अतिरिक्त उर्वरक की मात्रा डालें.

अगर संभव हो तो प्रक्षेत्र रोपण से पहले मिट्टी जांच कराने के बाद भरपूर मात्रा में खेत में कार्बनिक खाद कंपोस्ट को डाल दें.

लाभ : गन्ना बीज उत्पादन के लिए टिशु कल्चर विधि काफी फायदेमंद साबित हो रही है. इस विधि के निम्नलिखित फायदे हैं:

* नवीन विकसित गन्ना प्रजाति का जल्दी कल्चर किया जा सकता है.

* इस तरह से विकसित पौधे से एकसमान आकार के गन्ने पैदा होते हैं और शुरू से ही अंकुरण और बढ़त अच्छी होती है.

* किसी नई प्रजाति के तीव्र प्रसार होने के कारण इस से प्रक्षेत्र पर अपेक्षाकृत ज्यादा सालों तक फायदा लिया जा सकता है.

* इस विधि से उत्पादित पौधों में रोग व कीट लगने की संभावना काफी कम रहती है.

* नई विकसित प्रजातियों का बीज सीमित मात्रा में होता है इसलिए इस विधि से उसे ज्यादा मात्रा में बना कर ज्यादा इलाकों में फैलाया जा सकता है.

* इस पद्धति से कल्चर पौधों में आनुवांशिक बदलने की संभावना ज्यादा रहती है और उत्पादन लागत की समस्या भी आती है.

* इस विधि द्वारा विकसित पौधों को शुरू में ब्रीडर सीड नर्सरी के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए. पौधों को चिन्हित कर के अलग कर लेना चाहिए. उत्तम बीज का चयन कर के प्रचलित पद्धति या पौलीबैग विधि द्वारा फाउंडेशन व सर्टिफाइड सीड पैदा किया जा सकता है. इस से पौधों के उत्पादन में बेहतर गुणों वाले क्लोन को चुन कर जांच के बाद उसे नई प्रजाति के रूप में भी विकसित किया जा सकता है.

टिशु कल्चर और पौलीबैग : सावधानियां

* वसंतकालीन गन्ने के पौध रोपण में अर्ली शूट बोरर यानी अग्र तनाछेदक का प्रकोप होने की ज्यादा संभावना रहती है. इस वजह से रोपाई के बाद थिमेट 10जी को 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पौधों के आसपास डाल कर गुड़ाई करें और पानी देते रहें.

* खेतों में पूरी तरह जमने के बाद नाइट्रोजन की थोड़ीथोड़ी मात्रा में पौधे से 5-7.5 सैंटीमीटर की दूरी पर चारों तरफ बिखेर देनी चाहिए. जब गन्ने के पौधे में पूरी तरह कल्ले फूट जाएं तभी मिट्टी चढ़ानी चाहिए.

* टिशु से पौधे खेत में लग जाएं और कल्ले फूटने वाले हों तब मातृ पौधे को नीचे से काट देना चाहिए. इस से कल्ले ज्यादा और एक से ज्यादा निकलते हैं. प्रति पौधा 10-15 पौधों से ज्यादा प्रोत्साहित न करें. हलकी मिट्टी चढ़ा कर कल्ले का फुटाव रोकें.

* टिशु कल्चर और पौलीबैग दोनों की पौध 30 से 45 दिन की अवस्था तक खेत में लगा दें नहीं तो गन्ने के पौधे में कल्ले कम निकलेंगे.

बीज सहकारी समिति का मुनाफा सीधे किसानों के बैंक खातों में जाएगा

नई दिल्ली : केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने नई दिल्ली में भारतीय बीज सहकारी समिति लिमिटेड यानी बीबीएसएसएल द्वारा “सहकारी क्षेत्र में उन्नत एवं पारंपरिक बीजोत्पादन पर राष्ट्रीय संगोष्ठी” को संबोधित किया.

अमित शाह ने भारतीय बीज सहकारी समिति लिमिटेड के लोगो, वैबसाइट और ब्रोशर का अनावरण किया और भारतीय बीज सहकारी समिति लिमिटेड के सदस्यों को सदस्यता प्रमाणपत्र भी वितरित किए.

इस अवसर पर केंद्रीय सहकारिता मंत्री बीएल वर्मा, सचिव, सहकारिता मंत्रालय और सचिव, कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय सहित अनेक व्यक्ति उपस्थित थे.

अपने संबोधन में अमित शाह ने कहा कि आज का दिन देश के सहकारिता आंदोलन, किसानों और अन्न उत्पादन के क्षेत्र में नई शुरुआत की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है.

उन्होंने कहा कि आने वाले दिनों में भारत में बीज संरक्षण, संवर्धन और अनुसंधान के क्षेत्र में भारतीय बीज सहकारी समिति लिमिटेड का बहुत बड़ा योगदान होगा. देश के हर किसान को आज वैज्ञानिक रूप से बनाया और तैयार किया गया बीज उपलब्ध नहीं है, इसीलिए ये हमारी जिम्मेदारी है कि इस विशाल देश के हर किसान के पास प्रमाणित और वैज्ञानिक रूप से तैयार किया गया बीज पहुंचे और ये काम भी यही सहकारी समिति करेगी.

अमित शाह ने अपने अंदाज में यह भी कहा कि भारत दुनिया के कुछ चुनिंदा देशों में से एक है, जहां कृषि की अधिकृत शुरुआत हुई और इसी कारण हमारे परंपरागत बीज गुण और शारीरिक पोषण के लिए सब से अधिक उपयुक्त हैं.

उन्होंने आगे कहा कि भारत के परंपरागत बीजों का संरक्षण कर उसे आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाना है, जिस से स्वास्थ्यपूर्ण अन्न, फल और सब्जियों का उत्पादन निरंतर होता रहे और यह काम भारतीय बीज सहकारी समिति लिमिटेड करेगी.

उन्होंने यह भी कहा कि हमारे यहां उत्पादित होने वाले बीज कमोबेश विदेशी तरीकों से रिसर्च और विकसित कर के बनाए गए हैं, लेकिन हमारे कृषि वैज्ञानिकों को अगर एक अच्छा प्लेटफार्म मिले तो वे विश्व में सब से अधिक उत्पादन करने वाले बीज बना सकते हैं, और इस शोध और विकसित करने का काम भी भारतीय बीज सहकारी समिति लिमिटेड करेगी.

अमित शाह ने कहा कि विश्व में बीजों के निर्यात का बहुत बड़ा मार्केट है और इस में भारत का हिस्सा एक फीसदी से भी कम है. भारत जैसे विशाल और कृषि प्रधान देश को वैश्विक बीज मार्केट में एक बड़ा हिस्सा हासिल करने का एक समयबद्ध लक्ष्य रखना चाहिए.

उन्होंने आगे कहा कि मोदी सरकार ने इन पांचों उद्देश्यों के साथ भारतीय बीज सहकारी समिति लिमिटेड की स्थापना की है और कुछ ही सालों में यह समिति विश्व में अपना नाम बनाएगी और देश के किसानों को प्रमाणित बीज उपलब्ध कराने में बहुत बड़ा योगदान देगी.

गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने कहा कि 11 जनवरी, 2023 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भारतीय बीज सहकारी समिति लिमिटेड की स्थापना को मंजूरी दी, 25 जनवरी, 2023 को इस का पंजीकरण हुआ, 21 मार्च, 2023 को इस की अधिसूचना जारी हुई और अब प्रशिक्षण का कार्यक्रम भी हम ने बहुत कम समय में कर लिया है.

उन्होंने कहा कि ये समिति कृषि, बागबानी, डेरी, मत्स्यपालन सहित हर प्रकार की समितियों की तरह पीएसीएस को बीज उत्पादन के साथ जोड़ने का काम करेगी. इस के माध्यम से हर किसान अपने खेत में बीज उत्पादन कर सकेगा, इस का सर्टिफिकेशन भी होगा और ब्रांडिंग के बाद न सिर्फ पूरे देश में, बल्कि विश्व में इस बीज को पहुंचाने में ये समिति योगदान देगी.

