Agriculture Sector : कृषि क्षेत्र को बनाएं रोजगार, मौके हैं हजार

Agriculture Sector: 12वीं की परीक्षा का रिजल्ट जल्दी ही घोषित होने वाला है. छात्र और अभिभावक 12वीं के रिजल्ट आ जाने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए  सोचते हैं. तब तक अच्छे संस्थान में प्रवेश की प्रक्रिया पूरी हो चुकी होती है. इसी को ध्यान में रखते हुए बाबा राघव दास कृषक इंटर कालेज भाटपार रानी के सभा  कक्ष में 12वीं के छात्रों एवं अध्यापकों के साथ एक कैरियर काउंसिल किया गया.

इस कैरियर काउंसिल में आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, अयोध्या की प्रोफैसर डा. सुमन प्रसाद मौर्य, अध्यक्ष, मानव विकास एवं परिवार अध्ययन ने  छात्रों से उन के भविष्य  की पढ़ाई के बारे में  बताया कि छात्र आगे की पढ़ाई कृषि विश्वविद्यालयों  में कर सकते हैं. आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या, उत्तर प्रदेश के 5 कृषि विश्वविद्यालयों में से एक है, जिस को  A++ मिला है.

इस विश्वविद्यालय का  कार्यक्षेत्र पूर्वांचल है, जहां कृषि, उद्यान एवं वानिकी,  मत्स्यपालन, पशुपालन एवं पशु चिकित्सा, कृषि अभियंत्रण   के अलावा सामुदायिक विज्ञान महाविद्यालय भी है. इस महाविद्यालय में स्नातक, परास्नातक एवं पीएचडी की उपाधि के लिए विभिन्न पाठ्यक्रम चलाए जाते हैं.

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हर साल इस डिगरी कोर्स में नामांकन के लिए यूपी कैटेट (UP CATET) की संयुक्त परीक्षा होती है. इस के लिए मार्च महीने से ही औनलाइन आवेदन शुरू हो जाते हैं.  आवेदन की अंतिम तारीख 7 मई, 2025 है. यह आवेदन https//updated.net  पर किए जा सकते हैं.

प्रो. सुमन प्रसाद मौर्य ने छात्रछात्राओं को समझाया कि सामुदायिक विज्ञान महाविद्यालय में बीएससी आनर्स के  2 पाठ्यक्रम चलते हैं, जिन की अवधि 4 साल की है. पहला पाठ्यक्रम सामुदायिक विज्ञान (गृह विज्ञान) का है, जिस में गृह विज्ञान के 5 प्रमुख विषयों के विभागों द्वारा वैज्ञानिक एवं कलात्मक ज्ञान एवं कौशल सिखाए जाते हैं.

दूसरा फूड एवं  डाइटिशियन का कोर्स है. इस कोर्स में आहार विज्ञान में रोगियों के उपचार  के बारे में बताया जाता है. यह 4 वर्षीय डिगरी कार्यक्रम व्यावसायिक उपाधि है. इस में वे अपना स्वयं का व्यवसाय शुरू कर सकते हैं.

शोध में इच्छुक छात्राएं आगे अपने पसंद के विषय पढ़ सकती  हैं. प्रवेश परीक्षा  आवेदन की प्रक्रिया के बारे में संपूर्ण जानकारी  गूगल पर यूपी कैटेट 2025 सर्च कर आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय की साइट पर जा कर इस की विवरण पत्रिका को डाउनलोड कर सकते हैं.

यह विवरणिका चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कानपुर, उत्तर प्रदेश द्वारा निकाला गया है, क्योंकि इस बार की  संयुक्त परीक्षा वे संचालित कर रहे हैं. इस विवरणिका में प्रवेश परीक्षा, विश्वविद्यालय के संबंध में, औनलाइन आवेदन की पद्धति, परीक्षा की पद्धति, पाठ्यक्रमवार सीटों की संख्या एवं काउंसलिंग की पद्धति के बारे में विस्तार से दिया गया है.

इस के साथ ही प्रो. सुमन प्रसाद मौर्य ने तैयारी के टिप्स भी दिए. प्रसार्ड ट्रस्ट मल्हनी  के निदेशक प्रोफैसर रवि प्रकाश मौर्य ने एडमिशन कैरियर के साथसाथ जैविक खेती, पोषण वाटिका पर प्रकाश डाला.

कालेज के प्रधानाचार्य भानु प्रताप सिंह ने छात्रों के साथसाथ  अध्यापकों को भी कहा कि आप सभी कृषि क्षेत्र में बच्चों को अच्छे संस्थानों में नामांकन के लिए प्रोत्साहित करें, जिस से बच्चे अच्छे विश्वविद्यालय से पढ़ कर एक अच्छा नागरिक बनने के साथसाथ  रोजगार भी पा सकें.

बगीचे (Garden) लगाने से पहले करें जरूरी काम

फलों के बाग (Garden) लगाना आमदनी का अच्छाखासा जरीया साबित हो रहा है. मगर बगैर पूरी जानकारी के बाग (Garden) लगाना घाटे का सौदा साबित होता है. इसलिए वैज्ञानिक तरीके से बाग (Garden) लगाने में ही भलाई है.

बगीचा (Garden) लगाने से पहले निम्न जरूरी बातों का ध्यान रखना चाहिए:

फलों के बाग की योजना : ज्यादातर फलों के पेड़ लंबे समय के लिए होते हैं, इसलिए बाग इस तरह लगाए जाएं, ताकि उन से फायदा मिलता रहे, देखने में अच्छा लगे, देखभाल में कम खर्च हो, पेड़ स्वस्थ रहें और बाग में मौजूद साधनों का पूरा इस्तेमाल हो सके. उद्यान यानी बाग की योजना इस तरह की होनी चाहिए कि हर फल वाले पेड़ को फैलने के लिए सही जगह मिल सके व फालतू जगह नहीं रहे और हर पेड़ तक सभी सुविधाएं आसानी से पहुंच सकें.

फलों के उत्पादन के लिए सिंचाई का इंतजाम, मिट्टी व जलवायु वगैरह ठीक होनी चाहिए. बाग में काम करने के लिए मजदूर व तकनीकी कर्मचारी भी होने चाहिए.

जमीन का चयन : प्रधानमंत्री मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना के तहत आप अपने नजदीकी कृषि पर्यवेक्षक के माध्यम से मिट्टी की जांच सकते हैं. फल उद्यानों यानी फलों के बगीचों के लिए गहरी, दोमट या बलुई दोमट मिट्टी अच्छी रहती है. जमीन में ज्यादा गहराई तक कोई भी सख्त परत नहीं होनी चाहिए. जमीन में भरपूर मात्रा में खाद होनी चाहिए व जल निकासी का सही इंतजाम होना चाहिए. लवणीय व क्षारीय जमीन में बेर, आंवला, लसोड़ा, खजूर व बेलपत्र वगैरह फल लगाने चाहिए.

पौधों का चयन : राजस्थान की जलवायु में खासतौर से अनार, आम, पपीता, करौंदा, आंवला, नीबू, मौसमी, माल्टा, संतरा, अनार, बेल, बेर व लसोड़ा आदि फलों की खेती आसानी से की जा सकती है. जिन भागों में पाले का ज्यादा असर रहता है, उन इलाकों में आम, पपीता व अंगूर के बाग नहीं लगाने चाहिए. ज्यादा गरमी व लू वाले इलाकों में लसोड़ा व बेर के पेड़ लगाने चाहिए. अधिक नमी वाले इलाकों में मौसमी, संतरा व किन्नू के पेड़ लगाने चाहिए.

