गन्ना फसल को रोगों से बचाएं

गन्ना लंबी अवधि वाली फसल है, जिस के कारण इस फसल में रोगों की संभावनाएं बनी रहती हैं. गन्ना फसल में ये रोग अपने क्षेत्रानुसार अलगअलग भी हो सकते हैं, इसलिए समय रहते रोगों का निदान जरूरी है, तभी हम अच्छी उपज भी ले सकेंगे.

लाल सड़न रोग ऐसे पहचानें लक्षण

* लाल सड़न एक फफूंदजनित रोग है. इस रोग के लक्षण अप्रैल से जून महीने तक पत्तियों के निचले भाग (लीफ शीथ के पास) से ऊपर की तरफ मध्य सिरे पर लाल रंग के धब्बे मोतियों की माला जैसे दिखते हैं.

* जुलाईअगस्त महीने मेें ग्रसित गन्ने की अगोले की तीसरी से चौथी पत्ती एक किनारे या दोनों किनारों से सूखना शुरू हो जाती है. नतीजतन, धीरेधीरे पूरा अगोला सूख जाता है.

* तने के अंदर का रंग लाल होने के साथ ही उस पर सफेद धब्बे भी दिखाई देते हैं. तना अंदर से सूंघने पर सिरके या अल्कोहल जैसी गंध आती है.

प्रबंधन के उपाय

* किसान अवमुक्त रोग रोधी गन्ना किस्म की ही बोआई करें.

* लाल सड़न रोग से अधिक प्रभावित क्षेत्रों में किस्म को. 0238 की बोआई न करें. इस के स्थान पर अन्य स्वीकृत गन्ना किस्म की रोगरहित नर्सरी तैयार कर बोआई का काम करें.

* बोआई के पहले कटे हुए गन्ने के टुकड़ों को 0.1 फीसदी कार्बंडजिम 50 डब्ल्यूपी या थियोफनेट मिथाइल 70 डब्ल्यूपी के साथ रासायनिक शोधन जरूर करें.

* मृदा का जैविक शोधन मुख्यत: ट्राइकोडर्मा या स्यूडोमोनास कल्चर से 10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 100-200 किलोग्राम कंपोस्ट खाद में 20-25 फीसदी नमी के साथ मिला कर जरूर करें.

* बोआई के पहले कटे हुए गन्ने के टुकड़ों को सेट ट्रीटमैंट डिवाइस (0.1 फीसदी कार्बंडाजिम 50 डब्ल्यूपी या थियोफनेट मिथाइल 70 डब्ल्यूपी, 200 एचजीएमएम पर 15 मिनट) या हौट वाटर ट्रीटमैंट (52 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान पर 2 घंटे) या एमएचएटी (54 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान, 95-99 फीसदी आर्द्रता पर ढाई घंटे) के साथ शोधन जरूर करें.

* अप्रैल से जून माह तक अपने खेत की लगातार निगरानी करते रहें. पत्तियों के मध्य सिरे के नीचे रुद्राक्ष/मोती के माला जैसे धब्बे के आधार पर पहचान कर पौधों को जड़ सहित निकाल कर नष्ट कर दें और गड्ढे में 10 से 20 ग्राम ब्लीचिंग पाउडर डाल कर ढक दें या 0.2 फीसदी थियोफनेट मिथाइल के घोल की ड्रैचिंग करें.

* रोग दिखाई देने पर ऊपर बताई गई प्रक्रिया जुलाईअगस्त महीने में भी लगातार जारी रखें.

* अप्रैल से जून महीने तक 0.1 फीसदी थियोफनेट मिथाइल 70 डब्ल्यूपी या कार्बंडाजिम 50 डब्ल्यूपी का पर्णीय छिड़काव करें.

* ज्यादा वर्षा होने पर लाल सड़न रोग से संक्रमित खेत का पानी किसी दूसरे खेत में रिसाव को रोकने के लिए उचित मेंड़ बनाएं.

* लाल सड़न रोग से प्रभावित क्षेत्रों में 10 फीसदी संक्रमण से ज्यादा वाले रोगग्रस्त फसल की पेड़ी न लें.

* लाल सड़न रोग से संक्रमित खेत में तुरंत कोई अन्य रोग रोधी गन्ना किस्म की बोआई कम से कम एक साल तक न करें और सुविधानुसार गेहूं, धान, हरी खाद या उपयुक्त फसलों के साथ फसलचक्र अपना कर ही बोआई करें.

* संक्रमित गन्ने की कटाई के बाद उस अवशेषों को खेत से पूरी तरह बाहर कर के नष्ट कर दें और गहरी जुताई कर फसलचक्र अपनाएं.

* अन्य प्रदेशों से बीज गन्ना लाने से पहले वैज्ञानिकों/शोध संस्थानों से अनुशंसा प्राप्त करनी चाहिए.

Suagrcaneपोक्का बोइंग रोग ऐसे पहचानें लक्षण

* यह फफूंदीजनित रोग है.

* इस रोग के स्पष्ट लक्षण विशेष रूप से जुलाई से सितंबर महीने (वर्षाकाल) तक प्रतीत होते हैं.

* पत्रफलक के पास की पत्तियों के ऊपरी व निचले भाग पर सिकुड़न के साथ सफेद धब्बे दिखाई देते हैं.

* चोटी की कोमल पत्तियां मुरझा कर काली सी पड़ जाती हैं और पत्ती का ऊपरी भाग सड़ कर गिर जाता है.

* ग्रसित अगोला के ठीक नीचे की पोरियों की संख्या अधिक व छोटी हो जाती हैं. पोरियों पर चाकू से कटे जैसे निशान भी दिखाई देते हैं.

प्रबंधन के उपाय

* किसी एक फफूंदीनाशक का घोल बना कर 15 दिन के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करें.

* इस रोग के लक्षण प्रतीत होते ही कार्बंडाजिम 50 डब्ल्यूपी का 0.1 फीसदी (400 ग्राम फफूंदीनाशक) का 400 लिटर पानी के साथ प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें.

* कौपर औक्सीक्लोराइड 50 डब्ल्यूपी के 0.2 फीसदी (800 ग्राम फफूंदीनाशक) का 400 लिटर पानी के साथ प्रति एकड़ की दर से छिड़कें.

पत्ती की लालधारी व बैक्टीरियल टौप रौट रोग

ऐसे पहचानें लक्षण

* यह बैक्टीरियाजनित रोग है और इस रोग का असर जून से वर्षा ऋतु के अंत तक रहता है.

* पत्ती के मध्यशिरा के समानांतर गहरे लाल रंग की जलीय धारियां दिखाई देती हैं.

* इस के संक्रमण से गन्ने के अगोले के बीच की पत्तियां सूखने लगती हैं और बाद में पूरा अगोला ही सूख जाता है.

* पौधे के शिखर कलिका से तने का भीतरी भाग ऊपर से नीचे की ओर सड़ जाता है.

* गूदे के सड़ने से बहुत ज्यादा बदबू आती है और तरल पदार्थ सा प्रतीत होता है.

प्रबंधन के उपाय

* यांत्रिक प्रबंधन में संक्रमित पौधों को काट कर खेत से निकाल दें.

* रासायनिक प्रबंधन के लिए कौपर औक्सीक्लोराइड 50 डब्ल्यूपी का 0.2 फीसदी (800 ग्राम फफूंदीनाशक) और स्ट्रैप्टोसाइक्लिन का 0.01 फीसदी (40 ग्राम दवा) का 400 लिटर पानी के घोल के साथ प्रति एकड़ की दर से 15 दिन के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करें.

घासीय प्ररोह रोग

ऐसे पहचानें लक्षण

* यह रोग फाइटोप्लाज्मा द्वारा संक्रमित होता है. इस का प्रभाव वर्षाकाल में अधिक होता है.

* रोगी पौधों की पत्तियों का रंग सफेद हो जाता है.

