Nanotechnology : आने वाला समय नैनोटेक्नोलौजी का होगा

Nanotechnology : सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में जैव प्रौद्योगिकी महाविद्यालय के कौंफ्रेंस हाल में उत्तर प्रदेश कृषि अनुसंधान परिषद ने मिल कर ‘नैनो कवकनाशीय एवं फसल सुरक्षा’ विषय पर एक दिवसीय किसान प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया गया.

इस का उद्घाटन कृषि विश्वविद्यालय के कुल सचिव प्रोफैसर रामजी सिंह, निदेशक प्रसार डाक्टर पीके सिंह, निर्देशक शोध डाक्टर कमल खिलाड़ी, निदेशक ट्रेंनिंग प्लेसमैंट प्रोफैसर आरएस सेंगर व परियोजना के मुख्य अन्वेषक डा. नीलेश कपूर द्वारा किया गया.

निदेशक शोध डाक्टर कमल खिलाड़ी ने किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि विश्वविद्यालय में कई सालों से नैनो कवकनाशकों पर शोधकार्य हो रहे हैं और शुरुआती परिणाम बेहद उत्साहजनक हैं. उन्होंने बताया कि पारंपरिक कवकनाशकों की तुलना में नैनो रूपांतरित कवकनाशकों में रोग नियंत्रण की क्षमता कई गुना अधिक पाई गई है.

इस कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए मुख्य अतिथि डाक्टर रामजी सिंह ने कहा कि नैनो कवाकनाशकों की सहायता से कीट रोग नियंत्रण अब पर्यावरणीय खतरे को बचाए रखते हुए भी संभव हो सकेगा. उन्होंने कृषि में हो रहे परिवर्तन और किसानों की भूमिका पर बल देते हुए कहा कि अब समय आ गया है जब किसान वैज्ञानिकों के साथ मिल कर समस्याओं का समाधान खोजें.

इस परियोजना के मुख्य अन्वेषक डा. नीलेश कपूर ने कहा की नैनो कवकनाशियों को बनाने के लिए अनुसंधान कार्य तेजी से किया जा रहे हैं. उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश कृषि अनुसंधान परिषद के सहयोग से इस परियोजना में नैनो कवकनाशियों के विकास के लिए कार्य किया जा रहा है. उन्होंने कहा कि नैनो कवकनाशकों की विशेष सतही संरचना के कारण रोग नियंत्रण करने में बेहतर परिणाम मिलते हैं.
निदेशक प्रसार डा. पीके सिंह ने ग्रामीण क्षेत्रों में वैज्ञानिक जागरूकता की कमी को रेखांकित करते हुए कहा कि किसानों को मजबूत बनाने के लिए ऐसे प्रशिक्षण बहुत जरूरी हैं. उन्होंने कहा कि पारंपरिक रसायन की अधिकता से भूमि की उर्वरता घटती जा रही है जबकि नैनो तकनीकी पर्यावरण अनुकूलन व दीर्घकालिक समाधान प्रदान करती है.

निदेशक ट्रेंनिंग प्लेसमैंट डा. आरएस सेंगर ने कहा कि कृषि उत्पादन में टिकाऊ और गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए नैनो तकनीकी एक प्रभावशाली साधन बन सकती है. उन्होंने कहा कि यह महाविद्यालय उत्तर प्रदेश में अग्रणीय भूमिका निभा रहा है और वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई यह तकनीक किसानों के लिए भविष्य में बहुत काम की  साबित हो सकती है. इस अवसर पर नैनो कवकनाशी किसान मार्गदर्शिका पुस्तक का विमोचन भी किया गया.

इस कार्यक्रम में वैज्ञानिक डा. रेखा दीक्षित ने किसानों को नैनो कवकनाशकों की संरचना क्रियाविधि और पौधों पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में जानकारी दी. उन्होंने कहा कि नैनो कण पौधों की कोशिकाओं तक पहुंच कर रोगजनकों को नष्ट कर देते हैं, जिस से रोग नियंत्रण अधिक प्रभावी होता है.
इस कार्यक्रम का संचालन प्रोफैसर पंकज चौहान और स्वागत भाषण नीलेश कपूर द्वारा दिया गया. इस अवसर पर मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, मेरठ, गाजियाबाद, बिजनौर, बागपत आदि जिलों के अलावा भमौरी, विरालसी, मैथना, पलहेड़ा, डोरली, चिरोड़ी, खेड़ा, पीरपुर, पावली, पवारसा, आदि गांव के 95 से अधिक किसान उपस्थित रहे. इस कार्यक्रम में डाक्टर बुध्यास गौतम, डा. पंकज चौहान, डाक्टर रेखा दीक्षित, डाक्टर नीलेश कपूर और अभिनव सिंह का विशेष योगदान रहा.

Tractor : ट्रैक्टर की सही देखभाल

Tractor : खासीयतों से भरपूर ट्रैक्टर खेती के लिए बहुत जरूरी है. कृषि में काम आने वाले तमाम यंत्रों को ट्रैक्टर के साथ जोड़ कर चलाया जाता है. ट्रैक्टर के अगले व पिछले हिस्से में लगने वाले तमाम कृषि यंत्रों से जुताई, बोआई, मड़ाई, फसल की रोपाई फसल कटाई के साथ ही फसल की ढुलाई व सिंचाई का काम भी लिया जाता है.

खेती में इस्तेमाल किए जाने वाले यंत्रों की उपयोगिता के अनुसार कई मौडलों के ट्रैक्टरों का इस्तेमाल किया जाता है, जिन की ताकत हौर्सपावर से आंकी जाती है. खेती के लिए कल्टीवेटर, हैरो, रोटावेटर, रोटरी, ट्रिलर, प्लाऊ, सहित अनेक यंत्रों को काम के अनुसार ट्रैक्टर से जोड़ कर इस्तेमाल किया जाता है. इस के अलावा फसल के बोआई, मड़ाई, रोपाई व सिंचाई के लिए भी कई तरह के यंत्र इस्तेमाल में लाए जाते हैं.

चूंकि ट्रैक्टर का इस्तेमाल हमेशा मिट्टी व पानी में किया जाता है और इस में ज्यादातर पुर्जे घूमने वाले होते हैं, इसलिए इन के कलपुर्जो व इस से चलने वाले यंत्रों की साफसफाई पर ध्यान देने से यंत्रों की उम्र बढ़ जाती है. ट्रैक्टर का इस्तेमाल करने वाले किसानों को चाहिए कि वे अपने ट्रैक्टर की देखभाल करते रहें, इस के लिए उन्हें निम्नलिखित सावधानियों की जरूरत पड़ेगी :

सर्विस : ट्रैक्टर द्वारा लिए जाने वाले कृषि कार्यों में किसी तरह की समस्या न आए इस के लिए यह जरूरी हो जाता है कि ट्रैक्टर की समयसमय पर सर्विस कराई जाती रहे. एसपीआटोमोबाइल्स बस्ती के मालिक अखिलेश दूबे का कहना है कि ट्रैक्टर से लंबे समय तक काम लेने के लिए हमें इंजन आयल की जांच करते रहना चाहिए और इंजन को ठंडा करने के लिए उपयोग में लाए जाने वाले कूलैंट के स्तर की भी जांच करते रहना चाहिए. अगर किसान को लगता है कि कूलैंट की मात्रा कम तो उस मात्रा को समय से पूरा करते रहें. इस के अलावा आगे की एक्सेल व पिछली बैरिंग पर ग्रीस लगा कर चिकना करते रहना जरूरी है, जिस से ट्रैक्टर में किसी तरह की समस्या न आए.

