किसी भी फसल का उत्पादन उस को समय से दी जाने वाली सिंचाई पर निर्भर करता है. किसान भले ही खेती में उन्नत बीज और तकनीकी का प्रयोग कर लें, लेकिन फसल की सिंचाई समय पर न की जाए, तो फसल के पूरी तरह से नष्ट होने का खतरा बना रहता है.

खेती में जिस तरह दिनोंदिन लागत बढ़ रही है, उसी तरह से खेती में आने वाली सिंचाई की लागत भी बढ़ी है जहां डीजल की कीमतें आसमान छू रही हैं वहीं बिजली बिल की बढ़ी कीमतें भी सिंचाई लागत बढ़ने का कारण बनी हैं.

इस के साथ ही सिंचाई के लिए उपयोग में लाए जाने वाले डीजल इंजन व बिजली मीटर के रखरखाव व मेंटेनैंस पर अलग से खर्च करना पड़ता है. ऐसे में किसानों को फसल की सिंचाई के लिए वैकल्पिक साधनों के उपयोग की तरफ कदम बढ़ाने की ज्यादा जरूरत है.

बिहार भूजल के मामले में एक धनी राज्य है, फिर भी इतनी विशाल उपलब्धता के बावजूद पानी का उपयोग सिंचाई और घरेलू खपत के लिए निर्मित बुनियादी ढांचे की लागत पर निर्भर करता है. यहां आज भी पारंपरिक रूप से ज्यादातर हिस्से में डीजल आधारित पंप सैटों से ही सिंचाई की जाती है. ऐसी स्थिति में एक डीजल पंप संचालक किसानों से किराए के रूप में 180 रुपए प्रति घंटे तक ले लेता है.

यह प्रति घंटे सिंचाई की लागत दर भी भौगोलिक बनावट और मौसम के हिसाब से बदलती रहती है. यहां ज्यादातर बोरिंग उथले पानी की सतह में स्थापित किए जाते हैं, इसलिए गरमी के मौसम में पानी की उपलब्धता कम हो पाती है. सामाजिक, आर्थिक स्थितियों, जलवायु परिस्थितियों और छोटे किसानों की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए सिंचाई के लिए ऊर्जा के अपरंपरागत स्रोत अधिक विश्वसनीय हैं.

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