उन्होंने कहा कि इस बीज सहकारी समिति का पूरा मुनाफा सीधे बीज उत्पादन करने वाले किसानों के बैंक खातों में जाएगा और यही सहकारिता का मूल मंत्र है. इस सहकारी समिति के माध्यम से बीजों की उच्च आनुवांशिक शुद्धता और भौतिक शुद्धता से बिना कोई समझौता किए इन्हें बरकरार रखा जाएगा और उपभोक्ता के स्वास्थ्य की भी चिंता की जाएगी, इन तीनों बातों का संयोजन करते हुए उत्पादन बढ़ाना ही हमारा लक्ष्य है.

उन्होंने आगे कहा कि इस सहकारी समिति का लक्ष्य केवल मुनाफा कमाना नहीं है, बल्कि इस के माध्यम से हम विश्व की औसत पैदावार के साथ भारत की पैदावार को मैच करना चाहते हैं. इस के साथ ही उच्च गुणवत्ता वाले बीजों के अकुशल उत्पादन की जगह किसान को प्रशिक्षण दे कर वैज्ञानिक तरीके से बीजों के उत्पादन के साथ हम जोड़ने का काम करेंगे. आज भारत में ही बीजों की आवश्यकता लगभग 465 लाख क्विंटल है, जिस में से 165 लाख क्विंटल सरकारी व्यवस्था से उत्पादित होता है और कोआपरेटिव व्यवस्था से ये उत्पादन 1 फीसदी से भी नीचे है, हमें इस अनुपात को बदलना होगा.

अमित शाह ने कहा कि कोआपरेटिव के माध्यम से बीज उत्पादन के साथ जो किसान जुड़ेंगे, उन्हें बीज का मुनाफा सीधे मिलेगा.

उन्होंने कहा कि भारत के घरेलू बीज बाजार का वैश्विक बाजार में हिस्सा सिर्फ 4.5 फीसदी है, अभी इसे बढ़ाने की जरूरत है और इस के लिए बहुत काम करना होगा.

मंत्री अमित शाह ने कहा कि हमें इस भारतीय बीज सहकारी समिति के अगले 5 सालों के लक्ष्य तय करने होंगे. उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में इस बीज सहकारी समिति की स्थापना केवल मुनाफे और उत्पादन के लक्ष्य तय करने के लिए नहीं हुई है, बल्कि ये रिसर्च एंड डेवलपमेंट का काम भी करेगी, जिस से उत्पादन बढ़ेगा.

अमित शाह ने कहा कि बीज नैटवर्क में आईसीएआर, 3 केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, 48 राज्य कृषि विश्वविद्यालय, 726 से ज्यादा कृषि विज्ञान केंद्र और केंद्र व राज्यों की 72 सरकारी एजेंसियां जुड़ी हुई हैं.

उन्होंने यह भी कहा कि हमारी किसी से कोई स्पर्धा नहीं है, बल्कि हमारा लक्ष्य है कि मुनाफा किसान के पास पहुंचे, प्रमाणित बीजों का उत्पादन बढ़े और इन के निर्यात में भारत का हिस्सा बढ़े.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि इन सभी संस्थाओं को साथ ले कर हम इस बीज कोआपरेटिव के काम को आगे बढ़ाएंगे और अपने लक्षित सीड रिप्लेसमेंट रेट के प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ेंगे.

गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने कहा कि इस संस्था के मूल में इफको, कृभको, नेफेड, एनडीडीबी और एनसीडीसी को जोड़ा गया है, जो एक प्रकार से किसान के खेत तक पहुंच रखती हैं. इन संस्थाओं के माध्यम से मल्टीफिकेशन बंद हो जाएगा और सभी सहकारी संस्थाएं एक ही दिशा में एक ही लक्ष्य के साथ एक ही रोड मैप पर काम करेंगी.

उन्होंने आगे कहा कि जब सभी संस्थाएं एक रोड मैप पर चलती हैं, तो स्वाभाविक रूप से गति बढ़ती है और इन के साथ मल्टीस्टेट कोआपरेटिव, राज्य स्तरीय सहकारी संस्थाएं, जिला स्तरीय सहकारी संस्थाएं और पीएसीएस भी जुड़ सकेंगे. इस तरह एक ऐसा खाका बनाया गया है, जिस में हर प्रकार की कोआपरेटिव इस का हिस्सा बन सकती है और उन का सहयोग इस बीज कोआपरेटिव को मिल सकेगा.

seed cooperative societyअमित शाह ने कहा कि सहकारी नैटवर्क के माध्यम से प्रोडक्शन, टैस्टिंग, सर्टिफिकेशन, परचेज, प्रोसैसिंग, स्टोरेज, ब्रांडिंग, लेबलिंग, पैकेजिंग और ऐक्सपोर्ट हम कर सकेंगे, क्योंकि अगर बीजों की प्रोडक्शन के बाद टैस्टिंग नहीं होगी, तो गुणवत्ता पर असर पड़ेगा. इसी प्रकार टैस्टिंग के बाद सर्टिफिकेशन नहीं होता है, तो विश्वसनीयता नहीं होगी. सर्टिफिकेशन के बाद प्रोसैसिंग, ब्रांडिंग और लेबलिंग नहीं होगी, तो उस के उचित दाम नहीं मिलेंगे. इस की उचित वैज्ञानिक तरीके से स्टोरेज से ले कर मार्केटिंग और फिर दुनिया के बाजार में भेजने तक की पूरी व्यवस्था कोआपरेटिव सैक्टर के माध्यम से ही की जाएगी. ये पूरी व्यवस्था विश्वस्तरीय और सब से आधुनिक होगी और हमारी कोआपरेटिव ने कर के दिखाया है.

अमित शाह ने कहा कि उत्पादन, गुणवत्ता, ब्रांडिंग, और मार्केटिंग के क्षेत्र में इन संस्थाओं के सफल अनुभव के माध्यम से बीज उत्पादन, रिसर्च एंड डेवलपमेंट और निर्यात के क्षेत्र में हम आगे बढ़ेंगे.

भारतीय बीज सहकारी समिति लिमिटेड देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति देने के साथसाथ देश को बीजोत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने और बीजों के वैश्विक बाजार में हिस्सेदारी बढ़ाने में मदद करेगी और इस का सब से बड़ा फायदा छोटे किसानों, महिलाओं और युवाओं को होगा.

उन्होंने कहा कि देश में क्राप पैटर्न चेंज करने के लिए भी अच्छे बीजों का उत्पादन बहुत जरूरी है और जब हम देश के लाखों किसानों को बीज उत्पादन के साथ जोड़ेंगे, तो वह गांव में आटोमेटेकली मार्केटिंग मैनेजर का काम करेगा.

अमित शाह ने कहा कि यह बीज सहकारी समिति लिमिटेड बहुत सारे उद्देश्यों को सिद्ध करेगी. हमारा एक बहुत बड़ा उद्देश्य यह भी है कि पारंपरिक बीजों का संरक्षण किया जाए, क्योंकि हमारे पास बीज की लाखों नस्लें हैं, लेकिन इन के बारे में पूरी जानकारी सरकारी विभागों को भी नहीं है.

उन्होंने यह भी कहा कि लाखों गांव में हर किसान के पास परंपरागत बीज उपलब्ध हैं, इस का डेटा बनाना, संवर्धन करना, संवर्धित करना और इस का वैज्ञानिक एनालिसिस कर के इस के सकारात्मक पहलुओं का एक डेटा बैंक तैयार करना बहुत बड़ा काम है, जिसे भारत सरकार करेगी.

