भारत की आधी से ज्यादा आबादी खेती या खेती से संबंधित कामों में लगी है. आजादी के बाद से ही तमाम सरकारों ने किसानों के लिए काफी काम किया, लेकिन आजादी के लगभग 75 साल बीत जाने के बाद भी आम किसान आज भी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाया है. इस की कई वजहें हो सकती हैं.

देश के ज्यादातर किसानों के पास जो खेती वाली जमीनें हैं, उन का आकार काफी छोटा है. इस वजह से फसल उत्पादन प्रभावित होता है. इस से बचने के लिए सरकार ने चकबंदी का नियम बनाया है.

क्या है चकबंदी : भोपाल के तहसीलदार हरिशंकर विश्वकर्मा ने बताया कि चकबंदी यानी चकों का फैलाव है. इस में जमीनों के अलगअलग टुकड़ों को एकसाथ आपस में मिला दिया जाता है, ताकि बड़े खेतों पर अच्छी तरह से खेती की जा सके और उत्पादन को अधिकतम किया जा सके.

किसानों की अहम समस्या यह है कि ज्यादातर भूमिहीन हैं. जिन किसानों के पास जमीन है भी तो उन के जोत छोटे होते हैं. बहुत ही कम ऐसे किसान हैं जिन की जमीनों का आकार 2 या 3 एकड़ से ज्यादा का है.

चकबंदी से किसानों के लिए खेती के काम आसान हो जाते हैं. साथ ही, समय की बचत होने के साथसाथ चक की निगरानी करने में भी आसानी हो जाती है. इस प्रक्रिया से उन जमीनों की भी बचत हो जाती है जो बिखरे हुए खेतों की मेंड़ों से घिर जाती है.

छोटे खेतों में खेती करना किसानों के लिए वाकई कई तरह की समस्या पैदा करता है, क्योंकि छोटे जोत में ट्रैक्टर से जुताई नहीं हो पाती. अगर जुताई होती भी है तो खेत के चारों तरफ के किनारे छूट जाते हैं. इस से किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है, लेकिन चकबंदी से ऐसा नहीं हो पाता.

देश में लघु या सीमांत किसानों की तादाद काफी ज्यादा है. लघु किसान उन किसानों को कहते हैं जिन की जोत का आकार 1 हेक्टेयर से 2 हेक्टेयर के बीच होता है. वहीं सीमांत किसानों में उन किसानों को शामिल किया जाता है, जिन की खेती लायक जमीन का आकार 1 हेक्टेयर से भी कम होता है.

अगर आप जोत संबंधी आंकड़ों की बात करें तो पाएंगे कि इन की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है जो मालीतौर पर न किसानों के हित में है और न ही देश के लिए फायदेमंद है.

दुख की बात यह है कि वर्तमान समय में तकरीबन 80 फीसदी किसान परिवार लघु या सीमांत किसान तबकों से संबंधित हैं.

ऐसे छोटे किसानों की तादाद बहुत ज्यादा है, लेकिन छोटी जोत होने की वजह से इन की आमदनी कम होती जा रही है. छोटी जोत के लिए परिवार का बड़ा होना सब से महत्त्वपूर्ण वजह है.

मान लिया जाए कि एक परिवार के पास 10 हेक्टेयर खेती लायक जमीन है, जो आगे चल कर उस परिवार के हर सदस्य को बराबर भागों में बांट दी जाती है और यह प्रक्रिया निरंतर चल रही है.

एक ओर तो इन की तादाद इतनी ज्यादा है कि सामाजिक नजरिए से इन की बहुत ज्यादा अहमियत है वहीं दूसरी ओर खेती लायक जमीन का तकरीबन 52.3 फीसदी हिस्सा उन के पास होने से मालीतौर पर अधिक महत्त्व है.

इतिहास : सब से पहले चकबंदी का काम प्रायोगिक तौर पर साल 1920 में पंजाब में हुआ था. सरकारी संरक्षण में सहकारी समितियां बनीं ताकि चकबंदी का काम ऐच्छिक आधार पर किया जा सके.

