मसाला की मिश्रित खेती (Mixed farming of spices) : फायदे का सौदा

आज खेती के मौडर्न तरीकों से जहां किसान बढ़ती लागत और कुदरती प्रकोप के चलते खेती को फायदे का सौदा नहीं बना पा रहे हैं, वहीं कुछ किसान ऐसे भी हैं, जो अपने नवाचारों से सीमित जमीन पर मसाला जिंसों की मिश्रित खेती कर के सालाना अच्छी आमदनी ले रहे हैं.

नरसिंहपुर जिले की करेली तहसील में गांव रांकई पिपरिया के एक किसान जोगेंद्र किशोर द्विवेदी अदरक, धनिया, मिर्च, हलदी वगैरह की उन्नत खेती कर के क्षेत्र में किसानों के लिए एक जीतीजागती मिसाल बन गए हैं.

काफी पढ़ेलिखे जोगेंद्र किशोर द्विवेदी गांव के प्राइमरी स्कूल में टीचर हैं, पर खेतीकिसानी की पारिवारिक पृष्ठभूमि के चलते स्कूल के बाद का समय वे खेतीकिसानी में लगाते हैं.

परंपरागत खेती से हट कर उन्होंने गन्ने के साथ सोयाबीन और राजमा की मिश्रित फसल का इस्तेमाल किया है. वहीं अदरक का रिकौर्ड उत्पादन कर गांव वालों को एक नई राह दिखाने के साथ अपनी आमदनी भी बढ़ाई है.

कैसे करें अदरक की खेती

अपने खेत से निकले अदरक को 1-1 इंच के छोटेछोटे टुकड़ों में इस तरह काटते हैं कि प्रत्येक टुकड़े में 2-3 आंखें हों. इन्हीं आंखों में से अदरक का अंकुरण होता है. अदरक के टुकड़ों को धूप में सुखा कर रखते हैं.

खेत को अच्छी तरह तैयार कर मिट्टी में नीम के पाउडर का इस्तेमाल करते हैं, इस से अदरक की गठानों में कीट रोग का हमला नहीं हो पाता.

अदरक के सूखे हुए टुकड़ों को अच्छी तरह से तैयार खेत में अप्रैल के आखिर या मई के शुरू में बो दिया जाता है. अदरक बोने के लिए बनाई गई क्यारी में 25 सैंटीमीटर के अंतर से इन्हें बोया जाता है. क्यारी से क्यारी की दूरी 75 सैंटीमीटर रखें.

अदरक बोने के तुरंत बाद ही सिंचाई कर दी जाती है, जिस से अदरक के साथ मिट्टी अच्छी तरह से सेट हो जाए. प्रत्येक 5 से 7 दिन के अंतर पर अदरक की क्यारियों में सिंचाई की जाती है.

उन का कहना है कि गेहूं, चना या दूसरी फसल के स्थान पर मसाला जिंसों की खेती से ज्यादा फायदा मिल जाता है.

प्रगतिशील किसान जोगेंद्र किशोर द्विवेदी अपने खेत पर केंचुआ खाद, वर्मी कंपोस्ट, वर्मी वाश तैयार कर के उन का इस्तेमाल अपने खेतों में लगी इन्हीं मसाला फसलों पर करते हैं. साथ ही, खेती की नईनई तकनीक जानने के लिए यूट्यूब, गूगल के अलावा तमाम खेतीकिसानी से संबंधित कृषि पत्रिकाएं पढ़ते हैं.

उन का कहना है कि आने वाले समय में वे हलदी, मिर्च और धनिया के साथ अदरक की प्रोसैसिंग कर खुद का ब्रांड बाजार में लाना चाहते हैं. इस के लिए शुरुआती तैयारी चल रही है. मसाला जिंसों की प्रोसैसिंग कर के वे लोगों की रसोई में ही सीधे मसाले पहुंचाने का काम करने जा रहे हैं.

अश्वगंधा की खेती में रोजगार की अपार संभावनाएं

हिसार : अश्वगंधा प्रकृति का बहुमूल्य उपहार है. शक्तिवर्धक एवं रोग प्रतिरोधी क्षमता जैसे विलक्षण गुणों से भरपूर होने के कारण इसे ‘शाही जड़ीबूटी’ की संज्ञा भी दी गई है. आधुनिक युग में इस औषधीय पौधे की बढ़ती मांग को देखते हुए वैज्ञानिकों को अश्वंगधा पर अधिक से अधिक शोध कर इस की नई किस्में ईजाद करें. साथ ही, किसानों को अश्वगंधा की खेती कर दूसरों को भी इस के लिए जागरूक करने की आवश्यकता है.

ये विचार चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने रखे. वे  विश्वविद्यालय के कृषि महाविद्यालय में ‘अश्वगंधा अभियान’ विषय पर आयोजित कार्यशाला में बतौर मुख्य अतिथि संबोधित कर रहे थे. यह कार्यशाला भारत सरकार के आयुष मंत्रालय में राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड के द्वारा विश्वविद्यालय के अनुवांशिकी एवं पादप प्रजनन विभाग के औषधीय, संगध एवं क्षमतावान फसल अनुभाग द्वारा आयोजित की गई थी.

2 लाख पौधे किसानों को उपलब्ध करवाए जाएंगे

मुख्य अतिथि प्रो. बीआर कंबोज ने कहा कि यूनानी व आयुर्वेद पद्धति में औषधीय पौधों का अति महत्वपूर्ण योगदान है. उन्होंने अश्वंगधा की विशेषताएं बताते हुए कहा कि इस जड़ीबूटी का इस्तेमाल एंटीऔक्सीडेंट, चिंतानाशक, याददाश्त बढ़ाने वाला, कैंसररोधी, सूजनरोधी सहित अन्य बीमारियों से राहत पाने के लिए किया जाता है. साथ ही, यौन रोग के इलाज व शरीर को बलवर्धक बनाने में भी अश्वगंधा का प्रयोग किया जाता है.

उन्होंने कहा कि देश की 65 फीसदी आबादी प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल व आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आयुर्वेद व औषधीय जड़ीबूटियों का उपयोग करती है. वर्तमान समय में अश्वगंधा की जड़ों का उत्पादन तकरीबन 1123.6 टन है, जबकि आवश्यकता 3222.4 टन है, इसलिए इस में उद्यमिता की अपार संभावनाएं हैं.

उन्होंने कहा कि अश्वगंधा की विशेषताओं व बढ़ती मांग को देखते हुए विश्वविद्यालय ने आयुष विश्वविद्यालय के साथ अनुबंध किया है, ताकि विद्यार्थियों को इस क्षेत्र में अपना कैरियर संवारने के लिए बेहतर विकल्प मिल सकें.

मुख्य अतिथि प्रो. बीआर कंबोज ने आगे कहा कि आगामी सीजन में विश्वविद्यालय द्वारा अश्वगंधा की खेती को बढ़ावा देने के लिए अश्वगंधा की उन्नत किस्मों के 2 लाख पौधे किसानों को उपलब्ध करवाए जाएंगे. साथ ही, वर्तमान समय में पाठ्यक्रम के अंदर अश्वगंधा के गुणों को शामिल करना चाहिए.

औषधीय, संगध एवं क्षमतावान फसल अनुभाग के प्रभारी डा. पवन कुमार ने अश्वगंधा अभियान के तहत विभिन्न प्रतियोगिताएं, कार्यक्रमों व क्रियाकलापों पर विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की.

वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. राजेश आर्य ने कविता के माध्यम से अश्वगंधा के गुणों का उल्लेख किया. इस के अलावा छात्र सुलेंद्र व छात्रा हिमांशी ने अश्वगंधा की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए इस के फायदे व गुणों को सभी से साझा किया.

सेवानिवृत प्रधान वैज्ञानिक डा. ओपी नेहरा ने भी अश्वगंधा के गुणों को विस्तार से बताया. मुख्य अतिथि प्रो. बीआर कंबोज ने अश्वगंधा इम्यूनिटी बूस्टर मैडिकल प्लांट व अश्वगंधा की खेती नामक पुस्तकों का विमोचन किया. मंच संचालन सहायक वैज्ञानिक डा. रवि बैनीवाल ने किया.

स्कूलों व कालेजों में विजेता रहे विद्यार्थियों व किसानों को किया सम्मानित

पोस्टर मेकिंग में प्रथम स्थान पर मुस्कान रही, जबकि रितिक यादव दूसरे व तीसरे स्थान पर दीक्षा रही. कालेज औफ कम्यूनिटी साइंस में पहले स्थान पर मुस्कान सिंधू, दूसरे स्थान पर गरिमा व तीसरे स्थान पर शशि किरण रही. हकृवि स्थित राजकीय उच्च विद्यालय में पहले स्थान पर कक्षा छठी की रितिका, दूसरे स्थान पर कक्षा 7वीं की आंचल व तीसरे स्थान पर कक्षा 8वीं की प्रिया रही.

विश्वविद्यालय के कैंपस स्कूल में प्रथम स्थान पर 11वीं कक्षा की छात्रा कीर्ति, दूसरे स्थान पर 8वीं कक्षा की छात्रा सूर्या व तीसरे स्थान पर कक्षा 8वीं की छात्रा प्रज्ञा रही. भाषण प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पर हिमांशी व दूसरे स्थान पर सुलेंद्र रहे.

साथ ही, भाषण प्रतियोगिता में कैंपस स्कूल के प्रथम स्थान पर ज्योति, दूसरे स्थान पर तनिष्का व तीसरे स्थान पर स्मृति रही. कार्यशाला में अश्वगंधा पौध की खेती करने वाले व दूसरों को इस के लिए प्रेरित करने वाले किसानों को भी मुख्य अतिथि प्रो. बीआर कंबोज ने सम्मानित किया, जिन में गांव नंगथला निवासी रविंद्र कुमार, गांव भोडिया निवासी धर्मपाल, गांव टोकस निवासी अभिजीत, गांव कोहली निवासी ओम प्रकाश, गांव रावलवास निवासी कृष्ण कुमार व गांव सरसौद निवासी सुंदर शामिल थे.

