मचान पर करें करेले (Bitter Gourd) की खेती

Bitter Gourd : कद्दूवर्गीय सब्जियों में करेला (Bitter Gourd) अपने खास औषधीय गुणों की वजह से अन्य सब्जियों के मुकाबले एक खास स्थान रखता है. इस की खेती भारत में खरीफ और गरमी के मौसम में की जाती है. सब्जियों की मार्केट में इस की खास जगह है. इस के फल सब्जी, कलौंजी (भरवां) व अचार बनाने के काम आते हैं. इस के फलों को काट कर सुखा लेते हैं और बाद में भी सब्जी के रूप में इस्तेमाल करते हैं. इस के फलों का इस्तेमाल पेट के रोगियों के लिए लाभदायक है. करेले के कच्चे फलों का रस मधुमेह (डाइबिटीज) के रोगियों के लिए बहुत फायदेमंद है. यह उच्च रक्तचाप में भी बहुत लाभदायक होता है. इस में मौजूद कड़वाहट (मोमोर्डसिन) खून को साफ करने में काफी मदद करती है.

मचान : बांस और तार के द्वारा करीब 6 फुट ऊंचा मचान बनाया जाता है. इस में खासतौर पर खरीफ की फसल ली जाती है, जिस के कारण फलों में एकरूपता बनी रहती है और बाजार में उन की मांग बढ़ जाती है. इस से 1 हेक्टेयर खेत से करीब 30-40 क्विंटल फसल अधिक प्राप्त होती है.

जलवायु : कद्दूवर्गीय सब्जियां गरम जलवायु की फसलें हैं. इन में ज्यादा ठंड और पाला सहन करने की कूवत नहीं होती है. करेले की खेती के लिए 40 डिगरी सेल्सियस से 20 डिगरी सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है. आदर्श तापमान 25-30 डिगरी सेल्सियस है.

खेत की तैयारी : कद्दूवर्गीय सब्जियों के लिए बलुई दोमट मिट्टी जिस में जल निकास का सही इंतजाम हो, अच्छी मानी जाती है. करेले की खेती नदियों के किनारे भी की जाती है. मिट्टी का पीएच मान 6 से 7.5 सही रहता है. खेत की 3-4 बार जुताई कर के नालियां व थाले बना लेते हैं, जिन में बीजों की बोआई करते हैं. बोआई खेत में नमी रहने पर ही करनी चाहिए, ताकि बीजों का अंकुरण व विकास अच्छी तरह हो सके.

खाद व उर्वरक : कंपोस्ट या गोबर की सड़ी खाद 20 से 25 टन प्रति हेक्टेयर की दर से बीज बोने के 3 से 4 हफ्ते पहले खेत तैयार करते समय मिट्टी में अच्छी तरह मिला देते हैं. इस के अलावा 100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 60 किलोग्राम पोटाश की प्रति हेक्टेयर की दर से जरूरत पड़ती है. फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा और एक तिहाई नाइट्रोजन की मात्रा आपस में मिला कर बोने वाली नालियों के स्थान पर डाल कर मिट्टी में मिला दें और थाले बनाएं. बची नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोआई के 25-30 दिनों बाद नालियों में टापड्रेसिंग के रूप में दें और गुड़ाई कर के मिट्टी चढ़ाएं. नाइट्रोजन की बाकी मात्रा पौधों की बढ़वार के समय (40 से 50 दिनों बाद) फल निकलने से पहले ट्रापड्रेसिंग के रूप में दें. यूरिया का पर्णीय छिड़काव (5 ग्राम यूरिया प्रति लीटर पानी) करना जरूरी है.

उन्नतशील प्रजातियां

पूसा दो मौसमी : नाम के मुताबिक यह प्रजाति दोनों मौसमों (खरीफ व गरमी) में बोई जाती है. बोआई के करीब 55 दिनों बाद फसल तोड़ाई लायक हो जाती है. फल गहरे हरे, मध्यम मोटे व करीब 18 सेंटीमीटर लंबे होते हैं. फलों का वजन करीब 100 से 120 ग्राम होता है. उपज 120-150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

पूसा विशेष : इस के फल हरे, पतले व मध्यम आकार के होते हैं. औसतन 1 फल का वजन 115 ग्राम होता है. इस की उपज 120 से 130 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

अर्का हरित : इस प्रजाति के फल चमकीले हरे, चिकने, अधिक गूदेदार और मोटे छिलके वाले होते हैं. बोआई के बाद 120 दिनों में फल तैयार हो जाते हैं. फलों में बीज व कड़वाहट भी कम होती है. इस की उपज 130 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

काशी हरित : फल गहरे रंग के करीब 100 ग्राम वजन के होते हैं. फलों की पहली तोड़ाई करीब 50 दिनों बाद की जाती है. मचान बना कर खेती करने पर करीब 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है.

काशी उर्वशी : फल हलके हरे व सीधे होते हैं. पहली तोड़ाई बोआई के करीब 60 दिनों बाद की जाती है. मचान बना कर खेती करने पर करीब 225-270 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है.

प्रिया : इस के फल 40 सेंटीमीटर तक लंबे होते हैं, जो बोआई के 60 दिनों बाद तोड़ाई लायक हो जाते हैं.

कल्यानपुर बारहमासी : इस प्रजाति के फल 30-35 सेंटीमीटर तक लंबे होते हैं. यह ज्यादा उपज देने वाली प्रजाति है.

संकर प्रजातियां : विवेक (सनग्रो सीड्स), तिजारती (सेंचुरी), एमवीटीएच 101 (महिको).

बोआई का समय : मैदानी इलाकों में गरमी की फसल के लिए फरवरीमार्च में और बारिश की फसल के लिए जूनजुलाई में बोआई करते हैं. पहाड़ी इलाकों में मार्च से अप्रैल तक बोआई करते हैं.

बीज की मात्रा : 1 हेक्टेयर खेत की बोआई के लिए 5-6 किलोग्राम बीजों की जरूरत पड़ती है. कल्यानपुर बारहमासी प्रजाति (जिस के पौधे अधिक बढ़ते हैं) की बीज दर 3-4 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होती है.

बोआई : अच्छी तरह से तैयार किए गए खेत में 2-2.5 मीटर की दूरी पर 40-50 सेंटीमीटर चौड़ी नालियां बना कर नालियों के दोनों किनारों (मेंड़ों पर 45-60 सेंटीमीटर की दूरी) पर बोआई करते हैं. एक जगह पर 2-3 बीज 3-5 सेंटीमीटर की गहराई पर बोने चाहिए.

सिंचाई : सिंचाई मिट्टी की किस्म व जलवायु पर निर्भर करती है. खरीफ मौसम में खेत की सिंचाई करने की जरूरत नहीं होती, पर बारिश न होने पर सिंचाई की जरूरत पड़ती है. ज्यादा बारिश के समय पानी की निकासी के लिए नालियों का होना जरूरी है, वरना फसल नष्ट होने का खतरा होता है. ज्यादा तापमान होने के कारण मार्चअप्रैल में 7-10 दिनों के अंतराल पर और मईजून में 4-5 दिनों पर सिंचाई करनी चाहिए. पानी की कमी होने पर पत्तियां मुरझा जाती हैं.

फलों की तोड़ाई : जब फलों का रंग गहरे हरे से हलका हरा पड़ना शुरू हो जाए, तो उन की तोड़ाई के लिए सही समय माना जाता है. फलों की तोड़ाई एक तय अंतराल पर करते रहना चाहिए, ताकि फल कड़े न हों वरना उन की बाजार में मांग कम होती जाती है और साथ ही पौधों के जीवनकाल पर भी बुरा असर पड़ता है. बोने के 60-75 दिनों बाद फल तोड़ने लायक हो जाते हैं. यह काम हर तीसरे दिन करना चाहिए.

उपज : करेले की उपज प्रति हेक्टेयर करीब 150 क्विंटल तक प्राप्त हो सकती है, पर मचान पर खेती करने से करीब 30-50 क्विंटल उपज बढ़ाई जा सकती है.

करेले में कीट प्रबंधन

लाल कद्दू भृंग : यह कीट तेज चमकीला नारंगी रंग का होता है. यह आकार में करीब 7 मिलीमीटर लंबा और 4.5 मिलीमीटर चौड़ा होता है.

इस के सिर, वक्ष और उदर का निचला भाग काला होता है. इस कीट का भृंग पीलापन लिए सफेद होता है. इस का सिर हलका भूरा होता है. भृंग के पूरी तरह विकसित होने पर इस की लंबाई 12 मिलीमीटर होती है और चौड़ाई 3.5 से 4.0 मिलीमीटर होती है.

इस कीट के भृंग और वयस्क दोनों नुकसान पहुंचाते हैं. भृंग जमीन के नीचे रहते हैं और पौधों की जड़ों व तनों में छेद कर देते हैं. आमतौर पर इस के प्रौढ़ पौधों की छोटी पत्तियों को ज्यादा खाते हैं. इस कीट का हमला फरवरी से ले कर अक्तूबर तक होता है.

रोकथाम

* गरमी में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए, जिस से इस कीट के अंडे व बच्चे (भृंग) ऊपर आ जाएं और तेज गरमी से मर जाएं. पहली अवस्था में जब इस का कम प्रकोप रहता है, तब इस के वयस्कों को हाथ से पकड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.

* कार्बरिल 50 डब्ल्यूपी की 2 ग्राम मात्रा का प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. 5 फीसदी सेविन पाउडर को 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से राख में मिला कर (1:1) भुरकाव करने से भी इस कीट की रोकथाम हो जाती है.

