Kurmula Insect : उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र के किसानों के लिए कुरमुला कीट (Kurmula Insect) एक जटिल समस्या बना हुआ है, पहाड़ी क्षेत्रों में बोई जाने वाली ज्यादातर फसलों पर इस का प्रकोप होता है. यह आलू, प्याज, गेहूं, मंडुवा व चौलाई वगैरह फसलों को ज्यादा नुकसान पहुंचाता है.
पर्वतीय क्षेत्रों में किसानों द्वारा इस का सही ढंग से प्रबंधन न करने के कारण कुरमुलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. इसी कारण फसलों की पैदावार भी घटती जा रही है. पर्वतीय क्षेत्रों में इसे अलगअलग नामों से जाना जाता है, जैसे गुबरैला, सफेद गिडार व उकसा. गढ़वाल इलाके में इसे कुरमुला या कुरगुला नाम से जाना जाता है. अंगरेजी में इसे व्हाइट ग्रब के नाम से जाना जाता है.
जीवन चक्र : उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में कुरमुले की विभिन्न प्रजातियों का जीवनचक्र अलगअलग होता है. इस की ज्यादातर प्रजातियों का जीवनचक्र 1 साल का होता है. कुछ प्रजातियों का जीवनचक्र 2 साल या उस से ज्यादा होता है. गढ़वाल इलाके में पाए जाने वाले कुरमुला कीटों (Kurmula Insect) का जीवनचक्र करीब 5-6 महीने का होता है. इस प्रजाति के कीट का वयस्क भूरेसफेद रंग का होता है. ये मई
महीने के आखिर या जून महीने के शुरू में जमीन से निकलते हैं. ये ज्यादातर शाम के समय निकलते हैं.
जमीन से निकलने के बाद ये कुरमुला कीट (Kurmula Insect) पेड़पौधों की पत्तियों को खाते. कुरमुला 35-50 अंडे मिट्टी में 8-10 सेंटीमीटर की गहराई पर एकल रूप में देती है. यह अवस्था 10-15 दिनों की होती है. करीब 35-50 दिनों बाद दूसरी अवस्था आ जाती है. इस अवस्था में यह फसलों को सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाता है. यह पेड़पौधों की जड़ों को खाता है. करीब 40-50 दिनों में तीसरी अवस्था आ जाती है. अक्तूबर के आखिर में या नवंबर के शुरू में तापमान में गिरावट के साथसाथ तीसरी अवस्था के गिडार गहराई में चले जाते हैं और मिट्टी के अंदर सोए रहते हैं. अप्रैलमई में तापमान
बढ़ने के साथसाथ ये जमीन के नीचे से ऊपर की ओर बढ़ने लगते हैं और प्यूपावस्था में 15-25 दिनों तक रहने के बाद वयस्क बन जाते हैं.
नुकसान
मईजून में बरसात शुरू होते ही कुरमुला कीट (Kurmula Insect) के वयस्क जमीन से बाहर निकल कर पेड़पौधों की पत्तियों को काट कर खाते हैं. ये फल के पेड़ों, जंगली पेड़ों, फूलों के पौधों व सब्जियों के पौधों को ज्यादा हानि पहुंचाते हैं. ये सेब, नाशपाती, अखरोट व आड़ू के पेड़ों की पत्तियों को ज्यादा हानि पहुंचाते हैं. सब्जियों व अन्य फसलों में ये जड़ों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं. मई से सितंबर के दौरान वयस्क कुरमुला जमीन में अंडे देता है और अंडों से जब ग्रब निकल कर बाहर आते हैं, तो वे पेड़पौधों की जड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं.
कुरमुला का नियंत्रण
उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में अलगअलग जलवायु होने के कारण कुरमुला की प्रजातियों को खत्म करना एक बहुत जटिल समस्या है. लगातार इस्तेमाल से रासायनिक कीटनाशी कुरमुला पर बेअसर हो रहे हैं, लिहाजा इस पर जैविक तरीके से ही काबू पाया जा सकता है. जैविक तरीके से नियंत्रित करने के लिए हमें निम्नलिखित बातों पर गौर करना होगा.
* कुरमुला नियंत्रण के लिए सामूहिक रूप से काम करना चाहिए.
* खेतों में हमेशा केंचुआ खाद या पूरी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद का ही इस्तेमाल करें. कच्चे गोबर का इस्तेमाल खेतों में कतई न करें, क्योंकि कुरमुला सब से ज्यादा कच्चे गोबर में पलता है.
मार्चअप्रैल में खेतों की गहरी जुताई करनी चाहिए, ताकि खेतों के अंदर पल रहे कुरकुले ऊपर आ जाएं और सूरज की रोशनी से खत्म हो जाएं, इस के अलावा कीट ऊपर आने से परिंदों की नजर उन पर आसानी से पड़ जाती है और वे उन्हें खा लेते हैं.
* कुरमुला कीट (Kurmula Insect) नियंत्रण के लिए प्रकाश प्रपंच वीएल कुरमुला ट्रैप का विकास किया गया है. इस ट्रैप को किसानों को सामूहिक रूप से खेतों के आसपास जगहजगह लगाना चाहिए. 1 ट्रैप 1 हेक्टेयर जमीन के लिए ठीक है. इस का इस्तेमाल बरसात में शाम के समय करना चाहिए.
* जिन स्थानों पर प्रकाश प्रपंच का इंतजाम न हो, वहां खेतों में बिजली के बल्ब के नीचे पानी से भरे घड़े रख कर कुरमुला नियंत्रण कर सकते हैं.
* जैव कीटनाशी द्वारा भी इस कीट को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है. बैसिलस सिरियस स्ट्रेन डब्ल्यूजी, पीएसबी 2 नामक पाउडर कुरमुलों को आसानी से नियंत्रित कर लेता है. इस पाउडर को गोबर की खाद में मिला कर खेत में डाल देने से लंबे अरसे के लिए कुरमुले नियंत्रित हो जाते हैं. इस पाउडर को 10 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खाद में मिला कर इस्तेमाल करना चाहिए.