इस अवसर पर विश्वविद्यालय के तमाम अधिकारियों सहित इस से जुड़े समस्त महाविद्यालय के अधिष्ठाता, निदेशक, विभागाध्यक्ष, वैज्ञानिक, शोधार्थी सहित सेवानिवृत वैज्ञानिक डा. पीके वर्मा, डा. ईश्वर सिंह यादव और काफी संख्या में किसान व विभिन्न स्कूलों व महाविद्यालयों के विद्यार्थी उपस्थित रहे. अश्वगंधा अभियान कार्यशाला के दौरान अश्वगंधा की खेती एवं उद्यमिता की अपार संभावनाओं पर विस्तार से चर्चा की गई.

अदरक (Zinger) की खेती से किसानों को मिलेगा मुनाफा

बहुत समय से अदरक (Zinger) का इस्तेमाल मसाले के रूप में, सागभाजी, सलाद, चटनी और अचार व अलगअलग तरह की भोजन सामग्रियों के बनने के अलावा तमाम तरह की औषधियों के बनाने में होता है. इसे सुखा कर सौंठ भी बनाई जाती है.

मिट्टी व खेत की तैयारी

उचित जल निकास वाली दोमट या रेतीली दोमट भूमि इस की खेती के लिए अच्छी होती है. जुताई कर के मिट्टी को भुरभुरी व समतल कर लेना चाहिए.

बोआई का समय

जहां पर सिंचाई की सुविधा हो, वहां इस की बोआई अप्रैल के मध्य पखवारे से मई महीने तक करनी चाहिए.

किस्में व अवधि

अदरक की उन्नत किस्में सुप्रभा, सुरुचि, सुरभि वगैरह हैं, जो 200 से 225 दिनों में तैयार हो जाती हैं.

बीज की मात्रा व बोने की विधि

एक कट्ठा क्षेत्रफल (125 वर्गमीटर) के लिए तकरीबन 24 से 30 किलोग्राम बीज प्रकंदों की जरूरत होती है, जिन्हें 4 से 5 सैंटीमीटर के टुकड़ों में बांट लेते हैं. हर टुकड़े का भार 25 ग्राम से 30 ग्राम होना चाहिए और उस में 2 आंखें जरूर हों.

बीज प्रकंदों को बोने से पहले 2.5 ग्राम मैंकोजेब और 1 ग्राम बाविस्टीन मिश्रित प्रति लिटर पानी के घोल में आधे घंटे तक डुबोना चाहिए. फिर छाया में सुखाने के बाद इन्हें 4 सैंटीमीटर की गहराई में  बोआई कर दें. पंक्तियों की आपसी दूरी 25 सैंटीमीटर से 30 सैंटीमीटर और पौधों से पौधों की आपसी दूरी 15 सैंटीमीटर से 20 सैंटीमीटर रखते हैं. बीज प्रकंदों को मिट्टी से अच्छी तरह ढक देना चाहिए.

बोआई के तुरंत बाद ऊपर से घासफूस, पत्तियों व गोबर की सड़ी हुई खाद से अच्छी तरह ढक देना चाहिए. ऐसा करने से मिट्टी के अंदर नमी बनी रहती है और तेज धूप के चलते अंकुरण पर बुरा असर नहीं पड़ता है.

खाद व उर्वरक

खाद व उर्वरक के इस्तेमाल के लिए मिट्टी की जांच करना बेहद जरूरी है. किसी वजह से मिट्टी की जांच न हो सके, तो उन हालात में गोबर की सड़ी हुई खाद या कंपोस्ट 200-250 किलोग्राम प्रति कट्ठा की दर से जमीन में मिला दें.

रासायनिक उर्वरक यूरिया 1.37 किलोग्राम, सिंगल सुपर फास्फेट 6.25 किलोग्राम व म्यूरेट औफ पोटाश 1.06 किलोग्राम, 250 ग्राम जिंक सल्फेट व 125 ग्राम बोरैक्स रोपाई के समय जमीन में मिला दें. रोपाई  के 75 दिन बाद मिट्टी चढ़ाते समय यूरिया 1.37 किलोग्राम देनी चाहिए.

सिंचाई

अदरक की फसल में भूमि में बराबर नमी बनी रहनी चाहिए. पहली सिंचाई बोआई के कुछ दिन बाद ही करते हैं और जब तक बारिश शुरू न हो जाए, 15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहते हैं. गरमियों में हर हफ्ते सिंचाई करनी चाहिए.

खरपतवार प्रबंधन

अदरक के खेत को खरपतवाररहित रखने और मिट्टी को भुरभुरी बनाए रखने के लिए जरूरत के मुताबिक निराईगुड़ाई करनी चाहिए.

अदरक की फसल अवधि में 2-3 बार निराईगुड़ाई करना सही होता है. हर गुड़ाई के बाद मिट्टी जरूर चढ़ाएं. पत्तियों का पलवार (ऊपर से ढक) देने से अंकुरण अच्छा होता है और खरपतवार भी कम उगते हैं. 3-4 बार पलवार देने से अच्छी उपज मिलती है.

50-60 किलोग्राम हरी पत्तियों का पलवार बोआई के तुरंत बाद, इतनी ही पत्तियों का पलवार 30 दिन व 60 दिन बाद देते हैं. जब पौधे 20-25 सैंटीमीटर ऊंचे हो जाएं, तो उन पर मिट्टी चढ़ा देते हैं.

खुदाई व उपज

बोआई के तकरीबन 7-8 महीने बाद फसल को खोदा जा सकता है, पर सौंठ के लिए फसल को पूरी तरह से पक जाने पर ही खोदते हैं. फसल के पकने में मौसम और किस्म के मुताबिक 7-8 महीने लगते हैं.

जब पौधों की पत्तियां सूखने लगें, तब प्रकंदों को फावड़े या खुरपी से खोद कर निकाल लेते हैं. प्रति बिस्वा 200-250 किलोग्राम प्रकंद मिल जाते हैं. सूखने पर इस से 20 से 30 किलोग्राम तक सौंठ हासिल होती है.

अंत:फसल

अदरक की अंत:फसल मिर्च व दूसरी फसलों के साथ खासतौर पर सब्जी वाली फसलों में कर सकते हैं. अंतरवर्ती फसल के रूप में बगीचों में जैसे आम, कटहल, अमरूद वगैरह लगा कर ज्यादा आमदनी हासिल की जा सकती है.

औषधीय फसल पीली सतावर की उन्नत खेती

हमारे देश की जलवायु ऐसी है, जो तमाम तरह के औषधीय पौधों की खेती के लिए उपयुक्त है. इस से तमाम तरह के लाभदायक औषधीय पौधों की खेती कर के अत्यधिक मुनाफा कमाया जा सकता है, क्योंकि वर्तमान परिवेश में लोगों का हर्बल दवाओं की तरफ रुझान भी तेजी से बढ़ा है. इस की एक प्रमुख वजह इन दवाओं का शरीर पर किसी तरह का बुरा प्रभाव न पड़ना भी है.

औषधीय पौधों की खेती में कम जोखिम होने के कारण हाल के दशक में किसानों का रुझान काफी तेजी से इस की तरफ बढ़ा है. इस की एक वजह यह भी है कि सरकार की तरफ से औषधीय फसल के लिए जरूरी अनुदान मुहैया कराना भी रहा है. इसी के साथ प्रोसैसिंग, पैकेजिंग व मार्केटिंग में भी सरकार जरूरी सहयोग समयसमय पर मुहैया कराती रहती है.

कई जागरूक किसानों ने औषधीय पौधों की खेती में कामयाबी हासिल की है, जिस से उन की खेती की तकनीकी, बीज, रोपाई व मार्केटिंग में दिलचस्पी लेने लगे हैं.

इन्हीं औषधीय पौधों में पीली सतावर की खेती को अपना कर किसान दूसरी फसलों की अपेक्षा अत्यधिक मुनाफा ले सकते हैं. इस का वानस्पतिक नाम एस्पेरेगस रेसमोसुस है. इस के दूसरे नाम शतावर, सतमूली, सतवीर्या या बहुसुता भी है.

पीली सतावर एक कांटेदार आरोही लता है. इस की पत्तियां नुकीली व चिकनी होती हैं. इस की लंबाई 3-5 फुट तक और जडे़ं गुच्छों में 15-50 सैंटीमीटर तक लंबी होती हैं, जिस में एक पौधे से औसतन 10-14 किलोग्राम जड़ हासिल की जा सकती है.

सतावर की जड़ व बीजों की मांग बाजार में अत्यधिक बनी हुई है. इस की सूखी जड़ों की प्रोसैसिंग कर के इन को विदेशी बाजारों में बेच कर अत्यधिक लाभ कमाया जा सकता है, जबकि नामीगिरामी दवा कंपनियां भारत में भी किसानों को सतावर की उपज की अच्छी कीमत दे रही हैं. सतावर की जड़ का प्रयोग कई तरह के टौनिक, कैप्सूल व बलवर्धक दवाआंे को बनाने में इस्तेमाल किया जाता है.

मिट्टी का चयन

सतावर के नर्सरी और रोपाई के लिए बलुई दोमट और जीवांश के मात्रा की अधिकता वाली जमीन उपयुक्त होती है. साथ ही, सतावर की फसल में पानी की उचित व्यवस्था भी जरूरी है.

उपयुक्त जलवायु

सतावर की खेती के लिए भारत की समस्त जलवायु उपयुक्त है. इस की खेती मैदानी, पहाड़ी, पठारी आदि सभी जगहों पर की जा सकती है.

बीजों का शोधन

नर्सरी में सतावर के बीजों को डालने से पहले बीजों का शोधन बहुत जरूरी है. 5 किलोग्राम बीजों को 15 ग्राम थीरम या कार्बंडाजिम से शोधित करें. बीजों के शोधन के लिए बायोपैस्टी साइड का प्रयोग करना चाहिए. अगर सतावर में उकठा रोग की आशंका है, तो राइजोबियम कल्चर का प्रयोग भी उपयुक्त होता है.

