अश्वगंधा औषधीय पौधों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है. सोलेनेसी कुल के इस 1-4 फुट तक ऊंचे पौधे का नाम ‘अश्वगंधा’ मूलत: इस के संस्कृत अर्थ से पड़ा है, जिस का मतलब है ‘अश्व’ के समान ‘गंध’ वाला. इस पौधे के पत्ते और जड़ को मसल कर सूंघने से उन में अश्व (घोड़े) के पसीने और मूत्र/अस्तबल की जैसी गंध आती है, जिस से संभवत: इसे अश्वगंधा नाम मिला.

अश्वगंधा बहुत ही आसानी से उगने वाला बहुवर्षीय पौधा है, जिस की 2-3.5 इंच लंबी 1-1.5 इंच चौड़ी नुकीली पत्तियां होती हैं और पुष्प हरिताभ अथवा बैगनी आभा लिए पीताभ, वृंतरहित छत्रक समगुच्छों में होता है, जिस के घंटिकाकार और मृदु रोमश कैलिक्स फलों के साथ बढ़ कर रसभरी की भांति फलों को आवृत्त कर लेता है.

फल मटर के आकार वाले लाल नारंगी रंग के होते हैं. बीज असंख्य, अतिछुद्र, वृक्काकार और बैगन के बीज के समान होते हैं. मूल (जड़) शंक्वाकार मूली की तरह, परंतु उस से कुछ पतली होती हैं. जड़ ही इस का मुख्य उपयोगी भाग है. इस की जड़ों में लगभग काफी अधिक एल्केलाइड्स पाए जाते हैं, जिन में विथानिन और सोमनीफेरेन मुख्य हैं.

अश्वगंधा का प्रत्येक भाग (जड़, पत्ते, फल व बीज) औषधीय उपयोग के लिए इस्तेमाल किया जाता है, परंतु सर्वाधिक उपयोग इस की जड़ों का ही है.

अश्वगंधा  की अंर्तराष्ट्रीय बाजार में अत्यधिक मांग है, फिर भी किसानों में जागरूकता की कमी के कारण इस की खेती बहुत कम क्षेत्रफल में हो रही है, इसलिए अश्वगंधा की मांग और पूर्ति में भारी अंतर को देखते हुए वृहद स्तर पर इस की खेती की नितांत आवश्यकता है.

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