अखिलेश दूबे के मुताबिक ट्रैक्टर की सर्विस के लिए जिस कंपनी का ट्रैक्टर इस्तेमाल कर रहे हैं, उस कंपनी के सर्विस सेंटर पर ही सर्विसिंग करानी चाहिए, क्योंकि वहां एक्सपर्ट मैकेनिकों द्वारा ट्रैक्टर की पूरी तरह से जांचपड़ताल के बाद ही सर्विसिंग की जाती है. वे ट्रैक्टर के हाइड्रोलिक सिस्टम की जांच, बैटरी की जांच, टायरों में हवा के स्तर की जांच क्लच व ब्रेक पैडल की जांच करने के साथ ही ढीले नटबोल्ट्स को कस कर ट्रैक्टर की कमियों को दूर कर देते हैं. किसी भी ट्रैक्टर के लिए यह जरूरी हो जाता है कि इंजन आयल और फिल्टर को बदला जाए. इस के अलावा एयर क्लीनिक की सर्विस करने के साथ ही इंजन आयल व अन्य जरूरी चीजों को सही किया जाता है.

अगर किसान को ट्रैक्टर से खेती करते समय किसी तरह की संचालन समस्या का सामना करना पड़ता है, तो उस में लापरवाही न बरत कर तुरंत ही ठीक किए जाने का प्रयास करना चाहिए, ताकि इंजन या ट्रैक्टर के किसी कलपुर्जे को कोई नुकसान न पहुंचे.

ईंधन बचाव के अपनाएं तरीके : खेती के कामों में ट्रैक्टर का इस्तेमाल  करते समय सही रखरखाव व दिशानिर्देशों को अपना कर 25 फीसदी तक डीजल की बचत कर सकते हैं. इस के लिए सब से पहले हम को यह देख लेना चाहिए कि ट्रैक्टर की फ्यूल टंकी, फ्यूल पंप व फ्यूल इंजेक्टर से किसी तरह का रिसाव न हो रहा हो, क्योंकि प्रति सेंकेंड 1 बूंद रिसाव से साल भर में तकरीबन 2000 लीटर डीजल की बरबादी होती है.

एसपी आटोमोबाइल व जानडियर ट्रैक्टर के सर्विस सेंटर से जुड़े सुनील सिंह का कहना है कि जब भी आप किसी जगह पर रूकें तो इंजन को बंद कर देना चाहिए, क्योंकि ट्रैक्टर को चालू हालत में रखने में प्रति घंटे 1 लीटर से अधिक का नुकसान होता है. इस के अलावा डीजल की बचत के लिए ट्रैक्टर को हमेशा सही गियर में ही चलाना चाहिए. अगर ट्रैक्टर से अधिक धुंआ निकल रहा है, तो यह समझ लेना चाहिए कि ट्रैक्टर ओवरलोडिंग का शिकार है इसलिए यह ध्यान रखना चाहिए कि ट्रैक्टर की कूवत से ज्यादा बड़े साइज वाले कृषि यंत्रों का इस्तेमाल न किया जाए. इस के बावजूद ट्रैक्टर से लगातार धुंआ निकल रहा है, तो ट्रैक्टर के सर्विस सेंटर से ट्रैक्टर के नोजल्स व इंजेक्शन पंप की जांच करानी चािहए.

सुनील सिंह के मुताबिक ट्रैक्टर में हमेशा अच्छे एयर फिल्टर का इस्तेमाल करना चाहिए, क्योंकि ट्रैक्टर में आने वाले धूल व मिट्टी के कण ट्रैक्टर के इंजन को नुकसान पहुंचा सकते हैं, जिस से ट्रैक्टर के पिस्टन, रिंग्स और सिलेंडर बोर्स जल्दी खराब होते हैं. ट्रैक्टर में हमेशा अच्छी क्वालिटी वाले डीजल का इस्तेमाल करना चाहिए, क्योंकि गंदे डीजल से डीजल की खपत ज्यादा होती है.

जानडियर ट्रैक्टर से जुड़े सर्विस मैन बैजनाथ का कहना है कि हमें ट्रैक्टर के इस्तेमाल के समय ईंधन की बचत पर हमेशा सतर्क रहना चाहिए. इस के लिए यह ध्यान देना चाहिए कि टायरों में जरूरत से ज्यादा दबाव न हो या टायर घिसे हुए न हों, क्योंकि इस से पहिए फिसलने लगते हैं और ईंधन की ज्यादा बरबादी होती है. साथ ही अगर हम ट्रैक्टर के साथ धुलाई के लिए ट्रौली का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो यह ध्यान देना चाहिए कि वह कभी भी ओवरलोड न हो. इस के अलावा क्लच पैडल, फ्री न होने के कारण भी स्लिप होता है, जिस से यह समय से पहले खराब हो जाता है और ईंधन की बरबादी होती है. इन बातों पर ध्यान दे कर हम अपने ट्रैक्टर पर होने वाले ईंधन खर्च में कमी ला सकते हैं.

Tractor

अच्छी ड्राइविंग की डालें आदत : ट्रैक्टर को लंबे समय तक किसी खराबी से बचाने के लिए अच्छे ड्राइवर की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि अच्छी ड्राइविंग भी ट्रैक्टर के कलपूर्जे व इंजन को खराब होने से बचाती है. इसलिए जब भी ट्रैक्टर की ड्राइविंग कर रहे हों तो यह ध्यान दें कि ट्रैक्टर हमेशा न्यूट्रल गियर में हो तभी चालू करें. इस के पहले यह तय कर लें कि ट्रैक्टर के साथ जुड़े उपकरणों के आसपास कोई भी व्यक्ति मौजूद नहीं है. ट्रैक्टर को चालू हालत में छोड़ कर कभी भी ड्राइविंग सीट नहीं छोड़नी चाहिए. ट्रैक्टर को कभी लहराते हुए नहीं चलाना चाहिए क्योंकि इस से दुर्घटना हो सकती है.

मैकेनिक विजय मिश्र का कहना है कि हमें ट्रैक्टर के साथ जोड़ कर खेती के काम में लाए जाने वाले उपकरणों का रखरखाव भी सही तरीके से करना चाहिए, क्योंकि ट्रैक्टर के साथ जुड़ कर चलने वाले कृषि यंत्र में खराबी भी ट्रैक्टर के ऊपर बुरा प्रभाव डालती है.

हम ट्रैक्टर से जुड़ी छोटीछोटी सावधानियों को अपना कर न केवल ट्रैक्टर की सुरक्षा कर सकते हैं, बल्कि उस पर आने वाले खर्च से भी बच सकते हैं.

Cotton : कपास के खास रोग और उन का इलाज

Cotton : भारत में कपास के 25 से भी ज्यादा रोग अलगअलग कपास उगाने वाले राज्यों में पाए जाते हैं. इन रोगों में खास हैं छोटी अवस्था में पौधों का मरना, जड़गलन, उकठा रोग और मूलग्रंथि सूत्रकृमि रोग.

पौध का मरना : जमीन में रहने वाली फफूंदों जैसे राईजोक्टोनिया, राइजोपस, ग्लोमेरेला व जीवाणु जेनथोमोनास के प्रकोप से कपास के बीज उगते ही नहीं हैं. अगर उग भी जाते हैं, तो जमीन के बाहर निकलने के बाद छोटी अवस्था में ही मर जाते हैं, जिस से खेतों में पौधों की संख्या घट जाती है व कपास के उत्पादन में कमी आ जाती है.

रोकथाम

* अच्छे किस्म के बीज का इस्तेमाल करना चाहिए.

* बोआई से पहले फफूंदनाशी, थिराम, विटाबेक्स, कार्बंडाजिम व एंटीबायोटिक्स स्ट्रेप्टोसाइक्लिन से बीजों का उपचार करना चाहिए.

