माइकोराइजा 2 शब्दों से मिल कर बना है, माइकास यानी फफूंद और राइजो यानी मूल. मतलब जो फफूंद मूल से संबंधित हो, उसे माइकोराइजा कहते हैं. इस की खेती के क्षेत्र में खास अहमियत है. यह फफूंद वास्तव में पौधों की जड़ों में पाया जाता है और पौधे के साथ इस का गहरा संबंध है. यह फफूंद पादप जगत के 95 फीसदी पौधों में पाई जाती है.

एक तरह की फफूंद पौधों की जड़ों में होने के चलते उन की बढ़वार में उपयोगी पोषण देती है. दरअसल, यह पौधों से अपनेआप कार्बोहाइड्रेट (सुक्रोज व ग्लूकोज) हासिल करती हैं और इस के बदले में उन की उर्वरक खींचने की ताकत को बढ़ाती है.

पौधों की जड़ों के आसपास के क्षेत्रों में यह फफूंद एक कवक जाल बना देती है, जिस के द्वारा पौधे ज्यादा से ज्यादा पोषण तत्त्वों को खींच पाते हैं. पौधों की बढ़ोतरी के लिए ज्यादा फास्फेट उर्वरक की जरूरत होती है जो मिट्टी में कार्बनिक और अकार्बनिक दोनों रूपों में मौजूद होता है. यह अकार्बनिक फास्फेट पौधों के लिए पूरी तरह अनुपलब्ध होता है क्योंकि यह कैल्शियम, एल्यूमिनियम व लौह के संपर्क में अघुलनशील कणों के रूप में पाया जाता है.

चिकनी मिट्टी की अनुपलब्धता भी इस की अहम वजह होती है. मिट्टी में मौजूद फास्फेट केवल कार्बनिक रूप में पाया जाता है, पर माइकोराइजा का यह कवक जाल दोनों ही तरह के फास्फोरस लवणों को पौधों को मुहैया कराने में मददगार साबित होता है.

पौधे कुदरती तौर पर खुद इस फास्फोरस को खींच नहीं पाते हैं. इस तरह यह पौधों के साथ एक लाभकारी संबंध निभाता है. इस से दोनों ही (पौधों व फफूंद) का फायदा होता है और उन्हें पोषण मिलता रहता है.

माइकोराइजा के चलते पौधे अपनी मूल जगह के अलावा दूसरी जगह पर भी मौजूद होते हैं, जहां पर वे नहीं जाते थे यह उग नहीं पाते थे.

इस सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए पादप वैज्ञानिकों ने खेती उत्पादन में बढ़ोतरी करने के लिए माइकोराइजा का इस्तेमाल शुरू किया.

माइकोराइजा के इस्तेमाल से खेती के लिए मध्यम जमीन का इस्तेमाल किया जा सकता है. इस के इस्तेमाल द्वारा कृषि वैज्ञानिक खेती के लिए उस बंजर और प्रदूषित जमीन को भी इस्तेमाल में ला सकते हैं, जहां पर पहले औद्योगिक कचरा डाला जाता रहा हो.

पादप माइकोराइजा तकरीबन 7 तरह के होते हैं. पर इन में से केवल 2 किस्में ही खास हैं:

एक्टोमाइकोराइजा और एंडोमाइकोराइजा

एक्टोमाइकोराइजा वे फफूंद होती हैं जो अंत:कोषी जगह में उगती हैं और कोशिका के अंदर घुस नहीं पाती हैं. इस की असल वजह यह है कि मूल का आकार थोड़ा सा बदल जाता है और मूल छोटीछोटी दोमुंही शाखाओं के रूप में पनप जाती हैं और प्रगतिशील ऊतक की जगह में कमी हो जाती है.

बहुत सी फफूंद जड़ में एक आच्छादित आकार और गिलाफ जैसे आकार में दिखाई पड़ती हैं जो पूरी तरह से मूल पर छा जाती हैं. खासकर नई छोटी व महीन मूल जगह पर जो कि पौधों को पोषण मुहैया कराने के लिए असरदार रोल निभाती हैं.