उन्होंने कहा कि हम ने इस में क्लाइमेट चेंज की चिंता को भी सामने रखा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इनीशिएटिव से श्रीअन्‍न (मिलेट्स) का जो बड़ा मार्केट आज विश्व में खड़ा हुआ है, इस के बीज भारत के अलावा बहुत कम देशों के पास हैं. रागी, बाजरा, ज्वार और कई अन्य मिलेट्स पर हमारी मोनोपली हो सकती है, अगर हमारी यह बीज कोआपरेटिव इस पर ध्यान दे.

देश की तीन प्रमुख सहकारी समितियों- इंडियन फार्मर्स फर्टिलाइजर कोआपरेटिव लिमिटेड यानी इफको, कृषक भारती सहकारी लिमिटेड यानी कृभको और भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन महासंघ (नेफेड) और भारत सरकार के 2 प्रमुख वैधानिक निकाय- राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड यानी एनडीडीबी और राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम यानी एनसीडीसी ने संयुक्त रूप से भारतीय बीज सहकारी समिति लिमिटेड को प्रमोट किया है.

उन्नत तकनीकी के समावेश से उत्पादन लागत करें कम

गांव में आज भी कृषि ही आजीविका का मुख्य साधन है. लगातार हो रहे अनुसंधान और नई किस्मों के आने से कृषि के स्तर में विकास हुआ है, लेकिन अब किसानों को खाद, बीज, दवाइयों, कृषि औजारों, पानी, बिजली आदि पर अधिक खर्च करना पड़ रहा है.

खेती आज किसान के लिए घाटे का सौदा होती जा रही है, इसलिए इस पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. भविष्य को ध्यान में रखते हुए, इस को मुनाफे में बदलने की आवश्यकता है.

भारत में कृषि पर सब्सिडी 10 फीसदी से भी कम है. अमेरिका व अन्य देशों में कृषि सब्सिडी भारत की अपेक्षा ज्यादा है. वहां उन्नत तकनीक के कारण उत्पादन लागत भी कम आती है यही कारण है कि विदेशी वस्तुएं भारतीय वर्षों की अपेक्षा काफी सस्ती होती है.

अप्रैल 2005 से विश्व व्यापार संगठन की संधि पूरी तरह से लागू होने से पूरे विश्व की कृषि एक बड़ी मंडी का रूप धारण कर चुकी है. वहीं वर्तमान सरकार ने भी किसानों की आमदनी दुगनी करने के लिए कई कदम उठाए हैं. उन का लाभ भी किसानों को मिल रहा है ऐसी स्थिति में किसानों के लिए जरूरी है कि वे अंतरराष्टीय कृषि प्रतिस्पर्धा में कम लागत से अधिक उत्पादन ले कर उत्पाद की गुणवत्ता में सुधार करें जिस से विश्व बाजार में अच्छा मूल्य मिल सके और उन की साख भी बनी रहे.

यहां पर बताई जा रही विविध तकनीकों को अपना कर अधिक उपज ग्रहण कर सकते हैं जिस से किसान की लागत कम आएगी और मुनाफा बढ़ेगा.

मिट्टी की जांच कराएं

खेती करने से पहले खेत की मिट्टी की प्रयोगशाला में जांच अवश्य करानी चाहिए. मृदा रिपोर्ट के आधार पर फसलों का चुनाव करें एवं मिट्टी में मौजूद पोषक तत्वों की आवश्यकता के आधार पर खाद व पोषक तत्व डालें. सही जानकारी होने से खर्च में कमी आएगी और मृदा में सुधार होगा, जिस से उत्पादन अच्छा प्राप्त होगा.

प्रमाणित बीजों का करें प्रयोग

बीजों की पारंपरिक विधि को छोड़ कर, किसान प्रमाणित बीज का ही प्रयोग करें. बीज को 2 से 3 ग्राम कार्बंडाजिम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचार कर लें. इस से कई बीमारियों से छुटकारा मिलता है. नर्सरी डालने से पहले नर्सरी का उपचार अवश्य कर लें, ज्यादातर बीमारियां और कीड़े नर्सरी से फैलते हैं. पौधे लगाते समय यह ध्यान रखें कि वे रोगी ना हो और उपचारित कर के ही पौधों की रोपाई करें. यदि नर्सरी अच्छी होगी तो निश्चित रूप से फसल भी अच्छी होगी.

उचित समय पर करें बुवाई

किसी भी फसल की सही समय पर बुवाई अति आवश्यक है. यदि किसी कारण से बुआई में देरी हो जाए तो फसल उत्पादन पर खर्चा तो उतना ही जाता है, लेकिन पैदावार जरूर कम हो जाती है. गेहूं की देरी से बुवाई करने पर 4 किलोग्राम प्रति दिन प्रति बीघा की दर से पैदावार में कमी देखी गई है. अगेती और पछेती किस्मों का भी ध्यान रखना चाहिए। वर्षा ना होने पर यदि बुआई में देरी हो जाए तो पछेती किस्मों को लगा कर पूरा लाभ लिया जा सकता है.

सहयोगी फसलें उगाएं

एक ही खेत में एक से अधिक फसलें उगाने की पुरानी परंपरा है, जैसे गेहूंचना एक साथ उगाना. मुख्य फसल की दो पंक्तियों के बीच में जल्दी पकने और बढ़ने वाली फसलें बोई जा सकती हैं. स्तंभ आकार औषधि पौधे जो बड़े हैं, उन के नीचे बेल वाली जैसे करेला आदि की फसलें लगा सकते हैं. छाया की आवश्यकता वाली फसलें अदरक, सफेद मूसली, अश्वगंधा, हल्दी आदि लगा कर अधिकतम भूमि का प्रयोग कर के, उत्पाद की गुणवत्ता के साथसाथ शुद्ध लाभ बढ़ाया जा सकता है. किसी कारणवश एक फसल खराब भी हो जाए तो उस के नुकसान की भरपाई दूसरी फसल की उपज से हो जाती है. अत: जहां तक संभव हो सहफसली खेती पर ध्यान देना चाहिए. आजकल किसान गन्ने के साथ सहफसली खेती ले कर अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं.

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फसल चक्र में दलहनी फसलों का करें समावेश

लगातार धान गेहूं और आलू की खेती करने से भूमि की उर्वरा शक्ति कमजोर हो जाती है. इसलिए फसल चक्र में दाल वाली फसलें शामिल करने से प्रति बीघा 25 से 30 किलोग्राम नाइट्रोजन खाद की वृद्धि के साथसाथ भूमि की उपजाऊ शक्ति भी बढ़ती है. इसलिए फसल चक्र को जरूर अपनाना चाहिए.

पौधों की उचित संख्या लगाएं

खेत में पौधों की संख्या का उपज पर सीधा असर पड़ता है. बीज की उचित मात्रा और सही गहराई पर बोने से उपज में बढ़ोतरी होती है. छिटकवां विधि से बिजाई ना कर के, लाइनों में बिजाई करनी चाहिए. इस से खरपतवार निकालने में आसानी रहती है और यदि पौधों की संख्या अधिक हो तो उन की छटाई कर के अधिक उपज ली जा सकती है.

संतुलित मात्रा में करें खाद का प्रयोग

किसान जरूरत से अधिक खाद डालते हैं, इस से पैसे का नुकसान होने के साथसाथ कीड़ों तथा बीमारियों का प्रकोप भी बढ़ जाता है. अधिकतर कृषक सही जानकारी के अभाव में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश का संतुलित मात्रा में प्रयोग न करके एक ही खाद डाल देते हैं. वैज्ञानिकों की सिफारिश के अनुसार खाद डालने के समय मात्रा और विधि का हमेशा ध्यान रखना चाहिए. बुवाई से पहले बीज को बायोफर्टिलाइजर्स से उपचारित कर के नाइट्रोजन फास्फोरस और पोटाश का फसल आवश्यकता की संस्तुति के आधार पर प्रयोग किया जा सकता है. इस के अलावा लोहा, जिंक और मैग्नीशियम आदि सूक्ष्म तत्त्वों का आवश्यकतानुसार प्रयोग करें, जिस से बीमारी और कीड़े कम लगते हैं. इस से कम खर्च में अधिक उत्पादन लिया जा सकता है.