सतावर की नर्सरी

सतावर की खेती के लिए सब से पहले इस की नर्सरी तैयार की जाती है. इस के लिए दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है. इस की 2 जुताई कर के मिट्टी को भुरभुरा बना लिया जाता है, फिर इस में गोबर की सड़ी खाद नाडेप कंपोस्ट या केंचुआ खाद को मिला कर जीवांशयुक्त बना लेते हैं. इस के उपरांत 5ग्5 फुट की क्यारियां बना कर मध्य मई से मध्य जून तक सतावर के बीजों को नर्सरी में डाल दिया जाता है.

जब पौधा एक से डेढ़ सैंटीमीटर का हो जाए, तो इस में जैव खाद को छिटकवां विधि से डाल देना चाहिए. इस से नर्सरी में पौधा स्वस्थ होता है. 75 दिनों के पश्चात सतावर के पौधे को खेत में 15 अगस्त के पहले रोपा जाता है, तो 18 माह में इस की खुदाई कर ली जाती है और 15 अगस्त के बाद रोपित करने पर 24 माह बाद खोदा जाता है.

खेती की तैयारी

सतावर को खेत में रोपने से पहले खेत की अच्छी तरह से एक जुताई हैरो या रोटावेटर से कर के उस के पश्चात 2 जुताई कल्टीवेटर से की जाती है. जुताई के बाद 80 टन प्रति हेक्टेयर कंपोस्ट की सड़ी खाद और 50 ग्राम डीएपी और 50 किलोग्राम एमओपी को खेत में मिला दें.

अगर खेत में दीमक के प्रकोप की संभावना हो, तो 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मैलाथियान या 10 किलोग्राम फोरेटेक्स थाइमैंटेंजी या टेमैंटेंजी का उपयोग करें.

पौध रोपण

सतावर की नर्सरी से खेत में रोपित करने की 3 विधियां हैं:

पहली विधि, अति उपजाऊ खेत में लाइन से लाइन की दूरी 25 सैंटीमीटर और पौध से पौध की दूरी 60 सैंटीमीटर रखें. वहीं दूसरी विधि में सामान्य उपजाऊ खेत में लाइन से लाइन की दूरी 20 सैंटीमीटर और पौधे से पौध की दूरी 60 सैंटीमीटर रखें.

तीसरी विधि, कम उपजाऊ खेत में लाइन से लाइन की दूरी 15 सैंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 45 सैंटीमीटर रखी जाती है.

इस प्रकार एक एकड़ खेत में पौध रोपने के लिए 25,000 पौध प्रति हेक्टेयर की जरूरत पडे़गी, जबकि अधिक उपजाऊ खेत में 21,000 व कम उपजाऊ खेत में 30,000 पौधों को खेत में रोपने की जरूरत होती है. सतावर के पौध रोपण के तुरंत बाद खेत की सिंचाई इस प्रकार से करें कि खेत में पानी न रुके.

गैप फिलिंग

सतावर की रोपाई के बाद जो पौधे सूख जाते हैं, उन के स्थान पर दूसरे पौधों को तुरंत लगा देना चाहिए, ताकि पौधों की संख्या कम न होने पाए. अच्छी उपज के लिए खेत में निर्धारित मात्रा में पौधे अवश्य होने चाहिए.

खाद व उर्वरक

पौध रोपने के 2 माह बाद 50 किलोग्राम यूरिया प्रति एकड़ की दर से सिंचाई करने के 2 दिन बाद छिटकवां विधि से बोआई करें. फसल की अच्छी पैदावार व बढ़वार के लिए जैविक खादों का प्रयोग करना चाहिए. औषधि निर्माता कंपनियां भी सतावर की फसल में जैव खादों का प्रयोग करने से अच्छा मूल्य देती हैं.

सिंचाई

वर्षा के समय सतावर की फसल को सिंचाई की जरूरत नहीं होती है. यदि वर्षा कम हो, तो खेत की नमी को देखते हुए 1-2 सिंचाई करनी पड़ सकती है. जाड़े के दिनों में सतावर की फसल की एक माह पर सिंचाई की जानी चाहिए. मार्च माह से हर 15 दिन पर सिंचाई करते रहना चाहिए.

निराई, गुड़ाई व खरपतवार नियंत्रण

सतावर की फसल में निराई, गुड़ाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए, क्यांेकि यह कंद वाली फसल है. इसे बढ़ने के लिए खेत का खरपतवार से मुक्त रखना जरूरी है. सतावर की फसल की हर एक माह पर गुड़ाई करते रहें, जिस से मिट्टी हलकी बनी रहे. इस से कंद का तेजी से विकास होता है और कल्ले भी ज्यादा मात्रा में निकलते हैं, इसलिए पौधों में कंदों की मात्रा ज्यादा लगती है. फसल में समयसमय पर निराई कर के खरपतवार को निकाल देना चाहिए. सतावर में खरपतवार नियंत्रण के लिए रसायनांे का प्रयोग न करें. इस से इस की औषधीय गुणवत्ता में कमी आ जाती है.

कीट व बीमारियां

सतावर की फसल में कोई विशेष कीट या बीमारियां नहीं लगती हैं. कभीकभी देखा गया है कि कुछ पौधों में उकठा बीमारी आ जाती है. इस के नियंत्रण के लिए पौध रोपण के समय 1 ग्राम थीरम या बाविस्टीन का घोल बना कर नर्सरी से उखाडे़ गए पौधों की जड़ों की 5 मिनट तक डुबो कर पानी सूखने पर रोपाई करें. अगर फिर भी फसल में किसी प्रकार का कीट लग जाए, तो जैव कीटनाशी या मक्का कीटनाशी का ही प्रयोग करें. अगर पौधों में उकठा का प्रकोप ज्यादा होने लगे, तो लहसुन का घोल बना कर 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें. इस के अलावा तंबाकू व मदार की पत्तियों का घोल भी उकठा व कीट नियंत्रण में लाभदायक हैं.

बीज की तुड़ाई

सतावर की फसल में नवंबर या दिसंबर माह में फूल आता है और मार्च के अंतिम सप्ताह तक इस के बीज पक जाते हैं. जब पौधों में बीज का रंग काला हो जाए और यह काली मिर्च की तरह सूख कर हो जाए, तो इन को पौधों से तोड़ कर सुखा लेना चाहिए. इस से अगली फसल लेने के लिए नर्सरी का जमाव अच्छा होता है. बीज को सुखाने के बाद सीलन वाली जगह पर न रख कर सूखी जगह पर भंडारित कर देना चाहिए.

जड़ों की खुदाई

सतावर की जड़ों की खुदाई 18 माह से 24 माह के बीच में की जा सकती है. अगर सतावर के पौधों से अगले साल भी उपज लेनी है, तो पौधों के अगलबगल खुदाई कर के कंद को पौधों से अलग कर लेना चाहिए और पुनः पौधों की जड़ को मिट्टी से ढक कर सिंचाई कर दें.

जड़ों की प्रोसैसिंग

खुदाई करने के तुरंत बाद सतावर की जड़ों को पौधे से तोड़ कर अलग कर इस को आधा घंटे में उबाल कर इस का छिलका अलग कर लिया जाता है. फसल की अच्छी स्थिति होने पर 1 एकड़ खेत में 30-40 क्विंटल सूखी जड़ प्राप्त होती है.

औषधीय फसल सतावर की मांग विदेशों में काफी अधिक है. रसायनयुक्त खेती करने से पैदावार तो अधिक होती है, पर कीमत कम मिलती है और देश के अंदर ही इस की बिक्री हो पाती है.

भंडारण

सतावर की प्रोसैसिंग के बाद उस का सही तरीके से भंडारण करना बहुत जरूरी हो जाता है. भंडारण के लिए एयरटाइट बैग में जड़ों को पैक कर हाट स्टोर में भंडारित कर दें. अगर स्थानीय स्तर पर हाट स्टोर उपलब्ध नहीं हैं, तो भूसे के अंदर भी रख कर भंडारित किया जा सकता है. भंडारित किए गए सतावर की जड़ में हवा नहीं लगनी चाहिए, क्योंकि इस से जड़ें पसीज कर आपस में चिपक जाती हैं, जिस से इस में फफूंदी लग जाती है और जड़ें खराब हो जाती हैं. छिलकारहित जड़ को एयरटाइट बैग में पैक कर हाट स्टोर में भंडारित किया जाता है.

यदि सतावर की खेती जैविक विधि से की जाए, तो इस की मांग व मूल्य दोनों हर्बल कंपनियों में सब से ज्यादा है, जो अच्छे मुनाफे का एक माध्यम भी है. इस प्रकार सतावर की खेती न केवल अधिक मुनाफा देने वाली साबित होगी, बल्कि अच्छी सेहत के लिए एक अमूल्य खजाना भी है.

शतावर खूबियों का खजाना

शतावर का पौधा 3-5 फुट ऊंचा होता है और यह लता के समान बढ़ता है. इस की शाखाएं पतली होती हैं. पत्तियां बारीक सूई के समान होती हैं, जो 1.0-2.5 सैंटीमीटर तक लंबी होती हैं. पुराने जमाने में गांव वाले इसे ‘नाहरकांटा’ नाम से पुकारते थे, क्योंकि इस की बेल की शाखाओं के हर पोर पर शेर के पंजे में मुडे़ हुए नाखून की तरह का कांटा रहता है.

शतावर लिलिएसी कुल का बहुवर्षीय पौधा है. इस का वानस्पतिक नाम एस्पेरेगस रैसीमोसस है. यह पौधा भारत के उष्ण व समशीतोष्ण राज्यों में 1200-1500 मीटर की ऊंचाई वाले इलाकों में पाया जाता है.

यह पौधा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ राज्यों में साल के मिश्रित वनों में पाया जाता है. बाजार की बढ़ती मांग की वजह से मध्य प्रदेश व उत्तराखंड के विभिन्न जिलों में खासकर कुमाऊं इलाकों में इस की खेती बड़े पैमाने पर की जा रही है.

