शतावर खूबियों का खजाना

शतावर का पौधा 3-5 फुट ऊंचा होता है और यह लता के समान बढ़ता है. इस की शाखाएं पतली होती हैं. पत्तियां बारीक सूई के समान होती हैं, जो 1.0-2.5 सैंटीमीटर तक लंबी होती हैं. पुराने जमाने में गांव वाले इसे ‘नाहरकांटा’ नाम से पुकारते थे, क्योंकि इस की बेल की शाखाओं के हर पोर पर शेर के पंजे में मुडे़ हुए नाखून की तरह का कांटा रहता है.

शतावर लिलिएसी कुल का बहुवर्षीय पौधा है. इस का वानस्पतिक नाम एस्पेरेगस रैसीमोसस है. यह पौधा भारत के उष्ण व समशीतोष्ण राज्यों में 1200-1500 मीटर की ऊंचाई वाले इलाकों में पाया जाता है.

यह पौधा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ राज्यों में साल के मिश्रित वनों में पाया जाता है. बाजार की बढ़ती मांग की वजह से मध्य प्रदेश व उत्तराखंड के विभिन्न जिलों में खासकर कुमाऊं इलाकों में इस की खेती बड़े पैमाने पर की जा रही है.

Shatawarऔषधीय उपयोग : शतावर की जड़े मीठी और रस से भरी होती हैं. यह शीत वीर्य यानी ठंडक प्रदान करने वाली है. इस के अलावा कामोद्दीपक यानी सैक्स पावर बढ़ाने वाली होने के साथसाथ मेधाकारक यानी दिमाग को तेज करने वाली, जठराग्निवर्धक, पौष्टिकदायक यानी जल्दी पचने वाली है. अग्निदीपक, रुधिर विकार, गुल्म सूजन, स्निग्ध, आंखों के लिए फायदा पहुंचाने वाली, शुक्राणुवर्धक यानी शुक्राणु बढ़ाने वाली, दूध बढ़ाने वाली, बलकारक यानी मजबूती लाने वाली और अतिसार, वात, पित्तरक्त और शोध दूर करने वाली होती है.

सक्रिय घटक : इस की जड़ों में 1 व 4 शतावरिन कैमिकल पाया जाता है. शतावरिन 1 सार्सपोजिनिन का ग्लूकोसाइड होता है. इस के अलावा कंदीय जड़ों में म्यूसिलेज और काफी मात्रा में शर्करा पाई जाती है.

जमीन और जलवायु : शतावर की खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी, जिस का पीएच मान 7-8 हो, अच्छी मानी गई है. साथ ही, जल निकास यानी पानी के निकलने का पुख्ता बंदोबस्त होना उचित रहता है. इस के लिए उष्ण व आर्द्र जलवायु बढि़या रहती है.

जिन इलाकों में तापमान 20-40 डिगरी सैंटीग्रेड रहता हो और तकरीबन सालाना बारिश 100-200 सैंटीमीटर तक होती है, खेती के लिए बहुत ही उत्तम होती है.

खेत की तैयारी : शतावर की खेती से पहले जमीन की हल द्वारा 2-3 बार अच्छी तरह जुताई कर लेनी चाहिए. उस के बाद 5 टन सड़ी हुई खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डाल कर खेत में फिर से जुताई कर देनी चाहिए.

प्रवर्धन : शतावर का प्रवर्धन बीजों द्वारा किया जाता है.

बोआई : शतावर की खेती के लिए बीजों द्वारा पौध तैयार की जाती है. नर्सरी के लिए 1×10 मीटर की क्यारियां बना कर बीजों की बोआई कर देनी चाहिए. बीजों को नर्सरी में बोेने से पहले जैविक तरीके से उपचारित कर लें, जिस से कवक, फफूंद वगैरह दूर हो जाएं.

बीजों की बोआई के लिए सब से बढि़या समय मईजून माह का होता है. इस तरह प्रति हेक्टेयर जमीन के लिए 15 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है. तकरीबन 25 दिनों के बाद बीजों से अंकुरण हो जाता है.

अगस्त माह में जब पौधे की ऊंचाई तकरीबन 10-12 सैंटीमीटर की हो जाती है, तब पौधों को 60×60 सैंटीमीटर के अंतराल पर लगा देना चाहिए. कभीकभी जमीन के अंदर जड़ों से फिर से पौध तैयार हो जाती है, जिसे डिस्क कहते हैं. तकरीबन 20 दिनों में यह पौध भी खेत में लगाने के लिए तैयार हो जाती है. एक हेक्टेयर खेत के लिए तकरीबन 27,000 पौधों की जरूरत होती है.

 उर्वरक : शतावर प्रतिरोपण से पहले खेत में 25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 25 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश को 2 भागों में बांट कर के प्रति हेक्टेयर की दर से डालना चाहिए. उक्त मिश्रण का आधा हिस्सा शुरू में अगस्त माह और बाकी बचा हिस्सा अगले से पहले अक्तूबरदिसंबर माह में डालना चाहिए.

सिंचाई : शतावर की फसल के लिए ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं होती है. शुरुआत के दिनों में प्रति सप्ताह और बाद में महीने में एक बार हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. ज्यादा सिंचाई से पौधे में पत्तियों की बढ़वार और हरापन तो बढ़ता ही है, परंतु जड़ों पर बुरा असर पड़ता है.

निराईगुड़ाई : शतावर की अच्छी पैदावार के लिए समयसमय पर निराईगुड़ाई करते रहना जरूरी है. महीने में एक बार हलकी निराईगुड़ाई कर के खेत से खरपतवार निकाल देने चाहिए.

Shatawarरोग, कीट और उन की रोकथाम :

शतावर की फसल पर वैसे तो रोगों व कीटों का हमला नहीं होता है. अगर ऐसा हो भी जाए, तो इस फसल पर कोई बुरा असर नहीं होता है.  फिर भी समयसमय पर कीटनाशकों का छिड़काव करते रहना चाहिए या फिर जड़ों को कवक से बचाने के लिए डाईथेन एम 45 का छिड़काव करना चाहिए.

दोहन व भंडारण : वैसे तो शतावर की फसल तकरीबन 18 से 20 महीने में तैयार हो जाती है. रोपण के अगले साल जब पौधा पीला पड़ने लगे, तो जड़ों की खुदाई कर लेनी चाहिए.

खुदाई के समय जड़ों में आर्द्रता 90 फीसदी रहती है. इसलिए जड़ों में चीरा लगा कर छिलका उतार देना चाहिए. उस के बाद जड़ों को धूप में सुखा कर बोरों में भर कर महफूज जगह पर रख देना चाहिए.

उत्पादन व उपज : शतावर की अच्छी फसल से तकरीबन 45-50 क्विंटल सूखी जडें़ प्रति हेक्टेयर हासिल होती हैं.

अतिरिक्त लाभ : 18 महीने की फसल से बीज की प्राप्ति नहीं होती. अगर बीज लेना हो तो कुछ पौधे छोड़ दें तो अगले साल से यानी 30 महीने बाद बीज प्रति पौधा 20-30 ग्राम हर साल प्राप्त होंगे.

जड़ों की खुदाई के समय आने वाली फसल के लिए डिस्क (जिस में जड़ के 1-2 ट्यूबर्स और तने का कुछ भाग शामिल होता है) को फिर से रोपित कर दें या नर्सरी की क्यारियों में सुरक्षित रख लें, जिस से आगामी बारिश के मौसम में रोपित कर सकें.

इसबगोल की जैविक खेती

इसबगोल एक महत्त्वपूर्ण नकदी व औषधीय फसल है. इसबगोल को स्थानीय भाषा में घोड़ा जीरा भी कहते हैं. विश्व की कुल पैदावार की 80 फीसदी इसबगोल की पैदावार भारत में होती है. इस की खेती मुख्य रूप से राजस्थान व गुजरात में की जाती है. इसबगोल को मुख्यतया दानों के लिए उगाया जाता है, पर इस का कीमती भाग इस के दानों पर पाई जाने वाली भूसी है, जिस की मात्रा बीज के भार की 27-30 फीसदी तक होती है.

इसबगोल के भूसी रहित बीजों का इस्तेमाल पशुओं व मुरगियों के लिए आहार बनाने में किया जाता है.

साथ ही, इसबगोल का इस्तेमाल आयुर्वेदिक, यूनानी और एलोपैथिक इलाजों में किया जाता है. इस के अलावा इस का इस्तेमाल रंगाईछपाई, आइसक्रीम, ब्रेड, चौकलेट, गोंद और सौंदर्य प्रसाधन उद्योगों में भी होता है.

उन्नत किस्में

आरआई 89 : यह किस्म राजस्थान की पहली उन्नत किस्म है. इस के पौधों की ऊंचाई 30-40 सैंटीमीटर होती है. यह 110-115 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की उपज 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरआई 1 : सूखे और कम सूखे इलाकों के लिए मुनासिब इस किस्म के पौधों की ऊंचाई 29-47 सैंटीमीटर होती है. यह 115-120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 12-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

जलवायु व जमीन

इसबगोल के लिए ठंडी व शुष्क जलवायु अच्छी मानी जाती है. बीजों के अच्छे अंकुरण के लिए 20-25 डिगरी सैल्सियस के बीच का तापमान अच्छा माना जाता है. इस के पकने की अवस्था पर साफ, सूखा व धूप वाला मौसम बहुत अच्छा रहता है. पकाव के समय बारिश होने पर इस के बीज सड़ने लगते हैं और बीजों का छिलका फूल जाता है. इस से इस की पैदावार व गुणवत्ता में कमी आ जाती है. इस की खेती के लिए दोमट, बलुई मिट्टी, जिस में पानी के निकलने की अच्छी व्यवस्था हो, अच्छी रहती है.

