Bitter Gourd : कद्दूवर्गीय सब्जियों में करेला (Bitter Gourd) अपने खास औषधीय गुणों की वजह से अन्य सब्जियों के मुकाबले एक खास स्थान रखता है. इस की खेती भारत में खरीफ और गरमी के मौसम में की जाती है. सब्जियों की मार्केट में इस की खास जगह है. इस के फल सब्जी, कलौंजी (भरवां) व अचार बनाने के काम आते हैं. इस के फलों को काट कर सुखा लेते हैं और बाद में भी सब्जी के रूप में इस्तेमाल करते हैं. इस के फलों का इस्तेमाल पेट के रोगियों के लिए लाभदायक है. करेले के कच्चे फलों का रस मधुमेह (डाइबिटीज) के रोगियों के लिए बहुत फायदेमंद है. यह उच्च रक्तचाप में भी बहुत लाभदायक होता है. इस में मौजूद कड़वाहट (मोमोर्डसिन) खून को साफ करने में काफी मदद करती है.
मचान : बांस और तार के द्वारा करीब 6 फुट ऊंचा मचान बनाया जाता है. इस में खासतौर पर खरीफ की फसल ली जाती है, जिस के कारण फलों में एकरूपता बनी रहती है और बाजार में उन की मांग बढ़ जाती है. इस से 1 हेक्टेयर खेत से करीब 30-40 क्विंटल फसल अधिक प्राप्त होती है.
जलवायु : कद्दूवर्गीय सब्जियां गरम जलवायु की फसलें हैं. इन में ज्यादा ठंड और पाला सहन करने की कूवत नहीं होती है. करेले की खेती के लिए 40 डिगरी सेल्सियस से 20 डिगरी सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है. आदर्श तापमान 25-30 डिगरी सेल्सियस है.
खेत की तैयारी : कद्दूवर्गीय सब्जियों के लिए बलुई दोमट मिट्टी जिस में जल निकास का सही इंतजाम हो, अच्छी मानी जाती है. करेले की खेती नदियों के किनारे भी की जाती है. मिट्टी का पीएच मान 6 से 7.5 सही रहता है. खेत की 3-4 बार जुताई कर के नालियां व थाले बना लेते हैं, जिन में बीजों की बोआई करते हैं. बोआई खेत में नमी रहने पर ही करनी चाहिए, ताकि बीजों का अंकुरण व विकास अच्छी तरह हो सके.
खाद व उर्वरक : कंपोस्ट या गोबर की सड़ी खाद 20 से 25 टन प्रति हेक्टेयर की दर से बीज बोने के 3 से 4 हफ्ते पहले खेत तैयार करते समय मिट्टी में अच्छी तरह मिला देते हैं. इस के अलावा 100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 60 किलोग्राम पोटाश की प्रति हेक्टेयर की दर से जरूरत पड़ती है. फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा और एक तिहाई नाइट्रोजन की मात्रा आपस में मिला कर बोने वाली नालियों के स्थान पर डाल कर मिट्टी में मिला दें और थाले बनाएं. बची नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोआई के 25-30 दिनों बाद नालियों में टापड्रेसिंग के रूप में दें और गुड़ाई कर के मिट्टी चढ़ाएं. नाइट्रोजन की बाकी मात्रा पौधों की बढ़वार के समय (40 से 50 दिनों बाद) फल निकलने से पहले ट्रापड्रेसिंग के रूप में दें. यूरिया का पर्णीय छिड़काव (5 ग्राम यूरिया प्रति लीटर पानी) करना जरूरी है.
उन्नतशील प्रजातियां
पूसा दो मौसमी : नाम के मुताबिक यह प्रजाति दोनों मौसमों (खरीफ व गरमी) में बोई जाती है. बोआई के करीब 55 दिनों बाद फसल तोड़ाई लायक हो जाती है. फल गहरे हरे, मध्यम मोटे व करीब 18 सेंटीमीटर लंबे होते हैं. फलों का वजन करीब 100 से 120 ग्राम होता है. उपज 120-150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.
पूसा विशेष : इस के फल हरे, पतले व मध्यम आकार के होते हैं. औसतन 1 फल का वजन 115 ग्राम होता है. इस की उपज 120 से 130 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.
अर्का हरित : इस प्रजाति के फल चमकीले हरे, चिकने, अधिक गूदेदार और मोटे छिलके वाले होते हैं. बोआई के बाद 120 दिनों में फल तैयार हो जाते हैं. फलों में बीज व कड़वाहट भी कम होती है. इस की उपज 130 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.
काशी हरित : फल गहरे रंग के करीब 100 ग्राम वजन के होते हैं. फलों की पहली तोड़ाई करीब 50 दिनों बाद की जाती है. मचान बना कर खेती करने पर करीब 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है.