फल मक्खी : इस मक्खी का रंग लालभूरा होता है. इस के सिर पर काले व सफेद धब्बे पाए जाते हैं और वक्ष पर हरापन लिए पीले रंग की लंबाकार मुड़ी हुई धारियां होती हैं.

मादा का उदर शंक्वाकार और नर का गोलाकार होता है.

मक्खी के पंख पारदर्शी होते हैं. करेला, टिंडा, तुरई, लौकी व तरबूज आदि को यह मक्खी नुकसान पहुंचाती है. मादा मक्खी फल के छिलके में बारीक छेद कर के अंडे देती है. अंडों से मैगेट (लार्वा) निकल कर फलों के अंदर का भाग खाते हैं. कीट फल के जिस भाग पर छेद कर के अंडे देता है, वह भाग वहां से

टेढ़ा हो कर सड़ जाता है. इस कीट के हमले से फल पूरी तरह सड़ जाता है.

रोकथाम

* खराब फलों को तोड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.

* गरमी में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए.

* 20 मिलीलीटर मैलाथियान 50 ईसी व 20 ग्राम चीनी या गुड़ को 20 लीटर पानी में मिला कर कुछ चुने हुए पौधों पर छिड़काव करना चाहिए, जिस से इन के वयस्क आकर्षित हो कर आते हैं और मर जाते हैं.

* 0.1 फीसदी कार्बरिल (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) या 0.05 फीसदी फेनथियान (1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) का छिड़काव फायदेमंद होता है, लेकिन रासायनिक दवा का छिड़काव फल तोड़ कर ही करना चाहिए.

करेले में रोग प्रबंधन

चूर्णी फफूंद (चूर्णिल आसिता) : यह खासतौर पर जाड़े वाली लौकी व कुम्हड़ों पर लगने वाला रोग है. पहला लक्षण पत्तियों व तनों की सतह पर सफेद या धुंधले धूसर धब्बों के रूप में दिखाई देता है. कुछ दिनों के बाद ये धब्बे चूर्णयुक्त हो जाते हैं. सफेद चूर्णी पदार्थ अंत में पूरे पौधे की सतह को ढक लेता है. हमले से पौधे के पत्ते गिर जाते हैं और फलों का आकार छोटा रह जाता है.

रोकथाम

* रोग ग्रस्त फसल के अवशेष जमा कर के खेत में ही जला देने चाहिए.

* बोने के लिए रोगरोधी प्रजातियों का चयन करें.

* फफूंदी नाशक दवा कैलिक्सीन की आधा मिलीलीटर मात्रा का 1 लीटर पानी में घोल बना कर 7 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें. यह दवा न होने पर पेंकोनाजोल 1 मिलीलीटर दवा 4 लीटर पानी में घोल कर 10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.

मृदुरोमिल आसिता : यह रोग ज्यादातर खीरा, परवल, खरबूजा और करेले में पाया जाता है. बारिश के मौसम के बाद जब तापमान 20-22 डिगरी सेल्सियस होता है, तब यह तेजी से फैलता है. उत्तरी भारत में इस रोग का प्रकोप ज्यादा होता है. इस रोग में पत्तियों पर कोणीय धब्बे बनते हैं, जो पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग के होते हैं.

रोकथाम

* बोने के लिए रोगरोधी प्रजातियों का इस्तेमाल करना चाहिए.

* बीजों को एप्रोन नामक कवकनाशी से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोना चाहिए.

* मैंकोजेब 0.25 फीसदी (2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी) घोल का छिड़काव करें.

* रोग के असर वाली लताओं को निकाल कर जला देना चाहिए.

फल विगलन रोग : यह रोग हर जगह पर और हर खेत में पाया जाता है. घीया, तुरई, चचींड़ा, परवल, लौकी व करेला के फलों पर कवक की ज्यादा वृद्धि हो जाने से फल सड़ने लगते हैं. जमीन पर पड़े फलों का छिलका नरम व गहरे हरे रंग का हो जाता है. नम मौसम में सड़े हुए भाग पर रुई जैसे कवक जाल बन जाते हैं.

रोकथाम

* खेत की गरमी में जुताई करें.

* हरी खाद का इस्तेमाल कर के ट्राइकोडर्मा 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालें.

* खेत में जल निकासी का इंतजाम करें.

* फलों को जमीन छूने से बचाने का इंतजाम करें.

* फसल को तार व खंभे के ऊपर चढ़ा कर (मचान पर) खेती करने से इस रोग से अच्छा बचाव होता है.

* भंडारण व परिवहन के समय फलों को चोट लगने से बचाएं. उन्हें हवादार व खुली जगह पर रखें.

Nimboli : निंबोली से रोजगार

Nimboli: हरेभरे नीम के पेड़ गांवदेहात से ले कर शहरों के गलीमहल्ले और बड़ी सड़क के किनारे से ले कर हर जगह देखने को मिल जाते हैं. शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो नीम के पेड़ के बारे में न जानता हो. नीम के पेड़ की हर चीज फायदेमंद होती है, चाहे वह पत्ती हो, छाल हो या फल निंबोली (Nimboli).

नीम की इसी निंबोली (Nimboli) को रोजगार का जरीया बनाया गुजरी, मध्य प्रदेश के किसान अभिषेक गर्ग ने. उन्होंने आदिवासियों को रोजगार भी दिया. गुजरी में उन्होंने नीम का तेल निकालने और खली पाउडर बनाने का प्लांट भी लगाया. ये दोनों ही उत्पाद जैविक खेती में कीटनाशक और पोषक तत्त्वों के रूप में काम आ रहे हैं.

अभिषेक गर्ग ने बताया, ‘‘जब मैं ने इस काम की शुरुआत की थी, तो उस समय पूरी दुनिया की नजर भारत के नीम, बासमती चावल व हलदी पर लगी हुई थी. हमारे क्षेत्र को निमाड़ क्षेत्र कहा जाता है. निमाड़ का मतलब होता है नीम की आड़. उस समय कृषि विशेषज्ञ डा. गुरपाल सिंह जरयाल ने मेरा ध्यान नीम की ओर दिलाया. जो निंबोली उस समय पानी में ऐसे ही बही जा रही थी, उसी निंबोली को इकट्ठा करने के लिए मैं ने अपने आसपास के क्षेत्रों के लोगों को जोड़ना शुरू किया. गांवों में जा कर लोगों से मिल कर उन्हें निंबोली इकट्ठा करने के लिए जागरूक किया, जिस का मुझे अच्छा परिणाम मिला.

‘‘आज मैं इन्हीं लोगों के जरीए गांवों से हर साल औसतन 1 हजार टन निंबोली इकट्ठा करता हूं. इस से आदिवासियों को तो काम मिला ही, स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिला,

‘‘कृषि विशेषज्ञ डा. गुरपाल सिंह जरियाल और कृषक राम पाटीवार की मदद से साल 2010 में गुजरी गांव में ही निंबोली से तेल बनाने का प्लांट लगाया.

कैसे बनाते हैं तेल

अभिषेक गर्ग बताते हैं कि आदिवासियों से खरीद कर पकी निंबोली को पहले अच्छी तरह सुखाया जाता है, ताकि उस में से पानी निकल सके. बाद में उस का छिलका और डंठल अलग किए जाते हैं, फिर बीज को मशीन में डाला जाता है. तेल निकलने के बाद बची खली को सुखा कर उस का पाउडर तैयार किया जाता है.

खली पाउडर का इस्तेमाल

रासायनिक उर्वरकों से खराब होती जा रही खेती की जमीन को बचाने के लिए आजकल जैविक खेती का प्रचलन तेजी से बढ़ता जा रहा है. जैविक खेती में ही निंबोली का तेल और खली दोनों का बहुतायत से इस्तेमाल हो रहा है. निंबोली का तेल कीटनाशक का काम भी करता है और खली में खेती की जमीन के लिए जरूरी 16 पोषक तत्त्वों से ज्यादा तत्त्व होते हैं. खली का पाउडर बना कर खेत में बिखेरा जाता है. 1 हेक्टेयर जमीन में 5 क्विंटल नीम खली पाउडर का इस्तेमाल होता है और कीटनाशक के तौर पर 3 लीटर नीम तेल में काम हो जाता है.

उपज व उत्पादन

आमतौर पर नीम का पेड़ 5-6 साल का होने के बाद ही फल देता है. औसतन एक पेड़ से 30-50 किलोग्राम निंबोली और 350 किलोग्राम पत्तियां हर साल मिल जाती हैं. नीम का एक पेड़ तकरीबन 100 सालों तक फल देता है. 30 किलोग्राम निंबोली से 6 किलोग्राम नीम का तेल और 24 किलोग्राम खली आसानी से मिल जाती है. तेल निकालने के बाद बची खली बहुत ही असरदार कीटनाशक व खाद का काम करती है.

कैसे करें इकट्ठा

जब निंबोली जम कर पीली होने लगे तो समझ जाना चाहिए कि अब आप इन्हें इकट्ठा कर सकते हैं. निंबोली चूकि एकसाथ न पक कर धीरेधीरे महीनों तक पकती रहती है और पक कर अपनेआप गिरती रहती है, इसलिए पेड़ के नीचे झाड़ू लगा कर साफसफाई रखें, जिस से निंबोली इकट्ठा करते समय जगह साफसुथरी हो. पेड़ की टहनियों को हिला कर भी निंबोली इकट्ठी की जा सकती हैं. बांस आदि के डंडे से टहनियों को हिलाया जा सकता है. निंबोली को 2-3 दिनों तक खुली हवा में छोड़ देना चाहिए, जिस से उन का गूदा मुलायम हो जाए.