पानी का करें उचित प्रयोग

वर्षा के पानी को इकट्ठा कर के किसान सिंचाई के लिए प्रयोग कर सकते हैं. गहरी जुताई और मेड बंदी से खेत में पानी रोका जा सकता है. कम पानी चाहने वाली किस्मों को बढ़ावा देना चाहिए. वर्षा के पानी को इकट्ठा न कर पाने के अभाव में 50 से 60 प्रतिशत का पानी बेकार चला जाता है. इस से भूमि बंजर और खेती के अयोग्य हो जाती है. आधुनिक सिंचाई के तरीकों में फव्वारा और ड्रिप सिंचाई का फसल और जमीन के अनुरूप इस्तेमाल करना चाहिए, इस से पानी की बचत होती है तथा फसल को उस की आवश्यकतानुसार पानी मिल जाता है.

कंपोस्ट गोबर और हरी खाद का करें प्रयोग

खेतों में घास पात के अवशेषों से कंपोस्ट तैयार की जा सकती है. गोबर की खाद में 0.5 प्रतिशत नाइट्रोजन 0.25 प्रतिशत फास्फोरस और 0.5 प्रतिशत पोटाश की मात्रा होती है, साथ ही भूमि की भौतिक दशा में भी सुधार होता है. वर्ष में एक बार हरी खाद का प्रयोग करने से आगामी फसल में एक तिहाई खाद कम डालनी पड़ती है. गेहूं की कटाई के बाद अप्रैल में 2 से 3 किलोग्राम प्रति बीघा हरी खाद को बो दें और 40 से 50 दिन बाद उस की जुताई कर के अगली फसल उगाएं.

फसल विविधीकरण और समन्वित कृषि प्रणाली को अपनाएं

परंपरागत फसलों से जहां कम आमदनी होती है, वही सब्जी, फलों, मसालों, औषधीय और सुगंधित फसलों की खेती कर के अधिक आय अर्जित की जा सकती हैं. खेती के अतिरिक्त अन्य कार्य से जैसे-पिगरी, पोल्ट्री, मधुमक्खी पालन, रेशम कीट पालन, मछली पालन, मशरूम उत्पादन एक दूसरे के पूरक हैं इन में अतिरिक्त आमदनी होगी उत्पादन लागत में कमी होगी. वैज्ञानिक तरीके अपना कर कम लागत में अधिक पैदावार ली जा सकती है. अधिक उत्पादन की लालसा में किसी के वैज्ञानिक दौर में कृषक अंधाधुंध रासायनिक कीटनाशक, खरपतवार नाशक, और हारमोंस का प्रयोग कर के प्रदूषण और उत्पादन की गुणवत्ता के साथसाथ अपने धन भी नाश करते हैं. कृषि के बदलते परिवेश में जरूरी है कि ऐसी टिकाऊ खेती करें जिस में उपलब्ध सीमित संसाधनों का कम लागत में प्रयोग कर के उत्तम गुणवत्ता वाला अधिक उत्पादन हो और अंतरराष्ट्रीय बाजार पर हमारी पकड़ मजबूत हो सके. इन बातों को ध्यान में रख कर यदि हम खेती किसानी करेंगे तो निश्चित रूप से हमें उत्पादन अच्छा प्राप्त होगा और बाजार में उस की कीमत भी अच्छी मिलेगी.

इस के अलावा किसानों को कार्बनिक खेती पर अर्थात प्राकृतिक खेती पर भी ध्यान देना चाहिए क्योंकि उस से कम लागत में अच्छा मुनाफा मिल जाता है. इस के लिए वर्मी कंपोस्ट और नीम या मूंगफली आदि की खली के प्रयोग से मिट्टी में जीवाणुओं की वृद्धि होती है. प्राकृतिक पदार्थों में गोमूत्र, नीम, धतूरा और तंबाकू का प्रयोग करें. कीड़ों बीमारियों का समन्वित प्रबंधन रासायनिक दवाओं से करने पर उत्पाद का दाम कम मिलता है, अत: कार्बनिक दवाओं का ही प्रयोग करें. कीड़ों और बीमारियों की रोकथाम के लिए कर्षण क्रियाओं की भौतिक और जैविक विधियों का अधिकतम प्रयोग करना चाहिए. गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करें और प्रतिरोधी प्रजातियां ही लगाएं. जीवाणुओं तथा प्राकृतिक भक्षक कीटों का प्रयोग करें. ट्रैप का प्रयोग कर के कीड़ों को एकत्रित कर के नष्ट किया जा सकता है. इस से लागत भी कम आएगी और उत्पाद की कीमत भी अच्छी मिलेगी.

खेती में कृषि रसायनों का सुरक्षित उपयोग

खेती में कीट व बीमारी का प्रकोप न हो, इसलिए किसान भाइयों को हमेशा उन्नत किस्म के बीजों का चयन करना चाहिए. बीज बोने से पहले उन्हें उपचारित भी करें. अगर उस के बाद भी फसल में कीट व बीमारी का प्रकोप होता है, तो सीमित मात्रा में कृषि विशेषज्ञों के बताए अनुसार ही कृषि रसायनों का इस्तेमाल करें.

कुछ जरूरी सावधानियों को बरतें, जिन के बारे में जानकारी दी गई है.

* दवा छिड़कते समय किसान अपने शरीर की सुरक्षा का ध्यान जरूर रखें.

* दवा छिड़कने से पहले उस के बारे में लिखी बातों को ध्यान से पढ़ें.

* दवा छिड़कते से समय धूम्रपान न करें.

* दवा छिड़कने के दौरान भोजन न करें.

* अपने हाथों, आंखों और चेहरे को ढक कर रखें.

* दवा छिड़कने के बाद अच्छी तरह से साबुन से हाथ धोएं.

* इस के बाद नहाएं और अपने कपड़ों को अच्छी तरह से धोएं.

* हवा की दिशा के विपरीत छिड़काव न करें.

* मुंह से नोजल को कभी न फूंकें या छुएं.

* ऊपर बताई गईं बातों को ध्यान में रखते हुए आप अपनी फसल व शरीर की सुरक्षा कर लेंगे.

* दवाओं का इस्तेमाल जरूरत के मुताबिक ही करें.

फसल में प्रमाणित बीजों की महत्ता

खेती में बीज का बहुत ही महत्त्व होता है, इसलिए खेतों में प्रमाणित बीज ही बोएं. प्रमाणित बीज निम्न प्रकार से किसानों के लिए उपयोगी होते हैं :

* ओजस्वी होने के कारण प्रमाणित बीज उलट हालात में अच्छी उपज देते हैं.

* प्रमाणित बीजों की जमावशक्ति ज्यादा होती है.

* प्रमाणित बीज एकसमान और एकजैसे रंग और आकृति के होते हैं, जिस के चलते फसल की बढ़वार, पकने का समय आदि समान होता है.

* प्रमाणित बीजों के इस्तेमाल से उपज ज्यादा होती है.

* प्रमाणित बीज सभी तरह के कीटों व बीजजन्य रोगों से मुक्त होते हैं.

* उपचारित होने के चलते प्रमाणित बीजों का मृदा में रहने वाले रोगाणुओं व कीड़ों से बचाव होता है.

सब्जी का बीज ऐसे करें तैयार

भारत में किसान परिवारों की संख्या बहुत सारे पश्चिमी देशों की कुल जनसंख्या से भी ज्यादा है. ऐसे में किसानों को अधिक पैदावार के लिए अच्छी क्वालिटी वाले बीज सही मात्रा में सही समय पर सही कीमतों के साथ मुहैया कराना जरूरी है.

