Unseasonal Rain : अप्रैल माह में बेमौसम बरसात से फसल सुरक्षा

Unseasonal Rain : अप्रैल में बेमौसम बारिश से गेहूं, प्याज एवं अन्य सब्जियों जैसी फसलों को भारी नुकसान होगा, इस से किसानों की आय प्रभावित होगी और कीमतें बढ़ेगी.

प्रसार्ड ट्रस्ट मल्हनी भाटपाररानी देवरिया के निदेशक प्रो. रवि प्रकाश मौर्य सेवानिवृत वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक ने बताया, कि बेमौसम बारिश (Unseasonal Rain) से उन किसानों को नुकसान होगा जिन्होंने अभी तक गेहूं की फसल की कटाईमड़ाई नहीं की है.

मौसम ठीक होने पर फसल सुखने के बाद तुरंत गेहूं की कटाईमड़ाई कर अनाज को सुखा कर भंडारण करें.

प्याज की फसल में नमी बढ़ने से पत्ते सड़ जाते हैं और प्याज जमीन में सड़ने लगती है. प्याज का रंग और क्वालिटी खराब हो सकती है. इस के साथ ही, लहसुन जो खुदाई की स्थिति में है, उसे भी नुकसान होगा.

बेमौसम बारिश (Unseasonal Rain) से पोस्टहार्वेस्ट गतिविधियों पर असर पड़ सकता है, जिस से जल्द खराब होने वाली फलों व सब्जियों की कीमतों में बढ़ोतरी हो सकती है. अब और बारिश होती है, तो मिट्टी में नमी बनी रहने से फसल में फंगस, बैक्टीरिया और कीट आदि सहित पीला मोजेक रोग का खतरा बढ़ जाएगा. ऐसे में फसल पीली हो कर सड़ जाएगी.

मक्का की फसलों को हवा चलने के कारण गिरने से नुकसान हाेने की संभावना है. कद्दू वर्गीय सब्जियों में फल सड़ने की आशंका बनेगी. आम के टिकोरे(फल) तेज हवा चलने से गिरेगें. इस के साथ ही दलहनी फसलों में उड़द व मूंग की फसल प्रभावित हो सकती है.

जो किसान खेत से फसल काट कर खलिहान में रखे हैं, वे प्रभावित होगी. मौसम साफ होने पर खलिहान में रखी फसल को फैला कर सुखाएं. किसानों को सलाह दी जाती है, कि जल निकास की व्यवस्था सुनिश्चित करें जिस से फसलों को बचाया जा सके.

जो खेत खाली है उन की मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करें, जिस से तेज धूप होने से हानिकारक कीट,खरपतवार फंगस आदि नष्ट हो जाएंगे और मृदा की गुणवत्ता बनी रहेगी.

इस के साथ ही, आकाशवाणी, दूरदर्शन से मौसम समाचार समयसमय पर सुनते रहें. मोबाइल पर मौसम ऐप डाउनलोड कर ताजा मौसम की जानकारी ले सकते हैं.

बांझ होते मवेशी (Cattle) और परेशान पशुपालक

Cattle: बिहार के 20 लाख से ज्यादा मवेशियों पर बांझपन का खतरा मंडराने लगा है. औक्सीटोसिन इंजेक्शन की वजह से मवेशियों में यह बीमारी पनप रही है. राज्य में दुधारू मवेशियों की संख्या 40 लाख के करीब है. केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने इस खतरे के बारे में राज्य के मुख्य सचिव को पत्र भेज कर आगाह किया है. गौरतलब है कि मवेशियों में दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए औक्सीटोसिन इंजेक्शन लगाने पर केंद्र सरकार ने रोक लगा रखी है. इस इंजेक्शन को मवेशी को तभी लगाया जा सकता है, जब वह एग्लैक्सिया बीमारी से पीडि़त हो.

वेटनरी डाक्टर सुरेंद्र नाथ कहते हैं कि इस इंजेक्शन की वजह से गायों और भैंसों में बांझपन का खतरा काफी हद तक बढ़ गया है. आमतौर पर गायभैंसों की औसत प्रजनन कूवत 8 से 10 बच्चे पैदा करने की होती है. औक्सीटोसिन इंजेक्शन की वजह से औसत प्रजनन कूवत घट कर 2-3 बच्चे की ही रह गई है. मवेशीपालक दूध का उत्पादन बढ़ाने के लालच में खुलेआम इस इंजेक्शन का इस्तेमाल कर के कानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं और मवेशियों की जान को भी खतरे में डाल रहे हैं.

बिहार के पशुपालन विभाग के आकलन के मुताबिक राज्य में भैंस प्रजाति के 80 लाख जानवर हैं, जिन में से 16 लाख दुधारू हैं. इसी तरह गाय प्रजाति के 1 करोड़ जानवर हैं, जिन में से 50 लाख गायें हैं. इन में से 24 लाख दुधारू हैं.

औक्सीटोसिन स्तनपायी संबंधी हार्मोन है, जो साल 1953 में बाजार में आया था. इस इंजेक्शन को स्तनपान तेज कराने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. यह दवा दूध को बढ़ाती है, लेकिन ज्यादा इस्तेमाल से प्रजनन कूवत धीरेधीरे खत्म होने लगती है.

ज्यादा दूध निकालने के लालच में डेरी संचालक औक्सीटोसिन इंजेक्शन का जम कर इस्तेमाल करते हैं. इस से तात्कालिक फायदा तो हो जाता है, पर मवेशियों की प्रजनन कूवत धीरेधीरे खत्म हो जाती है. कानून कहता है कि इस दवा को डाक्टर की पर्ची के बगैर न बेचें, नहीं तो दवा की दुकान का लाइसेंस रद्द हो सकता है और 5 साल की कैद की सजा भी मिल सकती है. इस कानून के बाद भी हालत यह है कि भूसा, चोकर, खली आदि की दुकानों पर खुल्लमखुल्ला औक्सीटोसिन इंजेक्शन बिक रहा है.

दुधारू मवेशियों में तेजी से बढ़ती बांझपन की समस्या डेरी उद्योग को खासा नुकसान पहुंचा रही है. करीब 30 फीसदी मवेशी बांझपन और प्रजनन संबंधी बीमारियों की चपेट में हैं. भोजन में हरे चारे का नहीं मिलना, शरीर में लवण की कमी होना, हार्मोन का संतुलन बिगड़ना और औक्सीटोसिन का ज्यादा इस्तेमाल किया जाना पशुओं में बांझपन की खास वजहें हैं.

वेटनरी डाक्टर कौशल किशोर बताते हैं कि कुपोषण, संक्रमण, जन्मजात विकार, अंडाणु या हार्मोन में असंतुलन दुधारू मवेशियों में बांझपन की अन्य वजहें हैं. गायों और भैंसों में यौन उत्तेजना 18-21 दिनों में एक बार 18 से 24 घंटे के लिए होती है.

यौन उत्तेजना होने पर गायें खूब रंभाती हैं, बेचैनी में इधरउधर घूमने लगती हैं और खूंटा उखाड़ कर भागने की कोशिश करती हैं. गायों के उलट भैंसें इस दौरान खामोश ही रहती हैं. इस से पशुपालकों को उन की यौन उत्तेजना के बारे में पता नहीं चलता है.

Cattle

इस के लिए पशुपालकों को हमेशा पशुओं की निगरानी करनी चाहिए. उत्तेजना का गलत अनुमान बांझपन के अनुपात को बढ़ा सकता है.

बांझपन से अपने पशुओं को बचाने के लिए पशुपालकों को चाहिए कि पशुओं की यौन उत्तेजना के दौरान ब्रीडिंग जरूर कराएं. अगर किसी पशु में उत्तेजना नहीं आती हो, तो तुरंत डाक्टर की सलाह लेनी चाहिए.

इस के साथ ही हर 6 महीने पर पशुओं के पेट के कीड़ों की जांच जरूर करानी चाहिए. पशुओं के वजन के बढ़ने और घटने पर भी ध्यान रखना जरूरी है. पशु का वजन 230 से 250 किलोग्राम के बीच हो तो बेहतर गर्भाधान होता है.

बांझपन से ऐसे बचाएं दुधारू पशुओं को

*             पशुओं का दूध बढ़ाने के लिए औक्सीटोसिन इंजेक्शन का इस्तेमाल न करें.

*             पशुओं को हरा चारा खूब खिलाएं.

*             रोगों से मुक्त रखने के लिए समयसमय पर वेटनरी डाक्टर से सलाह लेते रहें.

*             पशुओं में होने वाली यौन उत्तेजना के प्रति जागरूक रहें.

*             अंडाणु या हार्मोन के असंतुलन की जांच कराते रहें और इलाज में लापरवाही न बरतें.

