अश्वगंधा है लाभकारी फसल

अश्वगंधा औषधीय पौधों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है. सोलेनेसी कुल के इस 1-4 फुट तक ऊंचे पौधे का नाम ‘अश्वगंधा’ मूलत: इस के संस्कृत अर्थ से पड़ा है, जिस का मतलब है ‘अश्व’ के समान ‘गंध’ वाला. इस पौधे के पत्ते और जड़ को मसल कर सूंघने से उन में अश्व (घोड़े) के पसीने और मूत्र/अस्तबल की जैसी गंध आती है, जिस से संभवत: इसे अश्वगंधा नाम मिला.

अश्वगंधा बहुत ही आसानी से उगने वाला बहुवर्षीय पौधा है, जिस की 2-3.5 इंच लंबी 1-1.5 इंच चौड़ी नुकीली पत्तियां होती हैं और पुष्प हरिताभ अथवा बैगनी आभा लिए पीताभ, वृंतरहित छत्रक समगुच्छों में होता है, जिस के घंटिकाकार और मृदु रोमश कैलिक्स फलों के साथ बढ़ कर रसभरी की भांति फलों को आवृत्त कर लेता है.

फल मटर के आकार वाले लाल नारंगी रंग के होते हैं. बीज असंख्य, अतिछुद्र, वृक्काकार और बैगन के बीज के समान होते हैं. मूल (जड़) शंक्वाकार मूली की तरह, परंतु उस से कुछ पतली होती हैं. जड़ ही इस का मुख्य उपयोगी भाग है. इस की जड़ों में लगभग काफी अधिक एल्केलाइड्स पाए जाते हैं, जिन में विथानिन और सोमनीफेरेन मुख्य हैं.

अश्वगंधा का प्रत्येक भाग (जड़, पत्ते, फल व बीज) औषधीय उपयोग के लिए इस्तेमाल किया जाता है, परंतु सर्वाधिक उपयोग इस की जड़ों का ही है.

अश्वगंधा  की अंर्तराष्ट्रीय बाजार में अत्यधिक मांग है, फिर भी किसानों में जागरूकता की कमी के कारण इस की खेती बहुत कम क्षेत्रफल में हो रही है, इसलिए अश्वगंधा की मांग और पूर्ति में भारी अंतर को देखते हुए वृहद स्तर पर इस की खेती की नितांत आवश्यकता है.

अश्वगंधा का खेतीकरण

अश्वगंधा एक बहुवर्षीय पौधा है, जो निरंतर सिंचाई की व्यवस्था में कई वर्षों तक चल सकता है, परंतु इस की खेती 6-7 माह की फसल के रूप में की जाती है. शुष्क प्रदेशों में प्राय: इसे खरीफ  की फसल के रूप में लगाया जाता है और जनवरीफरवरी माह में उखाड़ लिया जाता है. इस की बिजाई का सब से उपयुक्त समय 15 अगस्त से 10 सितंबर तक का है.

इस की बड़े पैमाने पर खेती निम्न प्रकार की जाती है:

भूमि और जलवायु

यह शुष्क और समशीतोष्ण क्षेत्रों का पौधा है. इस की सही बढ़त के लिए शुष्क मौसम ज्यादा उपयुक्त होता है. अत्यधिक वर्षा वाले और ठंडे क्षेत्रों में इस की खेती नहीं की जा सकती है.

जड़दार फसल होने के कारण इस की खेती नरम और पोली मिट्टी में अच्छी प्रकार की जा सकती है, क्योंकि इस मिट्टी में इस की जड़ें ज्यादा गहराई में जा सकती हैं. इस प्रकार रेतीली दोमट और हलकी लाल मिट्टियां इस की खेती के लिए उपयुक्त हैं. खेत में समुचित जल निकास की व्यवस्था हो और पानी न रुके. अत्यधिक उपजाऊ और भारी मिट्टी में पौधे बड़ेबड़े हो जाते है, परंतु जड़ों का उत्पादन अपेक्षाकृत कम ही मिलता है. इस तरह कम उपजाऊ, उचित जल निकासयुक्त बलुईदोमट और हलकी लाल, पर्याप्त जीवांशयुक्त मिट्टी इस की खेती के लिए उपयुक्त मानी गई हैं.

उन्नतशील प्रजातियां

अश्वगंधा की नागौरी अश्वगंधा, जवाहर अश्वगंधा-20, जवाहर अश्वगंधा-134, डब्ल्यूएस-90, डब्ल्यूएस-100 आदि प्रजातियां हैं, जिन में से नागौरी और जवाहर अश्वगंधा प्रजातियां अत्यधिक प्रचलित हैं.

खेत की तैयारी

अश्वगंधा की व्यावसायिकता और अधिकाधिक उत्पादन की दृष्टि से आवश्यक होता है कि मानसून के प्रारंभ में (जुलाईअगस्त) में ख्ेत की 2 बार आड़ीतिरछी जुताई की जाए, तदुपरांत प्रति हेक्टेयर 5 ट्रौली (8-10 टन) सड़ी गोबर की खाद डाल कर दोबारा जुताई की जाए. उस के बाद ख्ेत में पाटा लगा दिया जाना चाहिए.

बिजाई की विधि

व्यावसायिक रूप से इस का प्रवर्धन बीज के द्वारा किया जाता है, जिस में बीज को सीधे खेत में बोया जाता है. सीधे खेत में बिजाई करने की मुख्यत: 2 विधियां अपनाई जाती हैं. पहली छिटकवां विधि और दूसरी लाइन में बोआई.

छिटकवां विधि के अंतर्गत 10-12 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज ले कर उस में 5-6 गुना बालू/रेत मिला लिया जाता है, तदुपरांत हलका हल चला कर बालू मिश्रित बीजों को छिड़क कर खेत में चला कर बहुत ही हलका पाटा लगाया जाता है.

लाइन की बिजाई करने की दशा में 30-45 सैंटीमीटर की दूरी पर 10-15 सैंटीमीटर ऊंची मेंड़ें बना कर उस पर 1-1.5 सैंटीमीटर गहरी लाइन बना लेते हैं. तत्पश्चात इन लाइनों में हाथ से बीज डालते रहते हैं. उस के बाद मेंड़ की मिट्टी से बीज को हलका सा ढक देते हैं.

सीडड्रिल मशीन से बोआई

सीडड्रिल मशीन में मोटी बालू के साथ बीज को मिला कर भी बोआई की जा सकती है. व्यावसायिक दृष्टिकोण से लाइनों में बोआई ज्यादा खर्चीली होती है.

बोआई करते समय यह ध्यान रखें कि मौसम सूखा हो और बोआई के बाद 5-7 दिनों तक भारी वर्षा की संभावना कम हो. इस के अतिरिक्त यह ध्यान रखें कि बीज नया हो और बोआई के बाद भारी पाटा न लगाएं.

