Agricultural Waste : खेती के कचरे को बनाएं कमाई का जरीया

Agricultural Waste : चावल निकालने के बाद बची धान की भूसी पहले भड़भूजों की भट्ठी झोंकने में जलावन के काम आती थी, लेकिन अब मदुरै, तिरूनवैल्ली और नमक्कन आदि में उस से राइस ब्रान आयल यानी खाना पकाने में काम आने वाला कीमती तेल बन रहा है. इसी तरह गेहूं का भूसा व गन्ने का कचरा जानवरों को चारे में खिलाते थे, लेकिन अब उत्तराखंड के काशीपुर में उस से उम्दा जैव ईंधन 2जी एथनाल व लिग्निन बन रहा है.

फिर भी खेती के कचरे को बेकार का कूड़ा समझ कर ज्यादातर किसान उसे खेतों में जला देते हैं, लेकिन उसी कचरे से अब बायोमास गैसीफिकेशन के पावर प्लांट चल रहे हैं. उन में बिजली बन रही है, जो राजस्थान के जयपुर व कोटा में, पंजाब के नकोदर व मोरिंडा में और बिहार आदि राज्यों के हजारों गांवों में घरों को रोशन कर रही है. स्वीडन ऐसा मुल्क है, जो बिजली बनाने के लिए दूसरे मुल्कों से हरा कचरा खरीद रहा है.

तकनीकी करामात से आ रहे बदलाव के ये तो बस चंद नमूने हैं. खेती का जो कचरा गांवों में छप्पर डालने, जानवरों को खिलाने या कंपोस्ट खाद बनाने में काम आता था, अब उस से कागज बनाने वाली लुग्दी, बोर्ड व पैकिंग मैटीरियल जैसी बहुत सी चीजें बन रही हैं. साथ ही खेती का कचरा मशरूम की खेती में भी इस्तेमाल किया जाता है.

धान की भूसी से तेल व सिलकान, नारियल के रेशे से फाइबर गद्दे, नारियल के छिलके से पाउडर, बटन व बर्तन और चाय के कचरे से कैफीन बनाया जाता है यानी खेती के कचरे में बहुत सी गुंजाइश बाकी है. खेती के कचरे से डीजल व कोयले की जगह भट्ठी में जलने वाली ठोस ब्रिकेट्स यानी गुल्ली अपने देश में बखूबी बन व बिक रही है. खेती के कचरे की राख से मजबूत ईंटें व सीमेंट बनाया जा सकता है.

Agricultural Wasteजानकारी की कमी से भारत में भले ही ज्यादातर किसान खेती के कचरे को ज्यादा अहमियत न देते हों, लेकिन अमीर मुल्कों में कचरे को बदल कर फिर से काम आने लायक बना दिया जाता है. इस काम में कच्चा माल मुफ्त या किफायती होने से लागत कम व फायदा ज्यादा होता है. नई तकनीकों ने खेती के कचरे का बेहतर इस्तेमाल करने के कई रास्ते खोल दिए हैं. लिहाजा किसानों को भरपूर फायदा उठाना चाहिए.

कचरा है सोने की खान

अमीर मुल्कों में डब्बाबंद चीजें ज्यादा खाते हैं, लेकिन भारत में हर व्यक्ति औसतन 500 ग्राम फल, सब्जी आदि का हरा कचरा रोज कूड़े में फेंकता है. यानी कचरे का भरपूर कच्चा माल मौजूद है, जिस से खाद, गैस व बिजली बनाई जा सकती है. खेती के कचरे को रीसाइकिल करने का काम नामुमकिन या मुश्किल नहीं है.

खेती के कचरे का सही निबटान करना बेशक एक बड़ी समस्या है. लिहाजा इस का जल्द, कारगर व किफायती हल खोजना बेहद जरूरी है. खेती के कचरे का रखरखाव व इस्तेमाल सही ढंग से न होने से भी किसानों की आमदनी कम है.

किसानों का नजरिया अगर खोजी, नया व कारोबारी हो जाए, तो खेती का कचरा सोने की खान है. देश के 15 राज्यों में बायोमास से 4831 मेगावाट बिजली बनाई जा रही है. गन्ने की खोई से 5000 मेगावाट व खेती के कचरे से 17000 मेगावाट बिजली बनाई जा सकती है. उसे नेशनल ग्रिड को बेच कर किसान करोड़ों रुपए कमा सकते हैं. 10 क्विंटल कचरे से 300 लीटर एथनाल बन रहा है. लिहाजा खेती के कचरे को जलाने की जगह उस से पैसा कमाया जा सकता है, लेकिन इस के लिए किसानों को उद्यमी भी बनना होगा.

Agricultural Wasteफसलों की कटाई के बाद तने, डंठल, ठूंठ, छिलके व पत्ती आदि के रूप में बहुत सा कचरा बच जाता है. खेती में तरक्की से पैदावार बढ़ी है. उसी हिसाब से कचरा भी बढ़ रहा है. खेती के तौरतरीके भी बदले हैं. उस से भी खेती के कचरे में इजाफा हो रहा है. मसलन गेहूं, धान वगैरह की कटाई अब कंबाइन मशीनों से ज्यादा होने लगी है. लिहाजा फसलों के बकाया हिस्से खेतों में ही खड़े रह जाते हैं. उन्हें ढोना व निबटाना बहुत टेढ़ी खीर है.

गेहूं का भूसा, धान की पुआल, गन्ने की पत्तियां, मक्के की गिल्ली और दलहन, तिलहन व कपास आदि रेशा फसलों का करीब 5000 टन कचरा हर साल बचता है. इस में तकरीबन चौथाई हिस्सा जानवरों को चारा खिलाने, खाद बनाने व छप्पर आदि डालने में काम आ जाता है. बाकी बचे 3 चौथाई कचरे को ज्यादातर किसान बेकार मान कर खेतों में जला कर फारिग हो जाते हैं, लेकिन इस से सेहत व माहौल से जुड़े कई मसले बढ़ जाते हैं.

जला कर कचरा निबटाने का तरीका सदियों पुराना व बहुत नुकसानदायक है. इस जलावन से माहौल बिगड़ता है. बीते नवंबर में दिल्ली व आसपास धुंध के घने बादल छाने से सांस लेना दूभर हो गया था. आगे यह समस्या और बढ़ सकती है. लिहाजा आबोहवा को बचाने व खेती से ज्यादा कमाने के लिए कचरे का बेहतर इस्तेमाल करना लाजिम है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के बागबानी महकमे ने ऐसे कई तरीके निकाले हैं, जिन से कचरा कम निकलता है.

चाहिए नया नजरिया

उद्योगधंधों में छीजन रोक कर लागत घटाने व फायदा बढ़ाने के लिए वेस्ट मैनेजमेंट यानी कचरा प्रबंधन, रीसाइकलिंग यानी दोबारा इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है. कृषि अपशिष्ट प्रबंधन यानी खेती के कचरे का सही इंतजाम करना भी जरूरी है. कचरे को फायदेमंद बनाने के बारे में किसानों को भी जागरूक होना चाहिए. इंतजाम के तहत हर छोटी से छोटी छीजन को रोकने व उसे फायदे में तब्दील करने पर जोर दिया जाता है.

अपने देश में ज्यादातर किसान गरीब, कम पढ़े व पुरानी लीक पर चलने के आदी हैं. वे पोस्ट हार्वेस्ट टैक्नोलोजी यानी कटाई के बाद की तकनीकों की जगह आज भी सदियों पुराने घिसेपिटे तरीके ही अपनाते रहते हैं. इसी कारण वे अपनी उपज की कीमत नहीं बढ़ा पाते, वे उपज की प्रोसेसिंग व खेती के कचरे का सही इंतजाम व इस्तेमाल भी नहीं कर पाते.

ज्यादातर किसानों में जागरूकता की कमी है. उन्हें खेती के कचरे के बेहतर इस्तेमाल की तनकीकी जानकारी नहीं है. ऊपर से सरकारी मुलाजिमों का निकम्मापन, भ्रष्टाचार व ट्रेनिंग की कमी रास्ते के पत्थर हैं. लिहाजा खेती का कचरा फुजूल में बरबाद हो जाता है. इस से किसानों को माली नुकसान होता है, गंदगी बढ़ती है व आबोहवा खराब होती है.

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सरकार ने खेती का कचरा बचाने के लिए राष्ट्रीय पुआल नीति बनाई थी. इस के तहत केंद्र के वन एवं पर्यावरण, ग्रामीण विकास व खेती के महकमे राज्यों को माली इमदाद देंगे, ताकि खेती के कचरे का रखरखाव आसान करने की गरज से उसे ठोस पिंडों में बदला जा सके. लेकिन सरकारी स्कीमें कागजों में उलझी रहती हैं. खेती के कचरे से उम्दा, असरदार व किफायती खाद बनाई जा सकती है.

Agricultural Waste

अकसर किसानों को दूसरी फसलें बोने की जल्दी रहती है, लिहाजा वे कचरे को खेतों में सड़ा कर उस की खाद बनाने के मुकाबले उसे जलाने को सस्ता व आसान काम मानते हैं. मेरठ के किसान महेंद्र की दलील है कि फसलों की जड़ें खेत में जलाने से कीड़ेमकोड़े व उन के अंडे भी जल कर खत्म हो जाते हैं, लिहाजा अगली फसल पर हमला नहीं होता.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नई दिल्ली के वैज्ञानिक खेतों में कचरा जलाना नुकसानदायक मानते हैं. चूंकि इस से मिट्टी को फायदा पहुंचाने वाले जीव खत्म होते हैं, लिहाजा किसान खेती का कचरा खेत में दबा कर सड़ा दें व बाद में जुताई कर दें तो वह जीवांश खाद में बदल जाता है. रोटावेटर मशीन कचरे को काट कर मिट्टी में मिला देती है.

आलू व मूंगफली की जड़ों, मूंग व उड़द की डंठलों और केले के कचरे आदि से बहुत बढि़या कंपोस्ट खाद बनती है. खेती के कचरे को किसी गड्ढे में डाल कर उस में थोड़ा पानी व केंचुए डालने से वर्मी कंपोस्ट बन जाती है, लेकिन ज्यादातर किसान खेती के कचरे से खाद बनाने को झंझट व अंगरेजी खाद डालने को आसान मानते हैं.

