पत्तागोभी की फसल के बीज उत्पादन से कमाएं ज्यादा मुनाफा

भारत में शरद ऋतु में उगाई जाने वाली सब्जियों में पत्तागोभी का विशेष स्थान है, फिर भी इस की खेती विभिन्न ऋतुओं में लगभग पूरे वर्ष हमारे देश में की जाती है. पत्तागोभी में खनिज पदार्थ, विटामिन ए, विटामिन बी-1 और विटामिन सी की अधिक मात्रा पाई जाती है, जिस के कारण इस के बीज की मांग दिन दिनोंदिन बढ़ती जा रही है.

पत्तागोभी का बीजोत्पादन केवल पर्वतीय क्षेत्रों 1,800 मीटर से 3,000 मीटर की ऊंचाई में ही सफलतापूर्वक लिया जा सकता है. शुद्ध व गुणवत्ता वाले बीज उत्पादन के लिए तकनीकी जानकारी का होना आवश्यक है.

अच्छे व गुणवत्तायुक्त किस्मों के बीज उत्पादन के समय बीज की शुद्धता व गुणवत्ता बनाए रखने के लिए ध्यान देना चाहिए, जिस से बीज के गुणों की क्षति को रोका जा सके. अब तक इस फसल के बीजोत्पादन में जम्मूकश्मीर राज्य अग्रणी रहा है.

जलवायु

पत्तागोभी की खेती मैदानी क्षेत्रों में शीतकाल में की जाती है. पत्तागोभी की फसल के लिए 15 से 20 डिगरी सैल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है, जो पर्वतीय क्षेत्र में अलगअलग ऊंचाई पर अलगअलग समय में होता है, जिस से वर्षभर पत्तागोभी की सब्जी मिलती रहती है.

पत्तागोभी के पौधों में फूल बनने के लिए कम से कम डेढ़ माह से 2 माह तक 5 से 10 डिगरी सैल्सियस तापमान का मिलना अतिआवश्यक है. अगर यह तापमान लंबी अवधि तक मिलता है, तो पौधे में जल्दी फूल बनते हैं. इस के विपरीत यदि वातावरण का तापमान अधिक हो जाता है, तो पौधा वानस्पतिक अवस्था में ही रह जाता है.

बीज उत्पादन के लिए पत्तागोभी की खेती जुलाईअगस्त माह में करनी चाहिए. पत्तागोभी बीजोत्पादन के लिए ऐसे स्थान को चुना जाना चाहिए, जहां जुलाई से मई माह तक समयसमय पर वर्षा होती हो और पौधों में फलियां बनते समय प्रर्याप्त धूप मिल सके.

चुने गए क्षेत्र ओले से बहुत कम प्रभावित होने चाहिए, जिस के लिए फसल को बचाने के लिए नायलौन के जालों की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए.

भूमि का प्रकार

पत्तागोभी की खेती के लिए भूमि में पर्याप्त मात्रा में जीवांश होना चाहिए. अच्छे जलधारण एवं जल निकास वाली भूमि पत्तागोभी के बीजोत्पादन के लिए सर्वोत्तम होती है. पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए मिट्टी का पीएच मान 5.5 से 6.5 होना चाहिए.

भूमि की तैयारी

पत्तागोभी से अच्छा उत्पादन लेने के लिए खेत में एक गहरी व एक हलकी जुताई करनी चाहिए. पत्तागोभी की खेती असिंचित दशा में मध्यम ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में ही सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है.

भूमि शोधन

पत्तागोभी का अच्छा उत्पादन लेने के लिए खेत की अच्छी तरह से तैयारी करने के बाद खेत को छोटीछोटी क्यारियों में विभाजित करते हैं. इस के बाद मिट्टी में लगने वाली फफूंदी रोगों की रोकथाम ट्राईकोडर्मा जैविक फफूंदीनाशक से भूमि शोधन करना चाहिए.

बीज उत्पादन तकनीक

पत्तागोभी एक परपरागण वाली फसल है, जिस में परागण मधुमक्खियों के द्वारा होता है. पत्तागोभी की अगेती एवं पछेती किस्मों का उत्पादन ठंडे पर्वतीय क्षेत्रों में किया जाता है.

