Cumin : जीरा फसल सही देखभाल से अच्छे दाम

Cumin : अकसर इस्तेमाल किया जाने वाला जीरा (Cumin) बीज मसाले वाली एक खास फसल है. इस का इस्तेमाल मसाले के अलावा दवा बनाने के लिए भी किया जाता है. इस के बीजों में 2.5 से 4.5 फीसदी तेल पाया जाता है. इस तेल का तत्त्व क्यूमिनोल है, जिस के कारण जीरे (Cumin) के बीजों में खुशबू होती है. बाहर भेजे जाने वाले जीरे (Cumin) में कोई गंदगी किसी किस्म की मिलावट नहीं होनी चाहिए जीरा या किसी भी खाने की चीज में मिलावट होने से कई प्रकार की बीमारियां हो सकती हैं.

जीरे की फसल में कटाई के बाद उस के भंडारण के समय अकसर छोटेछोटे जीवों का प्रकोप हो जाता है. इन छोटे कीड़ों में कवक (मोल्ड) व जीवाणु मुख्य होते हैं, जो रासायनिक क्रिया द्वारा जहर पैदा करते हैं. जो फफूंद जहर बनाते हैं, उन्हें  विष फफूंद कहते हैं. ये विष फफूंद मसालों की खुशबू को खत्म कर देते हैं और उन के द्वारा बनाए हुए फफूंद विष सेहत के लिए नुकसानदायक होते हैं और कैंसर भी पैदा कर सकते हैं.

भारत से अमेरिका, ब्रिटेन, जरमनी, यूरोप, जापान व कनाडा वगैरह देशों को जीरा भेजा जाता है. इन देशों में खाने के सामान को ले कर काफी कड़े नियम हैं. इसलिए जीरा व दूसरी खाने की वस्तुएं साफसुथरे ढंग से तैयार की गई होनी चाहिए. अमेरिकन मसाला व्यापार संगठन ने साफसफाई की एक सीमा तय कर दी है. अगर जीरे के नमूने में मरे हुए कीटपतंगे, जानवरों का मलमूत्र या अन्य गंदी चीजें मिली हों तो अमेरिका के नियमों पर वह खरा नहीं उतरता.

Cumin

यदि जीरे में पाई गई कमियां दूर नहीं हो पातीं, तो भेजा हुआ माल या तो फेंक दिया जाता है या फिर भेजे जाने वाले देश को वापस कर दिया जाता है, जिस से बहुत नुकसान होता है. इसलिए जीरा फसल में कटाईसफाई व भंडारण सही ढंग से करना चाहिए.

जीरा फसल की कटाई समय पर करें. कटाई के समय जीरा फसल के बीजों को मिलावटी पदार्थ से बचाना चाहिए. खयाल रखें कि इस में चूहों, जानवरों और चिडि़यों के बाल, मूलमूत्र, पंख वगैरह न हों. सभी मिलावटी पदार्थों का ध्यान रखना चाहिए, जिस से एफ्लाटाक्सिन विष फफूंद नहीं पनपे. जीरे में सालमोनेला व ईकोली की मौजूदगी नहीं होनी चाहिए.

कटाई के बाद जीरा फसल की सफाई के लिए पक्के फर्श का इस्तेमाल करें या प्लास्टिक की शीट, त्रिपाल पर रखें. बरसात की संभावना होने पर खलिहान को त्रिपाल से ढक कर रखें, जिस से जीरा भीगे नहीं. भंडारण या रखरखाव के समय सही नमी का इंतजाम करें और जीरे को साफसूखी बोरियों में भरें.

कटाई के बाद भंडारण के दौरान ध्यान रखें कि वहां चूहे या परिंदे न घुसने पाएं. रेत व अन्य कचरे की मिलावट से जीरे को बचाएं. भंडारगृह में मसाला भरी बोरियों को सीधे फर्श पर न रखें. बोरियों को दीवार से सटा कर भी न रखें, क्योंकि इस से नमी का खतरा रहता है और नमी से विष फफूंद पनपते हैं.

इस प्रकार जीरे की फसल की कटाई, सफाई, ग्रेडिंग व भंडारण में सावधानियां बरत कर किसान  मुनाफा कमा सकते हैं.

ओरोबैंकी से बचाएं सरसों की समस्या

कई फसलों खासकर  सरसों, बैगन, टमाटर, फूलगोभी, पत्तागोभी, तंबाकू,  शलजम वगैरह पर हमला करने वाले ओरोबैंकी यानी ब्रूमरेप खरपतवार की खास बात यह है कि इस की हर किस्म पूरी तरह से परजीवी होती है.

ओरोबैंकी सेरेनुआ इस की एक दूसरी किस्म है, जो बिहार इलाके में सरसों की फसल पर परजीवी है. सरसों की फसल में इस के प्रकोप से 10 से 70 फीसदी तक का नुकसान होता है. यह परजीवी सरसों उगाए जाने वाले सभी इलाकों जैसे राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, पश्चिम बंगाल व ओडिशा में पाया जाता है.

ओरोबैंकी से ग्रस्त सरसों के पौधे छोटे रह जाते हैं और कभीकभी मर भी जाते हैं. ओरोबैंकी के चूपकांग यानी हास्टोरिया सरसों की जड़ों में घुस कर पोषक तत्त्व हासिल करते हैं. पौधों को उखाड़ कर देखें, तो ओरोबैंकी की जड़ें सरसों की जड़ों के अंदर घुसी हुई दिखती हैं. सरसों के पौधों के नीचे मिट्टी से निकलते हुए ओरोबैंकी परजीवी दिखाई पड़ते हैं.

ओरोबैंकी का तना गूदेदार होता है और इस की लंबाई 15 से 50 सैंटीमीटर होती है. तना हलका पीला या बैगनीलालभूरे रंग का होता है, जो पतली भूरी पत्तियों की परतों से ढका रहता है. फूल पत्तियों के कक्ष से निकलते हैं, जो सफेद नली के आकार के होते हैं.

यह अंडाकार बीजयुक्त फलियां बनाता है, जो तकरीबन 5 सैंटीमीटर लंबा होता है व जिन में सैकड़ों की संख्या में छोटेछोटे काले बीज होते हैं. ये बीज मिट्टी में कई सालों तक जिंदा रहते हैं.

ओरोबैंकी के बीज मिट्टी में 10 साल से भी ज्यादा समय तक जिंदा रह सकते हैं. इस के बीजों का जमाव तभी होता है, जब सरसों कुल के पौधों की जड़ें सरसों की जड़ों की ओर बढ़ती हैं व करीबी संबंध बना कर उन से जुड़ जाती हैं. इस से ओरोबैंकी फसल द्वारा बनाए गए भोजन को ले कर अपनी बढ़वार करता है. वह तकरीबन एक महीने तक मिट्टी में ही बढ़वार कर अंगूठे के आकार के जमीनी तने में भोजन इकट्ठा करता रहता है.

इस के बाद सरसों की 50 से 60 दिन की अवस्था के दौरान यह मिट्टी से बाहर निकल कर बढ़ता है. बाहर आने के बाद भी यह हरे पत्ते नहीं बना कर परजीवी ही बना रहता है. इस के बाद इस में फूल आ जाते हैं और अनगिनत छोटेछोटे बीज बन जाते हैं. यह सारी प्रक्रिया तनों के उगने से ले कर बीज बन कर बिखरने तक 2 महीने में पूरी हो जाती है.

रोकथाम के उपाय

 

Sarson

*           नए इलाकों में ओरोबैंकी के बीज का प्रवेश नहीं होने देना चाहिए और परजीवी के बीजरहित सरसों के शुद्ध बीज का इस्तेमाल करना चाहिए.

*           ओरोबैंकी परजीवी को हाथ से उखाड़ कर या निराईगुड़ाई द्वारा जमीन के ऊपर के तने को काट कर बीज बनने से पहले ही खत्म कर देना चाहिए.

*           यदि बीज बन गए हों, तो पौधों को सावधानी से निकालना चाहिए, जिस से बीज मिट्टी में नहीं मिलें.

*           जिन इलाकों में बहुत ज्यादा हमला होता है, वहां सरसों की फसल टै्रप क्रौप के रूप में बोनी चाहिए. 30 से 40 दिन में परजीवी के पौधे बाहर निकलते दिखाई दें, तो गहरी जुताई कर के सरसों सहित इस के जमीनी तने को खत्म कर इस के बाद दूसरी फसल बो दें.