ऐसा करें किसान

तकनीक की बदौलत तमाम मुल्कों में अब कचरे का बाजार तेजी से बढ़ रहा है. इस में अरबों रुपए की सालाना खरीदफरोख्त होती है. लिहाजा बहुत से मुल्कों में कचरा प्रबंधन, उस के दोबारा इस्तेमाल व कचरे से बने उत्पादों पर खास ध्यान दिया जा रहा है. अपने देश में भी नई तकनीकें, सरकारी सहूलियतें व मशीनें मौजूद हैं. लिहाजा किसान गांव में ही कचरे की कीमत बढ़ाने वाली इकाइयां लगा कर खेती से ज्यादा धन कमा सकते हैं.

खेती के कचरे से उत्पाद बनाने के लिए किसान पहले माहिरों व जानकारों से मिलें, कचरा प्रबंधन व उसे रीसाइकिल करने की पूरी जानकारी हासिल करें, पूरी तरह से इस काम को सीखें और तब पहले छोटे पैमाने पर शुरुआत करें. तजरबे के साथसाथ वे इस काम को और भी आगे बढ़ाते जाएं.

कृषि अपशिष्ट प्रबंधन आदि के बारे में खेती के रिसर्च स्टेशनों, कृषि विज्ञान केंद्रों व जिलों की नवीकरणीय उर्जा एजेंसियों से जानकारी मिल सकती है. पंजाब के कपूरथला में सरदार स्वर्ण सिंह के नाम पर चल रहे जैव ऊर्जा के राष्ट्रीय संस्थान में नई तकनीकों के बारे में बढ़ावा व ट्रेनिंग देने आदि का काम होता है.

पूंजी इस तरह जुटाएं

किसान अकेले या आपस में मिल कर पूंजी का इंतजाम कर सकते हैं. सहकारिता की तर्ज पर इफको, कृभको, कैंपको व अमूल आदि की तरह से ऐसे कारखाने लगा सकते हैं, जिन में खेती के कचरे का बेहतर इस्तेमाल किया जा सके. खाने लायक व चारा उपज के अलावा होने वाली पैदावार व खरपतवारों से जैव ऊर्जा व ईंधन बनाने वाली बायोमास यूनिटों को सरकार बढ़ावा दे रही है. लिहाजा सरकारी स्कीमों का फायदा उठाया जा सकता है.

केंद्र सरकार का नवीकरण ऊर्जा महकमा भारतीय अक्षय ऊर्जा विकास संस्था, इरेडा, लोधी रोड, नई दिल्ली फोन 911124682214 के जरीए अपनी स्कीमों के तहत पूंजी के लिए माली इमदाद 15 करोड़ रुपए तक कर्ज व करों की छूट जैसी कई भारीभरकम सहूलियतें देता है. जरूरत आगे बढ़ कर पहल करने व फायदा उठाने की है.

मशीनें

खेती के कचरे की प्रोसेसिंग कर के उस की गैस से बिजली व ठोस से ब्रिकेट बनाने में काम आने वाली मशीनों व औजारों आदि के लिए उद्यमी किसान निम्न पतों पर संपर्क कर सकते हैं:

* मैं. एडवांस हाईड्राउ टेक, प्रा. लि. बी 91, मंगोलपुरी, इंडस्ट्रियल एरिया, फेज 2, नई दिल्ली-110034.

फोन 91-11-4757100-99

* मैं. टेक्नोकैम इंजीनियरिंग प्रा. लि. चैतन्यपुरी, हैदराबाद, मो. 08071676221.

* मैं. अली इंजी, वर्क्स, अहमदगढ़, लुधियाना, मो. 08071682911.

* मैं. रौनक इंजी. 275, निकट ग्रेविटी कास्टिंग, राजकोट, गुजरात, मो. : 08048601411.

Brinjal : बैगन की आधुनिक खेती

गरमी के मौसम की खास सब्जियों में बैगन, टमाटर, भिंडी व कद्दू वर्गीय सब्जियां शामिल हैं. बैगन (Brinjal) का आमतौर पर सब्जी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. इस के अलावा इस का इस्तेमाल भरता, पकौड़े, अचार कलौंजी बनाने में भी किया जाता है. इस में कुछ औषधीय गुण भी पाए जाते हैं. यह भूख बढ़ाने वाला और कफ के लिए फायदेमंद बताया गया है. सफेद बैगन की सब्जी डाइबिटीज के रोगियों के लिए फायदेमंद पाई गई है.

बैगन (Brinjal) का जन्म मध्य अमेरिका में माना जाता है. यह भारत में 4000 सालों से बोया जा रहा है. बैगन में सब से जयादा नुकसान चोटी व फल छेदक कीट के द्वारा होता है.

इस कीट के कारण करीब 60-70 फीसदी पौधों को नर्सरी से ले कर फलों की तोड़ाई तक नुकसान उठाना पड़ जाता है. यह कीट बढ़ते पौधों की नईनई कलियों को खाता है और फलों में सुराख कर के उन को नुकसान पहुंचाता है. बैगन की अच्छी उपज व ज्यादा आमदनी के लिए उन्नतशील किस्मों की वैज्ञानिक तरीकों से खेती करना आवश्यक है.

भूमि का चुनाव और तैयारी

बैगन की अच्छी उपज के लिए गहरी दोमट भूमि जिस में जल निकास का सही इंतजाम हो, सब से अच्छी समझी जाती है. भूमि की तैयारी के लिए पहली जुताई डिस्क हैरो से और 3 से 4 जुताइयां कल्टीवेटर से कर के पाटा लगा दें. खेत की तैयारी के समय पुरानी फसल के बचे भागों को इकट्ठा कर के जला दें जिस से कीटों व बीमारियों का प्रकोप कम हो.

खाद व उर्वरक

बैगन में खाद व उर्वरक  की मात्रा इस की किस्म, स्थानीय जलवायु व मिट्टी की किस्म पर निर्भर करती है. अच्छी फसल के लिए 8 से 10 टन सड़ी गोबर की खाद खेत को तैयार करते समय प्रति हेक्टेयर की दर से डालें.

80 किलोग्राम नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी तय मात्रा खेत की आखिरी जुताई के समय डालें. बची नाइट्रोजन को 2 भागों में बांट कर 30 व 45 दिनों बाद खरपतवार नियंत्रण के बाद खड़ी फसल में छिड़क दें.

बीज की मात्रा

1 हेक्टेयर में फसल की रोपाई के लिए 250 से 300 ग्राम बीजों की जरूरत होती है. बीजों को  पौधशाला में बो कर पौधे तैयार किए जाते हैं.

बोआई व रोपाई

उत्तर भारत में बैगन लगाने का सही समय जूनजुलाई है. अच्छी तरह से तैयार खेत में सिंचाई के साधन के अनुसार क्यारियां बना लें. क्यारियों में लंबे फल वाली प्रजातियों के लिए 70 से 75 सेंटीमीटर और गोल फल वाली किस्मों के लिए 90 सेंटीमीटर की दूरी पर पौधों की रोपाई करें. रोपाई के समय यह ध्यान रखें कि पौधे कीट व रोग रहित हों. वर्षा के अनुसार रोपाई मेंड़ों या समतल क्यारियों में करें.

सिंचाई

रोपाई के बाद फुहारे की सहायता से पौधों के थालों में 2 से 3 दिनों तक सुबह और शाम के वक्त हलका पानी दें. इस के बाद हलकी सिंचाई करें ताकि पौधे जमीन में अच्छी तरह जड़ पकड़ लें. बाद में जरूरतानुसार सिंचाई करते रहें. साधारणतया गरमी के मौसम में 10 से 15 दिनों और सर्दी के मौसम में 15 से 20 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें. यदि पौधे मेड़ों पर लगाए गए हैं, तो सिंचाई आधी मेड़ तक करें और सिंचाई का अंतर कम रखें. बारिश के मौसम में यदि बारिश अधिक हो रही हो, तो खेत से पानी निकालने के लिए निकास नाली की सही व्यवस्था होनी चाहिए.

Mango Orchards : आम के बागों में कीड़ों व रोगों की रोकथाम जरूरी

Mango Orchards : आम की बागबानी में स्वस्थ्य और अच्छी उपज लेने के लिए कीटरोगों की रोकथाम समय रहते कर देनी चाहिए अन्यथा आम की मिठास कड़वाहट में बदलने में समय नहीं लगेगा.

कीड़ों की रोकथाम

भुनगा: इस कीट के बच्चे व वयस्क दोनों ही मुलायम टहनियों, पत्तियों व फूलों का रस चूसते हैं. इस की वजह से फूल सूख कर गिर जाते हैं. यह कीट एक प्रकार का मीठा पदार्थ निकालता है, जो पेड़ों की पत्तियों, टहनियों आदि पर लग जाता है. इस मीठे पदार्थ पर काली फफूंदी पनपती है, जो पत्तियों पर काली परत के रूप में फैल कर पेड़ों के प्रकाश संश्लेषण पर खराब असर डालती है.

इलाज : बाग से खरपतवार हटा कर उसे साफसुथरा रखें. घने बाग की कटाईछंटाई दिसंबर में करें. बौर फूटने के बाद बागों की बराबर देखभाल करें. पुष्पगुच्छ की लंबाई 8-10 सेंटीमीटर होने पर भुनगे का प्रकोप होता है. इस की रोकथाम के लिए 0.005 फीसदी इमिडा क्लोप्रिड का पहली बार छिड़काव करें. 0.005 फीसदी थायामेथोक्लाज या 0.05 फीसदी प्रोफेनोफास का दूसरा छिड़ाकाव फल लगने के बाद करें.

गुजिया: इस के बच्चे और वयस्क पत्तियों व फूलों का रस चूसते हैं. जब इन की तादाद ज्यादा हो जाती है, तो इन के द्वारा रस चूसे जाने के कारण पेड़ों की पत्तियां व बौर सूख जाते हैं और फल नहीं लगते हैं. इस कीट का हमला दिसंबर से मई महीने तक देखा जाता है.