* थानों की वृद्धि रुक जाती है. गन्ने बौने और पतले हो जाते हैं और ब्यांत बढ़ जाने से पूरा थान झाड़ीनुमा हो जाता है.

प्रबंधन के उपाय

* ग्रसित पौधों को खेत से निकाल कर दूर नष्ट करें.

* आर्द्र वायु उष्मोपचार शोधन तकनीकी के अंतर्गत बीज गन्ने को 54 डिगरी सैंटीग्रेड वायु का तापमान, 95-99 फीसदी आर्द्रता पर ढाई घंटे तक उपचारित करें.

* जल उष्मोपचार से बीज गन्ने को 52 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान पर 2 घंटे के लिए शोधन करें.

* रोग की अधिकता की दशा में वाहक कीट के नियंत्रण के लिए कीटनाशक इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 200 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर का 625 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

कंडुआ रोग

ऐसे पहचानें लक्षण

* यह फफूंदीजनित रोग है.

* रोगी पौधों की पत्तियां छोटी, नुकीली और पंखे के आकार की होती जाती हैं. गन्ना लंबा व पतला हो जाता है.

* गन्ने के अगोले के ऊपरी भाग से काला कोड़ा निकलता है, जो कि सफेद पतली झिल्ली द्वारा ढका होता है.

प्रबंधन के उपाय

* बोआई के समय गन्ने के टुकड़ों को प्रोपिकोनाजोल 25 ईसी या कार्बंडाजिम 50 डब्ल्यूपी के 0.1 फीसदी घोल में 5-10 मिनट तक उपचारित करें.

* ग्रसित पौधों में बन रहे काले कोड़ों को बोरों से ढक कर खेत से निकाल कर दूर नष्ट करें.

* प्रोपिकोनाजोल 25 ईसी के 0.1 फीसदी घोल का 15 दिनों के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करें.

* आर्द्र वायु उष्मोपचार या जल उष्मोपचार से शोधन करें.

गृह वाटिका में लगे पौधों को रखे हरा भरा

आज हमारे चारों ओर बड़ेबड़े भवनों का निर्माण होता जा रहा है, तो उन्हीं बिल्डिंगों के आसपास छोटेबड़े लौन, फुलवारी, बालकौनियों, यहां तक कि छतों पर भी कुछ न कुछ उपाय कर के कुछ फूलों, फलों, सब्जियों, सजावटी लताओं के पौधों को भी लगाया जा रहा है.

कहींकहीं जिन के पास बड़े आवास हैं, वे लोग अपने आवास के चारों ओर की चारदीवारी के अंदर बची हुई जगहों को गृह वाटिका में बदल कर दैनिक उपयोग के लिए सब्जियों, फूलों और फलों को उगा रहे हैं.

यह हकीकत है कि हम कितने भी आधुनिक क्यों न हो जाएं, हमारा पौधों के प्रति लगाव या कहें कि आकर्षण कम नहीं हो सकता है. मनुष्य की आवश्यकता और पेड़पौधों के आसपास रहने की आदत ने ही बागबानी की शुरुआत की है.

आजकल छोटे या बड़े कार्यालयों के बरामदे में रखने वाले और कम धूप में उग सकने वाले पौधे आसानी से मिल जाएंगे. मगर जितना ये पौधे हमें देखने में अच्छे लगते हैं, उतनी ही उन की देखरेख करने की भी आवश्यकता होती है. किसी भी गृह वाटिका में पौधों की वृद्धि, उत्पादन व सुंदरता पूरी तरह से वाटिका के प्रबंधन पर निर्भर करती है.

यदि दैनिक आवश्यकतानुसार फूल, फल व सब्जियां प्राप्त करने के लिए गृह वाटिका को बनाया गया है, तो हमें इस का प्रबंधन इस तरह करना चाहिए, जिस से कि कम लागत व कम से कम समय लगा कर अधिकतम उत्पादन को प्राप्त कर सकें. साथ ही, वे सुंदर व स्वच्छ भी बनी रहें. सुनियोजित रूप से गृह वाटिका का प्रबंधन कर के हम उस को हमेशा हराभरा बनाए रख सकते हैं, जिस के लिए हमें निम्नलिखित सुझावों को अपनाने की आवश्यकता है :

मृदा का शुद्धीकरण

सब से पहले जो भी मृदा हम उपयोग के लिए ले रहे हैं, उस का शुद्धीकरण करने की आवश्यकता होती है, अन्यथा मृदा में रहने वाले अनेक प्रकार के हानिकारक कीट या कवक पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. जैसा कि देखा गया है कि गमलों, क्यारियों और नर्सरी के पौधों में सब से खतरनाक कवकजनित रोग तना सड़ने लगता है, जो पौधों की बढ़वार पूरी तरह से रोक देता है और पौधे सूख कर नष्ट हो जाते हैं.

इस रोग से बचने के लिए कैप्टान या थिरम को 5 ग्राम प्रति लिटर पानी के घोल का प्रयोग कवकनाशी के रूप में किया जा सकता है. यदि दीमक आदि का प्रकोप है, तो 2 से 4 मिलीलिटर क्लोरोपायरीफास को एक लिटर पानी में घोल कर लगभग 5 सैंटीमीटर गहराई तक की मिट्टी को तरबतर कर देने से दीमक नष्ट हो जाते हैं और हमारी पौधशाला कीटों व रोगों से सुरक्षित रहती है.

ऐसे करें बीजों की बोआई

गृह वाटिका में फूलों को सीधे बीज बो कर या पौधों की रोपाई द्वारा लगाया जाता है. हमेशा सीजन के अनुसार उगाने के लिए चयनित बीजों को किसी विश्वसनीय दुकान से ही लेना चाहिए. कुछ सब्जियां जैसे मटर, गाजर, मूली, शलजम, पालक, मेथी, बाकला, आलू, अदरक, हलदी और कुछ फूल जैसे हाली हार्ट, स्वीट पी आदि को निर्धारित समय पर तय दूरी पर बीज बो कर उगाया जाता है.

टमाटर, बैगन, मिर्च, गांठ गोभी, प्याज, फूलगोभी, पत्तागोभी आदि सब्जियों और अधिकांश मौसमी फूलों के बीज को पहले पौधशाला में उगाया जाता है, जिन में से बाद में स्वस्थ पौधों को क्यारियों में रोपा जाता है. इसलिए हो सके, तो उन के बीजों का उपचार भी कर लें.

कुछ पौधे ऐसे भी होते हैं, जो बरसात में खरपतवार की तरह हमें यहांवहां देखने को मिल जाते हैं, जैसे मकोय, भूमिआंवला, दूधीघास, अश्वगंधा, शतावर, तुलसी, दवनामरुआ, नागदोन, शंखपुष्पी आदि. इन की देखभाल के लिए कोई विशेष प्रबंध भी नहीं करना पड़ता. इसी तरह फलदार पेड़ों में भी पहले बीज या कलम से पौध तैयार करते हैं. बाद में उसे रोपण विधि से क्यारियों या वांछित स्थानों पर लगा देते हैं.

पौध प्रतिरोपण एक ऐसा उद्यान कार्य है, जिस में यदि पूरी सावधानी नहीं बरती गई, तो कभीकभी रोपे गए सारे पौधे नष्ट हो जाते हैं. पौध लगाते समय हम सभी को निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए :

* पौध लगाते समय यह जानकारी अवश्य रखनी चाहिए कि पौधे वांछित किस्म के ही हों.

* पौधे स्वस्थ व निरोगी होने चाहिए.

* उखाड़े गए पौधे की जड़ें ढक कर रखनी चाहिए. उखाड़ने के बाद उन की यथाशीघ्र रोपाई कर देनी चाहिए.

* पौधो को निर्धारित दूरी पर ही लगाया जाना चाहिए.

* पौध रोपाई करते समय कुछ पत्तियां तोड़ देनी चाहिए और यदि शाखाएं अधिक हों, तो कुछ शाखाएं भी तोड़ देनी चाहिए.