Shatawarऔषधीय उपयोग : शतावर की जड़े मीठी और रस से भरी होती हैं. यह शीत वीर्य यानी ठंडक प्रदान करने वाली है. इस के अलावा कामोद्दीपक यानी सैक्स पावर बढ़ाने वाली होने के साथसाथ मेधाकारक यानी दिमाग को तेज करने वाली, जठराग्निवर्धक, पौष्टिकदायक यानी जल्दी पचने वाली है. अग्निदीपक, रुधिर विकार, गुल्म सूजन, स्निग्ध, आंखों के लिए फायदा पहुंचाने वाली, शुक्राणुवर्धक यानी शुक्राणु बढ़ाने वाली, दूध बढ़ाने वाली, बलकारक यानी मजबूती लाने वाली और अतिसार, वात, पित्तरक्त और शोध दूर करने वाली होती है.

सक्रिय घटक : इस की जड़ों में 1 व 4 शतावरिन कैमिकल पाया जाता है. शतावरिन 1 सार्सपोजिनिन का ग्लूकोसाइड होता है. इस के अलावा कंदीय जड़ों में म्यूसिलेज और काफी मात्रा में शर्करा पाई जाती है.

जमीन और जलवायु : शतावर की खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी, जिस का पीएच मान 7-8 हो, अच्छी मानी गई है. साथ ही, जल निकास यानी पानी के निकलने का पुख्ता बंदोबस्त होना उचित रहता है. इस के लिए उष्ण व आर्द्र जलवायु बढि़या रहती है.

जिन इलाकों में तापमान 20-40 डिगरी सैंटीग्रेड रहता हो और तकरीबन सालाना बारिश 100-200 सैंटीमीटर तक होती है, खेती के लिए बहुत ही उत्तम होती है.

खेत की तैयारी : शतावर की खेती से पहले जमीन की हल द्वारा 2-3 बार अच्छी तरह जुताई कर लेनी चाहिए. उस के बाद 5 टन सड़ी हुई खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डाल कर खेत में फिर से जुताई कर देनी चाहिए.

प्रवर्धन : शतावर का प्रवर्धन बीजों द्वारा किया जाता है.

बोआई : शतावर की खेती के लिए बीजों द्वारा पौध तैयार की जाती है. नर्सरी के लिए 1×10 मीटर की क्यारियां बना कर बीजों की बोआई कर देनी चाहिए. बीजों को नर्सरी में बोेने से पहले जैविक तरीके से उपचारित कर लें, जिस से कवक, फफूंद वगैरह दूर हो जाएं.

बीजों की बोआई के लिए सब से बढि़या समय मईजून माह का होता है. इस तरह प्रति हेक्टेयर जमीन के लिए 15 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है. तकरीबन 25 दिनों के बाद बीजों से अंकुरण हो जाता है.

अगस्त माह में जब पौधे की ऊंचाई तकरीबन 10-12 सैंटीमीटर की हो जाती है, तब पौधों को 60×60 सैंटीमीटर के अंतराल पर लगा देना चाहिए. कभीकभी जमीन के अंदर जड़ों से फिर से पौध तैयार हो जाती है, जिसे डिस्क कहते हैं. तकरीबन 20 दिनों में यह पौध भी खेत में लगाने के लिए तैयार हो जाती है. एक हेक्टेयर खेत के लिए तकरीबन 27,000 पौधों की जरूरत होती है.

 उर्वरक : शतावर प्रतिरोपण से पहले खेत में 25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 25 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश को 2 भागों में बांट कर के प्रति हेक्टेयर की दर से डालना चाहिए. उक्त मिश्रण का आधा हिस्सा शुरू में अगस्त माह और बाकी बचा हिस्सा अगले से पहले अक्तूबरदिसंबर माह में डालना चाहिए.

सिंचाई : शतावर की फसल के लिए ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं होती है. शुरुआत के दिनों में प्रति सप्ताह और बाद में महीने में एक बार हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. ज्यादा सिंचाई से पौधे में पत्तियों की बढ़वार और हरापन तो बढ़ता ही है, परंतु जड़ों पर बुरा असर पड़ता है.

निराईगुड़ाई : शतावर की अच्छी पैदावार के लिए समयसमय पर निराईगुड़ाई करते रहना जरूरी है. महीने में एक बार हलकी निराईगुड़ाई कर के खेत से खरपतवार निकाल देने चाहिए.

Shatawarरोग, कीट और उन की रोकथाम :

शतावर की फसल पर वैसे तो रोगों व कीटों का हमला नहीं होता है. अगर ऐसा हो भी जाए, तो इस फसल पर कोई बुरा असर नहीं होता है.  फिर भी समयसमय पर कीटनाशकों का छिड़काव करते रहना चाहिए या फिर जड़ों को कवक से बचाने के लिए डाईथेन एम 45 का छिड़काव करना चाहिए.

दोहन व भंडारण : वैसे तो शतावर की फसल तकरीबन 18 से 20 महीने में तैयार हो जाती है. रोपण के अगले साल जब पौधा पीला पड़ने लगे, तो जड़ों की खुदाई कर लेनी चाहिए.

खुदाई के समय जड़ों में आर्द्रता 90 फीसदी रहती है. इसलिए जड़ों में चीरा लगा कर छिलका उतार देना चाहिए. उस के बाद जड़ों को धूप में सुखा कर बोरों में भर कर महफूज जगह पर रख देना चाहिए.

उत्पादन व उपज : शतावर की अच्छी फसल से तकरीबन 45-50 क्विंटल सूखी जडें़ प्रति हेक्टेयर हासिल होती हैं.

अतिरिक्त लाभ : 18 महीने की फसल से बीज की प्राप्ति नहीं होती. अगर बीज लेना हो तो कुछ पौधे छोड़ दें तो अगले साल से यानी 30 महीने बाद बीज प्रति पौधा 20-30 ग्राम हर साल प्राप्त होंगे.

जड़ों की खुदाई के समय आने वाली फसल के लिए डिस्क (जिस में जड़ के 1-2 ट्यूबर्स और तने का कुछ भाग शामिल होता है) को फिर से रोपित कर दें या नर्सरी की क्यारियों में सुरक्षित रख लें, जिस से आगामी बारिश के मौसम में रोपित कर सकें.

इसबगोल की जैविक खेती

इसबगोल एक महत्त्वपूर्ण नकदी व औषधीय फसल है. इसबगोल को स्थानीय भाषा में घोड़ा जीरा भी कहते हैं. विश्व की कुल पैदावार की 80 फीसदी इसबगोल की पैदावार भारत में होती है. इस की खेती मुख्य रूप से राजस्थान व गुजरात में की जाती है. इसबगोल को मुख्यतया दानों के लिए उगाया जाता है, पर इस का कीमती भाग इस के दानों पर पाई जाने वाली भूसी है, जिस की मात्रा बीज के भार की 27-30 फीसदी तक होती है.

इसबगोल के भूसी रहित बीजों का इस्तेमाल पशुओं व मुरगियों के लिए आहार बनाने में किया जाता है.

साथ ही, इसबगोल का इस्तेमाल आयुर्वेदिक, यूनानी और एलोपैथिक इलाजों में किया जाता है. इस के अलावा इस का इस्तेमाल रंगाईछपाई, आइसक्रीम, ब्रेड, चौकलेट, गोंद और सौंदर्य प्रसाधन उद्योगों में भी होता है.

उन्नत किस्में

आरआई 89 : यह किस्म राजस्थान की पहली उन्नत किस्म है. इस के पौधों की ऊंचाई 30-40 सैंटीमीटर होती है. यह 110-115 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की उपज 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरआई 1 : सूखे और कम सूखे इलाकों के लिए मुनासिब इस किस्म के पौधों की ऊंचाई 29-47 सैंटीमीटर होती है. यह 115-120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 12-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

जलवायु व जमीन

इसबगोल के लिए ठंडी व शुष्क जलवायु अच्छी मानी जाती है. बीजों के अच्छे अंकुरण के लिए 20-25 डिगरी सैल्सियस के बीच का तापमान अच्छा माना जाता है. इस के पकने की अवस्था पर साफ, सूखा व धूप वाला मौसम बहुत अच्छा रहता है. पकाव के समय बारिश होने पर इस के बीज सड़ने लगते हैं और बीजों का छिलका फूल जाता है. इस से इस की पैदावार व गुणवत्ता में कमी आ जाती है. इस की खेती के लिए दोमट, बलुई मिट्टी, जिस में पानी के निकलने की अच्छी व्यवस्था हो, अच्छी रहती है.

खेत की तैयारी

खरीफ फसल की कटाई के बाद खेत की 2-3 बार जुताई कर के मिट्टी को भुरभुरी बनाएं और फसल से ज्यादा पैदावार लेने के लिए 5-6 टन सड़ी गोबर की खाद या 3 टन सड़ी देशी खाद व फसल के अवशेष 3 टन प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलाएं. जैव उर्वरकों के रूप में 5 किलोग्राम पीएसबी व 5 किलोग्राम एजोटोबेक्टर प्रति हेक्टेयर की दर से 100 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद में मिला कर खेत में डालें.

बीज दर व बोआई

इसबगोल का बीज बहुत छोटा होता है. इसे क्यारियों में छिटक कर मिट्टी में मिलाना चाहिए. इस के फौरन बाद सिंचाई कर देनी चाहिए. इस प्रकार छिटक कर बोआई करने के लिए 4-5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है.

बीजोपचार : इसबगोल की जैविक खेती के तहत फसल को तुलासिया रोग से बचाने के लिए बीजों में नीम, धतूरा व आक की सूखी मिश्रित पत्तियों (1:1:1) से बना पाउडर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से मिलाएं.

Isabgolखरपतवारों की रोकथाम

इसबगोल में 2-3 निराइयों की जरूरत होती है. पहली निराई बोआई के तकरीबन 20 दिनों बाद व दूसरी निराई 40-45 दिनों बाद कर के फसल को खरपतवारों से बचाएं. इस से तुलासिया रोग का हमला भी कम होता है.