अभिषेक गर्ग ने आगे बताया, ‘‘मैं तो मूल रूप से किसान हूं. मैं यह चाहता था कि बेकार जाने वाली निंबोली का इस्तेमाल कैसे हो और इस से लोगों को रोजगार भी मिले. मुझे इस काम में सफलता मिली और अब तो देशभर के कई लोग मुझ से इस काम की जानकारी लेने के लिए संपर्क भी कर रहे हैं.

‘‘आज हम ने ‘श्री राम एग्रो प्रोडक्ट’ के नाम से नीम की इकाई भी लगा रखी है, जिस में नीम से बनने वाले जैविक और प्राकृतिक कृषि उत्पादों को बनाया जा रहा है.’’

निंबोली के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए आप अभिषेक गर्ग से उन के मोबाइल नंबर 09993441010 पर संपर्क कर सकते हैं.

विकसित कृषि संकल्प अभियान : 1.20 हजार किसानों तक पहुंच बनाई 

उदयपुर : डा. अजीत कुमार कर्नाटक, कुलपति महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय ने 12 जून, 2025 को विकसित कृषि संकल्प अभियान के समापन समारोह में कहा “कृषि व्यवसाय नहीं है बल्कि, यह हमारी जीवन पद्धति है. देश में 65 फीसदी किसान परिवार हैं और सभी खेत में ही पलेबढ़े हैं. अब जरूरत इस बात की है कि अब खेतीकिसानी को बाजार आधारित बनाया जाए. साल 1947 में हम आजाद हुए और 2047 यानी 100 साल बाद विकसित राष्ट्र की श्रेणी में आ रहे हैं. आजादी के बाद देश के कृषि वैज्ञानिकों ने खाद्यान्न उत्पादन को 354 मिलियन टन पहुंचा दिया यानी 7 गुना की वृद्धि. लेकिन इधर जनसंख्या में भी 4 गुना वृद्धि के साथ देश की आबादी 140 करोड़ हो चुकी है.

विकसित कृषि संकल्प अभियान का समापन समारोह उदयपुर के समीप बिनोता पंचायत के कोटड़ी गांव में आयोजित हुआ. जहां बड़ी संख्या में किसान महिलाओंपुरूषों ने भाग लिया.

इस कार्यक्रम में डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने ग्रामीणों से कहा कि हमारे पूर्वज ‘खेतीबाड़ी’ किया करते थे यानी गेंहूंमक्का के साथसाथ फलफूल व सब्जियां भी बोते थे. जिस का लाभ पूरे परिवार को मिलता था. समय के साथ कई नई तकनीक भी आ गईं, लेकिन किसानों तक सुगमता से नहीं पहुंच पाई. देशभर के कृषि तंत्र को ‘लेब से लैंड’ तक ले जाने संबंधी इस अभियान के तहत महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अधीन आठ कृषि विज्ञान केंद्रों ने 15 दिन में एक लाख 20 हजार किसानों तक अपनी पहुंच बनाई व उनको तकनीकी जानकारी दी. जिस का लाभ आने वाले खरीफ सीजन  के दौरान मिलेगा.

कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि कृषि के साथ गोवंश पालन, बकरी पालन, मुर्गी पालन, मधुमक्खी पालन भी करना चाहिए. इस से किसानों को आर्थिक संबल मिलेगा. वहीं गोवंश पालन से खेतों को कंपोस्ट और लोगों को शुद्ध दूध व दही मिलेगा.

“गेहूं छोड़ मक्का खाणों – मेवाड़ छोड़ न कठैई नी जाणों’’ कहावत का जिक्र करते हुए कुलपति ने कहा कि आने वाले समय में मक्का दुनिया की सब से महंगी फसलों में शुमार होने वाली है. मक्का को आरंभ में पशुचारे के रूप में बोया जाता था लेकिन वैज्ञानिकों ने रातदिन प्रयोग कर मक्का से पोपकौर्न, स्वीट कौर्न, बेबीकौर्न जैसी कई प्रजातियां तैयार कर दी.

इतना ही नहीं मक्का के दाने में जर्म से अब तेल व स्टार्च निकाला जाने लगा है. स्टार्च से इथेनौल बन रहा है जिसे पेट्रोल में मिलाने की अनुमति भी सरकार ने दी है. बांसवाड़ा में मक्का की तीन फसलें ली जाती है.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि आप को अपने किसान होने पर गर्व होना चाहिए. जब तक सृष्टि है आदमी की भूख कभी खत्म होने वाली नहीं है और इस भूख को केवल अन्नदाता किसान ही शांत कर सकता है. अनाज के अलावा शेष जरूरतों को पूरा करने के लिए किसानों को नई तकनीक जैसे मोबाइल एप, ड्रोन से उर्वरक छिड़काव आदि का प्रयोग ज्यादा से ज्यादा करना चाहिए. साथ ही, प्राकृतिक खेती, कंपोजिट किस्मों में 20 फीसदी बीजों का बदलाव, क्रांतिक अवस्था में सिंचाई जैसी कई युक्तियां अपना कर किसान अतिरिक्त आय ले सकता है.

इस समापन समारोह के अध्यक्ष निदेशक प्रसार शिक्षा डा. आरएल सोनी ने कहा कि नवाचारों की जानकारी देने के लिए एक पखवाड़े तक चले अभियान में दक्षिणी राजस्थान के 9 जिलों में 13 टीमों ने लगभग 550 शिविर आयोजित कर एक लाख बीस हजार किसानों से संपर्क साधा और भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान व एमपीयूएटी में विभिन्न शोध के बारे में किसानों को बताया.

डा. आरएल सोनी ने किसानों से कहा कि वे कृषि में नवाचारों का इस्तेमाल करें. मृदा परीक्षण करा सिफारिश के अनुसार ही अपने खेतों में उर्वरक दें. फसल की सघनता को बढ़ावा देते हुए अच्छा बीज काम में लें. इस मौके पर उन्होंने 15 किसानों को  फ्री मक्का बीज मिनीकिट देने की घोषणा भी की.

इस कार्यक्रम के शुरुआत में कृषि विज्ञान केंद्र,  राजसमंद के प्रभारी डा. पीसी रेगर ने 15 दिन के अभियान के दौरान हुई कृषि गतिविधियों की जानकारी दी. सहायक कृषि अधिकारी रंजना औदिच्य ने कृषि विभागीय योजना जैसे पाइप लाईन, तारबंदी, खेत तलाई, कृषि यंत्र पर सरकारी अनुदान की जानकारी दी.

मृदा वैज्ञानिक डा. महावीर नोगिया, नवल सिंह झाला, गोपाल सिंह राणा, राम किशोर यादव, डा. लतिका व्यास, डा. आदर्श शर्मा आदि ने भी किसानों से चर्चा कर उन को आमदनी बढ़ाने के तरीके बताए.

दिल्ली क्षेत्र में विकसित कृषि संकल्प अभियान

Viksit Krishi Sankalp Abhiyan: 12 जून, 2025 को कृषि विज्ञान केंद्र, दिल्ली भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली एवं कृषि इकाई, विकास विभाग, दिल्ली सरकार के द्वारा विकसित कृषि संकल्प अभियान का 15 वें दिन का कारवां दिल्ली देहात के नांगल ठकरान एवं बाजितपुर गांव (अलीपुर ब्लौक, दिल्ली) में पहुंचा.

इस कार्यक्रम के शुरुआत में डा. डीके राणा, अध्यक्ष, कृषि विज्ञान केंद्र, दिल्ली ने सभी वैज्ञानिकों एवं किसानों का स्वागत करते हुए बताया कि तकनीकों एवं अनुसंधान को किसानों के खेतों पर पहुंचाने में कृषि विज्ञान केंद्रो का महत्वपूर्ण योगदान है. खेती व किसानों को समृद्ध करने के लिए “लैब टू लैंड” विजन के साथ ज्ञान की किरण आज खेतों तक पहुंच रही है और अनुसंधान पर वैज्ञानिक किसानों के साथ सीधा संवाद कर के समस्या आधारित किसानों को जानकारी दे रहे हैं.

इसी क्रम में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली के प्रधान वैज्ञानिक डा. राम स्वरूप बाना ने जल संरक्षण की तकनीकियों पर विशेष ध्यान देते हुए विस्तृत जानकारी साझा की. साथ ही, उन्होंने बताया कि जिन क्षेत्रों में पानी की कमी है उन क्षेत्र में किसान संरक्षित तकनीक अपना कर अच्छी आय प्राप्त कर सकते हैं. उन्होंने कहा कि यदि युवाओं को खेती की तरफ आना है तो हमें पारंपरिक तकनीकी को छोड़ कर आधुनिक खेती को अपनाना होगा. इसी क्रम उन्होंने बाजरा की वैज्ञानिक खेती की विस्तृत जानकारी किसानों के साथ साझा की.

डा. श्रवण कुमार सिंह ने दिल्ली के आसपास क्षेत्र के लिए सब्जियों की विभिन्न प्रजातियां, जो दिल्ली क्षेत्र में अच्छा उत्पादन दे सकें के साथसाथ पोषण से संबंधित जितनी भी तकनीकियां हैं, जैसे किचन गार्डन की स्थापना करना और उस में लगने वाले मौसम के अनुसार सब्जियां और मानव पोषण के लिए संतुलित आहार आदि के साथ संरक्षित खेती की सारी जानकारी किसानों के साथ साझा की. डा. श्रवण कुमार सिंह ने संरक्षित खेती पर विशेष जोर दिया और उन्होंने बताया कि छोटे से छोटे जगह में भी आप हाईटैक नर्सरी बना कर अच्छा उत्पादन कर युवा किसान इस में अच्छी आय प्राप्त सकते हैं.