* रोपण सायंकाल के समय करना उत्तम रहता है. इस से पौधों को रात के ठंडे तापमान में स्थापित होने का समय मिल जाता है.

* लगाते समय पौधे की जड़ों के पास अधिक उर्वरक नहीं देना चाहिए और उर्वरकों को पानी में घोल कर मिट्टी में मिलाया जाना अधिक उपयोगी रहता है.

* रोपण के तुरंत बाद उस की जड़ों के आसपास की मिट्टी को अच्छी तरह से दबा देना चाहिए, ताकि जड़ क्षेत्र में हवा न रहे.

* रोपण के तुरंत बाद सिंचाई अवश्य करनी चाहिए, जिस से पौधों की जड़ें मिट्टी के संपर्क में आ जाएं और वे तुरंत भोजन प्राप्त करना आरंभ कर दें.

* पेड़ों के लिए गड्ढा आवश्यकता से अधिक गहरा नहीं बनाना चाहिए.

* रोपण के समय पौधा सीधा खड़ा रहना चाहिए और उस का पर्याप्त भाग मिट्टी में दबा रहना चाहिए.

गृह वाटिका में लगाए गए पौधों को सहारा देना

लता वाली फसलों जैसे लौकी, तोरई, खीरा, करेला, अंगूर को सहारा देने की आवश्यकता होती है, क्योंकि यदि उन्हें सहारा न दिया जाए, तो वे भूमि पर फैल जाती हैं और उन पर लगने वाली सब्जियां भूमि के संपर्क में आने के कारण पूर्णाकार तक पहुंचने से पहले ही सड़ने लगती हैं, खासकर लौकी, जो लता वाली सब्जियों में काफी लंबी होती है. इस में यह देखा गया है कि यदि पौधों को सुचारु ढंग से सहारा दिया जाए और फलों को लटकने का अवसर मिल जाए, तो वे फल लंबे, चिकने व सुंदर होते हैं. यदि इन पौधों को सहारा नहीं दिया जाता है, तो इन में जो फल लगते हैं, वे आकार में टेढ़ेमेढ़े होते हैं.

इसी तरह कुछ लता वाले पुष्प भी होते हैं, जैसे मनी प्लांट, अपराजिता, रंगून क्रीपर, माधवी लता आदि, जिन को सुचारु रूप से सहारा दिया जाना आवश्यक होता है. थोड़ा सा ही सहारा मिलने पर उन की बढ़वार भी सही होती है और फूलों की गुणवत्ता भी बनी रहती है. ज्यादातर इस तरह के पौधों को बागड़ के पास उगाया जाता है, जिस से कि यह बाद में बागड़ पर चढ़ जाए और अच्छी तरह से फैल जाए. डहेलिया, ग्लेडियोलस, गुलदाउदी आदि में फूलों को सीधा रखने के लिए भी सहारा देना जरूरी होता है.

सहारा देने के लिए लकड़ी व बांस की बल्लियां, तार, डंडे, दीवार आदि प्रयोग किए जा सकते हैं. जहां जैसी सामग्री उपलब्ध हो, उसी के अनुसार प्रयोग किया जा सकता है. फूलों के लिए सुंदर दिखने वाले सहारे इस्तेमाल करने चाहिए. बांस को छील कर चिकनी बनाई हुई रंगरोगन लगी फट्टियां उपयुक्त रहती हैं.

फौर्मल पौधों के लिए सरकंडे की लकडि़यां अच्छी रहती हैं. डहेलिया व ग्लेडियोलस के लिए एक मजबूत लकड़ी पर्याप्त रहती है, जिस से पौधे के निकट जड़ों को बचाते हुए मिट्टी में गाड़ देना चाहिए. गुलदाउदी के पौधों को चारों ओर से कई लकडि़यां लगा कर एक घेरा सा बना दिया जाता है.

गृह वाटिका में लगे पौधों की कटाइछंटाई

गृह वाटिका में कुछ बहुवर्षीय पौधे भी लगाए जाते हैं, जिन्हें समयसमय पर कटाईछंटाई की आवश्यकता होती है. शोभाकारी झाड़ियों, फलदार पेड़ों, फूलों (जैसे आम, नीबू, संतरा, अनार, अमरूद, कटहल, गुड़हल, गुलाब, मोंगरा आदि) और कुछ बहुवर्षीय सब्जियों (जैसे परवल, कुंदरू आदि) में कटाईछंटाई की आवश्यकता पड़ती है.

ज्यादातर पर्णपाती पौधों में कटाईछंटाई दिसंबर से मार्च माह तक की जाती है और सदाबहार पौधों में जूनजुलाई व फरवरीमार्च, दोनों मौसमों में की जाती है. गुलाब में कटाईछंटाई अक्तूबर माह के पहले सप्ताह में की जाती है. रोगग्रस्त, सूखी और अनावश्यक शाखाओं को देखते ही निकाल देना चाहिए. ऐसी शाखाओं को काटने के लिए तेज चाकू या सिकेटियर का प्रयोग किया जाना चाहिए.

गृह वाटिका के पौधों की सुरक्षा

गृह वाटिका की सुरक्षा भी उतनी ही जरूरी है, जितनी कि उसे बनाना. अवांछित पशुपक्षियों के अलावा राहगीरों और छोटे बच्चों से भी गृह वाटिका के पौधों का बचाव करना पड़ता है.

यदि घर के चारों ओर पक्की चारदीवारी नहीं है, तो कांटेदार तार या उपयुक्त पौधों की बाढ़ की रोक लगा देनी चाहिए. बाढ़ कंटीले तारों के अलावा कुछ पेड़पौधों से भी की जाती है, जो कि देखने में सुंदर और फूल वाली भी होती हैं.

छोटी बाड़ के लिए नागदोन, कनेर, करौंदा आदि का प्रयोग किया जा सकता है. नागदोन के पौधे गहरे हरे, हलके हरे रंगों में आते हैं. कुछ पौधे थोड़ा हरापन लिए सफेद पत्ती के होते हैं, जो देखने में भी बहुत आकर्षक लगते हैं. इस का प्रयोग बवासीर, पेट की कृमि (कीड़े) को दूर करने के लिए भी किया जाता है.

इस बाड़ के बाहर की तरफ और बड़े कंटीले पौधे लगाए जा सकते हैं जैसे कि बौगैन्वेलिया. यह विभिन्न रंगों में तो आता ही है, कंटीला भी होता है. इसे लगाने से 3 काम होते हैं, एक तो बगीचा सुंदर लगता है, रोजाना फूल भी मिल जाते हैं और कंटीली बाड़ भी बनी रहती है.

बौगैन्वेलिया कई रंगों वाली पाई जाती है और काफी जगह को घेरती है और घनी भी होती है. यह यदि बेल की तरह चढ़ा दी जाए, तो 2-3 मंजिल तक भी फैल जाती है यदि यह काटछांट कर के रखी जाए, तो बाड़ की तरह भी काम करती है.

इसी तरह फल के मौसम में तोते आदि पक्षियों को भगाने के लिए किसी पेड़ से टिन आदि बांध कर घर के भीतर से ही उसे बीचबीच में हिला कर, ध्वनि उत्पन्न करने की व्यवस्था करनी चाहिए, जिस से इस प्रकार के नुकसान पहुंचाने वाले पक्षियों से बचा जा सके. यदि आवश्यक हो, तो जालीदार नैट का भी उपयोग किया जा सकता है, जिस से पक्षियों के आने की संभावना न के बराबर हो जाती है.

अपने प्रतिदिन के कार्यों में से यदि थोड़ा सा समय निकाल कर हम सभी अपनी गृह वाटिका में दे सकें, उस की उचित देखभाल करें, तो आप को खुशी के साथसाथ एक स्वस्थ वातावरण, रंगबिरंगे फूल, ताजा सब्जियां और मौसमी फल भी प्राप्त किए जा सकते हैं. सुनियोजित रूप से गृह वाटिका का प्रबंधन कर के हम उस को हमेशा हराभरा बनाए रख सकते हैं.