कुछ सब्जियां, जिन का इस्तेमाल किचन गार्डन के रूप में भी किया जाता है, जैसे टमाटर, बैगन, मिर्च, मटर, मूली, चुकंदर, लहसुन, प्याज, मेथी, चौलाई, पत्ता गोभी, फूल गोभी, भिंडी वगैरह के बीज उत्पादन की तकनीक व उन की क्वालिटी के बारे में वैज्ञानिक तरीके यहां बताए जा रहे हैं:

टमाटर

बीज के लिए टमाटर की खेती उसी तरह से होती है, जिस तरह सब्जी के लिए करते हैं.  बीज के लिए स्वस्थ पौधे का चुनाव करते हैं और पूरी तरह से पक जाने के बाद बीज के लिए फल को तोड़ते हैं. फल तोड़ने के बाद 2 तरीकों से बीज को अलग करते हैं:

किण्वन विधि : इस विधि का इस्तेमाल छोटेछोटे फलों, जिन में ज्यादा बीज होते हैं, के लिए किया जाता है. इस में टमाटर के गुच्छे को मिट्टी या लकड़ी के बरतन में 1-2 दिनों के लिए रख देते हैं.

इस के बाद उस बरतन में पानी भर देते हैं, जिस में पके टमाटर के गुच्छे रखे होते हैं. इस में टमाटर का गूदा और छिलका तैरने लगता है और बीज नीचे तली में बैठ जाते हैं. इन्हें छान कर अलग कर लिया जाता है. इस काम में टमाटर का कोई भी भाग खाने के काम में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. इस विधि से मिले बीजों में अंकुरण अच्छा होता है.

अम्लोपचार विधि : बड़े स्तर पर बीज हासिल करने के लिए इस विधि का इस्तेमाल होता है. इस में टमाटर का गूदा खाने में इस्तेमाल किया जा सकता है. इस के लिए 14 किलोग्राम पके टमाटर के फल में 100 मिलीलिटर हाइड्रोक्लोरिक एसिड गूदे के साथ अच्छी तरह मिला कर 30 मिनट तक रख देते हैं.

इस तरह बीज व गूदा लसलसे पदार्थ से अलग हो जाता है. उस के बाद बीज व गूदे को साफ पानी से अच्छी तरह साफ कर लेते हैं और बीज को सुखा लेते हैं.

बैगन

फूल आने के पहले, फूल आते समय और फूलों के तैयार होते समय पौधों की जांच करते रहें. अच्छे स्वस्थ पौधों पर लगे फूलों को बीज के लिए छोड़ते हैं. बीमार पौधों को पहली जांच में ही हटा देना चाहिए.

बीज के लिए छोड़े गए फल जब पक कर पीले पड़ जाते हैं तब उन्हें तोड़ लेना चाहिए. फल का छिलका हटा दें और फल के चाकू से पतलेपतले टुकड़े कर के बीज को गूदे से निकाल कर पानी में डुबो देते हैं.

इस के बाद बीज को धूप में सुखा लेते हैं, नहीं तो बीज के फूटने का डर बना रहेगा.

मटर

बीज के लिए मटर की खेती उसी तरह की जाती है जैसे सब्जी फसल के लिए की जाती है.

बीमारी व कीट वाले पौधों को भी उखाड़ कर खत्म कर देना चाहिए.

पकी हुई फलियों को तोड़ कर दानों को छिलकों से अलग कर लें. बीज से टूटेफूटे दानों को अलग कर देना चाहिए.

मूली

मूली की एशियाई किस्मों से मैदानी और पहाड़ी इलाकों में बीज तैयार हो सकता है, परंतु यूरोपियन किस्मों के बीज केवल पहाड़ी इलाकों में ही होते हैं. जापानी व्हाइट किस्म का बीज मैदानी इलाकों में भी तैयार किया जा सकता है.

मूली के बीज तैयार करने के 2 तरीके

बीज से बीज : इस विधि में मूली को खेत में ही छोड़ देते हैं. जड़ पकने के बाद फूल आते हैं और बीज बनते हैं. इस विधि में बीज अधिक बनते हैं, परंतु बीज की क्वालिटी अच्छी नहीं होती है, क्योंकि इस विधि में बीज पौधों का चुनाव संभव नहीं हो पाता है.

जड़ से बीज : इस विधि में मूली की स्वस्थ और पूरी तरह तैयार जड़ों को नवंबरदिसंबर महीने में, जब मूली खाने के लिए तैयार हो जाती है, तो उखाड़ लिया जाता है. आधे से तीनचौथाई भाग जड़ का और एकतिहाई हिस्सा पत्तियों का काट दिया जाता है. पत्ती सहित कटी हुई जड़ों को तैयार खेत में 75×30 सैंटीमीटर की दूरी पर फिर से लगाते हैं. इन्हें लगाने का सही समय मध्य नवंबर से दिसंबर मध्य तक का होता है. देरी से लगाने के कारण बहुत सी जड़ें सड़ जाती हैं. इन में से कुछ ही जड़ें फूटती हैं जिस के कारण कम बीज मिलता है.

नवंबरदिसंबर माह में लगाई जड़ों में मार्चअप्रैल में फलियां तैयार हो जाती हैं. फलियों को कुछ समय तक छाया में सुखा लेते हैं. इस विधि से उन्नत बीज हासिल किया जा सकता है.

मूली की तरह ही गाजर और शलजम के भी बीज तैयार कर सकते हैं.

भिंडी

बीज वाले खेत से बीमार पौधों को उखाड़ कर खत्म कर दें. बीज के लिए स्वस्थ फल को पकने के लिए छोड़ देते हैं. अगर भिंडी को 2-3 बार तोड़ने के बाद बीज के लिए पकने के लिए छोड़ा जाता है तो बीज की मात्रा और क्वालिटी में कमी आ जाती है. भिंडी की बोआई करते समय पौधे से पौधे की दूरी 45×15 सैंटीमीटर रखनी चाहिए.

लहसुन

लहसुन की बोआई बीज से नहीं होती है. बोआई के लिए इस के जवों का इस्तेमाल करते हैं और बीज के लिए कोई खास तकनीक इस्तेमाल नहीं की जाती है. सब्जी या मसालों के लिए उपजाई गई फसल में से स्वस्थ, अच्छे और बड़े कंदों को बीज के लिए रखते हैं.

बीज वाली फसल के लिए लाइन से लाइन की दूरी 40 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 10-12 सैंटीमीटर रखते हैं.

सभी फसलों के बीज के लिए खेती करते समय खेती के वैज्ञानिक तरीकों को ही अपनाना चाहिए. खाद व पानी का भी इस्तेमाल इलाकेवार वैज्ञानिकों द्वारा तय मात्राओं के मुताबिक ही करना चाहिए. बीज उत्पादन के लिए केवल संबंधित फसल के लिए संस्तुत की गई दूरियों पर खास ध्यान देना चाहिए. इन तरीकों को अपना कर किसान अपनी जरूरतों के लिए बीज तैयार कर सकते हैं.

घर के आंगन में  आदर्श गृह वाटिका

आजकल बाजार में बिकने वाली चमकदार फलसब्जियों को रासायनिक उर्वरक का प्रयोग कर के उगाया जाता है. रसायनों का इस्तेमाल खरपतवार, कीड़े व बीमारियों रोकने के लिए किया जाता है.

इन रासायनिक दवाओं का कुछ अंश फलसब्जी में बाद तक भी बना रहता है. इस के कारण इन्हें इस्तेमाल करने वालों में बीमारियों से लड़ने की ताकत कम होती जा रही है.

इस के अलावा फलों व सब्जियों के स्वाद में अंतर आ जाता है, इसलिए हमें अपने घर के आंगन या आसपास की खाली जगह में छोटीछोटी क्यारियां बना कर जैविक खादों का इस्तेमाल कर के रसायनरहित फलसब्जियों को उगाना चाहिए.

स्थान का चयन

इस के लिए स्थान चुनने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती, क्योंकि अधिकतर ये स्थान घर के पीछे या आसपास ही होते हैं. घर से मिले होने के कारण थोड़ा कम समय मिलने पर भी काम करने में सुविधा रहती है.

