World Nature Conservation Day : विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस हर वर्ष 28 जुलाई को मनाया जाता है. इस दिवस को मनाने का खास मकसद पर्यावरण संरक्षण और प्राकृतिक संसाधनों के सतत उपयोग के प्रति लोगों की जागरूकता बढ़ाना है. दरअसल, दिनोंदिन पर्यावरण दूषित हो रहा है, जिस का असर हवा, पानी और मिट्टी पर देखने को मिल रहा है, इसलिए हमें मिल कर प्राकृतिक संसाधनों का स्थायी प्रबंधन और संरक्षण करना होगा, जिस से हम आज और आने वाले कल को सुरक्षित कर सकें.
हमें प्राकृतिक संसाधनों, जैसे हवा, पानी, मिट्टी, वन और खनिज के महत्त्व को समझना होेगा, यही इस खास दिन का उद्देश्य है. प्रकृति का संरक्षण जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में सहायक होता है, जिस से भविष्य की पीढि़यों, वन्यजीवों और खेती को एक सुरक्षित और स्वस्थ वातावरण मिल सके.
पृथ्वी पर इस समय 140 करोड़ घन मीटर जल है. इस का 97 प्रतिशत भाग खारा पानी है जो समुद्र में है. लगभग केवल 3 फीसदी ही मीठा पानी है जो हरे जनजीवन के काम आता है. पानी 3 रूपों में पाया जाता है, तरल जो समुद्र, नदियों, तालाबों और भूमिगत जल में पाया जाता है, ठोस, जो बर्फ के रूप में पाया जाता है और गैस वाष्पीकरण द्वारा, जो पानी वातावरण में गैस के रूप में मौजूद होता है.
पूरे विश्व में पानी की खपत प्रत्येक 20 साल में दोगुना हो जाती है, जबकि धरती पर उपलब्ध पानी की मात्रा सीमित है. शहरी क्षेत्रों में, कृषि क्षेत्रों में और उद्योगों में बहुत ज्यादा पानी बेकार जाता है. यह अनुमान लगाया जा रहा है कि यदि सही ढंग से इसे व्यवस्थित किया जाए तो 40 से 50 प्रतिशत तक पानी की बचत की जा सकती है.
जलवायु परिवर्तन के कारण कृषकों के लिए जल आपूर्ति की भयंकर समस्या हो जाएगी तथा बाढ़ एवं सूखे की बारम्बारता में वृद्धि होगी. अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में लंबे शुष्क मौसम तथा फसल उत्पादन की असफलता बढ़ती जाएगी.
गांवों में जल के पारंपरिक स्रोत लगभग समाप्त होते जा रहे हैं. गांव के तालाब, पोखर, कुओं का जलस्तर बनाए रखने में मददगार होते थे. किसान अपने खेतों में अधिक से अधिक वर्षा जल का संचय करता था ताकि जमीन की आर्द्रता व उपजाऊपन बना रहे. परंतु अब बिजली से ट्यूबवैल चला कर और कम दामों में बिजली की उपलब्धता से किसानों ने अपने खेतों में जल का संरक्षण करना छोड़ दिया है.
जलवायु परिवर्तन के कृषि पर तात्कालिक एवं दूरगामी प्रभावों के अध्ययन की जरूरत है. कृषि वैज्ञानिकों की यहां कमी नहीं है, लेकिन कृषि वैज्ञानिक भी अभी जलवायु परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए इस दिशा में कोई शोध शुरू नहीं हुआ. हमें इस क्षेत्र में तत्काल 2 काम करने चाहिए. पहला यह कि जलवायु परिवर्तन से कृषिचक्र पर क्या फर्क पड़ रहा है यह जानना तथा दूसरा क्या इस परिवर्तन की भरपाई कुछ वैकल्पिक फसलें उगा कर पूरी की जा सकती है? साथ ही, हमें ऐसी किस्म की फसलें विकसित करनी चाहिए जो जलवायु परिवर्तन के खतरों से निबटने में सक्षम हों, मसलन फसलों की ऐसी किस्मों का ईजाद जो ज्यादा गरमी, कम या ज्यादा बारिश सहन करने में सक्षम हो जाएंगी.
कृषि अनुसंधान कार्यक्रमों के तहत शुष्क भूमि अनुसंधान पर पुन: ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है. इस के तहत ऐसे बीजों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए जो सूखे जैसी स्थिति में फसल उत्पादन जोखिम को 50 फीसदी तक कम कर सकते हैं.
बदलती जलवायु के प्रति अनुकूलन के लिहाज से कृषि अनुसंधान केंद्रों और किसानों के बीच नजदीकी सहयोग का होना बहुत आवश्यक है.
प्रोफैसर एमएस स्वामीनाथन का कहना है कि अगर किसानों तक जरूरी सूचनाएं पहुंचती रहेंगी तो वे कम उत्पादकता की स्थितियों और यहां तक बढ़ते तापमान के प्रभावों से मुकाबला करने में सक्षम होंगे. गेहूं की फसल बोआई के समय में कुछ फेरबदल करने पर विचार किया जाना चाहिए. एक अनुमान के अनुसार ऐसा करने से जलवायु परिवर्तन से होने वाली क्षति को 60-75 फीसदी तक कम किया जा सकता है.
किसानों को मिलने वाले फसल बीमा कवरेज और उन्हें दिए जाने वाले कर्ज की मात्रा बढ़ाने की आवश्यकता है. सभी फसलों को बीमा कवरेज देने के लिए इस योजना का विस्तार किया जाना चाहिए. फसल बीमा के लिए ग्रामीण बीमा विकास कोष का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए. कर्ज पर लिए जाने वाले ब्याज पर किसानों को मिलने वाली सब्सिडी को सरकार की सहायता से बढ़ाया जाना चाहिए
जलवायु स्मार्ट कृषि
देश में जलवायु स्मार्ट कृषि विकसित करने की ठोस पहल की गई है और इस के लिए राष्ट्रीय स्तर की परियोजना भी लागू की गई है. यह एक एकीकृत दृष्टिकोण है, जिस में फसली भूमि, पशुधन, वन और मत्स्यपालन के प्रबंधन का प्रावधान होता है. यह परियोजना खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन की परस्पर चुनौतियों का सामना करने के लिए बनाई गई है.
शून्य जुताई प्रौद्योगिकी और लेजर भूमि स्तर
परंपरागत खेती की तुलना में शून्य जुताई और लेजर भूमि स्तर के मामले में तकनीकी दक्षता अधिक पाई जाती है. लेजर भूमि स्तर और शून्य जुताई प्रौद्योगिकी पारंपरिक जुताई की तुलना में अधिक टिकाऊ पाई गई है. यह देखने को मिला है कि यदि किसान जलवायु स्मार्ट कृषि प्रौद्योगिकियों को अपनाता है तो उस के जोखिम स्तर में कमी के साथ अपेक्षित आय में वृद्धि होगी. लेकिन जलवायु स्मार्ट कृषि प्रौद्योगिकियों से प्राप्त कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लाभों के बावजूद यह अभी तक भारत में लोकप्रिय नहीं हो पाई है.