खेत की तैयारी

खरीफ फसल की कटाई के बाद खेत की 2-3 बार जुताई कर के मिट्टी को भुरभुरी बनाएं और फसल से ज्यादा पैदावार लेने के लिए 5-6 टन सड़ी गोबर की खाद या 3 टन सड़ी देशी खाद व फसल के अवशेष 3 टन प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलाएं. जैव उर्वरकों के रूप में 5 किलोग्राम पीएसबी व 5 किलोग्राम एजोटोबेक्टर प्रति हेक्टेयर की दर से 100 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद में मिला कर खेत में डालें.

बीज दर व बोआई

इसबगोल का बीज बहुत छोटा होता है. इसे क्यारियों में छिटक कर मिट्टी में मिलाना चाहिए. इस के फौरन बाद सिंचाई कर देनी चाहिए. इस प्रकार छिटक कर बोआई करने के लिए 4-5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है.

बीजोपचार : इसबगोल की जैविक खेती के तहत फसल को तुलासिया रोग से बचाने के लिए बीजों में नीम, धतूरा व आक की सूखी मिश्रित पत्तियों (1:1:1) से बना पाउडर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से मिलाएं.

Isabgolखरपतवारों की रोकथाम

इसबगोल में 2-3 निराइयों की जरूरत होती है. पहली निराई बोआई के तकरीबन 20 दिनों बाद व दूसरी निराई 40-45 दिनों बाद कर के फसल को खरपतवारों से बचाएं. इस से तुलासिया रोग का हमला भी कम होता है.

सिंचाई

इसबगोल में बोआई के समय, उस के 8 दिनों, 30 दिनों व 65 दिनों बाद सिंचाई करने से अच्छी उपज हासिल होती है.

इसबगोल की फसल में क्यारी विधि के बजाय फव्वारा विधि द्वारा 6 सिंचाइयां (बोआई के समय और 8, 20, 40, 55 व 70 दिनों बाद) करने से अच्छी उपज मिलती है.

कीट व रोग

रोगग्रस्त फसल के अवशेषों को खेत से बाहर कर के नष्ट कर देना चाहिए. गरमी में गहरी जुताई कर के खेत खाली छोड़ें. फसल चक्र अपनाएं यानी बारबार एक ही खेत में इसबगोल की खेती न करें. स्वस्थ, प्रमाणित व रोगरोधी किस्मों का चयन करें.

खेत में इस्तेमाल की जाने वाली गोबर की खाद अच्छी तरह से सड़ी हुई होनी चाहिए. खेत में ट्राइकोडर्मा कल्चर 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की अंतिम जुताई के समय मिलाएं. इसबगोल की जैविक खेती में नीम, धतूरा, आक की सूखी पत्तियों के पाउडर को 1:1:1 के अनुपात में मिला कर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें.

फसल को रोगों व मोयले से बचाने के लिए 12 पीले चिपचिपे पाश यानी फैरोमौन ट्रैप प्रति हेक्टेयर लगाएं. दीमक से बचाव के लिए जमीन में बेवेरिया बेसियाना या मोटाराइजियम (मित्र फफूंद) 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मिलाएं. पर्णीय छिड़काव के रूप में नीम की पत्तियों का अर्क, धतूरा (10 फीसदी) व गौमूत्र (10 फीसदी) का इस्तेमाल मृदरोमिल आसिता और मोयले की रोकथाम के लिए करें. जरूरत के मुताबिक दोबारा छिड़काव करें.

कटाई, मड़ाई व ओसाई

इसबगोल में 25 से 125 तक कल्ले निकलते हैं. पौधों में 60 दिनों बाद बालियां निकलना शुरू होती हैं. तकरीबन 115-130 दिनों में फसल पक कर तैयार हो जाती है.

फसल पकने पर सुनहरी पीली बालियां गुलाबीभूरी हो जाती हैं और बालियों को दबाने पर दाने बाहर आ जाते हैं.

Isabgolफसल के पूरी तरह पकने के 1-2 दिन पहले ही फसल को काट लेना चाहिए. कटाई सुबह के समय करें, जिस से बीजों के बिखरने का डर न रहे. कटी हुई फसल को 2-3 दिन खलिहान में सुखा कर जीरे की तरह झड़का लें व निकले हुए बीजों की सफाई कर के व सुखा कर बोरियों में भर कर सूखी व ठंडी जगह पर भंडारण करें.

उपज व उपयोगी भाग

इसबगोल की औसत उपज 9-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. इस की भूसी की मात्रा बीज के भार की 30 फीसदी होती है, जो सब से कीमती व उपयोगी भाग है. बाकी 65 फीसदी गोली, 3 फीसदी खली और 2 फीसदी खारी होती है. भूसी के अलावा सभी भाग जानवरों को खिलाने के काम आते हैं.

बड़े काम का पत्थरचूर

यह औषधीय पौधा हाई ब्ल्डप्रैशर व दिल से जुड़ी बीमारियों को ठीक करने के लिए मशहूर है. यह पौधा एकवर्षीय शाकीय, शाखान्वित, सुगंधित तकरीबन 1-2 फुट तक लंबा होता है.

इस का वानस्पतिक नाम कोलियस फोर्सकोली है. यह लेमिएसी कुल का सदस्य है. इस के पत्तों व जड़ों से अलगअलग तरह की गंध आती है, पर जड़ों में से आने वाली गंध बहुधा अदरक की गंध से मिलतीजुलती होती है. पत्थर जैसी चट्टानों पर पैदा होने के चलते इस को ‘पाषाण भेदी’ नाम से भी जाना जाता है.

यह पौधा भारत में खासतौर पर उत्तराखंड, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, गुजरात, कर्नाटक व तमिलनाडु वगैरह राज्यों में पाया जाता है. उत्तराखंड में पत्थरचूर की खेती तकरीबन 1,000 मीटर ऊंचाई तक की गरम जगहों पर की जा सकती है.

औषधीय उपयोग : पत्थरचूर की कंदील जड़ें शीतल, कड़वी, कसैली होती हैं. इन का उपयोग हाई ब्लडप्रैशर, बवासीर, गुल्म यानी नस में सूजन, मूत्रकृच्छ यानी पेशाब में जलन, पथरी, योनि रोग, प्रमेह यानी गोनोरिया, प्लीहा यानी तिल्ली रोग बढ़ना, शूल यानी ऐंठन, अस्थमा, दिल की बीमारी, कैंसर, आंखों की बीमारी वगैरह में किया जाता है. इस के अलावा इस का उपयोग बालों के असमय पकने से रोकने व पेट की बीमारियों के लिए भी किया जाता है.

जमीन व आबोहवा : पत्थरचूर की खेती के लिए नरम, मुलायम मिट्टी, जिस का पीएच मान 5.5-7.0 तक हो, सही रहती है. इस फसल को कम उपजाऊ मिट्टी में भी आसानी से उगाया जा सकता है. लाल रेतीली व रेतीली दोमट मिट्टी इस की खेती के लिए आदर्श मानी जाती है. इस के लिए गरम, आर्द्र आबोहवा काफी सही होती है. अकसर 86-95 फीसदी तक आर्द्रता व 100-160 सैंटीमीटर तक सालाना बारिश वाले इलाकों में इस की खेती सही होती है.

उन्नत किस्में : पत्थरचूर की 2 प्रमुख उन्नत किस्में हैं गारमल मैमुल और के-8.

कृषि तकनीक

खेत की तैयारी : पत्थरचूर की खेती के लिए खेत में 2-3 बार हल से जुताई कर के 10 टन गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देनी चाहिए, पर अगर जैविक खाद का इस्तेमाल किया जाना मुमकिन न हो तो प्रति हेक्टेयर 30 किलोग्राम नाइट्रोजन (15 किलोग्राम प्रतिरोपण के समय व बाकी प्रतिरोपण के एक माह बाद) 50 किलोग्राम फास्फोरस व 40 किलोग्राम पोटाश की मात्रा डालने से पौधों की सही बढ़वार होती है.

प्रवर्धन : पत्थरचूर का प्रवर्धन बीजों व कलमों द्वारा किया जा सकता है.

बोआई : पत्थरचूर की खेती बीजों व कलमों दोनों से की जा सकती है, पर कलमों से खेती करना ज्यादा सुविधाजनक होता है. यह विधि प्रचलित भी है.

पत्थरचूर की खेती के लिए नर्सरी की जरूरत होती है. इस के लिए 2-2 मीटर की क्यारियां तैयार कर के पाषाण भेदी की कलमों को लगा देना चाहिए जो 10-12 सैंटीमीटर लंबी हो व जिन में 5-6 पत्ते लगे हों. जल्दी ही कलमों से जड़ें फूटने लगती हैं.

नर्सरी से एक माह पुरानी कलमों को निकाल कर खेत में रोप देना चाहिए. पौध से पौध के बीच की दूरी 30 सैंटीमीटर और कतार से कतार की दूरी 30 सैंटीमीटर तक होनी चाहिए. इस तरह एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए तकरीबन 1 लाख कलमों की जरूरत होती है. प्रतिरोपण के 2 महीने बाद कोलियस के पौधों पर हलके नीले जामुनी रंग के फूल आने लगते हैं. इन फूलों को नाखुनों की मदद से तोड़ या काट दिया जाना चाहिए वरना जड़ों का विकास प्रभावित हो सकता है.