गृह वाटिका के लिए ऐसे स्थान का चुनाव करना चाहिए, जहां पानी पर्याप्त मात्रा में मिल सके, जैसे नलकूप या कुएं का पानी, स्नान का पानी, रसोईघर में इस्तेमाल किया गया पानी पोषण वाटिका तक पहुंच सके.

स्थान खुला हो, ताकि उस में सूरज की भरपूर रोशनी आसानी से पहुंच सके. ऐसा स्थान हो, जो जानवरों से सुरक्षित हो और उस स्थान की मिट्टी उपजाऊ हो.

पोषण वाटिका का आकार

जहां तक पोषण वाटिका के आकार का संबंध है, तो वह जमीन की उपलब्धता, परिवार के सदस्यों की संख्या और समय की उपलब्धता पर निर्भर होता है.

लगातार फसल चक्र, सघन बागबानी और अंत:फसल खेती को अपनाते हुए एक औसत परिवार, जिस में 1 औरत, 1 मर्द व 3 बच्चे यानी कुल 5 सदस्य हों, ऐसे परिवार के लिए औसतन 250 वर्गमीटर की जमीन काफी है. इसी से अधिकतम पैदावार ले कर पूरे साल अपने परिवार के लिए फलसब्जियां हासिल की जा सकती है.

बनावट

आदर्श पोषण वाटिका के लिए उत्तरी भारत विशेषकर उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में उपलब्ध 250 वर्गमीटर क्षेत्र में बहुवर्षीय पौधों को वाटिका के उस तरफ लगाना चाहिए, जिस से उन पौधों की अन्य दूसरे पौधों पर छाया न पड़ सके. साथ ही, इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि ये पौधे एकवर्षीय सब्जियों के फसल चक्र और उन के पोषक तत्त्वों की मात्रा में बाधा न डाल सकें.

पूरे क्षेत्र को 8-10 वर्गमीटर की 15 क्यारियों में विभाजित कर लें और इन बातों का ध्यान रखें :

* वाटिका के चारों तरफ बाड़ का प्रयोग करना चाहिए, जिस में 3 तरफ गरमी व वर्षा के समय कद्दूवर्गीय पौधों को चढ़ाना चाहिए और बची हुई चौथी तरफ सेम लगानी चाहिए.

* फसल चक्र व सघन फसल पद्धति को अपनाना चाहिए.

* 2 क्यारियों के बीच की मेंड़ों पर जड़ों वाली सब्जियों को उगाना चाहिए.

* रास्ते के एक तरफ टमाटर और दूसरी तरफ चौलाई या दूसरी पत्ती वाली सब्जी उगानी चाहिए.

* वाटिका के 2 कोनों पर खाद के गड्ढे होने चाहिए, जिन में से एक तरफ वर्मी कंपोस्ट यूनिट और दूसरी तरफ कंपोस्ट खाद का गड्ढा हो, जिस में घर का कूड़ाकरकट व फसल अवशेष डाल कर खाद तैयार की जा सके.

इन गड्ढों के ऊपर छाया के लिए सेम जैसी बेल चढ़ा कर छाया बनाए रखें. इस से पोषक तत्त्वों की कमी भी नहीं होगी और गड्ढे भी छिपे रहेंगे.

फसल की व्यवस्था

पोषण वाटिका में बोआई करने से पहले योजना बना लेनी चाहिए, ताकि पूरे साल फलसब्जियां मिलती रहें. योजना में निम्नलिखित बातों का उल्लेख होना चाहिए :

फलसब्जियों के नाम

इन के अलावा अन्य सब्जियों को भी जरूरत के मुताबिक उगा सकते हैं :

* आलू, लोबिया, अगेती फूलगोभी.

* मेंड़ों पर मूली, गाजर, शलजम, चुकंदर, बाकला, धनिया, पोदीना, प्याज व हरे साग वगैरह लगाने चाहिए.

* बेल वाली सब्जियां जैसे लौकी, तुरई, चप्पनकद्दू, परवल, करेला, सीताफल वगैरह को बाड़ के रूप में किनारों पर ही लगाना चाहिए.

* वाटिका में पपीता, अनार, नीबू, करौंदा, केला, अंगूर, अमरूद वगैरह के पौधों को सघन विधि से इस प्रकार किनारे की तरफ लगाएं, जिस से सब्जियों पर छाया न पड़े और पोषक तत्त्वों के लिए मुकाबला न हो.

इस फसल चक्र में कुछ यूरोपियन सब्जियां भी रखी गई हैं, जो कुछ अधिक पोषण युक्त होती हैं व कैंसर जैसी बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक कूवत रखती हैं.

पोषण वाटिका को और अधिक आकर्षक बनाने के लिए उस में कुछ सजावटी पौधे भी लगाए जा सकते हैं :

*      पछेती फूलगोभी, लोबिया, लोबिया (वर्षा)

*      पत्तागोभी, ग्वार, फ्रैंच, बीन

*      मटर, भिंडी, टिंडा

*      फूलगोभी, गांठगोभी (मध्यवर्ती), मूली, प्याज

*      बैगन के साथ पालक, अंत:फसल के रूप में खीरा

*      गाजर, भिंडी, खीरा

*      ब्रोकली, चौलाई, मूंगफली

*      स्प्राउट ब्रसेल्स, बैगन (लंबे वाले)

*      खीरा, प्याज

*      लहसुन, मिर्च, शिमला मिर्च

*      चाइनीज कैबेज, प्याज (खरीफ)

*      अश्वगंध (सालभर), अंत:फसल लहसुन

*      मटर, टमाटर, अरवी

पोषण वाटिका के लाभ

* जैविक उत्पाद (रसायनरहित) होने के कारण फलसब्जियों में काफी मात्रा में पोषक तत्त्व मौजूद रहते हैं.

* बाजार में फलसब्जियों की कीमत अधिक होती है, जिसे न खरीदने से अच्छीखासी बचत होती है.

* परिवार के लिए हमेशा ताजा फलसब्जियां मिलती रहती हैं.

* वाटिका की सब्जियां बाजार के मुकाबले अच्छी क्वालिटी वाली होती हैं.

* गृह वाटिका लगा कर महिलाएं अपनी व अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को मजबूत बना सकती हैं.

* पोषण वाटिका से प्राप्त मौसमी फल व सब्जियों को परिरक्षित कर के सालभर इस्तेमाल किया जा सकता है.

* यह बच्चों के प्रशिक्षण का भी अच्छा साधन है.

* यह मनोरंजन और व्यायाम का भी एक अच्छा साधन है.

* मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी खुद उगाई गई फलसब्जियां बाजार की फलसब्जियों से अधिक स्वादिष्ठ लगती हैं.

बाग लगाने के लिए तैयार  करें अच्छी पौधशाला

अच्छे बाग को तैयार करने में पौधशाला का बहुत ही महत्त्व है. रोपने के लिए फलपौधे पौधशाला से ही मिलते हैं. इसलिए जरूरी हो जाता है कि आदर्श पौधशाला से ही निरंतर सेहतमंद और प्रमाणित पौधे रोपने के लिए उपलब्ध होते रहें. यदि शुरू में ही रोगग्रस्त, कम उत्पादन देने वाले मातृ पौधे से बाग लगाया गया हो तो बाद की देखरेख सब बेकार होगी. आदर्श पौधशाला की स्थापना में इन बातों का ध्यान रखना चाहिए:

जगह का चयन :

बगीचे में जो जगह स्थित हो, जिस में सही मात्रा में रोशनी हो, सिंचाई की सुविधा और पानी के निकलने की समुचित व्यवस्था हो, का चयन किया जाना चाहिए. स्थान विशेष में आवागमन की सुविधा का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए.

