अनार: मैदानी इलाकों में भी लें अच्छी पैदावार

भारत में अनार का कुल रकबा 2018-19 में 2,46,000 हेक्टेयर है और उत्पादन 28,65,000 मीट्रिक टन है, वहीं अगर एक हेक्टेयर की बात करें तो अनार का कुल उत्पादन तकरीबन 11.69 टन प्रति हेक्टेयर है. अनार गरम और गरम व ठंडी जलवायु वाले देशों का काफी लोकप्रिय फल है.

भारत में इस की खेती खासतौर से महाराष्ट्र में की जाती है. राजस्थान, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, कर्नाटक, गुजरात में छोटे लैवल पर इस के बगीचे देखे जा सकते हैं. इस का रस जायकेदार और औषधीय गुणों की वजह से फायदेमंद होता है.

अनार की खेती के लिए कम लागत, लगातार उच्च तापमान, लंबी भंडारण अवधि जैसी खूबियों के चलते इस का क्षेत्रफल लगातार बढ़ रहा है.

आबोहवा : यह हलकी सूखी जलवायु में बढि़या तरह से उगाया जा सकता है. फलों के बढ़ने व पकने के समय गरम और शुष्क जलवायु की जरूरत होती है. लंबे समय तक ज्यादा तापमान बने रहने से फलों में मिठास बढ़ती है, वहीं नम जलवायु रहने से फलों की क्वालिटी पर बुरा असर होता है.

जमीन  : अनार अनेक तरह की मिट्टी में उगाया जा सकता है, पर बढि़या जल निकास के इंतजाम वाली रेतीली दोमट मिट्टी सब से बढि़या होती है. फलों की गुणवत्ता व रंग भारी

मिट्टी के मुकाबले हलकी मिट्टियों में अच्छा होता है. अनार के लिए मिट्टी लवणीयता 9.00 ईसी प्रति मिलीलिटर और क्षारीयता 6.78 ईएसपी तक सहन कर सकता है.

खास प्रजाति

भारतीय प्रजाति : अर्कता, भगवा, ढोकला, जी 137, गणेश, जलोर सीडलैस, ज्योति, कंधारी, मृदुला, फूले फगवा, रूबी के 1 वगैरह.

प्रजाति इगजोटिक : अगेती वंडरफुल, ग्रांड वंडरफुल वगैरह.

खास किस्म और खूबियां 

गणेश : इस किस्म के फल मध्यम आकार के, बीज मुलायम और गुलाबी रंग के होते हैं. यह महाराष्ट्र की खास किस्म है.

ज्योति : फल मध्यम से बड़े आकार के, चिकनी सतह व पीलापन लिए हुए लाल रंग के होते हैं. एरिल गुलाबी रंग के बीज काफी मुलायम, बहुत मीठे होते हैं. प्रति पौधा 8-10 किलोग्राम उपज ली जा सकती है.

मृदुला : फल मध्यम आकार के, चिकनी सतह वाले लाल रंग के होते हैं. एरिल गहरे लाल रंग का बीज मुलायम, रसदार और मीठे होते हैं. प्रति पौधा 8-10 किलोग्राम उपज ली जा सकती है.

भगवा : इस किस्म के फल बड़े आकार के भगवा रंग के, चिकने चमकदार होते हैं. एरिल मनमोहक लाल रंग की और बीज मुलायम होते हैं. बढि़या देखरेख करने पर प्रति पौधा 30-38 किलोग्राम उपज ली जा सकती है.

अर्कता : यह एक अधिक उपज देने वाली किस्म है. फल बड़े आकार के, मीठे और मुलायम बीजों वाले होते हैं. एरिल लाल रंग की व छिलका मनमोहक लाल रंग का होता है. बढि़या देखरेख करने पर प्रति पौधा 25-30 किलोग्राम उपज ली जा सकती है.

प्रवर्धन

कलम द्वारा : एक साल पुरानी शाखाओं से 20-30 सैंटीमीटर लंबी कलमें काट कर पौधशाला में लगा दी जाती हैं और इंडोल ब्यूटारिक अम्ल (आईबीए) 3,000 पीपीएम से कलमों को उपचारित करने से जड़ें जल्दी व ज्यादा तादाद में निकलती हैं.

गूटी द्वारा : अनार का व्यावसायिक प्रवर्धन गूटी द्वारा किया जाता है. इस विधि में जुलाईअगस्त माह में एक साल पुरानी पैंसिल समान मोटाई वाली स्वस्थ पकी 45-60 सैंटीमीटर लंबाई की शाखाओं को छांटें.

छांटी गई शाखाओं से कलिका के नीचे 3 सैंटीमीटर चौड़ी गोलाई में छाल पूरी तरह से निकाल दें. छाल निकाली गई शाखा के ऊपरी भाग में आईबीए 10,000 पीपीएम का लेप लगा कर नमी वाला स्फेगनम मास चारों ओर लगा कर पौलीथिन की शीट से ढक कर सुतली से बांध दें. जब पौलीथिन से जड़ें दिखाई देने लगें, उस समय शाखा को स्केटियर काट कर क्यारी या गमलों में लगा दें.

पौध की रोपाई : आमतौर पर पौध रोपण की आपसी दूरी मिट्टी की क्वालिटी व जलवायु पर निर्भर करती है. आमतौर पर 4-5 मीटर की दूरी पर अनार को रोप दिया जाता है.

सघन रोपण विधि में 5×2 मीटर (1,000 पौधे प्रति हेक्टेयर), 5×3 मीटर (666 पौधे प्रति हेक्टेयर) 4.5×3 (740 पौधे प्रति हेक्टेयर) की आपसी दूरी पर रोपण किया जा सकता है.

पौध रोपने के तकरीबन एक महीने पहले 60×60×60 सैंटीमीटर (लंबाई × चौड़ाई × गहराई) आकार के गड्ढे खोद कर 15 दिनों के लिए खुला छोड़ दें. इस के बाद गड्ढे की ऊपरी मिट्टी में 20 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद, 1 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट, 50 ग्राम क्लोरोपाइरीफास चूर्ण मिट्टी में मिला कर गड्ढों को सतह से 15 सैंटीमीटर की ऊंचाई तक भर दें.

खाद व उर्वरक : पौधों की उम्र के मुताबिक कार्बनिक खाद व नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश का इस्तेमाल करें. नाइट्रोजन व पोटाशयुक्त उर्वरकों को 3 हिस्सों में बांट कर पहली खुराक सिंचाई के समय बहार प्रबंधन के बाद और दूसरी खुराक 3-4 हफ्ते बाद दें, फास्फोरस की पूरी खाद को पहली सिंचाई के समय दें. जिंक, आयरन, मैगनीज और बोरोन की 25 ग्राम की मात्रा प्रति पौधे डालें.

जब पौधों पर फूल आना शुरू हो जाएं, तो उस में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश 12:61:00 को 8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से एक दिन के फासले पर एक महीने तक दें.

जब पौधों में फल लगने शुरू हो जाएं तो नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश 19:19:19 को ड्रिप की मदद से 8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से एक दिन के अंतराल पर एक महीने तक दें.

जब पौधों पर पूरी तरह से फल आ जाएं तो नाइट्रोजन और फास्फोरस 00:52:34 या मोनोपोटैशियम फास्फेट 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की मात्रा को एक दिन के अंतराल पर एक महीने तक दें.

फल की तुड़ाई के एक महीने पहले कैल्शियम नाइट्रेट की 12.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की मात्रा को ड्रिप की सहायता से 15 दिनों पर 2 बार दें.

ऐसे करें सिंचाई 

अनार के पौधे सूखा सह लेते हैं, पर अच्छे उत्पादन के लिए सिंचाई का खास फायदा है. मृग बहार की फसल लेने के लिए सिंचाई मई माह के मध्य से शुरू कर के मानसून आने तक नियमित रूप से करनी चाहिए.

बारिश आने के बाद फलों के अच्छे विकास के लिए लगातार सिंचाई 10-12 दिन के फासले पर करनी चाहिए. ड्रिप सिंचाई अनार के लिए उपयोगी साबित हुई है. इस में 43 फीसदी पानी की बचत और 30-35 फीसदी उपज में इजाफा हुआ है.

संधाई व काटछांट : अनार की 2 तरह से संधाई की जा सकती है. एक, तना विधि द्वारा. इस विधि में एक तने को छोड़ कर बाकी सभी बाहरी टहनियों को काट दिया जाता है. दूसरी, बहु तना विधि द्वारा. इस विधि में 3 से 4 तने छूटे हों, बाकी टहनियों को काट दिया जाता है.

इस तरह साधे हुए तने में रोशनी बढि़या मिलती है. रोगग्रस्त हिस्से के 2 इंच नीचे तक छंटाई करें और तनों पर बने सभी कैंकर को गहराई से छील कर निकाल देना चाहिए. छंटाई के बाद 10 फीसदी बोर्डो पेस्ट को कटे हुए हिस्से पर लगाएं. बारिश के समय में छंटाई के बाद तेल वाला कौपर औक्सीक्लोराइड और 1 लिटर अलसी का तेल का इस्तेमाल करें.

बहार नियंत्रण : अनार में साल में 3 बार जूनजुलाई (मृग बहार), सितंबरअक्तूबर (हस्त बहार) व जनवरीफरवरी (अंबे बहार) में फूल आते हैं. व्यावसायिक तौर पर केवल एक बार ही फसल ली जाती है और इस का निर्धारण पानी की मौजूदगी व बाजार की मांग के मुताबिक किया जाता है.

जिन इलाकों में सिंचाई की सुविधा नहीं होती है, वहां मृग बहार से फल लिए जाते हैं. जिन इलाकों में सिंचाई की सुविधा है, वहां अंबे बहार से फल लिए जाते हैं. बहार नियंत्रण के लिए जिस बहार से फल लेने हों, उस के फूल आने से 2 माह पहले सिंचाई बंद कर देनी चाहिए. रासायनिक बहार नियमन के लिए इथ्रेल की उच्च सांध्रता (1 से 2 मिलीलिटर प्रति लिटर) का इस्तेमाल किया जाता है.

तुड़ाई : अनार बेमौसम वाला फल है. जब फल पूरी तरह से पक जाएं, तभी पौधों से तोड़ना चाहिए. पौधों में फल सेट होने के बाद 120-130 दिन बाद तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं. पके फल पीलापन लिए लाल हो जाते हैं.

उपज : पौध रोपण के 2-3 साल बाद फलना शुरू कर देते हैं, लेकिन व्यावसायिक रूप से उत्पादन रोपण के तकरीबन 4-5 साल बाद ही लेना चाहिए. अच्छी तरह से विकसित पौधा 60-80 फल हर साल 25-30 साल तक देता है.

भारत का एक प्राचीन देशी गेहूं पैगांबरी किस्म है शुगर फ्री

आज से २० साल पहले मटर की फसल के बीच में हमें एक गेहूं का ऐसा पौधा मिला, जो देखने में सामान्य गेहूं के पौधों से काफी अलग था. उसी एक पौधे से हम ने इस के बीज संवर्धन की शुरुआत की थी, पर इस एक पौधे ने हमें इस गेहूं पर शोध करने के लिए प्रेरित किया.

पैगांबरी गेहूं लोकप्रिय रूप से अपने आकर्षक चमकीले छोटे गोल मोती जैसे दाने के कारण शुगर फ्री गेहूं के रूप में जाना जाता है. यह एक प्रकार का ट्रिटिकम स्फेरोकोकम  गेहूं है. इस का दाना गोल आकार का और पौधा बौनी प्रजाति का होता है. इस के पौधे की ऊंचाई 70 से 80 सैंटीमीटर तक होती है.

सही माने में देखा जाए तो यह गेहूं पहला भारतीय गेहूं कहा जाता है, क्योंकि इस की उत्पत्ति सिंधु घाटी सभ्यता से हुई थी और यह उस सभ्यता में मुख्य भोजन में से एक था. इस के उलट यह माना जाता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में तकरीबन 4000 साल पहले बौना गेहूं विकसित किया गया था, जो शायद वह यही गेहूं है.