आच्छादन का आकार, मोटाई, रंग और बनावट फफूंद पर आधारित होती है.

एक्टोमाइकोराइजा फफूंद बड़ेबड़े पेड़ों व झाडि़यों के मूल में जंगलों में होते हैं. अकसर पाइनेसी, कैगेसी, बेटुलेसी और मिरटेसी कुल के पौधों में एक्टोमाइकोराइजा की 4,000 फफूंद प्रजातियां पाई जाती हैं, जो बेसीडियोमाइकोटिना समूह की सदस्य हैं. इन में से कुछ प्रजातियां एस्कोमाइकोटिना समूह की भी सदस्य होती हैं. इन में से बहुत सी प्रजातियां छत्रक या ‘पफ बाल्स’ होती हैं.

दूसरी तरफ एंडोमाइकोराइजा जीवित मूल के ऊतक के अंदर रहती हैं और इस मूल की कोशिकाएं फफूंद के रेशों में भर जाती हैं. विभिन्न फफूंद जो कि मूल पर छाई रहती हैं, उन में ‘माइकोराइजा’ का एक विशिष्ट पारिस्थितिकी संतुलन होता है क्योंकि इस की फफूंद आधी मूल के भीतर और आधी मूल के ऊपर रहती हैं.

मूल के भीतर का भाग मूल के दूसरे सूक्ष्म जीवियों के कामों में रुकावट नहीं डालता है और न ही खुद बाधित होता है, इसलिए यह यों ही बढ़ता रहता है.

एंडोमाइकोराइजा की सहजीविता पौधों में एक आम बात है और यह छोटेछोटे शाकभाजियों और औषधि से ले कर बड़ेबड़े पेड़ों के मूल में भी मौजूद होते हैं. इस तरह के एंडोमाइकोराजा पौधों से संबंद्ध नहीं होते हैं.

आर्किड समूह के पौधों के मूल में माइकोराइजा का एक खास रोल होता है. आर्किड समूह के पौधों के बीज बहुत छोटे होते हैं और इन में पोषण भी बहुत कम होता है.

इस समूह के बीज अंकुरित होते हैं. माइकोराइजा द्वारा ढक (कोलोनाइज) जाते हैं और पौधों को कार्बन का विटामिन मुहैया कराने में अहम रोल निभाते हैं.

एम्लोलोरोफिलस प्रजाति का आर्किड पूरी उम्र कार्बन सप्लाई के लिए इस पर निर्भर रहता है. इस पौधे की कोशिकाओं के भीतर जा कर फफूंद छल्लेनुमा आकार अपना लेती है और कुछ समय में ही ये छल्ले फूट जाते हैं. पूरी तरह से विकसित आर्किड पौधों में भी यह फफूंद पोषक तत्त्वों के शोषण और प्रवाह में खास रोल निभाते हैं.

कुछ हालात में एक्टोमाइकोराइजा और एंडोमाइकोराइजा एकसाथ भी पाए जाते हैं. इन्हें एक्टेडोमाइकोराइजा के नाम से जाना जाता है. सैल्क्सि, पेपलर और यूकेलिप्टिस के पौधों में इस तरह की माइकोराइजा फफूंद मौजूद होती है. इन्हें एक पतली झिल्ली और कवक जाल द्वारा पहचाना जा सकता है जो पोषण प्रबंधन में मददगार रोल निभाती है.

मिट्टी में मौजूद दूसरे सूक्ष्म जीवी पोषक

माइकोराइजा की मौजूदगी में मिट्टी के सूक्ष्म जैव अवयवों में बदलाव हो जाता है. राइजोबियम व माइकोराइजा के बीच अंतरंग संबंधों पर रिसर्च की जा रही है जैसे कि नाइट्रोजन संचयन के लिए फास्फोरस की मांग ज्यादा होती है और यह दोनों परस्पर सहजीवी के तौर पर एकदूसरे की मदद करते हैं.