अश्वगंधा की फसल में बीजजनित कुछ बीमारियां देखी गई है, जिन से बचने के लिए बोआई से पूर्व थीरम या डायथेन एम-45 दवा से (2.5 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर) उपचार कर के इन रोगों से बचा जा सकता है. जैविक फफूंदनाशी ट्राइकोडर्मा से बीजोपचार के द्वारा भी इन रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है.

पौधों का विरलीकरण और खरपतवार नियंत्रण

सीधी विधि विशेषकर छिटकवां विधि से बिजाई करने की दशा में पौधों का विरलीकरण करना आवश्यक होता है. इस के लिए बिजाई से 25-30 दिन पश्चात पौधों को इस प्रकार निकाला जाता है कि पौधों से पौधों की दूरी 10-15 सैंटीमीटर और लाइन से लाइन की औसत दूरी 20-25 सैंटीमीटर रख कर बोई गई फसल में पौधे से पौधे की दूरी 10-15 सैंटीमीटर रखनी चाहिए.

अश्वगंधा की फसल में भी बहुत से खरपतवार आ जाते हैं, जिन के नियंत्रण के लिए हाथ से निराईगुड़ाई की जाती है. पौधों के विरलीकरण और खरपतवार नियंत्रण का कामों साथसाथ भी किया जा सकता है.

खाद और उर्वरक

अश्वगंधा की फसल को ज्यादा दैनिकी जरूरत नहीं पड़ती है. यदि इस से पूर्व में ली गई फसल में उर्वरक का अधिक प्रयोग किया गया है, तो बिना खाद डाले ही अश्वगंधा की फसल ली जा सकती है.

ज्यादा नाइट्रोजन  मिलने से तनों की वृद्धि अधिक होती है, जिस से जड़ का विकास कम हो जाता है. औषधीय फसल होने से इस में रासायनिक खादों, खरपतवारनाशी और कीटनाशी के प्रयोग से बचना चाहिए. बोआई से पहले केवल गोबर की खाद या वर्मी कंपोस्ट डालना पर्याप्त होता हैं.

सिंचाई

अश्वगंधा एक वर्षा आधारित फसल है. यह काफी कम सिंचाई में अच्छी उपज देती है. बिजाई के समय भूमि में मध्यम नमी होना आवश्यक है. बिजाई के 30-35 दिन और 60-70 दिन बाद वर्षा न होने की दशा में हलकी सिंचाई की आवश्यकता होती है.

फसल सुरक्षा

अश्वगंधा की फसल में भी कुछ रोगों व कीड़ों का प्रकोप देखा गया है, जिस के नियंत्रण के लिए समुचित बीज का उपचार और खड़ी फसल में गौमूत्र या नीम आधारित कीटनाशक का छिड़काव लाभकारी सिद्ध होता है.

फसल का पकना और जड़ों की खुदाई

अश्वगंधा के पौधे में फूल और फलन दिसंबर महीने में होता है. बोआई के 5-6 माह के उपरांत (जनवरीफरवरी माह) जब इस की निचली पत्तियां पीली पड़ने लगें और इन के ऊपर आए कुछ फल पकने लगें, तब पौधों को उखाड़ लिया जाना चाहिए.

यदि सिंचाई की व्यवस्था हो, तो पौधों को उखाड़ने से पूर्व खेत में हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए, जिस से पौधे आसानी से उखड़ जाएं. बहुत कम फल आने पर ही खुदाई करना सर्वोत्तम रहता है, क्योंकि पौधे के अत्यधिक परिपक्व होने की दशा में जड़ें कठोर हो जाती हैं और उन की गुणवत्ता खराब होती है.

उखाड़ने के तत्काल बाद जड़ों को तने से अलग कर दिया जाना चाहिए. उस के बाद जड़ों से मिट्टी साफ कर के 7-8 दिनों तक हलकी छाया वाले स्थान पर सुखाया जाना चाहिए.

जब ये जड़ें तोड़ने पर ‘खट’ की आवाज से टूटने लगें, तो समझना चाहिए कि जड़ें सूख कर बिक्री के लिए तैयार हैं. उत्पादन का सही मूल्य प्राप्त करने के लिए जड़ों को 3 श्रेणियों में बांटा गया है :

‘ए’ ग्रेड जड़ : इस श्रेणी में मुख्य और जड़ का ऊपर वाला भाग आता है, जिस की लंबाई 5-6 सैंटीमीटर या उस से अधिक और व्यास 1-1.5 सैंटीमीटर होता है. इस ग्रेड की जड़ के अंदर का भाग ठोस और सफेद होता है. इस में स्टार्च और एल्केलाइड्स अधिक होता है.

‘बी’ ग्रेड जड़ : इस श्रेणी में जड़ का बीच वाला हिस्सा आता है. जड़ के इस भाग की औसतन लंबाई 3.5-5 सैंटीमीटर और व्यास 0.5-0.7 सैंटीमीटर रहता है.

‘सी’ ग्रेड जड़ : इस श्रेणी में अधिक मोटी, काष्ठीय कटीफटी खोखली और बहुत छोटी जड़ें आती हैं.

उपरोक्त तरीके से श्रेणीकरण करने से उपज का अच्छा मूल्य मिल जाता है, क्योंकि अच्छी फसल में ज्यादातर ‘ए’ और ‘बी’ ग्रेड की जड़ें होती हैं, जिन का बाजार मूल्य अच्छा मिलता है.

Ashwagandha Products
Ashwagandha Products

उपज और आय

एक हेक्टेयर फसल से औसतन 4-5 क्विंटल सूखी जड़ें प्राप्त होती हैं, परंतु अच्छी प्रजातियों में 7-8 क्विंटल तक भी उत्पादन हो सकता है.

इस के अतिरिक्त 50-80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज का भी उत्पादन होता है. जड़ें औसतन 200-220 रुपए प्रति किलोग्राम और बीज 150-200 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिक जाता है.

इस तरह से प्रति हेक्टेयर तकरीबन 1,40,000-1,70,000 रुपए जड़ से और 7,500-10,000 रुपए बीज से प्राप्त हो सकते हैं. प्रति हेक्टेयर लागत तकरीबन 24,000-30,000 रुपए आती है. इस तरह शुद्ध लाभ 1,20,000-1,50,000 रुपए प्रति हेक्टेयर तक मिल सकता है.

इस प्रकार अन्य नकदी फसलों की तुलना में अश्वगंधा के खेती में शुद्ध लाभ कम है, परंतु नकदी फसलों की तुलना में इस की खेती आसानी से कम उपजाऊ और कम पानी वाली जमीन में की जा सकती है. इस को पशुओं से नुकसान का भी खतरा कम रहता है.