उर्वरक : पौधा रोपते समय प्रति हेक्टेयर 9-10 टन गोबर की सड़ी खाद डालनी चाहिए.

सिंचाई : पौध रोपने के बाद अगर बारिश न हो तो तत्काल सिंचाई करना बहुत जरूरी होता है. रोपने के पहले 2 हफ्तों में हर 3 दिन में एक बार पानी देना जरूरी होता है, जबकि बाद में हफ्ते में एक बार सिंचाई करना सही रहेगा.

Medicinal Plantनिराईगुड़ाई : पत्थरचूर मानसून की फसल होने के चलते समयसमय पर निराईगुड़ाई कर के खरपतवार निकालते रहना चाहिए.

कीट, रोग व उन की रोकथाम : पत्थरचूर की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले प्रमुख कीटों में बैक्टरियल विल्ट, कैटरपिलर, मिली बग, नोमोटिड्स वगैरह होते हैं. इन की रोकथाम के लिए 10 मिलीलिटर मिथाइल पैराथियान 10 लिटर पानी में घोल कर पौधों व उन की जड़ों पर छिड़काव करना चाहिए.

वहीं बैक्टीरियल विल्ट के लिए 0.2 फीसदी कैप्टान घोल का स्प्रे करना चाहिए. नोमोटिड्स की रोकथाम के लिए 8-10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से कार्बोफ्यूरान के ग्रेनुअल्स का इस्तेमाल करना चाहिए.

दोहन व संग्रहण : पत्थरचूर की फसल रोपण के 4.5-5 माह बाद खुदाई के लिए तैयार हो जाती है. वैसे, तब तक इस के पत्ते हरे ही रहते हैं, पर यह देखते रहना चाहिए कि जब जड़ें अच्छी तरह विकसित हो जाएं (यह स्थिति रोपण के तकरीबन 4-5 माह के बाद आती है) तो पौधों को उखाड़ लिया जाना चाहिए.

उखाड़ने से पहले खेत की हलकी सिंचाई कर दी जानी चाहिए, ताकि जमीन गीली हो जाए और जड़ें आसानी से उखाड़ी जा सकें. फिर जड़ों को धो कर साफ कर लेना चाहिए. उस के बाद छोटेछोटे टुकड़ों में काट कर छायादार जगह पर सुखा लेना चाहिए. फिर सूखी जड़ों को बोरियों में भर कर इकट्ठा कर देना चाहिए.

पत्थरचूर का विवरण

उत्पादन व उपज : पत्थरचूर की फसल से तकरीबन 15-18 क्विंटल तक सूखी जड़ें प्रति हेक्टेयर की दर से हासिल होती हैं.

बाजार की कीमत : पत्थरचूर का वर्तमान बाजार मूल्य 40-45 रुपए प्रति किलोग्राम तक होता है.

खर्च का ब्योरा : पत्थरचूर की खेती पर होने वाली अनुमानित लागत व प्राप्ति का प्रति व्यक्ति आर्थिक विवरण निम्न प्रकार है:

शुद्ध लाभ : 60,000.00

कुल प्राप्ति : 15,800.00

कुल लागत : 44,200

प्याज व लहसुन में पौध संरक्षण

हमारे यहां प्याज व लहसुन कंद समूह की मुख्य रूप से 2 ऐसी फसलें हैं, जिन का सब्जियों के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है. देश में इन की खपत काफी है और विदेशी पैसा हासिल करने में इन का बहुत बड़ा योगदान है.

वैसे तो दुनिया में भारत प्याज और लहसुन की खेती में अग्रणी है, लेकिन इन की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता दूसरे कई देशों से कम है. इस के लिए दूसरे तमाम उपायों के साथ जरूरी है कि इन फसलों की रोगों व कीड़ों से सुरक्षा. फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले रोगों व कीड़ों की पहचान और उन की रोकथाम करने से काफी हद तक इन फसलों को बचाया जा सकता है.

मुख्य रोग झुलसा

लक्षण : यह रोग पत्तियों और डंठलों पर छोटेछोटे सफेद और हलके पीले धब्बों के रूप में पाया जाता है, जो बाद में एकदूसरे से मिल कर भूरे रंग के धब्बे में बदल जाते हैं व आखिर में ये धब्बे गहरे भूरे या काले रंग के हो जाते हैं.

धब्बे की जगह पर बीज का डंठल टूट कर गिर जाता है. पत्तियां धीरेधीरे सिरे की तरफ से सूखना शुरू करती हैं और आधार की तरफ बढ़ कर पूरी तरह सूख जाती हैं. अनुकूल मौसम मिलते ही यह रोग बड़ी तेजी से फैलता है और कभीकभी फसल को भारी नुकसान पहुंचाता है.

रोकथाम : साफसुथरी खेती फसल को निरोग रखती है. वहीं गरमी के महीने में गहरी जुताई और सौर उपचार काफी फायदेमंद रहता है.

दीर्घकालीन असंबंधित फसलों का फसलचक्र अपनाना चाहिए.

रोग के लक्षण दिखाई देते ही इंडोफिल एम-45 की 400 ग्राम या कौपर औक्सीक्लोराइड-50 की 500 ग्राम या प्रोपीकोनाजोल 20 फीसदी ईसी की 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ के हिसाब से 200 लिटर पानी में घोल बना कर और किसी चिपकने वाले पदार्थ के साथ मिला कर 10-15 दिन के अंतराल पर छिड़कें.

बैगनी धब्बा

लक्षण : यह रोग पत्तियों, तनों, बीज स्तंभों व शल्क कंदों पर लगता है. रोगग्रस्त भागों पर छोटेछोटे सफेद धंसे हुए धब्बे बनते हैं, जिन का मध्य भाग बैगनी रंग का होता है.

ये धब्बे जल्दी ही बढ़ते हैं. इन धब्बों की सीमाएं लाल या बैगनी रंग की होती हैं, जिन के चारों ओर ऊपर व नीचे कुछ दूर तक एक पीला क्षेत्र पाया जाता है.

रोग की उग्र अवस्था में शल्क कंदों का विगलन कंद की गरदन से शुरू हो जाता है. रोगग्रस्त पौधों में बीज आमतौर पर नहीं बनते और अगर बीज बन भी गए तो वह सिकुड़े हुए होते हैं.

रोकथाम : इस रोग की रोकथाम भी झुलसा रोग की तरह ही की जाती है.

आधारीय विगलन

लक्षण : इस रोग के प्रकोप से पौधों की बढ़वार रुक जाती है और पत्तियां पीली पड़ जाती हैं. बाद में पत्तियां ऊपर से नीचे की तरफ सूखना शुरू होती हैं. कभीकभी पौधे की शुरू की अवस्था में इस रोग के कारण जड़ें गुलाबी या पीले रंग की हो जाती हैं और आकार में सिकुड़ कर आखिर में मर जाती हैं.

रोग की उग्र अवस्था में शल्क कंद छोटे रहते हैं और इस रोग का प्रभाव कंदों के ऊपर गोदामों में सड़न के रूप में देखा जाता है.

रोकथाम : आखिरी जुताई के समय रोगग्रस्त खेतों में फोरेट दानेदार कीटनाशी 4.0 किलोग्राम प्रति एकड़ मिट्टी में अच्छी तरह से मिलाएं.

दीर्घकालीन असंबंधित फसलों से 2-3 साल का फसलचक्र अपनाएं. कंद को खुले व हवादार गोदामों में रखना चाहिए.

विषाणु

लक्षण : इस रोग के कारण पत्तियों पर हलके पीले रंग की धारियां बनती हैं और पत्तियां मोटी व अंदर का भाग लहरदार हो जाता है. ऐसे हालात में धारियां आपस में मिल कर पूरी पत्ती को पीला कर देती हैं और बढ़वार रुक जाती है.

रोकथाम : चूंकि यह रोग कीड़ों से फैलता है, इसलिए फसलवर्धन काल में जब भी इस रोग के लक्षण दिखें, उसी समय मैटासिस्टौक्स या रोगोर नामक किसी एक दवा का एक मिलीलिटर दवा का प्रति लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करें. जरूरत पड़ने पर दोबारा छिड़काव करें.

मुख्य कीड़े

इन फसलों को सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाले 2 मुख्य कीड़े हैं, थ्रिप्स (चुरड़ा) व लहसुन मक्खी. इन कीड़ों का प्रकोप फरवरी महीने तक होता है.

थ्रिप्स : इस कीड़े के शिशु व प्रौढ़ दोनों ही पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. प्रौढ़ काले रंग के बहुत ही छोटे, पतले व लंबे होते हैं, जबकि शिशु यानी बच्चे हलके भूरे व पीले रंग के होते हैं. जहां से पत्तियां निकलती हैं, उसी जगह ये कीड़े रहते हैं और नईनई कोमल पत्तियों का रस चूसते हैं.

इन के प्रकोप से पत्ते के सिरे ऊपर से सफेद व भूरे हो कर सूखने व मुड़ने लगते हैं. इस वजह से पौधों की बढ़वार रुक जाती है. ज्यादा प्रकोप होने पर पत्ते चोटी से चांदीनुमा हो कर सूख जाते हैं. बाद की अवस्था में इस कीड़े का प्रकोप होने पर शल्क कंद छोटे रहते हैं और आकृति में भी टूटेफूटे होते हैं. बीज की फसल पर इस कीड़े का बहुत ज्यादा असर पड़ता है.

रोकथाम : इस कीड़े की रोकथाम के लिए बारीबारी से किसी एक कीटनाशक को 200-250 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें.