Garden

वायुरोधी पेड़ लगाना : गरम व ठंडी हवाओं और अन्य कुदरती दुश्मनों से रक्षा करने के लिए खेत के चारों ओर देशी आम, जामुन, बेल, शहतूत, खिरनी, देशी आंवला, कैथा, शरीफा, करौंदा, इमली आदि फलों के पेड़ लगाने चाहिए. इन से खेत गरम रहेगा व सर्द हवाओं से बचा रहेगा. अगर बाग का इलाका कम हो तो केवल उत्तर व पश्चिम दिशा में 1 या 2 लाइनों में इन पेड़ों को लगा सकते हैं.

ध्यान रहे कि इन पेड़ों की जड़ें बाग में घुस कर पोषक तत्त्वों का इस्तेमाल करने लग जाती हैं, जिस का नतीजा यह होता है कि उद्यान की उपज में कमी आने लगती है. इस से बचने के लिए उद्यान व बाड़ के बीच में 3 साल में 1 बार 3 फुट गहरी खाई खोद कर जड़ों को काट देना चाहिए.

सिंचाई : बगीचा लगाने से पहले सिंचाई कैसे होगी, इस पर ध्यान देना जरूरी है. पानी की कमी वाले इलाकों में बूंदबूंद सिंचाई विधि का इस्तेमाल करना चाहिए, जिस से पानी व मेहनत दोनों की बचत होगी और पौधों को जरूरत के हिसाब से पानी मिलने के कारण पैदावार में बढ़ोतरी होगी.

सिंचाई की नालियां पौधों की कतारों के बीच से निकाल कर दोनों ओर पौधों की जरूरत के हिसाब से थाले बना कर पानी दिया जाना चाहिए. पौधों की कतार में सीधी सिंचाई करने से पौधों में रोग फैलने की संभावना बढ़ जाती है और नाली का पहला पौधा काफी कमजोर हो जाता है. लवणीय व क्षारीय पानी सभी फलों के पेड़ों के लिए सही नहीं होता है.

इन इलाकों में आंवला, बेर, खजूर, कैर, लसोड़ा आदि फलों के पेड़ लगाने चाहिए. पानी के भराव वाले इलाकों में पानी निकलने का सही इंतजाम होना चाहिए.

फल के पेड़ों का सही दूरी पर रेखांकन करना :  उद्यान का रेखांकन करने के लिए सब से पहले खेत के किसी एक किनारे से जरूरी दूरी की आधी दूरी रखते हुए पहली लाइन का रेखांकन करते हैं. इस के बाद हर लाइन के लिए जरूरी दूरी रखते हुए पूरे खेत में दोनों किनारे से इसी विधि द्वारा रेखांकन कर लेते हैं व निशान लगी जगहों पर पौधे रोपते हैं. बगीचों को वर्गाकार विधि से ही लगाना चाहिए, क्योंकि यह सब से आसान तरीका है. इस में सभी प्रकार के काम आसानी से किए जा सकते हैं. पौधे लगाने से 1 महीने पहले मईजून में गड्ढे खोद कर 20 से 25 दिनों तक उन्हें खुला छोड़ देना चाहिए, ताकि तेज धूप से कीटाणु खत्म हो जाएं. गड्ढे खोदते समय ऊपर की आधी उपजाऊ मिट्टी एक तरफ रख देनी चाहिए और आधी मिट्टी दूसरी तरफ डालनी चाहिए.

गड्ढों की भराई : खुदाई के 1 महीने बाद गड्ढों को गोबर की सड़ी हुई खाद 25 किलोग्राम, सुपर फास्फेट 250 ग्राम, क्यूनाल्फास 1.5 फीसदी 50 ग्राम, नीम की खली 2 किलोग्राम, क्षारीय जमीन हो तो 250 ग्राम जिप्सम और गड्ढे की मिट्टी डाल कर भर देना चाहिए. मिश्रण में खेत की ऊपरी मिट्टी को मिलाना चाहिए.

बरसात शुरू होने से पहले मिश्रण से गड्ढे को खेत की सतह से कुछ ऊंचाई तक दबा कर भर देना चाहिए व काफी मात्रा में पानी डाल देना चाहिए, ताकि गड्ढे की मिट्टी अच्छी तरह से बैठ जाए. पौधों की रोपाई जहां तक मुमकिन हो, 2 से 3 बार अच्छी बारिश होने के बाद ही करनी चाहिए.

Garden

पौधों की रोपाई : सरकारी व अच्छी नर्सरी से खरीदे गए पौधों को तैयार गड्ढों में रोप देना चाहिए. रोपाई जुलाईअगस्त में शाम के समय करनी चाहिए. पौधे को रोपने से 2 घंटे पहले लिपटी हुई घास पिंड व पालिथीन थैली को थोड़े समय के लिए पानी में रख कर उस में भरी हवा को बाहर निकालें, जिस से पौधा लगाते समय पिंड की मिट्टी बिखरे नहीं.

पौधा लगाने से पहले लिपटी हुई घास व पालीथीन थैली को मिट्टी के पिंड से हलके से हटा देना चाहिए और जड़ों को पूरी तरह बचा कर रखना चाहिए.

पौधों पर लगी पैबंद वाली जगह व शाखा के जुड़ाव वाले बिंदु को जमीन के तल से 25 सेंटीमीटर ऊपर रखना चाहिए. जरूरत हो तो पौधे को सहारा दें, ताकि पौधा झुके नहीं.

पौधा लगाने के बाद सिंचाई करें व जरूरत के हिसाब से पानी देते रहें. पैबंद के नीचे से निकलने वाली शाखाओं व रोग लगी शाखाओं को हटाते रहें.

सिंचाई : शुरू के 2 महीने तक पौधों को पानी की ज्यादा जरूरत होती है. इस समय 2-3 दिनों के अंतर पर पानी देना चाहिए. 2 सिंचाइयों के बीच का समय जगह, मौसम, जमीन, फलों की किस्म, फलन का समय व वहां की जलवायु आदि पर निर्भर करता है.

* अगर बारिश के मौसम में बारिश होती रहे तो पानी देने की जरूरत नहीं होती.

* सर्दी के मौसम में 10 से 15 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए.

* गरमी के मौसम में 7 से 10 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए.

जल निकास जरूरत के मुताबिक हो, क्योंकि बाग को उस की जरूरत से कम पानी देने से पेड़ों की बढ़वार कम होती है, जबकि जरूरत से अधिक पानी देने से भी नुकसान होता है. पानी की अधिक मात्रा देने से जमीन पर पानी भर जाता है और पेड़ों के खाद्य पदार्थ जमीन की निचली सतह में चले जाते हैं. फलों में पानी की अधिक मात्रा होने के कारण मिठास कम हो जाती है और स्वाद खराब हो जाता है. इसलिए ज्यादा पानी को तुरंत खेत से निकाल देना चाहिए. उद्यान क्षेत्र का जलस्तर 2 से 3 मीटर नीचे रहना चाहिए.

Sweets : केसरिया बरफी – खुशबू और जायके से भरपूर

बरफी का जायका और खुशबू बढ़ाने के लिए अब उस में केसर का इस्तेमाल किया जाने लगा है. इस से खोए से बनने वाली बरफी देखने में और भी ज्यादा सुंदर लगती है. केसर पहाड़ी इलाकों में पाया जाता है. दूध में केसर डाल कर पीने का चलन पुराना है. अब बरफी में केसर पड़ने से इस का आकर्षण बढ़ गया है.

कीमत में भी केसरिया बरफी बहुत किफायती है. केसरिया बरफी को चांदी के वर्क, काजू के पतले टुकड़ों और पिस्ते से सजाया जाता है.

मेवा बरफी की तरह दिखने के कारण ग्राहकों को केसरिया बरफी बहुत पसंद आती है. इसे बनाने और सजाने का तरीका साधारण बरफी से अलग होता है. ऐसे में यह सब को पसंद आती है.