अश्वगंधा का विपणन अन्य औषधीय पौधों की अपेक्षा आसान है, क्योंकि इस की मांग अधिक है और इस को आसानी से कुछ समय तक भंडारित कर के रखा जा सकता है.

इस प्रकार देखा जा सकता है कि अश्वगंधा न केवल मानवीय स्वास्थ्य की दृष्टि से, बल्कि व्यावसायिक दृष्टि से भी काफी लाभकारी फसल है. कम खर्चे में, कम पानी में और कम उपजाऊ जमीनों में इस का उगना और बिक्री में आसानी के कारण इस का भविष्य उज्ज्वल है. इन्हीं विशेषताओं के कारण भारी संख्या में किसान इस की खेती को अपना कर अच्छा लाभ प्राप्त कर रहे हैं.

नोट : अश्वगंधा की उपज, लागत व शुद्ध लाभ क्षेत्र विशेष में खेती और बाजार दर पर आधारित है. यह अन्य क्षेत्र, खेती की तकनीकी, भूमि व जलवायु और बाजार दर में कम या ज्यादा हो सकती है. 

लहसुन की खेती में कीटरोग रोकथाम

लहसुन की खेती में कीट व रोगों की रोकथाम कर अच्छा मुनाफा लिया जा सकता है. लहसुन जड़ वाली फसल है, इसलिए खासकर ध्यान रखें कि हमारे खेत की मिट्टी रोगरहित हो. अगर फिर भी पौधों में कीट व रोगों का प्रकोप दिखाई दे, तो समय रहते उन का उपचार करें.

लहसुन के खास कीट

माहू : इस के निम्फ और वयस्क दोनों ही पौधों से रस चूसते हैं, जिस से पत्तियां किनारों से मुड़ जाती हैं. कीट की पंख वाली जाति लहसुन में वाइरसजनित रोग भी फैलाती है. ये चिपचिपा मधुरस पदार्थ अपने शरीर के बाहर निकालते हैं, जिस से पत्तियों के ऊपर काली फफूंद पनपती देखी जा सकती है, जिस से पौधों के भोजन बनाने की क्रिया पर असर पड़ता है.

रोकथाम : माहू का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे ट्रैप का इस्तेमाल करें, जिस से माहू ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं. परभक्षी कौक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया को एकत्र कर 50,000-1,00,000 अंडे या सूंड़ी प्रति हेक्टेयर की दर से छोडे़ं. जरूरतानुसार डाईमिथोएट 30 ईसी या मैटासिस्टौक्स 25 ईसी 1.25-2.0 मिलीलिटर प्रति लिटर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

लहसुन का मैगट : मैगट पौधे के तने व शल्क कंद में घुस कर नुकसान पहुंचाते हैं. बड़े शल्क कंदों में 8 से 10 मैगट एकसाथ घुस कर उसे खोखला बना देते हैं.

रोकथाम: शुरुआत में रोगी खेत पर काटाप हाइड्रोक्लोराइड 4जी की 10 किलोग्राम मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में बिखेर कर सिंचाई कर दें. बढ़ते हुए पौधों पर मिथोमिल 40 एसपी की 1.0 किलोग्राम या ट्राईजोफास 40 ईसी की 750 मिलीलिटर मात्रा को 500-600 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने पर नए निकले हुए मैगट मर जाते हैं.

थ्रिप्स : इस कीट का हमला तापमान के बढ़ने के साथसाथ होता है व  मार्च महीने में इस का हमला ज्यादा दिखाई देता है. यह कीट पत्तियों से रस चूसता है, जिस से पत्तियां कमजोर हो जाती हैं और रोगी जगह पर सफेद चकत्ते पड़ जाते हैं, जिस के कारण पत्तियां मुड़ जाती हैं.

रोकथाम : लहसुन की कीट रोधी प्रजातियां उगानी चाहिए. कीट के ज्यादा प्रकोप की दशा में 150 मिलीलिटर इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल को 500-600 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

Garlicमाइट्स : इस कीट के प्रकोप से पत्ती का असर वाला भाग पीला हो जाता है और पत्तियां मुड़ी हुई निकलती हैं. वयस्क और शिशु कीट दोनों ही नई पत्तियों का रस चूस कर फसल को नुकसान पहुंचाते हैं.

रोग के शुरू में सब से पहले पौधों की निचली पत्तियां तैलीय हो जाती हैं और बाद में पूरा पौधा तैलीय हो जाता है. रोगी पत्तियां छोटी हो जाती हैं और चमड़े की तरह दिखाई देती हैं. पत्तियां निचली तरफ से तांबे जैसी रंगत की दिखाई देती हैं. माइट का ज्यादा हमला होने से रोगी पत्तियां सूख कर गिर जाती हैं और पूरा पौधा मुरझा कर सूख जाता है.

रोकथाम : रोगी पौधों के कंद व जड़ सहित उखाड़ कर नष्ट कर दें. घुलनशील गंधक 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर या कैराथीन 500 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करें. मैटासिस्टौक्स छिड़कने से भी फायदा होता है.

लहसुन के रोग

विगलन : इस रोग का असर कंदों पर खेतों में या भंडारगृह दोनों में हो सकता है. खेत में रोगी पौधा पीला हो जाता है और जड़ें सड़ने लगती हैं.

कभीकभी रोग के लक्षण बाहर से नहीं दिखाई पड़ते हैं, लेकिन लहसुन की गर्दन के पास दबाने से कुछ शल्क मुलायम जान पड़ते हैं. बाद में ये शल्क भूरे रंग के हो जाते हैं. सूखे मौसम में शल्क धीरेधीरे सूख कर सिकुड़ जाते हैं, जिस की वजह से छिलका फट कर अलग हो जाता है.

रोकथाम : खेत को ट्राईकोडर्मा नामक जैव फफूंद की 2.5 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से उपचारित करना चाहिए. गरमी के महीनों में खेत की अच्छी तरह जुताई कर के खुला छोड़ दें, जिस से कि कवक व अन्य रोग जनकों की मौत हो जाए. कंदों को बोआई से पहले 2.0 ग्राम कार्बंडाजिम का प्रति लिटर पानी की दर से घोल बना कर उपचारित करें.

बैगनी धब्बा : इस रोग से लहसुन को काफी नुकसान होता है. इस रोग के लक्षण पत्तियों, कंदों पर उत्पन्न होते हैं, शुरू में छोटे धंसे हुए धब्बे बनते हैं, जो बाद में बड़े हो जाते हैं. धब्बे के बीच का भाग बैगनी रंग का हो जाता है. यदि आप उसे हाथों से छुएं तो काले रंग का चूर्ण हाथ में चिपका हुआ दिखाई देता है. रोगी पत्तियां झुलस कर गिर जाती हैं. रोगी पौधों से प्राप्त कंद सड़ने लगते हैं.