मधुमेह की बढ़ती घातक बीमारी को देखते हुए मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के भगवंतराव मंडलोई कृषि कालेज ने इसी देशी प्रजाति पैगांबरी गेहूं से एक नई किस्म तैयार की है. इस गेहूं के सेवन से मधुमेह की बीमारी काबू की जा सकती है.

दुनियाभर में तेजी से शुगर के मरीजों की बढ़ती तादाद को देखते हुए खंडवा के भगवंतराव मंडलोई कृषि कालेज के वैज्ञानिकों ने गेहूं की एक पुरानी प्रजाति का पता लगाया है. गेहूं की इस प्रजाति का प्राचीन नाम पैगांबरी है, किंतु कृषि वैज्ञानिकों के इस प्रजाति पर किए गए अपने शोध में कई स्वास्थ्य लाभ देने वाले गुण पाए गए हैं. इस वजह से वैज्ञानिकों ने इस प्रजाति से एक नई किस्म तैयार की है, जो शुगर फ्री है. यह डायबिटीज के मरीजों के लिए वरदान साबित होगा. वैज्ञानिकों का यह प्रयोग स्थानीय स्तर पर सफल हुआ है.

कृषि वैज्ञानिक सुभाष रावत ने बताया कि शुगर कंट्रोल करने के लिए कृषि कालेज में गेहूं की प्राचीन देशी प्रजाति से गेहूं की एक नई किस्म ए-12 तैयार की गई है. इसे शुगर फ्री गेहूं का नाम दिया है. इस में शुगर व प्रोटीन की मात्रा कम है.

अब कालेज इस तरह की खेती बड़े पैमाने पर कराने की तैयारी कर रहे हैं, ताकि शुगर से पीडि़त मरीजों को ठीक किया जा सके.

उन्होंने यह भी बताया कि कालेज में पिछली बार भी यह गेहूं लगाया गया था. इस के अच्छे नतीजे सामने आए थे. साथ ही, किसानों को जागरूक किया जा रहा है, ताकि वे गेहूं की किस्म ए-12 की ज्यादा से ज्यादा बोआई करें.

Wheatपैगांबरी गेहूं की प्रजाति का दाना देखने में मैथी के दाने की तरह है, जबकि सामान्य गेहूं का दाना लंबा व अंडे के आकार का होता है. इस में छिलका व फाइबर अधिक और प्रोटीन की मात्रा कम होती है.

पैगांबरी गेहूं की खासीयत : इस गेहूं के बारे में समृद्धि देशी बीज बैंक, रुठियाई द्वारा किए कृषि शोधात्मक विश्लेषण में यह पाया गया कि यह किसी भी तरह की मिट्टी में बोया जा सकता है. वैसे तो इस की सिंचाई के लिए 4 से 5 बार सिंचाई की जरूरत होती है, किंतु काली दोमट उपजाऊ मिट्टी में केवल 2 सिंचाई में भी पक कर तैयार हो जाता है.

अगर इस के उत्पादन की बात करें, तो पर्याप्त सिंचित, कार्बनिक तत्त्वों से भरपूर उपजाऊ जमीन पर 60 से 65 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज ली जा सकती है.

इस की बोआई नवंबर माह के पहले हफ्ते से ले कर जनवरी माह के पहले हफ्ते तक की जा सकती है. इस की फसल 120 से 125 दिन में पक कर तैयार हो जाती है.

इस का भूसा बहुत बारीक निकलता है, जिसे पशु बहुत पसंद करते हैं.

अब इस के उपयोग पर अगर हम नजर डालें तो इस का उपयोग मुख्य रूप से रोटियां बनाने, ब्रेड टोस्ट बनाने, दलिया बनाने और इस के दानों से चावल की तरह खीर बनाने में किया जाता है.

इस गेहूं की रोटियां बहुत ही मुलायम, सफेद और स्वादिष्ठ होती हैं.

इसे खाने के फायदे

एनर्जी के लिए : पैगांबरी गेहूं खाने से एनर्जी मिलती है. ये ऊर्जा का एक बहुत अच्छा स्रोत है. यह वजन घटाने में भी सहायक है. दरअसल, इसे खाने के बाद काफी देर तक भूख नहीं लगती. इस से वजन कंट्रोल भी होता है.

स्वस्थ दिल के लिए : पैगांबरी गेहूं कौलेस्ट्रौल लेवल को कंट्रोल करने में मदद करता है. इस से दिल से जुड़ी बीमारियां होने का खतरा कम हो जाता है. इस में मैग्नीशियम और पोटैशियम भी है, जो ब्लड प्रैशर को नियंत्रित रखने में मददगार है.

पाचन को रखे दुरुस्त : पैगांबरी गेहूं में भरपूर मात्रा में फाइबर पाया जाता है, जो पाचन को दुरुस्त रखने में सहायक है. इस गेहूं को खाने से कब्ज की समस्या भी नहीं होती है.

कैंसर से बचाव : गेहूं की खेती जैविक तरीके से की जा रही है, इसलिए यह कैंसर के बचाव में भी सहायक है. डायबिटीज के मरीज इस का नियमित सेवन कर शुगर कंट्रोल कर सकते हैं.

पैगांबरी गेहूं की खूबियां

* आकार मैथी की तरह है.

* बाजरे की तरह गुण हैं.

* अन्य गेहूं की अपेक्षा प्रोटीन कम है.

* छिलका ज्यादा है.

* जल्दी पचने वाली वैरायटी है.

* फायबर अधिक है.

अधिक जानकारी के लिए लेखक से उन के मोबाइल नंबर 7898915683 पर संपर्क कर सकते हैं.

ऐसे बनाएं भरपूर कंपोस्ट

आज के सघन खेती के युग में जमीन की उपजाऊ शक्ति को बनाए रखने के लिए समन्वित तत्त्व प्रबंधन पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है. इस के तहत प्राकृतिक खादों का प्रयोग बढ़ रहा है. इन प्राकृतिक खादों में गोबर की खाद, कंपोस्ट और हरी खाद मुख्य है.

ये खाद मुख्य तत्त्वों के साथसाथ गौण तत्त्वों से भी भरपूर होती हैं. गोबर का प्रयोग ईंधन के रूप में (70 फीसदी) होने के कारण इस से बनी खाद कम मात्रा में उपलब्ध होती है. हरी खाद और अन्य खाद भी कम मात्रा में प्रयोग होती है, इसलिए जैविक पदार्थ का प्रयोग बढ़ाने के लिए खाद बनाने के लिए कंपोस्ट का तरीका अपनाना चाहिए.

कंपोस्ट बनाने के लिए फसलों के अवशेष, पशुशाला का कूड़ाकरकट के अलावा गांव व शहरी कूड़ाकरकरट वगैरह को एक बड़े से गड्ढे में गलाया और सड़ाया जाता है.

जरूरी सामग्री : फसल के अवशेष व कूड़ाकरकर 80 फीसदी, गोबर (10-15 दिन पुराना) 10 फीसदी, खेत की मिट्टी 10 फीसदी, ढकने के लिए पुरानी बोरी या पौलीथिन और पानी. इस के अलावा छायादार जगह पर या पेड़ के नीचे गड्ढा बनाएं.

Compostकंपोस्ट बनाने की विधि : कंपोस्ट बनाने के लिए गड्ढे की लंबाई 1 मीटर, चौड़ाई 1 मीटर और गहराई 1 मीटर होनी चाहिए. गड्ढे की लंबाई, चौड़ाई व गहराई फसल अवशेष पर भी निर्भर है.

* सब से नीचे 12-15 सैंटीमीटर मोटी भूसे की परत लगाते हैं.

* भूसे की परत के ऊपर 10-12 सैंटीमीटर मोटी गोबर की परत लगाई जाती है.

* गोबर की परत के ऊपर 30-45 सैंटीमीटर मोटी फसल अवशेष या कूड़ाकरकट की परत लगाते हैं.

* इस के ऊपर 3-4 सैंटीमीटर की मोटी मिट्टी की परत लगाई जाती है.

* सब से ऊपर 5-6 सैंटीमीटर की मोटी गोबर की परत लगाई जाती है.

* एक महीने के बाद इस को उलटपलट कर देते हैं.

* नमी की मात्रा सामग्री में 60-70 फीसदी होना जरूरी है.

* इस तरह कंपोस्ट 3 महीने में तैयार हो जाती है.

* इस कंपोस्ट में नाइट्रोजन 0.8 से 1.0 फीसदी, फास्फोरस

0.6-0.8 फीसदी और पोटाश 0.8-1.0 फीसदी होती है.

कंपोस्ट के इस्तेमाल से लाभ

* इस के इस्तेमाल से मिट्टी में जैविक पदार्थ की मात्रा में बढ़ोतरी होती है.

* जरूरी तत्त्वों की संतुलित मात्रा में उपलब्धि होती है.

* मिट्टी व पानी का संरक्षण अधिक होता है.

* पौधों की जड़ों के लिए उचित वातावरण बनता है और इन की बढ़ोतरी अच्छी होती है.

* फसल अवशेष का सदुपयोग होता है.

* पशुशाला के कूड़ेकरकट का उपयोग कंपोस्ट बनाने में इस्तेमाल होता है.

* यह एक प्रदूषणरहित प्रक्रिया है.

* कंपोस्ट खाद की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए रौक फास्फेट डाल कर फास्फोरसयुक्त कंपोस्ट भी बना सकते हैं.

फास्फोरसयुक्त खाद बनाने की विधि

घासफूस, खरपतवार, फसल अवशेष 400 किलोग्राम. पशुओं का गोबर 300 किलोग्राम. रौक फास्फेट 100-150 किलोग्राम.

* बताई गई सामग्री को फावड़े या कस्सी से अच्छी तरह मिलाएं और पानी से नमी की मात्रा 60-70 फीसदी तक रखें.

* इस मिश्रण को 4 फुट चौड़े, 10 फुट लंबे व 3 फुट गहरे गड्ढे में डालें.

* 20 दिन बाद मिश्रण को उलटपलट कर व जरूरत के मुताबिक पानी डालें. इस प्रक्रिया को 50 दिन बाद फिर दोहराएं.

* 90 दिन बाद जैविक खाद बन कर तैयार हो जाएगी. इस में 0.8 से 1.0 फीसदी नाइट्रोजन, 3-4 फीसदी फास्फोरस व 0.5 फीसदी पोटाश.

* इस तरह से तैयार 2 टन जैविक खाद 60 किलोग्राम फास्फोरस के बराबर होती है.

धान की पराली से जैविक खाद बनाएं 

हरियाणा में ज्यादातर किसान धान की पराली को आग लगा कर खत्म कर देते हैं. इस से कि हवा खराब हो जाती है और जमीन के लाभदायक जीवजंतु भी खत्म हो जाते हैं.

अगर किसान धान की पराली को इकट्ठा कर उस से खाद बनाएं और खेतों में 10 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालें तो इस से जमीन की उर्वरा शक्ति भी बढ़ेगी और नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की खाद भी कम मात्रा में डालनी पड़ेगी और किसान भाइयों को रासायनिक खाद की बचत भी होगी.

बनाने की विधि

* सब से पहले अपने खेत में धान की पराली को इकट्ठा करें, फिर 1,000 लिटर पानी में एक किलोग्राम यूरिया डाल कर घोल बनाएं और इस घोल में 10 ग्राम एसपरजीलस अवामोरी नामक फफूंद डालें जो कि सूक्ष्म जीव विज्ञान विभाग, चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार से मिल जाएगी.