(क) 1. 75 मिलीलिटर फैनवैलरेट 20 ईसी

      1. 175 मिलीलिटर डैल्टामेथ्रिन 2.8 ईसी
      2. 60 मिलीलिटर साइपरमेथ्रिन 25 ईसी या 150 मिलीलिटर साइपरमेथ्रिन 10 ईसी

(ख) 1.300 मिलीलिटर मेलाथियान 50 ईसी

प्याज व लहसुन में चुरड़ा कीट की रोकथाम के लिए लहसुन का तेल 150 मिलीलिटर और इतनी ही मात्रा में टीपोल को 150 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ में 3 से 4 छिड़काव करें.

थ्रिप्स की रोकथाम के समय बरतें सावधानी

* एक ही कीटनाशी का बारबार इस्तेमाल न करें.

* छिड़काव की जरूरत मार्चअप्रैल महीने में पड़ती है, क्योंकि कीड़ा फरवरी से मई महीने तक नुकसान करता है, इसलिए कोई चिपकने वाला पदार्थ घोल में जरूर मिलाएं.

* छिड़काव के कम से कम 15 दिन बाद ही प्याज इस्तेमाल में लाएं.

Lahsunप्याज व लहसुन मक्खी

कभीकभी इस कीड़े का प्रकोप भी इन फसलों पर देखने में आता है. लहसुन की मक्खी घरों में पाई जाने वाली मक्खी से छोटी होती है. इस के शिशु (मैगट) व प्रौढ़ दोनों ही फसल को नुकसान पहुंचाते हैं.

मादा सफेद मक्खी मटमैले रंग की होती है, जो मिट्टी आमतौर पर बीज स्तंभों के पास मिट्टी में अंडे देती है. अंडों से नवजात मैगट स्तंभों के आधार पर खाते हुए फसल के भूमिगत तने वाले हिस्सों में आक्रमण करते हैं और बाद में कंदों को खाना शुरू कर देते हैं, जिस से पौधे सूख जाते हैं. बाद में इन्हीं कंदों पर आधारीय विगलन रोग का आक्रमण होता है, जिस से बल्ब सड़ने लगते हैं.

रोकथाम : आखिरी जुताई के समय खेत में फोरेट कीटनाशी 4.0 किलोग्राम प्रति एकड़ मिट्टी में अच्छी तरह से मिलाएं और बाद में थ्रिप्स में बताई गई कीटनाशियों का इस्तेमाल करें.

अदरक बने रहें गुण, बनाएं बहुतकुछ

मसालों के साथसाथ अदरक को दवा के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है. पहले किसान फसल को बाजार की मांग के मुताबिक बेचते थे और बाकी बचे अदरक की ओर ध्यान न दे कर उसे किसी इस्तेमाल में न ला कर उसे यों ही फेंक देते थे. जब किसान ताजा अदरक मंडी में भेजता है, तो उसे अपने उत्पाद के पूरे दाम नहीं मिल पाते थे, इसलिए इस अरदक के ऐसे व्यावसायिक पदार्थ बनाए जाएं तो फसल से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा उठाया जा सकता है. अदरक का इस्तेमाल अचार, चटनी और उद्योगों में भी किया जा सकता है.

अदरक का इस्तेमाल कच्चा और सुखा कर सौंठ के रूप में किया जाता है. इस की तासीर गरम होने के कारण सर्दियों में बहुत उपयोगी होता है. खाना खाने से पहले अदरक की फांकों को नमक के साथ खा लेने से भूख बढ़ती है और पाचन क्रिया भी तेज हो जाती है. इस के सेवन से गले का बलगम घट जाता है. वायु, कफ, खांसी, वात वगैरह में राहत मिलती है. यह जोड़ों के दर्द, सूजन, भूख में कमी वगैरह में फायदेमंद साबित होता है.

पके अदरक से हम कई तरह की चीजें बना सकते हैं. इस से अदरक की उम्र तो बढे़गी ही, साथ ही साथ उस की कीमत भी ज्यादा मिलेगी.

अदरक का भंडारण

* पके अदरक को भंडारण करने से पहले उसे अच्छी तरह साफ कर लेते हैं. उस की जड़ें काट कर, मिट्टी से साफ कर के पानी में धोते हैं और कमरे में 3-4 दिन तक फैला कर सुखाते हैं. बिना बीमारी वाले और साफसुथरे अदरक को छांट कर अलग कर देते हैं. उस के बाद अदरक को छायादार और ठंडी जगह पर रख कर उपचारित करते हैं.

* बीज के लिए प्रकंदों का भंडारण छाया में बनाए गए गड्ढों में करना चाहिए.

* बीज प्रकंदों के भंडारण के लिए कच्चे गड्ढों की अच्छी तरह सफाई करें और उसे एक हफ्ते तक धूप में खुला छोड़ दें, जिस से कि गड्ढे में नमी न रहे.

* भंडारण करने से पहले प्रकंदों को कार्बंडाजिम (100 ग्राम) + मैंकोजेब (250 ग्राम) + क्लोरोपायरीफास (250 मिलीलिटर) को 100 लिटर पानी में मिला कर घोल में प्रकंदों को एक घंटे तक उपचारित करें.

* उपचारित अदरक को ठंडे और सूखी जगहों पर गड्ढों में स्टोर किया जा सकता है. स्टोरेज में 65 फीसदी नमी और 12-13 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान होना चाहिए.

* गड्ढे में प्रकंदों को पूरी तरह न भरें और गड्ढों को ऊपर से लकड़ी के तख्ते से ढक दें.

अदरक को सुखाना

आमतौर पर निर्यात करने के मकसद से रंगीन और रंगहीन अदरक बनाया जाता है. चाहे इस में ऊपर की छाल नहीं हो. रंगीन, साफ चमका हुआ अदरक बनाने के लिए सब से पहले इस के टुकड़े, जिन्हें गांठें कहते हैं, धोया जाता है, फिर खुली धूप में सुखा लेते हैं.

इस विधि द्वारा सुखाए अदरक का आकार बराबर गांठों को खुरच कर और धो कर खुली धूप में सुखाया जाता है और कई बार ब्लीचिंग करने के लिए सल्फर का धुआं या फिर थोडे़ समय के लिए चूने के घोल में डाल लें.

Zingerअदरक की सौंठ

यह पके अदरक से बनने वाला सब से प्रचलित उत्पाद है, जिस का इस्तेमाल कई तरह के मिक्स मसालों, सूप, कंफेक्शनरी और आयुर्वेदिक दवा बनाने में किया जाता है, इसलिए अगर किसान अदरक की सोंठ बना कर बेचें तो वे ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं.

सब से पहले अदरक को धोया जाता है, ताकि गंदगी जैसे मिट्टी और दूसरे कण वगैरह गांठों से निकल जाएं और सब से अहम बात इस को छीलना है. इस के द्वारा एक तो छिलका निकल जाता है और दूसरी ओर सुखाने की प्रक्रिया तेज करता है.

छिलका उतारने के लिए बोरी और बांस की टोकरी को इस्तेमाल में लाया जाता है. अब धोने के बाद अदरक को खुली धूप में तकरीबन एक हफ्ते के लिए सुखाया जाता है और उस के बाद फिर मसला जाता है, ताकि उस में चमक आ जाए.

इस काम के द्वारा तकरीबन 16-25 फीसदी तक सौंठ हासिल होती है. हर इलाके की सौंठ तैयार करने की अपनी अलग तकनीक होती है, जैसे कालीकट की सौंठ, कोचीन की सौंठ, जैमायका की सौंठ, नाइजीरियन सौंठ, आस्ट्रेलियाई सौंठ वगैरह इलाकों के नाम से जानी जाती हैं.

तकनीक के आधार पर सौंठ 5 तरह की होती है, कोटैड सौंठ, काली सौंठ,  स्क्रैप्ड सौंठ, अनकोटैड सौंठ और ब्लीच्ड सौंठ.

कोटैड या अनपील्ड सौंठ : कोटैड या अनपील्ड सौंठ बिना छिले अदरक से बनाते हैं. अदरक की गांठों को तोड़ कर उन पर लगी मिट्टी की सफाई करते हैं. जड़ वगैरह काट कर निकाल देते हैं और पानी में अच्छी तरह से धो कर धूप में सुखाते हैं. छिलकेदार अदरक होने से उस के गूदे को नुकसान नहीं होता है, इसलिए सौंठ ज्यादा मिलती है और उस में तेल व ओलियोरेजिन की मात्रा ज्यादा होती है. कोटैड सौंठ का इस्तेमाल तेल निकालने और ओलियोरेजिन के लिए किया जाता है.

काली सौंठ : इसे बनाने के लिए बिना छिले अदरक को पानी में 10-15 मिनट तक उबालते हैं, उसे रगड़ कर छील देते हैं. ऐसी सौंठ का रंग काला हो जाता है.

रफ स्क्रैप्डसौंठ : इसे बनाने के लिए अदरक साफ कर के उस की बड़ीबड़ी गांठें तोड़ लेते हैं. इस तरह से छिले अदरक को धूप में सुखाते हैं.

भारत की कोचीन और कालीकट सौंठ इसी विधि से बनाई जाती है. अदरक को रातभर पानी में भिगोने से छीलने में आसानी होती है.

पील्ड या अनकोटैड सौंठ : पील्ड या अनकोटैड सौंठ और स्क्रैप्ड सौंठ पूरी तरह छिले अदरक से बनाई जाती है. इसे बनाने के लिए अदरक पर से छिलका हटा देते हैं.