जड़गलन : यह रोग देशी कपास का भयंकर रोग है. आमतौर पर इस बीमारी से 2-3 फीसदी नुकसान हर साल होता है. यह रोग जमीन में रहने वाली राइजोक्टोनिया सोलेनाई व राइजोक्टोनिया बटाटीकोला नामक फफूंद से होता है. रोग लगे पौधे एकदम से सूखने लगते हैं और मर जाते हैं. बीमार पौधों को आसानी से उखाड़ा जा सकता है. जड़ सड़ने लगती है व छाल फट जाती है. बुरी तरह से रोग लगे पौधे की जड़ अंदर से भूरी व काली हो जाती है. हवा में और जमीन में ज्यादा नमी व गरमी रहने से व सिंचाई से सही नमी का वातावरण मिलने पर बीमारी का असर बढ़ता है. बीमारी आमतौर पर पहली सिंचाई के बाद पौधों की 35 से 45 दिनों की उम्र में दिखना शुरू हो जाती है.

रोकथाम

* मई के पहले पखवाड़े में बोआई से बीमारी कम होती है. ज्योंज्यों पछेती बोआई करते हैं, बीमारी बढ़ती है.

* बीजोपचार कार्बंडाजिम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करना चाहिए.

* कपास और मोठ की मिलीजुली खेती से बीमारी का असर कम होता है.

* बीजोपचार बायोएजेंट ट्राइकोडर्मा

4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करने से रोग का असर कम होता है.

* मिट्टी का उपचार जिंकसल्फेट

24 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से करने

से बीमारी में कमी आती है.

* देसी कपास की आरजी 18 और सीए 9, 10 किस्मों में यह रोग कम लगता है.

* ट्राइकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद में मिला कर बोआई से पहले जमीन में देने से रोग में कमी आती है.

उकठा : यह रोग भारत के मध्य पश्चिम इलाकों में पाया जाता है. मध्य प्रदेश, कर्नाटक व दक्षिण गुजरात के काली मिट्टी वाले इलाकों में यह रोग बहुत होता है. रोग लगे पौधे छोटी अवस्था में मर जाते हैं या छोटे रह जाते हैं. फूल छोटे लगते हैं व उन का रेशा कच्चा होता है. राजस्थान में देसी कपास में यह बीमारी श्रीगंगानगर व मेवाड़ कपास क्षेत्रों में ज्यादा होती है. यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्योरम वाइन्फेटस नामक फफूंद से होता है. रोगी पौधे को चीर कर देखने पर ऊतक काले दिखाई देते हैं.

रोकथाम

* जिन इलाकों में यह रोग होता है वहां गोसिपियम आरबोरियम की जगह पर गोसिपियम हिरसुटम कपास उगाएं.

* जड़ गलन की रोकथाम के लिए बीजोपचार कार्बंडाजिम से व भूमि उपचार जिंकसल्फेट से करना चाहिए. इस से यह रोग कम होता है.

मूलग्रंथि रोग : यह रोग मिलाईरोगायनी नामक सूत्रकृमि के पौधों की जड़ों पर आक्रमण करने से पैदा होता है. इस रोग के कारण कपास की जड़ों की बढ़वार रुक जाती है व छोटीछोटी गांठें दिखाई देने लगती हैं. इस वजह से पौधा जमीन से पानी व दूसरे रासायनिक तत्त्वों का इस्तेमाल ठीक तरह से नहीं कर पाता है. पौधा छोटा रह जाता है और पीला पड़ कर व सूख कर मर जाता है.

रोकथाम

* जिन खेतों में सूत्रकृमि का असर देखने को मिले उन में दोबारा कपास न बोएं.

* गरमी के मौसम में खेत में गहरी जुताई करें व खेतों को गहरी धूप में तपाएं, ताकि सूत्रकृमि मर जाएं.

* फसलचक्र में ज्वार, घासे, रीज्का की बोआई करें.

* बोआई से पहले रोग लगे खेतों का कार्बोफ्यूरान 3 जी से 45 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपचार करें.

Cotton

कपास की पत्तियों पर लगने वाले रोग

कपास की फसल में फफूंद, जीवाणु व वायरस के असर से पत्तियों पर कई बीमारियां लग जाती हैं. इन रोगों की वजह से पौधों की पत्तियां भोजन ठीक तरह से नहीं बना पातीं. कपास के डोडे सड़ जाते हैं, फल कम बनते हैं व कपास के रेशे की किस्म अच्छी नहीं रहती है. पत्तियों की मुख्य बीमारियां हैं शाकाणु झुलसा, पत्तीधब्बा व लीफ कर्ल.

शाकाणु झुलसा : कपास का यह भयंकर रोग जेंथोमोनास एक्सोनोपोडिस मालवेसिएरम जीवाणु बैक्टीरिया द्वारा होता है. यह पौधों के सब हिस्सों में लग सकता है. इस रोग को कई नामों से जाना जाता है. रोग लगने पर बीज पत्तों पर गहरे हरे रंग के पारदर्शक धब्बे दिखाई देते हैं.

ये शाकाणु धीरेधीरे नई पत्तियों की ओर फैलते हैं और पौधा किशोरावस्था में ही मुरझा कर मर जाता है. इस को सीडलिंग ब्लाइट कहते हैं. जब फसल करीब 6 हफ्ते की हो जाती है, तो पत्तियों पर छोटेछोटे पानी के धब्बे बनने लगते हैं. ये धीरेधीरे बड़े हो कर कोणीय आकार लेने लगते हैं. इसीलिए इसे कोणीय पत्ती धब्बा रोग या एंगुलर लीफ स्पौट कहते हैं.

पत्तियों की नसों में भी यह रोग फैल जाता  है व उन के सहारे बढ़ता रहता है. इसे बेनबलाइट कहते हैं. रोग का जोर ज्यादा होने पर पत्तियां सूख कर गिरने लगती हैं. जब रोग तने और शाखाओं पर आक्रमण करता है, तो काला कर देता है.

रोगी भाग हवा चलने पर टूट जाता है. डोडियों पर भी रोग का हमला हो सकता है. डोडियों पर नुकीले और तिकोने धब्बे हो जाते हैं. धब्बों से सड़ा हुआ पानी सा निकलता है. ज्यादा धब्बे होने पर रेशे की किस्म पर भी असर पड़ता है.

* अमेरिकन कपास की बोआई 1 मई से 20 मई के बीच करनी चाहिए.

* कपास के बीजों को 8 से 10 घंटे तक स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या प्लांटोमाइसीन 100 पीपीएम घोल में डुबो कर उपचारित करना चाहिए. यदि डिलिटेंड बीज है, तो उसे केवल 2 घंटे ही भिगोना चाहिए.

* फसल पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या प्लांटोमाइसीन 50 पीपीएम और कापरआक्सीक्लोराइड 0.3 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए. इसे 15 दिनों पर दोहराना चाहिए.

पत्ती धब्बा रोग : यह रोग कपास में आल्टरनेरिया, मायरोथिसियम, सरकोस्पोरा, हेल्मिन्थोस्पोरियम नामक फफूंदों से होता है. रोग के लक्षण पत्तों पर धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं. धीरेधीरे धब्बे बड़े होने से पत्ती का पूरा भाग रोग ग्रसित हो जाता है. नतीजतन कपास की पत्तियां गिरने लगती हैं व उपज में कमी आ जाती है.

रोकथाम : बीज को बोने से पहले बीजोपचार करना चाहिए व फसल पर रोग के लक्षण दिखाई पड़ते ही कौपरआक्सीक्लोराइड या मेंकोजेब 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.

पत्ती मुड़न लीफ कर्ल : कपास का पत्ती मुड़न रोग सब से पहले 1993 में श्रीगंगानगर में किसानों के खेतों में देखा गया था. अब यह रोग काफी फैल गया है. कपास का लीफ कर्ल रोग जैमिनी वायरस से होता है व सफेद मक्खी से फैलता है.