* अब धान की पराली का एकएक गट्ठर उठाएं और घोल में 3 मिनट के लिए डुबो दें और फिर निकाल कर एक ढेर बनाते जाएं जो कि 1.5 मीटर चौड़ा, 1.5 मीटर ऊंचा हो और जिस की लंबाई पराली की मात्रा के मुताबिक रखी जा सकती है. इस तरह पराली का ढेर बनाने के बाद इसे मोटी पौलीथिन की शीट से ढक दें.

* ऊपर बनी धान की पराली के ढेर में पानी की मात्रा 60-70 फीसदी 3 महीने तक बनाए रखें, एक महीने के बाद धान की पराली को उलटपलट कर दें और फिर से पौलीथिन की शीट को ढक दें. तकरीबन 3 महीने में खाद बन कर तैयार हो जाएगी.

* इस विधि से तैयार 1 टन खाद में 12-14 किलोग्राम नाइट्रोजन, 6-7 किलोग्राम फास्फोरस और 19-22 किलोग्राम पोटाश होती है.

चमेली की खेती महकती जिंदगी

भारत में चमेली की खेती कई इलाकों में की जाती है, लेकिन तमिलनाडु पहले स्थान पर है. उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद, जौनपुर और गाजीपुर जिलों में भी इसे उगाया जाता है. इस के फूल आमतौर पर सफेद रंग के होते हैं, लेकिन कहींकहीं पीले रंग के फूलों वाली चमेली भी पाई जाती है.

चमेली के फूल, पेड़ व जड़ तीनों ही औषधीय चीजें बनाने में इस्तेमाल होते हैं. इस के फूलों से सजावट के अलावा तेल और इत्र भी तैयार किए जाते हैं. भारत से चमेली के फूलों को श्रीलंका, सिंगापुर और मलयेशिया भेजा जाता है.

आबोहवा और मिट्टी : इस की खेती गरम व नम जलवायु में अच्छी तरह से होती है. गरम जलवायु में पानी की अच्छी सहूलियत और लंबे समय तक उजाला चमेली के लिए अच्छा माना जाता है.

चमेली की खेती कई तरह की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन बलुई दोमट मिट्टी, जिस में पानी न रुकता हो और जिस का पीएच मान 6.5-7.5 हो, ज्यादा अच्छी रहती है.

किस्में : भारत में चमेली की तकरीबन 80 किस्में पाई जाती हैं, किंतु कारोबारी खेती के लिए 3 किस्मों को उगाया जाता है :

जैस्मिनम

औरिकुलेटम : यह झाडि़यों वाली किस्म है, जो पूरे साल फूल देती है. इस में सब से ज्यादा फूल मानसून के समय आते हैं. इस के फूलों में महक बहुत होती है और इन से 0.24 से 0.42 फीसदी तक तेल हासिल होता है.

जैस्मिनम सैमबैक : यह किस्म फूल की पैदावार के लिए बेहद अच्छी है.

जैस्मिनम ग्रांडीफ्लोरम : इस के पौधे आधे बेल वाले होते हैं और इन में फूल जून से सितंबर महीने में आते हैं. इस के फूलों से 0.24 से 0.42 फीसदी तेल हासिल किया जाता है.

पौध तैयार करना : चमेली की कलम कटिंग द्वारा तैयार की जाती है. इस की कटिंग जनवरीफरवरी महीने में लगानी चाहिए, क्योंकि इस समय इस में सब से ज्यादा जड़ें निकलती हैं.

खेत की तैयारी : चमेली की खेती के लिए सब से पहले खेत की 2-3 बार गहरी जुताई करते हैं. इस के बाद 1.5×1.5 मीटर की दूरी पर 30×30 सैंटीमीटर आकार के गड्ढे खोद लेते हैं. इन गड्ढों में 10-15 किलोग्राम कंपोस्ट खाद और मिट्टी भर देते हैं.

जड़ निकली हुई कटिंग को इन गड्ढों के बीच में लगा कर सिंचाई कर देते हैं. कटिंग की रोपाई का सब से अच्छा समय जून से ले कर अक्तूबर माह तक होता है. एक एकड़ खेत के लिए तकरीबन 1,800 कटिंग की जरूरत होती है.

खरपतवार खत्म करने के लिए पहली निराई रोपाई के 3-4 हफ्ते बाद करनी चाहिए. पौधों की कटाईछंटाई करने के बाद थालों व पानी की नालियों को अच्छी तरफ साफ कर के 10-15 सैंटीमीटर की गहराई तक खुदाई करनी चाहिए और उस में खाद व उर्वरक मिलाना चाहिए. यह काम हर 2-3 महीने बाद दोहराते रहना चाहिए.

कटाईछंटाई : चमेली की फसल में साल में एक बार कटाईछंटाई की जाती है.

सिंचाई : चमेली को ज्यादा पानी की जरूरत होती है. रोपाई के तुरंत बाद एक सिंचाई कर देनी चाहिए. इस के बाद जरूरत के मुताबिक हफ्ते में 1-2 बार सिंचाई करते रहें. जब फूल आने शुरू हो जाएं, तो नमी बनाए रखने के लिए सिंचाई करते रहें.

फसल सुरक्षा : चमेली पर मिली बग, जैस्मिन बग, बड वर्म, रैड स्पाइडर माइट, पत्ती काटने वाली सूंड़ी और सफेद मक्खी का हमला होता है.

इन कीटों की रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास व सल्फर का इस्तेमाल करें. सरकोस्पोरा व जड़ विगलन बीमारी के लिए कौपर औक्सीक्लोराइड का इस्तेमाल करें.

फूलों की तुड़ाई व उपज : फूलों की तुड़ाई उस समय करनी चाहिए, जब कलियां पकी हों, लेकिन खिली न हों. फूलों की तुड़ाई हमेशा सुबह सूरज निकलने से पहले ही करें.

वैज्ञानिक तकनीक से चमेली की एक  एकड़ फसल से पहले साल 600 से 800 किलोग्राम, दूसरे साल 1,400 से 1,500 किलोग्राम और तीसरे साल 2,200 से 2,500 किलोग्राम फूल हासिल होते हैं. चौथे साल में यह उपज बढ़ कर तकरीबन 3,500 किलोग्राम तक पहुंच जाती है, जो 7-8 साल तक बनी रहती है.

शरदकालीन गन्ने की वैज्ञानिक खेती

शरदकालीन गन्ने की खेती जो किसान भाई करना चाहते हैं तो इस के लिए सही समय अक्तूबरनवंबर माह का होता है. गन्ना घास समूह का पौधा है. इस का इस्तेमाल बहुद्देश्यीय फसल के रूप में चीनी उत्पादन के साथसाथ अन्य मूल्यवर्धित उत्पादों जैसे कि पेपर, इथेनाल और दूसरे एल्कोहल से बनने वाले कैमिकल, पशु खाद्यों, एंटीबायोटिक्स, पार्टीकल बोर्ड, जैव उर्वरक व बिजली पैदा करने के लिए कच्चे पदार्थ के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

गन्ने को खासतौर पर व्यापारिक चीनी उत्पादन करने वाली फसल के रूप में इस्तेमाल में लाया जाता है, जो कि दुनिया में उत्पादित होने वाली चीनी के उत्पादन में तकरीबन 80 फीसदी योगदान देता है. गन्ने की खेती दुनियाभर में पुराने समय से ही होती आ रही है, पर 20वीं सदी में इस फसल को एक नकदी फसल में रूप में पहचान मिली है.

भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि आधारित होने के चलते गन्ने का इस में खासा योगदान है. गन्ने के क्षेत्र, उत्पादन व उत्पादकता में भारत दुनियाभर में दूसरे नंबर पर है. वर्तमान में गन्ना उत्पादन में भारत की विश्व में शीर्ष देशों में गिनती होती है. वैसे, ब्राजील व क्यूबा भी भारत के तकरीबन बराबर ही गन्ना पैदा करते हैं. भारत में 4 करोड़ किसान रोजीरोटी के लिए गन्ने की खेती पर निर्भर हैं और इतने ही खेतिहर मजदूर निर्भर हैं.

गन्ने के महत्त्व को इसी बात से समझा जा सकता है कि देश में निर्मित सभी प्रमुख मीठे उत्पादों के लिए गन्ना एक प्रमुख कच्चा माल है. इतना ही नहीं, इस का इस्तेमाल खांड़सारी उद्योग में भी किया जाता है.

उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, पंजाब, हरियाणा मुख्य गन्ना उत्पादक राज्य हैं. मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और असम के कुछ इलाकों में भी गन्ना पैदा किया जाता है, लेकिन इन राज्यों में उत्पादकता बहुत कम है. इस के अलावा महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और गुजरात में भी गन्ने का उत्पादन किया जाता है.

कुल उत्पादित गन्ने का 40 फीसदी हिस्सा चीनी बनाने में इस्तेमाल किया जाता है. उत्तर प्रदेश देश की कुल गन्ना उपज का 35.8 फीसदी, महाराष्ट्र, 25.4 फीसदी और तमिलनाडु 10.3 फीसदी पैदा करते हैं यानी ये तीनों राज्य देश के कुल गन्ना उत्पादन का 72 फीसदी उत्पादन करते हैं.

गन्ने के बीज का चयन करते समय यह ध्यान रखें कि गन्ना बीज उन्नत प्रजाति का हो, शुद्ध हो व रोगरहित होना चाहिए. गन्ने की आंख पूरी तरह विकसित और फूली हुई हो. जिस गन्ने का छोटा कोर हो, फूल आ गए हों, आंखें अंकुरित हों या जड़ें निकली हों, ऐसा गन्ना बीज उपयोग न करें.

शरदकालीन गन्ने की बोआई के लिए अक्तूबर माह का पहला पखवाड़ा सही है. बोआई के लिए पिछले साल सर्दी में बोए गए गन्ने के बीज लेना अच्छा रहेगा. बोने से पहले खेत की तैयारी के समय ट्राईकोडर्मा मिला हुआ प्रेसमड गोबर की खाद 10 टन प्रति हेक्टेयर का प्रयोग जरूर करें.

कैसे बचाएं कीटों से

जिन खेतों में दीमक की समस्या है या फिर पेड़ी अंकुर बेधक कीटों की समस्या ज्यादा होती है, वहां पर इस की रोकथाम के लिए क्लोरोपाइरीफास 6.2 ईसी 5 लिटर प्रति हेक्टेयर या फ्लोरैंटो नीपोल 8.5 ईसी 500 से 600 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर का 1,500 से 1,600 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

गन्ने की खेती के लिए जैव उर्वरक : शोध के बाद वैज्ञानिकों ने पाया है कि गन्ने की खेती के लिए जैव उर्वरक काफी फायदेमंद साबित होते हैं. सही माने में देखा जाए तो जैविक खाद लाभकारी जीवाणुओं का ऐसा जीवंत समूह है जिन को बीज जड़ों या मिट्टी में प्रयोग करने पर पौधे को अधिक मात्रा में पोषक तत्त्व मिलने लगते हैं. साथ ही, मिट्टी की जीवाणु क्रियाशीलता व सामान्य स्वास्थ्य में भी बढ़वार देखी गई है.

गन्ने की खेती के लिए जीवाणु वातावरण में मौजूद नाइट्रोजन स्तर का प्रवर्तन कर उसे पौधों के लायक बना देते हैं. साथ ही, यह पौधे के लिए वृद्धि हार्मोन बनाते हैं. अकसर देखा गया है कि एसीटोबैक्टर, एजोटोबैक्टर, एजोस्पिरिलम वगैरह ऐसे जीवाणु हैं, जो गन्ने की खेती को फायदा पहुंचाते हैं.

जैविक खाद के बेअसर होने की वजह : प्रभावहीन जीवाणुओं का उपयोग, जीवाणु तादाद में कम होना, अनचाहे जीवाणुओं का ज्यादा होना, जीवाणु खाद को उच्च तापमान या सूरज की रोशनी में रखना, अनुशंसित विधि का ठीक से प्रयोग न करना, जीवाणु खाद को कैमिकल खाद के साथ प्रयोग करना, इस्तेमाल के समय मिट्टी में तेज तापमान या कम पानी का होना, मिट्टी का ज्यादा क्षारीय और अम्लीय होना, फास्फोरस और पोटैशियम की अनुपलब्धता और मिट्टी में जीवाणुओं व वायरस का अधिक होना भी उत्पादन को प्रभावित करता है.

