Peas : दलहनी फसलों में मटर का महत्त्वपूर्ण स्थान है. इस की खेती दाल व सब्जी के लिए की जाती है. सूखी मटर (Peas) को दल कर दाल तथा सूप बनाने के काम में लाया जाता है. इस के अलावा मटर के हरे दानों को संरक्षित कर के बेमौसम में भी सब्जी हेतु प्रयोग किया जाता है.

भारत की अर्थव्यवस्था में मटर (Peas) की खास जगह होने के कारण इस का काफी महत्त्व है. इसे सब्जी के साथसाथ दाल के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है.

मटर (Peas) की पैदावार कम होने के कई कारणों में से बीमारियों का प्रकोप भी एक खास कारण है. यदि बीमारियों की समय से पहचान कर के उन का प्रबंधन कर लिया जाए, तो मटर की पैदावार  बढ़ सकती है. यहां मटर की फसल में लगने वाले खास रोगों व उन के प्रबंधन के बारे में जानकारी दी जा रही है.

मटर (Pea) में कार्बोहाइड्रेट व विटामिन के साथसाथ पाच्य प्रोटीन भी काफी मात्रा में होता है. इस में खनिज पदार्थ की मात्रा भी काफी होती है. मटर की फसल में तमाम कीटों व बीमारियों के कारण पैदावार में कमी हो जाती है. यदि समय से कीटों व बीमारियों पर नियंत्रण पा लिया जाए तो उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है.

मटर के खास रोग

बीज सड़न, पौध गलन या आर्द्रपतन : यह रोग पीथियम राइजोक्टोनिया प्रजाति के फफूंद द्वारा होता है. बीज का अंकुरण न होना, अंकुरण के बाद भूमिगत बीजांकुर का विगलन होना या बीजांकुर के जमीन से बाहर निकलने पर पौधगलन होना इस रोग के खास लक्षण हैं.

संक्रमित बीज भूरे से काले रंग का हो जाता है, जो मुलायम हो कर सड़ जाता है और अंकुरित नहीं होता. बीजांकुर के जमीन से बाहर आने पर रोग के लक्षण आसानी से देखे जा सकते हैं.

बीज के जमने के बाद पौधे का तना मिट्टी  की सतह के पास बदरंग हो कर सिकुड़ जाता है. तना उस जगह पर कमजोर हो जाता है और पौध का वजन सह नहीं पाता और मुड़ कर गिर जाता है. रोगग्रस्त पौधे पीले रंग के व बौने रह जाते हैं और धीरेधीरे मर जाते हैं.

प्रबंधन

* बीजों को कवकनाशी रसायन थायरम 2.5 ग्राम और कार्बंडाजिम 1 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से मिला कर उपचारित करें.

* बीजों को ट्राइकोडर्मा द्वारा 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें.

* खेत में फसल बदल कर बोएं. खेत में जैव वर्मी कंपोस्ट या गोबर की खाद का इस्तेमाल करें. जैव ट्राइकोडर्मा को 250 ग्राम प्रति क्विंटल खाद की दर से प्रयोग करने  से 7-10 दिन पहले मिलाएं.

* नाइट्रोजन को ज्यादा मात्रा में इस्तेमाल करने से पीथियम नाम कवक द्वारा उत्पन्न रोगों में भारी कमी आती है.

मृदुरोमिल आसिता : पेरोनोस्पोरा पाइसाइ नामक कवक से होने वाले इस रोग के कारण पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग के धब्बे दिखाई देते हैं, जो बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं और अंत में सूख जाते हैं. पत्तियों की निचली सतहों पर धब्बों के ठीक नीचे रुई जैसी सफेद या मटमैले रंग की कवकवृद्धि दिखाई पड़ती है.

रोग का असर ज्यादा होने पर तनों की बढ़वार रुक जाती है और वे बेडौल हो जाते हैं. फलियों पर भी पीले या भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं और उन का आकार बिगड़ जाता है.  रोगी फलियों से प्राप्त दाने सिकुड़े और छोटे होते हैं.

प्रबंधन

* खेत में पड़े रोगग्रस्त पौधें के अवशेषों को जमा कर के जला देना चाहिए.

* रोगमुक्त खेत से ही बीज का चयन करें.

खेत में रोगी पौधे जैसे ही दिखाई दें, उन्हें तुरंत उखाड़ कर जला दें.

* खेत में रोग के लक्षण दिखाई देने पर रिडोमिल एमजेड दवा की 2 ग्राम मात्रा को 1 लीटर पानी में घोल कर 15-20 दिनों के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करने से रोग पर फौरन काबू पाया जा सकता है.