रोकथाम : 2-3 साल का सही फसल चक्र अपनाएं. रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैंकोजेब की 2.0 ग्राम मात्रा प्रति लिटर पानी की दर से घोल बना कर 2 बार छिड़काव करें.

सफेद सड़न : इस बीमारी से कलियां सड़ने लगती हैं.

रोकथाम : जमीन को ट्राईकोडर्मा नामक जैव फफूंद की 2.5 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से उपचारित करना चाहिए. गरमी के महीनों में खेत की अच्छी तरह जुताई कर के खुला छोड़ दें जिस से कि कवक व अन्य रोग जनकों की मौत हो जाए. कंदों को बोआई के पहले 2.0 ग्राम कार्बंडाजिम का प्रति लिटर पानी की दर से घोल बना कर उपचारित करें.

कंद सड़न : इस बीमारी का हमला भंडारण में होता है.

रोकथाम : इस की रोकथाम के लिए कंद को 2 फीसदी बोरिक अम्ल से उपचारित कर के भंडारण करना चाहिए. बीज के लिए यदि कंद को रखना हो तो 0.1 फीसदी मरक्यूरिक क्लोराइड से उपचारित कर के रखें. खड़ी फसल में मैंकोजेब की 2.0 ग्राम मात्रा का प्रति लिटर पानी की दर से छिड़काव करें.

फुटान : नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों के ज्यादा इस्तेमाल से यह बीमारी फैलती है. इस के अलावा ज्यादा पानी या ज्यादा दूरी पर रोपाई की वजह से फुटान ज्यादा होता है. इस बीमारी से लहसुन कच्ची दशा में कई छोटेछोटे फुटान देता है, जिस से कलियों का भोजन पदार्थ वानस्पतिक बढ़वार में इस्तेमाल होता है.

रोकथाम : लहसुन की रोपाई कम दूरी पर करें और नाइट्रोजन व सिंचाई का इस्तेमाल ज्यादा न करें. ऐसे रोगी पौधों को देखते ही पौलीथिन की थैली से ढक कर सावधानीपूर्वक उखाड़ कर मिट्टी में दबा दें.

बीजों को बोने से पहले वीटावैक्स 2.5 ग्राम या टेबूकोनाजोल 1.0 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम की दर से उपारित करें.

लहसुन की खेती और खास प्रजातियां

लहसुन कंद वाली मसाला फसल है. इस में एलसिन नामक तत्त्व पाया जाता है, जिस के कारण इस में एक खास गंध व तीखा स्वाद होता है. इस का इस्तेमाल गले और पेट संबंधी बीमारियों के अलावा हाई ब्लड प्रेशर, पेटदर्द, फेफड़े के रोगों, कैंसर, गठिया, नपुंसकता और खून की बीमारी दूर करने के लिए किया जाता है.

आजकल लहसुन का प्रसंस्करण यानी प्रोसैस कर के पाउडर, पेस्ट व चिप्स तैयार करने की तमाम इकाइयां काम कर रही हैं, जो प्रसंस्करण किए गए उत्पादों को दूसरे देशों में बेच कर अच्छा मुनाफा कमा रही हैं.

जलवायु : लहसुन को ठंडी जलवायु की जरूरत होती है. वैसे तो लहसुन के लिए गरमी और सर्दी दोनों ही मौसम मुनासिब होते हैं, लेकिन ज्यादा गरम और लंबे दिन इस के कंद बनने के लिए सही नहीं रहते हैं. छोटे दिन इस के कंद बनने के लिए अच्छे माने जाते हैं. इस की सफल खेती के लिए 29 से 35 डिगरी सेल्सियस तापमान मुनासिब होता है.

खेत की तैयारी : इस के लिए जल निकास वाली दोमट मिट्टी बढि़या रहती है. भारी मिट्टी में इस के कंदों की सही बढ़ोतरी नहीं हो पाती है. मिट्टी का पीएच मान 6.5 से 7.5 ठीक रहता है. 2-3 बार जुताई कर के खेत को अच्छी तरह एकसार कर के क्यारियां व सिंचाई की नालियां बना लेनी चाहिए.

अन्य किस्में : नासिक लहसुन, अगेती कुआरी, हिसार स्थानीय, जामनगर लहसुन, पूना लहसुन, मदुरई पर्वतीय व मैदानी लहसुन, वीएलजी 7 आदि स्थानीय किस्में हैं.

बोआई का समय : लहसुन की बोआई का सही समय अक्तूबर से नवंबर माह के बीच होता है.

बीज व बोआई : लहसुन की बोआई के लिए 5 से 6 क्विंटल कलियां बीजों की प्रति हेक्टेयर जरूरत होती है. बोआई से पहले कलियों को मैंकोजेब और कार्बंडाजिम दवा के घोल से उपचारित करना चाहिए.

लहसुन की बोआई कूंड़ों में बिखेर कर या डिबलिंग तरीके से की जाती है. कलियों को 5 से 7 सैंटीमीटर की गहराई में गाड़ कर ऊपर से हलकी मिट्टी से ढक देना चाहिए. बोते समय कलियों के पतले हिस्से को ऊपर ही रखते हैं. बीज से बीज की दूरी 8 सैंटीमीटर व कतार से कतार की दूरी 15 सैंटीमीटर रखना ठीक होता है. बड़े क्षेत्र में फसल बोने के लिए गार्लिक प्लांटर का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

खाद व उर्वरक : सामान्य तौर पर प्रति हेक्टेयर 20 से 25 टन सड़ी गोबर की खाद या कंपोस्ट या 5 से 8 टन वर्मी कंपोस्ट, 100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस व 50 किलोग्राम पोटाश की जरूरत होती है. इस के अलावा 175 किलोग्राम यूरिया, 109 किलोग्राम डाई अमोनियम फास्फेट व 83 किलोग्राम म्यूरेट औफ पोटाश की जरूरत होती है. गोबर की खाद, डीएपी व पोटाश की पूरी मात्रा और यूरिया की आधी मात्रा खेत की आखिरी तैयारी के समय मिला देनी चाहिए. बाकी बची यूरिया की मात्रा  खड़ी फसल में 30 से 40 दिनों बाद छिड़काव के साथ देनी चाहिए.

सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की मात्रा का इस्तेमाल करने से उपज में बढ़ोतरी होती है. 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर 3 साल में 1 बार इस्तेमाल करना चाहिए.