डा. श्रवण हलधर, प्रधान वैज्ञानिक (किट विज्ञान) ने किसानों को एकीकृत कीट प्रबंधन अपनाने की सलाह दी. उन्होंने कहा कि किसानों को एकीकृत कीट प्रबंधन की विभिन्न प्रथाएं जैसे कीटों की निगरानी, लाभदायक एवं हानिकारक कीटो की पहचान, प्रभावी विधियों का चयन, जैविक नियंत्रण को अपनाना,  यांत्रिक उपकरणों का उपयोग सहित रासायनिक नियंत्रण के साथ वैज्ञानिक की सलाह से कीटनाशकों का उपयोग करना चाहिए.

इसी क्रम में डा. समर पाल सिंह ने खारे पानी और लवणीय मिट्टी का किस तरह से सुधार किया जा सकता है एवं खारे पानी में होने वाली फसलें जैसे पालक, जौ, सरसों आदि के बारे में विस्तार से जानकारी देते हुए उन की प्रजातियों के बारे में जानकारी दी. इसी के साथ उन्होंने प्राकृतिक खेती अपनाने के लिए किसानों से आग्रह किया.

डा. नीरज ने धान की सीधी बोआई, खरपतवार प्रबंधन, पोषक तत्वों के प्रबंधन आदि की जानकारी देते हुए पूसा संस्थान विभिन्न प्रजातियों के बारे में भी बताया. डा. ऋतु जैन प्रधान वैज्ञानिक (फूल विज्ञान) ने ड्रेन एवं स्वेज के पानी से फूलों की खेती के बारे में विस्तार से जानकारी दी.

डा. राकेश कुमार विज्ञानी (बागबानी) ने बागबानी की जानकारी देते हुए नए बाग की स्थापना के साथसाथ विभिन्न तकनीकियों जैसे मल्चिंग, ड्रिप सिंचाई पद्धति, कम समय में अधिक आय के साथसाथ विदेशी सब्जियों खेती की जानकारी दी.

कैलाश, कृषि प्रसार विशेषज्ञ ने कृषि में सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) व डिजिटल कृषि के प्रभावी उपयोग पर विचार साझा किए, जिस से किसानों को वैज्ञानिक जानकारी समय पर मिल सके.

इसी क्रम में कृषि विज्ञान केंद्र, दिल्ली के वैज्ञानिकों ने आगामी खरीफ फसलों से संबंधित आधुनिक तकनीकों की जानकारी के साथ मृदा स्वास्थ्य कार्ड के अनुसार संतुलित खादों के प्रयोग, प्राकृतिक खेती, प्राकृतिक खेती के घटक, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि की सारी जानकारी किसानों के साथ साझा की. इस कार्यक्रम के अंत में बृजेश कुमार, मृदा विशेषज्ञ ने किसानों को मिट्टी पानी जांच की जानकारी देते हुए किसानों को कार्यक्रम में शामिल होने के लिए धन्यवाद दिया व उन से आग्रह किया कि ये संदेश अधिक से अधिक किसानों तक पहुंचाए.
इस कार्यक्रम के दौरान, किसानों के प्रश्नों एवं समस्याओं के लिए विशेष सत्र का आयोजन कर के संतुष्ट जवाब एवं अमूल्य सुझाव दिए गए.

Crop Protection :जंगली जानवरों से फसल सुरक्षा

Crop Protection : आजकल जंगली जानवरों से फसलों की सुरक्षा करना किसानों के लिए बहुत कठिन होता जा रहा है. जंगली जानवरों की रोकथाम के लिए कई साधन इस्तेमाल किए जाते हैं, जिन में सोलर फैंसिंग बाड़, फसल रक्षक मशीन, मेहंदी बाड़ वगैरह खास हैं. इसी दिशा में ओमसाईं एग्रीबायोटेक प्रा. लि. ने ऐसे अर्क तैयार किए हैं, जिन के फसल में किनारों पर छिड़काव करने से जंगली जानवरों की रोकथाम हो जाती है और वे फसलों को नुकसान नहीं पहुंचा पाते.

सांई नील रतन : जंगली जानवरों से फसल सुरक्षा के लिए यह पूरी तरह से हर्बल व विष रहित दवा है. यह कुदरती पौधों के द्वारा बनाया जाता है, इस की महक से ही जंगली जानवर दूर चले जाते हैं.

इस नील रतन को 1 बार इस्तेमाल करने से 15-20 दिनों तक नीलगाय से फसल पूरी तरह सुरक्षित रहती है. पालतू पशुओं पर इस घोल का कोई खराब असर नहीं होता.

प्रयोग विधि : 100 मिलीलीटर नील रतन को 30 लीटर पानी में मिला कर फसल के ऊपरी हिस्से पर छिड़काव करें. घोल बनाने से पहले बोतल को अच्छी तरह हिला लें.

साईं सू रक्षक : चूहे, बंदर, जंगली सूअर जैसे जंगली जानवरों से फसल की सुरक्षा के लिए सू रक्षक देशी वनस्पतियों से तैयार किया गया है. जिन इलाकों में इन जीवजंतुओं से फसल को खतरा रहता है, वहां यह सू रक्षक इस्तेमाल करना चाहिए.

प्रयोग विधि : 100 मिलीलीटर सू रक्षक को 30 लीटर पानी में मिला कर खेत की मेड़ से 5 फुट अंदर तक मिट्टी पर छिड़काव करें. इस्तेमाल करने से पहले बोतल को अच्छी तरह हिला लें.

ज्यादा जानकारी के लिए ओम साईं एग्रीबायोटेक प्रा. लि. कंपनी के डायरेक्टर डा. पीके सिंह से उन के मोबाइल नंबर 09359429501, 09451208981 पर संपर्क कर सकते हैं.

किसानों को नवीन कृषि तकनीक को अपनाने की जरूरत

Agricultural Techniques : भारत में कृषि और कृषि संबंधित गतिविधियां राष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में तकरीबन 18 फीसदी का योगदान देती हैं और इसलिए कृषि को विकसित किए बिना विकसित राष्ट्र का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता. इस उद्देश्य से कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विकसित कृषि के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 29 मई, 2025 से 12 जून, 2025 तक 15 दिनों के पहले खरीफ विकसित कृषि संकल्प अभियान की परिकल्पना की है.

यह बात मावली के पलाना कला ग्राम में भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा पुरे भारत में चलाए जा रहे विकसित कृषि संकल्प अभियान के अंतर्गत आयोजित किसान गोष्ठी में बतौर मुख्य अतिथि केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण राज्य मंत्री भागीरथ चौधरी ने कही. उन्होंने कहा कि देश में हर दिन 2,000 से अधिक कृषि वैज्ञानिकों की टीमें लगभग 6,000 गांवों का दौरा कर किसान समुदाय को लाभान्वित कर रही हैं. उन्होंने कहा कि उदयपुर एक आदिवासी बहुल क्षेत्र है, जहां 49 फीसदी से अधिक किसान आदिवासी हैं. जिले में 70 फीसदी से अधिक किसानों के पास 1 हेक्टेयर से कम भूमि है. बरसात के मौसम में अधिकांश पानी बह कर चला जाता है. इसलिए इस क्षेत्र के लोगों को जल संरक्षण की उन्नत तकनीक को अपनाने होगा.

महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय उदयपुर के डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने विश्वविद्यालय द्वारा विकसित खरीफ फसलों की नवीन किस्मों के बारे में बताते हुए कहा कि आजादी के अमृतकाल में हमारा भारत खाद्यान्न सहित कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भर जरूर है लेकिन बढ़ती आबादी के मद्देनजर हर क्षेत्र में उपलब्धियां अनवरत जारी रहनी चाहिए और धरतीपुत्र किसान को नवीनतम तकनीक के साथ प्रोत्साहन भी जरूरी है और कहा कि इस अभियान में विश्वविद्यालय बढ़चढ़ कर भागीदारी निभा रहा है.

Agricultural Techniques

डा. अजित कुमार कर्नाटक ने कहा कि देश में सीमित प्राकृतिक संसाधनों के बावजूद खाद्यान्न, दूध, फल व सब्जियां पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है. साल 1990-91 के दशक में देश का कुल गेहूं उत्पादन 55.14 मिलियन टन के मुकाबले साल 2022-23 में 112.74 मिलियन टन पहुंच गया है, जो एक रिकौर्ड है. लेकिन हमारे देश के कृषि वैज्ञानिक कुछ नया करने को बेताब है. किसानों के लिए यह प्री खरीफ अभियान मील का पत्थर साबित होगा.

उन्होंने आगे कहा कि आज पुरे देश में इस तरह के महाअभियान का बड़ा असर आने वाले समय में दिखेगा. इस सुअवसर पर राज्य मंत्री भागीरथ चौधरी ने कृषि विश्वविद्यालय द्वारा तैयार ‘खरीफ फसल उत्पादन तकनीकी मार्गदर्शिका’ का विमोचन भी किया व विश्वविद्यालय द्वारा लगाई गई उन्नत कृषि तकनीकी प्रदर्शनी किया.

इस कार्यक्रम में सांसद सीपी जोशी, भूतपूर्व विधायक बद्रीलाल जाट, डा. जय प्रकाश मिश्र डायरेक्टर अटारी जोधपुर, अतिरिक्त निदेशक कृषि जयपुर डा. ईश्वर यादव, इफको से डा. सुधीर मान और प्रकृति सेल से किशन चौधरी ने भी अपने विचार व्यक्त किए.