52 दिनों में तैयार होने वाली मूंग (Moong)

Moong: भारत में दालों की पैदावार कम और खपत ज्यादा होने से इन की कीमतों में उछाल आ रहा है. केंद्र सरकार ने दलहनी फसलों के रकबे को बढ़ाने का सुझाव दिया है.

इस के लिए कृषि वैज्ञानिकों ने मूंग की एक ऐसी किस्म तैयार की है, जो पीला मोजेक वायरस अटैक से प्रभावित नहीं होगी. यह किस्म 52 दिनों में पक कर तैयार होगी.

भारतीय दाल अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों ने 20 सालों की खोज के बाद इस ‘विराट’ नामक मूंग की नई प्रजाति को तैयार करने में कामयाबी हासिल की है.

खास बात यह है कि मूंग की नई प्रजाति से किसानों को 45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन भी मिलेगा.

कृषि मंत्रालय के पल्स डायरेक्टर डा. बीबी सिंह के मुताबिक मूंग की नई प्रजाति विराट कम पानी में पक कर तैयार होगी. साथ ही फसल कटाई के बाद हरी खाद तैयार कर जमीन की उर्वरा शक्ति में बढ़ोतरी की जा सकती है. मूंग की यह फसल पीला मोजेक के साथसाथ चूर्णित आसिता बीमारी के प्रति भी सहनशील होगी.

जमीन का चुनाव और तैयारी : मूंग की खेती सभी तरह की जमीन में की जा सकती है. मध्यम दोमट, मटियार जमीन, समुचित पानी के निकास वाली, जिस का पीएच मान 6-7 हो, इस के लिए अच्छी होती है.

जमीन में सही मात्रा में स्फुर का होना लाभदायक होता है. 2 या 3 बार हल या बखर चला कर मिट्टी को पाटा लगा कर समतल करें. दीमक के असर वाले खेत में फसल की सुरक्षा के लिए एल्ड्रिन 4 फीसदी चूर्ण की 7 किलोग्राम मात्रा प्रति एकड़ के हिसाब से अंतिम बखरनी के पहले डालें और बखर से मिट्टी में मिलाएं.

बीज की मात्रा व बीजोपचार : खरीफ मौसम में मूंग के बीज की 5 से 7 किलोग्राम मात्रा प्रति एकड़ की दर से लगती है. कार्बेंडाजिम, थायरम या थायरम फफूंदनाशक दवा से बीज उपचारित करने से बीजों और जमीन में पैदा होने वाली बीमारियों से फसल की सुरक्षा होती है.

इस के बाद बीजों को जवाहर रायजोबियम कल्चर से उपचारित करें. 4 ग्राम रायजोबियम कल्चर प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से ले कर बीजों को उपचारित करें और छाया में सुखा कर जल्दी ही बोआई करें. इस उपचार से रायजोबियम की गांठें ज्यादा बनती हैं, जिस से नाइट्रोजन स्थरीकरण में बढ़ोतरी होती है और जमीन की उर्वरा शक्ति बनी रहती है.

बोने का समय : खरीफ में जून के आखिरी हफ्ते से जुलाई के दूसरे हफ्ते तक सही बरसात होने पर बोआई करें. जायद में फरवरी के दूसरे या तीसरे हफ्ते से मार्च के दूसरे हफ्ते तक बोआई करनी चाहिए.

खाद व उर्वरक : मूंग के लिए 7 किलोग्राम नाइट्रोजन, 1 किलोग्राम स्फुर 7 किलोग्राम पोटाश और 7 किलोग्राम गंधक प्रति एकड़ बोने के समय इस्तेमाल करना चाहिए.

सिंचाई और जल निकास : अकसर खरीफ के सीजन में सिंचाई की जरूरत नहीं होती है. पर फूल अवस्था आने पर सूखे की स्थिति में सिंचाई करने से उपज में काफी बढ़ोतरी होती है. ज्यादा बारिश की स्थिति में खेत से पानी का निकलना जरूरी है. जायद मूंग फसल में खरीफ की तुलना में पानी की ज्यादा जरूरत होती है.

निराई व बोआई : पहली निराई बोआई के 1 से 14 दिनों के अंदर व दूसरी 3 से 34 दिनों में करनी चाहिए. 1-2 बार कोल्पा चला कर खेत को नींदारहित रखा जा सकता है. खरपतवार नियंत्रण के लिए नींदा नाशक दवाओं जैसे बासालीन या पेंडामेथलीन का इस्तेमाल भी किया जा सकता है.

पौध संरक्षण

कीट : फसल की शुरुआती अवस्था में तनामक्खी, फलीबीटल, हरी इल्ली, सफेद मक्खी, माहू, जैसिड, थ्रिप्स वगैरह का हमला होता है. इन की रोकथाम के लिए इंडोसल्फान 24 ईसी की 3 से 4 मिलीलीटर व क्वीनालफास 14 ईसी की 5 मिलीलीटर मात्रा प्रति एकड़ या मिथाइल डिमेटान 14 ईसी की 1 मिलीलीटर मात्रा प्रति एकड़ के हिसाब से इस्तेमाल करें. जरूरत पड़ने पर 4 दिनों बाद दोबारा छिड़काव करें.

पुष्पावस्था में फली छेदक और नीली तितली का हमला होता है. क्वलीनालफास 14 ईसी की 5 मिलीलीटर या मिथाइल डिमेटान 14 ईसी की 1 मिलीलीटर मात्रा का प्रति एकड़ के हिसाब से 4 दिनों के अंतर पर छिड़काव करने से इन की रोकथाम हो सकती है. कई इलाकों में कंबल कीड़े का भारी हमला होता है. इस की रोकथाम के लिए पेराथियान चूर्ण 1 फीसदी का बुरकाव करें.

रोग

मेक्रोफोमिना रोग : कत्थई भूरे रंग के धब्बे पत्तियों के निचले भाग पर मेंकोफोमिना और सरकोस्पोरा फफूंद के द्वारा बनते हैं. इन की रोकथाम के लिए 4 फीसदी कार्बेंडाजिम या फायटोलान या डायथेन जेड पानी में घोल कर इस्तेमाल करें.

भभूतिया रोग या बुकनी रोग : 2-3 दिनों की फसल में पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता है. इस की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक या कार्बेडाजिम 4 दिनों के अंतराल पर 3 बार छिड़काव करें.

पीला मोजेक वायरस रोग : यह सफेद मक्खी द्वारा फैलने वाला विषाणुजनित रोग है. इस रोग के असर की वजह से पत्तियां और फलियां पीली पड़ जाती हैं और उपज पर प्रतिकूल असर होता है. सफेद मक्खी के नियंत्रण के लिए मोनोक्रोटोफास 25 ईसी की 2 मिलीलीटर मात्रा का प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें. इस रोग से प्रभावित पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें. पीला मोजेक वायरस निरोधक किस्मों को उगाना ही सब से अच्छा उपाय है.

Apple: किन्नौर के बागबान ने उगाया जमीन के नीचे सेब

उम्दा सेब (Apple) की बात की जाए तो देश और विदेश में शिमला और किन्नौर के नाम सब से आगे रहते हैं. किन्नौर का सेब देशविदेश में सब से ज्यादा पसंद किया जाता है. किन्नौर में कड़ाके की ठंड में पैदा होने वाले सेब (Apple) की सब से ज्यादा मांग रहती है. किन्नौर के बागबानों की खास फसल सेब (Apple) ही है और यह उन की साल भर की मेहनत रहती है. साल भर का खर्चा भी सेब (Apple) की फसल बेचने से ही उठाया जाता है. किन्नौर की अर्थव्यवस्था सेब पर काफी हद तक टिकी हुई है.

अभी तक तो पेड़ों से ही सेब की पैदावार हासिल की जाती रही है, पर अब किन्नौर के बागबान ग्राउंड एप्पल की पैदावार भी करने लगे हैं. यहां के बागबान अब ग्राउंड एप्पल को फसल के रूप में उगाने को आगे आए हैं. किन्नौर के सेब का जिक्र आते ही किसी के भी मुंह में पानी आना लाजिम है. अब किन्नौर के बागबान जमीन के नीचे यानी भूमिगत सेब पैदा कर के देश की मंडियों में तहलका मचाने वाले हैं.

किन्नौर के जागरूक बागबान सत्यजीत ने ग्राउंड एप्पल उगा कर जिले के बागबानों के लिए आय का एक नया जरीया ढूंढ़ निकाला है. सत्यजीत नेपाल से लाए गए इस बीज का किन्नौर में सफल प्रयोग कर चुके हैं व अब इस की कमर्शियल खेती करने लगे हैं. जिले के अन्य जागरूक किसान भी उन से ग्राउंड एप्पल का बीज ले जा कर खेतों में उगाने लगे हैं. अमेरिका से नेपाल होते हुए ग्रांउड एप्पल किन्नौर पहुंचा है.