यह रोग बीज व भूमि जनित नहीं है. रोग के लक्षण कपास की ऊपरी कोमल पत्तियों पर दिखाई पड़ते हैं. पत्तियों की नसें मोटी हो जाती हैं, तो पत्तियां ऊपर की तरफ या नीचे की तरफ मुड़ जाती हैं. पत्तियों के नीचे मुख्य नसों पर छोटीछोटी पत्तियों के आकार दिखाई पड़ते हैं. रोगी पौधों की बढ़वार रुक जाती है, कलियां व डोडे झड़ने लगते हैं और उपज में कमी आ जाती हैं.

रोकथाम

* रोगरोधी किस्में आरएस 875, एलआर 2013, ए 5188, शंकर जीके 151, एलएचएच 144, आरजी 8, आरजी 18 की बोआई करनी चाहिए.

* खेतों से पीलीभुटी, भिंडी, होलीहाक व जीनिया वगैरह पौधे और खरपतवार निकाल देने चाहिए.

* रोग ग्रसित पौधों में रोग के लक्षण नजर आते ही उन्हें नष्ट कर देना चाहिए.

* समय पर सिस्टेमिक कीटनाशी से वायरस फैलाने वाले कीटों को नष्ट करना चाहिए ताकि रोग आगे नहीं फैल सके.

पशुपालन व कृषि में उन्नत तकनीकों (Advanced Techniques) को अपनाए

Advanced Techniques : भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नई दिल्ली के संस्थान केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान अविकानगर तहसील मालपुरा, जिला टोंक (राजस्थान) की अनुसूचित जनजाति उपयोजना (टीएसपी) के माध्यम से सिकराय तहसील के ग्राम पंचायत घूमना की कड़ी की कोठी चौराहे पर किसान वैज्ञानिक संगोष्ठी एवं खरीफ की फसलों के गुणवत्ता बीज वितरण कार्यक्रम का आयोजन 9 जून, 2025 को किया गया.

‘विकसित कृषि संकल्प अभियान’ के अंतर्गत इस कार्यक्रम में अविकानगर संस्थान एवं कृषि विज्ञान केंद्र दौसा के वैज्ञानिक एवं कर्मचारीयों ने भी किसानों को उन्नत और नवीन कृषि तकनीक सहित पशुपालन की खास तकनीकियों के बारे में भी जानकारी दी.

केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान राजस्थान के टोंक जिले के मालपुरा तहसील में स्थित है, जो साल 1962 से राजस्थान राज्य के किसानों के साथ देश के किसानों को भेड़बकरी व खरगोश पालन पर प्रशिक्षण, उन्नत नस्ल के पशुओं का वितरण, उन का वैज्ञानिक प्रबंधन के साथ विभिन्न सेवाएं प्रदान कर रहा है. इस 9 जून के किसान वैज्ञानिक संगोष्ठी कार्यक्रम में केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान के निदेशक व स्टेट कोऔर्डिनेटर विकसित कृषि संकल्प अभियान, डा. अरुण कुमार तोमर मुख्य अतिथि के रूप में कार्यक्रम मे शामिल हुए.

इस कार्यक्रम में उन के साथ कृषि विज्ञान केंद्र दौसा के प्रभारी डा. बनवारी लाल जाट एवं उन की टीम के सदस्य डा. अक्षय चितोड़ा, डा. देवेंद्र मीना अविकानगर के पशु कार्यिकी, जैव रसायन विभाग के अध्यक्ष डा. सत्यवीर सिंह डांगी, अविकानगर संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक टीएसपी नोडल अधिकारी डा. अमरसिंह मीना, डा. चंदन गुप्ता, पंचायत समिति सिकराय के सरपंच संघ के अध्यक्ष विपिन मीना, घूमना के साथ आसपास की पंचायतो के सरपंचों ने भी विशिष्ट अतिथि के रूप में भाग लिया.

इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि डा. अरुण कुमार तोमर ने उपस्थित किसानों को वर्तमान मौसम की चुनौतियां व भविष्य की संभावनाओं के लिए कृषि एवं पशुपालन की नवीनतम तकनीकियों को अपनाने के लिए विस्तार से चर्चा की. साथ ही, रूरल इंडिया को रियल इंडिया बनाने के लिए विकसित कृषि की ओर लोगों को बढ़ने का आह्वान किया. इस के साथ ही, अपने संस्थान के पशु भेड़ एवं बकरी को वर्तमान समय के लिए सब से उपयुक्त पशु बताते हुए ऐसे पशुओं को किसानों का एटीएम बताया. जिस से किसी भी समय मांस एवं दूध बेच कर पैसा कमाया जा सकता है.

इस कार्यक्रम में उपस्थित किसानों को वैज्ञानिक भेड़बकरी पालन प्रशिक्षण ले कर पशुओं के विभिन्न पालन तकनीकियों को अपने उपलब्ध संसाधनों के अनुसार अपनाने के लिए प्रेरित किया गया. अविकानगर के निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर ने उपस्थित किसानों को बताया कि संस्थान की टीएसपी उपयोजना में जनजाति भेड़पालक किसानों को प्राथमिकता देते हुए हमने आप के क्षेत्र के जनजाति भेड़पालकों को संस्थान की गतिविधियों के बारे में बताया है, और आगे भी हम जनजाति भेड़पालक किसानों को प्राथमिकता के आधार पर संस्थान से जोड़ रहे हैं, जो भी जनजाति किसान भेड़पालन से जुड़े हैं, वो मेरे संस्थान के अधिकारियों से संपर्क कर इस टीएसपी उपयोजना का लाभ उठा सकते हैं.

अंत में निदेशक द्वारा उपस्थित किसानों को भारत सरकार की राष्ट्रीय पशुधन मिशन योजना के बारे में बताया गया. साथ ही, इस को प्रोत्साहन के रूप में लेते हुए अपने छोटे पशुओं के पालन को उद्यमिता विकास की ओर ले जाने के लिए किसानों को जरूरी सुझाव दिए गए. इस कार्यक्रम में कृषि विज्ञान केंद्र के प्रभारी डा. बनवारी लाल जाट द्वारा भी वर्तमान खेती की समस्या पर किसानो के सवाल का जवाब दिया गया.

Advanced Techniquesकेवीके की वैज्ञानिक टीम द्वारा नकली खाद बीज एवं दवाइयों के बारे में किसानों को जागरुक करते हुए कार्यक्रम के बाद वितरित की जाने वाली विभिन्न बारिश फसलों (मुंग, ज्वार, तिल, ग्वार एवं किचन गार्डन के लिए सब्जियों की किट) की किस्म के बारे अधिक उत्पादन के लिए के लिए आवश्यक सुझाव दिए.

इस कार्यक्रम में उपस्थित वैज्ञानिक और प्रगतिशील किसानों द्वारा कृषि एवं पशुपालन योजनाओं के बारे में मौजूद किसानों को जानकारी दी गई. अविकानगर संस्थान की टीएसपी उपयोजना के नोडल अधिकारी डा. अमर सिंह मीना ने बताया कि आज के कार्यक्रम में राष्ट्रीय बीज निगम लिमिटेड, नई दिल्ली की बारिश के मौसम की विभिन्न फसलों जैसे तिल (किस्म- GT-6 1.5 क्विंटल बीज), मूंग (किस्म MH-1142 15 क्विंटल बीज), ज्वार (किस्म CSV-41 4 क्विंटल बीज), ग्वार (किस्म HG-2-20 10 क्विंटल बीज) और बेहतर पोषण के लिए किचन गार्डन सब्जियों किट आदि का भी वितरण मौजूद अतिथियों द्वारा किया गया.