कितनी करें सिंचाई : यह बात सही है कि जैविक खाद कैमिकल खाद की जगह नहीं ले सकती, लेकिन किसान अगर दोनों का सही मात्रा में अपनी खेती में इस्तेमाल करते हैं, तो माली फायदे के साथ में पानी भी दूषित नहीं हो सकेगा.

जैविक खाद का इस्तेमाल करना किसानों के लिए हितकारी ही नहीं, लाभकारी भी होगा. उष्णकटिबंधीय इलाकों में पहले 35 दिनों तक हर 7वें दिन, 36 से 110 दिनों के दौरान हर 10वें दिन, बेहद बढ़वार की अवस्था के दौरान 7वें दिन और पूरी तरह पकने की अवस्था के दौरान हर 15 दिन बाद सिंचाई की जानी चाहिए. इन दोनों को बारिश होने के मुताबिक अनुकूलित करना पड़ता है. गन्ने की खेती में तकरीबन 30 से 40 सिंचाइयों की जरूरत पड़ती है.

कम पानी में कैसे हो खेती

गन्ना एक से अधिक पानी की जरूरत वाली फसल है. एक टन गन्ने के उत्पादन के लिए तकरीबन 250 टन पानी की जरूरत होती है. वैसे तो बिना उत्पादन में कमी लाए पानी की जरूरत को अपनेआप में कम नहीं किया जा सकता है, मगर सिंचाई के लिए पानी की जरूरत में कमी पानी को उस के स्रोत से पाइपलाइन के द्वारा खेत जड़ क्षेत्र तक ला कर रास्ते में होने वाले रिसाव के कारण नुकसान को रोक कर या फिर सूक्ष्म सिंचाई विधियों को अपना कर लाई जा सकती है.

जब पानी की कमी के हालात हों, तब हर दूसरे हफ्ते में पानी से सिंचाई की जा सकती है या फिर मल्च का प्रयोग कर के पानी की जरूरत में कमी लाई जा सकती है. सूखे के हालात में 2.5 फीसदी यूरिया, 2.5 फीसदी म्यूरेट औफ पोटाश के घोल को पाक्षिक अंतराल पर 3 से 4 बार छिड़काव कर उस के प्रभाव को कम किया जा सकता है.

पानी के सही प्रयोग के लिए टपक सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त रखना बेहद जरूरी है. इस के लिए समयसमय पर पानी की नालियों के अंत के ढक्कन खोल कर इन में से पानी को तेजी से बह कर साफ करें. टपक प्रणाली के अंदर की सतह पर जमे पदार्थ को हटाने के लिए 30 फीसदी हाइड्रोक्लोरिक एसिड को इंजैक्ट करें. जब सिंचाई के पानी का स्रोत नदी, नहर और खुला कुआं वगैरह हों, तो व्यक्ति कवच वगैरह के लिए 1 पीपीएम ब्लीचिंग पाउडर से  साफ करना चाहिए. एसिड उपचार और साफ करते समय यह पानी की क्वालिटी पर निर्भर करती है.

Sugarcane

उन्नत प्रजातियां

जल्दी पकने वाली प्रजातियां : कोषा 681, कोषा 8436, कोषा 90265, कोषा 88230, कोषा 95435, कोषा 95255, कोषा 96258, कोसे 91232, कोसे 95436, कोएच 92201, कोजा 64 प्रमुख हैं.

मध्यम और देर से पकने वाली प्रजातियां : कोशा 7918, कोशा 8432, कोशा 767, कोशा 8439, कोशा 88216, कोशा 90269, कोशा 92263, कोशा 87220, कोशा 87222, कोशा 97225, कोपंत 84212, कोपंत 90223, यूपी 22, यूपी 9529, कोसे 92234, कोसे 91423, कोसे 95427, कोसे 96436 खास हैं.

सीमित सिंचित इलाकों के लिए : कोशा 767, कोशा 802, कोशा 7918, कोशा 8118 व यूपी 5 वगैरह हैं.

जलभराव वाले इलाकों के लिए : कोशा 767, कोशा 8001, कोशा 8016, कोशा 8118, कोशा 8099, कोशा 8206, कोशा 8207, कोशा 8119, कोशा 95255, कोसे 96436, यूपी 1, कोशा 9530 वगैरह हैं.

ऊसर जमीन के लिए : को 1158, कोशा 767 खास हैं.

गन्ने के साथ लें दूसरी फसल भी

गन्ने की शुद्ध फसल में गन्ने की बोआई 75 सैंटीमीटर और आलू, राई, चना, सरसों के साथ मिलवां फसल में 90 सैंटीमीटर की दूरी पर बोना चाहिए. एक आंख का टुकड़ा लगाने पर प्रति एकड़ 10 क्विंटल बीज लगेगा. 2 आंख के टुकड़े लगाने पर 20 क्विंटल बीज लगेगा.

पौलीबैग यानी पौलीथिन के उपयोग से बीज की बचत होगी और ज्यादा उत्पादन मिलेगा. बीजोपचार के बाद ही बीज बोएं. 205 ग्राम अर्टन या 500 ग्राम इक्वल को 100 लिटर पानी में घोल कर उस में तकरीबन 25 क्विंटल गन्ने के टुकड़े उपचारित किए जा सकते हैं.

जैविक उपचार प्रति एकड़ 1 लिटर एसीटोबैक्टर प्लस 1 लिटर पीएसबी का 100 लिटर पानी में घोल बना कर रासायनिक बीजोपचार के बाद गन्ने के टुकड़ों को सूखने के बाद सही घोल में 30 मिनट तक डुबो कर उपचार करने के बाद ही बोआई करें.

गन्ने को भी दें खादउर्वरक : गन्ने में खादउर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी जांच के आधार पर जरूरत के मुताबिक पोषक तत्त्वों का उपयोग कर के उर्वरक खर्च में बचत कर सकते हैं. अगर मिट्टी जांच न हुई हो तो बोआई के समय प्रति हेक्टेयर 60 से 75 किलोग्राम नाइट्रोजन, 70 से 80 किलोग्राम फास्फोरस, 20 से 40 किलोग्राम पोटाश व 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट का इस्तेमाल करना चाहिए.

गन्ने की लगाई तकरीबन 10 फीसदी फसल खराब होने की मुख्य वजह फसल को दी गई खाद के साथ पोटाश की सही मात्रा का उपलब्ध न होना है.

शोधों से पता चला है कि गन्ने की खेती में अच्छी पैदावार हासिल करने के लिए प्रति एकड़ तकरीबन 33 किलोग्राम पोटाश की जरूरत होती है, इसलिए गन्ने की खेती में पोटाश का प्रयोग जरूर करें.

सांप के काटने पर झाड़फूंक नहीं इलाज कराएं

किसानी से जुड़े कामों में खतरा भी हर पल बना रहता है. कई बार खेत में काम करते समय भी जहरीले जीवजंतुओं के काटने की घटनाएं सामने आती हैं. खेतों में पाए जाने वाले सांप वैसे तो चूहों से फसलों की हिफाजत करते हैं, पर सांप को सामने देख कर डर के मारे सभी की घिग्घी बंध जाती है. अकसर खेत में उगी घनी फसल के बीच या खेत की मेंड़ पर उगी झाडि़यों में सांप छिपे रहते हैं.

खेत में काम करते समय अनजाने में किसान का पैर सांप के ऊपर पड़ जाता है और सांप अपने बचाव के लिए फन से उसे डस लेता है. सांप के काटने के इलाज की सही जानकारी न होने से किसान झाड़फूंक के चक्कर में पड़ जाते हैं. अगर काटने वाला सांप जहरीला निकला तो किसान को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ता है.

देश के ज्यादातर हिस्सों में सब से ज्यादा सांप के डसने की घटनाएं बारिश में नजर आती हैं, पर ठंड और गरमी में भी खेतों में लगी फसल में काम करते समय भी सांप के डसने से किसान प्रभावित हो जाते हैं.

वैटेरिनरी कालेज, जबलपुर के सांप विशेषज्ञ गजेंद्र दुबे के मुताबिक, भारत में सांपों की तकरीबन 270 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिन में से 10-15 प्रजाति के सांप ही ज्यादा जहरीले होते हैं.

भारत में करैत, कोबरा, रसेल वाइपर, सा स्केल्ड वाइपर, किंग कोबरा, पिट वाइपर वगैरह सब से जहरीले सांप हैं. देश में तकरीबन हर साल 50,000 लोग सांप के डसने से प्रभावित होते हैं. कई बार सांप जहरीला न भी हो तो भी किसान सांप के काटने के डर से घबरा जाते हैं और हार्ट अटैक से मर जाते हैं.

सांपों का अंधविश्वास

हमारे समाज में सांपों के बारे में कई तरह के अंधविश्वास फैले हुए हैं. गांवदेहात में तो बाकायदा इन की देवीदेवताओं की तरह पूजा की जाती है. नागपंचमी के दिन इन्हें दूध पिलाने की परंपरा है. सांपों को ले कर कई फिल्में भी बनी हैं, जिन में दिखाया जाता है कि नागलोक एक अलग संसार है. ‘नागिन’, ‘नगीना’ जैसी कई फिल्मों में यह कहानी दिखाई गई है कि नाग या नागिन के जोडे़ में से किसी एक को मारने पर वे अपने साथी की मौत का बदला लेते हैं.

इसी तरह इच्छाधारी सांप और मणि रखने वाले सांपों की कहानियां गंवई इलाकों में लोगों को सुना कर सांपों के प्रति डर दिखाया जाता है.

वास्तव में विज्ञान कहता है कि न तो सांप दूध पीते हैं और न ही इच्छाधारी होते हैं. सांप बीन की धुन पर नाचते हैं, यह भी एक अंधविश्वास है, क्योंकि सांप के कान ही नहीं होते. गांवदेहात में पंडेपुजारी भी नागपंचमी पर इन की पूजापाठ करा कर केवल भोलेभाले लोगों से दानदक्षिणा बटोर कर अपनी जेबें भरने का काम करते हैं.

झाड़फूक से बचें

अकसर सांप के काटने पर लोग झाड़फूंक के चक्कर में जल्दी आ जाते हैं. किसानी महल्ला साईंखेड़ा के दरयाव किरार को जुलाई, 2018 में धान की रोपाई करते समय सांप ने दाएं हाथ की उंगली में काट लिया. उन्होंने तुरंत हाथ के ऊपरी हिस्से पर कपड़ा बांध लिया और अपने जानपहचान वाले के साथ झाड़फूंक करने वाले पंडे के पास पहुंच गए.

तकरीबन 5-6 घंटे तक झाड़फूंक करने के बाद शाम को घर आ गए. रात 11 बजे जब उन्हें लगातार उलटी होने लगी, तो परिवार के लोग उन्हें अस्पताल ले गए, जहां लगातार 5 दिन तक इलाज चलने के बाद उन की हालत में सुधार हुआ.

माहिर लोग बताते हैं कि अगर सांप जहरीला नहीं होता तो पीडि़त शख्स को कुछ नहीं होता. इस की वजह से झाड़फूंक को लोग सही मान लेते हैं.

लेकिन लोगों का यह तरीका ठीक नहीं है. कभी किसी को सांप काटे तो तुरंत ही उसे सरकारी अस्पताल ले जाना चाहिए. आजकल के नौजवान मोबाइल फोन में सोशल मीडिया की गलत जानकारी को सही मान कर गलतफहमी के शिकार हो जाते हैं और सांप के डसने पर गलत तरीके अपना लेते हैं.