सिंचाई व जल निकास : बोआई के तुरंत बाद हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. वानस्पतिक बढ़ोतरी के समय 7 से 8 दिनों के अंतर पर और फसल पकने के समय 10 से 15 दिनों के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए, पर खेत में पानी नहीं भरने देना चाहिए.

निराईगुड़ाई व खरपतवार नियंत्रण : जड़ों में हवा की सही मात्रा के लिए खुरपी या कुदाली द्वारा बोने के 25 से 30 दिनों बाद पहली निराईगुड़ाई व 45 से 50 दिनों बाद दूसरी निराईगुड़ाई करनी चाहिए.

Lahsun
Lahsun

खुदाई व लहसुन का सुखाना : जिस समय पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाएं और पौधा सूखने लग जाए तो सिंचाई बंद कर के खुदाई करनी चाहिए. इस के बाद गांठों को 3 से 4 दिनों तक छाया में सुखा लेते हैं. फिर 2 सैंटीमीटर छोड़ कर पत्तियों को कंदों से अलग कर लेते हैं. कंदों को भंडारण में पतली तह में रखते हैं. ध्यान रखें कि फर्श पर नमी न हो.

बढ़ोतरी नियामक का प्रयोग : लहसुन की उपज ज्यादा हो, इसलिए 0.05 मिलीलिटर प्लैनोफिक्स या 500 मिग्रा साइकोसिल या 0.05 मिलीलिटर इथेफान प्रति लिटर पानी में घोल बना कर बोआई के 60 से 90 दिनों बाद छिड़काव करना सही रहता है.

कंद की खुदाई से 2 हफ्ते पहले 3 ग्राम मैलिक हाइड्रोजाइड प्रति लिटर पानी का छिड़काव करने से भंडारण के समय अंकुरण नहीं होता है व कंद 10 महीने तक बिना नुकसान के रखे जा सकते हैं.

भंडारण : अच्छी तरह से सुखाए गए लहसुन को उन की छंटाई कर के हवादार घरों में रख सकते हैं. 5 से 6 महीने भंडारण से 15 से 20 फीसदी तक का नुकसान मुख्य रूप से सूखने से होता है. पत्तियां सहित बंडल बना कर रखने से कम नुकसान होता है.

सौंफ की खेती

भारत में सौंफ मसाले की एक खास फसल है. सौंफ का इस्तेमाल औषधि के रूप में भी किया जाता है. भारत में सौंफ की खेती खासतौर से राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और बिहार में होती है. यह सर्दी के मौसम में बोई जाने वाली फसल है. लेकिन जब सौंफ में फूल आने लगते हैं, तो उस समय पाले का असर इस पर पड़ता है. इसलिए इस का खास ध्यान रखना चाहिए. हलके ठंडे मौसम खासतौर से जनवरी से मार्च तक का समय इस की उपज व गुणवत्ता के लिए बहुत फायदेमंद रहता है. फूल आते समय लंबे समय तक बदली या अधिक नमी से बीमारियों को बढ़ावा मिलता है.

उन्नत किस्में :

आरएफ 143, आरएफ 125, आरएफ 125, आरएफ 101, आरएफ 205, जीएफ 11, जीएफ 1, जीएफ 2, पीएफ 35, एएफ 1.

खेत की तैयारी : सौंफ की खेती बलुई मिट्टी को छोड़ कर सभी प्रकार की जमीन में, जिस में जीवांश सही मात्रा में हों, की जा सकती है. लेकिन अच्छी पैदावार के लिए जल निकास की सुविधा वाली, दोमट व काली मिट्टी ठीक होती है. भारी व चिकनी मिट्टी के बजाय दोमट मिट्टी ज्यादा अच्छी रहती है.

खाद व उर्वरक : फसल की अच्छी बढ़वार के लिए जमीन में सही मात्रा में जैविक पदार्थ का होना जरूरी है. यदि इस की सही मात्रा जमीन में न हो, तो 10 से 15 टन अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर खेत की तैयारी से पहले डाल देनी चाहिए. इस के अलावा 90 किलोग्राम नाइट्रोजन व 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए. 30 किलोग्राम नाइट्रोजन व फास्फोरस की पूरी मात्रा खेत की आखिरी जुताई के साथ डाल देनी चाहिए. बाकी बची नाइट्रोजन को 2 भागों में बांट कर 30 किलोग्राम बोआई के 45 दिन बाद व 30 किलोग्राम फूल आने के समय फसल की सिंचाई के साथ दें.

बीज की मात्रा व बोआई : सौंफ के लिए 8-10 किलोग्राम अच्छा बीज प्रति हेक्टेयर बोआई के लिए सही होता है. ज्यादातर बोआई छिटकवां विधि से की जाती है.

सौंफ की बोआई रोपण विधि द्वारा या सीधे कतारों में भी की जाती है. सीधी बोआई के लिए 8 से 10 किलोग्राम व रोपण विधि से करने पर 3 से 4 किलोग्राम बीज की प्रति हेक्टेयर जरूरत होती है.

रोपण विधि से बोआई के लिए जुलाईअगस्त में 100 वर्गमीटर क्षेत्र में पौध शैय्या लगाई जाती है और सितंबर में रोपाई की जाती है. इस की बोआई बीच सितंबर से बीच अक्तूबर तक की जाती है. बोआई 40 से 50 सैंटीमीटर के फासले पर कतारों में हल के पीछे कूंड़ों में 2-3 सैंटीमीटर की गहराई पर करें. पौधों को पौधशाला में सावधानी से उठाएं, जिस से जड़ों को नुकसान नहीं हो. रोपाई दोपहर के बाद गरमी कम होने पर करें और उस के तुरंत बाद सिंचाई करें. सीधी बोआई में बोआई के 7 से 8 दिन बाद दूसरी हलकी सिंचाई करें, जिस से अंकुरण पूरा हो जाए.

बोआई का समय : इस की बोआई का सही समय 15 सितंबर के आसपास होता है.

सिंचाई : सौंफ को ज्यादा सिंचाई की जरूरत होती है. बोआई के समय खेत में नमी कम हो तो बोआई के 3-4 दिन बाद हलकी सिंचाई करनी चाहिए, जिस से बीज जम जाएं. सिंचाई करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि पानी का बहाव तेज न हो, नहीं तो बीज बह कर किनारों पर इकट्ठा हो जाएंगे.

दूसरी सिंचाई बोआई के 12 से 15 दिन बाद करनी चाहिए, जिस से बीजों का अंकुरण पूरा हो जाए. इस के बाद सर्दियों में 15 से 20 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए. फूल आने के बाद फसल को पानी की कमी नहीं होनी चाहिए.