इस अवसर पर विश्वविद्यालय से डा. आरएल सोनी, निदेशक प्रसार, डा. अरविंद वर्मा निदेशक अनुसंधान, संयुक्त निदेशक कृषि डा. सुधीर वर्मा, डा. लतिका व्यास, डा. रविकांत शर्मा, डा. अमित दाधिच, डा. हेमलता शर्मा, डा. डीपीएस डुडी, डा. प्रफुल चंद भटनागर व बहुत बडी संख्या में किसान लोग मौजूद थे.

Farming Schemes : खेतीबाड़ी की योजनाएं बंद कमरों में नहीं, खेतों में बनेंगी

Farming Schemes : देशभर में चलने वाले 15 दिवसीय ‘विकसित कृषि संकल्प अभियान’ के तहत  11 जून, 2025 को केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण और ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वरिष्ठ अधिकारियों एवं वैज्ञानिकों के साथ दिल्ली के बाहरी इलाके स्थित तिगीपुर गांव में पहुंच कर वहां के किसानों से चौपाल पर संवाद किया. जहां उन्होंने कृषि ड्रोन तकनीक का अवलोकन भी किया और कहा कि केंद्र सरकार की हर कृषि योजना का लाभ अब दिल्ली के किसानों को भी मिलेगा. केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि अब खेतीबारी की योजनाएं बंद कमरों में नहीं बल्कि खेतों में बनेंगी.

केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह ने दिल्ली पहुंचते ही सब से पहले तिगीपुर में किसान चौपाल में किसानों से खुला संवाद कर उन की बातें ध्यानपूर्वक सुनी. उन्होंने बीज उत्पादन, पौलीहाउस खेती, स्ट्राबेरी उत्पादन और अन्य उच्च मूल्य फसलों से जुड़े उत्पादन को ले कर किसानों से चर्चा की. उन्होंने नवाचार करने वाले किसानों के अनुभव को जाना और उन की प्रशंसा करते हुए कहा कि ऐसे प्रगतिशील किसान देश की नई खेती के अग्रदूत हैं.

इस के बाद केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज चौहान ने ड्रोन तकनीक का प्रदर्शन देखा, जिस में कीटनाशकों और पोषक तत्वों के छिड़काव की आधुनिक विधियों को प्रस्तुत किया गया. उन्होंने वैज्ञानिकों से तकनीक की लागत, प्रभावशीलता और अनुकूलन के बारे में भी जानकारी ली. साथ ही, उन्होंने ने नर्सरी का भी अवलोकन किया और अन्य किसानों से चर्चा करते हुए उन की खेतीबारी से जुड़ी बातें जानीं.

बाद में केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान किसान सम्मेलन में शामिल हुए, जहां उन्होंने कहा कि अब अनुसंधान बंद कमरों में नहीं बल्कि खेतों में किसानों के साथ मिलकर होगा. वैज्ञानिक गांवगांव पहुंच कर जो फीडबैक लाएंगे, उसी के आधार पर किसानों के लिए योजनाएं बनाई जाएंगी. उन्होंने यह भी जानकारी दी कि पिछले 15 दिनों में देशभर में आईसीएआर की 2,170 टीमों ने किसानों के बीच जा कर तकनीक और शोध संबंधी जागरूकता फैलाई है. साथ ही, किसानों की समस्याओं को सुन कर जो समाधान मिल सके, उस के लिए त्वरित कार्य कृषि वैज्ञानिकों द्वारा किया गया है और बाकी पर गंभीरता से प्रयास जारी है.

केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किसानों को मिट्टी की घटती उर्वरता के बारे में आग्रह किया और कहा कि मिट्टी की जांच अवश्य कराएं और मृदा स्वास्थ्य कार्ड के आधार पर फसल का चयन करें. यही टिकाऊ कृषि का आधार है.

उन्होंने आगे बताया कि सरकार का विशेष फोकस अब फसल विविधीकरण, बाजारोन्मुखी खेती, और बागबानी आधारित मौडल पर है. उन्होंने कहा कि दिल्ली जैसे क्षेत्रों को बागबानी हब के रूप में विकसित किया जा सकता है क्योंकि यहां बाजार की उपलब्धता बहुत मजबूत है और अब तकनीक के बिना खेती में प्रतिस्पर्धा संभव नहीं है. खेती हो या मार्केटिंग दोनों में किसानों को प्रौद्योगिकी का सहयोग लेना होगा. केंद्र सरकार इस के लिए हर स्तर पर सहयोग देने के लिए समर्पित है.

केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह ने कहा कि अब तक दिल्ली के किसान केंद्र सरकार की कई योजनाओं से वंचित थे, लेकिन अब यह स्थिति बदलेगी. दिल्ली के किसान अब आत्मनिर्भर भारत के सपनों में पूरी भागीदारी निभाएंगे. केंद्र की हर कृषि योजना का लाभ अब दिल्ली के किसानों को मिलेगा.

उन्होंने आगे कहा कि कई योजनाएं हैं जिन में प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान (पीएम-आशा), मूल्य समर्थन योजना, मूल्य घाटा भुगतान योजना, बाजार हस्तक्षेप योजना, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना व अन्य प्रावधान जिन में अनुदान देना, पौलीहाउस और ग्रीन हाउस बनाने के लिए केंद्र सरकार से सब्सिडी शामिल हैं, जिस से अब तक दिल्ली के किसान वंचित रहे हैं.

Farming Schemesइस के साथ ही परंपरागत कृषि विकास योजना, नए बाग लगाने के लिए योजना, पुराने बागों के जीर्णोद्धार के लिए योजना, नर्सरी के लिए योजना सब्सिडी की योजनाएं, कृषि उपकरणों पर सब्सिडी, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का लाभ भी दिल्ली के किसानों तक नहीं पहुंच पाया है, लेकिन अब ये सारी योजनाएं दिल्ली में लागू की जाएंगी. दिल्ली सरकार से इस संबंध में प्रस्ताव मांगा गया है. इलेक्ट्रोनिक कांटे व खाद की खरीद के लिए भी मदद की जाएगी. किसान अपने खूनपसीने से देश के अन्न भंडार भर रहे हैं. अपने किसानों की उन्नति के लिए हम कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि नकली कीटनाशकों और उर्वरक बनाने वालों के खिलाफ सख्ती से पेश आया जाएगा. उन्होंने कहा कि जो भी हमारे किसानों के साथ धोखाधड़ी या गड़बड़ी करेगा, उस को बख्शा नहीं जाएगा. सरकार इस संबंध में कड़ा कानून लाने जा रही है और हम दिल्ली के किसानों की तरक्की करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.

इस अभियान के जरीए किसानों की समस्याएं सुन, किसान-वैज्ञानिक संवाद स्थापित करने और कृषि में प्रौद्योगिकी को तेज गति देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल शुरू की गई है.

Country Cows : देशी गायें जलवायु परिवर्तन में टिकाऊ दूध उत्पादन की कुंजी

Country Cows : भारत दूध के उत्पादन के मामले में हमेशा आगे रहा है, मगर उस की देशी गायों ( Country Cows) को मामलू ही माना जाता रहा है. जर्सी जैसी विदेशी गायों की बहुत ज्यादा दूध देने की कूवत के मुकाबले भारतीय गायें कहीं नहीं टिक पाती थीं, मगर अब हालात बदल रहे हैं. ग्लोबल वार्मिंग के खतरे ने दुनिया को हिला कर रख दिया है और तमाम मामले गड़बड़ा गए हैं. रोजाना इस्तेमाल किया जाने वाला दूध भी एक खास मुद्दा है.

माहिरों का मानना है कि जलवायु में होने वाले बदलाव से दूध के उत्पादन में भारी कमी आएगी. वैज्ञानिकों का कहना है  दूध के उत्पादन में कमी होने के खतरे से गायों की देशी (Country Cows) नस्लें ही बचा पाएंगी.

करनाल के ‘राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान’ (एनडीआरआई) में अब तक हुए कई शोधों के बाद यह नतीजा सामने आया है. पिछले 5 सालों से ‘नेशनल इनोवेशंस इन क्लाइमेट रेसीलिएंट एग्रीकल्चर’ (एनआईसीआरए) प्रोजेक्ट के तहत चल रहे शोध का नतीजा भी यही है कि ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से देशी नस्ल की गायें ही बचा सकती हैं.

शोध से यह बात सामने आई है कि विदेशी और संकर नस्ल के दुधारू पशुओं की तुलना में देशी गायों में ज्यादा तापमान झेलने की कूवत होती है, लिहाजा जलवायु में होने वाले बदलावों से वे कम प्रभावित होती हैं. दरअसल देशी गायों की खाल यानी चमड़ी गरमी सोखने में मददगार होती है. देशी गायों में कुछ ऐसे जीन भी पाए गए हैं, जो गरमी सहने की कूवत में इजाफा करते हैं.

एनडीआरआई के वैज्ञानिकों का कहना है कि गरमी और सर्दी में अधिकतम और न्यूनतम तापमान में जरा से फर्क का असर पशुओं के दूध देने की कूवत पर पड़ता है. तमाम खोजों से मालूम हुआ है कि गरमी में 40 डिगरी से ज्यादा और सर्दी में 20 डिगरी से कम तापमान होने पर दूध के उत्पादन में 30 फीसदी तक की कमी आ जाती है.

खोजों के मुताबिक तापमान ज्यादा होने से संकर नस्ल की गायों के दूध में 15-20 फीसदी तक की कमी हो सकती है, मगर देशी नस्ल की गायों पर ज्यादा तापमान का खास असर नहीं पड़ता है. यह खोज भारतीय यानी देशी नस्ल की गायों के लिहाज से अच्छी कही जा सकती है. देशी गायों को पालने वाले इस बात पर खुश हो सकते हैं.