चूर्णिल आसिता : यह रोग ऐरीसाइफी पोलीगोनइ नामक फफूंद से होता है. रोग के शुरुआती लक्षण पत्तियों पर सफेद चूर्णिल धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं.

ये धब्बे तने, फलियों और पौधे के अन्य भागों पर फैल जाते हैं. ये चूर्ण जैसे धब्बे पत्तियों के दोनों ओर बिखरे होते हैं. शुरू में धब्बों का आकार छोटा होता है. धीरेधीरे ये धब्बे चारों ओर फैल जाते हैं. रोग्रसित फलियों पर कालेभूरे रंग के सिकुड़े हुए धब्बे दिखाई देते हैं, जिस कारण रोग का संक्रमण बीजों तक भी पहुंच जाता है.

प्रबंधन

* फसल की कटाई के बाद खेत में पड़े रोगी पौधों के अवशेषों को जमा कर के जला देना चाहिए.

* फसल की देर से बोआई न करें और सब्जी की खेती के लिए मटर की अगेती किस्मों का चुनाव करें.

* बीजों को फफूंदीनाशी दवा कैप्टान , सेरेसान या थाइरम की 2.5 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के ही बोआई करें.

* रोग के लक्षण दिखाई देने पर 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब  से गंधक चूर्ण का बुरकाव करें.

इस के अलावा सल्फैक्स (2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी) या इलोसाल (5 ग्राम प्रति लीटर पानी)या थायोविट (5 ग्राम प्रति लीटर पानी) या मिल्डेक्स या मिलस्टेम या कोसान (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) या मोरोसाइड (1 ग्राम प्रति लीटर पानी) से छिड़काव करें.

पहला छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई देने पर और दूसरा छिड़काव 12 से 15 दिनों के बाद करें.

* मटर की रोगरोधी किस्में जैसे अर्काअजीत, रचना, आजाद पी 4 व पूसा पन्ना वगैरह की ही खेती करें.

तल विगलन व अंगमारी : यह रोग ऐस्कोकाइटा पाइसाइ, ऐस्कोकाइटा पाइनोडेला और ऐस्कोकाइटा पाइनोडीज  नामक फफूंदों से होता है.

शुरू में तल विगलन के लक्षण गहरे भूरे रंग के दागों के रूप में बीज बोने के बाद उगे हुए नए पौधों के तनों पर दिखाई देते हैं, जो जमीन की सतह के पास से शुरू हो कर धीरेधीरे जड़ों और ऊपर की ओर बढ़ते हैं.

इन दागों का रंग बाद में काला हो जाता है और अंत में पौधा सूख जाता है. पत्तियों, तनों और फलियों पर रोग के लक्षण धब्बे के रूप में दिखते हैं. पत्तियों पर गोलाकार कत्थई से ले कर भूरे रंग के धब्बे पाए जाते हैं.

तनों पर बने धब्बे लंबे व हलके बैगनी या काले रंग के होते हैं. ये धब्बे बढ़ कर तने को चारों तरफ से घेर लेते हैं, नतीजतन तना कमजोर हो कर टूट जाता है. रोग की तेजी से पत्तियां झुलस जाती हैं. फलियों पर कुछ दबे और बिखरे धब्बे बनते हैं.

प्रबंधन

* फसल के बाद रोगी पौधों के अवशेषों को जला दें.

* फसल चक्र अपनाएं.

* बोआई से पहले बीजों को थायरम

2.5 ग्राम और कार्बंडाजिम 1 ग्राम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें.

* खड़ी फसल पर मैंकोजेब दवा की 2.5 ग्राम मात्रा को 1 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए. पहला छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई पड़ते ही करना चाहिए. कुल 4-5 छिड़काव 10-12 दिनों के अंतराल पर करने चाहिए.

फ्यूजेरियम म्लानि : यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम पाइसाइ नामक फफूंद से होता है. रोगी पौधों की निचली पत्तियां पीली हो जाती हैं और किनारे मुड़ जाते हैं.

नई कलियों की बढ़वार रुक जाती है. ऐसे रोगी पौधों की पत्तियां और तने मिट्टी की सतह पर काफी कड़े हो जाते हैं. रोगी पौधों की जड़ें बेकार हो जाती हैं और नीचे की पत्तियां पीली हो कर झड़ने लगती हैं, यह इस रोग की खास पहचान है.

कभीकभी पूरा पौधा पीला हो जाता है और पत्तियां गिरने लगती हैं. अंत में पूरा पौधा सूख कर तबाह हो जाता है. जड़ों और तने का भीतरी भाग बदरंग हो जाता है.

यदि रोग का हमला फल उत्पादन की अवस्था में होता है, तो फलियों का विकास ठीक नहीं होता है, नतीजतन कम दाने वाली चपटी व टेढ़ी फलियां लगती हैं.