केसरिया बरफी बनाने वाले कारीगर सेवक गुप्ता कहते हैं, ‘इस बरफी का जायका लोगों को पसंद आता है. इस की कीमत ग्राहकों को लुभाती है. पिस्ता, बादाम और चांदी के वर्क के कारण इस की ताजगी लंबे समय तक बरकरार रहती है. केसरिया बरफी बनाने के लिए गाय के दूध का इस्तेमाल किया जाता है. इसे सीधे दूध से बनाया जाता है.’

केसरिया बरफी बनाने की विधि

अच्छी किस्म की केसरिया बरफी बनाने के लिए सब से पहले गाय का दूध ले कर उसे आंच पर चढ़ा कर धीरेधीरे गरम करते हैं. दूध पर आने वाली मलाई को बाहर नहीं निकालते हैं. इस से तैयार खोए में भरपूर मात्रा में चिकनाई रहती है. यह बरफी के स्वाद को बढ़ाती है. धीरेधीरे दूध गरम हो कर गाढ़ा होने लगता है. ध्यान रहे कि दूध को बराबर चलाते रहें, जिस से वह जलने न पाए. कुछ देर के बाद दूध का खोया सा बनने लगता है. तब उस में थोड़ी सी मात्रा में केसर मिला दें. केसर गरम दूध के साथ मिल कर उस के रंग को बदल देती है, जिस से सफेद दिखने वाला खोया केसरिया रंग का दिखने लगता है. तैयार खोए में बहुत थोड़ी सी चीनी मिलाते हैं. जब खोया पूरी तरह से सूख जाए तो उसे आंच से उतार लेते हैं.

तैयार सामग्री को एक बड़े से थाल में पलट कर पूरी तरह से एक जैसा फैला देते हैं. जब यह हलकाहलका गरम रह जाता है, तो इस के ऊपर कटे हुए काजू और पिस्ते को डाल देते हैं. इस के ऊपर चांदी का वर्क फैला कर दबा देते हैं. थोड़ा गरम होने के कारण चांदी का वर्क ठीक से दब जाता है. ठंडा हो जाने पर उसे मनचाहे आकार में काट लेते हैं. चांदी का वर्क लगा होने के कारण यह बरफी आपस में चिपकती नहीं है.

कई लोगों को खोए की बरफी पसंद नहीं आती. ऐसे लोग केसरिया बरफी का स्वाद ले सकते हैं. यह स्वाद और महक दोनों में खोए की बरफी से अलग होती है.

खानपान की शौकीन मेघना मलिक कहती हैं, ‘बरफी सब से ज्यादा बिकने वाली मिठाई होती है. हर जगह पर मिलने के कारण लगता है कि हम कोई साधारण मिठाई खा रहे हैं. ऐसे में केसरिया बरफी कुछ अलग सा एहसास कराती है. यह देखने में ही नहीं, खाने में भी खोए की बरफी से पूरी तरह से अलग है. यह मुझे बहुत पसंद है. अपने रंग के कारण यह बच्चों को भी पसंद आती है.’

Sweets : परवल स्वीट (Parwal) : सब्जी का नाम मिठाई का स्वाद

Sweets : कम लोगों को पता होगा कि परवल (Parwal) से मिठाई भी तैयार होती है. गरमी के दिनों में यह लोगों को खूब पसंद आती है. जिन लोगों को सब्जियों से बनी मिठाइयां अच्छी लगती हैं, वे इसे बहुत पसंद करते हैं.

लखनऊ की मशहूर मिठाई (Sweet) की दुकान छप्पनभोग में परवल की मिठाई को खास तरह से बनाते हैं. छप्पनभोग वाले परवल स्वीट को कोरियर से भेजने का काम भी करते हैं. परवल स्वीट को कोरियर से मंगाने के लिए छप्पनभोग डाटकाम पर जा कर अपना आर्डर दिया जा सकता है. आप इस का पेमेंट भी नेटबैंकिंग के जरीए कर सकते हैं. छप्पनभोग वाले ब्लूडार्ट कोरियर के जरीए आप तक यह परवल स्वीट पहुंचाने का इंतजाम करते हैं.

छप्पनभोग के रवींद्र गुप्ता बताते हैं, ‘हमारे यहां 56 से ज्यादा किस्मों की मिठाइयां बनती हैं. इन में परवल स्वीट भी एक खास मिठाई है. कई लोग इस तरह की मिठाई खाना सेहत के लिए सही मानते हैं.’

फिल्म अभिनेत्री अर्चना सिंह कहती हैं, ‘मेरी यूएसए में रह रही फ्रेंड को यह मिठाई बहुत पसंद है. हम सीजन में एक बार उसे यह जरूर भेजते हैं. फेस्टिवल में होने वाली पार्टियों में भी इस मिठाई का आकर्षण सब से अलग होता है. विदेशों में रहने वाले यह जान कर हैरान होते हैं कि भारतीय लोग सब्जियों से भी मजेदार मिठाई बना लेते हैं.’

पहले परवल स्वीट गांवों में शादियों के समय बनाई जाती थी. आमतौर पर पहले शादियां गरमी के मौसम में ही होती थीं. केवल खोए या छेने की मिठाई बनवाने का काम महंगा होता था. ऐसे में बचत के लिए परवल स्वीट की शुरुआत की गई. कुछ ही दिनों में इस मिठाई का स्वाद लोगों की जबान पर ऐसा चढ़ा कि लोग इस के दीवाने हो गए.

रवींद्र गुप्ता कहते हैं, ‘परवल स्वीट दूसरी मिठाइयों से बिल्कुल अलग होती है. यह खाने में रसदार होने का एहसास जरूर कराती है, पर असल में सूखी मिठाई होती है. इसे कहीं लाने ले जाने में भी दिक्कत नहीं होती है.’

परवल स्वीट केवल लखनऊ में ही नहीं बनती. दूसरे शहरों की खास मिठाई की दुकानों में भी यह मिठाई मिल जाती है. इस का हराभरा मीठा स्वाद खाने का अलग मजा देता है. दूसरी मिठाइयों के मुकाबले इस में कैलोरी की मात्रा कम होती है. इसलिए भी परवल स्वीट ज्यादा पसंद की जाती है. जिन लोगों को परवल की सब्जी उस के बीजों की वजह से अच्छी नहीं लगती, वे परवल स्वीट का मजा ले सकते हैं.

कैसे बनाएं परवल स्वीट

परवल स्वीट को बनाना मुश्किल नहीं होता है. इसे बनाने के लिए सब से पहले अच्छे किस्म के एक साइज के ताजे परवल लेने चाहिए. एक साइज के परवल देखने में अच्छे लगते हैं. परवलों को सही तरह से धोने के बाद उन का छिलका उतार दें. चाकू से परवलों के बीच में चीरा लगाएं. इस के बाद परवलों के बीज निकाल दें. अब पानी और चीनी को मिला कर चाशनी बना लें. चाशनी में परवलों को डाल कर धीमी आंच पर चढ़ा दें और 10-15 मिनट तक पकने दें. खयाल रखें कि परवल जलने न पाएं.

परवलों में भरने के लिए मिल्क बरफी का इस्तेमाल किया जाता है. बरफी बनाने के लिए दूध के साथ चीनी, काजू, किशइमिश और इलायची का इस्तेमाल किया जाता है. बरफी बनाने के बाद परवलों के अंदर खाली जगह में उसे भरें. फिर परवलों को बाहर से चांदी के वरक से लपेट दें और 20 मिनट के लिए फ्रीजर में रखें. फिर तैयार परवल स्वीट का आनंद लें. ऐसा स्वाद आप को किसी दूसरी मिठाई से नहीं मिलेगा. लौकी की बरफी और मूंग की बरफी की तरह आजकल परवल स्वीट की मांग भी तेजी से बढ़ रही है.