काशी उर्वशी : फल हलके हरे व सीधे होते हैं. पहली तोड़ाई बोआई के करीब 60 दिनों बाद की जाती है. मचान बना कर खेती करने पर करीब 225-270 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है.
प्रिया : इस के फल 40 सेंटीमीटर तक लंबे होते हैं, जो बोआई के 60 दिनों बाद तोड़ाई लायक हो जाते हैं.
कल्यानपुर बारहमासी : इस प्रजाति के फल 30-35 सेंटीमीटर तक लंबे होते हैं. यह ज्यादा उपज देने वाली प्रजाति है.
संकर प्रजातियां : विवेक (सनग्रो सीड्स), तिजारती (सेंचुरी), एमवीटीएच 101 (महिको).
बोआई का समय : मैदानी इलाकों में गरमी की फसल के लिए फरवरीमार्च में और बारिश की फसल के लिए जूनजुलाई में बोआई करते हैं. पहाड़ी इलाकों में मार्च से अप्रैल तक बोआई करते हैं.
बीज की मात्रा : 1 हेक्टेयर खेत की बोआई के लिए 5-6 किलोग्राम बीजों की जरूरत पड़ती है. कल्यानपुर बारहमासी प्रजाति (जिस के पौधे अधिक बढ़ते हैं) की बीज दर 3-4 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होती है.
बोआई : अच्छी तरह से तैयार किए गए खेत में 2-2.5 मीटर की दूरी पर 40-50 सेंटीमीटर चौड़ी नालियां बना कर नालियों के दोनों किनारों (मेंड़ों पर 45-60 सेंटीमीटर की दूरी) पर बोआई करते हैं. एक जगह पर 2-3 बीज 3-5 सेंटीमीटर की गहराई पर बोने चाहिए.
सिंचाई : सिंचाई मिट्टी की किस्म व जलवायु पर निर्भर करती है. खरीफ मौसम में खेत की सिंचाई करने की जरूरत नहीं होती, पर बारिश न होने पर सिंचाई की जरूरत पड़ती है. ज्यादा बारिश के समय पानी की निकासी के लिए नालियों का होना जरूरी है, वरना फसल नष्ट होने का खतरा होता है. ज्यादा तापमान होने के कारण मार्चअप्रैल में 7-10 दिनों के अंतराल पर और मईजून में 4-5 दिनों पर सिंचाई करनी चाहिए. पानी की कमी होने पर पत्तियां मुरझा जाती हैं.
फलों की तोड़ाई : जब फलों का रंग गहरे हरे से हलका हरा पड़ना शुरू हो जाए, तो उन की तोड़ाई के लिए सही समय माना जाता है. फलों की तोड़ाई एक तय अंतराल पर करते रहना चाहिए, ताकि फल कड़े न हों वरना उन की बाजार में मांग कम होती जाती है और साथ ही पौधों के जीवनकाल पर भी बुरा असर पड़ता है. बोने के 60-75 दिनों बाद फल तोड़ने लायक हो जाते हैं. यह काम हर तीसरे दिन करना चाहिए.
उपज : करेले की उपज प्रति हेक्टेयर करीब 150 क्विंटल तक प्राप्त हो सकती है, पर मचान पर खेती करने से करीब 30-50 क्विंटल उपज बढ़ाई जा सकती है.
करेले में कीट प्रबंधन
लाल कद्दू भृंग : यह कीट तेज चमकीला नारंगी रंग का होता है. यह आकार में करीब 7 मिलीमीटर लंबा और 4.5 मिलीमीटर चौड़ा होता है.
इस के सिर, वक्ष और उदर का निचला भाग काला होता है. इस कीट का भृंग पीलापन लिए सफेद होता है. इस का सिर हलका भूरा होता है. भृंग के पूरी तरह विकसित होने पर इस की लंबाई 12 मिलीमीटर होती है और चौड़ाई 3.5 से 4.0 मिलीमीटर होती है.
इस कीट के भृंग और वयस्क दोनों नुकसान पहुंचाते हैं. भृंग जमीन के नीचे रहते हैं और पौधों की जड़ों व तनों में छेद कर देते हैं. आमतौर पर इस के प्रौढ़ पौधों की छोटी पत्तियों को ज्यादा खाते हैं. इस कीट का हमला फरवरी से ले कर अक्तूबर तक होता है.
रोकथाम
* गरमी में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए, जिस से इस कीट के अंडे व बच्चे (भृंग) ऊपर आ जाएं और तेज गरमी से मर जाएं. पहली अवस्था में जब इस का कम प्रकोप रहता है, तब इस के वयस्कों को हाथ से पकड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.
* कार्बरिल 50 डब्ल्यूपी की 2 ग्राम मात्रा का प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. 5 फीसदी सेविन पाउडर को 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से राख में मिला कर (1:1) भुरकाव करने से भी इस कीट की रोकथाम हो जाती है.