पत्तागोभी का आनुवांशिक शुद्ध बीज प्राप्त करने के लिए पत्तागोभी व गोभी वर्गीय 2 किस्मों को और सरसों कुल की फसलों के मध्य 1,000 मीटर की दूरी पर रखना अनिवार्य होता है.

पत्तागोभी का बीज उत्पादन करने के लिए 2 मौसमों की आवश्यकता होती है. पहले मौसम में बंद का उत्पादन होता है और अगले मौसम में बीज का उत्पादन होगा, अत: पत्तागोभी का बीज उत्पादन 2 तरीकों से किया जाता है.

बंद से बीज बनाना : इस विधि में नवंबरदिसंबर माह में पूरी तरह से विकसित बंद उखाड़ कर पुन: 60×60 सैंटीमीटर की दूरी पर रोपित करते हैं. पत्तागोभी में बीज उत्पादन के समय फूल और बीज का सुगमता से उत्पादन के लिए 3 विधियों को अपनाया जाता है.

स्टंप विधि : इस विधि में बंद (सिर) को आधार के ठीक नीचे धारदार चाकू से काटा जाता है, जिस से तने को पत्तियों के बाहरी आवरण/घेरे के साथ रखा जाता है.

केंद्रीय कोर अक्षुण्ण विधि के साथ स्टंप : इस विधि में बंद (सिर) को ऊपर से नीचे की ओर चारों तरफ से लंबवत काटा जाता है, ताकि केंद्रीय कोर क्षतिग्रस्त न हो.

सिर अक्षुण्ण विधि : इस विधि में बंद (सिर) को ऊपर से 2 चीरे इस प्रकार से लगाए जाते हैं कि उस के सिर पर धन (+) या क्रौस का कट बन जाए.

बीज से बीज बनाना : इस विधि में बंदों को दूसरी क्यारी में स्थानांतरित नहीं किया जाता है, बल्कि प्रारंभ में ही 60×60 सैंटीमीटर की दूरी पर रोपित किया जाता है.

बीज स्रोत व उपचार

पत्तागोभी का सफल बीजोत्पादन करने के लिए सही स्रोत से ही आनुवांशिक शुद्धता का बीज प्राप्त करना चाहिए. जब तक किसी विश्वसनीय स्त्रोत से शुद्ध बीज नहीं लिया जाए, तब तक उस की शुद्धता बनाए रखना आसान नहीं है.

अच्छी अंकुरण क्षमता के साथ बीज कवकनाशी रसायनों से शोधित होना चाहिए. प्रजनक आधारीय बीज किसी सरकारी संस्था या कृषि विश्वविद्यालय से प्राप्त करना चाहिए.

बीज दर और नर्सरी प्रबंधन

पत्तागोभी की अच्छी पौध तैयार करने के लिए निम्न बिंदुओं का ध्यान रखना बहुत जरूरी है :

* पौधों को समुचित धूप मिल सके, इस के लिए पत्तागोभी की पौधशाला खुले स्थान पर बनानी चाहिए.

* प्रत्येक वर्ष पौधशाला तैयार करने के लिए नए स्थान का चुनाव करना चाहिए.

* केप्टान नामक रसायन के 0.3 फीसदी के घोल से 5 लिटर प्रति वर्गमीटर की दर से पौधशाला लगाने के लिए चुनी गई भूमि को उपचारित करना चाहिए.

* पत्तागोभी के बीज को पंक्तियों में 5 से 6 सैंटीमीटर की दूरी पर 1.0 से 1.5 सैंटीमीटर की गहराई में लगाते है.

* पौधशाला की क्यारियां एक मीटर से अधिक चौड़ी नहीं होनी चाहिए और क्यरियां जमीन से 10 से 15 सैंटीमीटर ऊंची होनी चाहिए.

* पत्तागोभी की पौधशाला के लिए एक नाली क्षेत्र में 10 से 12 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है और रोपाई करने के लिए 5 से 6 वर्गमीटर पौध क्षेत्र पर्याप्त होता है.