अक्तूबर, 2019 में मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के गांव चांदनखेड़ा में धान के खेत में दवा का छिड़काव कर रहे एक किसान राजकुमार को सांप ने डस लिया था. उस ने व्हाट्सएप पर आए एक मैसेज में पढ़ा था कि सांप के काटने पर उस जगह पर कट लगा लेना चाहिए. सो, उस ने जल्दबाजी में सांप के जहर से बचने के लिए अपने पास रखे ब्लेड से हाथ में कट लगा लिया. उसे लगा कि खून के साथ सांप का जहर निकल जाएगा, लेकिन ज्यादा खून बह जाने के चलते जब किसान की हालत बिगड़ने लगी तो साथ में काम कर रहे उस के चाचा द्वारा उसे अस्पताल पहुंचाया गया, जहां डाक्टरों ने उसे एंटी स्नेक वीनम इंजैक्शन लगा कर सांप के जहर से बचा लिया.

बचाव, सावधानियां और सरकारी सहायता

बारिश में हर सरकारी अस्पताल में हर महीने औसतन 20 लोग सांप के डसने के चलते इलाज के लिए आते हैं. जागरूकता की कमी में कई बार झाड़फूंक में फंस कर लोग अपनी जान से भी हाथ धो बैठते हैं.

जिला अस्पताल की सिविल सर्जन डाक्टर अनीता अग्रवाल बताती हैं कि जिस अंग में सांप ने काटा है, उसे पानी से साफ कर के स्थिर रखने का प्रयास करें और अंग के पास किसी तरह का कट न लगाएं, क्योंकि इस से टिटनस फैलने का खतरा रहता है. जहां सांप ने काटा है, वहां कपड़े या धागे की पट्टी बांधते समय इस बात का ध्यान जरूर रखें कि वह इतना कस कर न बांधें कि खून का बहाव पूरी तरह बंद हो जाए. खून का बहाव पूरी तरह बंद होने से अंग के काटने की स्थिति बन सकती है.

सांप के काटने पर किसी ओझागुनिया, पंडा या मौलवी के पास जा कर झाड़फूंक कराने के बजाय बिना समय गंवाए सीधे सरकारी अस्पताल पहुंचना चाहिए. आजकल हर सरकारी अस्पताल में पर्याप्त मात्रा में एंटी स्नेक वीनम इंजैक्शन मौजूद हैं.

तमाम सावधानियां बरतने के बाद भी तमाम किसान सांप के डसने का शिकार हो जाते हैं और झाड़फूंक के फेर में पड़ कर या देशी इलाज कराने की वजह से जान से हाथ धो बैठते हैं. इस से किसान परिवार के कमाऊ और कामकाजी सदस्य की मौत से माली दिक्कत आ जाती है.

सांप के डसने से मौत होने पर आजकल देश के ज्यादातर राज्यों की सरकारें पीडि़त परिवार को सहायता राशि मुहैया कराती हैं. अलगअलग राज्यों में अलगअलग सहायता राशि देने का प्रावधान है.

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश में सहायता राशि 4 लाख रुपए देने का प्रावधान है, जबकि पजाब में 3 लाख रुपए, झारखंड में ढाई लाख रुपए की सरकारी सहायता देने का नियम है. यह सहायता राशि मरने वाले शख्स के निकटतम संबंधी या वारिस को दी जाती है.

सांप के डसने से मौत होने पर मरने वाले का पोस्टमार्टम कराना जरूरी होता है. सरकारी सहायता लेने के लिए अपनी तहसील के राजस्व अधिकारी, एसडीएम या तहसीलदार दफ्तर में मौत हो जाने के 15 दिन के अंदर आवेदन करना जरूरी है. आवेदन के साथ राशनकार्ड, आधारकार्ड की प्रमाणित प्रति के साथ पोस्टमार्टम रिपोर्ट और मृत्यु प्रमाणपत्र जमा कराना जरूरी है.

बड़े काम का पत्थरचूर

यह औषधीय पौधा हाई ब्ल्डप्रैशर व दिल से जुड़ी बीमारियों को ठीक करने के लिए मशहूर है. यह पौधा एकवर्षीय शाकीय, शाखान्वित, सुगंधित तकरीबन 1-2 फुट तक लंबा होता है.

इस का वानस्पतिक नाम कोलियस फोर्सकोली है. यह लेमिएसी कुल का सदस्य है. इस के पत्तों व जड़ों से अलगअलग तरह की गंध आती है, पर जड़ों में से आने वाली गंध बहुधा अदरक की गंध से मिलतीजुलती होती है. पत्थर जैसी चट्टानों पर पैदा होने के चलते इस को ‘पाषाण भेदी’ नाम से भी जाना जाता है.

यह पौधा भारत में खासतौर पर उत्तराखंड, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, गुजरात, कर्नाटक व तमिलनाडु वगैरह राज्यों में पाया जाता है. उत्तराखंड में पत्थरचूर की खेती तकरीबन 1,000 मीटर ऊंचाई तक की गरम जगहों पर की जा सकती है.

औषधीय उपयोग : पत्थरचूर की कंदील जड़ें शीतल, कड़वी, कसैली होती हैं. इन का उपयोग हाई ब्लडप्रैशर, बवासीर, गुल्म यानी नस में सूजन, मूत्रकृच्छ यानी पेशाब में जलन, पथरी, योनि रोग, प्रमेह यानी गोनोरिया, प्लीहा यानी तिल्ली रोग बढ़ना, शूल यानी ऐंठन, अस्थमा, दिल की बीमारी, कैंसर, आंखों की बीमारी वगैरह में किया जाता है. इस के अलावा इस का उपयोग बालों के असमय पकने से रोकने व पेट की बीमारियों के लिए भी किया जाता है.

जमीन व आबोहवा : पत्थरचूर की खेती के लिए नरम, मुलायम मिट्टी, जिस का पीएच मान 5.5-7.0 तक हो, सही रहती है. इस फसल को कम उपजाऊ मिट्टी में भी आसानी से उगाया जा सकता है. लाल रेतीली व रेतीली दोमट मिट्टी इस की खेती के लिए आदर्श मानी जाती है. इस के लिए गरम, आर्द्र आबोहवा काफी सही होती है. अकसर 86-95 फीसदी तक आर्द्रता व 100-160 सैंटीमीटर तक सालाना बारिश वाले इलाकों में इस की खेती सही होती है.

उन्नत किस्में : पत्थरचूर की 2 प्रमुख उन्नत किस्में हैं गारमल मैमुल और के-8.

कृषि तकनीक

खेत की तैयारी : पत्थरचूर की खेती के लिए खेत में 2-3 बार हल से जुताई कर के 10 टन गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देनी चाहिए, पर अगर जैविक खाद का इस्तेमाल किया जाना मुमकिन न हो तो प्रति हेक्टेयर 30 किलोग्राम नाइट्रोजन (15 किलोग्राम प्रतिरोपण के समय व बाकी प्रतिरोपण के एक माह बाद) 50 किलोग्राम फास्फोरस व 40 किलोग्राम पोटाश की मात्रा डालने से पौधों की सही बढ़वार होती है.

प्रवर्धन : पत्थरचूर का प्रवर्धन बीजों व कलमों द्वारा किया जा सकता है.

बोआई : पत्थरचूर की खेती बीजों व कलमों दोनों से की जा सकती है, पर कलमों से खेती करना ज्यादा सुविधाजनक होता है. यह विधि प्रचलित भी है.

पत्थरचूर की खेती के लिए नर्सरी की जरूरत होती है. इस के लिए 2-2 मीटर की क्यारियां तैयार कर के पाषाण भेदी की कलमों को लगा देना चाहिए जो 10-12 सैंटीमीटर लंबी हो व जिन में 5-6 पत्ते लगे हों. जल्दी ही कलमों से जड़ें फूटने लगती हैं.

नर्सरी से एक माह पुरानी कलमों को निकाल कर खेत में रोप देना चाहिए. पौध से पौध के बीच की दूरी 30 सैंटीमीटर और कतार से कतार की दूरी 30 सैंटीमीटर तक होनी चाहिए. इस तरह एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए तकरीबन 1 लाख कलमों की जरूरत होती है. प्रतिरोपण के 2 महीने बाद कोलियस के पौधों पर हलके नीले जामुनी रंग के फूल आने लगते हैं. इन फूलों को नाखुनों की मदद से तोड़ या काट दिया जाना चाहिए वरना जड़ों का विकास प्रभावित हो सकता है.

उर्वरक : पौधा रोपते समय प्रति हेक्टेयर 9-10 टन गोबर की सड़ी खाद डालनी चाहिए.

सिंचाई : पौध रोपने के बाद अगर बारिश न हो तो तत्काल सिंचाई करना बहुत जरूरी होता है. रोपने के पहले 2 हफ्तों में हर 3 दिन में एक बार पानी देना जरूरी होता है, जबकि बाद में हफ्ते में एक बार सिंचाई करना सही रहेगा.

Medicinal Plantनिराईगुड़ाई : पत्थरचूर मानसून की फसल होने के चलते समयसमय पर निराईगुड़ाई कर के खरपतवार निकालते रहना चाहिए.

कीट, रोग व उन की रोकथाम : पत्थरचूर की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले प्रमुख कीटों में बैक्टरियल विल्ट, कैटरपिलर, मिली बग, नोमोटिड्स वगैरह होते हैं. इन की रोकथाम के लिए 10 मिलीलिटर मिथाइल पैराथियान 10 लिटर पानी में घोल कर पौधों व उन की जड़ों पर छिड़काव करना चाहिए.

वहीं बैक्टीरियल विल्ट के लिए 0.2 फीसदी कैप्टान घोल का स्प्रे करना चाहिए. नोमोटिड्स की रोकथाम के लिए 8-10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से कार्बोफ्यूरान के ग्रेनुअल्स का इस्तेमाल करना चाहिए.

दोहन व संग्रहण : पत्थरचूर की फसल रोपण के 4.5-5 माह बाद खुदाई के लिए तैयार हो जाती है. वैसे, तब तक इस के पत्ते हरे ही रहते हैं, पर यह देखते रहना चाहिए कि जब जड़ें अच्छी तरह विकसित हो जाएं (यह स्थिति रोपण के तकरीबन 4-5 माह के बाद आती है) तो पौधों को उखाड़ लिया जाना चाहिए.

उखाड़ने से पहले खेत की हलकी सिंचाई कर दी जानी चाहिए, ताकि जमीन गीली हो जाए और जड़ें आसानी से उखाड़ी जा सकें. फिर जड़ों को धो कर साफ कर लेना चाहिए. उस के बाद छोटेछोटे टुकड़ों में काट कर छायादार जगह पर सुखा लेना चाहिए. फिर सूखी जड़ों को बोरियों में भर कर इकट्ठा कर देना चाहिए.

पत्थरचूर का विवरण

उत्पादन व उपज : पत्थरचूर की फसल से तकरीबन 15-18 क्विंटल तक सूखी जड़ें प्रति हेक्टेयर की दर से हासिल होती हैं.

बाजार की कीमत : पत्थरचूर का वर्तमान बाजार मूल्य 40-45 रुपए प्रति किलोग्राम तक होता है.

खर्च का ब्योरा : पत्थरचूर की खेती पर होने वाली अनुमानित लागत व प्राप्ति का प्रति व्यक्ति आर्थिक विवरण निम्न प्रकार है:

शुद्ध लाभ : 60,000.00

कुल प्राप्ति : 15,800.00

कुल लागत : 44,200

किसानों को फ्री बीज, कृषि यंत्रों पर भारी छूट

बस्ती : दलहन और तिलहन की खेती को बढ़ावा देने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किसानों को बीजों की निःशुल्क मिनी किट वितरित की जा रही है.