इस प्रकार कुल 30.5 क्विंटल (800 बीज पैकेट) गुणवत्ता युक्त बीज का प्रथम लाइन प्रदर्शन मौजूद किसानों के खेत पर लगेंगे. अविकानगर संस्थान द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में दौसा जिले की विभिन्न तहसील सिकराय, बहरावड़ा, बैजूपाड़ा, सिकंदरा आदि के विभिन्न गांवो (घूमना, जयसिंहपुरा, पाटन, बुजेट, गीजगढ़, गढ़ी, बनेपुरा, जयसिंहपुरा, नामनेर, सिकराय, कैलाई, गनीपुर, पिलोड़ी, खेड़ी रामला, निकटपुरी, दंड खेड़ा, मानपुर, लोटवाड़ा, नांदरी, गिरधारीपुरा, नाहरखोरा, लाखनपुरा, बसेड़ी, भावगढ़, गेरोटा, चांदपुर, आगवली, गेरोज, मोहलई, गडोरा आदि गांव ) के 600 से ज्यादा जनजाति किसानों ने कार्यक्रम मे पहुंच कर दी गई जानकारी से लाभान्वित हुए और  उन को गुणवत्ता बीज का वितरण भी किया गया.

इस कार्यक्रम के समापन पर सरपंच घूमना एवं सिकराय सरपंच संघ के अध्यक्ष श्रीमान विपिन मीना ने कार्यक्रम में पधारे सभी अतिथियों एवं गांव वासियों को धन्यवाद दिया और आगे भी इस तरह के कार्यक्रम किसानों के लिए उपयोगी बताते हुए आयोजित करने का निवेदन निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर से किया गया.

इस किसान वैज्ञानिक संगोष्ठी कार्यक्रम को आयोजित करने के लिए अविकानगर संस्थान के वैज्ञानिक डा. चंदन गुप्ता, सहायक कर्मचारी छुट्टन लाल मीना, नरेश बिश्नोई, विष्णु भटनागर समेत  घूमना गांववासियों ने अपना पूरा सहयोग दिया.

Pulses : किसान बढ़ाएं दलहनी फसलें

Pulses : दलहन की खेती को बढ़ावा देने के लिए साल 2016 को अंतर्राष्ट्रीय दलहन साल के तौर पर मनाने का ऐलान किया गया है. अपने देश में दालों की कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं. लिहाजा दलहन की ज्यादा पैदावार के बावजूद आम आदमी  के लिए दाल खाना मुश्किल हो गया है.

कहने को भारत दुनिया भर में सब से बड़ा दाल पैदा करने वाला देश है, लेकिन आम आदमी की थाली दाल से खाली है. दूसरे देशों को दालें भेजने की जगह, हम वहां से दालें मंगवाते हैं.

दरअसल, भारत में दालों की पैदावार, मांग से बहुत कम है. आजादी के बाद बीते सालों में दलहनी फसलों की खेती को बढ़ावा देने के नाम पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, जिस से हमारा देश दालों के उत्पादन में आगे होता. ऊपर से कालाबाजारिए दालों की जमाखोरी से कीमतें बढ़ा कर खूब पैसे बनाते हैं.

दलहन फंसी दलदल में

अपने देश में दालों की सालाना खपत लगभग 225 लाख टन है, जबकि दालों का उत्पादन 175 लाख टन से नीचे है. मजबूरन लाखों टन दालें हर साल दूसरे देशों से मंगवानी पड़ती हैं. लिहाजा दलहनी फसलों का रकबा और पैदावार बढ़ाने की जरूरत है.

Pulse Cropsदलहनी फसलों की किसानों को मिलने वाली कीमत में कम बढ़ोतरी होने से भी ज्यादातर किसान इन की खेती नहीं करना चाहते हैं.

दलहन की पैदावार में मध्य प्रदेश पहले, महाराष्ट्र दूसरे व राजस्थान तीसरे नंबर पर है. देश में हो रहे दालों के कुल उत्पादन में इन राज्यों की हिस्सेदारी क्रमश: 25, 16 व 12 फीसदी है. दलहन की खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकारी महकमे दिनरात एक करने का नाटक करते हैं, जबकि असल में दलहन की बढ़त के लिए सरकारी विभाग कुछ नहीं कर रहे हैं.

दलहनी फसलों का रकबा, उन की औसत उपज व उत्पादन घट रहा है. दरअसल, हमारे देश के ज्यादातर किसानों को आज भी खेती की नई तकनीकों के बारे में कुछ नहीं पता है.

लिहाजा वे सिंचित व उपजाऊ जमीन में गेहूं, गन्ना व धान और कम उपजाऊ व असिंचित जमीन में दलहनी फसलें उगाते हैं. उन्हें अच्छी क्वालिटी के बीज सही समय व सही कीमत पर आसानी से नहीं मिलते. कई बार सूखा व ओले पूरी फसल बरबाद कर देते हैं. लिहाजा दलहनी फसलें अकसर दूसरी फसलों के मुकाबले पीछे रह जाती हैं.

ऐसे में जरूरी है कि दलहनी फसलों की खेती में हो रही इस कमी की असली वजहें खोजी जाएं और उन्हीं के मुताबिक मौजूदा सभी मामले सुलझाए जाएं.

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सरकार ने दलहनी फसलों को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय कृषि विकास योजना व राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन में दालों पर खास ध्यान देते हुए उन्हें शामिल कर रखा है. इस के अलावा एक्सेलेरेटेड पल्स प्रोग्राम है जिस में नीति आयोग मदद कर रहा है. लेकिन फिर भी दालों की पैदावार नहीं बढ़ रही है. दलहनी फसलों के अच्छे बीजों के उत्पादन व उन के बंटवारे का सही इंतजाम नहीं है. दलहनी फसलों के बीज किसानों की करीब 25 फीसदी मांग ही पूरी कर पाते हैं.

आमतौर पर दलहनी फसलों की ओर किसानों का झुकाव कम रहता है. इस के कई कारण हैं जैसे कीड़े, बीमारी, खरपतवार, खराब मौसम, कम उपज व ढुलमुल खरीद व्यवस्था.

फायदेमंद हैं दलहनी फसलें

ज्यादातर किसान यह सच नहीं जानते कि दलहनी फसलें उगाने से किसानों को काफी फायदा होता है. इस से एक तो उपज की कीमत अच्छी मिलती है, साथ ही मिट्टी की उपजाऊ ताकत भी बढ़ती है. दरअसल, दलहन की जड़ों में मौजूद बैक्टीरिया हवा से नाइट्रोजन खींच कर जमीन में जमा करते रहते हैं. इसलिए फसल में कैमिकल उर्वरक डालने का खर्च बचता है और जमीन को कुदरती खाद का फायदा मुफ्त में मिल जाता है.

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बहुत से किसान नहीं जानते कि दलहनी फसलों से खरपतवारों से भी छुटकारा मिलता है. माहिरों का कहना है कि लगातार गेहूं, गन्ना व धान जैसी फसलें लेते रहने से खेतों में कई तरह की घासफूस हो जाती हैं, लेकिन सनई, ढेंचा, मूंग व उड़द आदि फसलें शुरुआत में खुद बहुत तेजी से फैल कर जमीन को ढक लेती हैं. लिहाजा खेत में उगे खरपतवारों को पूरी हवा, रोशनी व पानी आदि न मिलने से बढ़ने का मौका नहीं मिलता.

दलहनी फसलों की पकी हुई फलियों से मिली दालों में खनिज और विटामिनों से भरपूर लौह व जिंक की अच्छी मात्रा पाई जाती है. इन्हें फलियों  से निकालने के बाद जो कचरा बचता है, उसे चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. दालों को देश के हर इलाके के भोजन में पसंद किया जाता है.

दलहनी फसलों के बारे में ट्रेनिंग, सलाह व बीज आदि देने के लिए कानुपर में भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान काम कर रहा है. इस संस्थान के माहिरों ने अब तक ज्यादा उपज देने वाली 35 ऐसी अच्छी व रोगरोधी किस्में निकाली हैं, जिन्हें अलगअलग इलाकों की मिट्टी व आबोहवा के अनुसार अपनाया जा सकता है.