खरपतवार पर नियंत्रण : सौंफ में शुरुआती बढ़वार धीमी होती है और लाइन व पौधों की दूरी ज्यादा होने से खरपतवारों का असर ज्यादा होता है. इस में खरपतवार नियंत्रण के लिए पहली निराई व गुड़ाई 30 दिन बाद जब पौधे 5 सैंटीमीटर लंबे हो जाएं तब करें. इस समय लाइनों के अंदर पौधे से पौधे के बीच की दूरी भी 20 सैंटीमीटर कर दें. इस के बाद जरूरत के मुताबिक 1 से 2 बार निराई व गुड़ाई कर के फसल को पूरी तरह से खरपतवारों से दूर रख सकते हैं. पेंडीमिथेलीन 1.0 किलोग्राम को 600 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से सौंफ की बोआई के बाद, मगर उगने से पहले छिड़काव कर के इसे खरपतवारों से दूर रखा जा सकता है.

खास कीट : फसल पर एफिड (माहू), थ्रिप्स, पर्णजीवी, मक्खी व माइट्स (बरूथी) वगैरह कीट खासतौर से हमला करते हैं.

एफिड : इस के प्रौढ़ व बच्चे पौधों की मुलायम पत्तियों व फूलों से रस चूसते हैं, साथ ही मधुरस छोड़ने से पौधों पर काली फफूंद जम जाती है. कीट लगे पौधे कमजोर हो जाते हैं. दाने सिकुड़ जाने से उपज और गुणवत्ता में कमी हो जाती है.

काक्सीनेला परभक्षी कीट इस की संख्या को कुछ हद तक नियंत्रित रखते हैं. जरूरत होने पर इन मित्र कीटों (परभक्षी व मधुमक्खियां) की सुरक्षा रखते हुए केवल सिफारिश की गई दवाओं का इस्तेमाल करना चाहिए. निगरानी के लिए चिपचिपे पाश काम में लें. काक्सीनेला न मिलने पर नीम से बने (निंबोली अर्क 5 फीसदी या तेल ईसी 0.03) कीटनाशी का छिड़काव कीट के लगने पर करें.

माइट्स (बरूथी) : यह भी बहुत ही छोटा जीव है, जो पत्तियों पर घूम कर रस चूसता है, जिस से पौधे पीले पड़ जाते हैं और दाने कम व सिकुड़े हुए बनते हैं. इस से गुणवत्ता व उपज की कमी हो जाती है.

थ्रिप्स (पर्णजीवी) : यह बहुत ही छोटा कीट है, जो कोमल व नई पत्तियों से रस चूसता है. कीट लगी पत्तियों पर धब्बे बन जाते हैं व पत्तियां पीली पड़ जाती हैं.

सौंफ मधुमक्खियों द्वारा परागित फसल है. इस की फसल पर पेस्टीसाइड्स का इस्तेमाल सोचसमझ कर करना चाहिए. सुरक्षित (जैविक, पादपजनित) कीटनाशी दवाओं का इस्तेमाल केवल जरूरत के मुताबिक ही किया जाना चाहिए.

सौंफ के रोग

छाछिया (पाउडरी मिल्ड्यू) : यह रोग इरीसाईफी पोलीगोनी नामक कवक से होता है. इस रोग में पत्तियों, टहनियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता है, जो बाद में पूरे पौधे पर फैल जाता है. इस के अधिक फैलने से उत्पादन व गुणवत्ता पर असर पड़ता है.

रोकथाम : गंधक चूर्ण का 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव करें या घुलनशील गंधक का 2 ग्राम प्रति लिटर पानी या केराथेन एलसी का 1 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें. अगर जरूरत महसूस करें तो 15 दिन बाद इस का दोबारा छिड़काव करें.

जड़ व तना गलन : यह रोग स्क्लेरोटिनिया स्क्लेरोटियोरम व फ्यूजेरियम सोलेनाई नामक कवक से होता है. इस रोग से तना नीचे मुलायम हो जाता है व जड़ गल जाती है. जड़ों पर छोटेबड़े काले रंग के स्कलेरोशिया दिखाई देते हैं.

रोकथाम : बोआई से पहले बीजों को कार्बंडाजिम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार कर के बोआई करनी चाहिए या केप्टान 2 ग्राम प्रति लिटर पानी के हिसाब से जमीन उपचारित करनी चाहिए. ट्राइकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद में मिला कर बोआई से पहले मिट्टी में देने से रोग में कमी होती है.

झुलसा (ब्लाइट) : सौंफ की फसल में झुलसा रोग रेमुलेरिया व आल्टरनेरिया नाम के कवक से होता है. धीरेधीरे ये काले रंग में बदल जाते हैं. पत्तियों से तने व बीजों पर इस का प्रकोप बढ़ता है. संक्रमण के बाद यदि नमी लगातार बनी रहे तो रोग बढ़ जाता है.

रोग लगे पौधों पर या तो बीज नहीं बनते या बहुत कम और छोटे आकार के बनते हैं. बीजों की गुणवत्ता घट जाती है. अगर नियंत्रण न रखा जाए तो फसल को बहुत नुकसान होता है.

रोकथाम : स्वस्थ बीजों को बोने के काम में लीजिए. फसल में ज्यादा सिंचाई न करें. इस रोग के लगने की शुरुआत में फसल पर मेंकोजेब 0.2 फीसदी के घोल का छिड़काव करें. जरूरत के हिसाब से 10 से 15 दिनों बाद छिड़काव दोहराएं. झुलसा रोग रोधी आरएफ 15, आरएफ 18, आरएफ 21, आरएफ 31, जीएफ 2 सौंफ बोएं.

कटाई : सौंफ के दाने गुच्छों में आते हैं. एक ही पौधे के सब गुच्छे एकसाथ नहीं पकते हैं. लिहाजा, कटाई एकसाथ नहीं हो सकती है. जैसे ही दानों का रंग हरे से पीला होने लगे तो गुच्छों को तोड़ लेना चाहिए. सौंफ की अच्छी पैदावार के लिए फसल को ज्यादा पक कर पीला नहीं पड़ने देना चाहिए. सूखते समय बारबार पलटते रहना चाहिए वरना फफूंद लग सकती है.

अच्छी किस्म की चबाने (खाने) में काम आने वाली सौंफ पैदा करने के लिए, जब दाने का आकार पूरे विकसित दानों की तुलना में आधा होता है, तब छत्रकों की कटाई कर के साफ जगह पर छाया में फैला कर सुखाना चाहिए. इस विधि से लखनऊ 1 किस्म की सौंफ प्राप्त होती है. बोआई के लिए बीज प्राप्त करने के लिए मुख्य छत्रकों के दाने जब पूरी तरह पक कर पीले पड़ने लगें तभी काटना चाहिए.