*           जब तक ओरोबैंकी पर पूरी तरह काबू नहीं हो जाता, सरसों की जगह पर अरंडी की फसल बोएं, क्योंकि अरंडी एक सालाना फसल है. इस से परजीवी को रोकने में मदद मिलेगी.

*           कुछ पौधों, जैसे मिर्च को बोने से ओरोबैंकी के बीजों का जमाव हो जाता है, लेकिन मिर्च की फसल को इस परजीवी से कोई नुकसान नहीं होता है. इस तरह मिट्टी में मौजूद ओरोबैंकी के बीजों को जमा कर इस फसल का टै्रप फसल के रूप में इस्तेमाल कर परजीवी के पौधों को खत्म किया जा सकता है. इस तरह मिर्चसरसों का फसल चक्र अपनाने से इस परजीवी पर कुदरती तौर पर काबू पाया जा सकता है.

*           लंबे समय तक फसल चक्र अपना कर इस की ज्यादती को रोका जा सकता है.

*           पौधों की मिट्टी की सतह के पास 25 फीसदी ताम्रघोल का छिड़काव कर के यह परजीवी खत्म किया जा सकता है.

*           ओरोबैंकी पौधों पर सोयाबीन के तेल की 2 बूंदें डाल देने से पौधा मर जाता है.

*           सरसों की रोगरोधी किस्म दुर्गामणि की बोआई करें.

उत्तरप्रदेश में हाईटैक नर्सरी बढ़ाएगी किसानों की आमदनी

लखनऊ : उत्तर प्रदेश में किसानों को विभिन्न प्रजातियों के उच्च क्वालिटी के पौधे उपलब्ध कराने के उद्देश्य से इजराइली तकनीक पर आधारित हाईटैक नर्सरी तैयार की जा रही है. यह काम मनरेगा अभिसरण के तहत उद्यान विभाग के सहयोग से कराया जा रहा है और राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत गठित स्वयं सहायता समूहों की दीदियां भी इस में हाथ बंटा रही हैं. इस से स्वयं सहायता समूहों को काम मिल रहा है.

उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने बताया कि इस योजना के क्रियान्वयन से कृषि और औद्यानिक फसलों को नई ऊंचाई मिलेगी. विशेष तकनीक का प्रयोग कर के ये नर्सरी तैयार की जा रही हैं. सरकार की मंशा है कि प्रदेश का हर किसान समृद्ध बने और बदलते समय के साथ किसान हाईटैक भी बने.

उन्होंने आगे बताया कि सरकार पौधरोपण को बढ़ावा देने के साथ ही बागबानी से जुड़े किसानों को भी माली रूप से मजबूत बनाने का काम कर रही है. मनरेगा योजना से 150 हाईटैक नर्सरी बनाने के लक्ष्य के साथ तेजी से काम किया जा रहा है.

उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के निर्देश व पहल पर ग्राम्य विकास विभाग ने इस को ले कर प्रस्ताव तैयार किया था, जिस को ले कर जमीनी स्तर पर युद्धस्तर पर काम हो रहा है. हाईटैक नर्सरी से किसानों की माली हालत भी मजबूत हो रही है.

प्रदेशभर में 150 हाईटैक नर्सरी बनाने का लक्ष्य रखा गया है. बुलंदशहर के दानापुर और जाहिदपुर में हाईटैक नर्सरी बन कर तैयार भी हो चुकी है. 32 जिलों की 40 साइटों पर ऐसी नर्सरी बनाने का काम किया जा रहा है.

कन्नौज के उमर्दा में स्थित सैंटर औफ एक्सीलेंस फौर वेजिटेबल की तर्ज पर प्रदेश के सभी जनपदों में 2-2 मिनी सैंटर स्थापित करने की कार्यवाही जारी है. किसानों को उन्नत किस्म के पौध के लिए भटकना नहीं पड़ेगा.

समूह के सदस्यों को रोजगार

नर्सरी की देखरेख करने के लिए स्वयं सहायता समूह को जिम्मेदारी दी गई है. समूह के सदस्य नर्सरी का काम देखते हैं, जो पौधों की सिंचाई, रोग, खादबीज आदि का जिम्मा संभालते हैं. इस के लिए स्वयं सहायता समूह की महिलाओं को प्रशिक्षण भी दिया जा चुका है.

किसानों की आय में बढ़ोतरी के लिए सरकार उच्च क्वालिटी व उन्नत किस्म के पौधों की नर्सरी को बढ़ावा देने के लिए तेजी से काम कर रही है. प्रत्येक जनपद में पौधशालाएं बनाने का काम किया जा रहा है. इन में किसानों को फूल और फल के साथ सर्पगंधा, अश्वगंधा, ब्राह्मी, कालमेघ, कौंच, सतावरी, तुलसी, एलोवेरा जैसे औषधीय पौधों को रोपने के लिए जागरूक किया जा रहा है. किसानों को कम लागत से अधिक फायदा दिलाने के लिए पौधरोपण की नई तकनीक से जोड़ा जा रहा है.

अब तक 7 करोड़ रुपए से ज्यादा का भुगतान

उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने बताया कि हाईटैक नर्सरी के निर्माण में अब तक 7 करोड़ से ज्यादा की धनराशि खर्च की जा चुकी है. बुलंदशहर में 2, बरेली, बागपत, मुजफ्फरनगर, मेरठ, महोबा, बहराइच, वाराणसी, बलरामपुर समेत 9 जनपदों में हाईटैक नर्सरी की स्थापना के लिए अब तक 7 करोड़ रुपए की धनराशि का भुगतान किया जा चुका है.

ग्राम्य विकास आयुक्त जीएस प्रियदर्शी ने बताया कि प्रदेश में 150 हाईटैक नर्सरी के निर्माण की कार्यवाही मनरेगा कन्वर्जेंस के अंतर्गत की जा रही है, जिस के सापेक्ष 125 हाईटैक नर्सरी की स्वीकृति जनपद स्तर पर की जा चुकी है.

काले गेहूं की तकनीकी विधि से खेती

आजकल पूरी दुनिया में लोग अपनी सेहत के बारे में सोचने लगे हैं, जिस के बाद यह पता चला है कि इस से बचने के लिए सब से अहम है कि शरीर की इम्यूनिटी को बढ़ाया जाए, इसलिए ज्यादातर लोग विभिन्न प्रकार के हर्बल का इस्तेमाल कर रहे हैं.

इसी प्रकार हाल ही में काले गेहूं की नई प्रजाति विकसित की गई है, क्योंकि इस में आयरन, जिक और एंटीऔक्सिडैंट आदि तत्त्व भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं. इस गेहूं की मांग लगातार किसानों के बीच में बढ़ रही है. इस समय बाजार में इस का बीज 6,000-9,000 रुपए प्रति क्विंटल तक बेचा जा रहा है. इस की खेती गेहूं की सामान्य प्रजातियों की तरह ही होती है.

काले गेहूं की बोआई समय से और सही नमी पर करनी चाहिए. देर से बोआई करने पर उपज में कमी होती है. जैसेजैसे बोआई में देरी होती जाती है, गेहूं की पैदावार में गिरावट की दर बढ़ती चली जाती है. दिसंबर में बोआई करने पर गेहूं की पैदावार 3 से 4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर व जनवरी में बोआई करने पर 4 से 5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्रति हफ्ते की दर से घटती है.

गेहूं की बोआई सीडड्रिल से करने पर उर्वरक और बीज की बचत की जा सकती है. काले गेहूं का उत्पादन सामान्य गेहूं की तरह ही होता है. इस की उपज 10-12 क्टिंवल प्रति बीघा होती है. सामान्य गेहूं की भी औसत उपज एक बीघा में 10-12 क्विंटल होती है.

बीज दर और बीज शोधन

पंक्तियों में बोआई करने पर सामान्य दशा में 100 किलोग्राम और मोटा दाना 125 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और छिटकाव बोआई की दशा में सामान्य दाना 125 किलोग्राम और मोटा दाना 150 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए. बोआई से पहले जमाव फीसदी जरूर देख लें. राजकीय अनुसंधान केंद्रों पर यह सुविधा निशुल्क उपलब्ध है.

यदि बीज अंकुरण क्षमता कम हो, तो उसी के अनुसार बीज दर बढ़ा लें और यदि बीज प्रमाणित न हो, तो उस का शोधन अवश्य करें. बीजों को कार्बाक्सिन, एजेटोबेक्टर व पीएसवी से उपचारित कर बोआई करें. सीमित सिंचाई वाले क्षेत्रों में रेज्ड वेड विधि से बोआई करने पर सामान्य दशा में 75 किलोग्राम और मोटा दाना 100 किलोग्राम प्रति हेक्टयर की दर से प्रयोग करना चाहिए.