इस सेब की फसल का लोग किस रूप में और कितना दोहन कर पाते हैं, यह भविष्य बताएगा, पर इतना जरूर है कि बागबान अपने खेतों में ग्राउंड एप्पल की खेती करने को आगे जरूर आए हैं.

पेशे से एडवोकेट सत्यजीत नेगी लंबे समय से बागबानी से भी जुड़े हैं और बागबानी क्षेत्र में तरहतरह से प्रयोग कर चुके हैं. ग्राउंड एप्पल को किन्नौर के बागबानों के बीच सब से पहले लाने का काम भी उन्होंने ही किया है. एक नेपाली से उन्होंने ग्राउंड एप्पल का बीज हासिल किया और इस की खेती करने में सफलता हासिल की.

सत्यजीत नेगी ने सब से पहले इस का परीक्षण मार्च, 2014 में किन्नौर जिला मुख्यालय रिकांगपिओ पेवारी और पूवर्नी गांव में अपने खेतों में किया. 7 महीने बाद इस के अच्छे नतीजे सामने आए. इस से प्रोत्साहित हो कर सत्यजीत ने पिछले साल करीब 10 किलोग्राम बीज तैयार करने के साथ 1 क्विंटल ग्राउंड एप्पल भी तैयार किए हैं.

किन्नौर के बागबानों के लिए ग्राउंड एप्पल नई उम्मीद की किरण ले कर आया है और यह नकदी फसल के रूप में पैदा किया जा सकता है. ग्राउंड एप्पल की फसल उगाने का सब से बड़ा फायदा यही है कि इसे पक्षी और बंदरों से ज्यादा नुकसान नहीं होगा. इसे जमीन के नीचे आलू की तरह लगाने से पक्षियों से नुकसान का खतरा नहीं रहता है और यह जानवरों की नजरों से भी बचा रहता है.

सत्यजीत नेगी ने ग्राउंड एप्पल का बीज प्रदेश की बागबान मंत्री विद्या स्टोक्स को भेट किया है, ताकि देश के अन्य क्षेत्रों में ग्राउंड एप्पल की पैदावार की संभावनाओं को तलाशा जा सके. इस में कोई शक नहीं है कि ग्राउंड एप्पल की पैदावार बढ़ने से प्रदेश के अन्य इलाकों के बागबानों को भी ग्राउंड एप्पल की पैदावार के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है. जमीन के नीचे होने की वजह से ग्राउंड एप्पल पर ओलावृष्टि की ज्यादा मार नहीं पड़ेगी. इस के अलावा फसल को मौसम की मार भी ज्यादा नहीं पड़ेगी.

ग्राउंड एप्पल से कई प्रोडक्ट होते हैं तैयार : ग्राउंड एप्पल को वैसे कच्चा खाया जा सकता है, क्योंकि इस का स्वाद अन्य सेबों की तरह मीठा ही है. इस के अलावा ग्राउंड एप्पल से जूस, जैम, जैली व चटनी आदि बनाए जा सकते हैं. ग्राउंड एप्पल को बाजार में नकदी फसल के रूप में भी बेच सकते हैं. इस के बीजों को भी बागबानों को बेचा जा सकता है.

गड़हनी साग (Garhani Saag)

घास प्रजाति का गड़हनी साग (Garhani Saag) गरीब आदिवासियों की थाली में सब से स्वादिष्ठ सागभाजी है. वे इसे बाजार से नहीं, बल्कि मुफ्त में नदीनालों के किनारों से लाते हैं और सागभाजी बना कर चावल या रोटी के साथ मजे से खाते हैं.

यह उन का सब से प्रिय सागभाजी है. अब तो इस सागभाजी को आदिवासियों की देखादेखी और भी लोग खाने लगे हैं.

घास पतवार के रूप में गड़हनी साग झारखंड के पूर्वी और पश्चिमी सिंहभूमि के नमी वाले स्थानों पर पाया जाता है. यह साग खेतों में नहीं उपजाया जाता, बल्कि यह अन्य सब्जीभाजी लगे खेतों में अपनेआप उग आता है. इस की पैदावार के स्थान उथली नदी, नालों के किनारे, सब्जीभाजी लगे खेत, कुएं व तालाब के किनारे वगैरह हैं. यह साग मुख्य रूप से पानी वाले स्थानों पर होता है.

गड़हनी साग के डंठल में दाएंबाएं चारों तरफ से पत्तियां निकली होती हैं. इस में फूल नहीं होता. इस की लंबाई 7 से 8 इंच के करीब होती है. इस का डंठल बाल पेन के रीफिल से थोड़ा ही मोटा होता है और पत्तियां 1 इंच से बड़ी नहीं होतीं. डंठल हलके हरे रंग का होता है, जबकि इस की पत्तियां गहरे हरे रंग की होती हैं. इस की जड़ मिट्टी और पानी दोनों में होती है, लेकिन पानी इस के लिए जरूरी है. इस की जड़ मिट्टी के बगैर भी बढ़ती है, लेकिन पानी के बिना यह तुरंत मुरझा जाता है.

आम शहरी लोग गड़हनी साग से अनजान होने के कारण अपने खानपान में इसे शामिल नहीं करते, इसलिए यह बाजारों में नहीं बिकता है. सच तो यह है कि इस के बारे में आदिवासियों के अलावा कोई जानता ही नहीं है.

यह साग खाने में काफी स्वादिष्ठ होता है. जैसे चौलाई का साग बनाया जाता है, उसी तरह से इसे भी बनाया जाता है. पहले इसे नाखूनों से तोड़ा जाता है, फिर धो कर काट लिया जाता है. काटने के बाद सरसों का तेल कड़ाही में गरम कर के मेथी की छौंक लगाई जाती है, फिर गड़हनी साग को कड़ाही में डाल कर फ्राई किया जाता है. फ्राई करते समय यह साग पानी छोड़ता है, जिसे कड़ाही में ही सुखा दिया जाता है. पकने के बाद इसे कड़ाही से निकाल कर एक कटोरे में ले कर इस में थोड़ा कच्चा तेल, नमक और कटी हरी मिर्च मिलाते हैं.

इस प्रकार यह खाने के लिए तैयार हो जाता है. इस का स्वाद चने के साग जैसा ही लगता है, लेकिन थोड़ा अलग सा लगता है. इसे भात यानी चावल के साथ सान कर खाया जा सकता है. कुछ लोग इसे दालभात के साथ भी खाते हैं. रोटी के साथ खाने में यह और भी स्वादिष्ठ लगता है.

गड़हनी साग सेहत के लिहाज से भी काफी लाभदायक होता है. इसे खाने से आंखों की रोशनी बरकरार रहती है, खून का संचार सही रहता है, पेट ठंडा रहता है, कब्ज नहीं होता, सिर के बाल नहीं झड़ते हैं और न ही जल्दी सफेद होते हैं. यह सच है कि इसे खाने वाले आदिवासी लोगों की आंखों पर चश्मा नहीं चढ़ता और न ही वे गंजे होते हैं.

ठंड के मौसम में नमी ज्यादा रहने के कारण गड़हनी साग जगहजगह उग आता है. वैसे तो यह गरमी के मौसम में भी होता है, लेकिन कम होता है. चौलाई व सरसों जैसे मशहूर सागों की तरह इस में भी ठंड के मौसम में पानी की मात्रा ज्यादा होती है, जबकि गरमी के दिनों में इस में पानी की मात्रा कम हो जाती है. आदिवासी लोग इसे जाड़े के दिनों में ज्यादा खाना पसंद करते हैं, क्योंकि इस मौसम में इस का स्वाद बढ़ जाता है.

ऐसा भी नहीं है कि इसे केवल आदिवासी ही खाते हैं. यह साग इसे जानने वाले आम मध्यमवर्ग के घरों में भी हफ्ते में एकाध बार पकता ही है. शहरी माहौल में रहने वाले लोगों को इसे स्थानीय बाजारों में खोजते देखा गया है. ऐसे लोग गांवदेहातों से आने वाले सब्जी विक्रेताओं को आर्डर दे कर इसे मंगवाते हैं.

यह एक ऐसा घास प्रजाति का साग है, जिस की खेती नहीं होती. अगर इसे व्यावसायिक रूप से बेचने के लिए उपजाया जाए तो इस पर कोई लागत नहीं आएगी और मुनाफा भी काफी हो सकता है.

Citrus Fruits : नीबू प्रजाति के फलों की खेती

Citrus Fruits : भारत में उगाए जाने वाले तमाम फलों में नीबू प्रजाति के फलों की खास जगह है. इन में विटामिन ए, बी, सी व खनिज काफी मात्रा में पाए जाते हैं. नीबू वर्गीय फलों में मौसमी, माल्टा, संतरा व नीबू वगैरह खास हैं.