छीलने के लिए बांस के नुकीले टुकड़ों या स्टील के चाकू की नोक का इस्तेमाल करते हैं.

छिलका ऐसे हटाते हैं, जिस से गूदे पर खरोंच न आने पाए. छिले हुए अदरक को पानी में रखते हैं. पानी में 1 फीसदी की दर से नीबू का रस डालने से अदरक ज्यादा सफेद लगता है और वह नीबू जैसा महकने लगता है.

छिले हुए अदरक को ज्यादा नहीं धोना चाहिए. क्योंकि उस के कई तत्त्व पानी में बह जाते हैं. अब अदरक को धूप में तकरीबन एक हफ्ते तक सुखाते हैं. पील्ड सौंठ चिकनी व सुंदर होती है.

ब्लीच्ड सौंठ : ब्लीच्ड सौंठ भी छिले हुए अदरक से बनाते हैं. छीलने के बाद अदरक को चूने के पानी में भिगोते हैं और धूप में थोड़ा सुखाते हैं. यह काम कई बार करते हैं, जिस से अदरक पर चूने की एक परत चढ़ जाए. अदरक सूखने में तकरीबन 10 दिन का समय लगता है.

अब इस सौंठ को मोटे कपड़े या बोरे के बीच में हलका सा रगड़ते हैं, जिस से उस पर चिपका फालतू चूना और छिलका छूट जाए. इस काम से सौंठ चिकनी, सफेद और आकर्षक बन जाती है.

अदरक को नमक के घोल में परिरक्षित करना

इस तरह से बनाए गए पदार्थ को बिना खराब हुए एक साल से भी ज्यादा समय तक सुरक्षित रख सकते हैं और फिर इस का इस्तेमाल सलाद, सब्जी पकाने के लिए और अचार बनाने के लिए भी करते हैं.

इस घोल में परिरक्षित करने के लिए अदरक को छील कर, टुकड़ों में काट कर शीशे के मर्तबान और जार में रखते हैं.

अदरक को नमक के घोल में परिरक्षित करने के लिए 1 भाग अदरक के टुकड़ों, 1.25 भाग नमक का घोल बनाने के लिए एक लिटर पानी में 50 ग्राम नमक मिलाएं. 12 मिलीलिटर एसिटिक एसिड और 11 मिलीग्राम पोटैशियम मैटाबाई सल्फाइड डालें.

अदरक का तेल

इस तेल में अदरक की महक पाई जाती है. इस का इस्तेमाल परफ्यूम, साबुन उद्योग और दवा बनाने में किया जाता है.

इस के लिए सौंठ को मोटा पीसते हैं और स्टीम डिस्टिलेशन विधि से तेल निकालते हैं.

इसे बनाने के लिए कोटैड सौंठ का इस्तेमाल करना चाहिए. 100 किलोग्राम सौंठ से 1.5-3.0 किलोग्राम तक तेल हासिल होता है.

अदरक का टौनिक

ताजा अदरक की गांठों को सही तरह से पानी से धो लें और इस के बाद इन गांठों को कद्दूकस कर लें और रस निकाल लें.

अगर अदरक का रस 100 ग्राम हो, तब चीनी 350 ग्राम, साइट्रिक एसिड 7-8 ग्राम और पानी 1.5 लिटर. पानी और चीनी मिला लें. एक उबाल में अदरक रस भी मिला लें, फिर मिश्रण में एक उबाल आने दें.

साफ की हुई बोतल में डाल कर क्राउन कार्क लगा दें. उस के बाद बोतलों को उबलते पानी में 20-25 मिनट तक उपचारित करें.

अदरक एपीटाइजर

अदरक एपीटाइजर बनाने के लिए अदरक का रस 400 मिलीलिटर, सेब का गूदा 1 किलोग्राम (सेब की जगह और फलों के गूदों का इस्तेमाल कर सकते हैं, जैसे खुमानी, नाशपाती, आड़ू वगैरह), 1.7 किलोग्राम नीबूवर्गीय फलों का रस 600 मिलीलिटर, साइट्रिक अम्ल 22 ग्राम के करीब इस्तेमाल करते हैं.

इसे तैयार करने के लिए सब से पहले चीनी की चाशनी लें और चाशनी को थोड़ा ठंडा होने पर ऊपर लिखित पदार्थ डाल दें और अच्छी प्रकार मिश्रण मिला दें.

परिरक्षित करने के लिए 15 ग्राम पोटैशियम सल्फाइड को थोड़े पानी में घोल कर एपीटाइजर और तैयार की हुई बोतलों में डाल कर ठीक तरह से ढक्कन लगा दें और ऊपर तक घोल भर दें.

जिंजरेल

नीबू का रस एक बड़ा चम्मच, अदरक का रस 1/2 छोटा चम्मच, चीनी 2 बड़े चम्मच, यीस्ट 1/4 चम्मच छोटा, पानी 2 लिटर, नमक स्वादानुसार.

एक बोतल में यीस्ट और चीनी डालें. अदरक के रस में नीबू का रस मिलाएं और स्लरी बनाएं. इसे बोतल में पानी डाल कर बंद करें. 24-28 घंटे गरम जगह पर रखें, तत्पश्चात फ्रिज में रखें.

अदरक का जूस

सब से पहले तो आप अदरक को अच्छे से धो कर साफ  कर लें और इसे छोटेछोटे टुकड़ों में काट लें और फिर इन कटे हुए अदरक के टुकड़ों को मिक्सर से अच्छे से पीस लें.

फिर इस के जूस को किसी गिलास में निकाल लें और इस में ऊपर से शहद और थोड़ा सा नीबू निचोड़ लीजिए. अदरक का रोगनाशक आयुर्वेदिक जूस बन कर तैयार है.

अदरक का मुरब्बा

अदरक का मुरब्बा बनाने के लिए ताजा, मुलायम और रेशे वाले अदरक को छांट लें. इसे पानी में खुरच कर पूरी तरह घोल लें.

इस के बाद गांठों को टुकड़ों में काट कर गुदाई कर लें. गुदाई किए टुकड़ों को मलमल के कपड़े से बांध कर और उबलते हुए पानी में डाल कर 40-50 मिनट नरम होने तक रखें. नरम होने के बाद थोड़ा सुखा लें. आधा किलोग्राम चीनी में पानी मिला दें और इस घोल को उबालें.

अदरक के टुकड़ों को इसी चीनी के घोल में 10-15 मिनट तक पकाएं और ठंडा होने के लिए रातभर पड़ा रहने दें.

अगले दिन अदरक को चीनी के घोल में से निकाल लें और बची हुई चीनी की मात्रा को इस घोल में डाल दें और उबाल लें, ताकि यह गाढ़ा हो जाए और इस के बाद टुकड़ों को फिर से घोल में डाल दें. 4-5 दिन इसी तरह से रखें. उस के बाद टुकड़ों को निकाल कर चाशनी को और गाढ़ी कर दें, ताकि यह 70 फीसदी चीनी की मात्रा तक पहुंच जाए.

अदरक की कैंडी

कैंडी एक तरह का मुरब्बा है. पर इस में मुरब्बा बनाने के बाद टुकड़ों को निकाल कर चाशनी को और गाढ़ा करते हैं, ताकि चीनी की मात्रा 75 फीसदी तक पहुंच जाए और टुकड़ों को चाशनी में डाल कर 7-15 दिनों तक इसी प्रकार रखा जाता है, ताकि चाशनी पूरी तरह से टुकड़ों के अंदर चली जाए.

उस के बाद टुकड़ों को 5 मिनट तक चाशनी के साथ उबाल लें. फिर टुकड़ों में से चाशनी निथार कर उन्हें सुखा लें. सुखाने वाले यंत्र पर 50 सैंटीग्रेड तापमान पर सुखाएं या फिर खुली धूप में सुखा लें.

अदरक का पाक

अदरक 450 ग्राम (अच्छे से धुला व कद्दूकस), दूध 1.5 किलोग्राम, चीनी 1.5 किलोग्राम, नारियल 200 ग्राम, बादाम 200 ग्राम, काली मिर्च 20 ग्राम, बड़ी इलायची 20 ग्राम ले कर एक कड़ाही में धीमी आंच पर दूध गरम करें.

दूध में उबाल आने पर इस में कद्दूकस किया अदरक डाल दें. कलछी से धीरेधीरे हिलाएं. कुछ देर बाद इस में बारीक कटे बादाम, घिसा हुआ नारियल और पिसी हुई काली मिर्च व बड़ी इलायची मिलाएं.

इस मिश्रण के गाढ़ा होने पर चीनी डाल कर दोबारा गाढ़ा होने तक धीरेधीरे चलाएं. अच्छे से पकने और गाढ़ा होने के बाद थोड़ा ठंडा होने पर किसी कांच या स्टील के बरतन में भर कर रख दें. सुबहशाम एकएक चम्मच दूध के साथ इसे लें.

नीम से किसानों की आमदनी बढ़ाने और पर्यावरण बचाने की कोशिश

मिट्टी और पर्यावरण के सुधार में नीम बहुत ही अधिक माने रखता है. हाल के सालों में नीम के पेड़ के महत्त्व को देखते हुए सरकारों और समुदाय दोनों में जागरूकता आई है. यही वजह है कि नीम के पौधे रोपने पर अब जोर दिया जाने लगा है.

नीम के बीज से बनने वाला तेल फसलों के लिए एक प्राकृतिक कीटनाशक, बीमारीनाशक का काम करता है, इसलिए इस के महत्त्व को देखते हुए खाली जमीनों पर इस के पौधों की रोपाई पर जोर देने की जरूरत है.