इलाज : खरपतवारों और अन्य घासों को नवंबर में जुताई द्वारा बाग से निकालने से सुप्तावस्था में रहने वाले अंडे धूप, गरमी व चीटियों द्वारा नष्ट हो जाते हैं. दिसंबर के तीसरे हफ्ते में पेड़ के तने के आसपास 250 ग्राम क्लोरपाइरीफास चूर्ण 1.5 फीसदी प्रति पेड़ की दर से मिट्टी में मिला देने से अंडों से निकलने वाले निम्फ मर जाते हैं. पालीथीन की 30 सेंटीमीटर चौड़ी पट्टी पेड़ के तने के चारों ओर जमीन की सतह से 30 सेंटीमीटर ऊंचाई पर दिसंबर के दूसरेतीसरे हफ्ते में गुजिया के निकलने से पहले लपेटने से निम्फों का पेड़ों पर ऊपर चढ़ना रुक जाता है. पट्टी के दोनों सिरों को सुतली से बांधना चाहिए. इस के बाद थोड़ी ग्रीस पट्टी के निचले घेरे पर लगाने से गुजिया को पट्टी पर चढ़ने से रोका जा सकता है. यह पट्टी बाग में मौजूद सभी आम के पेड़ों व अन्य पेड़ों पर भी बांधनी चाहिए. अगर किसी वजह से यह विधि नहीं अपनाई गई और गुजिया पेड़ पर चढ़ गई, तो ऐसी हालत में 0.05 फीसदी कार्बोसल्फान 0.2 मिलीलीटर प्रति लीटर या 0.06 फीसदी डायमेथोएट 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर का छिड़काव करें.

Mango Orchards

पुष्प गुच्छ मिज : आम के पेड़ों पर मिज के प्रकोप से 3 चरणों में हानि होती है. इस का पहला प्रकोप कली के खिलने की अवस्था में होता है. नए विकसित बौर में अंडे दिए जाने व लार्वा द्वारा बौर के मुलायम डंठल में घुसने से बौर पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं. इस का दूसरा प्रकोप फलों के बनने की अवस्था में होता है. फलों में अंडे देने व लार्वा के घुसने की वजह से फल पीले हो कर गिर जाते हैं. तीसरा प्रकोप बौर को घेरती हुई पत्तियों पर होता है.

इलाज : अक्तूबर व नवंबर में बाग में की गई जुताई से मिज की सूंडि़यों के साथ सोए पड़े प्यूपे भी नष्ट हो जाते हैं. जिन बागों में इस कीट का हमला होता रहा है, वहां बौर फूटने पर 0.06 फीसदी डायमेथोएट का छिड़काव करना चाहिए. अप्रैलमई में 250 ग्राम क्लोरपाइरीफास चूर्ण प्रति पेड़ के हिसाब से छिड़काव करने पर पेड़ के नीचे सूंडि़यां नष्ट हो जाती हैं. फरवरी में भुनगे के लिए किए जाने वाले कीटनाशी के छिड़काव से इस कीट की भी अपनेआम रोकथाम हो जाती है.

डासी मक्खी : वयस्क मक्खियां अप्रैल में जमीन से निकल कर पके फलों पर अंडे देती हैं. 1 मक्खी 150 से 200 तक अंडे देती है. 2-3 दिनों के बाद सूंडि़यां अंडों से निकल कर गूदे को खाना शुरू कर देती हैं.

इलाज : इस कीट के असर को कम करने के लिए सभी गिरे हुए व मक्खी के प्रकोप से ग्रसित फलों को इकट्ठा कर के नष्ट कर देना चाहिए. पेड़ों के आसपास सर्दी के मौसम में जुताई करने से जमीन के अंदर के प्यूपों को नष्ट किया जा सकता है. काठ से बने यौनगंध ट्रैप को पेड़ पर लगाना इस की रोकथाम में बहुत कारगर है. इस ट्रैप के लिए प्लाईवुड के 5×5×1 सेंटीमीटर आकार के गुटके को 48 घंटे तक 6:4:1 के अनुपात में अल्कोहल, मिथाइल यूजिनाल, मैलाथियान के घोल में भिगो कर लगाना चाहिए. यौनगंध ट्रैप को 2 महीने के अंतर पर बदलना चाहिए. 10 ट्रैप प्रति हेक्टेयर लटकाने चाहिए.

रोगों की रोकथाम

पाउडरी मिल्ड्यू (खर्रा, दहिया) : इस रोग के लक्षण बौरों, पत्तियों व नए फलों पर देखे जा सकते हैं. इस रोग का खास लक्षण सफेद कवक या चूर्ण के रूप में जाहिर होता है. नई पत्तियों पर यह रोग आसानी से दिखता है, जब पत्तियों का रंग भूरे से हलके हरे रंग में बदलता है. नई पत्तियों पर ऊपरी और निचली सतह पर छोटे सलेटी रंग के धब्बे दिखाई देते हैं, जो निचली सतह पर ज्यादा होते हैं. बौरों पर यह रोग सफेद चूर्ण की तरह दिखाई पड़ता है और बौरों में लगे फूलों के झड़ने की वजह बनता है. इस रोग की वजह से फूल नहीं खिलते हैं और समय से पहले ही झड़ जाते हैं. नए फलों पर पूरी तरह सफेद चूर्ण फैल जाता है और मटर के दाने के बराबर हो जाने के बाद फल पेड़ से झड़ जाते हैं.

इलाज : पहला छिड़काव 0.2 फीसदी घुलनशील गंधक का घोल बना कर उस समय करना चाहिए, जब बौर 3-4 इंच का होता है. दूसरा छिड़काव 0.1 फीसदी डिनोकोप का होना चाहिए, जो पहले छिड़काव के 15-20 दिनों के बाद हो. दूसरे छिड़काव के 15-20 दिनों के बाद तीसरा छिड़काव 0.1 फीसदी ट्राईडीमार्फ का होना चाहिए.

एंथ्रेकनोज : यह रोग पत्तियों, टहनियों और फलों पर देखा जा सकता है. पत्तियों की सतह पर पहले गोल या अनियमित भूरे या गहरे भूरे रंग के धब्बे बनते हैं. प्रभावित टहनियों पर पहले काले धब्बे बनते हैं और फिर पूरी टहनी सलेटी रंग की हो जाती है. पत्तियां नीचे की ओर झुक कर सूखने लगती हैं और बाद में गिर जाती हैं. बौर पर सब से पहले पाए जाने वाले लक्षण हैं, गहरे भूरे रंग के धब्बे, जो कि फूलों पर जाहिर होते हैं. बौर व खिले फूलों पर छोटे काले धब्बे उभरते हैं, जो धीरेधीरे फैलते हैं और आपस में जुड़ कर फूलों को सुखा देते हैं. ज्यादा नमी होने पर यह रोग तेजी से फैलता है.

इलाज : सभी रोगग्रसित टहनियों की छंटाई कर देनी चाहिए और बाग में गिरी हुई पत्तियों, टहनियों और फलों को इकट्ठा कर के जला देना चाहिए. मंजरी संक्रमण को रोकने केलिए 0.1 फीसदी कार्बेंडाजिम का 15 दिनों के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करना चाहिए. संक्रमण को रोकने के लिए 0.3 फीसदी कापर आक्सीक्लोराइड का छिड़काव भी लाभकारी है. 0.1 फीसदी थायोफनेट मिथाइल या 0.1 फीसदी कार्बेंडाजिम का बाग में फल तोड़ाई से पहले छिड़काव करने से गुप्त संक्रमण को कम किया जा सकता है.

उल्टा सूखा रोग : टहनियों का ऊपर से नीचे की ओर सूखना इस रोग का मुख्य लक्षण है. विशेष तौर पर पुराने पेड़ों में बाद के पत्ते सूख जाते हैं, जो आग से झुलसे हुए से मालूम पड़ते हैं. शुरू में नई हरी टहनियों पर गहरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं. जब ये धब्बे बढ़ते हैं, तब नई टहनियां सूख जाती हैं. ऊपर की पत्तियां अपना हरा रंग खो देती हैं और धीरेधीरे सूख जाती हैं. इस रोग का ज्यादा असर अक्तूबरनवंबर में दिखाई पड़ता है.

इलाज : छंटाई के बाद गाय का गोबर व चिकनी मिट्टी मिला कर कटे भाग पर लगाना फायदेमंद होता है. संक्रमित भाग में 3 इंच नीचे से छंटाई के बाद बोर्डो मिक्चर 5:5:50 या 0.2 फीसदी कापर आक्सीक्लोराइड का छिड़काव रोग की रोकथाम में बेहद कारगर होता है.

Artificial Insemination : कृत्रिम गर्भाधान से मवेशियों की नस्लें सुधारें

Artificial Insemination : भारत में मुख्य रूप से गायों और भैंसों से ही दूध का उत्पादन होता है. यहां साहिवाल, हरियाणा, गिर, रेड सिंधी जैसी देशी नस्लों की गायें और जाफरावादी, मुर्रा और मेहसाना नस्ल की भैंसें पाई जाती हैं. सभी देशी नस्लों के दुधारू पशुओं की दूध उत्पादन कूवत विदेशी नस्ल के पशुओं की तुलना में काफी कम है. इस से पशुपालकों को उन की मेहनत और लागत के हिसाब से मुनाफा नहीं हो पाता है. पशुपालकों की माली हालत में सुधार तभी मुमकिन है, जब वे उम्दा नस्ल के शुक्राणुओं से कृत्रिम गर्भाधान द्वारा अपनी गायभैंसों को गाभिन कराएं.

कृत्रिम गर्भाधान (Artificial Insemination) के बारे में ज्यादातर किसानों और पशुपालकों के मन में यह शंका होती है कि इस से मवेशी को गर्भ नहीं ठहरता है और पैसे व समय की बरबादी होती है. वेटनरी डाक्टर सुरेंद्र नाथ कहते हैं कि अगर मवेशी को सही समय पर ट्रेंड मुलाजिम के द्वारा कृत्रिम गर्भाधान कराया जाए तो गर्भ ठहरने की गारंटी 100 फीसदी होती है. मवेशी अगर सुबह गरम हुआ हो तो शाम को और शाम को गरम हुआ हो तो सुबह के वक्त कृत्रिम गर्भाधान कराना चाहिए. मादा मवेशी का जोरजोर से रंभाना, पेशाब के रास्ते से चिपचिपा स्राव आना, बारबार पेशाब करना, दूसरे पशुओं पर चढ़ने की कोशिश करना, बेचैनी बढ़ना आदि उस के गरम होने के लक्षण हैं.