सिंचाई

इसबगोल में बोआई के समय, उस के 8 दिनों, 30 दिनों व 65 दिनों बाद सिंचाई करने से अच्छी उपज हासिल होती है.

इसबगोल की फसल में क्यारी विधि के बजाय फव्वारा विधि द्वारा 6 सिंचाइयां (बोआई के समय और 8, 20, 40, 55 व 70 दिनों बाद) करने से अच्छी उपज मिलती है.

कीट व रोग

रोगग्रस्त फसल के अवशेषों को खेत से बाहर कर के नष्ट कर देना चाहिए. गरमी में गहरी जुताई कर के खेत खाली छोड़ें. फसल चक्र अपनाएं यानी बारबार एक ही खेत में इसबगोल की खेती न करें. स्वस्थ, प्रमाणित व रोगरोधी किस्मों का चयन करें.

खेत में इस्तेमाल की जाने वाली गोबर की खाद अच्छी तरह से सड़ी हुई होनी चाहिए. खेत में ट्राइकोडर्मा कल्चर 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की अंतिम जुताई के समय मिलाएं. इसबगोल की जैविक खेती में नीम, धतूरा, आक की सूखी पत्तियों के पाउडर को 1:1:1 के अनुपात में मिला कर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें.

फसल को रोगों व मोयले से बचाने के लिए 12 पीले चिपचिपे पाश यानी फैरोमौन ट्रैप प्रति हेक्टेयर लगाएं. दीमक से बचाव के लिए जमीन में बेवेरिया बेसियाना या मोटाराइजियम (मित्र फफूंद) 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मिलाएं. पर्णीय छिड़काव के रूप में नीम की पत्तियों का अर्क, धतूरा (10 फीसदी) व गौमूत्र (10 फीसदी) का इस्तेमाल मृदरोमिल आसिता और मोयले की रोकथाम के लिए करें. जरूरत के मुताबिक दोबारा छिड़काव करें.

कटाई, मड़ाई व ओसाई

इसबगोल में 25 से 125 तक कल्ले निकलते हैं. पौधों में 60 दिनों बाद बालियां निकलना शुरू होती हैं. तकरीबन 115-130 दिनों में फसल पक कर तैयार हो जाती है.

फसल पकने पर सुनहरी पीली बालियां गुलाबीभूरी हो जाती हैं और बालियों को दबाने पर दाने बाहर आ जाते हैं.

Isabgolफसल के पूरी तरह पकने के 1-2 दिन पहले ही फसल को काट लेना चाहिए. कटाई सुबह के समय करें, जिस से बीजों के बिखरने का डर न रहे. कटी हुई फसल को 2-3 दिन खलिहान में सुखा कर जीरे की तरह झड़का लें व निकले हुए बीजों की सफाई कर के व सुखा कर बोरियों में भर कर सूखी व ठंडी जगह पर भंडारण करें.

उपज व उपयोगी भाग

इसबगोल की औसत उपज 9-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. इस की भूसी की मात्रा बीज के भार की 30 फीसदी होती है, जो सब से कीमती व उपयोगी भाग है. बाकी 65 फीसदी गोली, 3 फीसदी खली और 2 फीसदी खारी होती है. भूसी के अलावा सभी भाग जानवरों को खिलाने के काम आते हैं.

बड़े काम का पत्थरचूर

यह औषधीय पौधा हाई ब्ल्डप्रैशर व दिल से जुड़ी बीमारियों को ठीक करने के लिए मशहूर है. यह पौधा एकवर्षीय शाकीय, शाखान्वित, सुगंधित तकरीबन 1-2 फुट तक लंबा होता है.

इस का वानस्पतिक नाम कोलियस फोर्सकोली है. यह लेमिएसी कुल का सदस्य है. इस के पत्तों व जड़ों से अलगअलग तरह की गंध आती है, पर जड़ों में से आने वाली गंध बहुधा अदरक की गंध से मिलतीजुलती होती है. पत्थर जैसी चट्टानों पर पैदा होने के चलते इस को ‘पाषाण भेदी’ नाम से भी जाना जाता है.

यह पौधा भारत में खासतौर पर उत्तराखंड, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, गुजरात, कर्नाटक व तमिलनाडु वगैरह राज्यों में पाया जाता है. उत्तराखंड में पत्थरचूर की खेती तकरीबन 1,000 मीटर ऊंचाई तक की गरम जगहों पर की जा सकती है.

औषधीय उपयोग : पत्थरचूर की कंदील जड़ें शीतल, कड़वी, कसैली होती हैं. इन का उपयोग हाई ब्लडप्रैशर, बवासीर, गुल्म यानी नस में सूजन, मूत्रकृच्छ यानी पेशाब में जलन, पथरी, योनि रोग, प्रमेह यानी गोनोरिया, प्लीहा यानी तिल्ली रोग बढ़ना, शूल यानी ऐंठन, अस्थमा, दिल की बीमारी, कैंसर, आंखों की बीमारी वगैरह में किया जाता है. इस के अलावा इस का उपयोग बालों के असमय पकने से रोकने व पेट की बीमारियों के लिए भी किया जाता है.

जमीन व आबोहवा : पत्थरचूर की खेती के लिए नरम, मुलायम मिट्टी, जिस का पीएच मान 5.5-7.0 तक हो, सही रहती है. इस फसल को कम उपजाऊ मिट्टी में भी आसानी से उगाया जा सकता है. लाल रेतीली व रेतीली दोमट मिट्टी इस की खेती के लिए आदर्श मानी जाती है. इस के लिए गरम, आर्द्र आबोहवा काफी सही होती है. अकसर 86-95 फीसदी तक आर्द्रता व 100-160 सैंटीमीटर तक सालाना बारिश वाले इलाकों में इस की खेती सही होती है.

उन्नत किस्में : पत्थरचूर की 2 प्रमुख उन्नत किस्में हैं गारमल मैमुल और के-8.

कृषि तकनीक

खेत की तैयारी : पत्थरचूर की खेती के लिए खेत में 2-3 बार हल से जुताई कर के 10 टन गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देनी चाहिए, पर अगर जैविक खाद का इस्तेमाल किया जाना मुमकिन न हो तो प्रति हेक्टेयर 30 किलोग्राम नाइट्रोजन (15 किलोग्राम प्रतिरोपण के समय व बाकी प्रतिरोपण के एक माह बाद) 50 किलोग्राम फास्फोरस व 40 किलोग्राम पोटाश की मात्रा डालने से पौधों की सही बढ़वार होती है.

प्रवर्धन : पत्थरचूर का प्रवर्धन बीजों व कलमों द्वारा किया जा सकता है.

बोआई : पत्थरचूर की खेती बीजों व कलमों दोनों से की जा सकती है, पर कलमों से खेती करना ज्यादा सुविधाजनक होता है. यह विधि प्रचलित भी है.

पत्थरचूर की खेती के लिए नर्सरी की जरूरत होती है. इस के लिए 2-2 मीटर की क्यारियां तैयार कर के पाषाण भेदी की कलमों को लगा देना चाहिए जो 10-12 सैंटीमीटर लंबी हो व जिन में 5-6 पत्ते लगे हों. जल्दी ही कलमों से जड़ें फूटने लगती हैं.

नर्सरी से एक माह पुरानी कलमों को निकाल कर खेत में रोप देना चाहिए. पौध से पौध के बीच की दूरी 30 सैंटीमीटर और कतार से कतार की दूरी 30 सैंटीमीटर तक होनी चाहिए. इस तरह एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए तकरीबन 1 लाख कलमों की जरूरत होती है. प्रतिरोपण के 2 महीने बाद कोलियस के पौधों पर हलके नीले जामुनी रंग के फूल आने लगते हैं. इन फूलों को नाखुनों की मदद से तोड़ या काट दिया जाना चाहिए वरना जड़ों का विकास प्रभावित हो सकता है.

उर्वरक : पौधा रोपते समय प्रति हेक्टेयर 9-10 टन गोबर की सड़ी खाद डालनी चाहिए.

सिंचाई : पौध रोपने के बाद अगर बारिश न हो तो तत्काल सिंचाई करना बहुत जरूरी होता है. रोपने के पहले 2 हफ्तों में हर 3 दिन में एक बार पानी देना जरूरी होता है, जबकि बाद में हफ्ते में एक बार सिंचाई करना सही रहेगा.

Medicinal Plantनिराईगुड़ाई : पत्थरचूर मानसून की फसल होने के चलते समयसमय पर निराईगुड़ाई कर के खरपतवार निकालते रहना चाहिए.

कीट, रोग व उन की रोकथाम : पत्थरचूर की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले प्रमुख कीटों में बैक्टरियल विल्ट, कैटरपिलर, मिली बग, नोमोटिड्स वगैरह होते हैं. इन की रोकथाम के लिए 10 मिलीलिटर मिथाइल पैराथियान 10 लिटर पानी में घोल कर पौधों व उन की जड़ों पर छिड़काव करना चाहिए.

वहीं बैक्टीरियल विल्ट के लिए 0.2 फीसदी कैप्टान घोल का स्प्रे करना चाहिए. नोमोटिड्स की रोकथाम के लिए 8-10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से कार्बोफ्यूरान के ग्रेनुअल्स का इस्तेमाल करना चाहिए.

दोहन व संग्रहण : पत्थरचूर की फसल रोपण के 4.5-5 माह बाद खुदाई के लिए तैयार हो जाती है. वैसे, तब तक इस के पत्ते हरे ही रहते हैं, पर यह देखते रहना चाहिए कि जब जड़ें अच्छी तरह विकसित हो जाएं (यह स्थिति रोपण के तकरीबन 4-5 माह के बाद आती है) तो पौधों को उखाड़ लिया जाना चाहिए.

उखाड़ने से पहले खेत की हलकी सिंचाई कर दी जानी चाहिए, ताकि जमीन गीली हो जाए और जड़ें आसानी से उखाड़ी जा सकें. फिर जड़ों को धो कर साफ कर लेना चाहिए. उस के बाद छोटेछोटे टुकड़ों में काट कर छायादार जगह पर सुखा लेना चाहिए. फिर सूखी जड़ों को बोरियों में भर कर इकट्ठा कर देना चाहिए.