जलवायु व जमीन : नीबू प्रजाति के फल तमाम तरह की जलवायु में उगाए जाते हैं. मौसमी व माल्टा के उत्पादन के लिए गरमी के मौसम में अच्छी गरमी व सर्दी के मौसम में अच्छी सर्दी सही रहती है. इन के लिए शुष्क जलवायु जहां पर बारिश 50-60 सेंटीमीटर होती है, सही रहती है. संतरा व नीबू के लिए गरम, पाला रहित व नम जलवायु जहां बारिश 100-150 सेंटीमीटर होती है, सही रहती है. नीबू हर जगह उगाया जा सकता है.

नीबू प्रजाति के फलों की खेती कई प्रकार की जमीन में की जा सकती है, लेकिन ज्यादा उपजाऊ दोमट जमीन जो 2 से सवा 2 मीटर गहरी हो, इन की खेती के लिए ज्यादा अच्छी है. संतरा, मौसमी और माल्टा के लिए बलुई मिट्टी जिस में जल धारण की कूवत नहीं होती है, मुनासिब नहीं होती. जल निकास युक्त चिकनी मिट्टी जिस में जल धारण की कूवत नहीं होती है, इस की खेती के लिए अच्छी रहती है. इन फलों की खेती के लिए जमीन का चुनाव करते समय इस बात का खयाल रखना चाहिए कि जमीन लवणीय या क्षारीय न हो.

पौध लगाना : नीबू प्रजाति के पौधों को बीज व वानस्पतिक दोनों ही तरीकों द्वारा तैयार किया जाता है. बीज द्वारा पौधे तैयार करने के लिए जुलाई, अगस्त या फरवरी में बीज बोते हैं. नीबू में गूटी लगाने का सही समय जुलाई है. मौसमी व माल्टा के पौधों को कलिकायन से तैयार किया जाता है. इस के लिए पहले बीज से मूलवृंत तैयार करते हैं. बीज हमेशा रफलेमन (जमबेरी व जट्टी खट्टी) के स्वस्थ व पके फलों से लेने चाहिए. बीजों को फलों से निकालने के बाद उन्हें तुरंत क्यारियों में बो देना चाहिए. बीज बोने के लिए फरवरी का समय सही रहता है. जब मूलवृंत 1 साल का हो जाए तब उन पर ही कलिकायन (बडिंग) करें. नीबू प्रजाति के पौधे बीज से भी तैयार किए जा सकते हैं. बीजों को फलों से निकालने के बाद तुरंत नर्सरी में बो देना चाहिए. नर्सरी में पौधे 1 साल के होने के बाद ही खेत में रोपाई करनी चाहिए.

उन्नत किस्में : नीबू प्रजाति के तमाम वर्गों में इस्तेमाल में लाई जाने वाली प्रमुख प्रजातियों का विवरण निम्नलिखित है:

माल्टा वर्ग

जाफा : फल का आकार गोल होता है. इस की लंबाई 6.37 सेंटीमीटर और चौड़ाई 6.51 सेंटीमीटर होती है. यह पकने पर लालनारंगी रंग का हो जाता है. फल का औसत वजन 140 से 190 ग्राम होता है. इस में रस की मात्रा 30 से 35 फीसदी होतीहै. फल में बीजों की संख्या 5 से 10 तक तक होती है. इस के छिलके  की मोटाई 0.40 सेंटीमीटर होती है. फल नवंबरदिसंबर में पकते हैं. फल उत्पादन 125 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है.

मौसमी : इस के फल छोटे से मध्यम आकार के होते हैं, जिन की लंबाई 6.07 सेंटीमीटर और चौड़ाई 6.25 सेंटीमीटर होती है. फल के ऊपर लंबाई में धारियां और तले पर गोल छल्ला होता है. फल पकने पर गहरे पीले रंग के हो जाते हैं, जिन में रस की मात्रा 30 से 35 फीसदी होती है. इस के छिलके की मोटाई 0.35 सेंटीमीटर होती है. फल में खटास 0.25 फीसदी और मिठास 10 से 12 फीसदी होती है. मौसमी नवंबरदिसंबर में पकती है. फलों की उपज 85 से 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

संतरा वर्ग

किन्नू: इस के फल गोल, मध्यम व चपटापन लिए हुए नारंगी रंग के होते हैं. फल का वजन 125 से 175 ग्राम तक होता है. पकने पर छिलका पतला व चमकदार होता है. इस का गूदा नारंगीपीला होता है और रस की मात्रा 40 से 45 फीसदी होती है. फल जनवरी में पकते हैं. पौधा लगाने के 5 सालों बाद 125 से 150 किलोग्राम प्रति पौधा उपज हासिल होती है.

नागपुर संतरा : यह राजस्थान के झालावाड़ क्षेत्र की मुख्य किस्म है, जो हरे रंग की हलके वजन वाली होती है. यह भरपूर रस वाली किस्म है, जो जनवरीफरवरी में पक कर तैयार हो जाती है.

नीबू वर्ग

कागजी नीबू : इस के फल मध्यम गोल आकार के होते हैं. इस का छिलका पतला होता है. रस की मात्रा 45 फीसदी होती है. इस में घुलनशील लवण 7 फीसदी और अम्लता 3 से 5 फीसदी होती है. फल पकने का समय जुलाईअगस्त और मार्च होता है. पैदावार 40 से 50 किलोग्राम प्रति पौधा होती है.

पंत लेमन : यह पंतनगर से कागजी फलों की चुनी हुई किस्म है, जिस का छिलका पतला होता है.

पौधे लगाने की विधि : नीबू वर्गीय पौधे 5×5 मीटर की दूरी पर लगाएं और 6 से 8 मीटर की दूरी पर मौसमी, संतरा वगैरह के लिए 90×90×90 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे 2 महीने पहले यानी मईजून के दौरान खोद लेने चाहिए. गड्ढों में 25 किलोग्राम गोबर की खाद, 1 किलोग्राम सुपरफास्फेट व 50 से 100 ग्राम क्यूनालफास 1.5 फीसदी या एंडोसल्फान 4 फीसदी चूर्ण मिट्टी में मिला कर भर देना चाहिए. पौधे लगाने का सब से सही समय जुलाईअगस्त रहता है. जहां पानी की अच्छी सुविधा हो, वहां फरवरी में भी पौधे लगाए जा सकते हैं.

खाद व उर्वरक : गोबर की खाद,सुपर फास्फेट व म्यूरेट आफ पोटाश की पूरी मात्रा व यूरिया की आधी मात्रा दिसंबरजनवरी में डालें और बाकी आधी यूरिया जूनजुलाई में डालें.

सूक्ष्म तत्त्व : नीबू वर्गीय फलों में सूक्ष्म तत्त्वों की कमी से पेड़ों में तमाम विकार पैदा हो जाते हैं. सूक्ष्म तत्त्वों में जिंक, बोरोन, मैगनीज, तांबा व लोहा खास हैं. जिंक की कमी से पत्तियां छोटी रह जाती हैं और उन की नसों के बीच का रंग हलका पड़ जाता है. जिंक की कमी से फल गिरने लगते हैं. मैगनीज की कमी के कारण पत्तियों का रंग धीरेधीरे हलका हो जाता है. ये लक्षण विकसित पत्तियों पर साफ दिखाई देते हैं.

पौधों में इन तत्त्वों की कमी के असर को रोकने के लिए इन तत्त्वों का छिड़काव फरवरी व जुलाई में करना चाहिए. इन तत्त्वों को अलगअलग घोलने के बाद पानी में मिलाना चाहिए. छिड़काव के लिए जिंक सल्फेट 500 ग्राम, कापर सल्फेट 300 ग्राम, मैगनीज 200 ग्राम, मैग्नीशियम सल्फेट 200 ग्राम, बोरिक एसिड 100 ग्राम, फेरस सल्फेट 200 ग्राम व बुझा हुआ चूना 900 ग्राम ले कर 100 लीटर पानी में मिलाना चाहिए.

सिंचाई : फल तोड़ने के बाद 1 महीने तक पानी देना बंद कर दें. फिर फूल खिलने से पहले सिंचाई शुरू कर देनी चाहिए. फूल खिलने के समय सिंचाई न करें. जब फल मूंग के दाने के बराबर हो जाएं तो नियमित सिंचाई करें. गरमी के मौसम में करीब 10 से 15 दिनों के अंतर पर और सर्दी के मौसम में 25-30 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए. फल विकास के समय सही मात्रा में नमी होना जरूरी है, वरना फल फटने लगते हैं.