कृत्रिम गर्भाधान से गायभैंसों के गर्भधारण की उम्मीद काफी बढ़ जाती है. पशुओं के डाक्टर की मदद और देखरेख में शुक्राणुओं को गर्भाशय में डालना चाहिए. पाल खिलाने यानी शुक्राणु डालने के 60 दिनों बाद गर्भधारण हुआ या नहीं इस की जांच हाथ से की जा सकती है. 4 से 8 साल तक के भैंसे के शुक्राण सब से अच्छा नतीजा देते हैं. इस आयु में कम समय में अच्छे किस्म के शुक्राणु मिल जाते हैं. ध्यान रखें कि गरमी के दिनों में प्राप्त शुक्राणु अच्छे नतीजे नहीं देते हैं. भैंस को पहला पाल खिलाने के समय उस का वजन 321 से 360 किलोग्राम के बीच होना चाहिए. इस से कम या ज्यादा वजन होने से गर्भधारण में दिक्कतें आती हैं.

कृत्रिम गर्भाधान एक ऐसी विधि है, जिस में उन्नत नस्ल के सांड़ के वीर्य को कृत्रिम उपकरणों की मदद से मादा पशुओं के जनन अंगों में सही समय पर सही जगह डाला जाता है.

Artificial Insemination

कुदरती गर्भाधान में सांड़ अपने वीर्य को मादा पशु की योनि में सीधे छोड़ता है, जबकि कृत्रिम गर्भाधान में पहले सांड़ के वीर्य को कृत्रिम योनि में डाल कर जमा किया जाता है, उस के बाद उस वीर्य की जांच कर के उसे संरक्षित कर लिया जाता है. मादा पशु की योनि में कृत्रिम तरीके से यानी उपकरण की मदद से जमा किए गए वीर्य को डाल दिया जाता है.

कृत्रिम गर्भाधान का चलन शुरू हुए काफी समय हो चुका है, इस के बाद भी लोगों के मन में इसे ले कर कई तरह की शंकाएं बैठी हुई हैं. पशुपालकों का पढ़ालिखा नहीं होना और पोंगापंथी होना कृत्रिम गर्भाधान के रास्ते की सब से बड़ी रुकावट है.

कृत्रिम गर्भाधान के जरीए अपने मवेशियों की नस्लें सुधारने में कामयाबी हासिल करने वाले बिहार के नालंदा जिले के नूरसराय गांव के रहने वाले पशुपालक रामखेलावन कहते हैं कि अब पशुपालकों को यह जानना और समझना जरूरी है कि कृत्रिम गर्भाधान के कई फायदे हैं. इस के जरीए कम दूध देने वाली देशी नस्ल की गायों और भैंसों की नस्लों में सुधार किया जा सकता है. इस से गायभैंसों की दूध देने की कूवत पहले के मुकाबले 2-3 गुना ज्यादा हो जाती है.

कृत्रिम गर्भाधान का एक फायदा यह भी है कि उन्नत नस्ल के सांड़ से 1 बार इकट्ठा किए गए वीर्य को संरक्षित कर के कई सालों तक रखा जा सकता है. इसे कहीं भी आसानी से ले जाया जा सकता है. विदेशों से भी उम्दा नस्ल के सांड़ों के वीर्य को आयात किया जा सकता है.

कृत्रिम गर्भाधान के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले वीर्य में एंटीबायोटिक दवा मिली होती है, जिस से मादा पशुओं के जननांगों में बीमारी फैलने का खतरा भी नहीं होता है. कृत्रिम गर्भाधान केंद्र पर कृत्रिम  गर्भाधान की सुविधा होने की वजह से पशुपालकों को अपने पशुओं को गाभित करने के लिए इधरउधर भटक कर समय बरबाद नहीं करना पड़ता है.

देश भर में दुधारू मवेशियों की नस्लों को सुधारने की मुहिम शुरू की गई है. इस के लिए कृत्रिम गर्भाधान केंद्र की संख्या बढ़ाने की कवायद चल रही है. बिहार जैसे पिछड़े राज्य में फिलहाल 800 कृत्रिम गर्भाधान केंद्र चल रहे हैं. इन्हें बढ़ा कर 1400 करने की योजना है.

बिहार सरकार के कृषि रोड मैप के मुताबिक हर साल 50 लाख पशुओं का कृत्रिम गर्भाधान किया जाना है और बचौर, गिर, साहीवाल, रेड सिंघी, देवौनी आदि नस्लों की गायभैंसों की नस्लों को बेहतर बनाया जाना है.

Jowar : जायद में ज्वार (sorghum) की खेती

ज्वार (Jowar) को देश में अलगअलग नामों से जानते हैं. इसे उत्तर प्रदेश की क्षेत्रीय भाषा में कर्बी, मराठी में ज्वारी, कन्नड़ में जोर और तेलुगू में जोन्ना कहते हैं. महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान व गुजरात जैसे सूबों में इस की खूब खेती की जाती है. उत्तरी भारत में इस की खेती खरीफ और रबी दोनों मौसमों में की जाती है. खास बात यह है कि इसे कम बारिश वाले इलाकों में भी उगाया जा सकता है. चारे के अलावा इसे अन्न और जैव उर्जा के लिए भी इस्तेमाल करते हैं. इस से साइलेज भी तैयार किया जाता है. इस की खास किस्म से स्टार्च व दानों से अल्कोहल भी हासिल किया जाता है. यही कारण है कि खाद्यान्न फसलों में कुल बोए जाने वाले रकबे में इस का तीसरा स्थान है.

मिट्टी : ज्वार की खेती के लिए दोमट, बलुई दोमट और हलकी व औसत काली मिट्टी जिस का पीएच मान सामान्य हो बेहतर होती है. अगर अधिक अम्लीय या अधिक क्षारीय मिट्टी हो तो ऐसे स्थानों पर इस की खेती करना सही नहीं होता.

खेत की तैयारी : पलेवा कर के पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से या हैरो से कर के 1 से 2 बार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई कर के पाटा लगा देना चाहिए.

बोआई का समय : हरे चारे के लिए जायद में बोआई का सही समय फरवरी के अंतिम हफ्ते से ले कर मार्च के अंत तक होता है.

बीज दर : मल्टीकट (कई बार कटने वाली) प्रजातियों के 25-30 किलोग्राम बीज और सिंगल कट (सिर्फ 1 बार कटने वाली) प्रजातियों के 30-40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करने चाहिए.

बीज उपचार : बीजजनित और मिट्टी रोगों से बचाव के लिए बोआई से पहले बीजों को 2.5 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बेंडाजिम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए.

बोआई का तरीका : ज्वार की ज्यादातर बोआई छिटकवां विधि से की जाती है, जो कि वैज्ञानिक तरीका नहीं है. बेहतर होगा कि इसे हल के पीछे कूड़ों में लाइन से लाइन की दूरी 30 सेंटीमीटर रखते हुए बोएं.

खाद और उर्वरक : खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी की जांच के बाद मिली रिपोर्ट के अनुसार ही करना चाहिए. यदि किसान के पास खूब सड़ी हुई गोबर की खाद, खली या कंपोस्ट वगैरह मौजूद हो, तो बोआई से 15-20 दिनों पहले इन का इस्तेमाल करें.

सिंगल कट वाली प्रजातियों में 40-50 किलोग्राम नाइट्रोजन बोआई के 1 महीने बाद सही नमी होने पर छिड़क कर देना चाहिए. मल्टीकट वाली प्रजातियों में 60-70 किलोग्राम नाइट्रोजन व 40 किलोग्राम फास्फोरस बोआई के समय और 15-20 किलोग्राम नाइट्रोजन हर कटाई के बाद प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए.

सिंचाई : बारिश होने से पहले फसल की हर 8-12 दिनों के अंतराल पर या जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें.

खरपतवार नियंत्रण : फसल की बोआई के तुरंत बाद 1.5 किलोग्राम घुलनशील एट्राजिन 50 फीसदी या सिमेजिन को 1000 लीटर पानी में घोल कर अंकुरण से पहले खेत में छिड़काव करना चाहिए.

कटाई : पशुओं को उम्दा चारा खिलाने के लिए सिंगल कट फसल की कटाई 5 फीसदी फूल आने पर या 60-70 दिनों के बाद करनी चाहिए. वहीं दूसरी ओर मल्टी कट प्रजातियों की पहली कटाई सामान्य प्रजातियों से तकरीबन 10 दिनों पहले कर लेनी चाहिए और बाद की कटाई 30-35 दिनों के अंतराल पर जमीन की सतह से 6-8 सेंटीमीटर की (तकरीबन 4 अंगुल) ऊंचाई से करनी चाहिए. इस से कल्ले आसानी से निकलते हैं.

उपज : सिर्फ हरे चारे की बात की जाए तो मल्टी कट वाली प्रजाति की उपज तकरीबन 750-800 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है. वहीं सिंगल कट वाली प्रजातियों की उपज तकरीबन 250-450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पाई जाती है.

Jowar

ज्वार की कुछ उन्नत प्रजातियां

यूपी चरी 1 : सिंगल कट वाली यह प्रजाति पत्ती रोगों के लिए सहनशील है. इस का तना रसीला और मिठास वाला होता है. यह तेजी से बढ़ोतरी करने वाली अगेती प्रजाति है, जो पूरे भारत में उगाई जा सकती है. इस की उपज 330 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 115 से 120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

एचसी 171 : सिंगल कट वाली यह प्रजाति पत्ती रोगों और कीटों के लिए सहनशील है. इस का तना मध्यम मोटा, मीठा और रसीला होता है. यह प्रजाति पूरे भारत में उगाई जा सकती है. इस की उपज 520 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 105 से 110 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

पूसा चरी 1 : सिंगल कट वाली इस प्रजाति के बीज बहुत कठोर व सफेद होते हैं. इस का तना रसीला और मध्यम मोटाई का होता है. यह पूरे भारत में उगाई जा सकती है. इस की उपज 280 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 105 से 110 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

एसएल 44 : सिंगल कट वाली इस प्रजाति का तना पतला, मिठास रहित व रसीला होता है. इस की पत्तियां लंबी और मध्यम चौड़ाई की होती हैं. इसे पंजाब, हरियाणा, राजस्थान  व उत्तर प्रदेश में उगाया जा सकता है. इस की उपज 320 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 75 से 100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

पूसा चरी 23 : मल्टी कट वाली यह प्रजाति सूखा और पानी रुकने के प्रति सहनशील होती है. इस की पत्तियां संकरी, दाना नीलेलाल रंग का और तना पतला होता है. यह पूरे भारत में उगाई जा सकती है. इस की उपज 550 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस के पकने में 95 से 100 दिनों का समय लगता है.