लगाएं मिनी दाल मिल

फिर भी नकदी फसलों के मुकाबले दलहनी फसलों की खेती में ज्यादातर किसानों को फायदा नजर नहीं आता. लिहाजा उन्हें इस बात के लिए भी जागरूक किया जाए कि वे अपनी उपज की कीमत बढ़ाएं. तैयार उपज

मंडी ले जा कर आढ़तियों को न सौंपें. आटा चक्की, धान मशीन व तेल के स्पैलर लगाने के साथसाथ किसान दाल की प्रोसेसिंग भी करें. ज्यादातर किसान पोस्ट हार्वेस्ट टैक्नोलौजी यानी कटाई बाद की तकनीक नहीं जानते.

दाल बनाने का काम मुश्किल नहीं है. लिहाजा किसान तकनीक सीखें व अकेले या मिल कर मिनी दाल मिल लगाएं. दालें तैयार करें और थोक व खुदरा दुकानदारों को बेचें. होटलों, कैंटीन व मैस आदि को सप्लाई करने पर किसानों को उन की दलहनी उपज की कीमत ज्यादा मिलेगी.

मिनी दाल मिल की जानकारी के लिए किसान उद्यमी निदेशक, केंद्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी संस्थान मैसूर; निदेशक, केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान भोपाल; निदेशक, केंद्रीय फसल कटाई उपरांत की अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, लुधियाना या निदेशक, भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर से संपर्क कर सकते हैं.

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उम्दा किस्मों के बीज

बहुत से किसान दलहन की अच्छी किस्मों के प्रमाणित बीज लेने के लिए इधरउधर धक्के खाते रहते हैं, लेकिन उन्हें आसानी से अच्छे बीज नहीं मिलते. लिहाजा बीज लेने के इच्छुक किसान नेशनल सीड कारपोरेशन (एनएससी), उत्तर प्रदेश बीज विकास निगम, नजदीकी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि विज्ञान केंद्र, राज्य सरकार के सीड स्टोर, सहकारी बीज भंडार या भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान से संपर्क कर सकते हैं.

दलहन के बारे में ज्यादा जानकारी व सलाह के लिए इच्छुक किसान अपने जिले के कृषि विभाग, नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र या इस पते पर संपर्क कर सकते हैं:

निदेशक, भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर  208024 (उत्तर प्रदेश).

फोन : 0512-2570264

दलहन की उम्दा किस्में

भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर के माहिरों ने दलहनी फसलों की कई ऐसी उम्दा किस्में निकाली हैं, जो ज्यादा पैदावार देती हैं और उन में कीड़े व बीमारी लगने का खतरा भी नहीं रहता. इन में चने की आईपीसी 2005-62, 2004-1, 2004-98, 97-67, उज्जवल, शुभ्रा, डीसीपी 92-3 और मसूर की प्रिया, नूरी, शेरी, अंगूरी व आईपीएल 316, 526 और मूंग की मोती, सम्राट, मेहा व आईपीएम 0-3 और उड़द की बसंत बहार, उत्तरा, आईपीयू 2-43 व 07-3 और मटर की प्रकाश, विकास, आर्दश, अमन, आईपीएफ 4-9 व आईपीएफडी 6-3, 10-12 और अरहर की आईपीए 203, पूसा 992 व आईसीपीएल 88039 खास किस्में हैं.

Animal Health : पशु स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन

Animal Health : भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा संचालित विकसित कृषि संकल्प अभियान के अंतर्गत भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (भा.कृ.अनु.प.)-केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान, अविकानगर द्वारा 05 जून, 2025 को टोंक जिले की मालपुरा तहसील के गरजेड़ा, पिपल्या एवं चांदसेन गांवों में किसान संगोष्ठी एवं पशु स्वास्थ्य शिविरों का सफल आयोजन किया गया.

जिन में कुल 364 किसानों में से 241 पुरूष एवं 123 महिला किसानों ने सक्रिय रूप से भाग लिया और वैज्ञानिकों से सीधी बातचीत की. इस अवसर पर संस्थान के निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर, अभियान के नोडल अधिकारी डा. एलआर गुर्जर सहित संस्थान के वैज्ञानिकों ने विभिन्न विषयों पर किसानों का मार्गदर्शन किया.

इन शिविरों में प्राकृतिक खेती के साथ जीवामृत बना कर भूमि को कैसे सुधार सकते हैं, जैविक कीटनाशक, मृदा स्वास्थ्य, बीजोपचार, जल प्रबंधन व सुक्ष्म सिंचाई, डिजिटल कृषि, पशुओं में होने वाली प्रजनन समस्याएं, पशु आहार और सरकारी योजनाओं की जानकारी जैसे विषयों पर चर्चा की गई. साथ ही, बीमार पशुओं की जांच व उपचार भी किया गया.

इस कार्यक्रम के दौरान किसानों ने अपने अनुभव साझा करते हुए कई अहम समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया. जिन में प्रमुख रूप से शामिल हैं टोंक जिले में घटती दलहनी फसलें, ऊसर भूमि एवं खारे पानी की समस्या, न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर फसल की खरीद में देरी, नकली एवं महंगे उर्वरक, प्रमाणित बीजों की कमी, पशु चिकित्सा सेवाओं का अभाव, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में मुआवजे की अनुचित कटौती, मुआवजा प्राप्ति की समय सीमा तय किए जाने की आवश्यकता समेत किसानों ने सरकार से इन समस्याओं के शीघ्र समाधान के लिए जरूरी कदम उठाने की मांग की. इसी कड़ी में ग्राम गरजेड़ा में रात्रि चौपाल का आयोजन किया गया, जिस में संस्थान के वैज्ञानिकों ने ग्रामीणों से सीधे बातचीत कर उन की समस्याएं सुनीं और समाधान के लिए आगे की रणनीति पर विचारविमर्श किया.

इस अभियान के अंतर्गत नागौर जिले की मेड़ता सिटी तहसील के ग्राम मोकलपुर में 5 जून, 2025 को किसान संवाद कार्यक्रम का आयोजन किया गया. इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि कैबिनेट मंत्री, जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी एवं भूजल विभाग राजस्थान सरकार, कन्हैया लाल चौधरी, किसान आयोग अध्यक्ष, सीआर चौधरी, समन्वयक विकसित कृषि संकल्प अभियान, राजस्थान, डा. अरुण कुमार तोमर, स्थानीय विधायक, जिला प्रमुख एवं उपजिला प्रमुख सहित अन्य जनप्रतिनिधि उपस्थित रहे.

इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में किसानों ने भाग लिया. साथ ही, अभियान के अंतर्गत डूंगरपुर  एवं दौसा जिलों में भी कृषि विज्ञान केंद्र की टीमों के साथ मिल कर केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान अविकानगर द्वारा डूंगरपुर जिले के 6 गांव (आंतरी, पाड़ला मोरु, डोजा, गोड़ा फला, आरा व सूखा पादर) से कुल 949 प्रतिभागी शामिल हुए. दौसा जिले के 3 गांव (ठिकरिया, हापावास व थूमड़ी) से 694 प्रतिभागी उपस्थित रहे. दोनों जिलों से कुल 1,550 किसान (615 महिलाएं, 935 पुरुष) व 93 अन्य मिला कर कुल 1,643 प्रतिभागियों ने भाग लिया.

Horticultural : लाखों किसानों तक पहुंचा भारतीय बागबानी अनुसंधान संस्थान 

Horticultural : भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने कृषि और किसान कल्याण विभाग, भारत सरकार के सहयोग से आईसीएआर संस्थानों, कृषि विश्वविद्यालयों, केवीके और राज्य सरकार के विभागों को शामिल करते हुए 29 मई से 12 जून, 2025 तक ‘विकसित कृषि संकल्प अभियान’ के नाम से देश भर में बड़े पैमाने पर खरीफ पूर्व अभियान शुरू किया है. पिछले दस दिनों में 1,896 टीमों ने 8,188 गांवों में 8,95,944 किसानों के साथ बातचीत की है.

