Agricultural Policy : हाल ही में नीति आयोग द्वारा प्रस्तुत एक वर्किंग पेपर ने देश के कृषि जगत में गहरी चिंता और असंतोष पैदा कर दिया है. इस पेपर में अमेरिका से कृषि उत्पादों पर आयात शुल्क घटाने, जेनेटिकली मोडिफाइड (जीएम) सोयाबीन व मक्का को भारत में लाने, और भारत को इन उत्पादों के लिए एक संभावित आयातक बाजार के रूप में खोलने की सिफारिश की गई है.
यह प्रश्न अब राष्ट्रीय विमर्श का विषय बन चुका है कि क्या भारत अब केवल वैश्विक कृषि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए एक विशाल उपभोक्ता मंडी बन कर रह जाएगा?
भारत अभी भी ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 127वें स्थान पर है. करोड़ों लोगों को आज भी संतुलित पोषण उपलब्ध नहीं है. ऐसे में अमेरिका से जीएम खाद्यान्न मंगाने की सिफारिश, न केवल स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ है, बल्कि भारत को एक जेनेटिक डंपिंग ग्राउंड में बदलने की मंशा भी उजागर करती है.
विज्ञान और जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में जीएम फसलों के दीर्घकालिक प्रभावों पर आज भी गंभीर प्रश्न चिह्न है. जैव विविधता, परागण प्रणाली, मृदा स्वास्थ्य और मानव जीवन पर इस के संभावित नकारात्मक परिणामों के बावजूद नीति आयोग द्वारा खुलेआम जीएम खाद्य पदार्थों का पक्ष लिया जाना चिंताजनक है.
तिलहन आत्मनिर्भरता की अनदेखी क्यों?
नीति आयोग का यह सुझाव कि भारत को अमेरिकी सोयाबीन तेल का आयात आसान बनाना चाहिए, सीधेसीधे देश के तिलहन किसानों को नजरअंदाज करना है. देश में सरसों, मूंगफली, तिल, अलसी और सोयाबीन जैसे फसलों की अपार संभावनाएं होते हुए भी उन के उत्पादन, मूल्य समर्थन और विपणन पर कोई सार्थक चर्चा नहीं की गई है. यदि अमेरिका से जीएम तेल सस्ता मिलता है, तो भारतीय किसान के उत्पादों की कीमत कौन देगा?
क्या ‘आत्मनिर्भर भारत’ केवल भाषणों में रहेगा, और जमीनी नीति ‘आयात आधारित भारत’ की ओर बढ़ेगी? क्या नीति आयोग अब ‘व्यापार आयोग’ बन रहा है?
यह पेपर नीति आयोग के वरिष्ठ सदस्य डा. रमेश चंद एवं सलाहकार राका सक्सेना द्वारा तैयार किया गया है. यह वही समय है जब भारतअमेरिका के बीच संभावित ‘फ्री ट्रेड एग्रीमेंट’ की चर्चाएं जोरों पर हैं. क्या यह केवल संयोग है कि आयोग अब अमेरिका के कृषि हितों की ‘सिफारिशें’ कर रहा है?
यदि कृषि नीति वे लोग बनाएंगे जिन्होंने कभी खेत की मिट्टी नहीं छुई, न किसानों की लागत समझी, न ऋण का बोझ, तो फिर भारत की कृषि का हनन होना निश्चित है.
गन्ना किसानों को दरकिनार कर मक्का आयात?
इथेनौल उत्पादन के लिए अमेरिका से जीएम मक्का आयात करने का प्रस्ताव न केवल हास्यास्पद है, बल्कि देश के गन्ना किसानों का अपमान भी है. उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक जैसे राज्यों में लाखों गन्ना किसान अभी भी चीनी मिलों से बकाया भुगतान के लिए संघर्ष कर रहे हैं. ऐसे में देशी स्रोतों से इथेनौल उत्पादन बढ़ाने के बजाय विदेशी मक्का का विकल्प सुझाना देश की कृषि आत्मनिर्भरता को खोखला करना है.
आयात पोषित महंगाई और खाद्य असुरक्षा की भूमिका?
नीति आयोग का यह भी सुझाव है कि अमेरिका से बादाम, पिस्ता, सेब और अखरोट जैसे उत्पादों पर आयात शुल्क कम किया जाए. प्रश्न यह है कि भारत में महंगाई चरम पर है. मध्यवर्गीय और निम्न आय वर्ग पहले से ही रसोई की कीमतों से जूझ रहा है. ऐसे में विदेशी ‘लक्जरी खाद्य पदार्थों’ के लिए बाजार खोलना किस की प्राथमिकता है?
क्या अब नीतियां व्हाइट हाउस से बनेंगी?
यह विडंबना है कि जिन नीतियों को भारत के किसानों के लिए बनना चाहिए, वे आज अमेरिका के व्यापारिक एजेंडे से प्रेरित प्रतीत होती हैं. क्या देश की कृषि नीति अब वाशिंगटन के लौबियों से निर्देशित होंगी? क्या हम ‘भारत के किसानों’ को छोड़ कर ‘अमेरिकी किसानों’ के हितों के रक्षक बनते जा रहे हैं.
भारत की कृषि अर्थव्यवस्था में अभी भी आत्मनिर्भरता की प्रबल संभावनाएं हैं. देश में और्गेनिक खेती, पारंपरिक बीज, जैविक खाद, मिलेट्स, औषधीय वनस्पतियां और छोटे किसान आधारित कृषि मौडल आज भी टिकाऊ, सुरक्षित और बाजारोन्मुख समाधान प्रस्तुत करते हैं.
किसानों के नाम पर अब दलाली स्वीकार्य नहीं
कृषि नीति में विदेशी कंपनियों के इशारों पर फैसले लेना, नीति नहीं ‘दलाली’ की संस्कृति को जन्म देना है. क्या आज का भारत, जिस की कृषि परंपरा हजारों सालों से विश्व के लिए प्रेरणा रही है, वह अपनी नीति अमेरिका के खाद्य लौबी के हवाले कर देगा? यदि ऐसा हुआ, तो यह केवल कृषि पर हमला नहीं, भारत की आत्मा पर आघात होगा.
याद रखिएगा अब किसान पूछेगा, किस के लिए ये नीतियां बन रही हैं?
आज भारत का किसान प्रश्न करता है कि :
• क्या नीति आयोग हमारी बात सुनेगा या वौल स्ट्रीट की लौबी की?
• क्या हम अपने खेतों में अपनी फसल नहीं उगाएंगे?
• क्या हमारी थाली पर अब विदेशी व्यापारिक कंपनियों का अधिकार होगा?