Farming Work : मार्च महीने में करें ये जरूरी काम

Farming Work: गन्ने की बोआई का काम मार्च महीने में पूरा कर लें. गन्ने की देर से बोआई करने पर पैदावार में गिरावट आती है. बोआई के लिए 3 आंख वाले गन्ने के टुकड़ों का इस्तेमाल करें.

बीज सेहतमंद गन्ना फसल से ही लें और बीज के टुकड़ों को उपचारित कर के 60-70 सैंटीमीटर की दूरी पर कूंड़ों में बोआई करें. बोआई का काम शुगरकेन प्लांटर मशीन से करें तो ज्यादा बेहतर रहेगा.

गन्ने के साथ दूसरी फसलें जैसे मूंग, उड़द, लोबिया, चारे वाली मक्का वगैरह को 2 कूंड़ों के बीच वाली खाली जगह में बोआई करें. बोआई के लिए अपने इलाके की आबोहवा के मुताबिक ही किस्में चुनें.

जायद फसल मूंग की बोआई का काम भी इसी महीने पूरा करें. बोआई के लिए अच्छी उपज वाली किस्में जैसे पूसा बैसाखी, के-851, एसएसएल-668 वगैरह की बोआई करें. अगर खेत में नमी की कमी है तो बोआई से पहले खेत का पलेवा कर दें.

जायद फसल उड़द की बोआई का काम इस महीने में जरूर पूरा कर लें. बोआई के लिए अच्छी किस्में ही चुनें. अच्छी पैदावार हासिल करने के लिए प्रति हेक्टेयर 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल करें.

बेहतर होगा, अगर पोषक तत्त्वों की मात्रा तय करने से पहले मिट्टी की जांच करा लें. फसल को बीमारी से बचाने के लिए बीजोपचार के बाद ही उन्हें बोएं.

चारे के लिए लोबिया की बोआई इस महीने कर सकते हैं. बोआई से पहले बीज को राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर लें. खाद की मात्रा खेत के उपजाऊपन के आधार पर ही तय करनी चाहिए.

अगर मिट्टी जांच की सुविधा मौजूद नहीं है तो खेत की तैयारी के समय 20-30 क्विंटल सड़ी हुई गोबर की खाद मिट्टी में मिला दें. साथ ही, 30-40 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस व पोटाश प्रति हेक्टेयर दें.

अभी तक अगर  सूरजमुखी की फसल नहीं बोई है तो बोआई का काम 15 मार्च तक जरूर पूरा कर लें.

सूरजमुखी में निराईगुड़ाई भी इसी माह करें. आल्टरनेरिया ब्लाइट, डाउनी मिल्डयू और सफेद रतुआ के उपचार के लिए 600 से 800 ग्राम डाइथेन या इंडोफिल एम 45 को 250 लिटर पानी में घोल कर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें.

कटुआ सूंड़ी या हरे रंग की सूंड़ी का हमला हो तो 10 किलोग्राम फैनवालरेट 0.4 प्रतिशत प्रति एकड़ के हिसाब से स्पे्र करें. सफेद रतुआ या मृदुरोमिल रोग से ग्रसित टहनियों को काट कर जला दें.

इसी महीने गेहूं की फसल में दाने बनने लगते हैं. इस दौरान फसल को पानी की बहुत जरूरत होती है, इसलिए जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें.

Farming Work

अगर दिन में तेज हवा चल रही है तो सिंचाई रात के समय करें. खेत में बीमारी से ग्रसित बाली या पौधा दिखाई दे तो पूरा पौधा उखाड़ कर जला दें अन्यथा सेहतमंद पौधों को भी यह बीमारी अपनी चपेट में ले लेती है.

गेहूं में अमेरिकन सूंड़ी की रोकथाम के लिए कीटनाशक दवा का स्प्रे करें. गेहूं, सरसों व जौ में चेंपा या माहू कीट का हमला होने पर 400 मिलीलिटर मैटासिस्टाक्स या रोगर 30 ईसी को 300 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ छिड़कें. जिन स्थानों पर पत्तों में कांगियारी देखें, उन पौधों को काट कर जला दें.

चारे के लिए ज्वार, बाजरा, मक्का, सूडान घास वगैरह की बोआई इसी महीने करें. इसी महीने मेंथा की फसल में निराईगुड़ाई करें.

अगर अभी तक मेंथा की बोआई नहीं की गई है तो फौरन मेंथा की बोआई का काम पूरा करें.

बोआई के लिए उन्नतशील किस्में जैसे हिमालय, कुशल कोसी वगैरह को चुनें. ध्यान रहे कि बोआई के लिए इस्तेमाल होने वाली जड़ें सेहतमंद हों या सेहतमंद फसल से ली गई हों.

चने की फसल को पानी की जरूरत महसूस हो रही है तो हलकी सिंचाई करें. कीट व बीमारी से फसल को बचाने के लिए कारगर कीटनाशी दवा छिड़कें.

प्याज की फसल की निराईगुड़ाई भी इसी माह करें और जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें. हलदी व अदरक की बोआई भी इसी महीने पूरी कर लें. बैगन की रोपाई भी इसी महीने करें. पहले से रोपी गई फसल में निराईगुड़ाई करें व जरूरत के मुताबिक सिंचाई करते रहें.

अगर मटर के दाने वाली फसल तैयार हो गई है तो कटाई करें और हरी फलियों वाले खेत भी खाली हो गए हैं तो अगली फसल के लिए खेत तैयार करें.

आम के बागों को हौपर कीट की रोकथाम के लिए कारगर कीटनाशी दवा का स्प्रे करें, वहीं नीबू के पेड़ों को कैंकर बीमारी से बचाने के लिए कीटनाशी दवा का छिड़काव करें. पपीते की पौध तैयार करें. साथ ही, केले के बागों की सिंचाई करें. बीमारीग्रस्त पौधों को उखाड़ कर जला दें.

अंगूर की फसल की देखभाल अच्छी तरह करें. अंगूर के गुच्छों के फूल खिलते वक्त जिब्रेलिक एसिड के 50 पीपीएम वाले घोल में डुबाएं. तुलसी, गुलदाऊदी, सदाबहार वगैरह की बोआई भी इसी माह करें.

Sustain Plus Project : एनडीडीबी सस्टेन प्लस परियोजना हुई शुरू

Sustain Plus Project : मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के तहत पशुपालन और डेयरी विभाग ने बीते दिनों 3 मार्च, 2025 को भारत मंडपम, नई दिल्ली में डेयरी क्षेत्र में स्थिरता पर कार्यशाला का सफलतापूर्वक आयोजन किया. केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन, डेयरी और पंचायती राज मंत्री राजीव रंजन सिंह की उपस्थिति में इस कार्यशाला का उद्घाटन किया.

केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के राज्य मंत्री प्रो. एसपी सिंह बघेल और जौर्ज कुरियन भी इस अवसर पर उपस्थित थे.  डेयरी क्षेत्र के प्रमुख हितधारकों के साथसाथ पशुपालन और डेयरी विभाग, पैट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय, नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय, उर्वरक विभाग, राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी), इंडियन औयल कौर्पोरेशन लिमिटेड और विभिन्न दूध सहकारी समितियों के वरिष्ठ अधिकारियों ने भी इस कार्यशाला में भाग लिया.

कार्यशाला ने तकनीकी, वित्तीय और कार्यान्वयन सहायता का लाभ उठा कर डेयरी क्षेत्र में सतत और समावेशी विकास को बढ़ावा देने के लिए एनडीडीबी और नाबार्ड के बीच समझौता हुआ.  देशभर में बायोगैस संयंत्र स्थापित करने के लिए एनडीडीबी ने 15 राज्यों के 26 दुग्ध संघों के साथ समझौता किया.

इस अवसर पर डेयरी क्षेत्र में स्थिरता के उद्देश्य से दिशानिर्देश जारी किए गए, साथ ही, एनडीडीबी (राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड) के लघु पैमाने पर बायोगैस, बड़े पैमाने पर बायोगैस/संपीड़ित बायोगैस परियोजनाओं और टिकाऊ डेयरी के आर्थिक सहायता के लिए एनडीडीबी ‘सस्टेन प्लस परियोजना’ के तहत वित्तपोषण पहलों की शुरुआत की गई.

इन पहलों से डेयरी फार्मिंग में चक्रीय प्रथाओं को अपनाने में तेजी आने, कुशल खाद प्रबंधन, ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा मिलने और पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने की उम्मीद है.  इस राष्ट्रीय कार्यशाला ने नीति बनाने वालों, उद्योग जगत के नेताओं और विशेषज्ञों को स्थिरता बढ़ाने, कार्बन उत्सर्जन को कम करने और छोटे व सीमांत डेयरी किसानों के लिए आर्थिक सहायता सुनिश्चित करने और विकसित करने के लिए एक महत्वपूर्ण मंच प्रदान किया.

Sustain Plus Project

केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने कहा कि आज जब हम श्वेत क्रांति 2.0 की ओर बढ़ रहे हैं, तो स्थिरता और चक्रीयता का महत्व और भी बढ़ गया है. उन्होंने कहा कि पहली श्वेत क्रांति की मदद से हम ने अब तक जो हासिल किया है, उस के अलावा डेयरी क्षेत्र में स्थिरता और चक्रीयता को अभी पूरी तरह हासिल किया जाना बाकी है.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि भारत की कृषि व्यवस्था छोटे किसानों पर आधारित है और गांवों से शहरों की ओर उन का पलायन उन की समृद्धि से जुड़ा है. उन्होंने कहा कि ग्रामीण पलायन की समस्या पर काबू पाने के साथसाथ छोटे किसानों को समृद्ध बनाने के लिए डेयरी एक महत्वपूर्ण विकल्प है.

केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह ने कहा कि डेयरी क्षेत्र में चक्रीयता और स्थिरता पर ध्यान देने के साथ, ईंधन के उत्पादन के लिए गाय के गोबर का उपयोग किसानों की आय बढ़ाने में काफी मदद करेगा.