कर्नाटक में भी वैज्ञानिकों, कृषि और संबद्ध विभाग के अधिकारियों की 70 से अधिक टीम   किसानों के खेतों का दौरा कर रही हैं. दैनिक आधार पर किसानों के साथ बातचीत कर रही हैं और कृषि क्षेत्र के विकास के लिए मांग आधारित और समस्या उन्मुख अनुसंधान कार्यक्रम विकसित करने के लिए किसानों से फीडबैक ले रही हैं. अब तक 639 टीमों ने 2,495 गांवों का दौरा किया है और 2,77,264 किसानों के साथ बातचीत की है.

दिनांक 5 सितंबर, 1967 को स्थापित भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (भा.कृ.अ.प.)- भारतीय बागबानी अनुसंधान संस्थान (भा.कृ.अ.प – भा.बा.अ.सं.), भा.कृ.अ.प. का शीर्ष रैंकिंग वाला संस्थान है. स्थायी बागबानी विकास को प्राप्त करने के मिशन के साथ, संस्थान ने सालों से कई चुनौतियों का सामना करने के बावजूद, आजीविका सुरक्षा, आर्थिक विकास और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. बीते छह दशकों से, भा.कृ.अ.प – भा.बा.अ.सं. ने फलों, सब्जियों, सजावटी पौधों, औषधीय और सुगंधित पौधों और मशरूम पर व्यापक शोध किया है.

जिस का परिणाम 327 किस्में/संकर और 154 प्रौद्योगिकियां के रूप में हमारे सामने है. संस्थान में विकसित उन्नत और तनाव सहनशील किस्मों/संकरों में फल फसलें (38), सब्जी फसलें (149) और फूल और औषधीय फसलें (140) शामिल हैं, जो आज पूरे देश में फैल गई हैं. अब तक संस्थान ने 130 तकनीकें विकसित की हैं, 675 ग्राहकों को 1,550 लाइसेंस दिए गए हैं.

8 जून, 2025 को भा.कृ.अ.प – भा.बा.अ.सं., बेंगलुरु में आयोजित विकसित कृषि संकल्प अभियान कार्यक्रम में केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कर्नाटक के लगभग 500 किसानों को संबोधित किया और उन से कर्नाटक से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर बातचीत भी की.

केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने संबोधन में किसानों के लिए समर्पित योजनाओं और कार्यक्रमों का जिक्र किया. इस के अलावा उन्होंने किसानों की प्रतिक्रिया जानने के लिए किसानों के खेतों का दौरा किया और कर्नाटक में स्थित आईसीएआर संस्थानों द्वारा प्रौद्योगिकी प्रदर्शन भी देखा.

Animal Health : सरसों के तेल से बढ़ेगा पशुओं में दूध उत्पादन

Animal Health : आज देशभर में खाद्यान्न तेल अनेक तिलहनी फसलों से निकाला जाता है और ढेरों ब्रांड इस क्षेत्र में मौजूद हैं. लेकिन सरसों के तेल की आज भी अपनी बादशाहत कायम है. डाक्टर भी सरसों के तेल को अन्य तेलों के मुकाबले अच्छा बताते हैं. इसलिए सरसों के तेल को औषधीय तेल भी कहा जाए तो कोई बुराई नहीं है.

सरसों का तेल मनुष्य स्वास्थ्य के साथसाथ पशुओं के लिए भी बेहद लाभदायक माना जाता है. सरसों का तेल शरीर में दर्द को कम करता है, साथ में रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाता है. सदियों से हमारे किसान और पशुपालक सरसों के तेल की खासियत जानते हैं और वह अपने पशुओं को सेहतमंद रखने के लिए या कोई हल्कीफुल्की पशु बीमारी होने पर नाल के जरीए पशुओं को सरसों का तेल पिलाने का काम करते थे.

आप को बता दें कि सरसों का तेल पशुओं को बीमारियों से बचाता है. सरसों के तेल में अच्छी मात्रा में कार्बोहाइड्रेट होता है, जो शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है. ऐसे में जब गाय भैंस का जन्म हो, तो उन्हें तब भी सरसों का तेल दिया जा सकता है.

पशु का दूध बढ़ाने में है कारगर

इस के लिए दुधारू पशुओं के लिए गेहूं के आटे में सरसों का तेल मिला कर खिलाएं. यह मिश्रण पशुओं में दूध बढ़ाने की दवा के तौर पर काम करता है. ध्यान रहे कि मिश्रण के लिए आटे व सरसों के तेल की मात्रा समान होनी चाहिए. मिश्रण को अपने दुधारू पशुओं को शाम को चारा खिलाने के बाद ही खिलाएं और इस के साथ पानी न पिलाएं. ऐसा करने से आप का पशु पहले की तुलना में अधिक दूध देगा.

सरसों का तेल दर्द में भी देता राहत

यदि आप का पशु किसी कारण से दर्द से पीड़ित है, तो आप अपने पशु को सरसों के तेल का सेवन करवाएं, सरसों के तेल से पशु को दर्द से राहत मिलेगी. इस के साथ ही, सरसों के तेल से पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता में भी बढ़ोतरी होती है और आप का पशु बारबार बीमार नहीं होगा.

इन दिनों मानसून भी देश भर में सक्रिय है और मानसून बारिश के साथ कई बीमारियां भी ले कर आता है. ऐसे में आप को अपने पशुओं का पहले से ही ध्यान रखना चाहिए. क्योंकि, बरसाती मौसम में पशुओं को अनेक बीमारी होने का अंदेशा रहता है. इसलिए आप भी अगर पहले से ही अपने पशु के प्रति सावधानी बरतेंगे, तो आप का पशु बीमार नहीं होगा. जिस के लिए आप अपने पशुओं को सरसों के तेल का सेवन करवाएं, जिस से की पशु में रोग से लड़ने की क्षमता बनी रहेगी और आप का पशु बीमार नहीं पड़ेगा.

सरसों का तेल पशुओं का पाचन भी ठीक करता है और उन का पेट संबंधी बीमारियों से बचाव भी होता है. उन का पाचन तंत्र मजबूत होता है. इस के अलावा जिन पशुओं को भूख नहीं लगती या किसी बीमारी से पीड़ित है, चारा नहीं खा रहा है, उस पशु को भी सरसों का तेल देने से फायदा होता है.

पशुओं को गरमी के दिनों में लू से बचाने में भी सरसों के तेल का सेवन फायदेमंद है. इस के विपरीत सर्दियों में भी सरसों का तेल पशुओं के लिए लाभकारी है. यह पशुओं का ठंड से बचाव करता है. मानसून बारिश के मौसम में भी सरसों का तेल पशुओं को बीमारियों से बचाता है.

कुल मिला कर देखा जाए तो सरसों का तेल पशुओं के लिए हर मौसम में लाभकारी है, जो उन की सेहत बनाए रखता है और दुधारू पशुओं के दूध उत्पादन में भी बढ़ोतरी करता है.

विकसित कृषि संकल्प अभियान के तहत किसानों को मिले फ्री धान बीज

विकसित कृषि संकल्प अभियान: राष्ट्रीय बीज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, कुश्मौर, कृषि विज्ञान केंद्र, पिलखी, मऊ और  कृषि विभाग, मऊ के संयुक्त तत्वाधान में विकसित कृषि संकल्प अभियान के 9 वें दिन कृषि विषेशज्ञों एवं कृषि विभाग के अधिकारियों की गठित तीनों टीमों ने 15 ब्लौक के तीन गांवों सलाहाबाद, हरपुर और पिजरा में किसानों से सीधा संवाद किया.