आमतौर पर यह प्रयोग कामयाब रहा, लेकिन यह जरूरी समझा गया कि पंजाब चकबंदी कानून 1936 में पास किया जाए जिस से अधिकारियों को योजना और काश्तकारों के मतभेदों का फैसला करने का हक मिल जाए.

साल 1928 में ‘रौयल कमीशन औन एग्रीकल्चर इन इंडिया’ ने, जिसे इस का अधिकार नहीं था कि वह जमीन की मिल्कीयत में कोई बदलाव करे, यह संस्तुति कर दी कि दूसरे राज्यों में भी चकबंदी योजना को अपना लिया जाए. लेकिन कुछ राज्यों को छोड़ कर कहीं और कामयाबी नहीं मिल सकी.

आजादी के बाद बंबई (अब मुंबई) में पहली बार साल 1947 में पास एक कानून से सरकार को यह हक मिल गया कि वह जहां बेहतर समझे चकबंदी का काम लागू कर सकती है. ऐसे राज्यों में पंजाब 1948, उत्तर प्रदेश 1953 और 1958, पश्चिम बंगाल 1955, बिहार और हैदराबाद 1956 शामिल हैं.

शुरू की तीनों पंचवर्षीय योजनाओं में चकबंदी का काम किया गया. मई, 1957 में भारत सरकार ने यह ऐलान कर दिया कि वह राज्यों में चकबंदी का काम लागू करने के लिए बहुत सीमा तक मालीतौर पर मदद देने को तैयार है.

इस का सकारात्मक नतीजा देखने को मिला. जहां 1956 के आखिर तक भारत का कुल चकबंदी क्षेत्र 110.09 लाख एकड़ था, वहीं साल 1960 के आखिर तक बढ़ कर 230.19 लाख एकड़ हो गया था.

योजना का असर व फायदा

तहसीलदार हरिशंकर विश्वकर्मा ने बताया कि आमतौर पर किसानों को लगता है कि चकबंदी होने से सिर्फ नुकसान होता है, जबकि ऐसा बिलकुल भी नहीं है. ऐसा जानकारी की कमी में कहते हैं.

वे आगे कहते हैं कि चकबंदी होने से आप की जमीन से कुछ प्रतिकर लिया जाता है, लेकिन आप का सब से बड़ा फायदा यह होता है कि जो जमीन जहांतहां फैली है और आप खेत दूर होने या काफी छोटे होने की वजह से फसल नहीं उगा पाते, चकबंदी से आप की सारी जमीन के टुकड़े एक जगह जमा कर के दे दिए जाते हैं.

संहत जोत यानी जोत इकट्ठा करना : किसानों की जगहजगह बिखरी हुई जोतों को एक जगह पर संहत यानी इकट्ठा कर दिया जाता है, इस से चकों की तादाद में कमी होती है, जिस से खेती के काम करना आसान हो जाता है.

उत्पादन में बढ़ोतरी : जोतों के एक जगह पर जमा हो जाने से किसान अपने सीमित संसाधनों को प्रभावी ढंग से इस्तेमाल करने लगते हैं, जिस से खेती के कामों में आसानी के साथसाथ खेती उत्पादन में भी बढ़ोतरी होती है.

जमीन के झगड़ों में कमी : गांवों में खेतों के बंटवारे को ले कर अकसर झगड़ा होता है. कहीं खातों को ले कर तो कहीं गाटों के संबंध में होता है, जो चकबंदी के बाद कम या फिर खत्म हो जाती है.

कृषि औजार : चकबंदी प्रक्रिया के दौरान सिंचाई के लिए हर एक चक को नाली और पानी के निकलने की सुविधा के लिए चक मार्ग की सुविधा हासिल होती है, जिस से किसानों को फसल उत्पादन में आसानी हुई है.