उन्होंने आगे कहा कि देश में 53 करोड़ से अधिक के विशाल पशुधन संसाधन में से लगभग 30 करोड़ गाय और भैंसें हैं, इसलिए बड़ी मात्रा में गाय का गोबर उपलब्ध है, जिस का उपयोग जैविक खाद, जैव ईंधन आदि के लिए किया जा सकता है, जिस से उत्पादकता बढ़ेगी और साथ ही किसानों की आय भी बढ़ेगी.

मंत्री राजीव रंजन सिंह ने आगे कहा कि आज सरकार के प्रयासों के कारण डेयरी क्षेत्र काफी हद तक असंगठित से संगठित क्षेत्र में बदल गया है. उन्होंने देश में हरित विकास और किसान कल्याण को बढ़ावा देने के लिए चक्रीय अर्थव्यवस्था प्रथाओं, नवीकरणीय ऊर्जा पहलों और सार्वजनिक निजी भागीदारी के महत्व का भी जिक्र किया.

हितधारकों से बात करते हुए उन्होंने कहा कि पर्यावरण के अनुकूल प्रथाओं को नवाचार के साथ एकीकृत करने से न केवल हरित विकास को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि लाखों किसानों का भला भी होगा.

पशुपालन एवं डेयरी विभाग की सचिव अलका उपाध्याय ने डेयरी क्षेत्र में टिकाऊ प्रथाओं की आवश्यकता और सर्कुलर अर्थव्यवस्था सिद्धांतों को एक करने के सरकार के दृष्टिकोण पर जोर दिया और कहा कि भारत “विश्व की डेयरी” है और डेयरी क्षेत्र, कृषि जीवीए में 30 फीसदी का योगदान देता है. इन टिकाऊ प्रथाओं को लागू करने के लिए एनडीडीबी ने 1,000 करोड़ रुपए के आवंटन के साथ एक नई वित्तपोषण योजना शुरू की है, जिस का उद्देश्य छोटे बायोगैस, बड़े पैमाने के बायोगैस संयंत्रों और संपीड़ित बायोगैस (सीबीजी) परियोजनाओं के लिए लोन सहायता के माध्यम से आर्थिक सहायता प्रदान करना है, जिस से आने वाले 10 सालों में विभिन्न खाद प्रबंधन मौडलों को बढ़ाने में सुविधा होगी.

कार्यशाला के विचारविमर्श के प्रमुख विषयों में सफल चक्रीय अर्थव्यवस्था मौडल, छोटे डेयरी किसानों के लिए कार्बन क्रैडिट के अवसर और टिकाऊ प्रथाओं को बढ़ावा देने में कार्बन ट्रेडिंग की भूमिका शामिल थी. भारत सरकार द्वारा समर्थित और एनडीडीबी के नेतृत्व में डेयरी क्षेत्र ने स्थिरता और चक्रीयता को बढ़ाने के लिए प्रमुख खाद प्रबंधन पहलों की शुरुआत की है.

3 उल्लेखनीय मौडलों में जकारियापुरा मौडल, बनास मौडल और वाराणसी मौडल शामिल हैं, जो दूध के साथसाथ गोबर की एक मूल्यवान वस्तु के रूप में क्षमता को उजागर करते हैं, जो एक अधिक टिकाऊ और चक्रीय डेयरी पारिस्थितिकी तंत्र में योगदान देता है, साथ ही पशुपालकों की आय में वृद्धि का भी काम करता है.

छत्तीसगढ़ बजट 2025-26 : बस्तर के किसान हितों की अनदेखी

छत्तीसगढ़ सरकार के 2025-26 के बजट को हम एक माने में निश्चित रूप से अनूठा कह सकते हैं कि एआई और डिजिटलाइजेशन के युग में यह बजट हाथ से लिखा गया. कुछ नया कर दिखाने के चक्कर में पूर्व तेजतर्रार आईएएस वित्त मंत्री शायद मोदी के डिजिटलाइजेशन के नारे को भूल गए.

पहली नजर में बजट में कई लोकलुभावनी बातें नजर में आती हैं, पर जब हम गहराई से बजट की पड़ताल करते हैं, तो हमें प्रदेश के किसानों के उत्थान और बस्तर के समग्र विकास के लिए कोई ठोस दृष्टिकोण नजर नहीं आता. अकसर बजट आंकड़ों की बाजीगरी और खोखली घोषणाओं के पुलिंदे ही होते हैं, यह बजट भी इस से कुछ ज्यादा अलग हट कर नहीं है. इस बजट की सब से बड़ी विडंबना यह रही कि बस्तर, जो प्रदेश व देश के लिए सब से अधिक प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध कराता है, उसे एक बार फिर नजरअंदाज कर दिया गया है.

हंसें या रोएं- जैविक खेती के लिए 20 करोड़, प्रमाणीकरण के लिए 24 करोड़

सरकार सालभर जैविक खेती के सैमिनार व वर्कशौप करती है. दिनरात जैविक खेती की बातें होती हैं, पर जब बजट में राशि देने की बात आती है, तो जैविक खेती के साथ कैसा मजाक किया जाता है, उस की बानगी देखिए, इस बजट में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए मात्र 20 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है और जैविक प्रमाणन के लिए 24 करोड़ रुपए देंगे.

प्रदेश के 40 लाख किसानों को जैविक खेती के लिए प्रति किसान सालाना केवल 50 रुपए मात्र. ऐसे में जैविक भारत मिशन-2047: मियोनप (MIONP) और सतत विकास के ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के सस्टेनेबल डेवलपमेंट के ‘SDGs’ के संयुक्त वैश्विक लक्ष्यों को भारत कैसे पूरा कर पाएगा. इस बिंदु को हलके में बिलकुल नहीं लिया जाना चाहिए.

इसी से जुड़ी दूसरी गंभीर बात यह कि सरकार को जैविक खेती करवाने से ज्यादा चिंता जैविक प्रमाणीकरण की है. यह बिलकुल वैसा ही है, जैसे किसी को खेती के लिए 20 रुपए दिए जाएं और उस की फसल की गुणवत्ता जांचने के लिए 24 रुपए.

सचाई यह है कि जैविक प्रमाणीकरण की मौजूदा व्यवस्था किसान हितैषी नहीं, बल्कि पूरी तरह से बिचौलियों और सर्टिफिकेशन एजेंसियों के फायदे के लिए बनी हुई है. किसान जैविक खेती करने में हजारों रुपए लगाता है, लेकिन प्रमाणपत्र हासिल करने में उसे और ज्यादा खर्च करना पड़ता है. फिर भी उसे बाजार में उचित दाम नहीं मिलता. सरकार को यह समझना चाहिए कि जब जैविक खेती को सही तरीके से बढ़ावा ही नहीं दिया गया, तो प्रमाणीकरण करवा कर क्या फायदा?

अगर सरकार वास्तव में जैविक खेती के प्रति गंभीर होती, तो उसे प्रमाणीकरण की तुलना में जैविक खेती के विस्तार और किसानों की सहायता पर ज्यादा फोकस करना चाहिए था. लेकिन यहां फिर वही पुरानी नीति अपनाई गई. किसानों को कम पैसा दो और अफसरों व एजेंसियों को ज्यादा.

ऋण कृत्वा घृतं पिवामि यानी किसानों को कर्ज में डालने की नीति असली समस्या पर ध्यान नहीं

बजट में किसानों के लिए 8,500 करोड़ रुपए के ब्याजमुक्त लोन की घोषणा की गई है. देखने में यह अच्छा लग सकता है, लेकिन असल में यह किसानों की समस्याओं का हल नहीं कर रही,  बल्कि उन्हें एक और कर्ज के जाल में फंसाने की रणनीति है. कर्ज का मकड़जाल किसानों की सब से बड़ी समस्या है.

किसानों की असली समस्या का हल ‘कर्ज’ नहीं, बल्कि उन की उपज का वाजिब दाम न मिलना है. अगर किसान को उस की फसल का सही दाम मिले, तो उसे बारबार कर्ज लेने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. कर्ज पर ध्यान देने के बजाय सरकार को यह देखना चाहिए कि:
– किसानों को उन की उपज का लाभकारी मूल्य मिले.
– सभी फसलों पर एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) सुनिश्चित किया जाए.
– खेत में उत्पादन के उपरांत भी फसल का एक बड़ा हिस्सा 25 से 30 फीसदी तक समुचित भंडारण, प्रसंस्करण, परिवहन, विपणन की कमी और अन्य विभिन्न कारणों से नष्ट हो जाता है, यह राष्ट्रीय क्षति है. इन पोस्ट हार्वेस्ट हानि को नियंत्रित किया जाए.
– कृषि उत्पादों के लिए कृषकोन्मुखी प्रभावी बाजार व्यवस्था विकसित की जाए.

हम आखिर कब समझेंगे कि ब्याज मुक्त लोन देना सिर्फ तात्कालिक राहत है, लेकिन यह किसानों की समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं है. इस से किसान लगातार कर्ज के जाल में फंसते जाते हैं और उन की वित्तीय स्वतंत्रता कभी नहीं आती. समस्या कर्ज की नहीं, बल्कि आय बढ़ाने की है और इस पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है.

बस्तर से हर घंटे खनिज की अनवरत लूट, लेकिन बस्तर को कुछ नहीं?

बस्तर सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए खनिजों का सब से बड़ा भंडार है. यहां से रोजाना 24 ट्रेन भर कर सिर्फ लौह अयस्क निकाला जाता है, जो भारत के कई प्रमुख इस्पात संयंत्रों और उद्योगों के लिए जीवनरेखा है. इस के अलावा बौक्साइट, टिन, सोना, मैग्नीज, कोयला और कई अन्य कीमती खनिज भी यहां से निकाले जाते हैं.

लेकिन क्या बस्तर को इन खनिजों से होने वाली कमाई का उचित हिस्सा मिलता है? अगर सिर्फ लौह अयस्क की रौयल्टी का पूरा हिस्सा बस्तर के लोगों को मिल जाए, तो वे अरब के शेखों की तरह और भी अमीर हो सकते हैं. लेकिन सचाई यह है कि खनिजों की लूट हो रही है और इस का लाभ बस्तर को नहीं मिलता है.