नकदी फसल है गन्ना

की वर्ड : फार्म एन फूड आर्टिकल, गन्ना नकदी  का प्रमुख स्रोत है, क्योंकि दुनियाभर में 80 फीसदी चीनी गन्ने से ही बनती है. गन्ना उत्पादन में दुनियाभर में भारत का दूसरा स्थान है.

यदि पूरे देश में गन्ने की खेती में उत्तर भारत की हिस्सेदारी देखी जाए, तो यह कुल क्षेत्रफल का 55 फीसदी है. उत्तर प्रदेश की बात की जाए, तो वहां 40 से 45 दिनों में गन्ने की खेती होती है. तकरीबन 40,00,000 किसान सीधेतौर पर गन्ने की खेती से जुड़े हुए हैं.

गन्ने के साथ लें अंत:फसल

शरदकालीन में फसली खेती के लिए गेहूं, मटर, आलू, लाही, राई, प्याज, मसूर, धनिया, लहसुन, मूली, गोभी, शलजम, चुकंदर की खेती आज भी की जा सकती है. अब स्थिति ऐसी आ गई है कि नई किस्मों से उपज दक्षिण भारत की तरह और चीनी की रिकवरी महाराष्ट्र की तरह हो रही है.

किसानों को बेहतर ट्रेनिंग देने के साथसाथ बेहतर किस्म के बीज के उपयोग से गन्ने की पैदावार में बढ़ोतरी नहीं होती. इस के लिए कुछ और बातों का भी ध्यान रखना पड़ता है, जैसे उस की बोआई कैसे की जाए, पौधों से पौधों की दूरी कितनी होनी चाहिए, खादपानी, निराईगुड़ाई, खरपतवार नियंत्रण, गन्ने की बधाई वगैरह की जानकारी होना भी बेहद जरूरी है. इस के लिए जिला एवं कृषि विज्ञान केंद्रों के कृषि वैज्ञानिकों की मदद से किसानों को ट्रेनिंग दी जाती है.

किसानों को ट्रेनिंग देने के साथसाथ उन की देखरेख में कृषि विश्वविद्यालय भी काम कर रहा है.

गन्ने के साथ सहफसल खेती के लिए कम समय में पकने वाली फसलों को चुना जाना चाहिए, जो इलाके की जलवायु, मिट्टी की उपजाऊ कूवत और स्थानीय मौसम भी अनुकूल हो, जिन में बढ़वार प्रतिस्पर्धा न हो और जिस की छाया से गन्न्ना फसल पर उलटा असर न पड़े.

बसंतकालीन गन्ने की खेती के साथ सहफसल खेती करनी है, तो उस के साथ उड़द, मूंग, भिंडी, लोबिया व हरी खाद वाली फसलों को लिया जा सकता है.

नर्सरी में तैयार गन्ने से बढ़ेगी कमाई

गन्ने की एक आंख की गोटी काट लें. गन्ना बीज को शोधित करने के लिए थायो सीनेट मिथाइल अथवा विश टीन की निर्धारित मात्रा के घोल में गन्ने के इन टुकड़ों को बरतनों में डुबो दिया जाता है. आधे घंटे तक डुबोने के बाद इन गन्ने के टुकड़ों को बाहर निकाल लिया जाता है. 18 से 20 वर्गमीटर समतल जमीन पर उर्वरक की बोरियां या प्लास्टिक शीट बिछा कर गोबर की सड़ी खाद एक से डेढ़ सैंटीमीटर मोटी बिछा दें. इस मिट्टी के ऊपर गन्ने के टुकड़ों को सीधी कतार में रख कर कम मात्रा में मिट्टी उन के ऊपर डाल दें.

जरूरत पड़ने पर पानी का छिड़काव कर दें. 20 से 30 दिन में पौधे निकलने शुरू हो जाएंगे. इन पौधों को सीधे खेत में लगाया जा सकेगा. इस से खेत में पौधों की तादाद समान रूप से होगी, जिस से उत्पादन भी अच्छा मिलेगा.

दक्षिण भारत के किसान गन्ने की प्रति हेक्टेयर 80 से 85 टन पैदावार करते हैं, जबकि उत्तर भारत के किसानों की प्रति हेक्टेयर औसत पैदावार महज 70 टन ही होती है. यही नहीं, गन्ने से चीनी की रिकवरी में उत्तर भारत के किसान महाराष्ट्र के किसानों से पिछड़ जाते हैं. महाराष्ट्र में उपज करने की चीनी की रिकवरी जहां  12 से 13 फीसदी है, वहीं उत्तर भारत में काफी कम थी, लेकिन प्रजाति 238 आने के बाद यहां की रिकवरी भी तकरीबन 13 फीसदी के करीब पहुंच गई है. इस प्रजाति ने किसानों के बीच गन्ने की खेती को और अधिक करने की ओर आकर्षित किया है.

लेकिन अब उत्तर भारत के किसानों के हालात में सुधार आने वाला है, क्योंकि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने ऐसे उन्नत बीजों का विकास किया है, जो न केवल भरपूर फसल देने में सक्षम है, बल्कि इस से चीनी की रिकवरी भी पहले की तुलना में ज्यादा हो सकेगी.

इन बीजों की उपलब्धता सभी किसानों को मुहैया कराने व खेती की तकनीकी और तरीकों से किसानों को अवगत कराने के लिए कृषि विश्वविद्यालय के टिशू कल्चर लैब के वैज्ञानिकों द्वारा किसानों को ट्रेंड किया जा रहा है.

डाक्टर आरएस सेंगर की अगुआई में उत्तर भारत के लिए विशेष रूप से विकसित कुछ किस्मों में सुधार का काम लगातार चल रहा है. सालों के अनुसंधान के बाद ऐसी किस्में तैयार की गई हैं, जिस से न केवल बेहतर उत्पादन मिल सकेगा, बल्कि इस में चीनी की रिकवरी भी काफी अच्छी हो सकेगी.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रजाति 238 से अधिक पैदावार लेने के लिए सब से पहले नर्सरी तैयार की जा रही है.

गन्ने की खेती में ध्यान रखने योग्य बातें

* जहां पानी रुकता हो, वहां पानी के निकलने का पुख्ता इंतजाम होना चाहिए.

* खाली जगहोंमें पहले से अंकुरित गन्ने के पेड़ों से गैस फिलिंग करनी चाहिए.

* अंत:फसल काटने के बाद जल्दी ही गन्ने में सिंचाई व नाइट्रोजन की टौप ड्रैसिंग कर के गुड़ाई कर देनी चाहिए.

* अंत:फसल के लिए अलग से संस्तुत की गई मात्रा के मुताबिक उर्वरकों को दिया जाना चाहिए.

किसानों को रोजगार

नई दिल्ली: पैट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने संसद में कहा कि असम राज्य देश में कुल कच्चे तेल के उत्पादन में लगभग 14 फीसदी और कुल प्राकृतिक गैस उत्पादन में लगभग 10 फीसदी का योगदान देता है. असम से पैट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के उत्पादन और आयात निर्भरता को कम करने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदमों से संबंधित प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि एशिया में पहली रिफाइनरी वर्ष 1889 में डिगबोई में कच्चे तेल के वाणिज्यिक पैमाने पर उत्पादन के बाद वर्ष 1901 में डिगबोई (असम) में स्थापित की गई थी.

उन्होंने सदन को बताया कि पिछले 4 वित्तीय वर्षों अर्थात 2019-20 से 2022-23 के दौरान राज्य सरकार को कच्चे तेल के लिए 9,291 करोड़ रुपए और गैस उत्पादन के लिए 851 करोड़ रुपए की रौयल्टी का भुगतान किया गया है.