डीजल इंजन (Diesel Engine) खरीदने में धोखा न खाएं

Diesel Engine : गांवों में बिजली कम आती है और जब आती है, तो अकसर वोल्टेज सही नहीं आता. लिहाजा खेतीकिसानी के बहुत से काम वक्त पर ठीक से पूरे नहीं हो पाते. मजबूरन किसानों को डीजल से चलने वाले इंजन का सहारा लेना पड़ता है. डीजल इंजन (Diesel Engine) खेतीकिसानी से जुड़े बहुत से कामधंधों में काम आता है.

सिंचाई के पंपसैट, सबमर्सिबल पंप, जनरेटर, थ्रैशर, आटा चक्की, धान मशीन, गन्ना कोल्हू, आरा मशीन, इंटर लाकिंग टाइल्स प्लांट व तेल का स्पेलर आदि मशीनें चलाने में डीजल इंजन का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर किया जाता है. इसीलिए डीजल इंजन को किसानों का सच्चा साथी भी कहा जाता है.

डीजल इंजन (Diesel Engine) खरीदते समय पूरी सूझबूझ व सावधानी बरतना बहुत जरूरी है. दरअसल, बाजार में बहुत से ब्रांड के डीजल इंजनों की भरमार है, लिहाजा आम किसान इंजन खरीदते समय चकरा जाते हैं. ज्यादातार किसान इनाम के लालच या दुकानदारों की चिकनीचुपड़ी बातों के झांसे में आ कर कोई भी डीजल इंजन खरीदने का फैसला कर बैठते हैं.

तकनीक में लगातार हो रही तरक्की के कारण अब नए किस्म के डीजल इंजन आसानी से स्टार्ट होने लगे हैं. आयशर आदि मशहूर कंपनियों के बनाए  हुए 46 हार्स पावर तक की कूवत के दमदार एयर कूल्ड इंजन अपने देश में आसानी से मिलने लगे हैं, मगर ज्यादातर किसानों को उन की असलियत के बारे में पूरी जानकारी नहीं होती है.

बरतें सावधानी

यह सच है कि बाजार में ग्राहकों को खूब ठगा जाता है. चालाक दुकानदार मुनाफा कमाने के चक्कर में बहुत सफाई से भोले ग्राहकों को चूना लगा देते हैं. खासतौर पर कम पढ़ेलिखे व भोले किसानों के साथ तो कई बार बहुत ही ज्यादती होती है. लिहाजा खरीदारी करते समय बहुत चौकस रहना लाजिम होता है.

किसानों को यह पहले ही तय कर लेना चाहिए कि उन्हें कौनकौन से काम डीजल इंजन से करने हैं और कामों को करने के लिए कितनी कूवत यानी हार्स पावर का इंजन लेना ठीक रहेगा. गौरतलब है कि कम हार्स पावर के इंजन से ज्यादा भारी काम लेने पर इंजन बैठ जाता है और ज्यादा हार्स पावर के इंजन से कम काम लेने से डीजल का खर्च ज्यादा आता है.

आमतौर पर डीजल इंजन 2 तरह के आते हैं, एयर कूल्ड व वाटर कूल्ड यानी एक हवा से ठंडा होने वाला और दूसरा पानी से ठंडा होने वाला. किसान पैसे व जरूरत के मुताबिक इंजन चुन सकते हैं.

सूझबूझ से करें फैसला

इंजन खरीदते समय जल्दबाजी न करें. हालांकि भीड़ में से उम्दा क्वालिटी का बेहतर इंजन छांट कर चुनना हर किसी के लिए आसान नहीं होता. लिहाजा अपने आसपास के जिन किसानों के पास डीजल इंजन हो, उन से पूरी मालूमात जरूर करें. उन के इंजन की खूबियों व दिक्कतों के तजरबे आप के काम आ सकते हैं. पूरी व सही जानकारी न होने से कई बार किसान बाजार में मात खा जाते हैं.

अकसर पूरी कीमत चुकाने के बाद भी घटिया क्वालिटी का इंजन किसानों के मत्थे मढ़ दिया जाता है. लिहाजा बहुत सोचसमझ कर फैसला करें.

याद रखें कि लोकल कंपनी के डीजल इंजन नामचीन कंपनी के इंजनों के मुकाबले सस्ते होते हैं, लेकिन उन की क्वालिटी घटिया होने से उन में घिसावट जल्दी व ज्यादा होती है. वे जल्दी खराब होते हैं. बारबार कारीगर के पास ले जा कर उन की मरम्मत करानी पड़ती है.

डीजल इंजन हमेशा अच्छी साख वाली दुकान या एजेंसी से व नामचीन कंपनी का व आईएसआई निशान वाला ही खरीदना चाहिए. नकली इंजन बेचने वाले किसानों को भरमाने के लिए आईएसआई के निशान का जाली स्टीकर लगाए रखते हैं, लेकिन उस में अंग्रेजी में एज आईएसआई यानी आईएसआई जैसा लिखा रहता है. लिहाजा चौकस रहें और किसी के बहकावे में कतई व भूल कर भी न आएं.

सस्ते पर न रीझें

लोकल कंपनी का सस्ता इंजन खरीदने में कुछ धन जरूर बच जाता है, लेकिन बाद में उस के रखरखाव पर उस से कहीं ज्यादा खर्च हो जाता है, तब पछताना पड़ता है. साथ ही महंगा रोए एक बार व सस्ता रोए बारबार वाली कहावत याद आने लगती है. लिहाजा शुरू में ही मशहूर कंपनी का असली इंजन खरीदने में समझदारी है. खरीदने से पहले पूरे बाजार में कीमत का जायजा लेना अच्छा रहता है, ताकि ठगे जाने की गुंजाइश न रहे.

आगरा, राजकोट, अहमदाबाद व मेरठ आदि शहरों में बड़े पैमाने पर डीजल इंजन बनाए जाते हैं. अलगअलग कंपनियों के माडल व हार्सपावर वाले इंजनों की कीमत भी अलगअलग शहरों में अलगअलग होती है. ब्रांडेड कंपनियों के इंजनों की कीमत में हेराफेरी करने की गुंजाइश नहीं होती, लिहाजा दुकानदार अपने मोटे मुनाफे के लिए किसानों को हमेशा लोकल कंपनियों का या मेड इन चाइना इंजन खरीदने की ही गलत सलाह देते हैं.

इंजन खरीदते समय यदि कोई भरोसे का मैकैनिक भी जांचपरख के लिए साथ में हो तो सोने में सुहागा रहता है. वह इंजन के बोर, स्ट्रोक व आरपीएम जैसी तकनीकी खासीयतों को आसानी से परख सकता है. इंजन खरीद की पक्की रसीद, मैनुअसल व उस का गारंटी कार्ड वगैरह पूरे कागजात जरूर लें. उस पर दुकानदार की मोहर लगवा कर दस्तखत कराएं व तारीख डलवाएं. इन को संभाल कर रखें ताकि वक्तजरूरत पर काम आएं.

यदि इंजन में खराबी, सेवा में चूक या धोखाधड़ी का मामला हो, तो जिले के उपभोक्ता फोरम में जा कर मुआवजा पा सकते हैं. वहां यही सुबूत काम आते हैं. इंजन के मैनुअसल में इस्तेमाल के तरीके, कई हिदायतें व सावधानियां लिखी रहती हैं, उन्हें ध्यान से पढ़ें व उन का पूरा पालन करें, ताकि बेवजह की दिक्कतें न आएं और आएं तो आसानी से हल हो जाएं.