बस्तर के विकास के लिए जो थोड़ीबहुत राशि चिड़िया के चुग्गे की तरह ‘डीएमएफ’ के नाम पर मिलती भी है, तो वह भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है. यह पैसा कलक्टरों और नेताओं की पौकेटमनी की तरह खर्च होता है और आम जनता तक कुछ नहीं पहुंचता. यह घोर अन्याय है और वर्तमान वित्त मंत्री इस कड़वी सचाई से अच्छी तरह परिचित हैं, क्योंकि वे खुद बस्तर के कलक्टर रह चुके हैं.

बस्तर की अकूत वन संपदा, वनोपज का दोहन, पर बदले में सिर्फ ठेंगा

बस्तर संभाग में लगभग 70 फीसदी क्षेत्र वनों से आच्छादित माना जाता है. सरकारें यहां की बहुमूल्य लकड़ी और तरहतरह के वनोपजों का लगातार दोहन करती रही हैं. कहा जाता है कि वन विभाग के ठीकठाक रेंज के रेंजर साहब की आमदनी जिले के कलक्टर से भी ज्यादा होती है या थी (डीएमएफ फंड के प्रावधान के पूर्व). और यह विभागीय बंदरबांट तो मात्र खुरचन की है, असल मलाई तो सरकार के खाते में जाती है. किंतु इस के बदले में बस्तर को क्या मिलता है, यह भी अपनेआप में सोचने का विषय है.

बस्तर में पर्यटन और रोजगार के अपार अवसरों की अनदेखी

बस्तर पर्यटन की दृष्टि से अपार संभावनाओं वाला क्षेत्र है, लेकिन बजट में इकोटूरिज्म और फार्मटूरिज्म के लिए सिर्फ 10 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है. इतने कम बजट में कोई अंतर्राष्ट्रीय स्तर का पर्यटन ढांचा विकसित नहीं किया जा सकता.

हवाई कनैक्टिविटी का संकट : बस्तर से रायपुर के लिए साल 1991 में हवाई सेवा शुरू हुई थी. सरकारों द्वारा बस्तर की अनदेखी के कारण यह कभी नियमित नहीं चल पाई. ‌इस सरकारी उदासीनता और पक्षपात के कारण पिछले 4-5 महीनों से यह सेवा एक बार फिर से बंद पड़ी है.

यह हास्यास्पद है कि जहां देशविदेश में नए एयरपोर्ट बन रहे हैं, वहीं बस्तर संभाग जो कि विश्व के कई देशों से क्षेत्रफल में ज्यादा बड़ा है, इसे प्रदेश की राजधानी रायपुर से जोड़ने वाली एकमात्र हवाई सेवा भी बंद कर दी गई है. अगर यह घोर पक्षपात और अपेक्षा नहीं है तो और क्या है?

अन्य राज्य अपने दुर्गम क्षेत्रों को हवाई सेवा से जोड़ने के लिए शुरुआती फ्लाइट्स में घाटा होने पर कैपिंग के आधार पर हवाई कंपनियों को जरूरी अनुदान दे कर भी नियमित हवाई सेवाएं चलवा रहे हैं, तो बस्तर के लिए यह व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती थी?

दरअसल, राजनीतिक इच्छाशक्ति और विजन का घोर संकट है और बस्तर में यह संकट सब से ज्यादा है. सड़क मार्ग से बस्तर के कोंटा से रायपुर तक की यात्रा आज भी कम से कम 12 घंटे की होती है, जो बाहर इलाज के लिए जाने वाले मरीजों, उच्च शिक्षा के लिए बाहर जाने वाले छात्रों और बस्तर में नए उद्यम लगाने में रुचि लेने वाले उद्यमियों के लिए बेहद कष्टदायक है. इन के लिए हवाई सेवा एक लग्जरी या विलासिता नहीं, बल्कि अनिवार्य आवश्यकता है.

आदिवासियों के लिए घोषणाएं, हकीकत में कितनी कारगर?

सरकार ने तेंदूपत्ता संग्राहकों को 5,500 रुपए प्रति बोरा भुगतान की घोषणा की है, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि क्या यह राशि वास्तविक संग्राहकों तक पहुंचेगी?

पहले भी ऐसे दावे किए गए थे, लेकिन पैसा बिचौलियों के हाथों में चला जाता था.

‘चरण पादुका योजना’ के लिए 50 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, लेकिन यह सिर्फ एक सांकेतिक योजना बन कर रह जाती है.

हालांकि, ‘भूमिहीन कृषि मजदूर कल्याण योजना’ के तहत 5.65 लाख मजदूरों को सालाना 10,000 रुपए की आर्थिक सहायता देने का प्रावधान किया गया है, जो एक अच्छा कदम कहा जा सकता है. यदि यह राशि सीधे मजदूरों के खातों में पारदर्शी तरीके से पहुंचती है, तो इस से काफी राहत मिलेगी.

कृषि व वनोपज आधारित उद्योगों के लिए कोई ठोस नीति और क्रियान्वयन का रोड मैप नहीं

छत्तीसगढ़ में खाद्य प्रसंस्करण और कृषि व वनोपजों पर आधारित उद्योगों की अपार संभावनाएं हैं. लेकिन अभी इस दिशा में कोई ठोस व्यावहारिक नीति नहीं है.

डेयरी समग्र विकास परियोजना के लिए मात्र 50 करोड़ रुपए रखे गए हैं, जो ऊंट के मुंह में जीरा है. मत्स्यपालन, पोल्ट्री, बकरीपालन के लिए मात्र 200 करोड़ रुपए का प्रावधान है, जब कि ये क्षेत्र ग्रामीण अर्थव्यवस्था को काफी मजबूत कर सकते हैं.

यह भी उल्लेखनीय है कि बस्तर में काजू, कौफी और मसालों की खेती के अलावा जड़ीबूटियों की खेती और प्रसंस्करण की जबरदस्त संभावनाएं हैं, लेकिन इस बजट में इन के लिए कोई विशेष प्रोत्साहन नहीं दिया गया. यदि सरकार इस क्षेत्र में ठोस नीतियां बनाती, तो बस्तर का आर्थिक परिदृश्य बदल सकता था.

अंत में यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान वित्त मंत्री ओपी चौधरी पूर्व में बस्तर के संवेदनशील लोकप्रिय कलक्टर रह चुके हैं. उन्हें इस क्षेत्र की चुनौतियों की गहरी समझ थी और उम्मीद थी कि उन के वित्त मंत्री के कार्यकाल में बस्तर को अधिक प्राथमिकता मिलेगी. लेकिन चाहे वजह जो भी हो, पर हुआ एकदम उलटा. मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री ने अपनेअपने क्षेत्रों पर ज्यादा ध्यान दिया, जब कि बस्तर के लिए बहुत कम ध्यान दिया गया. गजब है कि हमारी लगभग सभी समस्याओं की जड़ में राजनीति है और सभी समस्याओं का समाधान भी राजनीति में ही निहित है. इस राजनीति की माया भी अजब है, जहां राजनीति के हमाम में उतरते ही सब नंगे हो जाते हैं.

(लेखक ग्रामीण अर्थशास्त्र एवं कृषि मामलों के विशेषज्ञ और राष्ट्रीय संयोजक, अखिल भारतीय किसान महासंघ ‘आईफा’)

अब टीवी, रेडियो पर प्रसारित होंगे मेवाड़ मौडल आधारित कृषि कार्यक्रम

उदयपुर :  प्रसार भारती कृषि से जुड़े लोगों और खासकर किसानों के लिए ‘मेवाड़ मौडल’ को रेखांकित करते हुए ऐसे कार्यक्रम तैयार कर प्रसारण करेगा, ताकि किसान आत्महत्या के लिए मजबूर न हों. उन का जीवन और आजीविका दोनों सुरक्षित रहें. यही नहीं, झाबुआ (मध्य प्रदेश) में कड़कनाथ और एमपीयूएटी द्वारा विकसित प्रतापधन मुरगीपालन को भी देशभर में परिचित कराने संबंधी कार्यक्रम तैयार किए जाएंगे.

इस के अलावा संरक्षित खेती, जैविक खेती, प्राकृतिक खेती को भी देशभर में प्रचारित किए जाने की जरूरत है. कुलमिला कर प्रसार भारती से सबद्ध आकाशवाणी और दूरदर्शन एक सशक्त विस्तार कार्यकर्ता की भूमिका निभाते हुए देश के किसानों की भलाई के काम करेंगे.

प्रसार शिक्षा निदेशालय में ‘कृषि में संकट और तनाव’ विषयक पांचदिवसीय कार्यशाला में शिरकत करने वाले 12 राज्यों से रेडियो व दूरदर्शन के अधिकारियों ने अपने अनुभव साझा किए और इस नतीजे पर पहुंचे कि कृषि क्षेत्र में हो रहे शोध और शिक्षण पर भरपूर काम हो रहा है, लेकिन विस्तार कार्यकर्ताओं की कमी के कारण तकनीक सही माने में किसानों तक नहीं पहुंच रही है.

कार्यशाला में यह बात भी उभर कर सामने आई कि हर साल सरकार 500 करोड़ रुपए विस्तार पर खर्च कर रही है. 180 करोड़ रुपए कृषि दर्शन और कृषि वाणी पर, जब कि करोड़ों रुपए कृषि संबंधी लघु कार्यक्रमों व मास मीडिया पर खर्च कर रही है, लेकिन फील्ड में किसानों तक सीधी पहुंच रखने वाले विस्तार कार्यकर्ताओं की बेहद कमी है.

ऐसे में प्रसार भारती की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है. कार्यशाला में इस बात पर भी सर्वसम्मति बनी कि राजस्थान खासकर मेवाड़ संभाग में जलवायु परिवर्तन या बाजार में उतारचढ़ाव के बावजूद यहां का किसान आत्महत्या नहीं करता, क्योंकि वह खेती के साथसाथ पशुपालन और एकाधिक फसलों की खेती करता है.