काले गेहूं के फायदे

आमतौर पर देश में शरबती गेहूं से बनी रोटी खाई जाती है, लेकिन क्या आप को पता है कि गेहूं की एक वैराइटी काले गेहूं के रूप में भी आती है. काले गेहूं के आटे से बनी चपाती का रंग भले ही देखने में काला व भूरा होने के कारण अलग लगता है, लेकिन यह गेहूं सेहत के लिए बहुत लाभकारी होता है. खासतौर पर सर्दियों में ये डायबिटीज, ब्लड प्रैशर और दिल के मरीजों के लिए बहुत लाभकारी होता है. सामान्य गेहूं के मुकाबले इस में एंटी ग्लूकोज तत्त्व ज्यादा होते हैं, जिस के कारण यह शुगर के मरीजों के लिए फायदेमंद होता है, वहीं ये ब्लड सरकुलेशन को भी सामान्य बनाए रखता है, जिस से दिल भी सही रहता है.

वैसे तो काले गेहूं का सेवन हर मौसम में किया जा सकता है, क्योंकि इस में एंटी औक्सिडेंट्स तत्त्व भरपूर मात्रा में होते हैं, जो आप को हर मौसम में फिट ऐंड हेल्दी रखता है. ऐसे में अगर आप दवाओं से बचे रह कर खुद को कई गंभीर और सामान्य बीमारियों से बचाए रखना चाहते हैं, तो नियमित रूप से काले गेहूं के आटे से बनी रोटी खा सकते हैं. तो आइए पहले जान लेते हैं क्या होता है काला गेहूं और क्या है इस के फायदे:

क्या है काला गेहूं

काला गेहूं, सामान्य दिखने वाले गेहूं की ही तरह एक अनाज होता है, जिस की चपाती खाई जाती है. पंजाब के नाबी नामक एक इंस्टीट्यूट ने अपने 7 साल के लंबे रिसर्च के बाद इस की खोज की है.

फायदेमंद काला गेहूं

काले गेहूं का सेवन करने से दिल की बीमारियों के होने का खतरा कम होता है, क्योंकि काले गेहूं में ट्राइग्लिसराइड तत्त्व मौजूद होता है. इस के अलावा काले गेहूं में मौजूद मैगनीशियम उच्च मात्रा में पाया जाता है, जिस से शरीर में कोलैस्ट्रौल का स्तर सामान्य बना रहता है.

काले गेहूं का नियमित सेवन करने से शरीर को सही मात्रा में फाइबर प्राप्त होता है, जिस से पेट के रोगों खासकर कब्ज में फायदा मिलता है.

काले गेहूं में मौजूद फाइबर से पाचन तंत्र मजबूत होता है और पाचन संबंधी समस्याओं के अलावा पेट के कैंसर से भी नजात मिलती है.

इस के नियमित सेवन से शरीर में हाई कोलैस्ट्रौल में उपयोगी होने के अलावा हाई ब्लडप्रैशर को नियंत्रित करने में कारगर होता है.

मधुमेह वाले लोगों के लिए सब से उपयोगी होता है, क्योंकि इस का सेवन करने से रक्तशर्करा यानी ब्लड शुगर को कम करने में मदद मिलती है.

आंतों का इंफैक्शन करे खत्म

रोजाना काले गेहूं का अलगअलग रूपों में सेवन करने से शरीर में फाइबर का स्तर बेहतर होता है और आंतों के इंफैक्शन को ठीक करने में मदद मिलती है.

नए ऊतकों को बनाने में कारगर

काले गेहूं में मौजूद जरूरी पोषक तत्त्वों में से एक फास्फोरस भी होता है, जो शरीर में नए ऊतकों को बनाने के साथ उन के रखरखाव में अहम भूमिका निभाता है, जिस से शरीर सुचारु रूप से काम कर सके.

एनीमिया

काले गेहूं में प्रोटीन, मैगनीशियम के अलावा आयरन भी भरपूर मात्रा में पाया जाता है. ऐसे में अगर आप रोजाना काले गेहूं का सेवन करते हैं, तो शरीर में रक्त की कमी यानी एनीमिया की बीमारी को दूर किया जा सकता है. इस से शरीर में औक्सीजन का स्तर सही रहता है.

शरीर के विकास में मदद

काले गेहूं यानी साबुत अनाज में मैंगनीज उच्च मात्रा में पाया जाता है. मैंगनीज स्वस्थ चयापचय, विकास और शरीर के एंटीऔक्सिडैंट सुरक्षा के लिए आवश्यक भूमिका निभाता है.

कोलैस्ट्रौल को कम करता है

काले गेहूं में असंतृप्त वसीय अम्ल और फाइबर उच्च मात्रा में पाया जाता है. नियमित रूप से काले गेहूं का सेवन तब उपयोगी

होता है, जब वे रक्त में कोलैस्ट्रौल और ट्राइग्लिसराइड्स के उच्च स्तर पर मौजूद होते हैं. एलडीएल कोलैस्ट्रौल और ट्राइग्लिसराइड्स को कम करने में प्रभावी साबित होता है.

काले गेहूं के पोषक तत्त्व

साबुत अनाज में मौजूद पोषण मूल्य कई पके अनाजों की तुलना में काफी अधिक है. कच्चे अनाज की 3.5 ओंस (100 ग्राम) में पोषण तत्त्व होते हैं:

कैलोरी : 343

पानी : 10 फीसदी

प्रोटीन : 13.3 ग्राम

कार्बन : 71.5 ग्राम

शर्करा : 0 ग्राम

फाइबर : 10 ग्राम

वसा : 3.4 ग्राम

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) लगातार किसानों की आय बढ़ाने के लिए प्रयासरत है. भारत में बहुत से कृषि विश्वविद्यालय और कृषि विज्ञान केंद्र में वैज्ञानिकों के द्वारा कड़ी मेहनत से किसानों के लिए कई किस्में तैयार की जा रही हैं, जिस से किसान कम लागत में अधिक आमदनी हासिल कर सकें. इसी क्रम में भाकृअनुप भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल ने गेहूं की एक किस्म विकसित की है, जिस का नाम है करण वंदना (डीबीडब्ल्यू 187).

करण वंदना (डीबीडब्ल्यू 187) किस्म क्यों खास

यह किस्म इसलिए खास है, क्योंकि मौजूदा किस्मों जैसे एचडी-2967, के-0307, एचडी-2733, के-1006 और डीबीडब्ल्यू-39 की तुलना में इस किस्म की पैदावार बहुत अधिक है. साथ ही, इस गेहूं की किस्म को अधिक सिंचाई की जरूरत नहीं है. 2-3 सिंचाई ही करण वंदना (डीबीडब्ल्यू 187) किस्म के लिए काफी है.

करण वंदना (डीबीडब्ल्यू 187) किस्म की विशेषता

यह किस्म पत्तों के झुलसने और उन के अस्वस्थ दशा जैसी महत्त्वपूर्ण बीमारियों के खिलाफ बेहतर प्रतिरोध करता है. बोआई के 77 दिनों के बाद करण वंदना किस्म फूल देती है और 120 दिनों के बाद परिपक्व होती है.

इस की औसत ऊंचाई 100 सैंटीमीटर है, जबकि क्षमता 64.70 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. 10 में 7.7 अंक और 43.1 लौह सामग्री के साथ इस किस्म की चपाती की गुणवत्ता बहुत बेहतर होती है.

इस किस्म के अच्छे उत्पादन के लिए खाद व उर्वरक की अनुशंसित खुराक तकरीबन 150:60:40 किलोग्राम एनपीके प्रति हेक्टेयर दें और 2 बार सिंचाई कर के अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है.

तोरिया (लाही) की उन्नत उत्पादन तकनीक

तोरिया ‘कैच क्रौप’ के रूप में खरीफ व रबी के मध्य में बोई जाने वाली तिलहनी फसल है. इस की खेती कर के अतिरिक्त लाभ हासिल किया जा सकता है. यह 90-95 दिन के अंदर पक कर तैयार हो जाती है. इस की उत्पादन क्षमता 12-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

खेत की तैयारी

तोरिया के लिए हलकी बलुई दोमट भूमि सर्वाधिक उपयुक्त होती है. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और 2-3 जुताइयां देशी हल, कल्टीवेटर/हैरो से कर के पाटा लगा कर मिट्टी भुरभुरी बना लेनी चाहिए.