बहुत से दुकानदार बिल या रसीद पर नीचे बाईं ओर ग्राहक के भी दस्तखत कराते हैं. वहां पहले से चैक्ड एन सैटिस्फाइड लिखा होता है, इस का मतलब होता है कि खरीदी गई चीज सही हालत में हासिल की जा रही है. इस के बाद घर जा कर उस चीज में यदि कोई खामी निकलती है, तो दुकानदार की जिम्मेदारी नहीं होती.

रखरखाव : डीजल इंजन का इस्तेमाल खेतखलिहान व दूसरे कामधंधों में किया जाता है, लिहाजा उम्मीद की जाती है कि वह ठीक से काम करे. इंजन की जितनी ज्यादा बेहतर देखभाल की जाती है, वह उतना ही अच्छा काम करता है और उतना ही ज्यादा चलता है. इस के लिए यह जरूरी है कि उसे लाने, ले जाने,

चढ़ोनउतारने व रखने में लापरवाही न बरती जाए. जहां तक मुमकिन हो इंजन को धूप व पानी से बचा कर छाया में रखें, उस की सफाई करते रहें और वक्त पर उस की सर्विसिंग भी जरूर कराएं.

इंजन में डीजल डालते समय ध्यान रखें कि उस का फिल्टर ठीक हो. तेल की टंकी में कचरा न जाने दें. यदि इंजन में कभी कोई कमी नजर आए, तो सीधे कंपनी के सर्विस स्टेशन पर ले जाएं या किसी अच्छे मिस्त्री को ही दिखाएं. इन कुछ उपायों को अपनाने से किसान इंजन के नाम पर अपनी मेहनत की कमाई को बरबाद होने से बचा सकते हैं.

किसान उम्दा क्वालिटी का इंजन खरीद कर उसे सालोंसाल बगैर किसी दिक्कत के चला सकते हैं. वे डीजल इंजन की मदद से अपना कीमती वक्त, धन व मेहनत बचा कर ज्यादा व बेहतर काम कर सकते हैं और खेती से जुड़े अपने सहायक कामधंधे बढ़ा कर अपनी कमाई में भरपूर इजाफा कर सकते हैं.

हलदी (Turmeric) की खेती

हलदी (Turmeric) खास मसाला फसल है. भारत में तमाम व्यंजनों में मसाले के तौर पर इस का इस्तेमाल होता है. हलदी (Turmeric) का इस्तेमाल तमाम औषधियों में भी किया जाता है. हलदी (Turmeric) एक उष्ण कटिबंधीय फसल है. इस की खेती के लिए नमी वाली जलवायु अच्छी मानी जाती है.

जमीन : खेती के लिए जमीन समतल, अच्छे पानी के निकास वाली, बलुई दोमट मिट्टी, जिस का पीएच मान 7-7.5 हो, सही मानी जाती है. अम्लीय, क्षारीय, लवणीय और पानी खड़ा रहने वाली जमीन इस के लिए ठीक नहीं है.

खेत की तैयारी : मिट्टी पलटने वाले हल से या ट्रैक्टर हैरो से 2-3 बार अच्छी जुताई करें व सुहागा लगा कर खेत को खरपतवार व ढेले रहित तैयार करें. अन्य घासफूल को अच्छी तरह से निकाल दें. इस के बाद 3 मीटर चौड़ी व 20 मीटर लंबी क्यारियां बना लें. 2 क्यारियों के बीच 20 सेंटीमीटर की जगह छोड़नी चाहिए, जिस से फसल की अच्छी देखभाल हो सके और हलदी के फुटाव के लिए भी सही जगह मिल सके.

हलदी की खास किस्में : रश्मि, सुरमा, रोमा व सोनाली के अलावा हलदी की अन्य लोकप्रिय किस्में लाकाडाग, डुग्गीगली, टेकुटपेटो, कस्तूरी पुष्पा, पीटीएस 10, पीटीएस 24, टी सुंदर, अल्लेटंपी, लोखड़ी, फुलबनी लोकल, मद्रास मगल, राजा बोट, कटहड़ी सुवर्णा, रजतरेखा, प्रतिभा, नूरी प्रभा वगैरह हैं.

बोने का समय : हलदी की अच्छी फसल लेने के लिए बिजाई अप्रैल के आखिरी हफ्ते में करें. जहां सिंचाई की सहूलियत नहीं है, वहां जुलाई के पहले हफ्ते में बिजाई की जाती है. देर से बिजाई करने पर पौधों की बढ़वार व उपज कम होती है.

बीज की मात्रा व बोने का तरीका : हलदी की बोआई कंदों से की जाती है. इस के लिए 6-8 क्विंटल स्वस्थ व एक साइज के कंद प्रति एकड़ बिजाई के लिए सही रहते हैं.

कंदों के आकार का उत्पादन पर बहुत गहरा असर पड़ता है. ज्यादा वजन वाले कंद जल्दी स्थापित हो जाते हैं. बीज के लिए कंदों का वजन 30-40 ग्राम होना चाहिए. हलदी की बोआई लाइन से लाइन की दूरी 30 सेंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर रख कर करनी चाहिए. इस के बाद कंद जमने तक खेत में नमी बनाए रखनी चाहिए. बोआई से पहले कंदों को डाइथेन एम 45 की 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल कर उस में 30 मिनट तक डुबो कर रखें.

खाद व उर्वरक : खेत की तैयारी के समय 10-12 टन गोबर की अच्छी गलीसड़ी व सूखी खाद प्रति एकड़ की दर से खेत में मिलाएं.

सिंचाई : हलदी जमने में लंबा समय लेती है, जिस के लिए खेत में नमी बनी रहनी चाहिए. अप्रैल से जून में 8-10 दिनों के अंतर से और सर्दियों में 20-25 दिनों के अंतर से हलकी सिंचाई करें. बारिश हो जाने पर इस फसल को अलग से पानी लगाने की जरूरत नहीं पड़ती.

निराईगुड़ाई : फसल में उगने वाले खरपतवारों को समयसमय पर निकालते रहें. आजकल निराईगुड़ाई के लिए साइकिलनुमा तमाम यंत्र सस्ते दामों पर मौजूद हैं.

खुदाई व पत्तियों से मुनाफा : हलदी को किस्मों के आधार पर 7-10 महीने के बाद जब पत्तियां सूख कर पीली पड़ जाएं, तब पत्तियों को काट कर उन का वाष्प आसवन विधि से तेल निकालें. पत्तियों में 1 फीसदी तेल होता है. इस के तेल से अतिरिक्त आमदनी होती है. जमीन को खोद कर या जुताई कर के कंदों को निकाल लिया जाता है. बीज के लिए रखी जाने वाली हलदी को छांट कर बिना साफ किए छायादार जगह पर ढेर बना कर हलदी की पत्तियों से ढक कर ऊपर मिट्टी डाल दी जाती है.

प्रसंस्करण : बेची जाने वाली हलदी की जड़ों से मिट्टी को साफ किया जाता है और 1 हफ्ते तक छाया में सुखाने के बाद हलदी को 100 लीटर पानी में 100 ग्राम सोडियम बाईकार्बोनेट या सोडियम कार्बोनेट घोल कर तांबे, गेल्बनाइज्ड लोहे या मिट्टी के बरतन में भर कर 1-2 घंटे तक उबालते हैं.

पीला रंग लाने के लिए 50 ग्राम सोडियम बाइसल्फेट और 50 ग्राम हाइड्रोक्लोरिक अम्ल भी डाल देते हैं. जब पानी से सफेद धुआं आने लगे, हलदी दबाने पर मुलायम हो जाए, तब उबालना बंद कर देते हैं. इन कंदों को जमीन पर फैला कर 10-15 दिनों तक सुखाया जाता है. जब पलटने पर धात्विक ध्वनि आने लगे, तब पालिश करने वाले ड्रम में भर कर घुमा कर चमकाते हैं. पालिश करने के बाद इस की सतह पर चमकदार पीला रंग चढ़ाया जाता है.