उपज : सौंफ की अच्छी तरह से खेती की जाए, तो 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पूरी तरह विकसित व हरे दाने वाली सौंफ की उपज हासिल की जा सकती है. साधारण सौंफ की 5 से 7.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज हासिल की जा सकती है.

अदरक की खेती

आमतौर पर अदरक की खेती  सभी प्रकार की जमीन में  की जा सकती है. लेकिन उचित जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी, जिस में जीवांश की अच्छी मात्रा हो, अदरक की खेती के लिए उपयुक्त होती है. इस की अच्छी पैदावार के लिए जमीन का पीएच मान 5.0 से 6.0 के बीच होना चाहिए.

खेत की तैयारी

खेती योग्य भूमि तैयार करने के लिए 1-2 जुताई मिट्टी पलटने और 2-3 जुताई देशी हल से करनी चाहिए. मिट्टी को अच्छी तरह से समतल व भुरभुरा कर लेना चाहिए.

प्रमुख प्रजाति

सुप्रभा, सुरभि, रजाता, हिमगिरि, महिमा आदि खास प्रजाति हैं. इस के अलावा किसान लोकल प्रजाति का भी चयन खेती हेतु प्रयोग करते हैं.

बोआई का समय

अदरक की बोआई का सब से उचित समय 20 अप्रैल से 25 मई तक अच्छा माना जाता है.

बोआई के पहले डाईथेन एम 45 के 0.30 फीसदी के घोल से इस के कंदों को अच्छी तरह से उपचारित कर लेना चाहिए और छाया में सुखा लेना चाहिए.

बीज की मात्रा

अदरक की बोआई के लिए कंदों के आकार के अनुसार 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है.

बोने की नाली विधि

इस विधि का प्रयोग सभी प्रकार की जमीनों में की जा सकती है. पहले से तैयार खेत में 60 या 40 सैंटीमीटर की दूरी पर मेंड़ या नाली को हल या फावड़े से तैयार किया जाता है और बीजों को 5 से 6 सैंटीमीटर की गहराई में बोया जाता है व ऊपर से मिट्टी चढ़ा दी जाती है.

तैयार पैदावार

अदरक की फसल की अच्छी तरह सिंचाईं, निराई और देखभाल समयसमय पर की जाए, तो 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार मिलती है.

शिटाके मशरूम की व्यावसायिक खेती

शिटाके मशरूम की अपने स्वाद के कारण उपभोक्ताओं के बीच इस की अच्छी मांग है. आज के समय में चीन और जापान इस बेशकीमती मशरूम के थोक उत्पादक हैं. शिटाके मशरूम देशभर में उगाया जाता है. वर्तमान में इस का 5,700 मीट्रिक टन उत्पादन किया जा रहा है.

औषधीय गुण : शिटाके मशरूम स्वादिष्ठ होने के साथसाथ औषधीय गुणों से भी भरपूर है. इस का उपयोग बहुत से रोगों के लिए औषधि के रूप में किया जाता है. इस से कैंसर, एड्स, एलर्जी, संक्रमण, फ्लू और जुकाम, ब्रोंकियल सूजन और मूत्र असंयम को विनियमित करने के साथसाथ उच्च कोलेस्ट्रॉल को कम करने के लिए उपयोग किया जाता है.

शिटाके मशरूम में बीग्लूकन और एरीटाडेनिन जैसे घटक होते हैं, जिन में वसा कम करने वाले प्रभाव होते हैं. बीग्लूकेन भोजन के सेवन को कम करता है, पोषण के अवशोषण को धीमा करता है, तृप्ति बढ़ाता है और प्लाज्मा लिपिड के स्तर को कम करता है.

शिटाके मशरूम का सेवन मोटापा और अन्य चयापचय संबंधी विकारों को रोकता है और उन का इलाज करता है. यह प्रतिरक्षा शक्ति को बढ़ाता है, जो रोगों से लड़ने में मदद करता है, क्योंकि इस में खनिज, विटामिन और एंजाइम होते हैं.

शिटाके मशरूम कैंसर कोशिकाओं का मुकाबला करने में सहायता करता है. ‘लेंटिनन’ जैसे घटक की उपस्थिति गुणसूत्रों की क्षति की मरम्मत करती है, जो कैंसररोधी उपचारों का परिणाम है.

शिटाके मशरूम का सेवन ट्यूमर कोशिकाओं के विकास को रोकता है. शिटाके मशरूम में स्टेरोल यौगिक लिवर में कोलेस्ट्रॉल के उत्पादन को रोकता है.

शिटाके मशरूम को आहार में शामिल करने से महत्वपूर्ण तत्त्व जिंक व अतिरिक्त विटामिन ‘बी’ मिलता है. यह वसा और चीनी से रहित है, इसलिए मधुमेह रोगियों और हृदय रोगियों के लिए उत्कृष्ट है.
हड्डियों को स्वस्थ बनाए रखने और हृदय रोग, आटोइम्यून रोग, मधुमेह और कुछ कैंसर की संभावना को कम करने के लिए विटामिन डी आवश्यक है. यह फास्फोरस और कैल्शियम के चयापचय और अवशोषण के लिए भी आवश्यक है. विटामिन डी की पर्याप्त मात्रा प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ावा देती है, मस्तिष्क के कार्य और शरीर के वजन को बनाए रखती है, संधिशोथ और मल्टीपल स्केलेरोसिस के विकास को कम करती है.

व्यावसायिक खेती : शिटाके मशरूम की व्यावसायिक खेती तुनी, आम, सफेदा, ओक, मेपल और चिनार जैसे चौड़े पत्तों वाले पेड़ों के बुरादे पर की जा सकती है. चौड़े पत्तों वाले पेड़ों के बुरादे का 80 किलोग्राम बुरादा, 19 किलोग्राम गेहूं का चोकर और एक किलोग्राम कैल्शियम कार्बोनेट लें और इस मिश्रण की नमी 60-65 फीसदी और जिप्सम का उपयोग कर के पीएच मान 5.5-6.0 पर होना चाहिए. लकड़ी के बुरादे को 6-18 घंटे और गेहूं के चोकर को 3 घंटे तक भिगो कर रखें. इस मिश्रण को अच्छी तरह से मिलाने के बाद 1.5 से 2 किलोग्राम क्षमता वाले गरमी प्रतिरोधी पौलीप्रोपाइलीन थैलियों में भरें. थैलियों को पहले ढीले ढंग से भरा जाता है और बाद में बेलनाकार आकार पाने के लिए दबाया जाता है.

थैलियों को भरने के बाद इस के मुहाने पर पीवीसी या लोहे का छल्ला डाला जाता है और फिर इन छल्लों पर गैरशोषक रुई बंद यानी सील किया जाता है. बाद में इन मिश्रण से भरे थैलों का आटोक्लेव में डाल कर 22 पौंड प्रेशर पर डेढ़ से दो घंटे तक निर्जीवीकरण किया जाता है.

