World Nature Conservation Day : नोबेल शांति पुरस्कार विजेता अल्बर्ट श्वाइट्जर ने कभी कहा था, मनुष्य में अब न तो भविष्य को देखने की दृष्टि रही है, न ही संकट को रोकने की बुद्धि. वह अंततः इस पृथ्वी को नष्ट कर के ही रुकेगा.”

 आज, यही वाक्य हमारी हकीकत बनता जा रहा है. जिस धरती पर हमने सभ्यता की नींव रखी, अब हम उसी धरती से विकास के नाम पर संघर्ष कर रहे हैं.

हमारी आधुनिक प्रगति अब प्रकृति के साथ समझौता नहीं, उस पर हमला बन चुकी है. नदियों को रास्ते की रुकावट माना जाने लगा है और जंगलों को खाली जमीन मान कर विकास के नाम पर काटा जा रहा है.

पर्यावरण संरक्षण अब सिर्फ सरकारी योजनाओं तक सीमित रह गया है. पृथ्वी का ताप नहीं, हमारी सोच असंतुलित है.  हमारी प्राथमिकताओं में प्रकृति नहीं, मुनाफा है.

2024 में जब 1136 हेक्टेयर वनभूमि को खनन हेतु समर्पित किया गया, तब लाखोंकरोड़ों पेड़पौधों, जीवजंतुओं, बायोडायवर्सिटी के आंकड़ों ने हम से पूछना चाहा-क्या अब जंगल केवल ‘अन्य उपयोग योग्य’ जमीन रह गए हैं?

विकास का भविष्य सिर्फ टैक्नोलौजी पार्क में नहीं, बस्तर की बाड़ी, झारखंड की हाड़ी और नीलगिरी के काड़ू में भी पनपता है. आजीविका, जैव विविधता और परंपरा तीनों का संतुलन जरूरी है.

Raja Ram Tripathi

मेरे अपने कई प्रयोग जैसे “नेचुरल ग्रीनहाउस”  इस बात के गवाह हैं कि कम लागत में अधिक हरियाली संभव है. 2 लाख रुपए प्रति एकड़ की यह परिकल्पना 40 लाख रुपए वाले पौलीहाउस को चुनौती नहीं, विकल्प देती है और वह भी पूरी तरह जैविक तरीके से.

नीति और आचरण में भेद ही संकट की जड़ है : नवीन पर्यावरण नीतिपत्रों में ‘सस्टेनेबिलिटी’, ‘ग्रीन ग्रोथ’ और ‘क्लाइमेट लीडरशिप’ जैसे शब्दों की भरमार है. लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि ईएआई प्रक्रिया को आसान बना कर परियोजनाओं को पर्यावरणीय आकलन से मुक्त किया जा रहा है. यह नीति की नहीं, नैतिकता की हार है. आज समय है कि हम लाभ और लालच के बीच के अंतर को पुनः समझें.

यदि विज्ञान का विकास हुआ है, तो संवेदना का भी हो.

यदि हम स्मार्ट सिटी बना सकते हैं, तो ‘स्मार्ट जंगल’ भी बना सकते हैं. ऐसे जंगल जो परंपरा, आजीविका और जैविक संतुलन के त्रिकोण से निर्मित हों.

शायद अब भी समय है कि हम अपने बच्चों के लिए एक ऐसी पृथ्वी छोड़ें जो केवल फोटो फ्रेम में हरी न दिखे, बल्कि सांस लेने लायक भी हो.

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