देखभाल : फल देने वाले पौधों की कम से कम कटाईछंटाई करनी चाहिए. फलों को तोड़ने के बाद ऐसी शाखाएं जो जमीन के ज्यादा संपर्क में आ जाती हैं, उन को काट देना चाहिए. सभी रोगी व घनी शाखाओं को भी काट देना चाहिए. सही आकार देने के लिए रोपाई के 3 सालों तक कटाईछंटाई करते रहना चाहिए. बाग लगाने के शुरू के 3 सालों में बाग में दलहनी फसलों की खेती की जा सकती है. इस से शुरू के सालों में भी आमदनी हासिल होती रहेगी.

कीड़ों की रोकथाम

नीबू की तितली : इस की लटें शुरू में चिडि़यों के बीट की तरह दिखाई देती हैं. अंडों से निकलने के तुरंत बाद ये पत्तियों को खाने लगती हैं और नुकसान पहुंचाती हैं.

* रोकथाम के लिए पेड़ों की संख्या ज्यादा न हो, तो लटों को पेड़ों से चुन कर मिट्टी के तेल मिले पानी में डाल कर मार देना चाहिए.

* मोनोक्रोटोफास की 1.5 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें.

फल चूसक पतंगा: यह कीट फलों में छेद कर के रस चूसता है, जिस से संक्रमित भाग पीला पड़ जाता है और फल की गुणवत्ता कम हो जाती है.

* रोकथाम के लिए प्रकाशपाश का इस्तेमाल कर के पतंगों को इकट्ठा कर के मार देना चाहिए.

* शीरा या शक्कर की 100 ग्राम मात्रा के 1 लीटर पानी में बनाए घोल में 10 मिलीलीटर मैलाथियान 50 ईसी मिला कर मिट्टी के प्यालों में 100 मिलीलीटर प्रति प्याला के हिसाब से पेड़ों पर कई जगह पर टांग देना चाहिए.

* मैलाथियान 50 ईसी की 1 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़कव करना चाहिए.

Citrus Fruits

लीफ माइनर, सिट्रस सिल्ला व रेड स्पाइडर माइट : लीफ माइनर की लटें बहुत छोटी होती हैं. ये पत्तियों में सुरंग बनाती हैं. बारिश के मौसम में इन का हमला ज्यादा होता है.

सिट्रस सिल्ला का आक्रमण नई पत्तियों व कोमल भागों में होता है. ये पत्तियों से रस चूसते हैं, जिस के कारण पत्तियां सिकुड़ जाती हैं.

इस कीट का हमला बारिश के मौसम में ज्यादा होता है.

रेड स्पाइडर माइट पत्तियों के ऊपरी सिरों से रस चूसती है. कभीकभी यह बहुत ही ज्यादा नुकसान पहुंचाती है.

रोकथाम के लिए फोरमोथियोन 25 ईसी (सेस्थियो) का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बना कर छिड़काव करें. सिट्रस सिल्ला की रोकथाम के लिए नई पत्तियां आने पर छिड़काव करना जरूरी है. यह रसायन मिलीबग की भी रोकथाम करता है.

मूल ग्रंथी (सूत्रकृमि) : इस का हमला नीबू की जड़ों पर होता है. इस के हमले से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, टहनियां सूखने लगती हैं और जड़ गुच्छेदार बन जाती है. इस के असर से पेड़ पर फल छोटे व कम लगते हैं और जल्दी गिर जाते हैं.

रोकथाम के लिए कार्बोफ्यूरान 3 जी 20 ग्राम प्रति पेड़ की दर से इस्तेमाल करें.

बीमारियों की रोकथाम

नीबू का केंकर रोग: जीवाणु से होने वाले इस रोग से पत्तियों, टहनियों व फलों पर भूरे रंग के कटे खुरदरे व कार्कनुमा धब्बे पड़ जाते हैं. रोगी पत्तियां गिर जाती हैं. टहनियों व शाखाओं पर लंबे घाव बनते हैं, जिस से टहनियां टूट जाती हैं. इस रोग से कागजी नीबू को ज्यादा नुकसान होता है.

रोकथाम के लिए नए बगीचे में हमेशा रोग रहित नर्सरी के पौधे ही इस्तेमाल में लाएं और रोपाई से पहले पौधों पर बोर्डों मिश्रण (4:4:50) या ताम्रयुक्त कवकनाशी (ब्लाइटाक्स) 0.3 फीसदी का छिड़काव करें.

रोग के प्रकोप को रोकने के लिए कटाईछंटाई के बाद जून से अक्तूबर तक बोर्डों मिश्रण (4:4:50) या स्ट्रेप्टोसाक्लिन 250-500 मिलीग्राम प्रति लीटर के घोल का 20 दिनों के अंतर पर फरवरी और मार्च के महीनों में छिड़काव करें.

गोदाति रोग (गमोसिस) : इस रोग के कारण तनों पर जमीन के पास से और टहनियों के रोगग्रस्त भाग से गोंद जैसा पदार्थ निकल कर छाल पर बूंदों के रूप में इकट्ठा हो जाता है, जिस की वजह से छाल सूख कर फट जाती है और भीतरी भाग भूरे रंग का हो जाता है. रोग के हमले से अंत में पेड़ फटने की स्थिति में पहुंच जाता है.

रोकथाम के लिए रोगग्रस्त छाल खुरचने के बाद रिडोमिल एमजेड 20 ग्राम व अलसी का तेल 1 लीटर को अच्छी तरह मिला कर या ताम्रयुक्त कवकनाशी का लेप कर दीजिए और इन्हीं कवकनाशी के 0.3 फीसदी या रिडोमिल एमजेड 25 से 0.2 फीसदी घोल के 4-5 छिड़काव 15 दिनों के अंतर पर कीजिए. इस के अलावा बगीचे की सही देखभाल, पानी के अच्छे निकास, धूपहवा वगैरह का पूरा ध्यान इस रोग से बचाव के लिए जरूरी है.

विदर टिप या डाई बैक : इस रोग से पत्तियों पर भूरेबैगनी धब्बे पड़ जाते हैं.

टहनियां ऊपर से नीचे की ओर सूखती हुई भूरी हो जाती हैं और पत्तियां सूख कर गिर जाती है.

रोकथाम के लिए रोगयुक्त भाग की छंटाई के बाद ताम्र युक्त कवकनाशी (कापर आक्सीक्लोराइड) 3 ग्राम या मैंकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव बारिश के मौसम में 15 दिनों व सर्दी के मौसम में 20 दिनों के अंतर पर करना चाहिए. इस के अलावा साल में 2 बार (फरवरी और अप्रैल में) सूक्ष्म तत्त्वों का छिड़काव करें.

फलों का गिरना: तोड़ाई के 5 हफ्ते पहले से फल गिरने लग जाते हैं. इन की रोकथाम के लिए 1 ग्राम 2-4 डी 100 लीटर पानी में या प्लेनोफिक्स हारमोन्स 1 मिलीलीटर प्रति 4 से 5 लीटर पानी में घोल कर संतरा और मौसमी के पेड़ों पर छिड़कना चाहिए.

तोड़ाई व उपज : संतरा, माल्टा व नीबू का रंग जब हलका पीला हो जाए, तब इन की तोड़ाई करनी चाहिए.

मौसमी, संतरा और माल्टा की उपज प्रति पौधा 70 से 80 किलोग्राम होती है. कागजी नीबू में 40 से 50 किलोग्राम प्रति पौधा उपज हासिल होती है.

Hydroponics Technology : हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से हरा चारा

Hydroponics Technology: शहर हो या गांव, आज के समय में अनेक पशुपालक डेरी व्यवसाय करना चाहते हैं, लेकिन उन के लिए चारे की समस्या आड़े आ जाती है. गांव में तो किसानों को यह समस्या ज्यादा नहीं है, लेकिन शहरों में जो लोग पशुपालन कर रहे हैं, उन्हें हरा चारा नहीं मिल पाता. शहरों के आसपास चारा उगाने के लिए जमीन की अच्छीखासी कमी है.

आमतौर पर पौधे उगाने के लिए बीजों को मिट्टी में बोया जाता है, जबकि हाइड्रोपोनिक्स तकनीक (Hydroponics Technology) में बीजों को बिना मिट्टी के उगाया जाता है और बहुत कम जमीन की जरूरत होती है.

कृषि विशेषज्ञों और कृषि यंत्र विशेषज्ञों ने मिल कर हाइड्रोपोनिक्स तकनीक ईजाद की है. हाइड्रोपोनिक्स तकनीक पर आयुर्वेट के वैज्ञानिकों द्वारा लगातार आगे बढ़ाने का काम किया जा रहा है और उन्हें  इस के अच्छे नतीजे मिल रहे हैं.