उन्होंने विशेष रूप से नुमालीगढ़ रिफाइनरी विस्तार परियोजना, पूर्वोत्तर गैस ग्रिड, पारादीपनुमालीगढ़ कच्चे तेल की पाइपलाइन और एनआरएल बायोरिफाइनरी सहित पूर्वोत्तर क्षेत्र में 44,000 करोड़ रुपए की प्रमुख परियोजनाओं का उल्लेख किया. नुमालीगढ़ में 185 केएलपीडी क्षमता की 2जी रिफाइनरी बांस से इथेनाल का उत्पादन करेगी और स्थानीय किसानों के लिए रोजगार के बड़े अवसर सृजित करेगी.

उन्होंने सदन को यह भी बताया कि सभी पूर्वोत्तर राज्यों को शहरी गैस वितरण नैटवर्क के अंतर्गत शामिल किया जा रहा है, जिस से आम जनता को सस्ता और स्वच्छ खाना पकाने व वाहन के लिए ईंधन उपलब्ध कराया जा सके.

पैट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने सदन को बताया कि सरकार ने अनन्य आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) में ‘‘नो गो‘‘ क्षेत्रों को लगभग 99 फीसदी तक कम कर दिया है, जिस के चलते तकरीबन 1 मिलियन वर्ग किलोमीटर अब अन्वेषण और उत्पादन गतिविधियों के लिए मुक्त है.

सरकार द्वारा किए गए अन्य उपायों में नवीनतम प्रौद्योगिकियों का उपयोग करना, रुग्ण और पुराने कुओं का प्रतिस्थापन और पुनरुद्धार आदि शामिल हैं. सरकार पूंजीगत व्यय कर रही है और आने वाले वर्षों में उत्पादन बढ़ाने के लिए 61,000 करोड़ रुपए का लक्ष्य निर्धारित है.

उन्होंने ई एंड पी क्षेत्र में विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए उठाए गए परिवर्तनकारी कदमों का भी उल्लेख किया और कहा कि राष्ट्रीय तेल कंपनियों (ओएनजीसी और ओआईएल) ने सहयोग के लिए अंतर्राष्ट्रीय तेल कंपनियों के साथ समझौते किया है.

मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने नियत तिथि से पहले इथेनाल सम्मिश्रण लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफलता पर प्रकाश डाला (वर्ष 2014 में 1.53 फीसदी से 2023 में 12 फीसदी तक) और कहा कि देश अब फ्लैक्स ईंधन इंजन वाहनों के लिए आगे बढ़ रहा है. ई20 (20 फीसदी इथेनाल मिश्रित ईंधन) पहले से ही 6,000 से अधिक खुदरा दुकानों पर उपलब्ध है और वर्ष 2025 तक पूरे देश में उपलब्ध होगा.

उन्होंने सीबीजी, ग्रीन हाइड्रोजन और इलैक्ट्रिक वाहनों जैसे वैकल्पिक स्रोतों को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदमों का भी उल्लेख किया. साथ ही, उन्होंने बताया कि हाल ही में असम के शिवसागर में 483 करोड़ रुपए की कुल लागत से सूई-का-फा मल्टीस्पैशिलिटी (350 बिस्तर) अस्पताल का उद्घाटन करने का भी उल्लेख किया, जिस का खर्च ओएनजीसी ने अपनी सीएसआर गतिविधियों के अंतर्गत किया है, जो ऊपरी असम और अन्य राज्यों के पड़ोसी जिलों की आवश्यकताओं को पूरा करेगा.

भेड़बकरी व खरगोशपालन की ली जानकारी

अविकानगरः केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान, अविकानगर में एसएस जैन सुबोध पीजी कालेज, रामबाग सर्किल, जयपुर के 42 स्नातकोत्तर एवं स्नातक के छात्रों का एकदिवसीय शैक्षणिक भ्रमण कार्यक्रम अपनी फैकल्टी के डा. अनुराग जैन एवं डा. अनुरूपा गुप्ता के साथ आयोजित किया गया. छात्रों ने भ्रमण के दौरान संस्थान के दुंबा भेड़पालन के साथ खरगोशपालन इकाई का दौरा किया और बायोटैक्नोलौजी लैब में जा कर वहां के वैज्ञानिको के साथ संस्थान मे चल रहे शोध कार्यों को जाना.

इस दौरान छात्रों नें जानकारी ली कि कैसे वे संस्थान की सहायता से अपने पीजी रिसर्च प्रोजैक्ट पर काम कर सकते हैं.

एटिक सैंटर के तकनीकी कर्मचारी पिल्लू मीना द्वारा छात्रों को संस्थान का एकदिवसीय भ्रमण के तहत विभिन्न जगह जैसे वूल प्लांट, सैक्टर्स, फिजिलौजी आदि का भी भ्रमण कराया गया.

निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर ने सभी छात्रों को संबोधित किया कि आने वाले समय में आप के द्वारा देश के विभिन्न क्षेत्र में जा कर नए शोध को कर के देश को रिसर्च मे नई ऊंचाई देनी है.

उन्होंने छात्रों से आगे कहा कि आप संस्थान से अपने विषय की प्रैक्टिकल जानकारी सीख कर जाएं कि कैसे आप अपने कालेज की तालीम से देशहित में योगदान दे सकते हैं. सुबोध कालेज की फैकल्टी डा. अनुरूपा गुप्ता द्वारा भी भविष्य मे संस्थान के साथ जुड़ कर छात्रों के शोध कार्य में अवसर के बारे मंे विस्तार से निदेशक के साथ डिस्कशन किया गया.

‘विश्व मृदा दिवस’ मनाया गया

बस्ती: कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती पर ‘विश्व मृदा दिवस’ मनाया गया. इस अवसर पर डा. वीबी सिंह ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, ‘विश्व मृदा दिवस 2023’ का विषय ‘‘मिट्टी और पानी जीवन का एक स्रोत‘‘ है, जिस का उद्देश्य मृदा स्वास्थ्य की जागरूकता बढ़ाने और समाज को प्रोत्साहित कर के स्वस्थ परिस्थिति की तंत्र और मानव कल्याण को बनाए रखने के महत्व के बारे में मृदा जागरूकता बढ़ाना व मिट्टी की सेहत में सुधार करना है.

केंद्र के वैज्ञानिक डा. प्रेम शंकर ने पराली जलाने से होने वाले नुकसान के बारे में बताते हुए कहा कि पराली जलाने से मिट्टी में उपलब्ध लाभदायक जीवाणु नष्ट हो जाते हैं, जिस से हमारा उत्पादन घट जाता है. वहीं केंद्र के वैज्ञानिक हरिओम मिश्र ने बताया कि लगातार बढ़ती आबादी को भोजन उपलब्ध कराने व अधिक उत्पादन लेने के लिए अंधाधुंध कृषि रसायनों का प्रयोग करना है और उर्वरकों के प्रयोग से हमारी मिट्टी की सेहत दिनोंदिन खराब होती चली जा रही है. नतीजतन, आने वाले समय में हमारी मिट्टी बंजर होने की कगार पर है.

उन्होंने कहा कि हम सभी की जिम्मेदारी बनती है कि अपनी मिट्टी को बिगड़ने से बचाएं और हमें मिट्टी की सेहत के प्रति ध्यान देते हुए धीरेधीरे रासायनिक उर्वरकों का विकल्प जैसे हरी खाद, गोबर की खाद, वर्मी कंपोस्ट व जैविक खाद का प्रयोग करने और साथ ही साथ प्राकृतिक खेती को भी बढ़ाना होगा, तभी हमारी मिट्टी की सेहत बेहतर हो सकती है. वैज्ञानिक डा. अंजलि वर्मा ने पराली के घरेलू उपयोग के बारे में बताया. इस अवसर पर जितेंद्र प्रताप शुक्ला, अहमद अली आदि उपस्थित रहे.