इस अभियान के माध्यम से अनुसूचित जाति उप योजना के अंतर्गत लगभग 1000 किसानों को धान (BPT 5204) के 5 – 5 किलोग्राम के  बीज मुफ्त में बांटे गए. भारतीय बीज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, कुश्मौर के प्रधान वैज्ञानिक डा. अंजनी कुमार सिंह ने गुणवत्ता युक्त बीज उत्पादन और प्रजातियों के बारे में बताया. जिला अपर कृषि अधिकारी डा. सौरभ सिंह ने कार्यक्रम में सरकारी योजनाओं जैसे पीएम किसान सम्मान निधि योजना, पीएम कुसुम योजना, पीएम फसल सुरक्षा बीमा योजना आदि के बारे में बताया.

कृषि विज्ञान केंद्र के कृषि विशेषज्ञों डा. विनय कुमार सिंह, डा. आकांक्षा सिंह और डा. अंगद कुमार सिंह ने अपनेअपने विषयवस्तु से नवीनतम जानकारी किसानों के साथ साझा की. साथ ही, संबंधित अधिकारियों ने किसानों को फसल बीमा योजना और प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना के बारे में बताया.

World Food Safety Day : जहर बोएंगे तो मौत की फसल ही काटेंगे

World Food Safety Day : 7 जून को ‘विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस’ ऐसे समय में आया है. जब यह प्रश्न हमारे सामने खड़ा है कि क्या हम सचमुच खुद को और अपनी संतानों को सुरक्षित भोजन देने की स्थिति में हैं ?

आज दुनिया की आबादी तकरीबन 8 अरब के पार पहुंच चुकी है, और संयुक्त राष्ट्र के अनुसार 2050 तक यह आबादी तकरीबन 10 अरब तक पहुंचने वाली है. परंतु इसी के समानांतर, खेती की जमीन घट रही है, उपजाऊ मिट्टी हर साल करोड़ों टन कटाव में बह रही है, खेतों पर लगातार सीमेंट के जंगल उग रहे हैं, और जो थोड़ी बची हुई है, वह भी रासायनिक खाद और कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग से बंजर होने की कगार पर खड़ी है.

खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, विश्व की 33 फीसदी  उपजाऊ भूमि की उत्पादकता या तो समाप्त हो चुकी है या समाप्ति की ओर है. भारत के कई  किसानों ने बिना जहरीली रासायनिक खाद और दवाइयों के रिकौर्ड उत्पादन ले कर सफलतापूर्वक यह सिद्ध कर दिखाया है इन सब के बिना भी सफल कृषि पर्यावरण हितैषी मौडल तैयार किया जा सकता है. यह कार्य असंभव नहीं है.

अब लगे हाथ “खाद्य सुरक्षा” के नाम पर किए जा रहे जैनेटिकली मोडिफाइड बीजों के महाअभियान की बात भी हो जाए. वैज्ञानिक बारंबार यह बता चुके हैं कि जीएम फसलों में प्रयुक्त ट्रांसजीन मानव डीएनए को प्रभावित करने की क्षमता रखता है. इस के स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक दुष्परिणाम अभी पूरी तरह सिद्ध नहीं हुए हैं, परंतु शुरूआती अध्ययन कैंसर, बांझपन, हार्मोनल गड़बड़ियों और प्रतिरोधक क्षमता में कमी की ओर इशारा कर चुके हैं.

भारत में हर व्यक्ति के थाली में जो रोटी, चावल, सब्जी, दाल सज रही है, उस में औसतन 32 प्रकार के रसायनिक अवशेष  पाए गए हैं. यह भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) के ही आंकड़े कहते हैं. ये अवशेष कीटनाशकों, रासायनिक खादों और भंडारण में इस्तेमाल कीटनाशकों से आते हैं. क्या ये वही “खाद्य सुरक्षा” है जिस का जश्न हम 7 जून को मनाने जा रहे हैं?

खेती अब धरती से जीवन उपजाने की प्रक्रिया नहीं रही, यह एक उद्योग है, और उद्योग का मतलब है उत्पादन, मुनाफा और प्रकृति की कीमत पर विकास.

अगर जलवायु परिवर्तन की बात करें तो इंटरनेशनल पैनल औन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी)  की रिपोर्ट साफ कहती है कि कृषि सेक्टर कुल ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में लगभग 23 फीसदी का योगदान करता है. यह आंकड़ा केवल जलवायु को नहीं, बल्कि कृषि को भी नुकसान पहुंचा रहा है. बदलते तापमान, अनियमित बारिश, बाढ़ और सूखे की घटनाएं, फसलों की उत्पादकता में भारी गिरावट ला रही हैं.

खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के चलते साल 2030 तक विश्व में 1.22 करोड़ टन खाद्यान्न की कमी संभावित है. कभी कृषि आत्मनिर्भरता की मिसाल रहा भारत अब अमेरिका, कनाडा, ब्राजील जैसे देशों से दलहन, तिलहन और खाद्य तेल मंगाने पर मजबूर है. दूसरी ओर, “हरित क्रांति” के गर्व से लबरेज पंजाब और हरियाणा की मिट्टी की हालत इतनी बुरी हो चुकी है कि वहां के किसान खुद कह रहे हैं “अब मिट्टी में दम नहीं रहा”. भू जल का स्तर गिर रहा है, और नदियों का पानी दूषित हो रहा है. परंतु आज की कृषि नीति और वैज्ञानिक संस्थाएं ऐसी योजनाएं बना रही हैं जो विपत्ति को और भी जल्दी ला रही हैं.

World Food Day

“स्मार्ट एग्रीकल्चर”, “डिजिटल फार्मिंग”, “प्रिसिशन ड्रोन स्प्रेइंग”, “जीएम बीज”, “सिंथैटिक बायोफर्टिलाइजर” जैसे चमकदार शब्द असल में एक ऐसा कृत्रिम खाद्य तंत्र बना रहे हैं जो पोषण नहीं, केवल पेट भरने का भ्रम देता है और इस संकट का यही विकल्प है कि हमें प्रकृति की ओर जाना होगा.

हमें पारंपरिक जैविक कृषि, मिश्रित खेती, आदिवासी ज्ञान प्रणाली, फौरेस्ट फूड्स, स्थानीय बीजों का संरक्षण आदि करना होगा. ये सभी न केवल मिट्टी को पुनर्जीवित करते हैं, बल्कि जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से लड़ने में भी सक्षम हैं.

बस्तर की एक बूढ़ी किसान से जब पूछा गया कि रासायनिक खाद क्यों नहीं डालतीं, तो उन्होंने बस इतना कहा “माटी माटे संग तो जीती है, जहर संग माटी मर जाती है.”
उस की बात में ‘पीएचडी’ नहीं है, पर धरती की पीड़ा की पीएच वैल्यू जरूर है.

अब सवाल यह उठता है कि क्या हम “खाद्य सुरक्षा” के नाम पर “जीवन की असुरक्षा” की इबारत लिख रहे हैं?

अगर हां, तो फिर यह दिवस, यह आंकड़े, यह घोषणाएं केवल भूख की राजनीति कर सत्ता पर काबिज रहने और कंपनियों के कभी ना भरने वाले पेट को भरने की कवायद के लिए हैं, धरती और इंसानियत के लिए नहीं.

अब समय आ गया है कि हम रसायनों की चकाचौंध से आंखें मूंदे खेतों से बाहर निकलें और फिर से परंपरागत बीज, मिट्टी, जल और जंगल से सच्चा रिश्ता जोड़ें और खेती मैं प्राकृतिक तौर तरीके अपनाएं. अन्यथा, यह “नीला ग्रह” हमारे लिए केवल ब्लैक एंड व्हाइट इतिहास बन जाएगा, जिसे पढ़ने और पढ़ाने वाला कोई नहीं होगा.

(लेखक ग्रामीण अर्थशास्त्र एवं कृषि मामलों के विशेषज्ञ और राष्ट्रीय संयोजक, अखिल भारतीय किसान महासंघ ‘आईफा’)