नीम के पौधे के इसी महत्त्व को देखते हुए उर्वरक और रसायन मंत्रालय, भारत सरकार में अवर सचिव के पद पर काम कर रहे सचिन कुमार सिन्हा ने लोगों को नीम के पौधे रोपने के लिए न केवल प्रेरित करने का काम किया, बल्कि आज वे लोगों में हजारों नीम के पौधे का मुफ्त वितरण भी कर चुके हैं.

Neemनीम के महत्त्व का पता उन्हें तब चला, जब उन्होंने देखा कि किसान अपने खेतों में कीट व बीमारियों के नियंत्रण के लिए निंबोली और उस की पत्तियों का उपयोग कर रहे हैं.

सचिन कुमार सिन्हा के मन में भी यह विचार आया कि अगर किसान और लोग अपने घरों के आसपास खाली पड़ी जमीनों, कालोनियों आदि में नीम के पौधे रोपें, तो यह न केवल पर्यावरण के सुधार में सहायक हो सकता है, बल्कि कम आय वर्ग के लोग निंबोली इकट्ठा कर के उसे मार्केट में बेच कर अच्छी आमदनी भी हासिल कर सकते हैं.

उन्होंने इस अभियान को शुरू ही किया था कि उर्वरक मंत्रालय में रहते हुए उन को नीमलेपित यूरिया को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई टीम का हिस्सा भी बनने का मौका मिला.

सचिन कुमार सिन्हा ने बताया कि नीमलेपित यूरिया के आ जाने से यूरिया की खपत में न केवल कमी आई है, बल्कि किसानों की आय में भी इजाफा हुआ है.

आमदनी बढ़ाने में मददगार

सचिन कुमार बताते हैं कि निंबोली कई प्रकार की बीमारियों को दूर करने में सहायक है. साथ ही, व्यवसायिक उपयोग कर गांवों में रोजगार को बढ़ावा भी दिया जा सकता है.

Neemसचिन कुमार सिन्हा ने बताया कि आज भी देश में नीम के तेल की जरूरत को पूरा करने के लिए निंबोली आयात किया जाता है, ताकि यहां भी नीम के तेल की कमी न हो. इस कड़ी में गुजरात के गांवों की महिलाओं को निंबोली से उन की आय बढ़ाने के लिए एक अभियान की शुरुआत की गई है.

सचिन कुमार सिन्हा खाली समय में ग्रेटर नोएडा और नोएडा के इलाकों में खाली पड़ी जमीनों और कालोनियों में मिशन मोड में नीम का पौधा रोपित करने में योगदान दे रहे हैं.

नीम के पौध रोपण को एक अभियान के रूप में बढ़ावा देने के लिए उन्होंने साल 2019 में अपने पिता के नाम पर ‘कृष्णा नीम फाउंडेशन’ की शुरुआत की, जिस के जरीए उन्होंने खाली और परती पड़ी जमीनों पर नीम के पेड़ लगवाए. साथ ही, इस अभियान में वे बिल्डर्स को शामिल कर नई बन रही कालोनियों में भी नीम के पौधे लगवा रहे हैं.

 अभियान से जुड़ रहे लोग

सचिन कुमार सिन्हा के इस अभियान में आज उत्तर प्रदेश के तमाम जिलों के लोग भी जुड़ चुके हैं, जिन के जरीए इन्होंने हजारों नीम के पौधे लगाने में कामयाबी पाई है. इस में उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जिले के स्मार्ट विलेज हसुड़ी औसानपुर में ग्राम प्रधान दिलीप त्रिपाठी और मेरठ के क्लब सिक्सटी के संस्थापक हरी बिश्नोई के साथ मिल कर ‘नीम क्रांति’ की शुरुआत कराई है.

इस के अलावा उन के अनुरोध पर देश की विभिन्न फर्टिलाइजर कंपनियों ने पूरे देश में 25,000 से ज्यादा नीम के पौधे रोपे हैं.

अदरक की वैज्ञानिक विधि से खेती

इम्यूनिटी बूस्टर के रूप में जिन सब्जियों का अधिक उपयोग हो सकता है, उन की बाजार में लगातार मांग बढ़ती जा रही है. इन्हीं में से एक अदरक है, जिस की बाजार में अच्छी कीमत मिलती है .

कैसी हो मिट्टी

अदरक की खेती शुरू करने के लिए अच्छी मिट्टी का चुनाव करना चाहिए. इस के लिए जल निकास वाली भुरभुरी दोमट मिट्टी अच्छी रहती है, जिस में अधिक उत्पादन प्राप्त होता है.

उन्नत प्रजातियां

सुप्रभा, सुरुचि, सुरभि, वरद, हिमगिरी, बरुआसागर आदि अच्छी प्रजातियां हैं.

कितनी रखें बीज की मात्रा

14 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है. बीज हमेशा स्वस्थ हों और हर कंद में कम से कम 2 से 4 आंखें हों. उसे ही बोआई के लिए उपयोग करना चाहिए.

बोआई का समय

मईजून में सिंचित व असिंचित दोनों क्षेत्रों में इस की खेती शुरू की जा सकती है.

कैसे बोएं बीज

अदरक की खेती करने के लिए कतार की दूरी 25 से 30 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 15 से 20 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. इस से खेत में पौधों की संख्या अधिक होगी और उत्पादन अच्छा प्राप्त होगा.

खेत में करें मल्चिंग

बोआई के बाद सूखी पत्तियों वाली या खरपतवार से नालियों को ढकें. इस से जमाव अच्छा होगा.

कब चढ़ाएं मिट्टी

बीज बोआई के 3 या 4 महीने बाद पहली बार मिट्टी चढ़ानी चाहिए. इस के बाद कंद को ढकने के लिए 1 या 2 बार मिट्टी चढ़ाना जरूरी होता है.

पौध रक्षा कैसे करें

कीट शूट बोरर, जिस को प्ररोह बेधक भी कहा जाता है, के छेद कर काटने से पौधे सूख जाते हैं. इस के उपचार के लिए इंडोसल्फान 35 ईसी 1.2 लिटर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करना चाहिए.

खाद व उर्वरक कितना दें

अदरक की खेती में खाद और उर्वरक की मात्रा को संतुलित रूप से देना चाहिए. गोबर की खाद 300 क्विंटल, नाइट्रोजन 75 किलोग्राम 3 बार में बोआई के समय देना चाहिए, उस के बाद 45-45 दिनों में इस को डाल देना चाहिए. फास्फोरस 75 किलोग्राम बोआई करते समय खेत में मिला देना चाहिए.

पत्तियों का पीला होना और यह पीलापन बढ़ कर कंद तक धीरेधीरे पहुंच जाता है. साथ ही, पत्तियां सूख जाती हैं. इस वजह से कंद सड़ने लगता है. इस के उपचार के लिए डिटेन एम-40 पौइंट 3 फीसदी गोल में 30 मिनट तक बीज को दबा कर रखें. उस के बाद इस को बोआई के लिए इस्तेमाल करें तो इस रोग से फसल को बचाया जा सकता है.

बोआई के 6 से 8 महीने बाद जब पौधे पीले पड़ कर सूखने लगें तो खुदाई कर सकते हैं. उत्पादन 125 से 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त होता है. खुदाई करने के बाद अदरक को छायादार जगह पर 2-3 दिन के लिए सुखाने के लिए रख देना चाहिए और उस के बाद भंडारण की व्यवस्था करें.

इस के भंडारण के लिए छायादार जगह पर 5×5 फुट गहराई व चौड़ाई का गड्ढा खोद कर नीचे धान की भूसी या रेत बिछा कर अदरक को शंक्वाकार में जमा कर रखना चाहिए और ऊपर हवा के लिए जालीदार ढक्कन बना कर रखना चाहिए.

समयसमय पर निगरानी भी करते रहना चाहिए. ध्यान रखें कि बारिश होने पर गड्ढे के अंदर पानी न जाए. यदि पानी चला गया तो अदरक सड़ जाएगा.

अच्छा अदरक काफी तीखा, गरम, शक्तिवर्धक, वातनाशक व कृमिनाशक होता है. उत्तम किस्म के अदरक के कमरे से और पंजे के आकार जिस में 75 से 100 ग्राम तक वजन और 8 से 10 गांठें होनी चाहिए.

इस प्रकार के अदरक को काफी अच्छा माना जाता है और बाजार में उस की कीमत भी अच्छी मिलती है, इसलिए किसानों को अदरक की खेती शुरू करनी चाहिए, जिस से उन की आमदनी में बढ़ोतरी होगी और इस को आसानी से बाजार में बेचा भी जा सकेगा.

गेंदा फूल की खेती

गेंदा की खेती खरीफ, रबी और जायद तीनों मौसम में की जाती है. पूर्वांचल में गेंदा की खेती की काफी संभावनाएं हैं. बस, यह ध्यान रखना है कि कब कौन सा त्योहार है, शादी के लग्न कब हैं, धार्मिक आयोजन कबकब होना है, इस को ध्यान में रख कर खेती की जाए, तो ज्यादा लाभदायक होगा.

गेंदा के औषधीय गुण भी हैं, खुजली, दिनाय और फोड़ा में हरी पत्ती का रस लगाने पर रोगाणुरोधी का काम करती है. साधारण कटने पर पत्तियों को मसल कर लगाने से खून का बहना बंद हो जाता है.

मिट्टी एवं खेत की तैयारी : गेंदा की खेती के लिए दोमट, मटियार दोमट एवं बलुआर दोमट मिट्टी सर्वोत्तम होती है. भूमि को समतल करने के बाद एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से और 2-3 बार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई कर के एवं पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरा बनाने एवं ककंड़पत्थर आदि को चुन कर बाहर निकाल दें और सुविधानुसार उचित आकार की क्यारियां बना दें.