उन्नतशील प्रजातियां

पीटी 303, तपेश्वरी, गोल्डी, बी-9, उत्तरा इस की उन्नतशील प्रजातियां हैं.

बीज की मात्रा और बीज शोधन

बीज की मात्रा 4 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए. कवकजनित रोगों से बचाव के लिए शोधित व प्रमाणित बीज ही बोएं. इस के लिए बोआई से पहले थीरम अथवा मैंकोजेब की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज को शोधित करें. मैटालेक्सिल 1.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधन करने पर प्रारंभिक अवस्था में सफेद गेरूई व तुलासिता रोग की रोकथाम हो जाती है.

बोआई का समय व विधि

तोरिया की समय पर बोआई कराने से अधिक उत्पादन के साथ फसल पर रोग और कीटों का प्रकोप कम हो जाता है. तोरिया के बाद गेहूं की फसल लेने के लिए बोआई सितंबर के प्रथम पखवारा (1 सितंबर से 15 सितंबर) में जरूर कर लें. तोरिया की बोआई 30 सैंटीमीटर की दूरी पर कतारों में करें. इस से अंत:कर्षण और निराईगुड़ाई में आसानी रहती है.

खाद व उर्वरक

Farmingबोआई के 3-4 हफ्ते पहले खेत में 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी हुई गोबर या कंपोस्ट खाद का प्रयोग करना चाहिए. उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी परीक्षण की संस्तुति के आधार पर किया जाए, यदि मिट्टी का परीक्षण न हो सके, तो 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30 किलोग्राम फास्फेट व 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए.

फास्फेट का प्रयोग सिंगिल सुपर फास्फेट के रूप में ज्यादा फायदेमंद होता है, क्योंकि इस से 12 फीसदी गंधक की पूर्ति हो जाती है.

यदि सिंगिल सुपर फास्फेट का प्रयोग न किया जाए, तो गंधक की पूर्ति के लिए 25 किलोग्राम गंधक या 2 क्विंटल जिप्सम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें. फास्फेट, पोटाश व गंधक की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा अंतिम जुताई के समय इस्तेमाल करनी चाहिए. नाइट्रोजन की बाकी बची मात्रा पहली सिंचाई के बाद टौप ड्रैसिंग के रूप में दें.

निराईगुड़ाई

तोरिया की अच्छी उपज लेने के लिए बोआई के 20-25 दिन बाद निराई के साथ घने पौधों को निकाल कर पौधे से पौधे की दूरी 10-15 सैंटीमीटर कर दें. यदि खरपतवार ज्यादा हो, तो पेंडीमिथेलिन 30 ईसी का 3.3 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से 700-800 लिटर पानी में घोल बना कर बोआई के 3 दिन के अंदर एकसमान छिड़काव करें.

सिंचाई प्रबंधन

तोरिया फूल निकलने और दाना भरने की अवस्थाओं पर जल की कमी के प्रति विशेष संवेदनशील है. पहली सिंचाई फूल बनते समय (बोआई के 25-30 दिन बाद) व दूसरी सिंचाई 50-55 दिन पर करनी चाहिए.

यदि एक ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो, तो फूल निकलने पर करें. तोरिया की फसल जलभराव को सहन नहीं कर सकती है, इसलिए खेत में उचित जल निकास की व्यवस्था जरूर करनी चाहिए.

सहजन पौष्टिक व लाभकारी

प्रोफैसर रवि प्रकाश मौर्य ने सहजन के बारे में बताया कि सहजन भोजन के रूप में अत्यंत पौष्टिक है और इस में औषधीय गुण हैं. इस में पानी को शुद्ध करने के गुण भी मौजूद हैं

प्रोफैसर रवि प्रकाश मौर्य ने सहजन के बारे में बताया कि सहजन भोजन के रूप में अत्यंत पौष्टिक है और इस में औषधीय गुण हैं. इस में पानी को शुद्ध करने के गुण भी मौजूद हैं.

पूरा पौधा है काम का

सहजन के पौधे का लगभग सारा हिस्सा खाने के योग्य है. पत्तियां हरी सलाद के तौर पर खाई जाती हैं और करी में भी इस्तेमाल की जाती हैं. सहजन के बीज से तेल निकाला जाता है. इस के बीज से तकरीबन 38-40 फीसदी तेल पैदा होता है, जिसे बेन तेल के नाम से जाना जाता है.

सहजन का इस्तेमाल घडि़यों में भी किया जाता है. इस का तेल साफ, मीठा और गंधहीन होता है और कभी खराब नहीं होता है. इसी गुण के कारण इस का इस्तेमाल इत्र बनाने में किया जाता है. छाल, पत्ती, गोंद, जड़ आदि से दवाएं तैयार की जाती हैं.

पत्तियों की चटनी बनाने के लिए पौधे के बढ़ते अग्रभाग और ताजा पत्तियों को तोड़ लें. पुरानी पत्तियों को कठोर तना से तोड़ लेना चाहिए, क्योंकि इस से सूखी पत्तियों वाला पाउडर बनाने में ज्यादा मदद मिलती है.

सहजन की खेती

इस की खेती पूर्वी उत्तर प्रदेश में आसानी से की जा सकती है. पूरे खेत में न लगा सकें, तो खेती की मेंड़ों पर, बगीचों के किनारे, बेकार पड़ी भूमि में लगाएं.

प्रो. रवि प्रकाश मौर्य ने बताया कि  सहजन की खेती की सब से बड़ी बात यह है कि यह पौधा सूखे की स्थिति में कम से कम पानी में भी जिंदा रह सकता है. कम गुणवत्ता वाली मिट्टी में भी यह पौधा लग जाता है. इस की वृद्धि के लिए गरम और नमीयुक्त जलवायु और फूल खिलने के लिए सूखा मौसम सटीक है. सहजन के फूल खिलने के लिए 25 से 30 डिगरी तापमान अनुकूल है.

बीजारोपण से पहले 50 सैंटीमीटर गहरा और 50 सैंटीमीटर चौड़ा गड्ढा 3-3 मीटर की दूरी पर खोद लें. सहजन के सघन उत्पादन के लिए एक पेड़ से दूसरे पेड़ के बीच की दूरी 3 मीटर हो और लाइन के बीच की दूरी भी 3 मीटर होनी चाहिए.

सूर्य की सही रोशनी और हवा को तय करने के लिए पेड़ को पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर लगाएं. पौध रोपण से 8 से 10 दिन पहले प्रति पौधा 8-10 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद डाली जानी चाहिए.

सहजन के पौधे को ज्यादा पानी नहीं देना चाहिए. पूरी तरह से सूखे मौसम में शुरुआत के पहले 2 महीने नियमित पानी देना चाहिए और उस के बाद तभी पानी डालना चाहिए, जब इसे पानी की जरूरत हो.

अगर सालभर बरसात होती रहे, तो पेड़ भी सालभर उत्पादन दे सकता है. सूखे की स्थिति में फूल खिलने की प्रक्रिया को सिंचाई के माध्यम से तेज किया जा सकता है.

कटाईछंटाई

पेड़ की कटाईछंटाई का काम पौधारोपण के एक या डेढ़ साल बाद ठंडे मौसम में किया जा सकती है. 2 फुट की ऊंचाई पर हर पेड़ में 3 से 4 शाखाएं छांट सकते हैं.

खाने के लिए जब कटाई की जाती है, तो फली को तभी तोड़ लिया जाना चाहिए जब वह कच्चा (तकरीबन एक सैंटीमीटर मोटा) हो और असानी से टूट जाता हो. पुरानी फली (जब तक पकना शुरू न हो जाए) का बाहरी भाग कड़ा हो जाता है, लेकिन सफेद बीज और उस का गूदा खाने लायक रहता है.

बीज उत्पादन

पौधा रोपने के लिए बीज या तेल निकालने के मकसद से फली को तब तक सूखने देना चाहिए, जब तक वह भूरी न हो जाए.

कुछ मामलों में ऐसा जरूरी हो जाता है कि जब एक ही शाखा में कई सारी फलियां लगी होती हैं, तो उन्हें टूटने से बचाने के लिए सहारा देना पड़ता है.

फसल की पैदावार खासतौर पर बीज के प्रकार और किस्म पर निर्भर करती है.

सहजन की प्रमुख किस्में

रोहित -1. (एक साल में दो फसल), कोयंबटूर 2. पीकेएम-1, पीकेएम-2 आदि हैं.

पौधा रोपण के बाद इस में फूल आने लगते हैं और 8 से 9 महीने के बाद इस की उपज शुरू हो जाती है. साल में एक से दो बार इस की फसल होती है. यह लगातार 4 से 5 साल तक उपज देती है.