स्पान यानी बीज का रोपण और फैलाव : शिटाके मशरूम की खेती के लिए तैयार किए गए मिश्रण में स्पान यानी बीज का रोपण करने के लिए पहले थैलों के मुहाने पर लगाई गई रुई की प्लग यानी डाट को हटा लें. अनाजों पर तैयार शिटाके मशरूम के स्पान यानी बीज को सड़न रोकने वाली परिस्थितियों में 3 फीसदी की दर से मिलाया जाता है. स्पान यानी बीज को मिलाने के बाद थैलों को 22-26 डिगरी सैल्सियस पर प्रकाश में 4 घंटे और अंधेरे में 20 घंटे के चक्र में फसल उगने वाले कमरे में उगाया जाता है.

बीज के मिश्रण में फैलने में 60-80 दिन या उस से अधिक का समय लग सकता है. इस अवधि के दौरान इस फफूंद का कवक जाल विकास और फल बनने की विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरती है. फलने के लिए उपयुक्त तापमान, उच्च वास्तविक आर्द्रता, हवा का अच्छा प्रवाह और ठंडे पानी के शाक उपचार की आवश्यकता होती है. इस के लिए लकड़ी के बुरादे पर स्पान फैले हुए ढेलों को 5-8 दिनों के बाद, ठंडे पानी के 4-6 डिगरी सैल्सियस तापमान पर 10-20 मिनट के लिए शाक उपचार दिया जाता है और फिर इस के बाद अगले 5-7 दिनों में खुंब निकलने शुरू हो जाते हैं. मशरूम के डंठल को बुरादे वाले मिश्रण से तोड़ा जाता है. इन की प्रारंभिक अवस्था में ही कटाई कर लेनी चाहिए. इस मशरूम की सामान्य उपज वृद्धि के लिए तैयार लकड़ी के बुरादे मिश्रण के गीले वजन का 35-45 फीसदी तक हो जाती है.

इस मशरूम की व्यावसायिक खेती की नई तकनीक को हाल ही में हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले के चंबाघाट में स्थित मशरूम अनुसंधान निदेशालय और बैंगलुरु के पास हसरगट्टा में भारतीय बागबानी अनुसंधान संस्थान ने विकसित किया है. ताजा मशरूम बाजार में 1,500 रुपए प्रति किलोग्राम बिकता है. अगर हम इसे सुखाते हैं, तो यह बाजार में 15,000 रुपए प्रति किलोग्राम तक में बिकता है.

औषधीय गुणों से भरपूर लसोड़ा

अब किसान कम क्षेत्र में ऐसे खेती के काम करने लगे हैं, जिस से उन्हें कम लागत में ज्यादा मुनाफा हो. किसान अब बाजार की हर गतिविधि पर भी नजर रखने लगे हैं कि उन्हें किस गतिविधि से ज्यादा आमदनी मिल सकती है.

पिछले कुछ सालों में लोगों में सेहत के प्रति जागरूकता बढ़ी है और वे परंपरागत खाद्य पदार्थों के बजाय ऐसी चीजों का इस्तेमाल करने लगे हैं जो पौष्टिक और गुणकारी हों.

लसोड़ा या लहसुआ के औषधीय गुणों को देखते हुए इस की मांग बाजार में बढ़ने लगी है. इस नजरिए से किसानों में लसोड़े के बाग लगाने में दिलचस्पी बढ़ी है, क्योंकि उन्हें कम लागत में ज्यादा आमदनी मिल रही है. साथ ही, लसोड़े को बेचने में कोई समस्या भी नहीं होती.

लसोड़े के फल 30-35 रुपए प्रति किलोग्राम तक में आसानी से बिक जाते हैं. लसोड़े के एक हेक्टेयर क्षेत्र में लगाए बाग से किसान हर साल तकरीबन साढ़े 4 लाख रुपए आसानी से हासिल कर लेते हैं.

लसोड़े के फल में जो चिकना गूदा होता है, उस में कई गुणकारी तत्त्व होते हैं जो कब्ज, अतिसार, हैजा, कफ वगैरह रोगों की रोकथाम में उपयोगी साबित हुए हैं, वहीं इस का अचार ज्यादा गुणकारी माना गया है. इसी वजह से इस की मांग दिनोंदिन बढ़ती जा रही है.

राजस्थान में लसोड़े के बाग ऐसे मरुस्थलीय इलाकों में लगाए जा रहे हैं, जहां पानी की उपलब्धता बहुत कम होती है क्योंकि लसोड़े को साल में महज 4 बार पानी देने से ही फल आने शुरू हो जाते हैं. कुछ किसान इसी के बाग लगाने के बजाय खेतों की मेंड़ों पर पौधे लगाते हैं.

लसोड़े के बाग लगाने से पहले गरमियों में तकरीबन डेढ़ से 2 फुट चौड़े गड्ढे खोद कर उस में मिट्टी व गोबर की खाद बराबर मात्रा में मिला कर भर देते हैं. जुलाई या अगस्त माह में बारिश होती  है तो इन गड्ढों में पानी भर जाता है.

पानी के सूख जाने के बाद उस की फिर से खुदाई कर 6-6 मीटर की दूरी पर इस के पौधे लगाए जाते हैं यानी एक हेक्टेयर क्षेत्र में तकरीबन 177 पौधों की जरूरत होती है. पौधे लगाने के तकरीबन 15-20 दिन बाद सिंचाई करना शुरू कर दिया जाता है ताकि पौधे की बढ़वार बनी रह सके.

सालभर बाद ही लसोड़े में फल आना शुरू हो जाते हैं. एक परिपक्व पेड़ से साल में केवल एक बार में ही तकरीबन 60 से 70 किलोग्राम कच्चे फल हासिल किए जा सकते हैं. लसोड़े के पौधों के बीच की खाली जगह पर दूसरी फसलें जैसे मेथी, पालक, लहसुन, प्याज वगैरह की फसलें भी ली जा सकती हैं.

राजस्थान के झुंझुनूं जिले की चिड़ावा तहसील में रामकृष्ण जयदयाल डालमिया सेवा संस्थान ने क्षेत्र की भौगोलिक व पर्यावरणीय परिस्थिति को देखते हुए लसोड़े के बाग लगाए हैं जिन से किसानों की आमदनी बढ़ कर तकरीबन डेढ़ से दोगुनी हो गई है. संस्थान ने क्षेत्र के तकरीबन 40 गांवों में 3,000 पौधे अनुदानित कीमत पर मुहैया कराए हैं जो आज फल उत्पादन कर किसानों की आमदनी में भागीदार बने हुए हैं.