बीज, नर्सरी, प्रसारण : गेंदा का प्रसारण बीज एवं कटिंग दोनों विधि से होता है. इस के लिए 100 ग्राम बीज प्रति बीघा (2500 वर्गमीटर / एक हेक्टेयर का चौथाई भाग) में जरूरत होती है ,जो 100 वर्गमीटर के बीज शैया में तैयार किया जाता है. बीज शैया में बीज की गहराई एक सैंटीमीटर से अधिक नहीं होना चाहिए.

जब कटिंग द्वारा गेंदा का प्रसारण किया जाता है, उस में ध्यान रखना चाहिए कि हमेशा कटिंग नए स्वस्थ पौध से ही लें, जिस में मात्र 1-2 फूल खिला हो, कटिंग का आकार 4 इंच (10 सैंटीमीटर) लंबा होना चाहिए. इस कटिंग पर रूटेक्स लगा कर बालू से भरे ट्रे में लगाना चाहिए. 20-22 दिन बाद इसे खेत में रोपाई करनी चाहिए.

रोपाई का उचित समय एवं दूरी : गेंदा फूल खरीफ, रबी और जायद तीनों ही सीजन में बाजार की मांग के अनुसार उगाया जाता है. लेकिन इस के लगाने का उपयुक्त समय सितंबरअक्तूबर है. विभिन्न मौसम में अलगअलग दूरी पर गेंदा लगाया जाता है, जो निम्न है :
खरीफ (जून से जुलाई) – 60×45 सैंटीमीटर
रबी (सितंबर से अक्तूबर) – 45×45 सैंटीमीटर
जायद (फरवरी से मार्च) – 45×30 सैंटीमीटर

व्यावसायिक किस्में : पूसा नारंगी, पूसा वसंती एवं पूसा अर्पिता है.

खाद एवं उर्वरक : मिट्टी जांच के आधार पर उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए. खेत की तैयारी से पहले 50 क्विंटल कंपोस्ट प्रति बीघा की दर से मिट्टी में मिला दें. तत्पश्चात 33 किलोग्राम यूरिया, 125 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट एवं 34 किलोग्राम म्यूरेट औफ पोटाश का प्रयोग प्रति बीघा की दर से खेत की अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मिला दें. 16.5 किलोग्राम यूरिया रोपाई के एक माह बाद और इतनी ही मात्रा रोपाई के 2 माह बाद प्रयोग करें.

सिंचाई : खेत की नमी को देखते हुए 5-10 दिनों के अंतराल पर गेंदा में सिंचाई करनी चाहिए. यदि वर्षा हो जाए, तो सिंचाई नहीं करनी चाहिए.

पिंचिंग : रोपाई के 30-40 दिन के भीतर पौधे की मुख्य शाकीय कली को तोड़ देना चाहिए. इस क्रिया से यद्यपि फूल थोड़ा देर से आएंगे, परंतु प्रति पौधा फूलों की संख्या एवं उपज में वृद्धि होती है.

निकाईगुड़ाई एवं खरपतवार प्रबंधन : लगभग 15-20 दिन पर आवश्यकतानुसार निराईगुड़ाई करनी चाहिए. इस से भूमि में हवा का संचार ठीक संग से होता है और वांछित खरपतवार नष्ट हो जाते हैं.

farmingफूल की तुड़ाई : रोपाई के 60 से 70 दिन पर गेंदा में फूल आता है, जो 90 से 100 दिनों तक आता रहता है. अतः फूल की तुड़ाई/ कटाई साधारणतया सुबह या सायंकाल में की जाती है. फूल को थोड़ा डंठल के साथ तोड़ना/काटना श्रेयस्कर होता है. फूल को कार्टून, जिस में चारों तरफ एवं नीचे में अखबार फैला कर रखना चाहिए और ऊपर से फिर अखबार से ढक कर कार्टून बंद करना चाहिए.

पौध स्वास्थ्य प्रबंधन :

लीफ हापर व रैड स्पाइडर इसे काफी नुकसान पहुंचाते हैं. इस की रोकथाम के लिए मैलाथियान 50 ईसी 2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

उपज गेंदा फूल की उपज उस की देखभाल पर निर्भर करता है. आमतौर पर 30-35 क्विंटल फूल प्रति बीघा मिल जाते हैं.

आंवला के पौधों में कीटरोग प्रबंधन

औषधीय गुणों से भरपूर फल आंवला में विटामिन सी के अलावा कैल्शियम, फास्फोरस और पोटैशियम प्रचुर मात्रा में पाया जाता है. इस के फलों की प्रोसैसिंग कर के अनेक तरह के खाद्य पदार्थ जैसे मुरब्बा, कैंडी, अचार, जैम, जूस आदि बनाए जाते हैं. इस के अलावा अनेक दवाओं में भी आंवले का इस्तेमाल होता है.

आज के समय में आंवला की खेती किसानों के लिए बेहतर आमदनी का जरीया बन सकती है. जरूरी है कि आंवला की खेती वैज्ञानिक तरीकों से करें साथ ही, इन में होने वाली कीट और रोग से भी फसल को बचाएं.

आप को आंवला के पौधे में लगने वाले प्रमुख कीट और रोगों के बारे में विस्तार से जानकारी दी जा रही है :

चूर्णी बग कीट

इस कीट के शरीर पर मोम जैसा चूर्ण लगा होता है और पिछले भाग से 2 लंबे तंतु निकले होते हैं, जो मोम जैसे पदार्थ से ढके रहते हैं. शरीर के पिछले भाग पर काले रंग का धब्बा पाया जाता है.

नर कीट पंखदार या पंखरहित दोनों होते हैं.  इस के शिशु व प्रौढ़ मादा दोनों मुलायम टहनियों, पत्तियों, छोटे फलों का रस चूस कर नुकसान पहुंचाती हैं. शुष्क मौसम व सूखे के हालात में इस का प्रकोप ज्यादा होता है. रोगग्रस्त पत्तियां पीली पड़ कर सूख जाती हैं. पौधों का विकास रुक जाता है. फूल सूख जाते हैं और फल बड़े होने के पहले ही गिर जाते हैं. टहनियां मुरझाई हुईं और बीमारी से ग्रस्त दिखाई देती हैं.

प्रबंधन

गरमी (मईजून माह) के दिनों में पेड़ के चारों तरफ 1 मीटर की लंबाई में खेत की मिट्टी की अच्छी तरह से गुड़ाई करनी चाहिए, ताकि दिए हुए अंडे ऊपर आने पर नष्ट किए जा सकें.

नवंबर महीने में जिस समय कीट दिखाई देते हैं, उस समय उन को पेड़ों पर चढ़ने से रोकने के लिए 30 सैंटीमीटर चौड़ी पौलीथिन को पेड़ के तने के चारों तरफ बांध देना चाहिए और ग्रीस लगा देनी चाहिए. ऐसा करने से शिशु पेड़ पर नहीं चढ़ पाते हैं.

कीट अगर पेड़ पर चढ़ गया है, तो इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 1 एमएल दवा का प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

सूट गाल मेकर कीट

यह कीट पौधे की शाखा के शीर्ष भाग में छेद कर के जुलाईअगस्त माह में अंदर घुस कर जगह बना लेता है, जिस से वहां गांठ बन जाती है और शाखा की बढ़वार रुक जाती है.

प्रबंधन

इस की रोकथाम के लिए गांठ वाले भाग को जनवरी माह में काट कर गड्ढा खोद कर मिट्टी में दबा देना चाहिए.

अधिक प्रकोप होने पर अल्फा मैथरिन की 1.0 मिलीलिटर दवा प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

वलय किट्ट रोग

यह कवकजनित रोग है. इस में पत्तियों पर गोल व अंडाकार लाल धब्बे बनते हैं. इस का प्रकोप नवंबर माह तक जारी रहता है. सितंबर माह में फल भी इस से प्रभावित होते हैं.

प्रबंधन

इस की रोकथाम के लिए थायोफिनेट मिथाइल 70 डब्ल्यूपी की 2.0 ग्राम दवा प्रति लिटर की दर से पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

उत्तक क्षति रोग

यह रोग बोरोन तत्त्व की कमी के कारण फलों पर आता है और इस से फलों में काले धब्बे बनने लगते हैं और आखिर में फल काला हो जाता है.

प्रबंधन

इस की रोकथाम के लिए जुलाई से सितंबर माह तक 6 ग्राम बोरैक्स को प्रति लिटर पानी में घोल कर 15 दिन के अंतर पर छिड़काव करें. शुरू से पेड़ों को यदि 50 ग्राम बोरैक्स प्रति पेड़ सालाना दे दिया जाए, तो पौधों में इस तत्त्व विशेष की कमी नहीं होती है.

इस रोग के नियंत्रण के लिए एग्रोमीन का छिड़काव भी किया जा सकता है. एग्रोमीन की मात्रा 60 ग्राम को 15 लिटर पानी में मिला कर जुलाई से सितंबर तक 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए.

फल विगलन रोग

यद्यपि पेड़ पर इस रोग से ग्रस्त फलों की संख्या काफी कम होती है, पर फलों पर इस का मुख्य प्रकोप तब होता है, जब उन्हें तोड़ कर रखते हैं. फलों पर जलसिक्त धब्बे बनते हैं और प्रभावित भाग के बढ़ने के साथ ही फल व सुनहरे पीले रंग के पिन के सिरे के आकार के निशान बन जाते हैं. कवक के पुराने समूह जैतूनी हरे रंग के हो जाते हैं और इन के किनारों पर नए समूह विकसित होते हैं. नतीजतन, फल पिलपिला हो कर सिकुड़ने लगता है.