उपज : हलदी की उपज (गीली) 100-120 क्विंटल प्रति एकड़ होती है, जो सूखने पर 10-12 क्विंटल बचती है और पत्तियों के आसवन से 8-12 किलोग्राम तेल प्रति एकड़ हासिल हो सकता है.

बदहाल कृषि अर्थव्यवस्था (Agricultural Economy) का राजनीतिक अर्थशास्त्र

Agricultural Economy: एक जमाना था, जब कृषि का अर्थव्यवस्था में बोलबाला हुआ करता था. लोगों के लिए खेती ही जिंदगी चलाने का जरीया और जीवन जीने का तरीका दोनों होती थी. कृषि व्यवस्था का विकास अपनेआप में एक प्रगतिशील घटना थी. लेकिन यूरोप में हुई औद्योगिक क्रांति के बाद धीरेधीरे कृषि की अहमियत कम होती गई और उस की जगह नए उद्योगधंधों ने ले ली.

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यूरोप का आधुनिकीकरण जब तीसरी दुनिया के देशों में पहुंचा, तो उन की अर्थव्यवस्था जो उस समय कृषि आधारित थी, के लिए कहर साबित हुआ. गुलामी के कारण इन देशों का पूरा उत्पादन यूरोप के विकसित कारखानों की भूख मिटाने वाला कच्चा माल बन कर रह गया.

भारत की हालत भी अन्य गुलाम देशों से कोई खास अलग नहीं रही. उसे 200 सालों तक अपने कृषि उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा कच्चे माल के रूप में इंगलैंड के उद्योगधंधों के लिए निर्यात करना पड़ा. अंगरेजों ने न केवल भारत को लूटा, बल्कि भारतीयों की जरूरतों को भी नजरअंदाज किया, जिस के कारण कई बार भुखमरी तक की नौबत आ गई. हालात का अंदाजा चंपारण में किसानों से जबरदस्ती नील की खेती कराने से लगाया जा सकता है.

जब साल 1947 में अंगरेजों से भारत को आजादी मिली, तो खेती की हालत खराब थी. यहां के उद्योगधंधों का भी ठीक से विकास नहीं हुआ था. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कृषि व्यवस्था और उद्योगधंधों में सुधार लाने की कोशिशों का दावा किया गया, पर हकीकत में इन सब कोशिशों से भी कृषि की हालत में कोई खास सुधार देखने को नहीं मिला. वहीं दूसरी तरफ भूसुधार आंदोलनों की असफलता के कारण अंगरेजों के समय में होने वाले किसान आंदोलन आजादी के बाद भी देश के तमाम हिस्सों में उठते रहे हैं. इस की झलक तेलंगाना के महान किसान विद्रोह से ले कर आज के किसान आंदोलनों में देखी जा सकती है.

Bad Agricultural Economy

आमतौर पर हरित क्रांति को कृषि के सुधार क्षेत्र में एक ऐतिहासिक कदम माना जाता है, जिस से देश के कुल अनाज उत्पादन में काफी इजाफा देखा गया, पर छोटे और मंझोले किसानों के लिए यह बेकार साबित हुई. महंगे खादबीजों और उन्नत मशीनों जैसे टै्रक्टर और सिंचाई के यंत्रों ने बड़े किसानों का काम बहुत हद तक आसान कर दिया. अब उन की फसलों के उत्पादन में काफी इजाफा देखा गया, पर वहीं दूसरी ओर इन सब यंत्रों का इस्तेमाल और महंगे खादबीज खरीदना छोटे किसानों के बूते की बात नहीं थी, जिस से वे पहले से ज्यादा पिछड़ते गए.

कृषि के लिए सब से बुरा दौर तो तब शुरू हुआ, जब साल 1991 में भारत ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीति की ओर कदम बढ़ाया. खेती की पहले से खराब हालत किसानों के लिए फांसी का फंदा बनती गई.

खेतीबारी के तौरतरीके अब पूरी तरह से बदल गए. कृषि की लागत आसमान छूने और कर्ज समय पर न चुकाए जाने के कारण, किसानों पर कर्ज की रकम बहुत ज्यादा हो गई, जो किसानों की औकात से बाहर हो गई.

साल 1995 के बाद के आंकड़े देखें तो वे काफी खराब हैं. सचाई यह है कि किसानों के आत्महत्या के मामले काफी बढ़े हैं. भारत की कुल आबादी के 70 से 72 फीसदी लोग खेती पर निर्भर माने जाते हैं.

जब ऐसी हालत में कृषि पर संकट बढ़ेगा, तो उस पर निर्भर लोगों के जीवन पर संकट आना लाजिम है. सरकारी आंकड़ों की ही बात करें तो साल 1995 से साल 2003 के बीच औसतन हर साल 15400 किसानों के आत्महत्या के मामले सामने आए हैं. वहीं साल 2004 से साल 2012 के बीच इन की संख्या 16000 से ऊपर रही है. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि हकीकत में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या इन आंकड़ों से कहीं ज्यादा है.

नहीं आते दिखाई दे रहे किसानों के अच्छे दिन : मौजूदा सरकार का पूंजीपतियों की ओर बढ़ता झुकाव किसानों के लिए घातक है. उस के द्वारा समाज में राष्ट्र व धर्म के नाम पर जो आग फैलाई जा रही है, वह किसानों को भी अपने लपेटे में ले लेगी.

यह एक सचाई है कि कृषि में खेतीबारी के साथसाथ पशुपालन भी जुड़ा रहता है. जहां खेती नहीं होगी, वहां पशुपालन भी मुश्किल होता है और बिना पशुधन खेती करना कठिन होता है. किसानों को दोनों से आर्थिक लाभ मिलता है. लेकिन जब से बीफ बैन के साथसाथ अन्य मीट पर रोक लगाने को राष्ट्रीय मुद्दा बनाया गया है, तब से पशुपालन का काम बिगड़ गया है.

खेती और पशुपालन में जो संतुलित संबंध था, वह अब बिगड़ने लगा है. एक ओर जहां गाय, भैंस, बकरी, मुरगी वगैरह पालने वालों का धंधा चौपट होने पर है, वहीं इस से मांस के कारोबारियों की हालत भी खराब हो गई है.

Bad Agricultural Economyजबजब किसानों की आत्महत्या और आंदोलन के मुद्दे जोर पकड़ते हैं, तो कई प्रकार के सुझाव सामने आते हैं, जैसे एक किसान आयोग की स्थापना की जाए, स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू किया जाए या किसानों को एक तय वेतन दिया जाए, लेकिन दिक्कत यह है कि भारत के राजनीतिक आकाओं ने यहां के दलाल पूंजीपतियों के दबाव में आ कर देश को वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था के आगे इतना गिरवी रख दिया है कि वे चाह कर भी जरूरी कदम नहीं उठा सकते.

अब सवाल उठता है कि क्या और कोई रास्ता नहीं है किसानों के सामने खुदकुशी करने या पुलिस की गोलियों से मरने के अलावा न केवल किसानों का ही, बल्कि हर भारतीय का फर्ज बनता है कि एक सामूहिक बड़े जन आंदोलन को खड़ा किया जाए, जो भारत को इस पूंजीवादी गुलामी के शिकंजे से बाहर निकालने में कामयाब हो, जिस से न केवल किसानमजदूरों के हालात सुधरेंगे, बल्कि तालीम और रोजगार के क्षेत्र में भी आम नागरिक के लिए रास्ते खुलेंगे.