मशरूम उत्पादन : महिलाओं व युवाओं के लिए रोजगार

मशरूम की खेती अब पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो रही है. मशरूम की खेती सीधे आजीविका में सुधार कर सकती है. इस का आर्थिक पोषण और औषधीय योगदान बहुत है. यह ग्रामीण विकास, महिलाओं और युवाओं के अनुकूल पेशे का माध्यम बन सकता है.

उत्पादन तकनीक 

कंपोस्ट की तैयारी

कंपोस्ट कृत्रिम ढंग से बनाया गया वह माध्यम है, जिस से मशरूम की कायिक संरचना भोजन प्राप्त कर अपने फलनकाय के रूप में मशरूम पैदा करती है, अत: कंपोस्ट बनाने के पीछे मशरूम को उचित भोजन सामग्री उपलब्ध कराना निहित है. कंपोस्ट बनाने के लिए पक्के फर्श या विशेष कंपोस्टिंग शैड उपयोग में लाए जाते हैं. कंपोस्ट बनाने के लिए निम्नलिखित सामग्री प्रयोग में लाएं :

गेहूं का भूसा-1,000 किलोग्राम, अमोनियम सल्फेट व कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट-30 किलोग्राम, सुपर फास्फेट-10 किलोग्राम, पोटाश-10 किलोग्राम, यूरिया-10 किलोग्राम, जिप्सम-100 किलोग्राम, गेहूं का चोकर-50 किलोग्राम, फ्यूरोडान 500 ग्राम.

कंपोस्ट बनाना शुरू करने से 48 घंटे पहले भूसे की पतली तह पक्के फर्श पर बिछा कर उसे अच्छी तरह से पलट कर पानी के फव्वारे से तर कर दें.

आरंभ या शून्य

इस आरंभ में भूसे में नमी की मात्रा 75 फीसदी होनी चाहिए. इस नमीयुक्त भूसे में चोकर, कैल्शियम, यूरिया, म्यूरेट औफ पोटाश और सुपर फास्फेट अच्छी तरह मिला देते हैं. अब लकड़ी के पूर्व निर्मित तख्तों की मदद से भूसे का लगभग 1.5 मीटर चौड़ा, 1.25 मीटर ऊंचा किसी भी लंबाई का ढेर बनाएं.

ढेर बनाने के बाद लकड़ी के तख्तों को ढेर से अलग कर दें. 24 घंटे के भीतर ढेर का भीतरी तापमान 70-75 डिगरी सैंटीग्रेड तक होना चाहिए. इस ढेर की नमी बनाए रखने के लिए एक या 2 बार बाहरी सतह पर पानी का छिड़काव करें.

पहली पलटाई

छठे दिन ढेर के बाहरी भाग को (15 सैंटीमीटर अंदर तक का) फर्श पर फैला दें, शेष भाग को दूसरी जगह फर्श पर फैला दें.

अब बाहरी भाग की कंपोस्ट को अंदर डाल कर व भीतरी भाग की कंपोस्ट को बाहर डाल कर लकड़ी के तख्तों की मदद से दोबारा ढेर बना कर तख्तों को अलग कर दें.

दूसरी पलटाई

10वें दिन बाहरी व भीतरी भाग को अलग कर के बाहरी भाग पर अच्छी तरह पानी का छिड़काव कर के ढेर को इस तरह बनाएं कि बाहरी भाग ढेर के भीतर व भीतरी भाग ढेर के बाहर पहुंच जाए.

तीसरी पलटाई

13वें दिन पहले की तरह पलटाई व ढेर का निर्माण करें व जिप्सम मिला दें.

चौथी पलटाई

16वें दिन पहले की तरह पलटाई व ढेर का निर्माण करें.

5वीं पलटाई

19वें दिन पहले की तरह पलटाई ढेर का निर्माण करें.

छठी पलटाई

22वें दिन पहले की तरह पलटाई का निर्माण करें व फ्यूरोडान मिला दें.

7वीं पलटाई

25वें दिन यदि कंपोस्ट अमोनिया गैस मुक्त है, तो कंपोस्ट बीजाई के लिए तैयार है, वरना 28वें दिन करें और बीजाई 30वें दिन करें.

बीजाई

बीजाई (स्पौनिंग) कंपोस्ट में स्पौन मिलाने के ढंग को कहते हैं. प्रति क्विंटल तैयार कंपोस्ट में 500 ग्राम से 750 ग्राम स्पौन (0.5-7.5 फीसदी की दर से) अच्छी प्रकार मिलाया जाता है. बीजाई की हुई कंपोस्ट को सैल्फ या पौलीथिन बैगों से हलका ढक कर रखना चाहिए. सैल्फ में 80-100 किलोग्राम/मीटर व बैग में 10-15 किलोग्राम कंपोस्ट भरते हैं.

बीजाई की हुई कंपोस्ट को निर्जीवीकृत अखबार द्वारा ढक देते हैं. अखबारों को इस्तेमाल में लाने से एक हफ्ते पहले फौर्मेलीन घोल से या वाष्प द्वारा 20 पौंड पर आधा घंटा निर्जीवीकरण कर लेना चाहिए.

यदि पौलीथिन बैग इस्तेमाल कर रहे हैं, तो बैग को ऊपर से मोड़ कर बंद कर दें. बीजाई के बाद फसल कक्ष का तापमान 22-23 डिगरी सैंटीग्रेड या अपेक्षित आर्द्रता 85-90 फीसदी बनाए रखना चाहिए. दिन में 2 बार हलके पानी का छिड़काव अखबार के ऊपर व फसल कक्ष की फर्श व दीवार पर करें.

बीजाई के 6-7 दिन बाद धागेनुमा फफूंदी की वृद्धि दिखाई देने लगती है, जो 12-15 दिन में कंपोस्ट की सतह को सफेद कर देते हैं. बिछे हुए अखबार के ऊपर फैली हुई फफूंदी को आवरण मृदा द्वारा ढक दिया जाता है.

आवरण मृदा (केसिंग मिट्टी)

आवरण मृदा का मतलब है, कंपोस्ट पर फैली हुई फफूंदी के ऊपर मृदा मिश्रण का स्तर बिछाना, जिस से नमी बनाए रखने व गैस के आदानप्रदान में कवक को मदद मिलती रहे.

आवरण मृदा बीमारियों और कीड़ों से मुक्त व इस का पीएच मान 7.5 से 7.8 होना चाहिए. अपने देश में निम्नलिखित सामग्री से आवरण मृदा तैयार की जाती है :

* गोबर की खाद (2 साल पुरानी) बगीचे की मिट्टी (2:1)

* गोबर की खाद (2 साल पुरानी)  स्पेंट कंपोस्ट (1:1)

आवरण मृदा का पाश्चुरीकरण

आवरण मृदा को फौर्मेलीन द्वारा शोधित किया जा सकता है. आवरण मृदा का मिश्रण पक्के फर्श पर ढेर के रूप में रख कर उस में 4 प्रतिशत फौर्मेलीन का घोल पानी में बना कर अच्छी तरह मिला लें. उस के बाद ढेर को पौलीथिन चादर को हटा कर आवरण मृदा को उलटपलट कर फौर्मेलीन की गंध उड़ने के लिए छोड़ देते हैं.

इस तरह 3-4 दिन तक आवरण मृदा को उलटतेपलटते रहते हैं व पूरी तरह से ढेर को फौर्मेलीन गंधरहित कर लेते हैं. आवरण मृदा का शोधन वाष्प द्वारा 65 डिगरी सैंटीग्रेड पर 6-8 घंटे करना ज्यादा उपयोगी है.

आवरण मृदा का प्रयोग

आवरण मृदा की 4 सैंटीमीटर मोटी सतह कवक जाल युक्त कंपोस्ट के ऊपर बिछा दी जाती है. आवरण मृदा बिछाने के बाद 2 फीसदी फौर्मेलीन घोल का छिड़काव इस पर करना चाहिए और फसल कक्ष का तापमान 15-18 डिगरी सैंटीग्रेड और आर्द्रता 80-85 फीसदी कर देना जरूरी है. साथ ही, समुचित वायु संचार का इस अवस्था में प्रबंधन करना जरूरी होता है.

आवरण मृदा के ऊपर से दिन में एक या 2 बार पानी का हलका छिड़काव करना चाहिए.

फसल की तुड़ाई

आवरण मृदा बिछान के 12 से 18 दिन बाद (मशरूम) निकलना शुरू हो जाता है और 50-60 दिन तक निरंतर निकलते रहते हैं.