इस तकनीक से उगाए गए चारे को हाइड्रोपोनिक्स चारा भी कह सकते हैं. इस हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से रोज ही हरा चारा उगाया जा सकता है. इस तकनीक से 1 किलोग्राम बीजों से 7 दिनों में 6-8 किलोग्राम हरा चारा पैदा हो जाता है.

यह मशीन अलगअलग कूवतों में मिलती है. इस से 1 दिन में 240 किलोग्राम से ले कर 960 किलोग्राम तक हरे चारे का उत्पादन हो सकता है. गरमी हो या सर्दी या बरसात इस का कोई फर्क नहीं पड़ता. मक्का, जौ और जई जैसे चारे के लिए प्रचलित अनाजों से हाईड्रोपोनिक चारा तैयार किया जाता है.

जमीन में उगाए गए चारे की तुलना में हाइड्रोपोनिक्स मशीन में उगाया गया चारा पौष्टिकता और गुणों से भरपूर होता है. जमीन के मुकाबले इस मशीन से कई गुना अधिक चारा पैदा किया जा सकता है. इस मशीन से चारा उगाने में पानी की भी बहुत बचत होती है. मशीन के नीचे ही पानी की टंकी लगी होती है, जिस से जरूरत के अनुसार पानी मशीन में जाता है. ट्रे में जितने पानी की जरूरत होती है, उतना ही खर्च होता है, बाकी पानी वापस टंकी में चला जाता है.

इस चारे की खूबी यह है कि हमें जड़, बीज व चारा तीनों चीजें मिलती हैं, जबकि खेत में उगाने से हमें केवल चारा ही मिलता है. जमीन में चारा तैयार होने में जहां कम से कम 1 महीना लगता है, वहीं इस मशीन से महज 1 हफ्ते में चारा मिलने लगता है. जमीन में उगे चारे के मुकाबले हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से उगाया गया चारा अधिक पौष्टिक और गुणकारी होता है.

Hydroponics Technology

इस चारे की एक और खूबी यह है कि यह कीटनाशकों और खरपतवार से रहित शुद्ध पशु आहार होता है.

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि दुधारू पशु को रोजाना कुछ मात्रा इस चारे की भी मिला कर खिलाई जाए, तो दूध में अच्छीखासी बढ़ोतरी होती है. इस के इस्तेमाल से गायभैंस के बच्चों की भी बढ़वार अच्छी होती है. अगर प्रजनन करने वाले सांड़ों को भी यह चारा खिलाया जाए तो उन की प्रजनन कूवत में बढ़ोतरी होती है.

इस तकनीक से गन्ने की पौध, गेहूं के ज्वारे आदि की पौध तैयार की जा सकती है. हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से धान की नर्सरी भी उगाई जा सकती है. इस से धान के पौधे 1 हफ्ते में तैयार हो जाते हैं. ऐसे पौधे घासपात रहित व रोगमुक्त होते हैं.

आयुर्वेट प्रोग्रीन हाइड्रोपोनिक्स मशीन

Hydroponics Technology

मशीन निर्माता का कहना है कि यह कृषि मंत्रालय भारत सरकार द्वारा पहली और एकमात्र हाइड्रोपोनिक्स मशीन है. इस मशीन पर कृषि मंत्रालय द्वारा सब्सिडी की सुविधा उपलब्ध है और यह खासकर पशु विश्वविद्यालयों द्वारा अनुमोदित है.

प्रोफेसर डा. आरके धूरिया, पशु पोषण विभाग, बीकानेर, राजस्थान का कहना है कि उन के विश्वविद्यालय में पिछले 4 सालों से आयुर्वेट हाइड्रोपोनिक्स मशीन सफलतापूर्वक चल रही है. मशीन द्वारा उत्पादित हरा चारा साधारण हरे चारे की तुलना में 2 से 3 गुना प्रोटीनयुक्त होता है और उस में तकरीबन दोगुनी ऊर्जा होती है. हाइड्रोपोनिक्स हरे चारे के इस्तेमाल से दूध उत्पादन में बढ़ोतरी होती है व संपूर्ण पशु आहार में बचत होती है.

मशीन निर्माता का कहना है कि डेरी फार्म, फार्म हाउस व अन्य पशु आहार तैयार करने वाली कंपनियां उन की मशीन इस्तेमाल कर रही हैं. जरूरत के हिसाब से तमाम साइजों में मशीनें मौजूद हैं.

अधिक जानकारी के लिए किसान दिल्ली कार्यालय के फोन नंबर 011-22455993, गाजियाबाद कार्यालय के फोन नंबर 0120-7100201 और मोबाइल नंबर 9953150352 पर संपर्क कर सकते हैं.

Paddy: धान की उन्नत खेती से उगा सकते हैं सोना

Paddy: तमाम कुदरती आपदाओं की वजह से पिछले 1 दशक से मध्य प्रदेश की खास खरीफ की फसल सोयाबीन ने प्रदेश के किसानों की हालत खराब कर दी, नतीजतन किसानों ने धान (Paddy) की खेती शुरू कर दी और रिकार्ड उत्पादन कर के खेती को लाभ का धंधा बना दिया.

पहले छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता था, पर अब मध्य प्रदेश में धान की खेती बड़े पैमाने पर की जाने लगी है. किसान बड़े रकबे में धान की खेती कर के अपने खेतों में सोना उगा सकते हैं.

खेत की तैयारी : गरमी के मौसम में सही समय पर खेत की गहरी जुताई हल या प्लाउ चला कर करें, जिस से मिट्टी उलटपलट जाए. मेंड़ों की सफाई जरूर करें. गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद 10 से 12 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई या बारिश से पहले खेत में फैला कर मिलाएं.

धान की खेती की विधियां

सीधे बीज बोने की विधि : खेत में सीधे बीज बो कर निम्न तरह से धान की खेती की जाती है:

* छिटकवां बोआई.

* नाड़ी हल या दुफन या सीड ड्रिल से कतारों में बोआई.

* बियासी विधि (छिटकवां विधि) से सवा गुना ज्यादा बीज बो कर बोआई के 1 महीने बाद फसल की पानी भरे खेत में हलकी जुताई.

* लेही विधि (धान के बीजों को अंकुरित कर के मचौआ किए गए खेतों में सीधे छिटकवां विधि से बोआई).

रोपा विधि : इस विधि के तहत धान के पौधे सीमित क्षेत्र में तैयार किए जाते हैं. फिर 25 से 30 दिनों के पौधों की खेत में रोपाई की जाती है.

बीजों की मात्रा : अनुविभागीय अधिकारी कृषि केएस रघुवंशी बताते हैं कि धान की बोआई के लिए बीजों की मात्रा बोआई की विधि के मुताबिक अलगअलग रखनी चाहिए.

बीजों का उपचार : बीजों को थायरम या डायथेन एम 45 दवा की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर के बोआई करें. बैक्टेरियल बीमारियों से बचाव के लिए बीजों को 0.02 फीसदी स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के घोल में डुबा कर उपचारित करना फायदेमंद होता है.

बोआई का सही समय : बारिश का मौसम शुरू होते ही धान की बोआई का काम शुरू करें. मध्य जून से जुलाई के पहले हफ्ते तक बोआई का सब से अच्छा समय होता है. रोपाई के बीजों की बोआई रोपणी में जून के पहले हफ्ते में ही सिंचाई की सुविधा वाली जगहों पर कर दें, क्योंकि जून के तीसरे हफ्ते से मध्य जुलाई तक की रोपाई से अच्छी पैदावार मिलती है.

खाद व उर्वरक

गोबर की खाद या कंपोस्ट : धान की फसल में 5 से 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अच्छी सड़ी गोबर खाद या कंपोस्ट का इस्तेमाल करने से महंगे उर्वरकों के खर्च में बचत की जा सकती है.

हरी खाद : रोपाई वाले धान में हरी खाद के इस्तेमाल में सरलता होती है. इसे मिट्टी में आसानी से मिलाया जा सकता है. हरी खाद के लिए सनई के करीब 25 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से रोपाई से 1 महीने पहले बोने चाहिए. करीब 1 महीने की खड़ी सनई की फसल को खेत में मचौआ करते समय मिला देना चाहिए. यह 3-4 दिनों में सड़ जाती है. ऐसा करने से करीब 50-60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर उर्वरकों की बचत होगी.

जैव उर्वरकों का इस्तेमाल : कतारों में बोआई वाले धान में 500 ग्राम एजेटोवेक्टर और 500 ग्राम पीएसबी जीवाणु उर्वरक का प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करने से 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन और स्फुर उर्वरक बचाए जा सकते हैं.