ये दोनों परस्पर सहयोगी के रूप में नाइट्रोजन फास्फोरस का संचयन अकेले की अपेक्षा ज्यादा करते हैं. दलहनी फसलों की जड़ों में झिर्री होती है, इसलिए यह ज्यादा फास्फोरस के संचयन में सहायक नहीं होती हैं.

जब इन फसलों के मूल में माइकोराइजा भीतर तक घुस जाता है तो ये परस्पर तीव्र गति से काम करते हैं और ज्यादा मात्रा में नाइट्रोजन और फास्फोरस का संचयन करते हैं.

माइकोराइजा फफूंद अकसर औक्सलेट का स्राव करती है. औक्सलेट का इस्तेमाल करने वाले अवयवों के लिए यह उपयोगी रहता है क्योंकि औक्सलेट कार्बन का एकमात्र जरीया है और ऊर्जा के प्रवाह में जरूरी भूमिका निभाते हैं. इस के अलावा प्रोटीओलिटिक स्राव प्रोटीन का पोषण इस्तेमाल करने वाले जीवाणुओं के लिए भी उपयोगी होता है. इस प्रक्रिया से माइकोराइजा पर अच्छा या बुरा असर पड़ता है.

रोयस्टी ने माइकोराइजा व फास्फेट द्योतक जीवाणुओं में सहजीवी संबंध का वर्णन किया है. इस के अलावा इस के द्वारा फास्फोरस तत्त्वों का संवहन और संचालन भी तेजी से होता है. साथ ही साथ जीवाणु भी माइकोराइजा की भित्ति को कोमल करने वाले एंजाइम के स्राव द्वारा और पादप स्राव द्वारा मदद करते हैं.

जीवाणुओं द्वारा पैदा कार्बनडाईऔक्साइड और दूसरे सहयोगी अवयवों द्वारा पौधों में माइकोराइजा के कवक जालों की बढ़वार होती है. ये माइकोराइजा रोगकारक फफूंदों को भी नष्ट करने में मददगार हैं और इस तरह से रोग नियंत्रण में सहयोगी होते हैं. खासकर फ्यूजेरियम नियंत्रण के लिए अनुमान है कि माइकोराइजा जैव नियंत्रण के लिए सहयोगी की भूमिका निभाते हैं.

खेती में माइकोराइजा की उपयोगिता

एक अंदाज के मुताबिक, माइकोराइजा से औसतन 37 फीसदी ज्यादा उत्पादन आंका गया है. फसल के शुरू में फास्फोरस की उपलब्धता फसल के उत्पादन में अहम भूमिका निभाती है और इस की भरपाई नहीं होती है. जूट और मक्का का उत्पादन माइकोराइजा पर बहुत अधिक निर्भर करता है.

थाम्पसन के मुताबिक, फ्लैक्स का उत्पादन माइकोराइजा की मौजूदगी में बहुत ज्यादा प्रभावित होता है. दलहनी फसलें, बीज व आलू का उत्पादन भी माइकोराइजा द्वारा प्रभावित होता है.

माइकोराइजा द्वारा गेहूं, जौ और बाजरा भी प्रभावित होते हैं. पर यदि एक प्रचुर मात्रा में मौजूद हो तो माइकोराइजा ज्यादा प्रभावी साबित नहीं होते हैं. माइकोराजा द्वारा उत्पादन में बढ़ोतरी, मिट्टी के प्रकार, पोषक तत्त्वों की मौजूदगी पर ज्यादा निर्भर होता है.

टेरी (टाटा एनर्जी रिसर्च सैंटर) द्वारा फसलों के उत्पादन और बढ़ोतरी पर नैशनल व इंटरनैशनल लैवल पर स्टडी की जा रही है.

