World Tribal Day : 9 अगस्त, 2025 को सभी जनजातीय क्षेत्रों में विश्व आदिवासी दिवस तीरकमान, ढोलमृदंग और पारंपरिक वेशभूषा और पारंपारिक नृत्य के साथ मनाया गया. खूब भाषणबाजी हुई. जैसे अन्य ‘दिवसों’ पर होती है, वही हमेशा की तरह वादे, वही पुरानी घोषणाएं, वही भावनात्मक नारों की गूंज. लेकिन आज एक दिन बाद जब उत्सव की थकान उतर चुकी है, सवाल यह है कि क्या हम ने इस अवसर पर कुछ सकारात्मक कदम उठाए या फिर इसे भी कैलेंडर पर एक और ‘त्योहार’ बनाकर छोड़ दिया?
वोट की राजनीति ने आदिवासी और गैरआदिवासी के बीच कृत्रिम ‘लगाव’ और ‘बिलगाव’ दोनों को एक साथ पैदा किया है. पांचवी और छठी अनुसूची के जिलों में दशकों से यह धारणा बोई गई है कि सभी गैरआदिवासी उन के दुश्मन हैं. जबकि सच्चाई यह है कि कई पीढ़ियों से बसे राजवंशों, सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों, डाक्टरों, व्यापारियों, किसानों और कारीगरों ने आदिवासी समुदाय के साथ कंधे से कंधा मिला कर खेत, खदान, सड़क और स्कूल खड़े किए हैं.
‘आदिवासी संरक्षण’ के नाम पर बने ज्यादातर कानून, जैसे कि आदिवासी भूमि को गैरआदिवासी न खरीद सके, अकसर आदिवासी लोगों के विकास में उलटा असर डालते हैं. अनुसूची 5 के क्षेत्रों में, जैसे कि बस्तर में, जिस जगह गैरआदिवासी की जमीन 30–40 लाख रुपए प्रति एकड़ बिक रही है, वहीं उस के बगल की आदिवासी जमीन का मालिक जरूरतमंद आदिवासी अपनी जमीन मात्र 2–3 लाख रुपए में बेचने को मजबूर है और यह कानूनी खरीदारी के नाम पर 30 लाख रुपए मूल्य की भूमि को मात्र 3 लाख रुपए में खरीदने वाले कोई बाहरी व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि वही आदिवासी है, जो विकास क्रम में आदिवासी समाज से निकल कर नेता, सरपंच, अफसर, व्यापारी आदि बन गए हैं.
सोचने वाली बात है कि बेचने वाले बेचारे जरूरतमंद मजबूर आदिवासी को भला क्या फर्क पड़ता है कि खरीदने वाला कौन है, उसे तो अपनी जरूरत की पूर्ति के लिए कभी न कभी जमीन बेचना ही होगा, क्योंकि सरकार ने ऐसी कोई व्यवस्था भी नहीं बनाई है कि ऐसी स्थिति में कोई उसे पर्याप्त नगदी सरकारी सहायता दी जाए, जिस से कि वह अपनी अनिवार्य जरूरतें पूरी करने के लिए जमीन बेचने से बाज आए? ऐसी स्थिति में उसे अपनी भूमि का यथासंभव अधिकतम बाजार मूल्य प्राप्त करने का अधिकार भला क्यों नहीं मिलना चाहिए.
सोचने का विषय यह भी है कि क्या यह कानून जरूरतमंद आदिवासी के अपने जमीन को गैरआदिवासी की जमीन के मूल्य के बराबरी पर बेचने के प्राकृतिक अधिकार का हनन नहीं कर रहा है? क्या 10 रुपए मूल्य की वस्तु का ज्यादा मूल्य देने वाले खरीददारों की प्राकृतिक खुली प्रतियोगिता को कानून बनाकर बाधित करते हुए, विशिष्ट अधिकार प्राप्त लोगों द्वारा 1 रुपए में खरीदना संगठित लूट की श्रेणी में नहीं आता? यदि इस कानून के लागू होने के बाद से आज आदिवासियों की जमीन की खरीदीबिक्री के मूल्य और गैरआदिवासियों की खरीदीबिक्री की गई जमीनों का मूल्य की यह जांच की जाए कि आदिवासियों की जमीनें किसकिस ने और किसकिस भाव में खरीदीं, तो यह भेद खुल जाएगा कि इस कानून से गरीब और मजबूर आदिवासी का कोई भला नहीं हुआ, बल्कि उल्टे उन्हें उन के अपने कहलाने वालों ने ही जी भर के लूटा है और गजब की बात यह है कि यह कानूनी लूट जिसे लूटा जा रहा है, उसी की भलाई के नाम पर आज भी धड़ल्ले से जारी है.
इस आदिवासी दिवस पर इस कानून को हटाने की मांग क्यों नहीं उठती यह भी सोचने का विषय है. एक और बात यह है कि यदि यह लोग आदिवासियों के सच्चे हितैषी हैं, तो फिर यह कानून क्यों नहीं बना देते कि चाहे जो भी हो, आदिवासी की जमीन भी गैरआदिवासी की जमीन के बराबर मूल्य पर ही बिकेगी और उस से कम पर रजिस्ट्री ही नहीं होगी?
यह आदिवासियों के लिए भी गंभीर समस्या है कि जब दो व्यक्ति, दो गवाहों और शासन के प्रतिनिधि (रजिस्ट्रार) के सामने राजीखुशी अपनी मरजी से जमीन का सौदा करते हैं, तो उचित और पर्याप्त मूल्य दे कर जरूरतमंद आदिवासी की भूमि खरीदने वाले गैरआदिवासी को केवल इसलिए अपराधी बना दिया जाता है, ताकि उन की जमीनें इन्हीं के बीच से निकले मुट्ठीभर संपन्न आदिवासी, जो कानून बनाने वाली सभा में भी बैठे हैं, कानून लागू कराने वाले अधिकारी वर्ग में भी, वे औनेपौने दामों में खरीद सकें.
यह भी सोचने का विषय है कि क्या यह कानून हमारे संविधान की मूल अवधारणा समानता और स्वतंत्रता के हमारे मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में बाधा है? अगर ऐसा है तो इस की तुरंत समीक्षा और संशोधन होना जरूरी है.
सोचने वाली बात है कि जबजब इस कानून को बहुसंख्यक आदिवासियों के हित में संशोधित करने की बात उठती है, तो वह कौन से वर्ग के लोग हैं, जो इस में अड़ंगा डालते है. दुर्भाग्य से, आज भी अपना भलाबुरा समझने में असमर्थ आम आदिवासी ऐसे समय पर अपने ही लुटेरों के साथ खड़े हो कर, अपने ही हितों के खिलाफ बने कानून को बनाए रखने के लिए उन का समर्थन करते हैं. उसी कुल्हाड़ी की बैंट बन जाते हैं, जो कुल्हाड़ी अंत में उसे ही काटने वाली है.
विश्व आदिवासी दिवस सिर्फ आदिवासी अधिकारों की याद, रैली और भाषणबाजी का दिन नहीं होना चाहिए, बल्कि यह दिन हमें अपने असली सभ्यता-परीक्षण, आदिम जीवन दर्शन का दर्पण दिखाना चाहिए.
लेखक डा. राजाराम त्रिपाठी ‘जनजातीय कल्याण एवं शोध संस्थान के संस्थापक और जनजातीय सरोकारों की मासिक पत्रिका ककसाड़ के संपादक हैं.