सार्वजनिक फायदा : चकबंदी प्रक्रिया के दौरान भूमिहीन, निर्बल व दलित तबके को बसाने के साथसाथ अन्य सार्वजनिक प्रयोजन जैसे पंचायतघर, खेल का मैदान, खाद के गड्ढे, स्कूल, अस्पताल वगैरह के लिए जमीन आरक्षित की गई है.

पर्यावरण पर असर : चकबंदी के दौरान पेड़ लगाने के लिए भी जमीन आरक्षित की जाती है, जो हमारे पर्यावरण संतुलन के लिए काफी अहम होता है.

ऐसे होती है चकबंदी : तहसीलदार हरिशंकर विश्वकर्मा ने बताया कि धारा (4) के प्रकाशन या चकबंदी में गांव को लेने से ले कर धारा (52) यानी चक आवंटन तक की कई प्रक्रियाएं होती हैं. पूरी प्रक्रिया में तकरीबन 2 से 3 साल का समय लग जाता है क्योंकि इस प्रक्रिया में कई तरह की आपत्तियों का निस्तारण यानी हल भी करना होता है.

उन्होंने बताया कि आकार पत्र बंटने के बाद गांव की जमीनों का सर्वे एक टीम करती है. इस में चैन मैन, आयतकर्ता, आरओ होते हैं. इन के सर्वे के बाद पटवारी, लेखपाल गांव के हर नंबरों के साथ इन के मालिकों के नाम लिखते हैं. उस के बाद कानूनगो गांव में जा कर नंबर में मौजूद बोरिंग, पेड़, मकान, खड़ी फसल वगैरह की जांचपड़ताल करते हैं, फिर वहीं मकान व बाग और सड़क के किनारे की जमीनों को अचक यानी चकबंदी से बाहर कर देते हैं.

इस के बाद सहायक चकबंदी अधिकारी गांव में जा कर गांव वालों के सामने ही जमीन की कीमत का मूल्यांकन करते हैं. चकों का मूल्यांकन आना में किया जाता है. जैसे सब से अच्छी चक को 16 आना, उस के बाद 14 आना. इस में गांव के सब से अच्छे चक को 100 अंक दिए जाते हैं, बाकी के सभी चकों का उसी अनुपात में मूल्यांकन होता है. गांव में अगर कोई चक और उसी के बराबर का मूल्य निकाला जाता?है तो उस का भी मूल्यांकन 100 ही लगाया जाता है.

इस के बाद गांव के लिए पूरी जमीन का 5 फीसदी हिस्सा रिजर्व करते हुए इसे सामाजिक कामों के लिए ग्राम समाज के नाम से घोषित कर दिया जाता है. इस के बाद सहायक चकबंदी अधिकारी, लेखपाल और कानूनगो की मौजूदगी में पूरे गांव के लोगों के सामने चकों का आवंटन होता है और सब को उन के चक नाम कर दे दिए जाते हैं.

एक तरफ जहां चकबंदी के अनेक फायदे हैं, वहीं इस से परेशानी भी कम नहीं होती क्योंकि हर भूस्वामी चाहता है कि उसे पहले तो उस की ही जमीन मिल जाए, अगर उस की जमीन कम उपजाऊ है तो वह अधिकारियों से मिलीभगत कर के अच्छे चक कटवा लेता है.

अकसर लोग सड़कों के किनारे वाली जमीन की मांग करते हैं, फिर मुलाजिम से ले कर अफसर तक उस से मनपसंद जमीन के लिए रिश्वत की मांग करते हैं.

इन सब के बावजूद पूरा लब्बोलुआब यही निकलता है कि चकबंदी से हर तरह से फायदा ही होता है, न कि नुकसान. एक जगह खेतों के होने से लागत कम आती है वहीं समय की बचत भी होती है.

एक ही समय में आप अपने खेतों की आसानी से निगरानी भी कर सकते हैं. साथ ही, सामाजिक कामों के लिए चकबंदी के जरीए काफी जमीन मिल जाती है, जिस में ग्राम प्रधान स्कूल, खेत के मैदान, पानी की टंकी, पंचायतघर, चरागाह, अस्पताल वगैरह बनवा सकते हैं.

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