पत्थरचूर का विवरण

उत्पादन व उपज : पत्थरचूर की फसल से तकरीबन 15-18 क्विंटल तक सूखी जड़ें प्रति हेक्टेयर की दर से हासिल होती हैं.

बाजार की कीमत : पत्थरचूर का वर्तमान बाजार मूल्य 40-45 रुपए प्रति किलोग्राम तक होता है.

खर्च का ब्योरा : पत्थरचूर की खेती पर होने वाली अनुमानित लागत व प्राप्ति का प्रति व्यक्ति आर्थिक विवरण निम्न प्रकार है:

शुद्ध लाभ : 60,000.00

कुल प्राप्ति : 15,800.00

कुल लागत : 44,200

प्याज व लहसुन में पौध संरक्षण

हमारे यहां प्याज व लहसुन कंद समूह की मुख्य रूप से 2 ऐसी फसलें हैं, जिन का सब्जियों के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है. देश में इन की खपत काफी है और विदेशी पैसा हासिल करने में इन का बहुत बड़ा योगदान है.

वैसे तो दुनिया में भारत प्याज और लहसुन की खेती में अग्रणी है, लेकिन इन की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता दूसरे कई देशों से कम है. इस के लिए दूसरे तमाम उपायों के साथ जरूरी है कि इन फसलों की रोगों व कीड़ों से सुरक्षा. फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले रोगों व कीड़ों की पहचान और उन की रोकथाम करने से काफी हद तक इन फसलों को बचाया जा सकता है.

मुख्य रोग झुलसा

लक्षण : यह रोग पत्तियों और डंठलों पर छोटेछोटे सफेद और हलके पीले धब्बों के रूप में पाया जाता है, जो बाद में एकदूसरे से मिल कर भूरे रंग के धब्बे में बदल जाते हैं व आखिर में ये धब्बे गहरे भूरे या काले रंग के हो जाते हैं.

धब्बे की जगह पर बीज का डंठल टूट कर गिर जाता है. पत्तियां धीरेधीरे सिरे की तरफ से सूखना शुरू करती हैं और आधार की तरफ बढ़ कर पूरी तरह सूख जाती हैं. अनुकूल मौसम मिलते ही यह रोग बड़ी तेजी से फैलता है और कभीकभी फसल को भारी नुकसान पहुंचाता है.

रोकथाम : साफसुथरी खेती फसल को निरोग रखती है. वहीं गरमी के महीने में गहरी जुताई और सौर उपचार काफी फायदेमंद रहता है.

दीर्घकालीन असंबंधित फसलों का फसलचक्र अपनाना चाहिए.

रोग के लक्षण दिखाई देते ही इंडोफिल एम-45 की 400 ग्राम या कौपर औक्सीक्लोराइड-50 की 500 ग्राम या प्रोपीकोनाजोल 20 फीसदी ईसी की 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ के हिसाब से 200 लिटर पानी में घोल बना कर और किसी चिपकने वाले पदार्थ के साथ मिला कर 10-15 दिन के अंतराल पर छिड़कें.

बैगनी धब्बा

लक्षण : यह रोग पत्तियों, तनों, बीज स्तंभों व शल्क कंदों पर लगता है. रोगग्रस्त भागों पर छोटेछोटे सफेद धंसे हुए धब्बे बनते हैं, जिन का मध्य भाग बैगनी रंग का होता है.

ये धब्बे जल्दी ही बढ़ते हैं. इन धब्बों की सीमाएं लाल या बैगनी रंग की होती हैं, जिन के चारों ओर ऊपर व नीचे कुछ दूर तक एक पीला क्षेत्र पाया जाता है.

रोग की उग्र अवस्था में शल्क कंदों का विगलन कंद की गरदन से शुरू हो जाता है. रोगग्रस्त पौधों में बीज आमतौर पर नहीं बनते और अगर बीज बन भी गए तो वह सिकुड़े हुए होते हैं.

रोकथाम : इस रोग की रोकथाम भी झुलसा रोग की तरह ही की जाती है.

आधारीय विगलन

लक्षण : इस रोग के प्रकोप से पौधों की बढ़वार रुक जाती है और पत्तियां पीली पड़ जाती हैं. बाद में पत्तियां ऊपर से नीचे की तरफ सूखना शुरू होती हैं. कभीकभी पौधे की शुरू की अवस्था में इस रोग के कारण जड़ें गुलाबी या पीले रंग की हो जाती हैं और आकार में सिकुड़ कर आखिर में मर जाती हैं.

रोग की उग्र अवस्था में शल्क कंद छोटे रहते हैं और इस रोग का प्रभाव कंदों के ऊपर गोदामों में सड़न के रूप में देखा जाता है.

रोकथाम : आखिरी जुताई के समय रोगग्रस्त खेतों में फोरेट दानेदार कीटनाशी 4.0 किलोग्राम प्रति एकड़ मिट्टी में अच्छी तरह से मिलाएं.

दीर्घकालीन असंबंधित फसलों से 2-3 साल का फसलचक्र अपनाएं. कंद को खुले व हवादार गोदामों में रखना चाहिए.

विषाणु

लक्षण : इस रोग के कारण पत्तियों पर हलके पीले रंग की धारियां बनती हैं और पत्तियां मोटी व अंदर का भाग लहरदार हो जाता है. ऐसे हालात में धारियां आपस में मिल कर पूरी पत्ती को पीला कर देती हैं और बढ़वार रुक जाती है.

रोकथाम : चूंकि यह रोग कीड़ों से फैलता है, इसलिए फसलवर्धन काल में जब भी इस रोग के लक्षण दिखें, उसी समय मैटासिस्टौक्स या रोगोर नामक किसी एक दवा का एक मिलीलिटर दवा का प्रति लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करें. जरूरत पड़ने पर दोबारा छिड़काव करें.

मुख्य कीड़े

इन फसलों को सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाले 2 मुख्य कीड़े हैं, थ्रिप्स (चुरड़ा) व लहसुन मक्खी. इन कीड़ों का प्रकोप फरवरी महीने तक होता है.

थ्रिप्स : इस कीड़े के शिशु व प्रौढ़ दोनों ही पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. प्रौढ़ काले रंग के बहुत ही छोटे, पतले व लंबे होते हैं, जबकि शिशु यानी बच्चे हलके भूरे व पीले रंग के होते हैं. जहां से पत्तियां निकलती हैं, उसी जगह ये कीड़े रहते हैं और नईनई कोमल पत्तियों का रस चूसते हैं.

इन के प्रकोप से पत्ते के सिरे ऊपर से सफेद व भूरे हो कर सूखने व मुड़ने लगते हैं. इस वजह से पौधों की बढ़वार रुक जाती है. ज्यादा प्रकोप होने पर पत्ते चोटी से चांदीनुमा हो कर सूख जाते हैं. बाद की अवस्था में इस कीड़े का प्रकोप होने पर शल्क कंद छोटे रहते हैं और आकृति में भी टूटेफूटे होते हैं. बीज की फसल पर इस कीड़े का बहुत ज्यादा असर पड़ता है.

रोकथाम : इस कीड़े की रोकथाम के लिए बारीबारी से किसी एक कीटनाशक को 200-250 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें.

(क) 1. 75 मिलीलिटर फैनवैलरेट 20 ईसी

      1. 175 मिलीलिटर डैल्टामेथ्रिन 2.8 ईसी
      2. 60 मिलीलिटर साइपरमेथ्रिन 25 ईसी या 150 मिलीलिटर साइपरमेथ्रिन 10 ईसी

(ख) 1.300 मिलीलिटर मेलाथियान 50 ईसी

प्याज व लहसुन में चुरड़ा कीट की रोकथाम के लिए लहसुन का तेल 150 मिलीलिटर और इतनी ही मात्रा में टीपोल को 150 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ में 3 से 4 छिड़काव करें.

थ्रिप्स की रोकथाम के समय बरतें सावधानी

* एक ही कीटनाशी का बारबार इस्तेमाल न करें.

* छिड़काव की जरूरत मार्चअप्रैल महीने में पड़ती है, क्योंकि कीड़ा फरवरी से मई महीने तक नुकसान करता है, इसलिए कोई चिपकने वाला पदार्थ घोल में जरूर मिलाएं.

* छिड़काव के कम से कम 15 दिन बाद ही प्याज इस्तेमाल में लाएं.

Lahsunप्याज व लहसुन मक्खी

कभीकभी इस कीड़े का प्रकोप भी इन फसलों पर देखने में आता है. लहसुन की मक्खी घरों में पाई जाने वाली मक्खी से छोटी होती है. इस के शिशु (मैगट) व प्रौढ़ दोनों ही फसल को नुकसान पहुंचाते हैं.

मादा सफेद मक्खी मटमैले रंग की होती है, जो मिट्टी आमतौर पर बीज स्तंभों के पास मिट्टी में अंडे देती है. अंडों से नवजात मैगट स्तंभों के आधार पर खाते हुए फसल के भूमिगत तने वाले हिस्सों में आक्रमण करते हैं और बाद में कंदों को खाना शुरू कर देते हैं, जिस से पौधे सूख जाते हैं. बाद में इन्हीं कंदों पर आधारीय विगलन रोग का आक्रमण होता है, जिस से बल्ब सड़ने लगते हैं.

रोकथाम : आखिरी जुताई के समय खेत में फोरेट कीटनाशी 4.0 किलोग्राम प्रति एकड़ मिट्टी में अच्छी तरह से मिलाएं और बाद में थ्रिप्स में बताई गई कीटनाशियों का इस्तेमाल करें.

अदरक बने रहें गुण, बनाएं बहुतकुछ

मसालों के साथसाथ अदरक को दवा के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है. पहले किसान फसल को बाजार की मांग के मुताबिक बेचते थे और बाकी बचे अदरक की ओर ध्यान न दे कर उसे किसी इस्तेमाल में न ला कर उसे यों ही फेंक देते थे. जब किसान ताजा अदरक मंडी में भेजता है, तो उसे अपने उत्पाद के पूरे दाम नहीं मिल पाते थे, इसलिए इस अरदक के ऐसे व्यावसायिक पदार्थ बनाए जाएं तो फसल से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा उठाया जा सकता है. अदरक का इस्तेमाल अचार, चटनी और उद्योगों में भी किया जा सकता है.