वैज्ञानिकों के मुताबिक तापमान में होने वाला इजाफा यदि लंबे अरसे तक कायम रहता है, तो पशुओं के दूध देने की कूवत के साथसाथ उन की प्रजनन कूवत पर भी खराब असर पड़ता है.

एनडीआरआई के निदेशक डा. एके श्रीवास्तव के मुताबिक भारत में कुल दूध उत्पादन का 51 फीसदी भैंसों से, 20 फीसदी देशी नस्ल की गायों से और 25 फीसदी विदेशी नस्ल की गायों से मिलता है. लेकिन जलवायु में होने वाले बदलाव से इन आंकड़ों पर काफी फर्क पड़ेगा. यह बात दूध के कारोबारियों से ले कर वैज्ञानिकों तक के लिए चिंता का विषय है.

Country Cows

बरेली के ‘पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान’ (आईवीआरआई) के प्रधान वैज्ञानिक डा. ज्ञानेंद्र गौड़ का कहना है कि तापमान में इजाफा होने पर संकर नस्ल के पशु बहुत ज्यादा बीमार पड़ते हैं. बीमारी की वजह से वे चारा खाना काफी कम कर देते हैं, नतीजतन उन का शरीर काफी कमजोर हो जाता है. शरीर की कमजोरी की वजह से उन का दूध भी बहुत घट जाता है.

डा. ज्ञानेंद्र गौड़ ने आगे बताया कि तापमान में होने वाले इजाफे से देशी नस्ल के पशुओं पर ज्यादा असर नहीं पड़ता. वे तापमान बढ़ने पर आमतौर पर बीमार नहीं पड़ते हैं, लिहाजा उन के दूध देने की कूवत पर भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता है.

बरेली के ‘पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान’ में फिलहाल 250 दूध देने वाले पशु मौजूद हैं, जो करीब 2700 लीटर दूध देते हैं. मगर तापमान में इजाफा होने से यह मात्रा घट कर 2200 लीटर तक पहुंच गई है. अपने पशुओं के दूध के आधार पर ही वैज्ञानिक नतीजे निकाल पाते हैं.

एक ही गोत्र में प्रजनन ठीक नहीं

वैज्ञानिकों ने शोधों से यह नतीजा निकाला है कि गायों की नस्लों के लिहाज से एक ही गोत्र में प्रजनन कराना ठीक नहीं है. उन का कहना है कि समगोत्र प्रजनन से पशु वंशानुगत रूप से अप्रभावी हो जाते हैं.

जालंधर की ‘दिव्य ज्योति जागृति संस्थान नूरमहल’ ने गायों की गायब हो रही देशी नस्लों के सुधार के लिए कामधेनु मुहिम चला रखी है. वहां साहिवाल, थारपारकर, हरियाणा, कांक्रेज व गिर नस्ल की गायों को बचाने के लिए सगोत्र आंतरिक प्रजनन से परहेज बरता जाता है. संस्थान से जुड़े स्वामी चिन्मयानंद और स्वामी विशालानंद ने गायों के मूत्र और गोबर की अहमियत बताते हुए कहा कि 1 गाय से 30 एकड़ जमीन पर खेती की जा सकती है. नूरमहल में फिलहाल 700 साहिवाल गायें मौजूद हैं. संस्थान की दिल्ली शाखा में भी 250 गायें हैं. संस्थान ने साहिवाल गाय से 25 लीटर तक दूध निकालने में कामयाबी पाई है. वैसे देशी नस्ल की गिर गाय ने कुछ साल पहले ब्राजील में 62 लीटर दूध देने का रिकार्ड कायम किया था.

यों तो आगामी 5 सालों में दूध उत्पादन में 30 लाख टन की गिरावट का अंदाजा लगाया जा रहा है, मगर देशी नस्ल की गायों की खूबी पर फख्र किया जा सकता है. भारत में भैंसों की 13 और गायों की 39 प्रजातियां मौजूद हैं. हालात के मुताबिक देशी गायों का वजूद दिनबदिन बढ़ता जाएगा. यह देशी नस्ल की गायें पालने वालों के लिए खुशी की बात है.

Tomato : टमाटर की फसल का कीड़ों से बचाव

Tomato : भारत में टमाटर  की फसल को साल भर उगाया जा सकता है. यह सब्जी (Tomato) की महत्त्वपूर्ण फसल है. इस के बिनरा सब्जी अधूरी मानी जाती है. इस में विटामिन बी व सी की मात्रा ज्यादा होती है. टमाटर (Tomato) का इस्तेमाल सब्जियों के साथ पका कर किया जाता है. इस के अलावा सूप, सौस, चटनी, अचार बनाने व सलाद में किया जाता है. टमाटर की फसल से किसानों को अच्छी आमदनी हो जाती है.

टमाटर (Tomato) में फलभेदक, तंबाकू की सूंड़ी, सफेद मक्खी, पर्ण सुरंगक कीड़ा, चेंपा माहू वगैरह कीड़े लग जाते हैं.

फलभेदक कीड़ा : यह पीलेभूरे रंग का होता है. अगले पंखों पर भूरे रंग की कई धारियां होती हैं व इन पर सेम के आकार के काले धब्बे पाए जाते हैं, जबकि निचले पंखों का रंग सफेद होता है, जिन की शिराएं काली दिखाई देती हैं और बाहरी किनारों पर चौड़ा धब्बा होता है.

इस कीट की मादा पत्तियों की निचली सतह पर हलकेपीले रंग के खरबूजे की तरह धारियों वाले अंडे देती है. 1 मादा अपने जीवनकाल में लगभग 500 से 1000 तक अंडे देती है. ये अंडे 3 से 10 दिनों के अंदर फूट जाते हैं.

नुकसान की पहचान : सूंडि़यां पत्तियों, मुलायम तनों व फूलों को खाती हैं. ये बाद में कच्चे व पके टमाटर के फलों में छेद कर के उन के अंदर का गूदा खा जाती हैं. ऐसे टमाटर खाने लायक नहीं रहते हैं. कीड़े के मलमूत्र के कारण उस में सड़न शुरू हो जाती है, जिस से फलों की कीड़ों से लड़ने की ताकत कम हो जाती है. ऐसे फलों का भाव कम हो जाता है. इस कीड़े के लगने से करीब 50 फीसदी फसल खराब हो जाती है.

रोकथाम : जाल फसल के लिए टमाटर रोपाई से 10 दिन पहले गेंदा की एक लाइन टमाटर की हर 14 लाइन के बाद लगानी चाहिए.

खेत में 20 फेरोमोन जाल प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं.

खेत में पक्षियों के बैठने के लिए 10 स्टैंड प्रति हेक्टेयर के अनुसार लगाएं.

कीड़े के लगते ही अंड परजीवी ट्राइकोग्रामा ब्रेसीलिएंसिस (ट्राइकोकार्ड) के 10,0000 अंडे प्रति हेक्टेयर हर हफ्ते की दर से 5-6 बार छोड़ने चाहिए.

सूंड़ी की पहली अवस्था दिखाई देते ही 250 एलई का एचएएनपीवी को एक किलोग्राम गुड़ व 0.1 फीसदी टीपोल के घोल का प्रति हेक्टेयर की दर से 10-12 दिनों के अंतर पर छिड़काव करें.

इस के अलावा 1 किलोग्राम बीटी प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करें व उस के बाद 5 फीसदी एनएसकेई का छिड़काव करें.

प्रकोप बढ़ने पर क्विनालफास 25 ईसी या क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी का 2 मिलीमीटर प्रति लीटर या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल का 1 मिलीमीटर प्रति लीटर की दर से छिड़काव करें.

स्पाइनोसैड 45 एससी, इंडोक्साकार्ब व थायोमेंक्जाम 70 डब्ल्यूएससी की 1 मिलीमीटर प्रति लीटर की दर से इस्तेमाल करें.

तंबाकू की सूंड़ी : इस के पतंगे भूरे रंग के होते हैं व ऊपरी पंख कत्थई रंग का होता है, जिस पर सफेद लहरदार धारियां पाई जाती हैं. इस के पिछले पंख सफेद रंग के होते हैं. मादा पत्तियों की निचली सतह पर लगभग 250 से 300 अंडे झुंड में देती है, जो भूरे रंग के रोएं से ढके रहते हैं. ये रोएं मादा के पेट से गिर जाते हैं. इन अंडों से 3 से 5 दिनों में पीलापन लिए हुए गहरे हरे रंग की सूंडि़यां निकलती हैं.

नुकसान की पहचान : ये सूंडि़यां नुकसानदायक होती हैं. शुरू में सूंडि़यां झुंड बना कर पत्तियों को खाती हैं, जो अपने काटने व चबाने वाले मुखांगों से पौधों की पत्तियों को काट कर नुकसान पहुंचाती हैं. इस के अलावा इस कीड़े की सूंडि़यां पौधे की शिराओं, बीच की शिरा और डंठल व पौधे की कोमल टहनियों को भी खा जाती हैं. कभीकभी ये रात के समय बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाती हैं. इस की सूंडि़यां पत्तियों को खा जाती हैं, जिस से पौधे ठूंठ रह जाते हैं. टमाटर के अलावा इस का प्रकोप फूलगोभी, तंबाकू, टमाटर व चना वगैरह पर पाया जाता है.

रोकथाम : सूंड़ी के गुच्छों को हाथ से पत्ती समेत तोड़ कर खत्म कर देना चाहिए.

खेत में 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं.

खेत में चारों ओर अरंडी की फसल की बोआई करें.