फल मक्खी : इस मक्खी का रंग लालभूरा होता है. इस के सिर पर काले व सफेद धब्बे पाए जाते हैं और वक्ष पर हरापन लिए पीले रंग की लंबाकार मुड़ी हुई धारियां होती हैं.
मादा का उदर शंक्वाकार और नर का गोलाकार होता है.
मक्खी के पंख पारदर्शी होते हैं. करेला, टिंडा, तुरई, लौकी व तरबूज आदि को यह मक्खी नुकसान पहुंचाती है. मादा मक्खी फल के छिलके में बारीक छेद कर के अंडे देती है. अंडों से मैगेट (लार्वा) निकल कर फलों के अंदर का भाग खाते हैं. कीट फल के जिस भाग पर छेद कर के अंडे देता है, वह भाग वहां से
टेढ़ा हो कर सड़ जाता है. इस कीट के हमले से फल पूरी तरह सड़ जाता है.
रोकथाम
* खराब फलों को तोड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.
* गरमी में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए.
* 20 मिलीलीटर मैलाथियान 50 ईसी व 20 ग्राम चीनी या गुड़ को 20 लीटर पानी में मिला कर कुछ चुने हुए पौधों पर छिड़काव करना चाहिए, जिस से इन के वयस्क आकर्षित हो कर आते हैं और मर जाते हैं.
* 0.1 फीसदी कार्बरिल (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) या 0.05 फीसदी फेनथियान (1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) का छिड़काव फायदेमंद होता है, लेकिन रासायनिक दवा का छिड़काव फल तोड़ कर ही करना चाहिए.
करेले में रोग प्रबंधन
चूर्णी फफूंद (चूर्णिल आसिता) : यह खासतौर पर जाड़े वाली लौकी व कुम्हड़ों पर लगने वाला रोग है. पहला लक्षण पत्तियों व तनों की सतह पर सफेद या धुंधले धूसर धब्बों के रूप में दिखाई देता है. कुछ दिनों के बाद ये धब्बे चूर्णयुक्त हो जाते हैं. सफेद चूर्णी पदार्थ अंत में पूरे पौधे की सतह को ढक लेता है. हमले से पौधे के पत्ते गिर जाते हैं और फलों का आकार छोटा रह जाता है.
रोकथाम
* रोग ग्रस्त फसल के अवशेष जमा कर के खेत में ही जला देने चाहिए.
* बोने के लिए रोगरोधी प्रजातियों का चयन करें.
* फफूंदी नाशक दवा कैलिक्सीन की आधा मिलीलीटर मात्रा का 1 लीटर पानी में घोल बना कर 7 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें. यह दवा न होने पर पेंकोनाजोल 1 मिलीलीटर दवा 4 लीटर पानी में घोल कर 10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.
मृदुरोमिल आसिता : यह रोग ज्यादातर खीरा, परवल, खरबूजा और करेले में पाया जाता है. बारिश के मौसम के बाद जब तापमान 20-22 डिगरी सेल्सियस होता है, तब यह तेजी से फैलता है. उत्तरी भारत में इस रोग का प्रकोप ज्यादा होता है. इस रोग में पत्तियों पर कोणीय धब्बे बनते हैं, जो पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग के होते हैं.
रोकथाम
* बोने के लिए रोगरोधी प्रजातियों का इस्तेमाल करना चाहिए.
* बीजों को एप्रोन नामक कवकनाशी से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोना चाहिए.
* मैंकोजेब 0.25 फीसदी (2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी) घोल का छिड़काव करें.
* रोग के असर वाली लताओं को निकाल कर जला देना चाहिए.
फल विगलन रोग : यह रोग हर जगह पर और हर खेत में पाया जाता है. घीया, तुरई, चचींड़ा, परवल, लौकी व करेला के फलों पर कवक की ज्यादा वृद्धि हो जाने से फल सड़ने लगते हैं. जमीन पर पड़े फलों का छिलका नरम व गहरे हरे रंग का हो जाता है. नम मौसम में सड़े हुए भाग पर रुई जैसे कवक जाल बन जाते हैं.
रोकथाम
* खेत की गरमी में जुताई करें.
* हरी खाद का इस्तेमाल कर के ट्राइकोडर्मा 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालें.
* खेत में जल निकासी का इंतजाम करें.
* फलों को जमीन छूने से बचाने का इंतजाम करें.
* फसल को तार व खंभे के ऊपर चढ़ा कर (मचान पर) खेती करने से इस रोग से अच्छा बचाव होता है.
* भंडारण व परिवहन के समय फलों को चोट लगने से बचाएं. उन्हें हवादार व खुली जगह पर रखें.