सूबे के कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही द्वारा सर्किट हाउस, बस्ती में 50 किसानों एवं कृषि विज्ञान केंद्र, बंजरिया, बस्ती में आयोजित गोष्ठी में 100 किसानों को सरसों/मटर /चना /मसूर की मिनी किट का वितरण किया गया.

इस मौके पर उपस्थित किसानों को संबोधित करते हुए कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने कहा कि प्रदेश सरकार किसानों की आय दोगुनी करने के लिए प्रतिबद्ध है.

उन्होंने आगे कहा कि खाद्य तेलों के विदेशी आयात में कमी लाए जाने हेतु सरकार द्वारा तिलहन के बीजों का निःशुल्क मिनी किट वितरित किया जा रहा है. इसी कड़ी में बस्ती मंडल को 12,000 मिनी किट उपलब्ध कराया गया है.

उन्होंने यह भी कहा कि प्रदेश सरकार द्वारा इस वर्ष रबी में दलहन एवं तिलहन के 10 लाख निःशुल्क मिनी किट किसानों को उपल्ब्ध कराया जा रहा है. इस से प्रदेश में तिलहन एवं दलहन के उत्पादन में वृद्धि होगी.

बीज वितरण में पारदर्शिता के लिए बायोमैट्रिक आधारित पौश मशीन का उपयोग

उन्होंने कहा कि बीज वितरण में पारदर्शिता लाए जाने के लिए बायोमैट्रिक आधारित पौश मशीन का उपयोग किया जा रहा है. लेकिन किसानों की सुविधा के लिए और समय से बोआई का काम पूरा किया जा सके. इस के लिए पात्र किसानों के जरूरी कागजात ले कर उन्हें समय से मिनी किट मुहैया कराए जाने का निर्देश दिया गया है.

न्होंने आगे कहा कि ऐसे किसानों का बाद में बायोमैट्रिक लिया जाएगा.

Kisan Yojnaकृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने कहा कि जिन किसानों को एक बार बीज मुहैया कराया जाता है, वह उसे 3 सालों तक बीज के रूप में उपयोग में ला सकते हैं.

मोटे अनाज की खेती करने हेतु किसानों से अपील करते हुए कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने कहा कि सरकार मोटे अनाज की खेती को बढ़ावा देने के लिए सदा प्रयासरत हैं और इस की खेती के लिए बीज कृषि विभाग के राजकीय कृषि बीज भंडारों पर मुफ्त उपलब्ध हैं.

उन्होंने मोटे अनाज के फायदे बताते हुए कहा कि इस के प्रयोग से तमाम तरह की बीमारियां नहीं होती हैं और यह पौष्टिक भी होता है. मोटे अनाज की खेती कम लागत में और बिना रासायनिक खाद का प्रयोग किए की जा सकती है, जिस से किसानों को ज्यादा लाभ प्राप्त होगा.

50 फीसदी अनुदान पर मिलेट्स प्रोसैसिंग मशीन

उन्होंने यह भी कहा कि श्रीअन्न पुनरोद्धार योजना के तहत उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 50 फीसदी अनुदान पर मिलेट्स प्रोसैसिंग मशीन किसानों को उपलब्ध कराया जा रहा है. साथ ही, उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें जानकारी मिली है कि बस्ती में 110 एफपीओ पंजीकृत हैं, जिन्हें प्रशिक्षित कर उन्हें सक्षम बनाया जाएगा.

उन्होंने सभी एफपीओ को शक्ति पोर्टल पर पंजीकृत किए जाने का निर्देश दिया और कहा कि एफपीओ को बढ़ावा देने के लिए प्रति किसान 2,000 रुपया मैचिंग ग्रांट भी दिया जा रहा है. इस के लिए एफपीओ में निर्धारित संख्या में शेयर अंशधारक किसानों का होना जरूरी है.

किसानों को संबोधित करते हुए कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने कहा कि सरकार एफपीओ को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न प्रकार से इन की आर्थिक मदद कर रही है, जैसे- फार्म मशीनरी बैक की स्थापना, बीज विधायन संयंत्र और मिलेट्स आउटलेट्स आदि लगाने पर सब्सिडी दी जा रही है.

कृषि विभाग पराली प्रबंधन यंत्रों पर छूट

कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही किसानों से पराली न जलाने की अपील करते हुए कहते हैं कि कृषि विभाग के समस्त राजकीय कृषि बीज भंडारों पर डीकंपोजर मुफ्त उपलब्ध है, जिस का प्रयोग कर कंपोस्ट खाद बना कर प्रयोग करने से लागत में कमी आती है और रासायनिक खाद की अपेक्षा कंपोस्ट खाद पूरी तरह जैविक होती है एवं कृषि विभाग पराली प्रबंधन यंत्रों पर 50 से 80 फीसदी की छूट भी दे रहा है.

कृषि विज्ञान केंद्र का भ्रमण

इस के बाद कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती में आयोजित कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए, जहां उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती का भ्रमण किया. इस दौरान उन्होंने आम, अमरूद, आंवला, मुसम्मी, किन्नू, संतरा, नाशपाती, अंजीर, सेब की विभिन्न प्रजातियों की जानकारी प्राप्त की.

कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने पूसा नरेंद्र काला नमक-1 धान के बीज उत्पादन कार्यक्रम की प्रशंसा की. उन्होंने जगरी यूनिट को तुरंत शुरू करने का निर्देश दिया. इस के उपरांत कृषि विभाग, बस्ती द्वारा कृषि विज्ञान केंद्र के भारत रत्न नानाजी देशमुख कांन्फ्रेस हाल में आयोजित मिनी किट वितरण कार्यक्रम में कप्तानगंज, बहादुरपुर, दुबौलिया एवं हर्रैया के किसानों को सरसों, लाही, मसूर एवं चना बीज के मिनी किट का वितरण किया

किसान बिना किसी भेदभाव के प्राप्त कर सकते हैं कृषि योजनाओं का लाभ

इस मौके पर किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि किसान रोजगारपरक प्रशिक्षण प्राप्त कर खेती के साथ ही साथ कृषिगत व्यवसाय डेरी , मुरगीपालन, बकरीपालन, मशरूमपालन, मधुमक्खीपालन के साथ फलपौध की नर्सरी पर जोर दिया.

Kisan Yojnaकृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने आईएफएस मौडल अपनाने पर किसानों का आवाह्न किया और कहा कि सिर्फ धान, गेहूं, गन्ना से किसानों की आय में आशातीत बढोतरी नहीं हो सकती है. किसान एकीकृत फसल प्रणाली (आईएफएस मौडल) अपना कर अपनी आय में 3-4 गुना वृद्धि कर सकते हैं. प्रदेश सरकार एवं केंद्र सरकार द्वारा किसानों के हित में अनेक कृषिगत योजनाएं चलाई जा रही हैं, जिन का लाभ किसान बिना किसी भेदभाव के प्राप्त कर सकते हैं.

सांसद हरीश द्विवेदी ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किसानों की आय बढ़ाने के लिए चलाई जा रही योजनाओं की प्रशंसा करते हुए कहा कि वर्तमान सरकार की अगुआई में लगातार खेती लाभ की तरफ अग्रसर हुई है. कृषि विज्ञान केंद्र के अध्यक्ष प्रो. एसएन सिंह ने केंद्र पर उगाई जा रही सब्जियों, फलों व अनाजों की उन्नत किस्मों के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि केंद्र पर दूरदराज के किसानों की भी पहुंच आसान हुई है.

Kisan Yojnaइस अवसर पर भाजपा जिलाध्यक्ष विवेकानंद मिश्रा, जिलाधिकारी आंद्रा वामसी, मुख्य विकास अधिकारी जयदेव पुलिस अधीक्षक बस्ती, उपनिदेशक कृषि अशोक कुमार गौतम, एसडीएम सदर गुलाबचंद, जिला कृषि अधिकारी डा. राजमंगल चौधरी, रतन शंकर ओझा, जिला कृषि रक्षा अधिकारी बस्ती, हरेंद्र प्रसाद, उप संभागीय कृषि प्रसार अधिकारी, कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक और भारतीय जनता पार्टी के जिलाध्यक्ष, जिला पंचायत अध्यक्ष संजय चौधरी, यशकांत सिंह ब्लौक प्रमुख, रामनगर, अनिल दूबे, प्रमुख प्रतिनिधि, कुदरहा, वैज्ञानिक डा. बीबी सिंह, डा. डीके श्रीवास्तव, डा. प्रेमशंकर, हरिओम मिश्रा सहित मिनी किट प्राप्त करने वाले किसान राम मूर्ति मिश्र, राम चरित्र, इमराना, राजाराम यादव, राजेंद्र सिंह, अहमद अली सहित सैकडों किसानों को सरसों, लाही, मसूर एवं चना, मटर बीज के निःशुल्क मिनी किट वितरित किया गया

जहांगीरी घंटा साबित हुआ पीएम का ‘शिकायतसुझाव पोर्टल’

कहा जाता है कि, मुगल काल में बादशाह जहांगीर ने लोगों को त्वरित न्याय देने के लिए किले के दरवाजे पर एक बड़ा घंटा लटकवाया था. इसे कोई भी फरियादी दिनरात कभी भी बजा कर सीधे मुल्क के बादशाह से अपनी शिकायत दर्ज कर न्याय प्राप्त कर सकता था.

इसी जहांगीरी घंटे की तर्ज पर प्रधानमंत्री ने खूब तामझाम व प्रचारप्रसार के साथ पीएमओ पोर्टल शुरू किया. सोशल मीडिया के इस प्लेटफार्म पर लोग अपनी जायज शिकायत सीधे प्रधानमंत्री तक पहुंचा सकते थे और उन शिकायतों पर त्वरित कार्यवाही व निराकरण कर उन्हें राहत पहुंचाने का दावा किया गया था.

कहा गया था कि इस पोर्टल पर देश का हर नागरिक अपनी सीधी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अपने उपयोगी सुझाव, योजनाएं सीधे अपने प्रधानमंत्री को भेज सकता है.

प्रधानमंत्री के इस पीएमओ पोर्टल का वास्तविक हश्र क्या हुआ, यह समझने के लिए हमें पहले इन की कार्यप्रणाली समझनी होगी.

मोदी के पिछले लगभग 10 सालों के कार्यकाल की अगर एक वाक्य में व्याख्या करनी हो, तो इसे वादों, नारों, जुमलों और भव्य आयोजनों की सरकार कहा जा सकता है.

मोदी ने देश को भले ही कुछ और दिया हो अथवा न दिया हो, लेकिन निश्चित रूप से इन्होंने कई लोकप्रिय नारे दिए हैं. इन्हीं नारों में इन का एक प्रमुख नारा था: ‘सब का साथ, सब का विश्वास.’

लेकिन यह सरकार और मोदी साथ और विश्वास तो सब का चाहते हैं, परंतु किसी को भी, उस के योगदान के लिए श्रेय देना तो जैसे इन्होंने सीखा ही नहीं, बल्कि इस बात का ध्यान रखा जाता है कि हर काम और उपलब्धियों का श्रेय मोदी और केवल मोदी को ही जाना चाहिए. किसी भी उपलब्धि का श्रेय वो अपनी पार्टी यहां तक कि संबंधित विभाग के मंत्रियों के साथ भी बांटने को तैयार नहीं हैं.

अब आते हैं जहांगीरी घंटे यानी पीएमओ पोर्टल पर. इस पोर्टल पर औनलाइन शिकायत दर्ज होने के बाद शिकायत के बारे में पोर्टल पर और कभीकभी फोन पर आप की शिकायत पर की गई कार्यवाही की जानकारी दी जाती है और शिकायतकर्ता को आशा बंधती है कि शायद उस की शिकायत का अब निराकरण होगा.

लेकिन शिकायत के निराकरण के नाम पर संबंधित विभाग या अधिकारियों से उन का पक्ष पूछ कर, अंततः आप को बता दिया जाता है कि आप की शिकायत निराधार है और आप की शिकायत की फाइल या खिड़की बंद कर दी जाती है.