दालों से मिलेगी अधिक उपज

नई दिल्ली: भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के तत्वावधान में राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान प्रणाली (एनएआरएस) ने दालों सहित विभिन्न फसलों की क्षेत्र विशिष्ट, उच्च उपज देने वाली और जलवायु के अनुकूल किस्में विकसित की हैं.

वर्ष 2014 के बाद से, देश में 14 दलहनी फसलों की कुल 369 किस्में जारी और अधिसूचित की गई हैं, जिन में सितंबर, 2023 तक बिहार के लिए 7 दलहनी फसलों की 24 किस्में शामिल हैं, जैसे काबुली चना की 6 किस्में, फील्डपी की 6 किस्में, अरहर की 6 किस्में, फैबाबीन की 3 किस्में, मूंग की 2 किस्में, उड़द की एक और मसूर की एक किस्में शामिल हैं.

किसानों को खेती के लिए नई उन्नत किस्मों के बीज जल्द से जल्द उपलब्ध कराने के लिए कई कदम उठाए गए हैं, जिन में उन्नत किस्मों के ब्रीडर बीज का उत्पादन और आपूर्ति. पिछले 5 वर्षों के दौरान, आईसीएआर द्वारा आधार और प्रमाणित बीज के डाउनस्ट्रीम गुणन के लिए विभिन्न सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीज उत्पादक एजेंसियों को 15.60 लाख क्विंटल दालों के ब्रीडर बीज का उत्पादन और आपूर्ति की गई.

इस के अलावा वर्ष 2016 में ब्रीडर बीज उत्पादन बढ़ाने के लिए 150 दलहन बीज हब और 12 केंद्रों की स्थापना की गई, जिन्होंने वर्ष 2016-17 से 2022-23 के दौरान 7.09 लाख गुणवत्ता वाले बीज और 21713 क्विंटल ब्रीडर बीज का उत्पादन और आपूर्ति की है. इसी के साथ 6.39 लाख गांवों को मिला कर कुल 1587.74 लाख क्विंटल गुणवत्ता वाले बीज का उत्पादन किया गया.

ग्राम स्तर पर गुणवत्तापूर्ण बीज उपलब्ध कराने के लिए बीज ग्राम योजना के तहत वर्ष 2014-23 के दौरान 98.07 लाख किसानों को प्रशिक्षण दिया गया और वर्ष 2018-19 से 2022-23 के दौरान दालों के 6000 फ्रंट लाइन प्रदर्शनों और 1,51,873 क्लस्टर फ्रंटलाइन प्रदर्शनों के माध्यम से नई उच्च उपज वाली किस्मों के बीजों का वितरण किया गया.

जांच परख कर लें कृषि यंत्र

अब खेती में बोआई से कटाई तक हर कदम पर मशीनें काम आती हैं. इन के इस्तेमाल से वक्त, पैसा और मेहनत बचती है, पैदावार व कमाई बढ़ती है. खेती की मशीनें किसानों की तरक्की में मददगार साबित हुई हैं.
पहले किसान हल, बैल, कुदाल, हंसिया, खुरपी व फावड़े से खेती करते थे, जिन से काम कम होता था. धीरेधीरे खेती के तौरतरीके बदले. सुधरे हुए औजार और मशीनों का चलन बढ़ा. इन से खेती के मशक्कत भरे काम आसान हुए. लेकिन बड़ी मशीनें खरीदना सब के लिए आसान नहीं है.
बहुत से किसानों को खेती की मशीनें खरीदने के लिए तगड़े सूद पर कर्ज लेना पड़ता है. ऐसे में सम झदारी से काम लेना जरूरी है. अगर सोचसम झ कर कदम न उठाएं तो कई बार मशीनें फायदे की जगह नुकसान का सबब बन जाती हैं.
बहुत से किसानों ने बैंक से कर्ज ले कर ट्रैक्टर खरीदे और उस की किस्त चुकाने में अपनी जमीन गंवा बैठे. अपनी शान दिखाने के लिए फुजूल का दिखावा व दूसरों की देखादेखी कभी न करें. अपनी जेब व जरूरत के मुताबिक फैसला करें कि कब, कहां से कौन सी मशीन खरीदनी है.
बाजार में बहुत सी कंपनियों की मशीनें मौजूद हैं. कंपनियां किसान मेलों वगैरह में अपने स्टौल लगाती हैं, अपने इश्तिहार देती हैं. तसल्ली से पहले पूरी जानकारी करें, ताकि वाजिब दाम में सब से बेहतर मशीन खरीद सकें.
मशीन का मौडल, कूवत, कीमत व खासीयत पता करें. हमेशा किसी अच्छी साख वाली दुकान या कंपनी की एजेंसी से ही मशीन खरीदें, ताकि धोखाधड़ी की गुंजाइश न रहे.
सस्ती लोकल मशीनें हलकी होने के चलते जल्दी खराब होती हैं या वे अचानक कभी भी बीच में धोखा दे जाती हैं और काम रुक जाता है. उन में टूटफूट व मरम्मत का खर्च भी ज्यादा होता है.
आईएसआई या आईएसओ जैसे क्वालिटी निशान लगी मशीनों को तरजीह दें. खरीद के वक्त मशीन के नटबोल्ट और बौडी चैक करें. हो सके तो उसे चला कर देखें और खासकर भीतरी हिस्सों पर नजर डाल लें.
इस्तेमाल की हिदायतों का मैनुअल, तारीख, दस्तखत व मोहर लगा गारंटी कार्ड व पक्की रसीद जरूर लें और उसे संभाल कर रखें.
Machines
मशीनों की सही देखभाल
ज्यादातर किसान खेती में काम आने वाली मशीनों की खास परवाह नहीं करते और वे उन को ठीक से इस्तेमाल भी नहीं करते. धूलकीचड़ में सनी मशीनें यों ही खुले में खड़ी रहती हैं.
खुले में बारिश व धूप की मार सहती रहती हैं. उन्हें धो, पोंछ व सुखा कर, साफसुथरी पौलीथिन से ढक कर किसी छायादार जगह पर रखें. खराबी होने पर किसी अच्छे मेकैनिक को दिखाया जाए, तो मशीनें वक्त पर धोखा नहीं देतीं.
खेती में काम आने वाली मशीनों की सही देखभाल करना कोई महंगा या मुश्किल काम नहीं है. अगर किसान चाहें तो वे इसे आसानी से कर सकते हैं. पड़ोसी देश चीन के किसान इस मामले में बहुत आगे हैं. वे अपनी मशीनों का मोल पहचानते हैं. उन को जान से ज्यादा संभाल कर रखते हैं और ज्यादा फायदा उठाते हैं.
महंगाई के दौर में किसान अगर मशीनों की खरीद, उन के इस्तेमाल व रखरखाव में पूरी सावधानी बरतें, तो वे मशीनों से अपना काम करने के अलावा किराए पर चला कर और फायदा उठा सकते हैं.

शतावर खूबियों का खजाना

शतावर का पौधा 3-5 फुट ऊंचा होता है और यह लता के समान बढ़ता है. इस की शाखाएं पतली होती हैं. पत्तियां बारीक सूई के समान होती हैं, जो 1.0-2.5 सैंटीमीटर तक लंबी होती हैं. पुराने जमाने में गांव वाले इसे ‘नाहरकांटा’ नाम से पुकारते थे, क्योंकि इस की बेल की शाखाओं के हर पोर पर शेर के पंजे में मुडे़ हुए नाखून की तरह का कांटा रहता है.

शतावर लिलिएसी कुल का बहुवर्षीय पौधा है. इस का वानस्पतिक नाम एस्पेरेगस रैसीमोसस है. यह पौधा भारत के उष्ण व समशीतोष्ण राज्यों में 1200-1500 मीटर की ऊंचाई वाले इलाकों में पाया जाता है.

यह पौधा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ राज्यों में साल के मिश्रित वनों में पाया जाता है. बाजार की बढ़ती मांग की वजह से मध्य प्रदेश व उत्तराखंड के विभिन्न जिलों में खासकर कुमाऊं इलाकों में इस की खेती बड़े पैमाने पर की जा रही है.