रेडियो व टैलीविजन के लिए ‘कृषि में संकट और तनाव’ विषयक कार्यक्रमों की अवधारणा और डिजाइन तैयार करने और प्रसारण के लिए पांचदिवसीय कार्यशाला पिछले दिनों 3 मार्च को संपन्न हो गई. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली (आईसीएआर) के अधीन कृषि तकनीकी अनुप्रयोग अनुसंधान संस्थान (अटारी) जोन द्वितीय, जोधपुर और राष्ट्रीय प्रसारण एवं मल्टीमीडिया प्रसार भारती, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस कार्यशाला की मेजबानी प्रसार शिक्षा निदेशालय, एमपीयूएटी ने की.

कार्यशाला के समापन समारोह के मुख्य अतिथि एमपीयूएटी के पूर्व कुलपति डा. उमाशंकर शर्मा ने कहा कि कृषि में संकट और तनाव को राजस्थान खासकर मेवाड़ और मारवाड़ का किसान बखूबी जानता है. मारवाड़ में कम वर्षा होने के बावजूद यहां का किसान हार नहीं मानता. यही नहीं, सीमावर्ती जिलों के युवा सेना में बड़ी संख्या में भरती होते हैं. ऐसे युवा देश के लिए जान तक न्योछावर कर देता है, लेकिन यहां का किसान ऐसे संकट और तनाव को भी सहन कर जाता है.

जलवायु परिवर्तन की बात करें, तो बांसवाड़ा में माही डेम बनने के बाद पाला कम पड़ने लगा है. ऐसे में बांसवाड़ा में किसान रबी में मक्का की फसल भी लेने लगे, जो एक हेक्टेयर में 80 क्विंटल तक उत्पादन देती है. इस के अलावा प्रतापधन मुरगीपालन भी किसानों को खूब संबल देती है. महज 2 महीने में ही इस में 6 किलोग्राम मांस हो जाता है. इस का अंडा भी 25 रुपए प्रति नग बिकता है.

प्रसार भारती की अतिरिक्त महानिदेशक अनुराधा अग्रवाल ने कहा कि आकाशवाणी व दूरदर्शन केंद्र रेतीली फसल एपीसोड तैयार करेंगे. कार्यशाला में कृषि उत्पादों में क्याकुछ नया हो रहा है, किसान को इस के बारे में विस्तार से सीखने को मिला. देश के दूसरे राज्यों में भी इस तरह के कार्यक्रमों के प्रसारण से किसानों के मार्गदर्शन का काम प्रसार भारती करेगा.

अटारी, जोधपुर के निदेशक डा. जेपी मिश्रा ने कहा कि संकट को संकट ही बना रहने देंगे, तो समाधान संभव नहीं है. बदलाव एकाएक किसी को रास नहीं आता है, लेकिन बदलाव जरूरी है, तभी संकट का समाधान हो पाएगा.

खेती में पशुपालन फायदेमंद, गौ संरक्षण भी जरूरी

उदयपुर : रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से जमीन की सेहत और पौलीथिन व अन्य डिस्पोजेबल के इस्तेमाल से गायों की सेहत इतनी बिगड़ चुकी है कि वह एक दिन स्वच्छ दूध देना भी बंद कर देंगी. ये बात स्कूल शिक्षा एवं पंचायती राज मंत्री मदन दिलावर ने कही.

मंत्री मदन दिलावर राजस्थान कृषि महाविद्यालय के नूतन सभागार में ’कृषि दक्षता और पशु कल्याण को सुदृढ़ बनाने की दिशा में सटीक पशुधन प्रबंधन तकनीक’ विषयक तीनदिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में बतौर मुख्य अतिथि संबोधित कर रहे थे.

सम्मेलन में देशभर के 29 प्रांतों के लगभग 400 वैज्ञानिक, पशुधन के जानकार व किसानों ने भाग लिया. उन्होंने गिर, साहीवाल, थारपारकर गायों का जिक्र करते हुए कहा कि जिन का कंधा ऊंचा हो, सही मायने में उन्हीं गायों का दूध लाभप्रद है.

उन्होंने विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का आह्वान किया कि वे इस रणनीति पर काम करें कि हमारी पारंपरिक देसी गायों का संरक्षण किया जा सके. पुराने समय से हमारे पूर्वजों ने खेती करना शुरू किया होगा तो कितने संकट आए होंगे. खुदाई कर मिट्टी तैयार करना, खेत का आकार देना. तब खेती में बैलों का ही इस्तेमाल होता था. हल के माध्यम से खेतीकिसानी का काम होता था. आज के तकनीकी दौर में मशीनीकरण का बोलबाला है. हमें बैलों की महत्ता को भी नहीं भूलना चाहिए.

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने बताया कि उन के दो वर्ष तीन माह के कार्यकाल में एमपीयूएटी ने 44 पेटेंट हासिल किए. इस तरह कुल 55 पेटेंट विश्वविद्यालय के नाम हैं.

उन्होंने विश्वविद्यालय के पशुधन वैज्ञानिकों आह्वान किया कि मंत्री मदन दिलावर की मंशा के अनुसार अपनी गायों की ब्रीड को संरक्षित करने की दिशा में सारगर्भित शोध करने की जरूरत है. देश को ऐसी कृषि प्रणाली की जरूरत है, जो न केवल पशु हितैषी हो, बल्कि वातावरण और पर्यावरण को बचाने वाली भी हो. 21वीं पशुगणना के परिणाम भी इस में मददगार साबित होंगे.

विशिष्ट अतिथि अमूल आणंद (गुजरात) के महाप्रबंधक डा. अमित व्यास ने कहा कि विश्व में 240 मीट्रिक टन दूध उत्पादन में हमारे देश की भागीदारी 23 फीसदी है. देश में सर्वाधिक दूध उत्पादन में उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा स्थान राजस्थान का है.

डा. अमित व्यास ने कहा कि गाय का दूध कैसे बढ़े और खर्च कम कैसे हो. इस पर अमूल बड़े पैमाने पर काम कर रहा है और सफलता भी मिली है. अमूल प्रतिष्ठान में 400 पशु चिकित्सकों की टीम में नित्य गायों की देखभाल में लगी है और लक्षण दिखाई देते ही इलाज आरंभ कर दिया जाता है. खास बात यह है कि आयुर्वेदिक व होमियोपैथिक दवाओं से गायों का इलाज किया जा रहा है. ऐसी तकनीक किसानों तक भी पहुंचनी चाहिए. साथ ही, अमूल बायोगैस, गायों की खुराक, कृत्रिम गर्माधान, ड्रोन तकनीक पर भी लगातार काम कर रहा है.

कार्यक्रम में राज्यसभा चुन्नी लाल गरासिया, एमबीएस विश्वविद्यालय जोधपुर के कुलपति डा. अजय शर्मा, भारतीय पशु उत्पादन एवं प्रबंधन सोसायटी सरदार कृषि नगर दांतीवाड़ा (गुजरात) के अध्यक्ष डा. एपी चौधरी ने भी संबोधित किया.

आयोजन सचिव सिद्धार्थ मिश्रा ने बताया कि राजस्थान कृषि महाविद्यालय के पशु उत्पादन विभाग और भारतीय पशु उत्पादन एवं प्रबंधन सोसायटी के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित तीनदिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन में कुल 7 तकनीकी सत्रों में वैज्ञानिकों ने उपरोक्त विषय पर गहन मंथन किया. आरंभ में सम्मेलन समन्वयक डा. जेएल चौधरी ने स्वागत भाषण दिया. संचालन डा. गायत्री तिवारी ने किया.

लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड व सम्मान

समारोह में लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड तमिलनाडु के डा. त्यागराज शिवकुमार को दिया गया, जबकि पशु उत्पादन के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने पर डा. बालूस्वामी (तमिलनाडु), डा. बीएस खद्दा (मोहली), डा. बी. सतीशचंद्र (कर्नाटक), डा. बी. रमेश (तमिलनाडु) को शील्ड व सम्मानपत्र दे कर सम्मानित किया गया. साथ ही, इफको के प्रबंधक सुधीर मान व शिक्षा मंत्री के विशेषाधिकारी डा. सुनील दाधीच को भी स्मृति चिन्ह दे कर सम्मानित किया गया.

गाय का दूध पिलाओ – बच्चा चंचल व तेज दिमाग का होगा
‘पाडा तो पाडा ही रहेगा’

शिक्षा मंत्री मदन दिलावर ने कहा कि गाय का दूध पीने वाला बच्चा सदैव चंचल, तेज दिमाग वाला होता है, जबकि भैंस का दूध पीने वाला बच्चा ऊंगणिया (आलसी) होता है. गाय के बछड़े को छोड़ते ही वह उछलताकूदता सीधे अपनी मां के पास पंहुच जाता है.

उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि गाय का बछड़ा थोड़ा बड़ा होने पर केरड़ा, नारकिया और अंत में बैल बनता है, जबकि भैंस का बच्चा जन्म से अंत तक पाडा ही रहता है.

कृषि दक्षता व पशु कल्याण विषयक राष्ट्रीय सम्मेलन में मंत्री मदन दिलावर ने स्पष्ट किया कि हर पशु का अपना महत्व है. यदि चेतक घोड़ा नहीं होता तो महाराणा प्रताप का नाम इतना आगे नहीं होता.

उन्होंने आगे कहा कि ऊंट को राज्य पशु का दर्जा दिया गया है. यह प्रजाति भी विलुप्त होने के कगार पर है. वैज्ञानिकों को इसे बचाने के उपाय ईजाद करने होंगे. सीमा सुरक्षा मामले में भी ऊंट की अपनी अहमियत है. ‘रेगिस्तान के जहाज’ के नाम से परिचित ऊंट बीएसएफ के लिए वरदान है, जो बिना पानी पीए 8-10 दिन निकाल लेता है. लेकिन गाय की अपनी विशेष महत्ता है. गाय का गोबर व मूत्र से कई बीमारियां स्वतः भाग जाती हैं. कोई भी पवित्र कार्य करने से पूर्व गोबर से लिपाई का चलन है, ताकि शुद्धता बरकरार रहे.

उन्होंने यह भी कहा कि राजस्थान में कितना भी संकट आए, यहां का किसान आत्महत्या नहीं करता है. अकेली गाय ही अपने दूध से किसान का पेट भर सकती है. हमें दूध, पनीर, मिठाई, चाय तो भाती है, लेकिन गाय नहीं सुहाती. इसलिए हम ने उसे निकाल दिया और वह सड़कों पर, खेतों में या फिर बूचड़खाने ही उन के लिए बचे हैं.