Dairy Farming : गरमियों में दूध को कैसे बढ़ाएं

Dairy Farming : गरमियों में गायभैंसों के दूध की मात्रा कम हो जाती है. ऐसा क्यों होता है? यों तो गरमियों में चारे की कमी का सामना करना पड़ता है, जिस का असर दूध में पड़ता ही है. दूध की कमी की वजह से गरमियों में दूध का दाम बढ़ जाना भी कोई खास बात नहीं है. पर क्या महज चारे की कमी ही इस दूध के उत्पादन में कमी के लिए जिम्मेदार है? इसे समझने के लिए हमें पशु के बदन को समझना पड़ेगा.

चाहे गाय हो या फिर भैंस वे मौसम में होने वाले ठंडेगरम के बदलाव के हिसाब से अपने बदन की गरमी को एकसा बनाए रखना जानते हैं. मौसम के उतारचढ़ाव का असर वे अपने बदन पर नहीं होने देते?हैं. अब जरा सोचिए, जाड़ों में जब बाहर का मौसम ठंडा होता है और बदन गरम होत है, तो बदन की गरमी लगातार बदन से निकल कर बाहर जाती रहती है.

बदन के अंदर पैदा होने वाली गरमी में कमी हो तो बदन को ठंड लगती है. ठंड से बचने के लिए बदन की गरमी को बाहर जाने से रोकने के लिए बदन को किसी कपड़े से ढकना, सिकुड़ कर बैठना या फिर झुंड में एकसाथ बैठना आदि किया जा सकता है.

इस के ठीक उलट गरमी के मौसम में जब मौसम का पारा बदन के पारे से ज्यादा होना शुरू हो जाता है, तो उस का असर शरीर पर होना शुरू हो जाता है, नतीजतन शरीर का पारा बढ़ जाता है. दूसरी ओर बदन के अंदर भोजन पचने के दौरान भी गरमी पैदा होती रहती है. इस तरह बदन के अंदर की गरमी व बाहर से शरीर के अंदर आने वाली गरमी बदन का पारा बढ़ाने में मदद करती है.

लिहाजा हालात से निबटने के लिए जानवर ज्यादा पानी पी कर, अपनी सांस लेने की गति को बढ़ा कर, छायादार जगह में बैठ कर, बदन को पानी से भिगो कर या फिर बदन से पसीना बहा कर बदन के सामान्य पारे को बनाए रखने की कोशिश करता है. पर यदि वह इन सब के बाद भी बदन के पारे को सामान्य रखने में असफल हो जाता है, तो उस पर गरमी का असर नजर आने लगता है. यहां यह कहना ठीक होगा कि सूखी गरमी के मौसम के मुकाबले उमस वाली गरमी जानवर को ज्यादा तकलीफ देती है और दूध उत्पादन पर ज्यादा असर डालती है.

अब इन हालात में जानवर के बदन के पास माहौल से आने वाली गरमी को कम करने का कोई तरीका तो होता नहीं है, लिहाजा उस का बदन अपने अंदर खाना पचाने में पैदा होने वाली गरमी को कम करने की कोशिश खुद ही करता है. वास्तव में बदन के अंदर खाना पचाने का काम सूक्ष्म जीवों द्वारा किया जाता है और इस काम में बेहद गरमी पैदा होती है. इस गरमी की मात्रा को कम करने के लिए बदन खुद ही भूख को कम कर देता है, लिहाजा जानवर खाना कम कर देते हैं. इस तरह बदन खाने की मात्रा कम कर के अपने सामान्य पारे को बनाए रखने की कोशिश करता है. वास्तव में पशु का कम खाना खाना ही इस बात को जाहिर करता है कि पशु गरमी की चपेट में आ गया है. ऐसे हालात में पशु एक तरफ सुस्त लगने लगता है, तो दूसरी ओर कम चारा खाने की वजह से अपने दूध उत्पादन को भी कम कर देता है.

Dairy Farming

मौसम के इस खराब असर की वजह से गायभैंसों के दूध का उत्पादन 50 फीसदी तक भी घट सकता है. सूखी गरमी के मुकाबले जुलाईअगस्त की नमी वाली गरमी ज्यादा नुकसानदायक है. पारे की 32 डिगरी सेंटीग्रेड से 38 डिगरी सेंटीग्रेड के बीच की हालत से ही गरमी का बुरा असर पड़ना शुरू हो जाता है और यदि साथ में मौसम की नमी 50 फीसदी से 90 फीसदी के बीच हो तो हालत और भी खराब हो जाती है.

अगर इस से भी ज्यादा गरमी हो तो पशु बेचैनी जाहिर करने लगता है और मुंह से सांस लेना शुरू कर देता है. इसी के साथ पशु की खाने की चाहत घट जाती है और वह छायादार जगह की तलाश करता है. पशु तेज सांसों के साथ लार भी ज्यादा बनाता है और ज्यादा पानी पीने लगता है. बेचैनी की वजह से पशु बैठने के बजाय खड़े रहना ज्यादा पसंद करता है. इन हालात में दूध का उत्पादन घटता चला जाता है.

यही नहीं, वे पशु जिन के ब्यांत के आखिरी 3 महीने गरमी के असर में बीतते हैं, उन के बच्चों का ब्यांत के समय का वजन घट जाता है. पशु का खुद का वजन भी कम हो जाता है. नतीजतन पशु अपनी अगली ब्यांत में 12 फीसदी तक कम दूध का उत्पादन कर सकते हैं. कृत्रिम गर्भाधान पर भी गरमी का खासा असर पड़ता है और गर्भाधान होने की उम्मीद 10 फीसदी से 20 फीसदी तक घट जाती है.

इन तमाम बातों को ध्यान में रखते हुए यह बेहद जरूरी है कि पशुओं को गरमी के कहर से बचा कर रखा जाए ताकि दूध उत्पादन में कमी के साथसाथ होने वाले दूसरे नुकसानों से किसान बच सकें.

Dairy Farming

कुछ छोटीछोटी बातें हैं, जिन की मदद से गरमी के बुरे असर को कुछ हद तक कम किया जा सकता है:

* पशु द्वारा चारा कम खाने की हालत में उस के खाने में अनाज/दाना की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए.

* अनाज को पचाने में चारा पचाने के मुकाबले कम गरमी पैदा होती है, इसलिए पशु को गरमी से राहत मिलती है.

* पशु को छायादार जगह पर बांधना चाहिए.

* हर पशु के पास ठंडा पानी मौजूद होना चाहिए, ताकि वह अपनी जरूरत के मुताबिक पानी पी सके.

* पशु को ठंडे पानी से नहलाना चाहिए. इस से उस के बदन का पारा कम हो जाता है.

* पशु ज्यादा गरमी में खाना पसंद नहीं करता है, लिहाजा उस के खाने का इंतजाम इस तरह करना चाहिए कि वह अपना ज्यादा से ज्यादा खाना रात के ठंडे माहौल में खा सके.

* पशु एकदम सुबह या शाम के वक्त में भी राहत महसूस करते हैं, इसलिए इस दौरान भी चारे की मौजूदगी होनी चाहिए.

* भैंसों का तालाब या ठंडी जगह पर रहना काफी फायदेमंद रहता है.

बेल (Wood Apple) की खेती

आसानी से उगने वाला बेल (Wood Apple) औषधीय पेड़ होता है. बेल के पत्ते वात, शूल व आम बुखार को नष्ट करते हैं. इस के फूल वमन और अतिसार में फायदा पहुंचाते हैं. बेल मीठा और ठंडी तासीर वाला होता है. इस की जड़ की छाल और कच्चे फल का इस्तेमाल दस्त, पेचिश, पेटदर्द और पीलिया में फायदेमंद होता है. बेल के पत्तों का रस जुकाम, खांसी व दमे में फायदा पहुंचाता है.

किस्में : नरेंद्र बेल 1, नरेंद्र बेल 2, नरेंद्र बेल 5, मिर्जापुरी, कागजी, गोंडा, फैजाबाद वगैरह.