ट्राइकोग्रामा कीलोनिस 1.5 लाख प्रति हेक्टेयर या किलोनिस ब्लैकबर्नी या टेलिनोमस रिमस के 1,00,000 अंडे प्रति हेक्टेयर 1 हफ्ते के अंतर पर छोड़ें.

पूर्ण विकसित सूंडि़यों पर टेकेनिड मक्खी, स्टरनिया एक्वालिस व चिवंथेमियो, परजीवी का इस्तेमाल करें.

एजेंटेलिस प्रोडीनी इस की सूंडि़यों का परजीवी है.

5 किलोग्राम धान का भूसा, 1 किलोग्राम शीरा, 0.5 किलोग्राम कार्बरिल को मिला कर पतंगों को आकर्षित करें.

एसएलएनपीवी 250 एलई का प्रति हेक्टेयर की दर से 8-10 दिनों के अंतर पर छिड़काव करें.

1 किलोग्राम बीटी का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

फसल में जहर चारा 12.5 किलोग्राम राईसबीन, 1.25 किलोग्राम जगेरी, कार्बेरिल 50 फीसदी डब्ल्यूपी 1.25 किलोग्राम 7.5 लीटर पानी के घोल का शाम के समय छिड़काव करें जिस से जमीन से सूंड़ी निकल कर जहर चारा खा कर मर जाएंगी.

सूंडि़यों के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल एसिटामिप्रिड क्लोरोपायरीड या थायोमेक्जाम की 1.0 मिलीमीटर मात्रा प्रति लीटर की दर से प्रयोग करें.

पत्ती का फुदका : इस कीड़े का रंग हरा भूरा स्लेटी हरा होता है. यह हलकी सी आहट से उड़ जाता है. इस कीड़े की मादा सुबह या रात को पत्तियों की नसों में 15-25 अंडे देती है. ये अंडे 4 से 11 दिनों में फूट जाते हैं और इन से छोटेछोटे फुदके निकलते हैं.

नुकसान की पहचान : फुदके के जवान व निम्फ दोनों ही पत्तियों का रस चूसते हैं और पौधों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं, जिस से पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं. बाद में भूरी हो कर सूख जाती हैं. कुछ समय बाद पौधे भी सूख जाते हैं. यह नुकसान कीट की जहरीली लार के कारण होता है.

रोकथाम : जरूरी मात्रा में खादों का इस्तेमाल करना चाहिए.

कीड़ों का प्रकोप होने पर यूरिया का इस्तेमाल रोक देना चाहिए.

फसल के ऊपर मिथाइल डिमेटोन 25 ईसी या डाईमेथोएट 30 ईसी का 600 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएलसी की 1.0 मिलीलीटर मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

सफेद मक्खी : इस कीड़े के निम्फ जूं की तरह मूलायम, पीले, धुंधले व सफेद होते हैं. निम्फ व जवान दोनों ही पत्ती की निचली सतह पर बैठना पसंद करते हैं. ये कीड़े पूरे साल फसल को नुकसान पहुंचाते हैं. लेकिन सर्दियों में इन का प्रकोप ज्यादा रहता है. इन के शरीर पर सफेद मोम जैसी परत पाई जाती है. मादा मक्खी पत्तियों की निचली सतह पर 100 से 150 तक अंडे देती है. निम्फ अवस्था 81 दिनों में पूरी हो जाती है.

नुकसान की पहचान : इस का प्रकोप पूरे साल फसल के समय में बना रहता है, साथ ही दूसरी फसलों पर पूरे साल इस का प्रकोप पाया जाता है. निम्फ व जवान पत्तियों की निचली सतह पर झुंड में पाए जाते हैं, जो पत्तियों की कोशिकाओं से रस चूसते हैं, जिस से पौधे की बढ़वार रुक जाती है. इस के अलावा ये वायरस से पैदा होने वाला रोग फैलाते हैं, जिस से पत्तियां कमजोर हो जाती हैं और हरियाली खत्म होने के कारण गिर जाती हैं.

रोकथाम : फसल देर से न बोएं व सही फसलचक्र अपनाएं. 1 साल में 1 ही बार कपास की फसल बोएं.

परपोषी फसलें जैसे टमाटर व अरंडी बीच में लगाएं.

पीले चिपचिपे 12 ट्रैप प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करें.

काइसोपरला कार्निया के 50, 000 से 10,0000 अंडे प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.

कीड़े लगे पौधों पर नीम का तेल 5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें या मछली रोसिन सोप का 25 मिलीग्राम प्रति लीटर की दर से पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

कीट की संख्या ऊपर जाते ही मेटासिस्टाक्स 25 ईसी या डाइमिथोएट 30 ईसी 1 मिलीमीटर प्रति लीटर पानी का छिड़काव करें.

इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल या थायोमेक्जाम 25 ईसी 1 मिलीमीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें.

माहू या चेपा : इस कीट को आलू का माहू भी कहते हैं. यह गहरे हरे काले रंग का होता है. माहू के निम्फ छोटे व काले होते हैं व झुंड में पाए जाते हैं. वयस्क अवस्था 2 प्रकार की होती है, पंखदार व पंखहीन. इन का आकार लगभग 2 मिलीमीटर होता है. इन के पेट पर 2 मधुनलिकाएं होती हैं, जिन्हें कूणिकाएं कहते हैं. निम्फ की अवस्था 7 से 9 दिनों तक रहती है. हरापन लिए वयस्क 2-3 हफ्ते तक जिंदा रहते हैं व प्रतिदिन 8 से 22 बच्चे पैदा करते हैं. इस का प्रकोप दिसंबर से मार्च तक ज्यादा होता है.

नुकसान की पहचान : इस के निम्फ व वयस्क पत्ती, पुष्प डंठल व पुष्प वृंत से रस चूसते हैं, जिस से पत्तियां किनारों से मुड़ जाती हैं व कीड़े की पंखदार जाति टमाटर में वायरस से पैदा होने वाला रोग भी फैलाती है. ये चिपचिपा मधुरस अपने शरीर के बाहर निकालते हैं, जिस से पत्तियों के ऊपर काली फफूंद देखी जा सकती है, जिस से पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया पर बुरा असर पड़ता है.

रोकथाम : माहू का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे जाल को इस्तेमाल करें जिस से माहू ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं.

परभक्षी काक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया का प्रयोग कर 50,000 से 10,0000 अंडे या सूंड़ी प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.

नीम का अर्क 5 फीसदी या 1.25 लीटर नीम का तेल 100 लीटर पानी में मिला कर छिड़कें.

बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

आवश्यकता होने पर इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल या डाइमिथोएट 30 ईसी या मिथाइल डेमीटान 25 ईसी 1 लीटर का प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए.

पत्ती का सुरंग कीड़ा : इस कीड़े के मैगट ही मुख्य रूप से नुकसान पहुंचाते हैं. वयस्क मादा पत्तियों में छेद कर के अंडे देती है, जिन से 2-3 दिनों बाद मैगट निकल कर पत्तियों में सफेद टेढ़ीमेढ़ी सुरंगें बना कर पत्तियों के हरे भागों को खा कर नष्ट कर देते हैं.

पुराने पत्तों में सफेद लंबी गोलाकार सुरंगें देखी जा सकती हैं, जबकि नए पत्तों में ये सुरंगें छोटी व पतली होती हैं. इस के प्यूपा भूरेपीले रंग के होते हैं. इस के प्रकोप से पत्तियां मुरझा कर सूख जाती हैं.

रोकथाम : इस से बचाव के लिए 4 फीसदी नीम गिरी चूर्ण का पानी में घोल बना कर छिड़काव करें. इस के अलावा निंबीसिडीन 1 से 2 लीटर प्रति हेक्टेयर या लहसुन 7 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर या कानफिडेर 0.3 मिलीमीटर या इंडोसल्फान 2 मिलीमीटर का प्रति लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करने से भी इस से बचाव हो जाता है.

इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल स्पाइनोसेड 45 एससी या थायोमेथ्योम्जाम 70 डब्ल्यूएस की 1 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर की दर से प्रयोग करें.

जड़गांठ नेमाटोड : वयस्क मादा नाशपाती के आकार की गोल होती है. इस का अगला भाग पतला और अलग सा मालूम होता है. एक मादा लगभग 250 से 300 अंडे देती है. अंडों के अंदर ही डिंभक पहली अवस्था पार करते हैं. इन से जो द्वितीय अवस्था के डिंभक बनते हैं, वे मिट्टी के कणों बीच रेंगते रहते हैं और जड़ों  से चिपक जाते हैं.

परपोषी के अंदर डिंभक में 3 निर्मोचन और होते हैं. नेमाटोड की शोषण क्रिया से पौधे के नए उत्तकों में तेजी से विभाजन होता है, उन की कोशिकाओं का आकार बढ़ जाता है और इस प्रकार ग्रंथियों का जन्म होता है. इन्हीं ग्रंथियों के अंदर नेमाटोड एक फसल से दूसरी फसल तक जीवित रह कर हमला करता है.

नुकसान की पहचान : इस नेमाटोड के असर से जड़गांठ रोग पैदा होता है. इस के लगने से पौधे मरते नहीं बल्कि गांठों पर कई रोग पैदा करने वाले और मृतजीवी कवकों व जीवाणुओं के आक्रमण से संपूर्ण जड़ सड़ जाती है. पौधों में गलने के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं, जिस से पौधे की बढ़वार रुक जाती है, पत्तियां छोटी व पीली पड़ जाती हैं. फल बहुत कम लगते हैं और कभीकभी पौधे सूख भी जाते हैं.