दिन में एक अथवा दो बार मशरूम को टोपी खुलने के पहले (जिस की परिधि एक से डेढ़ इंच हो), उंगलियों के सहारे ऐंठ कर निकाल लेना चाहिए. इतना ही नहीं, मशरूम खुल जाने और छतरी बन जाने पर मशरूम की क्वालिटी और बाजार में इस की कीमत कम हो जाती है.

पैदावार

दीर्घ अवधि से बनाई गई प्रति 100 किलोग्राम कंपोस्ट से 14 से 16 किलोग्राम मशरूम व इतनी ही मात्रा में पाश्चुरीकरण कंपोस्ट से 18 से 22 किलोग्राम मशरूम की पैदावार हासिल हो जाती है.

पत्तेदार सलाद की उन्नत खेती कैसे करें

सलाद एक मुख्य विदेशी फसल है. दूसरी सब्जियों की तरह यह भी पूरे भारत में पैदा की जाती है. इस की कच्ची पत्तियों को गाजर, मूली, चुकंदर व प्याज की तरह सलाद और सब्जी के तौर पर प्रयोग में लाया जाता है.

यह फसल मुख्य रूप से जाड़ों में उगाई जाती है. अधिक ठंड में बहुत अच्छी बढ़वार होती है और तेजी से बढ़ती है. इस फसल को ज्यादातर व्यावसायिक रूप से पैदा करते हैं और फसल की कच्ची व बड़ी पत्तियों को बड़ेबड़े होटलों और घरों में मुख्य सलाद के रूप में इस्तेमाल करते हैं, इसलिए इस फसल की पत्तियां सलाद के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं.

इस विदेशी फसल को देश में भी उगाया जाता है. सलाद के सेवन से शरीर को अधिक मात्रा में खनिज पदार्थ और विटामिंस मिलते हैं. यह विटामिन ‘ए’ का मुख्य स्रोत है. इस के अलावा प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स, कैल्शियम और विटामिन ‘ए’ और ‘सी’ दोनों ही मिलते हैं.

Salad

जमीन और जलवायु

सलाद की फसल के लिए ठंडे मौसम की जलवायु सब से उत्तम होती है. ज्यादा तापमान होने पर बीज बनने लगता है और पत्तियों का स्वाद बदल जाता है, इसलिए इस का तापमान 12 डिगरी सैंटीग्रेड से 15 डिगरी सैंटीग्रेड सही होता है.

बीज अंकुरण के लिए भी तापमान

20-25 डिगरी सैंटीग्रेड सब से अच्छा होता है. 30 डिगरी सैंटीग्रेड से ज्यादा तापमान होने पर बीजों का अंकुरण सही नहीं हो पाता.

फसल के लिए उपजाऊ जमीन सब से अच्छी होती है. हलकी बलुई दोमट व मटियार दोमट मिट्टी सही होती है. जमीन में पानी रोकने की क्षमता होनी चाहिए, ताकि नमी लगातार बनी रहे. पीएच मान 5.8-6.5 के बीच की जमीन में अच्छा उत्पादन होता है.

खेती की तैयारी और खादउर्वरक

जमीन की 2-3 बार मिट्टी पलटने वाले हल या 3-4 देशी हल या ट्रैक्टर से जुताई करनी चाहिए. खेत को ढेलेरहित कर के भुरभुरा कर लेना अच्छा है. हर जुताई के बाद पाटा लगाना चाहिए.

सलाद के लिए खेत में सड़ी हुई गोबर की खाद 15-20 ट्रौली प्रति हेक्टेयर डाल कर मिट्टी में मिला देनी चाहिए और कैमिकल उर्वरकों का इस्तेमाल इस तरह करना चाहिए कि नाइट्रोजन 120 किलोग्राम, 60 किलोग्राम फास्फेट और 80 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए.

खेत तैयार करते समय नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फेट व पोटाश की पूरी मात्रा को बोआई से पहले डालें. नाइट्रोजन की बाकी बची मात्रा को 2 बार में खड़ी फसल पर पत्तियों को 2-3 बार तोड़ने के बाद छिड़कना चाहिए. इस तरह से उपज अच्छी मिलती है.

बगीचों में 3-4 टोकरी देशी खाद डाल कर यूरिया 600 ग्राम, 300 ग्राम फास्फेट और 200 ग्राम पोटाश 8-10 वर्गमीटर में डालना चाहिए और यूरिया की आधी मात्रा फसल के बड़ी होने पर यानी 15-20 दिन के अंतराल से 2 बार में छिड़कना चाहिए.

ध्यान रहे कि यूरिया की दूसरी मात्रा पत्तियों के तोड़ने के तुरंत बाद छिड़कनी चाहिए. इस तरह हरी पत्तियां बाद तक मिलती हैं और अधिक मिलती हैं.

प्रमुख जातियां

सलाद की मुख्य जातियां, जिन को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा बोने की सिफारिश की जाती है क्योंकि इन प्रजातियों के इस्तेमाल से अधिक मात्रा में पत्तियां और मुलायम तना मिलता है:

ग्रेट लेकस, चाइनीज यलो, स्लोवाल्ट हैं.

बोने का समय और दूरी

सलाद की बोआई के पहले पौधशाला में पौध तैयार करते हैं. जब पौध 5-6 हफ्ते की हो जाती है तो खेत में रोप दिया जाता है.

अगस्तसितंबर माह में बीज लगाते हैं और रोपाई सितंबरअक्तूबर माह में की जाती है. कतारों से कतारों की दूरी 30 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 25 सैंटीमीटर रखते हैं.

बीज की मात्रा

बीज की मात्रा 500-600 ग्राम प्रति हेक्टेयर काफी है. बीज को पौधशाला में क्यारियां बना कर पौध तैयार करनी चाहिए और बड़ी पौध को लाइन में लगाना चाहिए.

बीमारी और रोकथाम

पाउडरी मिल्ड्यू : इस रोग में सब से पहले पत्तियों पर हलके हरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं. पत्तियों के निचले भाग में ये धब्बे ज्यादातर दिखते हैं. रोकथाम के लिए अगेती फसल बोनी चाहिए और रोगी पौधों को उखाड़ देना चाहिए. ज्यादा बीमारी होने पर फंजीसाइड का इस्तेमाल करना चाहिए.

मोजैक : ये रोग वायरस द्वारा फैलता है. इस का असर पौध पर ज्यादा होता है और पत्तियों पर इस का प्रकोप होता है. पत्ते व पौधे हलके पीले पड़ जाते हैं. नियंत्रण के लिए बीज को उपचारित कर के बोना चाहिए. रोगी पौधों को उखाड़ कर जला देना चाहिए.

रोगों से बचाव

सलाद की फसल पर ज्यादा कीट नहीं लगते, लेकिन कभीकभार एफिड का हमला होता है जो कि ज्यादा नुकसान पहुंचाता है. नियंत्रण के लिए जिन पौधों पर कीट लगे हों, उन्हें उखाड़ कर जला देना चाहिए. इन कीटों का अधिक हमला होने पर 0.1 फीसदी मैटासिस्टौक्स या मैलाथियान का घोल बना कर 10-10 दिन के अंतराल पर 2-3 बार छिड़काव करना चािहए. इस के बाद इन कीटों का हमला रुक जाता है.

सावधान रहें कि दवा छिड़कने के बाद पत्तियों को ठीक तरह से धो कर इस्तेमाल में लाएं.

सिंचाई व खरपतवार पर नियंत्रण

सलाद के खेत की सिंचाई रोपाई के तुरंत बाद करनी चाहिए. इस के बाद 10-12 दिन के अंतर से सिंचाई करनी चाहिए. फसल में नमी का होना बहुत जरूरी है. सिंचाई के तुरंत बाद निकाईगुड़ाई करते हैं और घास व खरपतवारों को निकाल देना चाहिए.

सलाद की कटाई

सलाद की फसल जब बड़ी हो जाए तो जरूरत के मुताबिक मुलायम पत्तियों को तोड़ते रहना चाहिए जिस से कि पत्तियां कड़ी न होने पाएं. कड़ी पत्तियों में पोषक तत्त्वों की मात्रा कम हो जाती है और रेशे की मात्रा बढ़ जाती है, इसलिए चाहिए कि तुड़ाई या कटाई का विशेष ध्यान रखें.