कभीकभी इस रोग के फौरन बाद कमर तोड़ हो जाता है और पौधा मर जाता है.

जिस स्थान पर बीजपत्र जुड़ा होता है, वहां काला रंग दिखाई देता है, जिस से जड़ के बाहरी भाग को नुकसान पहुंचता है.

प्रबंधन

* कम से कम 5-6 साल का फसलचक्र अपनाएं.

* खेतों की सफाई रखें व रोगी पौधों को जड़ से उखाड़ कर जला दें.

* बीजों को बोते समय कवकनाशी रसायन थायरम 2.5 ग्राम व कार्बेंडाजिम 1 ग्राम  से प्रति किलोग्राम  बीज की दर से उपचारित करें या जैव अभिकर्ता की 10 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित करें.

* खड़ी फसल में कार्बेंडाजिम का 1 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर रोगी पौधे के तनों व जड़ों के पास डालें.

* उर्वरकों का सही मात्रा में इस्तेमाल करें. एससी 107 मटर की फ्यूजेरियम म्लानि के लिए प्रतिरोधी किस्म है.

फ्यूजेरियम जड़ सड़न : फ्यूजेरियम सोलेनाई उपजाति पाइसाइ नामक फफूंद से होने वाले इस रोग का असर अगेती बोई जाने वाली फसल पर ज्यादा होता है.

रोगी पौधों की पत्तियों का नष्ट होना ही इस रोग की खास पहचान है. जमीन  की सतह के पास तने और मुख्य जड़ों पर लंबे आकार के लालभूरे रंग के कुछ धंसे हुए घाव दिखाई पड़ते हैं. रोगी पौधों की जड़ें सड़ जाती हैं. नम वातावरण में रोगग्रस्त जड़ों व जमीन  की सतह के पास तनों पर कवक की सफेद या हलकी गुलाबी रंग की बढ़वार दिखाई पड़ती है.

प्रबंधन

* रोगी पौधों के अवशेषों को जमा कर के जला दें.

* बीजों को थायरम 2.5 ग्राम व कार्बंडाजिम 1 ग्राम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोएं.

* बीज घने नहीं बोने चाहिए.

* कम से कम 4 साल का फसलचक्र अपनाएं.

जीवाणुज अंगमारी : यह रोग स्युडोमोनास पाइसाइ नामक जीवाणु से होता है. रोग के लक्षण पत्तियों, तनों व फलियों पर लंबे या धारीदार जलीय दागों के रूप में नजर आते हैं. दागों का व्यास लगभग 3 मिलीमीटर तक होता है.

तनों व फलियों के दाग करीब 6 मिलीमीटर आकार के होते हैं. पत्तियों पर बने दाग बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं. रोग से प्रभावित जगहों से एक प्रकार का चिपचिपा पदार्थ निकलता है, जो सूखने पर पत्तियों पर पारदर्शी चमकदार पदार्थ की तरह, तनों पर भूरे रंग का तथा फलियों पर ग्रीस की तरह दिखाई देता है.

प्रबंधन

* उपचारित बीजों का इस्तेमाल करें और उन्नत कृषि विधियां अपनाएं.

* रोग रहित पौधों से ही बीजों को प्राप्त करना चाहिए. इस से बीज द्वारा होने वाले रोगों से बचा जा सकता है.

* जल्दी पकने वाली किस्में इस रोग से ज्यादा प्रभावित होती हैं, लिहाजा देर से पकने वाली किस्में बोनी चाहिए.

मोजेक : इस रोग के कारण पौधे पीले, कमजोर व छोटे दिखाई पड़ते हैं. पुरानी पत्तियों पर सफेद अनियमित क्षेत्र बनते हैं और पत्तियां मुड़ जाती हैं. तनों पर हलके भूरे छोटेछोटे बदरंग दाग बनते हैं.

स्वस्थ पौधों के मुकाबले रोगी पोधों में फूल देर से आते हैं. रोगी पौधों में फलियां छोटी और कम निकलती हैं. फलियों के अंदर बनने वाले बीजों की संख्या भी कम होती है.

प्रबंधन

* स्वस्थ पौधों से प्राप्त बीज ही बोएं.

* खेतों में सफाई रखें. रोगा के लक्षण दिखाई पड़ते ही रोगी पौधों को तुरंत उखाड़ कर जला दें.

* पौध अवस्था से ही कीटनाशी आक्सीडेमेटोन मिथाइल या डाइमिथोएट की 1 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें.

कुल 5-6 छिड़काव 10 दिनों के अंतराल पर करना फायदेमंद होता है. दवा का छिड़काव फलियां तोड़ने के 20 दिन पहले बंद कर देना चाहिए.

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