समझें इन मामलों से

मामला नंबर 1:

अखिल भारतीय किसान महासंघ आईआई के राष्ट्रीय संयोजक किसान नेता डा. राजाराम त्रिपाठी ने उत्तर प्रदेश के लगभग डेढ़ लाख शिक्षाकर्मी और अनुदेशकों को लगभग 20 साल की सेवा के बाद भी नियमित न किए जाने और आज भी उन्हें एक कुशल मजदूर की मजदूरी भी न देते हुए, छुट्टियों, मैडिकल सुविधाएं, पेंशन, बीमा आदि सभी जरूरी सुविधाओं से वंचित रखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा किए गए ऐतिहासिक शोषण, अन्याय, पक्षपात की पीएमओ को की गई शिकायत पर कोई कार्यवाही नहीं हुई.

शिकायतकर्ता द्वारा अपील किए जाने के बावजूद बिना शिकायत की जांच किए और उत्तर प्रदेश सरकार से गोलमोल जवाब ले कर शिकायत को बंद कर दिया गया.

मामला नंबर 2:

वरिष्ठ पत्रकार और ऐक्टिविस्ट यशवंत सिंह (भड़ास 4मीडिया) का निजी मोबाइल पुलिस के उच्चाधिकारियों द्वारा छीनने, एवं  दुर्वव्हायवहार  की शिकायत पर भी पीएमओ द्वारा आज तक कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं हुई.

वे सोशल मीडिया पर बारबार कह रहे हैं कि उन के खिलाफ की गई शिकायतें पूरी तरह से फर्जी हैं, और वह शिकायत करने वालों को जानतेपहचानते तक नहीं, बावजूद इस के बिना पर्याप्त जांच के ही उन का निजी मोबाइल जब्त कर लिया जाता है और मांगने के बावजूद न तो शिकायत की प्रति दी जाती है और न ही मोबाइल की पावती दी जाती है.

देश के सर्वोच्च जिम्मेदार और शक्तिशाली प्रधानमंत्री के निजी कार्यालय को की गई शिकायत पर भी किसी तरह की जांचपड़ताल किए बिना ही, इस कांड से संबंधित दोषी पुलिस उच्च अधिकारियों से प्राप्त जानकारी के आधार पर शिकायत बंद कर दी जाती है. जाहिर है कि कोई भी गलती करने वाला अधिकारी अपनी गलती भला क्यों कर स्वीकार कर के सजा भुगतना चाहेगा?

बात प्रधानमंत्री द्वारा अपने पोर्टल पर मांगे जाने वाले सुझाव

यह किसी भी देशवासी के लिए बड़े गौरव की बात होती है कि देश की बेहतरी के लिए उस की सलाह, सुझाव, योजनाएं सीधे उन के प्रधानमंत्री द्वारा सुनी जाती है. लेकिन साथ ही वो देशवासी यह भी चाहता है कि प्रधानमंत्री अगर उस की सलाह, सुझाव, योजनाओं पर यदि कोई पहल करते हैं, तो कम से कम उस की सहभागिता का श्रेय भी उसे दें, ताकि वो और उस के जैसे अन्य देशवासी भी उत्साहित हो कर राष्ट्रनिर्माण के काम में बढ़चढ़ कर आगे आएं. आम नागरिक की सक्रिय सहभागिता सफल परिपक्व लोकतंत्र का अहम लक्षण है. परंतु सुझावसलाह के माने में भी पीएमओ पोर्टल वन वे ट्रैफिक बन कर रह गया.

जब वैश्विक महामारी कोविड 19 की वजह से दुनिया के साथसाथ भारत भी इस की चपेट में आया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च, 2020 को राष्ट्रव्यापी लौकडाउन की घोषणा की, तो पूरे राष्ट्र ने उन का समर्थन किया. सब लोग घरों में कैद हो गए.

यह अवाम के अभूतपूर्व अनुसाशन का प्रदर्शन था. लेकिन घरों में रहने के बावजूद लोगों को खाद्य पदार्थों की आवश्यकता तो पड़ती ही है. इसलिए कुछ आपात सेवाएं जारी रखी गई. पर उन में से एक काम ऐसा था कि जिसे भी जारी रखना बहुत जरूरी था. और वह काम था खेतीकिसानी का. जब खेतों से फलसब्जियों का उत्पादन नियमित होता है, तभी सप्लाई चेन द्वारा लोगों के घरों तक आपूर्ति हो पाती है.

इसी बात को ध्यान में रख कर 25 मार्च को मैं ने प्रधानमंत्री कार्यालय को टैग करते हुए सुझाव दिया कि खेती के काम को तत्काल लौकडाउन से मुक्त किया जाए और कैसे केवल फलसब्जी और तत्कालीन खेतों में खड़ी रबी की फसलों को भी सही समय पर कटाई कर के खलिहान और फिर खलिहान से गोदाम तक या किसानों के घरों तक और फिर जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने के काम को लौकडाउन से मुक्त रखा जाए.

इस सलाह को पंजीकृत कर प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा तुरंत अमल में लाया गया और 27 मार्च, 2020 को गृह मंत्रालय के द्वारा इसी आशय के संशोधित आदेश जारी कर खेती के ज्यादातर कामों को लौकडाउन से मुक्त कर दिया गया.

हालांकि अलगअलग राज्यों ने केंद्र सरकार के उन आदेशों की अपनी समझ और सुविधा के अनुसार अलगअलग व्याख्या करते हुए उन का क्रियान्वयन समुचित ढंग से नहीं किया, जिस से किसानों को भारी नुकसान और तमाम परेशानियां हुईं, स्थानीय प्रशासन ने भी कोरोना को रोकने और खेती के काम को रोकने का अंतर समझने की कोशिश नहीं की और सुदूरवर्ती इलाकों में पुलिस अपना पराक्रम निरीह किसानों पर दिखाती रही. आज भले कोरोना नहीं है, पर 3 साल बाद आज भी देश के किसान उस की मार से उबर नहीं पाए हैं.

केंद्र सरकार द्वारा कोरोना में गरीबों और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए और अन्य तबकों के लिए जब विभिन्न प्रकार के राहत की घोषणाएं की गईं, तब देखा गया कि इन घोषणाओं में कृषि और किसानें के लिए कोई बहुत सार्थक पैकेज नहीं था, जिस से लौकडाउन से खेती को हुए नुकसान की भरपाई करते हुए ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सके.

इसे ध्यान में रखते हुए, 25 अप्रैल, 2020 को डा. राजाराम त्रिपाठी की अगुआई में 52 किसान संगठनों से सलाहमशवरा कर मैराथन बैठकों के बाद काफी मेहनत कर के 25 सूत्री मार्गदर्शी सुझाव व मांगपत्र प्रधानमंत्री को सौंपा गया. इन अधिकांश सुझावों का स्पष्टदर्शी प्रभाव सरकार के तत्कालीन विशेष पैकेज में दिखाई दिया, पर सरकार ने इन सुझावों का श्रेय देने की बात तो दूर, सुझावों के लिए धन्यवाद देना तक जरूरी नहीं समझा.

कोरोना से जुड़ी एक और बानगी

भारत विश्व के सब से ज्यादा वन क्षेत्र वाले 10 देशों में से एक है. भारत के कुल क्षेत्रफल के लगभग 21.23 फीसदी क्षेत्र पर वन स्थित हैं. देश के कई राज्यों में जैसे कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओड़िसा, झारखंड, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र और पूर्वोत्तर राज्यों में जहां आज भी पर्याप्त वन क्षेत्र है, जैसे कि छत्तीसगढ़ में तो तकरीबन 44 फीसदी हिस्सा वन क्षेत्र है और भारत के समूचे 1 क्षेत्रों का 7.7 फीसदी वन छत्तीसगढ़ में ही है. इन वन क्षेत्रों में बहुसंख्यक जनजातीय समुदाय रहता है और इन क्षेत्रों की तकरीबन 70 फीसदी आबादी जंगलों से वनोपज एकत्र कर होने वाली आय से ही अपना जीवनयापन करती है.

छत्तीसगढ़ में तो 425 ऐसे वन राजस्व गांव भी हैं, जिन की आजीविका का साधन केवल जंगल ही है.

छत्तीसगढ़ में इस काम को सुचारु संचालन के लिए 901 प्राथमिक लघु वनोपज सहकारी समितियां काम कर रही हैं, जो पूरी तरह से वनोपज संग्रहण और विपणन पर ही निर्भर है.

भारत में कमोबेश इसी तर्ज पर तकरीबन 250 से अधिक प्रकार की वनोपज संग्रहण किया जाता है, इन सारे वनोपजों में से तकरीबन 70 फीसदी प्रमुख वनोपज मार्चअप्रैल में एकत्र की जाती हैं और यह वनोपज इन दिनों अगर एकत्र नहीं की गई तो या तो यह इन दिनों वनों में प्रायः हर साल लगने वाली आग से जल कर नष्ट हो जाती है, या फिर मईजून की गरमी में यह सूख कर अनुपयोगी जाती है, और इन सब से भी अगर बची भी तो आगे आने वाली मानसून पूर्व की बारिश की बौछारों में तो पूरी तरह से बरबाद हो ही जाती है.

अतः डा. राजाराम त्रिपाठी अखिल भारतीय किसान महासंघ (आइफा) द्वारा सरकार को समर्थन तथ्यों, आंकड़ों के साथ सुझाव देते हुए 4 अप्रैल, 2020 को प्रधानमंत्री कार्यालय विस्तार से वस्तुस्थिति की जानकारी देते हुए मांग की गई थी कि देश में तत्काल लौकडाउन के दरमियान बचाव के साधनों और सुरक्षा के साथ वनोपजों के संग्रहण और उन की खरीदी सुनिश्चित की जाए और संग्राहक परिवारों को इन वनोपजों का उचित मूल्य’ दिलाया जाए.

उक्त पत्र को प्रधानमंत्री कार्यालय के द्वारा आदिवासी मामलों के मंत्रालय को आगे कार्यवाही के लिए तत्काल 4 अप्रैल को ही भेज दिया गया. तत्पश्चात संबंधित राज्यों में 5-6 अप्रैल से वनोपज संग्रहण का काम सुचारु रूप से प्रारंभ हुआ, और 2 मई को केंद्र सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय द्वारा 49 वनोपज के जिसे माइनर फारेस्ट प्रोड्यूस (एमएफपी) कहते हैं, उस के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा भी की गई, जो कि भले ही देर से उठाया गया, पर निश्चित रूप से अच्छा कदम था.

इन्हीं महत्वपूर्ण निर्णयों के कारण हम कोरोना से लड़ाई लड़ते हुए भी अपनी अर्थव्यवस्था को काफी हद तक बचा पाए, लेकिन उपरोक्त सभी मामलों में सरकार ने जिन व्यक्ति या संगठनों के सुझाव को आधार पर उपरोक्त निर्णय लिए, उन का जिक्र तक नहीं किया है. यहां तक कि धन्यवाद ज्ञापन का एक मुफ्त ईमेल तक भेजने में सरकार कंजूसी बरतती है.

पिछले लोकसभा चुनाव के पूर्व, भाजपा के चुनावी घोषणापत्र बनाते समय जिन कृषि विशेषज्ञों को आमंत्रित कर उन से सलाह ली गई थी, उन में डा. राजाराम त्रिपाठी भी एक थे.

उल्लेखनीय है कि, वर्तमान में किसानों की मदद के लिए संचालित कृषक पेंशन निधि और किसान सम्मान निधि जैसी केंद्र सरकार की स्टार योजनाओं की आवश्यकता और उस के संभावित स्वरूप के बारे में अपनी परिकल्पना को स्पष्ट करते हुए इन्हें भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में शामिल करने के बारे में डा. राजाराम त्रिपाठी ने ही सलाह दी थी, इन सुझावों को भाजपा की तत्कालीन समूची चुनाव घोषणापत्र समिति ने सराहा भी था और इन्हें अपने घोषणापत्र में शामिल भी किया था और इस चुनाव में किसानों के वोटों से अभूतपूर्व सफलता भी प्राप्त की.

