देश में कृषि और किसान सदैव हाशिए पर रहा है. सरकारों से ले कर सरोकारों से मतलब रखने वाली पत्रपत्रिकाओं और टैलीविजन चैनलों द्वारा भी किसानों और उस की समस्याओं को पर्याप्त तरजीह नहीं मिल पाई. यही वजह है कि देश की खेती लगातार घाटे से जूझती रही. जिस का परिणाम रहा कि आएदिन सिर्फ किसानों की खुदकुशी और खेती से पलायन की खबरें ही लोगों तक पहुंचती रहीं.

बीते दसकों में अखबारों, पत्रपत्रिकाओं और टीवी चैनलों की खबरों में खेती से जुडी खबरों को उतनी तरजीह नहीं मिल पाई है, जितनी राजनीति, क्राइम, साहित्य और अन्य खबरों को दी गई. ऐसे में इन मीडिया संस्थानों का जुड़ाव भी किसानों से नहीं हो पा रहा था. किसान अखबारों, टीवी चैनलों और पत्रपत्रिकाओं में खुद को खोजता था. कृषि की नवीनतम जानकारी और सफल किसानों के बारे में जानना चाहता था. अपनी समस्याओं के समाधान और अखबारों, पत्रिकाओं व टीवी चैनलों के जरीए सरकार तक पैरोकारी किए जाने की चाहत रख कर पढ़ना चाहता था,जो उसे यदाकदा ही मिल पाता था. इसलिए किसान की दूरी भी इन पत्रपत्रिकाओं और टीवी चैनलों से बनी रही.

आज के मीडिया घराने राजनीति, अपराध और साहित्य के साथ ही पूरी तरह से खेतीबारी और गांवों पर केंद्रित हो कर चल रहे है, क्योंकि उन्हें पता है कि अगर खेती को खबरों का केंद्रबिंदु ना बनाया गया, तो आने वाले दिनों में देश ही नहीं, बल्कि दुनिया के सामने खाद्यान्न संकट खड़ा हो सकता है. इसीलिए मीडिया ने गांव, किसान और खेती को अपना केंद्रबिंदु बनाना शुरू किया है, जो खेती और किसानों के शुभ संकेत हैं. इस का सीधा फायदा किसानों को मिलने भी लगा है. इसी का परिणाम रहा है कि सरकारें भी गंभीरता से खेतीकिसानी से जुड़े मुद्दों पर नीतियां बनाने लगी है. या यों कह लिया जाए कि गांव, किसान और खेतीबारी ही चुनावों के प्रमुख मुद्दे बन कर उभरे हैं.

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