मिट्टी :

पौधशाला के लिए जीवांशयुक्त दोमट मिट्टी, जिस का पीएच मान 6.5 से 7.5 हो, सही होती है. अधिक बलुई मिट्टी में पौधा खोदते समय गाची नहीं बन पाती और भारी चिकनी मिट्टी में हवा की कमी के चलते पौधों की बढ़वार अच्छी नहीं होती. उसरीली और कंकरीली मिट्टी का चयन भी पौधशाला के लिए नहीं करना चाहिए.

पर्वतीय इलाकों में थोड़ी गहराई पर पत्थर होने या जमीन में ज्यादा ढाल होने पर जमीन का चयन पौधशाला के लिए नहीं करना चाहिए.

पौधशाला की स्थापना से पहले स्थान विशेष के सभी पेड़ों और झाडि़यों को साफ कर देना चाहिए. जमीन की अच्छी तरह खुदाई कर के सभी जड़ें निकाल दें. पूरे पौधशाला क्षेत्र की गुड़ाई कर के 15-20 दिनों तक गरमी में खुला छोड़ दें, ताकि सभी कीड़ेमकोड़े खत्म हो जाएं. जमीन को ज्यादा दिनों तक खाली न छोड़ें.

जमीन करें तैयार :

रोगरहित व सेहतमंद पौध तैयार करने के लिए क्यारियों की मिट्टी और मिट्टी के मिश्रण को रोगाणुरहित करना बेहद जरूरी है. इस की निम्न विधियां हैं:

मिट्टी सौर्यन/आतपन द्वारा:

यह पौधशाला के निजर्मीकरण की सब से सस्ती विधि है. इस विधि में क्यारियां बीजाई से 6-7 हफ्ते पहले ही तैयार कर ली जाती हैं और इन में पानी पूरी तरह से भर कर नम कर देते हैं. इस के बाद 200-300 गेज मोटी व पारदर्शी प्लास्टिक की शीट से क्यारियों को चारों तरफ से ढक कर मिट्टी से दबा दिया जाता है. इस से क्यारियां वायुरोधित हो जाती हैं.

इस प्लास्टिक शीट को 6-7 हफ्ते बाद व नर्सरी की बीजाई से 2-3 दिन पहले हटा लिया जाता है. यह विधि उस दशा में पूरी तरह से प्रभावकारी है, जब दिन का तापमान 30-40 डिगरी सैल्शियम या इस से ज्यादा हो, मौसम शुष्क और सूरज चमकदार हो.

वाष्पन द्वारा :

इस विधि में बायलर की जरूरत होती है जिस से दबाव में भाप बनाई जाती है. एक हौर्सपावर का बायलर 5 से 6 घंटे के अंदर 50 सैंटीमीटर की गहराई तक 200 वर्गफुट में भाप बना देता है. यह विधि ज्यादा लागत के कारण केवल व्यावसायिक नर्सरी उत्पादकों के लिए उपयोगी है.

उष्मा प्रज्वलन द्वारा :

इस विधि में गन्ने की सूखी पुआल या पत्ती को नर्सरी की जगह पर रख कर जला देते हैं. इस से जो गरमी पैदा होती है, उस से नर्सरी की जगह का निजर्मीकरण तय हो जाता है.

रसायन विधि द्वारा :

नर्सरी की जमीन को उपचारित करने के लिए विभिन्न रसायनों का भी इस्तेमाल किया जा सकता है, जो इस तरह से है:

फार्मल्डीहाइड द्वारा :

इस विधि में नर्सरी की जमीन का निजर्मीकरण करने के लिए व्यावसायिक फार्मल्डीहाइड 40 फीसदी का इस्तेमाल किया जाता है. नर्सरी के 1 वर्गमीटर क्षेत्र में 250 मिलीलिटर से 300 मिलीलिटर फार्मल्डीहाइड को 10 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव किया जाता है. इस के बाद नर्सरी को काली पौलीथिन से ढक कर चारों तरफ गीली मिट्टी का लेप कर जमीन को वायुरोधित कर देते हैं.

उपचार करने के 6 से 8 दिन बाद और बीजाई के 3 दिन पहले पौलीथिन को नर्सरी से हटा दिया जाता है. नर्सरी की फिर हलकी गुड़ाई कर देते हैं, जिस से नर्सरी फार्मेलीन गैस से मुक्त हो जाए और उस के बाद नर्सरी में बीजाई करनी चाहिए.

कवकनाशी द्वारा :

यदि किसी कारणवश जमीन का निजर्मीकरण संभव न हो तो ऐसी स्थिति में जमीन को किसी कवकनाशी जैसे केप्टान, थीरम का 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में मिला कर घोल बना लें और बीजाई से 2 दिन पहले जमीन को इस से उपचारित करें. कवकनाशी जमीन में 20-25 सैंटीमीटर तक पहुंच जाना चाहिए. इस के लिए जमीन को नम बनाए रखना जरूरी है.

पानी का इंतजाम :

पौधशाला में सिंचाई के लिए पानी की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए. पानी प्रयोगशाला से पानी का परीक्षण कराना जरूरी है. सिंचाई वाला पानी खारा नहीं होना चाहिए. बरसात का पानी मृदु होता है. इस पानी को इकट्ठा कर सिंचाई के लिए प्रयोग काफी अच्छा होता है.

पौधशाला में सभी जगह पानी पहुंचे, एलुमीनियम या प्लास्टिक के पाइप लगा कर पानी पहुंचाने की व्यवस्था करें. साथ ही, यह भी ध्यान रखें कि किसी एक जगह पर पानी इकट्ठा न हो.

पौधशाला की स्थापना के पहले जगह की उपलब्धता, प्रवर्धित पौधों की तादाद व अन्य सुविधा के मुताबिक एक रूपरेखा बना लेनी चाहिए.

पौधशाला में नीचे दिए गए कामों के लिए जगह रखें:

* बीज बोने की क्यारी.

* मातृ पौधे लगाने की जगह.

* गमला प्रक्षेत्र.

* क्यारी चल के लिए खाली जगह.

* कायिक विधियों से प्रवर्धित पौधों को रखने का स्थान.

* विशेष कायिक विधियों द्वारा प्रवर्धन के लिए प्रक्षेत्र.

* पैकिंग प्रक्षेत्र.

* कार्यालय, कार्यशाला और भंडार.

* रास्ते, सड़क, कुआं और खाद केगड्ढे होने चाहिए.

* नामपत्र और उन का रेखांकन भी उपलब्ध रहना चाहिए. नामपत्र पर किस्म का नाम, पौधे की उम्र, हर साल फलोत्पादन की मात्रा, फलों के गुण, कीट व रोगों का ब्योरा वगैरह का उल्लेख रखना चाहिए.

हरितगृह/पौधघर (ग्रीनहाउस) :सुविधानुसार विभिन्न आकार के पौधघर बनाए जाते?हैं. सब से साधारण पौधघर में कंकरीट और सीमेंट की चारदीवारी पर लोहे के खंभों द्वारा संरचना बना कर तार की जाली से चारों तरफ घरनुमा जाल बिछा दिया जाता है.

पौधघर के चारों ओर आरोही लता के पौधे इस तरह चढ़ा दिए जाते?हैं कि पूरी संरचना पर अच्छी तरह फैल जाएं और अंदर छाया हो जाए. सुविधानुसार पौधघर के अंदर नलों द्वारा सिंचाई के लिए पानी की व्यवस्था कर दी जाती है. कभीकभी पौधघर के अंदर नमी बढ़ाने के लिए कुहांसानुमा (धुंध) सिंचाई की व्यवस्था भी कर दी जाती है. बड़ेबड़े पौधघरों में पौध और सामान ले जाने के लिए टन्नली की व्यवस्था रहती है. छोटे आकार के पौधघर लकड़ी और तार की जाली द्वारा बनाए जा सकते हैं, पर इन की उपयोगिता कुछ ही सालों तक रहती है.