अदरक का इस्तेमाल कच्चा और सुखा कर सौंठ के रूप में किया जाता है. इस की तासीर गरम होने के कारण सर्दियों में बहुत उपयोगी होता है. खाना खाने से पहले अदरक की फांकों को नमक के साथ खा लेने से भूख बढ़ती है और पाचन क्रिया भी तेज हो जाती है. इस के सेवन से गले का बलगम घट जाता है. वायु, कफ, खांसी, वात वगैरह में राहत मिलती है. यह जोड़ों के दर्द, सूजन, भूख में कमी वगैरह में फायदेमंद साबित होता है.

पके अदरक से हम कई तरह की चीजें बना सकते हैं. इस से अदरक की उम्र तो बढे़गी ही, साथ ही साथ उस की कीमत भी ज्यादा मिलेगी.

अदरक का भंडारण

* पके अदरक को भंडारण करने से पहले उसे अच्छी तरह साफ कर लेते हैं. उस की जड़ें काट कर, मिट्टी से साफ कर के पानी में धोते हैं और कमरे में 3-4 दिन तक फैला कर सुखाते हैं. बिना बीमारी वाले और साफसुथरे अदरक को छांट कर अलग कर देते हैं. उस के बाद अदरक को छायादार और ठंडी जगह पर रख कर उपचारित करते हैं.

* बीज के लिए प्रकंदों का भंडारण छाया में बनाए गए गड्ढों में करना चाहिए.

* बीज प्रकंदों के भंडारण के लिए कच्चे गड्ढों की अच्छी तरह सफाई करें और उसे एक हफ्ते तक धूप में खुला छोड़ दें, जिस से कि गड्ढे में नमी न रहे.

* भंडारण करने से पहले प्रकंदों को कार्बंडाजिम (100 ग्राम) + मैंकोजेब (250 ग्राम) + क्लोरोपायरीफास (250 मिलीलिटर) को 100 लिटर पानी में मिला कर घोल में प्रकंदों को एक घंटे तक उपचारित करें.

* उपचारित अदरक को ठंडे और सूखी जगहों पर गड्ढों में स्टोर किया जा सकता है. स्टोरेज में 65 फीसदी नमी और 12-13 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान होना चाहिए.

* गड्ढे में प्रकंदों को पूरी तरह न भरें और गड्ढों को ऊपर से लकड़ी के तख्ते से ढक दें.

अदरक को सुखाना

आमतौर पर निर्यात करने के मकसद से रंगीन और रंगहीन अदरक बनाया जाता है. चाहे इस में ऊपर की छाल नहीं हो. रंगीन, साफ चमका हुआ अदरक बनाने के लिए सब से पहले इस के टुकड़े, जिन्हें गांठें कहते हैं, धोया जाता है, फिर खुली धूप में सुखा लेते हैं.

इस विधि द्वारा सुखाए अदरक का आकार बराबर गांठों को खुरच कर और धो कर खुली धूप में सुखाया जाता है और कई बार ब्लीचिंग करने के लिए सल्फर का धुआं या फिर थोडे़ समय के लिए चूने के घोल में डाल लें.

Zingerअदरक की सौंठ

यह पके अदरक से बनने वाला सब से प्रचलित उत्पाद है, जिस का इस्तेमाल कई तरह के मिक्स मसालों, सूप, कंफेक्शनरी और आयुर्वेदिक दवा बनाने में किया जाता है, इसलिए अगर किसान अदरक की सोंठ बना कर बेचें तो वे ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं.

सब से पहले अदरक को धोया जाता है, ताकि गंदगी जैसे मिट्टी और दूसरे कण वगैरह गांठों से निकल जाएं और सब से अहम बात इस को छीलना है. इस के द्वारा एक तो छिलका निकल जाता है और दूसरी ओर सुखाने की प्रक्रिया तेज करता है.

छिलका उतारने के लिए बोरी और बांस की टोकरी को इस्तेमाल में लाया जाता है. अब धोने के बाद अदरक को खुली धूप में तकरीबन एक हफ्ते के लिए सुखाया जाता है और उस के बाद फिर मसला जाता है, ताकि उस में चमक आ जाए.

इस काम के द्वारा तकरीबन 16-25 फीसदी तक सौंठ हासिल होती है. हर इलाके की सौंठ तैयार करने की अपनी अलग तकनीक होती है, जैसे कालीकट की सौंठ, कोचीन की सौंठ, जैमायका की सौंठ, नाइजीरियन सौंठ, आस्ट्रेलियाई सौंठ वगैरह इलाकों के नाम से जानी जाती हैं.

तकनीक के आधार पर सौंठ 5 तरह की होती है, कोटैड सौंठ, काली सौंठ,  स्क्रैप्ड सौंठ, अनकोटैड सौंठ और ब्लीच्ड सौंठ.

कोटैड या अनपील्ड सौंठ : कोटैड या अनपील्ड सौंठ बिना छिले अदरक से बनाते हैं. अदरक की गांठों को तोड़ कर उन पर लगी मिट्टी की सफाई करते हैं. जड़ वगैरह काट कर निकाल देते हैं और पानी में अच्छी तरह से धो कर धूप में सुखाते हैं. छिलकेदार अदरक होने से उस के गूदे को नुकसान नहीं होता है, इसलिए सौंठ ज्यादा मिलती है और उस में तेल व ओलियोरेजिन की मात्रा ज्यादा होती है. कोटैड सौंठ का इस्तेमाल तेल निकालने और ओलियोरेजिन के लिए किया जाता है.

काली सौंठ : इसे बनाने के लिए बिना छिले अदरक को पानी में 10-15 मिनट तक उबालते हैं, उसे रगड़ कर छील देते हैं. ऐसी सौंठ का रंग काला हो जाता है.

रफ स्क्रैप्डसौंठ : इसे बनाने के लिए अदरक साफ कर के उस की बड़ीबड़ी गांठें तोड़ लेते हैं. इस तरह से छिले अदरक को धूप में सुखाते हैं.

भारत की कोचीन और कालीकट सौंठ इसी विधि से बनाई जाती है. अदरक को रातभर पानी में भिगोने से छीलने में आसानी होती है.

पील्ड या अनकोटैड सौंठ : पील्ड या अनकोटैड सौंठ और स्क्रैप्ड सौंठ पूरी तरह छिले अदरक से बनाई जाती है. इसे बनाने के लिए अदरक पर से छिलका हटा देते हैं.

छीलने के लिए बांस के नुकीले टुकड़ों या स्टील के चाकू की नोक का इस्तेमाल करते हैं.

छिलका ऐसे हटाते हैं, जिस से गूदे पर खरोंच न आने पाए. छिले हुए अदरक को पानी में रखते हैं. पानी में 1 फीसदी की दर से नीबू का रस डालने से अदरक ज्यादा सफेद लगता है और वह नीबू जैसा महकने लगता है.

छिले हुए अदरक को ज्यादा नहीं धोना चाहिए. क्योंकि उस के कई तत्त्व पानी में बह जाते हैं. अब अदरक को धूप में तकरीबन एक हफ्ते तक सुखाते हैं. पील्ड सौंठ चिकनी व सुंदर होती है.

ब्लीच्ड सौंठ : ब्लीच्ड सौंठ भी छिले हुए अदरक से बनाते हैं. छीलने के बाद अदरक को चूने के पानी में भिगोते हैं और धूप में थोड़ा सुखाते हैं. यह काम कई बार करते हैं, जिस से अदरक पर चूने की एक परत चढ़ जाए. अदरक सूखने में तकरीबन 10 दिन का समय लगता है.

अब इस सौंठ को मोटे कपड़े या बोरे के बीच में हलका सा रगड़ते हैं, जिस से उस पर चिपका फालतू चूना और छिलका छूट जाए. इस काम से सौंठ चिकनी, सफेद और आकर्षक बन जाती है.

अदरक को नमक के घोल में परिरक्षित करना

इस तरह से बनाए गए पदार्थ को बिना खराब हुए एक साल से भी ज्यादा समय तक सुरक्षित रख सकते हैं और फिर इस का इस्तेमाल सलाद, सब्जी पकाने के लिए और अचार बनाने के लिए भी करते हैं.

इस घोल में परिरक्षित करने के लिए अदरक को छील कर, टुकड़ों में काट कर शीशे के मर्तबान और जार में रखते हैं.

अदरक को नमक के घोल में परिरक्षित करने के लिए 1 भाग अदरक के टुकड़ों, 1.25 भाग नमक का घोल बनाने के लिए एक लिटर पानी में 50 ग्राम नमक मिलाएं. 12 मिलीलिटर एसिटिक एसिड और 11 मिलीग्राम पोटैशियम मैटाबाई सल्फाइड डालें.

अदरक का तेल

इस तेल में अदरक की महक पाई जाती है. इस का इस्तेमाल परफ्यूम, साबुन उद्योग और दवा बनाने में किया जाता है.

इस के लिए सौंठ को मोटा पीसते हैं और स्टीम डिस्टिलेशन विधि से तेल निकालते हैं.

इसे बनाने के लिए कोटैड सौंठ का इस्तेमाल करना चाहिए. 100 किलोग्राम सौंठ से 1.5-3.0 किलोग्राम तक तेल हासिल होता है.

अदरक का टौनिक

ताजा अदरक की गांठों को सही तरह से पानी से धो लें और इस के बाद इन गांठों को कद्दूकस कर लें और रस निकाल लें.

अगर अदरक का रस 100 ग्राम हो, तब चीनी 350 ग्राम, साइट्रिक एसिड 7-8 ग्राम और पानी 1.5 लिटर. पानी और चीनी मिला लें. एक उबाल में अदरक रस भी मिला लें, फिर मिश्रण में एक उबाल आने दें.