इस तरह से 2-3 दिन के अंतराल पर तुड़ाई करते रहना चाहिए. तुड़ाई या कटाई करते समय पत्तियों वाली शाखाओं को सावधानी से तोड़ना या काटना चाहिए. तुड़ाई हाथों से या कटाई तेज चाकू या हंसिया से करनी चाहिए.

पत्तियों की पैदावार

सलाद की पत्तियों की पैदावार 125-150 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और 600-700 बीज प्रति हेक्टेयर हासिल होती है.

लहसुन की खेती में कीटरोग रोकथाम

लहसुन की खेती में कीट व रोगों की रोकथाम कर अच्छा मुनाफा लिया जा सकता है. लहसुन जड़ वाली फसल है, इसलिए खासकर ध्यान रखें कि हमारे खेत की मिट्टी रोगरहित हो. अगर फिर भी पौधों में कीट व रोगों का प्रकोप दिखाई दे, तो समय रहते उन का उपचार करें.

लहसुन के खास कीट

माहू : इस के निम्फ और वयस्क दोनों ही पौधों से रस चूसते हैं, जिस से पत्तियां किनारों से मुड़ जाती हैं. कीट की पंख वाली जाति लहसुन में वाइरसजनित रोग भी फैलाती है. ये चिपचिपा मधुरस पदार्थ अपने शरीर के बाहर निकालते हैं, जिस से पत्तियों के ऊपर काली फफूंद पनपती देखी जा सकती है, जिस से पौधों के भोजन बनाने की क्रिया पर असर पड़ता है.

रोकथाम : माहू का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे ट्रैप का इस्तेमाल करें, जिस से माहू ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं. परभक्षी कौक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया को एकत्र कर 50,000-1,00,000 अंडे या सूंड़ी प्रति हेक्टेयर की दर से छोडे़ं. जरूरतानुसार डाईमिथोएट 30 ईसी या मैटासिस्टौक्स 25 ईसी 1.25-2.0 मिलीलिटर प्रति लिटर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

लहसुन का मैगट : मैगट पौधे के तने व शल्क कंद में घुस कर नुकसान पहुंचाते हैं. बड़े शल्क कंदों में 8 से 10 मैगट एकसाथ घुस कर उसे खोखला बना देते हैं.

रोकथाम: शुरुआत में रोगी खेत पर काटाप हाइड्रोक्लोराइड 4जी की 10 किलोग्राम मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में बिखेर कर सिंचाई कर दें. बढ़ते हुए पौधों पर मिथोमिल 40 एसपी की 1.0 किलोग्राम या ट्राईजोफास 40 ईसी की 750 मिलीलिटर मात्रा को 500-600 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने पर नए निकले हुए मैगट मर जाते हैं.

थ्रिप्स : इस कीट का हमला तापमान के बढ़ने के साथसाथ होता है व  मार्च महीने में इस का हमला ज्यादा दिखाई देता है. यह कीट पत्तियों से रस चूसता है, जिस से पत्तियां कमजोर हो जाती हैं और रोगी जगह पर सफेद चकत्ते पड़ जाते हैं, जिस के कारण पत्तियां मुड़ जाती हैं.

रोकथाम : लहसुन की कीट रोधी प्रजातियां उगानी चाहिए. कीट के ज्यादा प्रकोप की दशा में 150 मिलीलिटर इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल को 500-600 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

Garlicमाइट्स : इस कीट के प्रकोप से पत्ती का असर वाला भाग पीला हो जाता है और पत्तियां मुड़ी हुई निकलती हैं. वयस्क और शिशु कीट दोनों ही नई पत्तियों का रस चूस कर फसल को नुकसान पहुंचाते हैं.

रोग के शुरू में सब से पहले पौधों की निचली पत्तियां तैलीय हो जाती हैं और बाद में पूरा पौधा तैलीय हो जाता है. रोगी पत्तियां छोटी हो जाती हैं और चमड़े की तरह दिखाई देती हैं. पत्तियां निचली तरफ से तांबे जैसी रंगत की दिखाई देती हैं. माइट का ज्यादा हमला होने से रोगी पत्तियां सूख कर गिर जाती हैं और पूरा पौधा मुरझा कर सूख जाता है.

रोकथाम : रोगी पौधों के कंद व जड़ सहित उखाड़ कर नष्ट कर दें. घुलनशील गंधक 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर या कैराथीन 500 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करें. मैटासिस्टौक्स छिड़कने से भी फायदा होता है.

लहसुन के रोग

विगलन : इस रोग का असर कंदों पर खेतों में या भंडारगृह दोनों में हो सकता है. खेत में रोगी पौधा पीला हो जाता है और जड़ें सड़ने लगती हैं.

कभीकभी रोग के लक्षण बाहर से नहीं दिखाई पड़ते हैं, लेकिन लहसुन की गर्दन के पास दबाने से कुछ शल्क मुलायम जान पड़ते हैं. बाद में ये शल्क भूरे रंग के हो जाते हैं. सूखे मौसम में शल्क धीरेधीरे सूख कर सिकुड़ जाते हैं, जिस की वजह से छिलका फट कर अलग हो जाता है.

रोकथाम : खेत को ट्राईकोडर्मा नामक जैव फफूंद की 2.5 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से उपचारित करना चाहिए. गरमी के महीनों में खेत की अच्छी तरह जुताई कर के खुला छोड़ दें, जिस से कि कवक व अन्य रोग जनकों की मौत हो जाए. कंदों को बोआई से पहले 2.0 ग्राम कार्बंडाजिम का प्रति लिटर पानी की दर से घोल बना कर उपचारित करें.

बैगनी धब्बा : इस रोग से लहसुन को काफी नुकसान होता है. इस रोग के लक्षण पत्तियों, कंदों पर उत्पन्न होते हैं, शुरू में छोटे धंसे हुए धब्बे बनते हैं, जो बाद में बड़े हो जाते हैं. धब्बे के बीच का भाग बैगनी रंग का हो जाता है. यदि आप उसे हाथों से छुएं तो काले रंग का चूर्ण हाथ में चिपका हुआ दिखाई देता है. रोगी पत्तियां झुलस कर गिर जाती हैं. रोगी पौधों से प्राप्त कंद सड़ने लगते हैं.

रोकथाम : 2-3 साल का सही फसल चक्र अपनाएं. रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैंकोजेब की 2.0 ग्राम मात्रा प्रति लिटर पानी की दर से घोल बना कर 2 बार छिड़काव करें.

सफेद सड़न : इस बीमारी से कलियां सड़ने लगती हैं.

रोकथाम : जमीन को ट्राईकोडर्मा नामक जैव फफूंद की 2.5 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से उपचारित करना चाहिए. गरमी के महीनों में खेत की अच्छी तरह जुताई कर के खुला छोड़ दें जिस से कि कवक व अन्य रोग जनकों की मौत हो जाए. कंदों को बोआई के पहले 2.0 ग्राम कार्बंडाजिम का प्रति लिटर पानी की दर से घोल बना कर उपचारित करें.

कंद सड़न : इस बीमारी का हमला भंडारण में होता है.

रोकथाम : इस की रोकथाम के लिए कंद को 2 फीसदी बोरिक अम्ल से उपचारित कर के भंडारण करना चाहिए. बीज के लिए यदि कंद को रखना हो तो 0.1 फीसदी मरक्यूरिक क्लोराइड से उपचारित कर के रखें. खड़ी फसल में मैंकोजेब की 2.0 ग्राम मात्रा का प्रति लिटर पानी की दर से छिड़काव करें.

फुटान : नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों के ज्यादा इस्तेमाल से यह बीमारी फैलती है. इस के अलावा ज्यादा पानी या ज्यादा दूरी पर रोपाई की वजह से फुटान ज्यादा होता है. इस बीमारी से लहसुन कच्ची दशा में कई छोटेछोटे फुटान देता है, जिस से कलियों का भोजन पदार्थ वानस्पतिक बढ़वार में इस्तेमाल होता है.

रोकथाम : लहसुन की रोपाई कम दूरी पर करें और नाइट्रोजन व सिंचाई का इस्तेमाल ज्यादा न करें. ऐसे रोगी पौधों को देखते ही पौलीथिन की थैली से ढक कर सावधानीपूर्वक उखाड़ कर मिट्टी में दबा दें.

बीजों को बोने से पहले वीटावैक्स 2.5 ग्राम या टेबूकोनाजोल 1.0 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम की दर से उपारित करें.

आर्थिक मजबूती का आधार जिमीकंद की खेती

कंद वाली सब्जियों में जिमीकंद का प्रमुख स्थान है. यह देश के अलगअलग हिस्सों में कई नामों से जानी जाती है. इस के प्रमुख प्रचलित नाम ओल या सूरन भी है.