पौधघर का इस्तेमाल शाकीय पौधों से कलम द्वारा प्रवर्धन, नए गुटी द्वारा प्रवर्धित और नए आयात किए गए पौधों की स्थापना और परिस्थिति अनुकूलन के लिए किया जाता है.

ऐसे बनाएं प्लास्टिकघर :

छोटी पौधशालाओं में आजकल प्लास्टिकघर का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है, अपेक्षाकृत मोटी पौलीथिन का इस्तेमाल करने पर संरचनाओं का इस्तेमाल 3-4 सालों तक किया जा सकता?है.

बाजार में आजकल विभिन्न प्रकार के पदार्थ जैसे पौलीथिन फिल्म वगैरह मौजूद?हैं, जिन का इस्तेमाल विभिन्न आकार की संरचना बनाने में किया जाता?है. लोहे के खंभों या सुविधानुसार बनाए गए बांस की संरचना के?ऊपर सही मोटाई की पौलीथिन फैला दी जाती?है. ऐसी संरचनाओं में दिन में तापमान बढ़ने की आशंका रहती है इसलिए दोनों किनारों से इन को थोड़ा खोल दिया जाता है.

ऐसी संरचनाओं में दिन में आंशिक छायादार जगह भी बनाई जाती है. जरूरत के मुताबिक दिन में पानी का छिड़काव कर के नमी और तापमान को नियंत्रित रखा जाता?है.

कुहासाघर (मिस्ट हाउस) :

कुहासा विधि बारबार पानी छिड़काव करने का संशोधित रूप है. इस में पत्तियों के पास कुहासे के रूप में हलके पानी का छिड़काव होता रहता?है. इस के फलस्वरूप पत्तियों में वाष्पोत्सर्जन और श्वसन की गति धीमी हो जाती?है. नतीजतन, पौधों को छाया में रखने की जरूरत नहीं होती. दिन में सही मात्रा में रोशनी मौजूद होने के चलते प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया चलती रहती?है, जिस के कारण कार्बोहाइडे्रट और दूसरे विशिष्ट पदार्थों का निर्माण होता रहता है, जो जड़ निकलने में सहायक होता?है. कुहासे की व्यवस्था कांच या पौलीथिन द्वारा बनाई गई संरचनाओं के अंदर की जा सकती है. आजकल कुहासे के लिए विभिन्न प्रकार के उपकरण इस्तेमाल किए जा रहे हैं.

हमारे किसानों और बागबानी के काम में लगे उद्यमियों को पौधशाला से सेहतमंद पौधे हासिल हो सकते हैं. बताई गई विधि से उत्पादन कर पेड़ का निर्माण होगा और उस के द्वारा मिलने वाले फलों से अच्छी आमदनी होगी. गुणवत्ता वाले उत्पादन से हम फलों को दूसरे देशों में भेज कर अपनी और देश में विदेशी पैसा बढ़ाने में मदद कर सकते हैं.

बीज का महत्त्व

अनाज के दाने का आधा या आधे से अधिक वह भाग जिस में भ्रूण उपस्थित हो, जिस की अंकुरण क्षमता अधिक हो तथा जो भौतिक एवं आनुवांशिक रूप से शुद्ध हो, साधारणताय उसे बीज कहा जाता है. कृषि के उत्पादन के कारकों में से एक बीज का अत्याधिक महत्त्व होता है.

जब कृषक अपने पुराने बीज के स्थान पर उच्च गुणवत्तायुक्त प्रमाणित बीज की बोआई अपने खेत में करता है तो उसे बीज प्रतिस्थापन कहते हैं. किसान के द्वारा उच्च गुणवत्तायुक्त बीज की बोआई करने पर प्रति इकाई क्षेत्रफल में उत्पादन में सामान्य बीज की बोआई करने से प्राप्त होने वाले उत्पादन की अपेक्षा लगभग 20 प्रतिशत तक की वृद्धि होती है.

बीज के प्रकार

प्रजनक बीज : इस बीज का उत्पादन सीधे संबंधित अभिजनक की देखरेख में कराया जाता हैं इस बीज की सहायता से आधारीय बीज का उत्पादन किया जाता है. प्रजनक बीज के थैलों पर लगने वाले टैगों का रंग पीला होता हैं और इस की आनुवांशिक शुद्धता भी शतप्रतिशत होती है.

आधारीय बीज : इस बीज का उत्पादन प्रजनक बीज के माध्यम से किया जाता है, जिसे आधारीय बीज कहते हैं और आधारीय प्रथम से तैयार किए गए बीज को आधारीय द्वितीय बीज कहते हैं. इस प्रकार के बीज का प्राणीकरण राज्य बहज प्रमाणीकरण संस्था के द्वारा किया जाता है तथा इस बीज के थैलों पर लगाए जाने वाले टैगों का रंग सफेद होता है.

 प्रमाणित बीज : आधारीय बीज के माध्यम से उत्पादित बीज को प्रमाणित बीज कहा जाता हैं तथा सामान्य रूप से इसी बीज को किसनों को बुआई करने हेतु बेचा जाता है. इस बीज का उत्पादन भी बीज प्रमाणीकरण संस्था की गिरानी में ही किया जाता है और प्रमाणित बीज के थैलों पर लगने वाले टैग का रंग नीला होता है.

सत्यापित बीज : इस बीज को आधारीय बीज अथवा प्रमाणित बीज के द्वारा तैयार किया जाता है. इस बीज की भौतिक शुद्धता एवं अंकुरण के प्रति इस बीज का उत्पादक स्वयं जिम्मेदार होता है. इस बीज के थैलों पर बीज प्रमाणीकरण संस्था के द्वारा टैग नही लगाया जाता है और केवल उत्पादन संस्था का ही टैग लगा हुआ होता है. इस बीज की अंकुरण क्षमता भी प्रमाणित बीज के समान ही होती है.

संकर बीज क्या होता है?

* दो भिन्नभिन्न आनुवांशिक गुणों वाली प्रजातियों के संकरण से प्राप्त होने वाली संतति को संकर बीज कहते हैं. यह बीज सर्वोत्तम प्रजातियों की अपेक्षा अधिक उपज देने की क्षमता से युक्त होता है.

* फसल के उत्पादन के लिए संकर किस्म के बीज को प्रथम पीढ़ी के बीज के रूप में उपयोग में लाया जाता है क्योंकि प्रथम पीढ़ी में ही विलक्षण ओज पाई जाती है एवं अगली पीढ़ी में संकलित गुणों का विघटित हो जाते है तथा उस की ओज क्षमता में हृस हो जाता है.

* इस प्रकार से संकर किस्म के बीजों का लाभ एक पीढ़ी तक ही सीमित रहता है जिस के कारण किसानों को प्रतिवर्ष नया बीज खरीद कर ही बोआई करनी पड़ती है.

संकर बीज का महत्त्व

* संकर बीज की उत्पादन देने की क्षमता अधिक उपज देने वाली प्रजातियों की तुलना में 20 से 30 प्रतिशत तक अधिक उपज देने की क्षमता होती है.

* अधिकांशत: संकर बीज की प्रजातियां षीघ्र ही पकने वाली होती हैं जिस के कारण खाद्यान्न शीघ्र ही उपलब्ध हो जाता है.

* फसलों के शीघ्र पक जाने के कारण फसलचक्र को अपनाने में सुविधा रहती है.

* संकर प्रजातियों को सुखा ग्रस्त क्षेत्रों के लिए भी विकसित किया जा सकता है तथा इन्हें सूखा गस्त क्षेत्रों में भी आसानी से उगाया जा सकता है.

* संकर प्रजातियों की रोग एवं कीट प्रतिरोधकता भी अधिक ही होती है.

* संकर बीज से उत्पादित फसल एक साथ ही पकती हैं. इस कारण से फसल की कटाई भी एक साथ ही की जा सकती है, जिस से श्रमशक्ति की बचत होती है और सस्य क्रियाओं का मषीनीकरण सुविधापूर्वक किया जा सकता है.