इन दोनों जीवाणु उर्वरकों को 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर सूखी सड़ी हुई गोबर की खाद में मिला कर बोआई करते समय कूड़ों में डालने से इन का पूरा लाभ मिलता है. सीधी बोआई वाले धान में उगने के 20 दिनों और रोपाई के 20 दिनों की अवस्था में 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हरीनीली काई का बुरकाव करने से करीब 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन उर्वरक की बचत की जा सकती है. ध्यान रहे कि काई का बुरकाव करते समय खेत में सही नमी या हलकी नमी की सतह रहनी चाहिए.

उर्वरकों का इस्तेमाल : धान की फसल में उर्वरकों का इस्तेमाल बोई जाने वाली प्रजाति के मुताबिक करना चाहिए.

उर्वरक देने का समय : नाइट्रोजन की आधी मात्रा और स्फुर व पोटाश की पूरी मात्रा आधार खाद के रूप में रोपाई से पहले खेत तैयार करते समय या कीचड़ मचाते समय बुरक कर मिट्टी में मिलाएं. बची नाइट्रोजन की आधी मात्रा अंकुर फूटने की अवस्था में (रोपाई के 20 दिनों बाद) और आधी मात्रा गंभोट की अवस्था में देनी चाहिए. जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों में खेत की तैयारी करते समय जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 3 साल में 1 बार इस्तेमाल करें. गंधक की कमी वाले क्षेत्रों में गंधक वाले उर्वरकों (जैसे सिंगल सुपर फास्फेट) का इस्तेमाल करें.

सिंचाई : धान की फसल में सिंचाई का बहुत महत्त्व है. रोपाई से अंकुर निकलने की अवस्था तक खेत में पानी की सतह 2-5 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. कंसे (अंकुर) निकलने के बाद से गंभोट की अवस्था तक 10-15 सेंटीमीटर पानी की सतह रखें. धान की फसल में जरूरत से ज्यादा पानी भरना अच्छी पैदावार में बाधक होता है.

लेही के लिए बीज अंकुरित करना: लेही विधि से बोआई करने के लिए खेत की तैयारी के तुरंत बाद अंकुरित बीज मौजूद होने चाहिए. लिहाजा लेही बोआई के तय समय के 3-4 दिनों पहले से ही बीज अंकुरित करने का काम शुरू कर दें.

इस के लिए बीजों की तय मात्रा को रात के समय पानी में 8-10 घंटे के लिए भिगोएं. फिर इन भीगे हुए बीजों का पानी निकाल दें. फिर इन बीजों को पक्की सूखी सतह पर रख कर बोरों से ढक दें. ढकने के 24-30 घंटे के अंदर बीज अंकुरित हो जाते हैं. इस के बाद बोरों को हटा कर बीजों को छाया में फैला कर सुखाएं. इन अंकुरित बीजों का इस्तेमाल 6-7 दिनों तक किया जा सकता है.

रोपणी में पौधे तैयार करना : जितने रकबे में धान की रोपाई करनी हो उस के 1/20 भाग में रोपणी बनानी चाहिए. रोपणी में इस प्रकार से बोआई करनी चाहिए कि करीब 3-4 हफ्ते के पौधे रोपाई के लिए समय पर तैयार हो जाएं. रोपणी के लिए 2-3 बार जुताई कर के अच्छी तरह खेत तैयार करें.

इस के बाद खेत में 1.5-2.0 मीटर चौड़ी पट्टियां बना लें, जिन की लंबाई खेत मुताबिक कम या ज्यादा हो सकती है. हर पट्टी के बीच 30 सेंटीमीटर की नाली रखें. इन नालियों की मिट्टी नाली बनाते समय पट्टियों पर डालने से वे ऊंची हो जाती हैं.

ये नालियां जरूरत के मुताबिक सिंचाई व जल निकास के लिए मददगार होती हैं. रोपणी में 8 से 10 सेंटीमीटर के अंतर से कतारों में बोआई करने से रखरखाव और रोपाई के लिए पौधे उखाड़ने में आसानी होती है.

कम पानी में भी हो सकता है धान का उत्पादन : सूखा प्रतिरोधी धान की खेती करना अब मुमकिन हो गया है. गेहूं की तरह अब चावल उगाने के लिए भी नई तकनीक की खोज हो गई है. अब धान के खेत को हमेशा पानी से भरा हुआ रखे बिना भी इस की खेती की जा सकती है. नई तकनीक से धान की फसल के लिए पानी की जरूरत में 40 से 50 फीसदी तक कमी करने में मदद मिलेगी.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) और फिलीपींस अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (आईआरआरआई) ने संयुक्त रूप से यह तकनीक विकसित की है. इस परियोजना में कटक स्थित केंद्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (सीआरआरआई) की भी भागीदारी है. कटक स्थित संस्थान ने ही धान की वैसी किस्मों की पहचान की है, जिन्हें दूसरी फसलों की तरह कुछ दौर की सिंचाई के जरीए उगाया जा सकता है.

संस्थान ने खेती की ऐसी विधियों की भी खोज की है, जिन के जरीए धान की ऐसी किस्मों से करीबकरीब उतनी उपज हो सकती है, जितनी सामान्य तौर पर ज्यादा पैदावार वाली धान की किस्मों से होती है.

तकनीकी तौर पर यह एरोबिक राइस कल्टीवेशन कहलाता है. इस तकनीक में धान के खेत में स्थिर पानी की जरूरत नहीं होती और न ही धान के छोटे पौधे तैयार करने की जरूरत होती है, जैसा कि आमतौर पर होता है.

इस तकनीक में कुशलता से तैयार किए गए खेतों में सीधे बीज बो दिए जाते हैं और इस तरह मजदूरी की लागत की भी बचत हो जाती है.

लहसुन (Garlic) उखाड़ने की मशीन से काम हुआ आसान

Garlic : राजस्थान के जोधपुर जिले का मथानिया गांव उम्दा खेतीकिसानी के लिए जाना जाता है. मथानिया की लाल मिर्च के नाम से इस गांव के खेतों में उपजी मिर्च की मांग विदेशों तक थी. फिर किसानों द्वारा फसलचक्र को तवज्जुह न देने की वजह से यहां की मिर्ची की खेती तमाम रोगों का शिकार हो गई. लेकिन धीरेधीरे किसान जागरूक हुए हैं और कुदरत के नियमों का पालन कर रहे हैं. अब इस इलाके में मिर्च के अलावा गाजर, पुदीना और लहसुन की खेती भी जोरों पर है.

लहसुन (Garlic) की खेती में यहां के किसानों को शिकायत थी कि जब वे लहसुन (Garlic) को खेत में से उखाड़ने का काम करते हैं, तो उन के हाथ खराब हो जाते हैं. हाथ फटने और नाखूनों में मिट्टी चले जाने के कारण अगले दिन खेत में जा कर मेहनत करना कठिन होता था.

किसान मदन सांखला ने इस समस्या को चैलेंज के रूप में स्वीकारते हुए लहसुन की फसल निकालने के लिए एक मशीन बनाने की सोची. मदन को किसान होने के साथसाथ अपने बड़े भाई अरविंद के लोहे के यंत्र बनाने के कारखाने में मिस्त्री के काम का अनुभव भी था. उस ने अपने अनुभव के आधार पर जो मशीन बनाई, उसे काफी बदलावों के बाद कुली मशीन नाम दिया, चूंकि लहसुन में कई कुलियां होती हैं.

लहसुन (Garlic) की खेती में 1 मजदूर दिन भर में 100 से 200 किलोग्राम लहसुन ही खेत से उखाड़ (निकाल) पाता है. दिन भर की मेहनत के बाद अगले दिन खेत में मजदूरी करना सब के बस की बात नहीं रहती थी. इस तरह से लागत बढ़ने लगी और हम लोग लहसुन को कम महत्त्व देने लगे.

‘समस्या के हल के लिए हम ने लहसुन (Garlic) को लोहे की राड या हलवानी से निकालना शुरू किया. इस से हमें काम में थोड़ीबहुत आसानी जरूर हुई, पर यह समस्या का अंत नहीं था. मुझे अंत तक पहुंचने की जल्दी थी.

‘तब मैं ने एक मशीन बनाई. नालीदार शेप वाले मजबूत ऐंगल से बनी हल जितनी ऊंची यह मशीन खूब लोकप्रिय हो रही है. इसे ट्रैक्टर के पीछे टोचिंग कर के इस्तेमाल किया जाता है. यह एक एडजस्टेबल मशीन है. खेत में मिट्टी के हिसाब से लहसुन की गांठें कम या ज्यादा गहराई तक बैठती हैं, लिहाजा ट्रैक्टर से जोड़ कर इसे हल की तरह मनचाहे एंगल पर खेत में उतारा जा सकता है. जमीन के भीतर रहने वाले हिस्से में एक आड़ी पत्ती (ब्लेड) लगी रहती है, जिसे जमीनतल के समानांतर न रख कर थोड़ा टेढ़ा रखा गया है. यह आड़ी पत्ती मजबूत लोहे की बनी होती है.