आबोहवा पर असर

माइकोराइजा पौधों को पानी और पोषण मुहैया कराते हैं और तत्त्वों द्वारा मिट्टी में सुधार होता है. यह एक छन्ने के रूप में बुरा असर डालने वाले कैमिकलों से पौधों की हिफाजत करते हैं. ये कैमिकल उन जीवों में पाए जाते हैं जो आमतौर पर उन में इन्हें नहीं होना चाहिए.

माइकोराइजा द्वारा पौधों की शारीरिक क्रियाओं में भी बदलाव होता है. इस तरह ये रोगाणुओं से लड़ने में सक्षम होते हैं और उलट हालात जैसे लवणीय अधिकता, प्रदूषण, सूखा वगैरह में भी लड़ने में कारगर हैं.

इस के अलावा माइकोराइजा की मौजूदगी पौधों के प्रति जहरीले कैमिकल उदाहराणार्थ कार्बनिक अम्ल वगैरह विषाक्तता की सीमा तक नहीं पहुंच पाते, क्योंकि माइकोराइजा इन को विघटित करने में सक्षम होते हैं.

ऐसा अकसर माइकोराइजा द्वारा निकलने वाले स्राव जिस में कार्बनिक अम्ल शामिल होते हैं और कुछ उच्च अणुभार वाले जैसे कि प्रोटीनों और एंजाइमों द्वारा संभव होता है. इन यौगिकों द्वारा जीवाणुओं का ‘ट्रांसफोर्मेशन स्टीमुलैंट’ होता है. ऐसा अधिक कार्बन और तीव्र ‘मिनरलाइजेशन’ द्वारा मुमकिन होता है या सूक्ष्मजीवियों के लिए उत्तर व अधिक सहनशील जगह की मौजूदगी के चलते मुमकिन होता है.

माइकोराइजा कुछ नुकसान देने वाले कैमिकल के विघटन और संकलन में सहायक की भूमिका निभाते हैं जैसे कि एट्राजीन (एक हर्बीसाइड), पौलीसाइक्लिक एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन डीडीटी और पीपी डीडीई इन कैमिकल के विघटन और संकलन की बहुत सी परिकल्पनाएं हैं. जैसे सूक्ष्म जैविक विविधता की अधिकता, मिट्टी की भौतिक और रासायनिक दशा में सुधार और प्रदूषक कैमिकलों का संकलन वगैरह पर हर परिकल्पना के लिए कोई वास्तविक आंकड़े मौजूद नहीं हैं.

कुछ हालात में माइकोराइजा भारी धातुओं के संचयन में भी सहायक होते हैं और कुछ दूसरे हालात में इन धातुओं के संचालन को रोकने में भी प्रभावी साबित होते हैं.

रिसर्च के आधार पर यह साबित हो चुका है कि माइकोराइजा पौधों में भारी धातुओं के प्रति सहिष्णुता प्रदान करता है. कुछ प्रमुख पौधे जिन को माइकोराइजा से फायदा मिलता है, वे टमाटर, मक्का और ‘मेडीकागो ट्रन्काटुला’ वगैरह. यद्यपि रेडियोधर्मिता के प्रति माइकोराइजा पर खास काम नहीं किया गया है, तथापि माइकोराइजा ग्रस्त पौधे रेडियोधर्मिता के प्रति अधिक सहिष्णु होते हैं.

‘टेरी’ यानी टाटा ऊर्जा अनुसंधान संस्थान द्वारा अनुपजाऊ और बंजर जमीन को उर्वरक बनाने के लिए तमाम कामयाब प्रयोग किए जा चुके हैं. यह प्रयोग बरवाहा, मध्य प्रदेश, राष्ट्रीय ताप बिजलीघर यानी एनटीपीसी, कोरबा, छत्तीसगढ़ और टाटा कैमिकल्स, गुजरात में अनुसंधान सफलतापूर्वक किए जा चुके हैं, इसलिए यह सफलतापूर्वक साबित किया जा चुका है कि माइकोराइजा पौधों के सब से अच्छे दोस्त होते हैं.

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