Shatawarऔषधीय उपयोग : शतावर की जड़े मीठी और रस से भरी होती हैं. यह शीत वीर्य यानी ठंडक प्रदान करने वाली है. इस के अलावा कामोद्दीपक यानी सैक्स पावर बढ़ाने वाली होने के साथसाथ मेधाकारक यानी दिमाग को तेज करने वाली, जठराग्निवर्धक, पौष्टिकदायक यानी जल्दी पचने वाली है. अग्निदीपक, रुधिर विकार, गुल्म सूजन, स्निग्ध, आंखों के लिए फायदा पहुंचाने वाली, शुक्राणुवर्धक यानी शुक्राणु बढ़ाने वाली, दूध बढ़ाने वाली, बलकारक यानी मजबूती लाने वाली और अतिसार, वात, पित्तरक्त और शोध दूर करने वाली होती है.

सक्रिय घटक : इस की जड़ों में 1 व 4 शतावरिन कैमिकल पाया जाता है. शतावरिन 1 सार्सपोजिनिन का ग्लूकोसाइड होता है. इस के अलावा कंदीय जड़ों में म्यूसिलेज और काफी मात्रा में शर्करा पाई जाती है.

जमीन और जलवायु : शतावर की खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी, जिस का पीएच मान 7-8 हो, अच्छी मानी गई है. साथ ही, जल निकास यानी पानी के निकलने का पुख्ता बंदोबस्त होना उचित रहता है. इस के लिए उष्ण व आर्द्र जलवायु बढि़या रहती है.

जिन इलाकों में तापमान 20-40 डिगरी सैंटीग्रेड रहता हो और तकरीबन सालाना बारिश 100-200 सैंटीमीटर तक होती है, खेती के लिए बहुत ही उत्तम होती है.

खेत की तैयारी : शतावर की खेती से पहले जमीन की हल द्वारा 2-3 बार अच्छी तरह जुताई कर लेनी चाहिए. उस के बाद 5 टन सड़ी हुई खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डाल कर खेत में फिर से जुताई कर देनी चाहिए.

प्रवर्धन : शतावर का प्रवर्धन बीजों द्वारा किया जाता है.

बोआई : शतावर की खेती के लिए बीजों द्वारा पौध तैयार की जाती है. नर्सरी के लिए 1×10 मीटर की क्यारियां बना कर बीजों की बोआई कर देनी चाहिए. बीजों को नर्सरी में बोेने से पहले जैविक तरीके से उपचारित कर लें, जिस से कवक, फफूंद वगैरह दूर हो जाएं.

बीजों की बोआई के लिए सब से बढि़या समय मईजून माह का होता है. इस तरह प्रति हेक्टेयर जमीन के लिए 15 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है. तकरीबन 25 दिनों के बाद बीजों से अंकुरण हो जाता है.

अगस्त माह में जब पौधे की ऊंचाई तकरीबन 10-12 सैंटीमीटर की हो जाती है, तब पौधों को 60×60 सैंटीमीटर के अंतराल पर लगा देना चाहिए. कभीकभी जमीन के अंदर जड़ों से फिर से पौध तैयार हो जाती है, जिसे डिस्क कहते हैं. तकरीबन 20 दिनों में यह पौध भी खेत में लगाने के लिए तैयार हो जाती है. एक हेक्टेयर खेत के लिए तकरीबन 27,000 पौधों की जरूरत होती है.

 उर्वरक : शतावर प्रतिरोपण से पहले खेत में 25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 25 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश को 2 भागों में बांट कर के प्रति हेक्टेयर की दर से डालना चाहिए. उक्त मिश्रण का आधा हिस्सा शुरू में अगस्त माह और बाकी बचा हिस्सा अगले से पहले अक्तूबरदिसंबर माह में डालना चाहिए.

सिंचाई : शतावर की फसल के लिए ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं होती है. शुरुआत के दिनों में प्रति सप्ताह और बाद में महीने में एक बार हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. ज्यादा सिंचाई से पौधे में पत्तियों की बढ़वार और हरापन तो बढ़ता ही है, परंतु जड़ों पर बुरा असर पड़ता है.

निराईगुड़ाई : शतावर की अच्छी पैदावार के लिए समयसमय पर निराईगुड़ाई करते रहना जरूरी है. महीने में एक बार हलकी निराईगुड़ाई कर के खेत से खरपतवार निकाल देने चाहिए.

Shatawarरोग, कीट और उन की रोकथाम :

शतावर की फसल पर वैसे तो रोगों व कीटों का हमला नहीं होता है. अगर ऐसा हो भी जाए, तो इस फसल पर कोई बुरा असर नहीं होता है.  फिर भी समयसमय पर कीटनाशकों का छिड़काव करते रहना चाहिए या फिर जड़ों को कवक से बचाने के लिए डाईथेन एम 45 का छिड़काव करना चाहिए.

दोहन व भंडारण : वैसे तो शतावर की फसल तकरीबन 18 से 20 महीने में तैयार हो जाती है. रोपण के अगले साल जब पौधा पीला पड़ने लगे, तो जड़ों की खुदाई कर लेनी चाहिए.

खुदाई के समय जड़ों में आर्द्रता 90 फीसदी रहती है. इसलिए जड़ों में चीरा लगा कर छिलका उतार देना चाहिए. उस के बाद जड़ों को धूप में सुखा कर बोरों में भर कर महफूज जगह पर रख देना चाहिए.

उत्पादन व उपज : शतावर की अच्छी फसल से तकरीबन 45-50 क्विंटल सूखी जडें़ प्रति हेक्टेयर हासिल होती हैं.

अतिरिक्त लाभ : 18 महीने की फसल से बीज की प्राप्ति नहीं होती. अगर बीज लेना हो तो कुछ पौधे छोड़ दें तो अगले साल से यानी 30 महीने बाद बीज प्रति पौधा 20-30 ग्राम हर साल प्राप्त होंगे.

जड़ों की खुदाई के समय आने वाली फसल के लिए डिस्क (जिस में जड़ के 1-2 ट्यूबर्स और तने का कुछ भाग शामिल होता है) को फिर से रोपित कर दें या नर्सरी की क्यारियों में सुरक्षित रख लें, जिस से आगामी बारिश के मौसम में रोपित कर सकें.

फसल को पाले से बचाएं

सर्दियों में पाले का असर पौधों पर सब से ज्यादा होता है. यही वजह है कि सर्दी में उगाई जाने वाली फसलों को आमतौर पर 80 फीसदी तक का नुकसान हो जाता है, इसलिए समय रहते फसलों का पाले से बचाव करना बेहद जरूरी हो जाता है.

सर्दियों में जब तापमान 0 डिगरी सैल्सियस से नीचे गिर जाता है और हवा रुक जाती है तो रात में पाला पड़ने की आशंका ज्यादा रहती है. वैसे, आमतौर पर पाला पड़ने का अनुमान वातावरण से लगाया जा सकता है.

सर्दियों में जिस रोज दोपहर से पहले ठंडी हवा चलती रहे, हवा का तापमान जमाव बिंदु से नीचे गिर जाए, दोपहर बाद अचानक ठंडी हवा चलनी बंद हो जाए और आसमान साफ रहे या उस दिन आधी रात से हवा रुक जाए तो पाला पड़ सकता है. रात को खासकर तीसरेचौथे पहर में पाला पड़ने की आशंका ज्यादा रहती है.

अध्ययनों से पता चला है कि साधारण तापमान चाहे कितना भी गिर जाए, लेकिन शीत लहर चलती रहे तो फसलों को कोई नुकसान नहीं होता है. पर अगर हवा चलना बंद हो जाए और आसमान साफ हो तो पाला जरूर पड़ेगा जो रबी सीजन की फसलों के लिए ज्यादा नुकसानदायक है.