इन योजनाओं के दम पर पिछला चुनाव जीतने के बाद भी योजनाओं का सुझाव देने वाले का नाम भी कभी इन के द्वारा नहीं लिया गया. यह दीगर बात है कि इन योजनाओं के निर्माण, क्रियान्वयन और संचालन में इतनी खामियां रह गई हैं कि इन महात्वाकांक्षी योजनाओं का मूल उद्देश्य कहीं खो गया.

आखिर में एक सवाल?

सोचने की बात यह है कि एक ओर तो सरकार यह कहते नहीं थकती है कि वह हर नागरिक की सहभागिता शासन में चाहती है, ऐसे में कोई विशेषज्ञ अगर मेहनत कर के कोई सार्थक सुझाव सरकार को भेजता है, तो उन्हें कोई श्रेय देना तो दूर उस की अभिस्वीकृति तक नहीं की जाती है. ऐसे में सब से पहला लाख टके का सवाल यही है कि ‘सब का साथ, सब का विकास’ जैसे खोखले नारों के भरोसे क्या यह भाजपा सरकार साल 2024 चुनाव की वैतरणी पार कर पाएगी?

-किसान नेता डा. राजाराम त्रिपाठी, अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा) के राष्ट्रीय संयोजक और एमएसपी गारंटी कानून किसान मोरचा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं.

मसालों की कटाई व प्रोसैसिंग

पुराने समय से मसालों का हमारे जीवन में खास स्थान रहा है. मसालों का अपने रूप, रस, सुगंध, स्वाद, रंग, आकार वगैरह के कारण अलग ही महत्त्व है. भारत के मसालों की मांग विदेशों में तेजी से बढ़ रही है. मसाले हमारे खाने को जायकेदार बनाने के साथ दवा का भी काम करते हैं.

कटाई के बाद मसालों की सफाई, ग्रेडिंग, पैकिंग वगैरह काम किए जाते हैं. कटाई के समय मसालों में नमी 55-85 फीसदी होती है. इन को महफूज रखने के लिए इन की नमी को घटा कर 8-10 फीसदी तक करना पड़ता है.

मसालों के कारोबार के लिए उन की सही तरीके से कटाई के बाद मड़ाई, सफाई, ग्रेडिंग और पैकिंग पर खास ध्यान दें. यहां हम मसालों की कटाई के बाद के कामों की चर्चा कर रहे हैं.

धुलाई : जिन मसालों को जमीन के पास से या जमीन में से खोद कर निकाला जाता है, उन की धुलाई करना जरूरी होता है, ताकि उन में लगी धूल और संक्रमण पैदा करने वाले पदार्थ साफ हो जाएं. धुलाई बहते पानी से करनी चाहिए. इलायची, हलदी, अदरक वगैरह मसालों की धुलाई की जाती है.

छाल निकालना : कुछ मसाले जैसे अदरक, लहसुन के सूखने में इन की छाल ही रुकावट होती है. इन को सुखाने के लिए इन की छाल निकालना जरूरी होता है. छाल निकालने के लिए खास तरह के चाकुओं का इस्तेमाल किया जाता है. सफेद अदरक लेने के लिए अदरक की छाल निकाल कर उसे नीबू पानी से धो लिया जाता है. इस के लिए 600 मिलीलिटर नीबू के रस को 30 लिटर पानी में मिलाया जाता है.

गोदना : सभी तरह की मिर्च को सुखाने के लिए गोदने की विधि इस्तेमाल की जाती है. मिर्च को लंबाई में दबा कर चपटा कर के सुखाने में कम समय लगता है. इस से क्वालिटी व रंग भी बना रहता है.

रासायनिक उपचार : इस से मसालों को उन के असली रंगरूप में रख कर सुंदर बनाया जाता है, जिस से उन की अच्छी कीमत मिलती है.

छोटी इलायची के बाहर का हरा चमकदार रंग उस की छाल में मौजूद क्लोरोफिल के कारण होता है. इस की चमक को बनाए रखने के लिए इलायची को

2 फीसदी सोडियम कार्बोनेट के घोल में 10 मिनट तक रखा जाता है. मिर्च को सोडियम बाई कार्बोनेट व जैतून के तेल के मिश्रण से उपचारित करने के बाद सुखाने से उस का रंग बना रहता है.

अदरक को धोने के बाद साफ पानी में एक दिन के लिए रखा जाता है. इस के बाद 2 फीसदी बुझे चूने के घोल में 6 घंटे के लिए रखा जाता है.

बुझे चूने के पानी के घोल से उपचारित अदरक को सल्फर डाई औक्साइड के धुएं से (लगभग 3.5 किलोग्राम गंधक धुआं प्रति टन अदरक की दर से) 12 घंटों के लिए उपचारित किया जाता है.

इलायची की फली का रंग हरा चमक लिए हुए होना चाहिए. सभी फलियों का एक जैसा रंग नहीं होने के कारण इलायची की कीमत कम या ज्यादा होती है. एकसमान रंग लाने के लिए इलायची की फलियों को घुलनशील गंधक से उपचारित किया जाता है.

मसालों में हलदी के पीले रंग व इस की खास महक को बनाए रखने के लिए विशेष सावधानी रखनी पड़ती है. खुदाई के 3-4 दिन बाद मुख्य कंद से छोटेछोटे कंदों को अलग कर लिया जाता है. कंदों को धो कर बुझे चूने के पानी, सोडियम कार्बोनेट या सोडियम बाई कार्बोनेट के घोल में उबाला जाता है.

मसालों को सुखाना

मसालों को सुखाने के दौरान इन में नमी की मात्रा को कम कर के 5 से 8 फीसदी तक बनाए रखें. सही ढंग से सूखने पर मसालों का मूल रंग व स्वाद बना रहता है. मसालों को सुखाने के लिए इन तकनीकों को अपनाएं:

धूप में सुखाना : मसालों को धूप में सुखाने के लिए खास सावधानी रखनी पड़ती है, ताकि धूल व बारिश से उन्हें नुकसान न हो. इलायची को 2 फीसदी सोडियम कार्बोनेट से उपचारित कर के और अदरक, हलदी को बुझे चूने के पानी से उपचारित कर के धूप में 8-10 दिन तक सुखाया जाता है.

मसालों में 5 से 8 फीसदी नमी रह जाने तक ही उन्हें धूप में सुखाया जाता है. आईसीएआर ने मिर्च के लिए मिर्च छेदन मशीन तैयार की है. इस मशीन द्वारा 10 किलोग्राम प्रति घंटे की दर से मिर्च छेदन किया जाता है.

मशीन द्वारा सुखाना : मसालों को धूप में सुखाने पर मौसमी बाधाओं के अलावा उन में सूक्ष्म जीवों, धूल, चिडि़यों की गंदगी वगैरह मिलने का डर रहता है, जिस से मसाले की क्वालिटी पर बुरा असर पड़ता है. इस से बचने के लिए मशीन से मसालों को 60 से 70 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान पर 6 से 8 घंटों के लिए सुखाया जाता है.

बिजली की मशीन से सुखाना : गरम हवा के लिए बिजली से चलने वाली शोषक मशीन का इस्तेमाल किया जाता है. इस में तापमान, समय वगैरह का नियंत्रण रहता है, जिस से आसानी से हर तरह के मसालों को सुखाया जा सकता है.

भारतीय मसालों की राष्ट्रीय कानून के तहत हर अवस्था में ग्रेडिंग की जाती है. मसालों के लिए ग्रेडिंग करना कृषि उपज अधिनियम (1987) श्रेणीकरण विपणन के अधीन होता है. इन श्रेणियों को एगमार्क कहा जाता है. इस में भौतिक गुण जैसे रंग, आकार, घनत्व वगैरह का खासतौर पर ध्यान रखा जाता है.

किसानों को अपने उत्पादों की अच्छी कीमत पाने के लिए ग्रेडिंग की जानकारी होना जरूरी है.

कारोबार की कुशलता बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक ग्रेडिंग एक अहम अंग है.

मसालों की गुणवत्ता मान

साबुत बड़ी इलायची : साबुत बड़ी इलायची के सूखे व लगभग पके हुए फल संपुटों के रूप में होते हैं. दलपुंजों के टुकड़ों, डंठलों व अन्य चीजों का भार अनुपात में 5 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए. कीटों द्वारा नुकसान किए पदार्थ की मात्रा भार में 5 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए.

बड़ी इलायची का चूर्ण : बीजों के चूर्ण में बीज अच्छी तरह पिसे होने चाहिए. नमी भार में 14 फीसदी से कम व कुल खनिज भार में 8 फीसदी से कम और वाष्पीय तेल एक फीसदी से कम होना चाहिए.

साबुत लाल मिर्च : कैप्सिकम फ्रुटेसैंस के सूखे पके फल या फलियां शामिल होती हैं. इस में अन्य पदार्थ बाहरी दलपुंज के टुकड़े, धूल, मिट्टी के ढेले, पत्थर वगैरह  शामिल हैं.

Spicesये चीजें भार में 5 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. कीटों द्वारा खराब पदार्थों की मात्रा भार में 5 फीसदी से कम हो.

लाल मिर्च चूर्ण : सूखी साफ फलियों का चूर्ण होना चाहिए. मिर्च के चूर्ण में धूल, कवक, कीट द्वारा नुकसान व सुगंधित पदार्थ नहीं होने चाहिए. मिर्च के चूर्ण की नमी 12 फीसदी से कम, कुल खनिज भार 8 फीसदी से कम होना चाहिए.

साबुत धनिया : कोरिएंडम सेटाइवम के सूखे बीज, जिस में धूल, कचरा, कंकड़, मिट्टी के ढेले, भूसी, डंठल के अलावा अन्य खाद्य पदार्थ के बीज व कीटों द्वारा खाए बीज शामिल न हों, का अनुपात 0.8 फीसदी से ज्यादा न हो.

धनिया चूर्ण : इस में नमी भार में 12 फीसदी से ज्यादा नहीं व कुल खनिज भार 7 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए.

मेथी : सूखे पके बीज में फालतू पदार्थ, धूल, कचरा, कंकड़, मिट्टी के ढेले वगैरह का अनुपात भार में 5 फीसदी से कम होना चाहिए. कीटों द्वारा खाए पदार्थ की मात्रा भार में 5 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए.

मेथी चूर्ण : इस में मेथी के सूखे पके फलों का पिसा चूर्ण, जिस में नमी भार में 10 फीसदी से कम व कुल खनिज भार में 7 फीसदी से कम होनी चाहिए.

साबुत हलदी : पौधे से सूखे कंद या कंदीय जड़ में लैड क्रोमेट व अन्य रंजक पदार्थों की मिलावट नहीं होनी चाहिए. कीटों द्वारा नुकसान किए पदार्थों की मात्रा भार में 5 फीसदी से कम होनी चाहिए.

हलदी चूर्ण : चूर्ण में बाहरी रंग की मिलावट नहीं होनी चाहिए. चूर्ण में नमी भार में 13 फीसदी से कम व कुल खनिज भार में 9 फीसदी से कम होनी चाहिए. लैड क्रोमेट जांच नेगेटिव होनी चाहिए.

स्टोरेज : मसाले व इन के उत्पाद नमी के मामले में ज्यादा संवेदनशील होते हैं, क्योंकि इन में नमी लेने की कूवत ज्यादा होती है. इस वजह से नमी से बचाने के लिए इन का भंडारण व पैकिंग अच्छी होनी चाहिए. नमी के आने पर इन में दरार पड़ने, रंग फीका पड़ने के अलावा कीट व बीमारियों का हमला हो जाता है.