प्रबंधन

ऐसे पेड़ के फल, जिन में इस रोग के लक्षण हों, दूसरे फलों के साथ न रखें.

फलों की तुड़ाई के समय सावधानी बरतें. फलों को कम से कम नुकसान पहुंचे.

बोरैक्स 6 ग्राम को प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

अधिक जानकारी के लिए कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों से संपर्क करें.

कश्मीर में  केसर की खेती

कश्मीर को पूरी दुनिया में केसर की उम्दा खेती के लिए भी जाना जाता है. यही वजह है कि आज कश्मीर के केसर की मांग भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी बढ़ती जा रही है.

केसर दुनिया का सब से महंगा मसाला है. इंटरनैशनल मार्केट में कश्मीरी केसर को जीआई टैग दिया गया है.

कश्मीर में केसर की खेती पंपोर से सटे गांव जेवन, लैथपौरा, बालहामा और किश्तवाड़ जिले के कुछ हिस्सों में की जाती है. ये क्षेत्र श्रीनगर के आसपास ही हैं और बिलकुल मैदानी क्षेत्र हैं.

श्रीनगर के नैशनल हाईवे के दोनों तरफ केसर की खेती होती है. केसर के पौधों पर फूल आने पर चारों ओर खुशबू बिखर जाती है, जो दुनिया के किसी भी केसर के फूलों से नहीं आती है. यही वजह है कि इस के पौधे यहां आने वाले पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र होते हैं.

पंपोर से सटे गांव जेवन, लैथपौरा, बालहामा और किश्तवाड़ जिले के कुछ हिस्से की जमीन बहुत ही ऊपजाऊ है. यहां की मिट्टी इतनी ज्यादा ऊपजाऊ है कि इस में कोई भी देशी या दूसरी खाद मिलाने की जरूरत नहीं होती है. यहां की मिट्टी को दोमट मिट्टी भी कहा जाता है. कश्मीर के इसी हिस्से की मिट्टी में केसर उगाया जाता है.

केसर के लिए इस इलाके की जलवायु भी बहुत ही अनुकूल होती है, क्योंकि मैदानी क्षेत्र होने के कारण यहां बर्फीली हवाएं कम चलती हैं. बर्फ भी कम पड़ती है. अगर बर्फ पड़ भी जाए तो आसानी से पिघल जाती है और धूप भी पौधों पर अच्छी पड़ती है, जो केसर के लिए सब से जरूरी मानी जाती है.

केसर की खेती के लिए सब से पहले हाथों से जमीन की खुदाई की जाती है. हाथ से जमीन खोदने की वजह यह भी है कि

यह कहींकहीं से टेढ़ीमेढ़ी होती है. छोटेछोटे कंकड़पत्थरों को खोज कर निकाला जाता है और घास को भी साफ किया जाता है.

जमीन की खुदाई के बाद नरम होने के लिए 8-10 दिन के लिए छोड़ दिया जाता है, फिर खुलेखुले खेतों में लंबीलंबी क्यारियां बनाई जाती हैं. बीच में तंग नालियां बनाई जाती हैं. फिर इन क्यारियों में केसर की गांठ यानी बल्ब लगाए जाते हैं.

ये गांठ या बल्ब किसान अपने खेतों में पहले ही तैयार कर लेते हैं. अगर गांठ बाजार से लेनी हों, तो एक पैकेट में 10 गांठें होती हैं. गांठ लगाने का सही समय सितंबर महीने का होता है.

कश्मीर के केसर की विशेषता यह भी है कि यह प्राकृतिक रूप से तैयार होता है. सिंचाई के साधन कम होने के कारण किसान बारिश के पानी पर ही निर्भर रहते हैं.

क्यारियों में किसी भी तरह की कोई खाद नहीं डाली जाती है और न ही इन पर कोई रासायनिक दवाओं का छिड़काव किया जाता है, क्योंकि रसायन के छिड़काव से नाजुक फूल ?ालस जाते हैं.

खेत में उगने वाली घासफूस को किसान खुद अपने हाथों से निकालते हैं. 10 से 14 दिनों के अंदर केसर के पौधे तैयार हो जाते हैं.

केसर के पौधे डेढ़ से 2 इंच के ही होते हैं, जो सर्द और खुश्क हवा के असर को सह लेते हैं. केसर की क्यारियों के साथ बनाई गई क्यारियों में बारिश का पानी चला जाता है. ये नालियां ज्यादा गहरी भी नहीं होती हैं, क्योंकि बर्फ पिघलपिघल कर इन नालियों में जाती है, जो कई दिन तक पौधों को नमी देने का काम करती है.

अक्तूबर महीने के अंत तक केसर के पौधों पर बैगनी रंग के फूल खिल जाते हैं. इन फूलों की खुशबू खेतों से आती हैं. जब फूल पूरी तरह से तैयार हो जाते हैं, तो इन को तोड़ने का काम शुरू हो जाता है.

फूल तोड़ने का काम ज्यादातर महिलाएं ही करती हैं. बड़े किसान अपने खेतों में फूल तोड़ने का काम मजदूरों से करवाते हैं.

किसान महिलाएं और मजदूर अपनी पीठ पर टोकरी बांध लेते हैं, फिर बड़ी सावधानी से एकएक फूल को तोड़ कर टोकरी में डालते हैं, क्योंकि ये फूल बड़े नाजुक होते हैं.

फूलों को खुले बड़े बरतन में डाल कर हवादार जगह और धूप में 5 दिनों तक सुखाया जाता है, फिर फूलों के अंदर से केसर चुनने का काम शुरू होता है. फूल चुनने का काम सुबह के 10 बजे के बीच होता है. यही समय फूल तोड़ने के लिए भी उत्तम माना जाता है.

हर फूल के 3 स्टिग्मा होते हैं. फूल के अंदर संतरी और लाल रंग के हिस्से को मादा कहते हैं. इसी को ही स्टिग्मा कहते हैं. इसी भाग को अग्निशाखा या वर्तिक भी कहते हैं.

लगभग 165 फूलों से स्टिग्मा इकट्ठा करने पर एक ग्राम केसर मिलता है. स्टिग्मा का तीसरा भाग यानी सफेद भाग हलवाई लेते हैं, जो कई तरह की मिठाई और कश्मीरी व्यंजन में इसे डालते हैं. केसर का यह भाग भी बहुत महंगा बिकता है.

kesarकेसर के फूल चुनने के बाद पौधों को जमीन में रहने दिया जाता है, ताकि पौधों के नीचे की जड़ें गांठें बन जाएं. एक साल तक केसर के खेतों को खाली छोड़ दिया जाता है, ताकि मिट्टी की उर्वराशक्ति बनी रहे. यही गांठें यानी केसर के बल्ब से अपने समय में पौधों का रूप ले लेती हैं. ऐसा कई सालों तक चलता रहता है.

केसर के लिए भारत की बड़ीबड़ी आयुर्वेदिक कंपनियां और ब्यूटी प्रोडक्ट बनाने वाली कंपनियां कश्मीर के किसानों और व्यापारियों से सीधा संपर्क करती हैं. कई बार दूसरे देशों की कंपनियां भी कश्मीर के केसर की खूबियां जान कर व्यापारियों से संपर्क करती हैं.

असली केसर की पहचान के बारे में पंपोर के एक दुकानदार शेख निजामुद्दीन ने बताया कि असली केसर की गंध मीठी होती है, पर खाने में हलकी कड़वी होती है. जो खाने में मीठा होता है, वह नकली केसर होगा. साथ ही, हम पानी में घोल कर बताते हैं कि असली केसर पानी में घुलता नहीं, बल्कि पानी का रंग सुनहरा हो जाता है.

कश्मीर या जम्मू के लोग केसर की पहचान के लिए उसे सफेद कपड़े पर रगड़ कर देखते हैं. रगड़ने पर कपड़े का रंग हलका पीला रहे और केसर का रंग लाल ही रहें तो उसे असली सम?ाते है. जानकार लोग ऐसा करने के बाद ही केसर के लिए और्डर देते हैं, ताकि वे धोखाधड़ी से बच सकें.

अरमान मल्लिक ने जानकारी दी कि उन के पुरखे केसर की खेती करते थे. उन्होंने भी इस परंपरा को जिंदा रखा है, पर पिछले कुछ बरसों से बारबार जलवायु में अचानक बदलाव आने से केसर की फसल प्रभावित हो रही है. ज्यादा बारिश से और समय पर बारिश न होने से किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है.

पंपोर की नूरी अख्तर ने बताया कि सरकार ने नैशनल इरीगेशन मिशन के तहत सिंचाई के लिए खेतों में पाइप लगाए, पर उन में से कभी पानी नहीं निकला. इसी के चलते कई बार उन्हें दूसरों के खेतों में काम करना पड़ता है.

कुलमिला कर कहें, तो कश्मीर के केसर की विशेषताओं के कारण आज यह दुनियाभर में व्यापारियों की पहली पसंद बनता जा रहा है, जिस से किसानों की आमदनी बढ़ती जा रही है. लेकिन बदलती जलवायु, अचानक मौसम में बदलाव और जीवनशैली में आ रहे बदलाव के चलते लोगों में केसर की खेती के प्रति दिलचस्पी कम हो रही है, जो बेहद ही चिंता की बात है.