खेतों में पाला पड़ने से होने वाले बुरे नतीजे जो इस तरह है :

* पौधे की पत्तियों और फूलों का झुलसना.

* पौधे की बंध्यता.

* फलियों और बालियों में दानों का बनना.

* बने हुए दानों के आकार में कमी.

* पराग कोष के विकास का ठहराव.

* प्लाज्मा झिल्ली की संरचना में यांत्रिक नुकसान.

* पौधों का मरना या गंभीर नुकसान.

* उपज और उत्पाद की क्वालिटी में कमी.

पाले से संरक्षण के कारगर उपाय

आमतौर पर पाले से नुकसान हुए पौधों का संरक्षण प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों माध्यमों से किया जा सकता है. जब अंकुरण की परिस्थिति हो तब सक्रिय विधियों का उपयोग पाले के अंकुरण की परिस्थिति पैदा होने से पहले किया जाता है जिस के लिए निष्क्रय व सक्रिय विधियों का उपयोग किया जा सकता है.

निष्क्रय विधियां

जगह का चुनना : पाले के प्रति संवेदनशील फसलें उगाने के लिए ऐसी जगह चुनी जानी चाहिए जो पाले के लिए जमाव मुक्त हो. बडे़ जलाशयों के पास की जगह आमतौर पर पाले से कम प्रभावित होती है, क्योंकि पानी के ऊपर की हवा जमीन के ऊपर की हवा की तुलना में तेजी से ठंडी होती है.

ठीक से लगे वायुरोधी पेड़ जलवायु को पौधों के अनुकूल बना देते हैं. इन के चलते फसल समय से पहले ही पक जाती है और पाले का जोखिम कम हो जाता है.

Winter Farmingफसल प्रबंधन : फसलों की ऐसी प्रजातियों और किस्मों को चुना जाना चाहिए जो कि पाले से पहले ही पक कर तैयार हो जाए. जैसे, जब संकर मक्का बोया जाता है तो वह पाला पड़ने से पहले ही पक कर तैयार हो जाता है.

मिट्टी प्रबंधन : मिट्टी की अवस्था फसल के ऊपरी और निचले भागों को पाले से बचाने के लिए एक उत्तरदायी कारक है. ढीली मिट्टी की सतह ताप के चालन में कमी करती है, इसलिए रात के समय ढीली मिट्टी की सतह का तापमान जमी हुई मिट्टी की अपेक्षा कम होता है.

यही वजह है कि  पाले से बचाव के लिए मिट्टी को जोतना नहीं चाहिए. जरूरत से ज्यादा गीली मिट्टी होने पर सूरज की ऊर्जा का अधिकतम भाग नमी वाष्पन में चला जाता है. ऐसी स्थिति में रात में फसल के लिए गरमी कम मिल पाती है.

दूसरी ओर जरूरत से ज्यादा सूखी मिट्टी भी ताप की कम चालक होती है. इस की वजह से ऊर्जा की कम मात्रा को ही संचित कर पाती है. ऐसी स्थिति में सर्दियों की फसलों को पाले का बुरा नतीजा भुगतना पड़ सकता है.

फसल बोआई और कटाई : पाला संवेदनशील फसलों को पाले की जमाव मुक्त अवधि में ही बोना चाहिए ताकि फसल को पाले से होने वाले नुकसान से बचाया जा सके. इस प्रक्रिया को अपनाने से फसल अपेक्षाकृत कम जोखिम अवधि के दौरान अपना जीवनकाल पूरा करती है.

सक्रिय विधियां

फसल के नीचे आवरण : इस विधि का प्रमुख मकसद सतह से ताप की क्षति को कम करना होता है. इस विधि में उपयोग किए जाने वाले आवरण कई तरह के हो सकते हैं. जैसे, भूसे का आवरण, प्लास्टिक का आवरण, काला सफेद चूर्ण का आवरण वगैरह.

* भूसे का आवरण रात में गरमी को जमीन से बाहर जाने से रोकता है, जिस की वजह से फसल के तापमान में कमी आ जाती है.

* पारदर्शी प्लास्टिक 85-95 फीसदी तक सूरज की विकिरणों को संचित कर उन्हें जमीन तक पहुंचा सकती है. उन्हें वापस वातावरण में जाने नहीं देती और इस तरह जमीन के तापमान में बढ़वार होती है. यह पाले से सुरक्षा के नजरिए से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. इस के उलट काली प्लास्टिक सूरज की विकिरणों को अवशोषित करती है. इस वजह से जमीन के कारण तापमान में बढ़ोतरी हो जाती है.

* काला चूर्ण सूरज की विकिरणों को दिन के समय अवशोषित करता है और रात में उत्सर्जित. नतीजतन, रात के समय जमीन के तापमान में बढ़ोतरी होती है जो पाले से पाले की सुरक्षा की नजर से बेहद महत्त्वपूर्ण है. इस के उलट सफेद चूर्ण सूरज की विकिरणों को परावर्तित कर देता है और उन्हें जमीन तक पहुंचने ही नहीं देता.

छिड़काव द्वारा सिंचाई

जब पाला पड़ने की आशंका हो तब खेत की सिंचाई करनी चाहिए क्योंकि नमी वाली जमीन में काफी देर तक गरमी सुरक्षित रहती है क्योंकि जब पानी बर्फ में जम जाता है तो प्रक्रिया में ऊर्जा का उत्सर्जन होता है जो 80 कैलोरी प्रति ग्राम के बराबर होता है. इस वजह से मिट्टी के तापमान में बढ़वार होती है.

इस तरह पर्याप्त नमी होने पर शीत लहर व पाले से नुकसान की आशंका कम रहती है. सर्दी में फसल की सिंचाई करने से 0.5-2.0 डिगरी सैल्सियस तक तापमान बढ़ाया जा सकता है.

पवन मशीन : पवन मशीन का उपयोग फसल की सतह पर उपस्थित ठंडी हवा को गरम हवा की परत में बदलने के लिए किया जाता है. यह विधि तभी कारगर हो सकती है, जब सतह के पास की हवा के मध्यम तापमान अंतर अधिक हो. इस विधि से 1-4 डिगरी सैल्सियस तक तापमान बढ़ाया जा सकता है.

गंधक का छिड़काव : जिन दिनों पाला पड़ने की आशंका हो, उन दिनों फसल पर 0.1 फीसदी गंधक के घोल का छिड़काव करना चाहिए. इस के लिए 1 लिटर गंधक के तेजाब को 1,000 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर प्लास्टिक के स्प्रेयर से छिड़काव करना चाहिए.

इस छिड़काव का असर 2 हफ्ते तक रहता है. अगर इस अवधि के बाद भी शीत लहर व पाले की आशंका बनी रहे तो गंधक के तेजाब को 15 दिन के अंतर पर दोहराते रहें.

गेहूं, चना, सरसों, मटर जैसी फसलों को पाले से बचाने में गंधक के तेजाब का छिड़काव करने से न केवल पाले से बचाव होगा, बल्कि पौधों में लोह तत्त्व की जैविक व रासायनिक सक्रियता में बढ़ोतरी हो जाती है. यह पौधों में रोग रोधिता बढ़ाने और फसलों को जल्दी पकाने में भी मददगार होती है.

अगर हमें मौसम के पूर्वानुमान से न्यूनतम तापमान, हवा की गति, बादलों की स्थिति की जानकारी मिल जाए तो उचित समय पर फसलों में उपयुक्त प्रबंधन कर के हम फसल को पाले से होने वाले नुकसान से आसानी से बचा सकते हैं.

इस के अलावा हम उपयुक्त प्रबंधन द्वारा समयसमय पर फसल को अनुकूल वातावरण दे कर फसल की पैदावार और गुणवत्ता दोनों को बढ़ाने में कामयाब हो सकते हैं. इस तरह से समय पर पाले के बुरे असर से सर्दियों में फसलों को बचा कर किसानों की माली हालत को मजबूत बनाया जा सकता है.