साफ की हुई बोतल में डाल कर क्राउन कार्क लगा दें. उस के बाद बोतलों को उबलते पानी में 20-25 मिनट तक उपचारित करें.

अदरक एपीटाइजर

अदरक एपीटाइजर बनाने के लिए अदरक का रस 400 मिलीलिटर, सेब का गूदा 1 किलोग्राम (सेब की जगह और फलों के गूदों का इस्तेमाल कर सकते हैं, जैसे खुमानी, नाशपाती, आड़ू वगैरह), 1.7 किलोग्राम नीबूवर्गीय फलों का रस 600 मिलीलिटर, साइट्रिक अम्ल 22 ग्राम के करीब इस्तेमाल करते हैं.

इसे तैयार करने के लिए सब से पहले चीनी की चाशनी लें और चाशनी को थोड़ा ठंडा होने पर ऊपर लिखित पदार्थ डाल दें और अच्छी प्रकार मिश्रण मिला दें.

परिरक्षित करने के लिए 15 ग्राम पोटैशियम सल्फाइड को थोड़े पानी में घोल कर एपीटाइजर और तैयार की हुई बोतलों में डाल कर ठीक तरह से ढक्कन लगा दें और ऊपर तक घोल भर दें.

जिंजरेल

नीबू का रस एक बड़ा चम्मच, अदरक का रस 1/2 छोटा चम्मच, चीनी 2 बड़े चम्मच, यीस्ट 1/4 चम्मच छोटा, पानी 2 लिटर, नमक स्वादानुसार.

एक बोतल में यीस्ट और चीनी डालें. अदरक के रस में नीबू का रस मिलाएं और स्लरी बनाएं. इसे बोतल में पानी डाल कर बंद करें. 24-28 घंटे गरम जगह पर रखें, तत्पश्चात फ्रिज में रखें.

अदरक का जूस

सब से पहले तो आप अदरक को अच्छे से धो कर साफ  कर लें और इसे छोटेछोटे टुकड़ों में काट लें और फिर इन कटे हुए अदरक के टुकड़ों को मिक्सर से अच्छे से पीस लें.

फिर इस के जूस को किसी गिलास में निकाल लें और इस में ऊपर से शहद और थोड़ा सा नीबू निचोड़ लीजिए. अदरक का रोगनाशक आयुर्वेदिक जूस बन कर तैयार है.

अदरक का मुरब्बा

अदरक का मुरब्बा बनाने के लिए ताजा, मुलायम और रेशे वाले अदरक को छांट लें. इसे पानी में खुरच कर पूरी तरह घोल लें.

इस के बाद गांठों को टुकड़ों में काट कर गुदाई कर लें. गुदाई किए टुकड़ों को मलमल के कपड़े से बांध कर और उबलते हुए पानी में डाल कर 40-50 मिनट नरम होने तक रखें. नरम होने के बाद थोड़ा सुखा लें. आधा किलोग्राम चीनी में पानी मिला दें और इस घोल को उबालें.

अदरक के टुकड़ों को इसी चीनी के घोल में 10-15 मिनट तक पकाएं और ठंडा होने के लिए रातभर पड़ा रहने दें.

अगले दिन अदरक को चीनी के घोल में से निकाल लें और बची हुई चीनी की मात्रा को इस घोल में डाल दें और उबाल लें, ताकि यह गाढ़ा हो जाए और इस के बाद टुकड़ों को फिर से घोल में डाल दें. 4-5 दिन इसी तरह से रखें. उस के बाद टुकड़ों को निकाल कर चाशनी को और गाढ़ी कर दें, ताकि यह 70 फीसदी चीनी की मात्रा तक पहुंच जाए.

अदरक की कैंडी

कैंडी एक तरह का मुरब्बा है. पर इस में मुरब्बा बनाने के बाद टुकड़ों को निकाल कर चाशनी को और गाढ़ा करते हैं, ताकि चीनी की मात्रा 75 फीसदी तक पहुंच जाए और टुकड़ों को चाशनी में डाल कर 7-15 दिनों तक इसी प्रकार रखा जाता है, ताकि चाशनी पूरी तरह से टुकड़ों के अंदर चली जाए.

उस के बाद टुकड़ों को 5 मिनट तक चाशनी के साथ उबाल लें. फिर टुकड़ों में से चाशनी निथार कर उन्हें सुखा लें. सुखाने वाले यंत्र पर 50 सैंटीग्रेड तापमान पर सुखाएं या फिर खुली धूप में सुखा लें.

अदरक का पाक

अदरक 450 ग्राम (अच्छे से धुला व कद्दूकस), दूध 1.5 किलोग्राम, चीनी 1.5 किलोग्राम, नारियल 200 ग्राम, बादाम 200 ग्राम, काली मिर्च 20 ग्राम, बड़ी इलायची 20 ग्राम ले कर एक कड़ाही में धीमी आंच पर दूध गरम करें.

दूध में उबाल आने पर इस में कद्दूकस किया अदरक डाल दें. कलछी से धीरेधीरे हिलाएं. कुछ देर बाद इस में बारीक कटे बादाम, घिसा हुआ नारियल और पिसी हुई काली मिर्च व बड़ी इलायची मिलाएं.

इस मिश्रण के गाढ़ा होने पर चीनी डाल कर दोबारा गाढ़ा होने तक धीरेधीरे चलाएं. अच्छे से पकने और गाढ़ा होने के बाद थोड़ा ठंडा होने पर किसी कांच या स्टील के बरतन में भर कर रख दें. सुबहशाम एकएक चम्मच दूध के साथ इसे लें.

नीम से किसानों की आमदनी बढ़ाने और पर्यावरण बचाने की कोशिश

मिट्टी और पर्यावरण के सुधार में नीम बहुत ही अधिक माने रखता है. हाल के सालों में नीम के पेड़ के महत्त्व को देखते हुए सरकारों और समुदाय दोनों में जागरूकता आई है. यही वजह है कि नीम के पौधे रोपने पर अब जोर दिया जाने लगा है.

नीम के बीज से बनने वाला तेल फसलों के लिए एक प्राकृतिक कीटनाशक, बीमारीनाशक का काम करता है, इसलिए इस के महत्त्व को देखते हुए खाली जमीनों पर इस के पौधों की रोपाई पर जोर देने की जरूरत है.

नीम के पौधे के इसी महत्त्व को देखते हुए उर्वरक और रसायन मंत्रालय, भारत सरकार में अवर सचिव के पद पर काम कर रहे सचिन कुमार सिन्हा ने लोगों को नीम के पौधे रोपने के लिए न केवल प्रेरित करने का काम किया, बल्कि आज वे लोगों में हजारों नीम के पौधे का मुफ्त वितरण भी कर चुके हैं.

Neemनीम के महत्त्व का पता उन्हें तब चला, जब उन्होंने देखा कि किसान अपने खेतों में कीट व बीमारियों के नियंत्रण के लिए निंबोली और उस की पत्तियों का उपयोग कर रहे हैं.

सचिन कुमार सिन्हा के मन में भी यह विचार आया कि अगर किसान और लोग अपने घरों के आसपास खाली पड़ी जमीनों, कालोनियों आदि में नीम के पौधे रोपें, तो यह न केवल पर्यावरण के सुधार में सहायक हो सकता है, बल्कि कम आय वर्ग के लोग निंबोली इकट्ठा कर के उसे मार्केट में बेच कर अच्छी आमदनी भी हासिल कर सकते हैं.

उन्होंने इस अभियान को शुरू ही किया था कि उर्वरक मंत्रालय में रहते हुए उन को नीमलेपित यूरिया को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई टीम का हिस्सा भी बनने का मौका मिला.

सचिन कुमार सिन्हा ने बताया कि नीमलेपित यूरिया के आ जाने से यूरिया की खपत में न केवल कमी आई है, बल्कि किसानों की आय में भी इजाफा हुआ है.

आमदनी बढ़ाने में मददगार

सचिन कुमार बताते हैं कि निंबोली कई प्रकार की बीमारियों को दूर करने में सहायक है. साथ ही, व्यवसायिक उपयोग कर गांवों में रोजगार को बढ़ावा भी दिया जा सकता है.

Neemसचिन कुमार सिन्हा ने बताया कि आज भी देश में नीम के तेल की जरूरत को पूरा करने के लिए निंबोली आयात किया जाता है, ताकि यहां भी नीम के तेल की कमी न हो. इस कड़ी में गुजरात के गांवों की महिलाओं को निंबोली से उन की आय बढ़ाने के लिए एक अभियान की शुरुआत की गई है.

सचिन कुमार सिन्हा खाली समय में ग्रेटर नोएडा और नोएडा के इलाकों में खाली पड़ी जमीनों और कालोनियों में मिशन मोड में नीम का पौधा रोपित करने में योगदान दे रहे हैं.

नीम के पौध रोपण को एक अभियान के रूप में बढ़ावा देने के लिए उन्होंने साल 2019 में अपने पिता के नाम पर ‘कृष्णा नीम फाउंडेशन’ की शुरुआत की, जिस के जरीए उन्होंने खाली और परती पड़ी जमीनों पर नीम के पेड़ लगवाए. साथ ही, इस अभियान में वे बिल्डर्स को शामिल कर नई बन रही कालोनियों में भी नीम के पौधे लगवा रहे हैं.

 अभियान से जुड़ रहे लोग

सचिन कुमार सिन्हा के इस अभियान में आज उत्तर प्रदेश के तमाम जिलों के लोग भी जुड़ चुके हैं, जिन के जरीए इन्होंने हजारों नीम के पौधे लगाने में कामयाबी पाई है. इस में उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जिले के स्मार्ट विलेज हसुड़ी औसानपुर में ग्राम प्रधान दिलीप त्रिपाठी और मेरठ के क्लब सिक्सटी के संस्थापक हरी बिश्नोई के साथ मिल कर ‘नीम क्रांति’ की शुरुआत कराई है.

इस के अलावा उन के अनुरोध पर देश की विभिन्न फर्टिलाइजर कंपनियों ने पूरे देश में 25,000 से ज्यादा नीम के पौधे रोपे हैं.