जिमीकंद सब्जी के अलावा कई तरह के स्वादिष्ठ पकवान व व्यंजन बनाने के काम में भी आता है. इस का अचार गांवों में बहुत ही स्वादिष्ठ तरीके से बनाते हैं.

जिमीकंद को पहले गृहवाटिका में ही उगाया जाता था, लेकिन कृषि वैज्ञानिकों ने जिमीकंद पर निरंतर शोध कर इस की कई उन्नतशील प्रजातियां भी विकसित की, जिस से किसानों द्वारा बड़े पैमाने पर इस को व्यावसायिक रूप से भी उगाया जाने लगा है.

जिमीकंद की देशी प्रजातियों में कड़वापन व चरपरापन अधिक पाया जाता है, जबकि उन्नत प्रजातियों में चरपरापन या कड़वापन न के बराबर होता है. बाजार में जिमीकंद की भारी मांग को देखते हुए इस की व्यावसायिक खेती किया जाना लाभदायक साबित हो रहा है.

जिमीकंद की खेती के लिए आर्द्र गरम व ठंडा शुष्क दोनों ही प्रकार के मौसम की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि इस से जिमीकंद के पौधों व कंदों का अच्छे तरीके से विकास होता है. बोआई के बाद जिमीकंद के बीजों के अंकुरण के लिए उच्च तापमान की आवश्यकता होती है, जबकि पौधों की बढ़वार के लिए समान रूप से अच्छी वर्षा व कंदों के विकास के लिए ठंडे मौसम की आवश्यकता होती है.

खेती के लिए कैसी हो जमीन

जिमीकंद की खेती के लिए रेतीली दोमट मिट्टी सब से अच्छी मानी जाती है, क्योंकि इस तरह की मिट्टी में कंदों की बढोतरी तेजी से होती है. जिस भूमि का चयन किया जा रहा हो, उस की जलधारण क्षमता अच्छी होनी चाहिए, लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि चिकनी व रेतीली भूमि में जिमीकंद की फसल न ली जाए, क्योंकि इस तरह की मिट्टी में कंदों का विकास अवरूद्ध हो जाता है.

रोपाई से पहले खेत में कल्टीवेटर या रोटावेटर से जुताई कर के उस में पाटा लगा देना चाहिए. अच्छी पैदावार के लिए बोआई के समय ही 20 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की सड़ी खाद को खेत में बिखेर देना चाहिए.

प्रजातियों का चयन

जिमीकंद की देशी प्रजाति तो पारंपरिक रूप से उगाई जाती रही है, लेकिन व्यावसायिक रूप से इस की 3 प्रजातियां अभी तक ज्यादा उपयुक्त पाई गई हैं.

गजेंद्र- 1

जिमीकंद की सर्वाधिक उत्पादन वाली प्रजाति मानी जाती है. इस प्रजाति में चरपरापन नहीं होता है, क्योंकि इस में कैल्शियम व आक्सैट की मात्रा कम पाई जाती है, जिस के चलते जीभ व गले में जलन नहीं होती है. यह प्रजाति खाने में सब से उपयुक्त होती है, इसलिए इस का बाजार भाव अन्य प्रजातियों की अपेक्षा अच्छा होता है.

इस प्रजाति के गूदे का रंग हलका गुलाबी होता है. इस प्रजाति की औसत उपज 300-400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पाई गई है.

संतरा गाछी

इस प्रजाति के पौधों की बढ़वार तेजी से होती है. इस के कंदों में चरचरापन अधिक पाया जाता है. कंद खुरदरे व मख्खनी होते हैं. इस के कंदों के साथसाथ छोटेछोटे धन कंद भी निकल आते हैं. इस की औसत उपज 50-75 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

कोववयूर

यह अधिक उपज देने वाली प्रजाति है. इस के पौधों की बढ़वार संतरा गाछी की तरह ही होती है. अगर इस में संतरा गाछी की तरह अलग से धन कंद नही उत्पन्न होते हैं. इस की औसत उपज 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

उपरोक्त तीनों प्रजातियों की बोआई का उचित समय उत्तर भारत में फरवरी से मार्च माह व दक्षिण भारत में मई माह तक का होता है.

बोआई विधि

जिमीकंद की बोआई के लिए पहले से तैयार किए गए खेत में 3-3 फुट की दूरी पर 30 सैंटीमीटर गहरा, लंबा व चौड़ा गड्ढा खोद लिया जाता है.

इस प्रकार प्रति हेक्टेयर लगभग 10,000 गड्ढे तैयार हो जाते हैं. खेत में तैयार इन्हीं धन कंदों से अलग किए गए छोटे धन कंद, जिन का औसत भार 250 ग्राम तक का होता है, या बड़े कंदों के 500 ग्राम तक के टुकड़ों में काट कर खोदे गए गड्ढों में रोप देते हैं. इस के बाद रोपे गए स्थान पर पिरामिड आकार में मिट्टी चढ़ा देते हैं. उस के उपरांत उसे घासफूस से ढक देते हैं, जिस से खेत में से नमी न खत्म होने पाए, इस से कंदों में अंकुरण जल्दी होता है.

बीज की मात्रा

बोआई के लिए 500 ग्राम तक के बीज उपयुक्त पाए गए हैं. इस प्रकार एक हेक्टेयर के लिए 50 क्विंटल बीज की जरूरत पड़ती है.

गरमियों में मानसून से पूर्व एक सिंचाई आवश्यक होती है, जबकि कम वर्षा की दशा में नमी बनाए रखने के लिए समयसमय पर सिंचाई करते रहना चाहिए. इस के अलावा खेत में नमी बनाए रखने के लिए बोआई के उपरांत भूसी की परत, पुआल या सूखी पत्तियां बिछा देनी चाहिए, इस से खेत से नमी नहीं उड़ने पाती है.

खरपतवार व कीट नियंत्रण

जिमीकंद की फसल के साथ खरपतवार का उग आना स्वाभाविक है. ऐसे में पूरी फसल के दौरान 2-3 बार निराईगुड़ाई अवश्य करनी चाहिए.

पहली निराईगुड़ाई 40-60 दिन बाद व दूसरी 80-90 दिन बाद करनी चाहिए. साथ ही, हर गुड़ाई के बाद पौधों पर मिट्टी अवश्य चढ़ाएं.

कृषि विज्ञान केंद्र, बंजरिया, जनपद बस्ती में फसल सुरक्षा के विशेषज्ञ डा. प्रेमशंकर के अनुसार, जिमीकंद की फसल में तंबाकू की सुंडी जो 35-40 मिमी की लंबाई में होती है. ये इस का जुलाई से सितंबर माह तक प्रकोप देखा गया है. ये पत्तियों को खा कर हानि पहुंचाती हैं. इस की रोकथाम के लिए मेथेमिल लिक्विड 1 मिलीमीटर प्रति हेक्टयर की दर से 200 मिली प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए.

रोग

जिमीकंद की फसल को मुख्यतः 2 तरह के रोग नुकसान पहुंचाते हैं.

पहला, झुलसा रोग, जो फाइटोफ्थोरा कोलोकेमी नामक फंफूद के कारण लगता है. इस से जिमीकंद की फसल की पत्तियां झुलस जाती हैं और तना गलने लगता है. साथ ही, कंदों की वृद्धि भी रुक जाती है.

दूसरा, रोग पत्ती एंव धन कंद विगलन का होता है, जिस से पत्तियां व धन कंद सड़ने लगते हैं.

दोनों रोगों के लिए सिक्सर नामक रसायन की 300 ग्राम मात्रा प्रति एकड़ को 200-300 लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करना चाहिए.

खुदाई

जिमीकंद की फसल अक्तूबर माह से खुदाई के लिए हो जाती है. इसे हर हाल में नवंबर से दिसंबर माह तक खोद लेना चाहिए.

खुदाई करते समय कंद को कटने से बचाने पर विशेष ध्यान देना चाहिए. खोदे गए कंद को साफ कर लेना चाहिए. कंद की खुदाई के 20 दिन पूर्व ही खेत की सिंचाई बंद कर देना चाहिए.

उपज व लाभ

जिमीकंद फसल की देखरेख व अच्छी प्रजाति के चयन पर निर्भर करती है. अगर 500 ग्राम भार के बीजों की बोआई की गई है, तो प्रति हेक्टेयर 400 क्विंटल की उपज मिलती है, जो बाजार भाव 20-40 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से आसानी से बेची जा सकती है.