मशीन की पत्ती जमीन में 7-8 इंच या 1 फुट तक गहरी जाती है और मिट्टी को नरम कर देती है. इस से फायदा यह होता है कि लहसुन को ढीली पड़ चुकी मिट्टी से बाद में आसानी से इकट्ठा किया जा सकता है. लहसुन रहता मिट्टी के अंदर ही है, बाहर निकलने और धूप में खराब होने का अब डर नहीं है.

पहले हाथ से लहसुन (Garlic) निकालने पर पूरे दिन में 1 लेबर 5 क्यारियों से लहसुन निकाल पाता था. गौरतलब है कि 1 बीघे में 100 क्यारियां होती हैं. इस मशीन के नतीजे चौंकाने वाले हैं. इसे ट्रैक्टर से जोड़ कर 1 बीघे का लहसुन महज 15 मिनट में उखाड़ लिया जाता है.

(Garlic)

हाथ से लहसुन उखाड़ने के दौरान करीब 3 से 4 फीसदी लहसुन जमीन में ही रह जाता था. किसान या मजदूर चाहे कितना भी अनुभवी क्यों न हो, लहसुन टूट कर जमीन में रह ही जाता था. इस के अलावा पत्तों समेत उखाड़े जाने वाले लहसुन की कुलियों (गांठों) को खराब होने से बचाने के लिए तुरंत ही इकट्ठा कर के छाया में सुखाना पड़ता था. इस काम की मजदूरी भी देनी पड़ती थी.

अब 1 लेबर 1 दिन में 1 बीघे यानी 100 क्यारियों में से लहसुन उखाड़ सकता है. इस मशीन से वक्त की बचत हुई है और दाम भी अच्छे मिलने लगे हैं. राजस्थान के कोटा में लहसुन ज्यादा होता है, इसलिए वहां इस मशीन की मांग ज्यादा है.

पहले हाथ से लहसुन निकालने पर उसे खराब होने से बचाने के लिए बोरी से ढक कर रखना पड़ता था. अब यह फायदा है कि लहसुन रहता तो जमीन में ही है, बस मिट्टी नर्म हो जाती है, इसलिए इसे जरूरत के मुताबिक निकाला जा सकता है. इस मशीन की लागत 13000 से 15000 रुपए के बीच आती है.

ज्यादा जानकारी के लिए किसान निम्न पते पर संपर्क कर सकते हैं:

मदन सांखला, मार्फत विजयलक्ष्मी इंजीनियरिंग वर्क्स, राम कुटिया के सामने, नयापुरा, मारवाड़ मथानिया 342305, जिला जोधपुर, राजस्थान. फोन : 09414671300.

Solar Energy : ऊर्जा से ट्यूबवैल चलें

Solar Energy: पानीपत शहर से 7 किलोमीटर पहले दिल्लीचंडीगढ़ हाईवे पर बाएं हाथ पर एक गांव है सिवाह. वहां के एक प्रगतिशील किसान रामप्रताप शर्मा ने आधुनिक तरीके से खेतीबारी कर के न केवल धरती से सोना उगाया है, बल्कि कई अवार्ड भी जीते हैं.

55 साल के रामप्रताप शर्मा ने कम उम्र में ही खेतीबारी से नाता जोड़ लिया था और आज वे अपनी तकरीबन 30 एकड़ पारिवारिक जमीन पर परंपरागत व आधुनिक दोनों तरीकों से फसलें उगा रहे हैं.

वैसे तो खेतीबारी की इस बैल्ट में ज्यादातर किसान साल में 3 फसलें जैसे गेहूं, धान व गन्ना अपने खेतों में उगाते हैं, लेकिन रामप्रताप शर्मा ने कुछ हट कर सोचा. उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्र ऊझा, पानीपत के कृषि वैज्ञानिकों डा. राजबीर गर्ग और आरएस दहिया की मदद से 4-5 एकड़ जमीन में खेतीबारी के आधुनिक तरीके अपना कर बैगन, प्याज, हरी मिर्च, टमाटर, घीया, तुरई, सेम, खीरा, आलू, शलगम के अलावा खरबूजा और पपीता की भी खेती की.

रामप्रताप शर्मा मल्चिंग तकनीक से आधुनिक खेती करते हैं, जिस में ड्रिप सिंचाई का अहम योगदान होता है. साथ ही उत्तम किस्म के बीज और उन की बोआई पर भी खास ध्यान दिया जाता है.

रामप्रताप शर्मा ने बताया, ‘नई तकनीक से खेती करने में ज्यादा मेहनत की जरूरत होती है. आम शब्दों में कहें, तो किसान को एक वैज्ञानिक की सोच अपनानी पड़ती है और ज्यादा से ज्यादा फसल लेने के लिए उसे खेतीबारी के आधुनिक उपकरणों, खाद और दवाओं की पूरी जानकारी होनी चाहिए. कृषि विज्ञान केंद्र इस के लिए किसानों के सम्मेलन और कार्यशालाएं आयोजित कराते हैं, जो बहुत उपयोगी साबित होते हैं.

‘मैं कृषि वैज्ञानिकों से साल 2010 में जुड़ा था और तब से नई तकनीक की खेतीबारी कर रहा हूं. यह कृषि वैज्ञानिकों की हिदायतों और मेरी मेहनत का ही नतीजा है कि मैं ने साल 2014 में मांगिआना, सिरसा के ‘प्रथम फल मेले’ में पपीता उगाने में पहला इनाम हासिल किया था. इतना ही नहीं, साल 2016 में घरौंडा, हरियाणा के ‘स्वर्ण जयंती मैगा ऐक्सपो’ में प्याज उगाने में पहला और शलगम उगाने में दूसरा इनाम जीता था.’

Solar Energy

पिछले 2-3 सालों से ‘सिवाह फलसब्जी उत्पादक संघ’ के प्रधान रामप्रताप शर्मा ने किसानों की समस्याओं पर बात करते हुए चिंता जताई. वे बोले, ‘किसानों की सब से बड़ी समस्या यह है कि उन्हें अपने उत्पादों की सही कीमत नहीं मिलती है. मंडी में बिचौलियों का राज है. वे किसानों से बहुत कम कीमत पर माल खरीदते हैं, क्योंकि उन्हें पता होता है कि अगर किसान समय रहते अपनी फसल नहीं बेचेंगे, तो उन की फसल खराब हो जाएगी.’

इस समस्या का क्या हल है इस सवाल पर रामप्रताप शर्मा ने बताया, ‘किसानों का भला तभी हो सकता है, जब उन की फसल सीधी सरकार या निजी कंपनियों के पास जाए. इस के लिए कलेक्शन सेंटर होने चाहिए. आजकल खेतीबारी करना बहुत महंगा सौदा है. किसान अपने घर से पैसे लगाते हैं और फसल उगा कर कुदरत के भरोसे रहते हैं.

अगर कुदरत की मार नहीं भी पड़ती है, तो भी मंडी में सही दाम नहीं मिलने से उन्हें मनचाहा मुनाफा नहीं मिलता है.

‘किसान अपनी फसल का भंडारण कहां करें, यह भी बहुत बड़ी समस्या है. निजी भंडारघरों में अपनी फसल रखना हर किसान के बस की बात नहीं है.

‘आधुनिक तरीके से खेती करने में पहली नजर में तो यही लगता है कि किसान भरपूर मुनाफा कमाते हैं, पर यह सब दूर के ढोल सुहाने जैसा है.

नई तकनीक में इस्तेमाल होने वाली मशीनें बेहद महंगी होती है. पोटैटो डिगर मशीन 85000 रुपए की आती है. छोटे किसानों के लिए इस तरह की मशीनें इस्तेमाल करना सपने जैसा है.

‘किसानों को बिजली भी बहुत सताती है. सही समय पर फसल को पानी न मिले, तो उस का फसल की उत्पादकता पर बुरा असर पड़ता है. किसान ट्यूबवैल लगवा भी लें, पर बिजली ही न हो, तो सब बेकार है.

‘मेरा मानना है कि सरकार सौर ऊर्जा से चलने वाले ट्यूबवैल लगवाए और उन पर सब्सिडी भी दे. एक और बात, सरकार स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक करे और उसे लागू करे.

‘खेतीबारी में सरकार को किसानों की हरमुमकिन मदद करनी चाहिए, तभी तो वे करोड़ों भूखे पेटों के लिए अन्न उगा सकेंगे. किसानों के अच्छे दिन लाओ, देश के अपनेआप आ जाएंगे.’

खेती की तकनीकों के बारे में ज्यादा जानकारी लेने के लिए रामप्रताप शर्मा से उन के मोबाइल नंबर 09813300835 पर बात की जा सकती है.