रोकथाम : परपोषी फसलों को लगातार एक ही खेत में उगाने से नेमाटोड की संख्या बढ़ती है, इसलिए सही फसलचक्र अपना कर इस का प्रकोप कम किया जा सकता है.

गरमियों में खेत की 2-3 बार गहरी जुताई कर के मिट्टी को अच्छी तरह सूखने से डिंभक मर जाते हैं.

नेमाटोड का अधिक प्रकोप होने पर नेमाटोडनाशी का प्रयोग करना चाहिए. इस के लिए डीडी 300 लीटर, निमेगान 18 लीटर या फ्यूराडान 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से फसल रोपने के 3 हफ्ते पहले जमीन पर डालना चाहिए.

प्रतिरोधी प्रजातियों का इस्तेमाल करना चाहिए.

मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों के मिलने से भी इस नेमाटोड की रोकथाम में काफी मदद मिलती है. लकड़ी का बुरादा, नीम या अरंडी की खली 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से फसल लगाने से 3 हफ्ते पहले खेत में मिलाने पर जड़गांठ की संख्या में काफी कमी देखी जा सकती है.

Shubhavari Chauhan : एक युवा किसान की प्रेरणादायक कहानी

Shubhavari Chauhan : भारत की कृषि परंपरा सदियों पुरानी है, लेकिन आधुनिक समय में इसे वैज्ञानिक और व्यावसायिक दृष्टिकोण के साथ अपनाने वाले किसान कम ही हैं, खासकर युवा और महिलाएं. ऐसे ही एक प्रेरणास्रोत का नाम है शुभावरी चौहान (Shubhavari Chauhan). उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले की इस युवा महिला किसान ने न केवल कम उम्र में जैविक खेती को अपनाया, बल्कि गाय के घी और अन्य कृषि उत्पादों के माध्यम से देशविदेश में अपनी पहचान बनाई है.

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

शुभावरी चौहान (Shubhavari Chauhan) का जन्म 4 अप्रैल, 2005 को उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के कोठड़ी गांव में हुआ था. उन का पालनपोषण एक शिक्षित एवं कृषि प्रेमी परिवार में हुआ. उन के पिता संजय चौहान कृषि के विशेषज्ञ हैं, जिन्होंने एम.एस.सी के बाद भी खेती को अपने जीवन का ध्येय बनाया. उन की माता ममता चौहान संस्कृत में स्नातकोत्तर हैं और परिवार में भारतीय संस्कृति व पारंपरिक ज्ञान का गहरा प्रभाव है.

शुभावरी चौहान (Shubhavari Chauhan) की प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही विद्यालय से हुई. फिलहाल वह सहारनपुर के मुन्ना लाल गर्ल्स डिग्री कालेज से बी.ए. फाइनल ईयर की छात्र हैं. पढ़ाई के साथसाथ उन्होंने बचपन से ही खेतखलिहान और पशुपालन में गहरी रुचि ली.

कृषि में प्रवेश और नवाचार

शुभावरी चौहान(Shubhavari Chauhan) ने मात्र 10 साल की आयु में अपने पिता के साथ खेती करना शुरू किया था. शुरुआत गन्ने की पारंपरिक खेती से हुई, लेकिन जल्द ही उन्होंने रासायनिक खाद और कीटनाशकों से दूर रहते हुए जैविक खेती को अपनाने का निश्चय किया.

उन्होंने गन्ने की जैविक खेती के साथसाथ पारंपरिक कोल्हू से गुड़ और शक्कर बनाने का काम  शुरू किया. इस के लिए उन्होंने स्थानीय मजदूरों को रोजगार दिया और पुराने पारंपरिक ज्ञान को आधुनिक विपणन तकनीकों के साथ जोड़ा.

कुछ ही सालों में शुभावरी चौहान ने आम (दशहरी, लंगड़ा, मल्लिका) की. इस के साथ ही,  बागबानी में टमाटर, मिर्च, धनिया, हल्दी और अन्य सब्जियों की खेती को भी जैविक पद्धति से अपनाया. उन्होंने ड्रिप सिंचाई और वर्मी कंपोस्ट जैसी नवीन तकनीकों को अपना कर जल और मृदा संरक्षण में भी योगदान दिया.

Shubhavari Chauhan

पशुपालन और देसी गाय का घी

शुभावरी चौहान (Shubhavari Chauhan) की सब से बड़ी पहचान ‘देसी गाय के घी’ के उत्पादन और निर्यात के क्षेत्र में बनी. उन्होंने 20–30 देशी नस्ल की गायें पाल रखी हैं, जिन्हें केवल जैविक चारा और आयुर्वेदिक उपचार दिया जाता है. उन के द्वारा उत्पादित ‘बिलौनी घी’ की मांग केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पेरिस, दुबई, लंदन और सिंगापुर तक फैली हुई है.

बिलौनी घी की कीमत 1800 से 2000 रुपए प्रति किलो तक होती है, और हर साल वे 70 से 80 किलो घी औनलाइन बेचती हैं. यह घी ‘शुद्धता’ और ‘स्वदेशी तकनीक’ के कारण ग्राहकों के बीच काफी लोकप्रिय है.

पर्यावरण और जल संरक्षण में योगदान

शुभावरी चौहान (Shubhavari Chauhan) ने कृषि को केवल उत्पादन का माध्यम नहीं माना, बल्कि इसे एक सामाजिक और पर्यावरणीय जिम्मेदारी के रूप में भी अपनाया. उन्होंने अपने खेतों में नीम, सहजन, कनेर जैसे पौधे लगाए जो वायु प्रदूषण को कम करने में सहायक हैं. जल संकट से निबटने के लिए उन्होंने अपने खेतों में छोटे बांध बनाए, वर्षा जल संचयन और ड्रिप सिंचाई के माध्यम से जल संरक्षण की दिशा में शुभावारी चौहान (Shubhavari Chauhan) ने महत्वपूर्ण काम किया है.

तकनीक और सोशल मीडिया का उपयोग

शुभावरी चौहान (Shubhavari Chauhan) ने डिजिटल तकनीकों को भी अपनाया है. वह सोशल मीडिया प्लेटफौर्म्स जैसे इंस्टाग्राम और यूट्यूब के माध्यम से खेती के टिप्स, वीडियो ब्लौग, घी निर्माण प्रक्रिया, आम की पैकिंग आदि से जुड़े वीडियो पोस्ट करती हैं, उन के हजारों फौलोवर्स हैं, जो उन के काम से प्रेरणा लेते हैं. उन का एकमात्र उद्देश्य है “युवा किसानों को जोड़ो, मिट्टी से जोड़ो.”

सम्मान और पुरस्कार

शुभावरी चौहान (Shubhavari Chauhan) को उन के उल्लेखनीय कार्यों के लिए कई राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय पुरस्कार प्राप्त हुए हैं. कुछ प्रमुख सम्मानों में शामिल हैं:

  • कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही द्वारा सम्मानित किया गया

– “बेस्ट यंग फार्मर अवार्ड” (2024) – फार्म एंड फूड पत्रिका द्वारा, लखनऊ में.

– “वानी पुरस्कार” (2024) – मृदा संरक्षण और जैविक खेती के लिए.

– किसान दिवस (2023) पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा राज्य स्तरीय किसान सम्मान.

– कृषि विज्ञान केंद्र और भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (ICAR) से विशेष प्रशस्ति पत्र.

इन पुरस्कारों के साथसाथ वे कृषि संगोष्ठियों, वेबिनार और महिला सशक्तिकरण कार्यक्रमों में भी वक्ता के रूप में शामिल होती हैं.

Shubhavari Chauhan

आर्थिक प्रभाव और रोजगार

शुभावरी चौहान (Shubhavari Chauhan) का सालाना टर्नओवर लगभग 25 लाख रुपए है. वह अपने गांव और आसपास के क्षेत्र में 25 से 30 लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार देती हैं. उन का यह मौडल “गांव में रहो, गांव को समृद्ध करो” – आज अन्य युवाओं के लिए उदाहरण बन चुका है.

उनका मानना है कि “अगर सही मार्गदर्शन और ईमानदारी से मेहनत की जाए तो खेती भी करोड़ों का व्यवसाय बन सकता है.”

भविष्य की योजनाएं

शुभावरी चौहान (Shubhavari Chauhan) अब खेती को और बड़े स्तर पर ले जाने की तैयारी कर रही हैं. उन की योजनाएं हैं:

– औनलाइन ब्रांड बनाना – “Shubhavari Organic”

– डेयरी यूनिट का विस्तार

– फार्म टूरिज्म की शुरुआत – जहां लोग जैविक खेती, पशुपालन, घी निर्माण की प्रक्रिया को सीधे देख सकें.

– ग्राम महिला स्वावलंबन केंद्र – महिलाओं को स्वरोजगार और प्रशिक्षण देने हेतु.

शुभावरी चौहान (Shubhavari Chauhan) की कहानी आज के युवाओं, विशेष रूप से लड़कियों के लिए एक प्रेरणा है. जहां अधिकांश युवा शहरी जीवन और नौकरी की ओर भागते हैं, वहीं शुभावरी चौहान ने गांव में रह कर ही अपनी पहचान बनाई है. उन्होंने यह साबित कर दिखाया कि यदि लगन और सच्ची मेहनत हो, तो खेती केवल आजीविका नहीं, बल्कि सम्मान और समृद्धि का मार्ग बन सकती है.

उन की यात्रा भारत की नई कृषि क्रांति का उदाहरण है जो ज्ञान, परंपरा, नवाचार और स्वदेशी सोच से प्रेरित है. शुभावरी चौहान न केवल एक किसान हैं, बल्कि एक आंदोलन की शुरुआत हैं.