बोआई : नर्सरी में बीज फरवरीमार्च में बोए जाते हैं. जब बीजू पौधे पेंसिल के आकार के या इस से ज्यादा बड़े हो जाएं तो फरवरीमार्च या जुलाईअगस्त में पैच बडिंग की जाती है. इस के बाद बारिश के मौसम में तैयार पौधों को खेत में लगा दिया जाता है. पेड़ से पेड़ का फासला 10 मीटर रखा जाता है.

खाद व उर्वरक : 10 किलोग्राम गोबर की खाद (सड़ी), 100 ग्राम यूरिया, 150 ग्राम सुपर फास्फेट व 100 ग्राम म्यूरेट आफ पोटाश 1 साल के पौधे को दें. यह मात्रा इसी दर से 10 सालों तक बढ़ाते रहें. गोबर की खाद व अन्य उर्वरकों की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा जून में और नाइट्रोजन की बची आधी मात्रा अगस्त में दें.

सिंचाई : छोटे पेड़ों को 10 से 15 दिनों के अंतर पर नियमित रूप से सिंचाई की जरूरत होती है. बेल के बड़े पेड़ बिना सिंचाई के भी रह सकते हैं.

कटाईछंटाई: पेड़ का अच्छा ढांचा बनाने के लिए जमीन की सतह से 70 सेंटीमीटर ऊंचाई तक मुख्य तने पर कोई दूसरी शाखा नहीं रहने देनी चाहिए.

फूल व फल लगने का समय : बडिंग करने के करीब 5 साल बाद पौधों पर फल आने शुरू होते हैं. इस में मईजून के महीनों में फूल आते हैं और 10 महीने बाद फल पक कर तैयार हो जाते हैं.

पैदावार : अच्छी तरह देखभाल करने पर 10 से 12 साल की उम्र के पेड़ों से 300 से 400 फल प्रति पेड़ की दर से मिलते हैं.

खास कीड़े व बीमारियां

आल्टरनेरिया लीफ स्पाट : इस रोग में पत्तियों पर भूरे रंग के अनियमित आकार के धब्बे बनते हैं. रोगी पत्तियां झुलस कर गिर जाती हैं. यह रोग अल्टरनेरिया कवक के कारण होता है. रोकथाम के लिए कापरआक्सीक्लोराइड 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव 15 दिनों के अंतर पर करें.

अंतर्विगलन रोग : यह रोग संक्रमित फलों में लगता है. इस रोग में फलों का गूदा सड़ कर पूरी तरह नष्ट हो जाता है. ऐसी हालत में फल तोड़ते समय इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि उन में चोट न लगे.

फलों का फटना: कभीकभी सूक्ष्म तत्त्वों की कमी के कारण फल फट जाते हैं. नमी की कमी से भी फल फट जाते हैं. फलों के पकने से पहले ही उन में दरार पड़ जाती है. रोकथाम के लिए सिंचाई का पूरा खयाल रखें. पोषक तत्त्वों की कमी गोबर की खाद डाल कर दूर करें. इस के अलावा सूक्ष्म तत्त्वों का छिड़काव करें.

केंकर : इस बीमारी से प्रभावित भागों पर धब्बे बनते हैं, जो बाद में बढ़ कर भूरे हो जाते हैं. पत्तियों पर छेद हो जाते हैं. रोग से फल भी झड़ जाते हैं. रोकथाम के लिए स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 100 पीपीएम (यानी 1 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में) घोल का छिड़काव करें.

जयपुर जिले के सांगानेर तहसील के रूंडल गांव के प्रगतिशील किसान रामगोपाल यादव ने अपने खेत के चारों तरफ बेल के 25 से 30 पेड़ लगा रखे हैं.

इन पेड़ों से हर साल काफी अच्छी आमदनी होती है. किसान रामगोपाल यादव को 20 से 25 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से आमदनी होती है.

किसानों के शोषण (Exploitation of Farmers) के कारण

Exploitation of Farmers: चुनाव वाले समय में किसानों से कर्ज माफी जैसे तमाम वादे कर दिए जाते हैं. पर जब वादे निभाने का समय आता है, तब तमाम तरह की शर्तें लगा दी जाती हैं, जिन का फायदा जरूरतमंद किसानों तक नहीं पहुंच पाता और उन की उम्मीदों पर पानी फिर जाता है. किसानों का शोषण आढ़ती, व्यापारी से ले कर सरकार तक करती आई है.

किसानों को व्यापारी समयसमय पर मदद करते रहते हैं, पर उस के बदले 3 फीसदी की दर से ब्याज भी वसूलते हैं. फसल आने पर व्यापारी अपना पैसा ब्याज सहित काट लेते हैं. किसान पहले ही व्यापारी का कर्जदार होता है, इसलिए वह दूसरे बाजार या आढ़ती को माल नहीं बेच पाता, जिस का लाभ व्यापारी उठाते हैं.

किसानों के बीच यह भी सोच है कि उन के पुरखे भी व्यापारियों से लेनदेन करते आए थे, लिहाजा वे भी उन्हीं के जाल में फंसे रहते हैं.

इस के अलावा दुकानदार खाद, बीज व कीटनाशक आदि सामान भी बेचते हैं. कुछ दुकानदार तय कीमत से भी कम पर किसानों को सामान बेचते हैं, लेकिन उस के साथ दूसरा सामान ऐसा देते हैं, जिस से वे 40 फीसदी तक मुनाफा कमाते हैं. यहां भी किसान का शोषण होता है, जिस का उन को पता ही नहीं चल पाता है.

exploitation of farmers

लुभावना पैकेज

हर प्रदेश में जगहजगह कृषि गोदाम, कृषि विज्ञान केंद्र, कृषि रक्षा इकाई जैसे केंद्र हैं, जहां से किसानों को बीज व कीटनाशक मिलते हैं और सलाह भी मिलती है. ये केंद्र किसानों को उपकरणों, बीजों व दवा पर छूट के बारे में भी जानकारी देते हैं. यही काम अगर सरकारी कर्मचारी करें, तो किसान ज्यादा फायदे में रहेगा. छूट वाले बीज महज 3-5 फीसदी किसान ही ले पाते हैं. सब्सिडी वाले बीज कुछ लोगों द्वारा पहले ही खरीद लिए जाते हैं, जिन्हें बाद में किसानों को मनचाहे दामों पर बेचा जाता है.

तहसील स्तर पर कर्मचारी

सरकारी तबका भी किसानों का शोषण करने में पीछे नहीं है. किसान का सब से नजदीकी संबंध लेखपाल के साथ होता है. लेखपाल किसान के घर आता है, तो किसान उसे दूध, घी, फलसब्जियां और दालें आदि देते हैं, लेकिन अगर किसान खसरा या कोई और जरूरी कागज लेने लेखपाल के पास जाए, तो वह कम से कम 50 रुपए जरूर लेगा. कृषि से संबंधित कोई भी काम कराना हो, तो बिना घूस दिए किसानों का काम नहीं होता. कोई डाक्यूमेंट बनवाना हो तब भी पैसे लगते हैं. अगर कोई राहत का चैक बनना है, तो तहसीलदार या डीएम का बहाना बना कर लेखपाल 10 फीसदी तक रकम नकद लेता है.

कृषि क्षेत्र से जुड़े नेता

आज किसानों की बातें एसी में बैठे नेता या कृषि अधिकारी अकसर करते हैं. वे किसानों को समयसमय पर बरगलाते हैं, जिस से किसान समय से केसीसी, लगान व सिंचाई का पैसा नहीं देते, नतीजतन उन का ब्याज बढ़ जाता है. मजबूरन किसान कर्ज चुकाने के लिए तरहतरह के तरीके इस्तेमाल करते हैं. कई दफा वे फर्जी दस्तावेज भी बनवा लेते हैं, जिस से भविष्य में अकसर उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है.