* पौधशाला में आवश्यकतानुसार निराई, गुड़ाई व सिंचाई करते रहना चाहिए.

* पौधशाला में तैयार की गई पौध 4 से 5 हफ्ते में रोपाई के योग्य हो जाती है.

पौध रोपण

पत्तागोभी का बीज उत्पादन के लिए पौध रोपण के लिए पौध से पौध की दूरी 60 सैंटीमीटर और पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 सैंटीमीटर रखते हैं, जिस से अच्छा व गुणकारी शुद्ध बीज प्राप्त किया जा सके.

खाद व उर्वरक

पत्तागोभी को बीजोत्पादन के लिए 4 से 5 क्विंटल सड़ी गोबर की खाद, 2.5 किलोग्राम डीएपी, 3.0 किलोग्राम म्यूरेट औफ पोटाश एक नाली क्षेत्र के लिए पर्याप्त होता है.

गोबर की खाद, डीएपी और पोटाश की पूरी मात्रा और यूरिया की एक तिहाई मात्रा पौध रोपण से पहले अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मिला दें.

यूरिया की बाकी बच्ची मात्र रोपाई से 25 से 30 दिन बाद और शेष बचा हुआ भाग फूल की शाखाएं फूटते समय जमीन में मिला देनी चाहिए.

पलवार प्रयोग और मिट्टी चढ़ाना

प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में सितंबर से दिसंबर माह और मार्च से जून माह तक अकसर भूमि में नमी का अभाव रहता है. इस अवधि में पौधों को पानी की अधिक आवश्यकता होती है. अत: पत्तागोभी की बीजू फसल में नमी की कमी के दिनों में पौधों को चारों ओर 3 से 5 सैंटीमीटर मोटी पलवार की परत बिछा देनी चाहिए.

इस से कुछ समय तक भूमि की नमी संरक्षित की जा सकती है और बर्फ गिरने से पहले पलवार को हटा देना चाहिए. पत्तागोभी की बीजू फसल में सितंबरअक्तूबर माह व मार्च में मिट्टी चढ़ाना आवश्यक है.

रोगिंग व पृथक्करण

बीज की शुद्धता नियंत्रण के लिए रोगिंग करना नितांत आवश्यक है. यह कार्य बंद का आकार, रंग, उस का प्रकार एवं कुछ ऐसे गुण होते हैं, जिस के आधार पर किस्म को पहचान कर किया जा सकता है. जो पौधे किस्म के अनुरूप न हों और जो पौधे रोगी हों, उन्हें रोगिंग के दौरान खेत से निकाल देना चाहिए.

पत्तागोभी एक परसेचित फसल है. प्रमाणित बीज उत्पादक के लिए पत्तागोभी की 2 किस्मों या गोभीवर्गीय फसलों के खेतों के बीच की दूरी कम से कम 1.5 मीटर रखनी चाहिए.

कटाई (तुड़ाई)

पत्तागोभी की फलियां जब हलके हरे रंग की हो जाएं, तो उन्हें टहनियों से अलग कर लेना चाहिए.

बीज की मंड़ाई

पत्तागोभी की फलियों की कटी हुई टहनियों को 4 से 5 दिन तक ढेर में छायादार स्थान पर रखने के बाद फलियों को बोरी में भर कर उन्हें धूप में सुखाने के बाद मंड़ाई करते हैं.

बीज को सुखाना

पत्तागोभी के बीज में नमी को सुरक्षित स्तर तक लाने के लिए उन को अच्छी तरह साफ कर धूप में सुखाते हैं. जब तक बीज की नमी 7 से 8 फीसदी तक न आ जाए, इस के बाद बीज का श्रेणीकरण करते हैं, ताकि उच्च गुणवत्ता वाला बीज अलग किया जा सके.

उपज

असिंचित पर्वतीय क्षेत्रों में बीज फसल को नायलौन के जालों से मार्चअप्रैल माह में ढकने से औसतन 8 से 10 किलोग्राम बीज एक नाली क्षेत्र में उत्पादित हो जाता है.

मध्यम ऊंचाई वाले पर्वतीय क्षेत्रों में पत्तागोभी की बीजू फसल रोपाई से लगभग 320 से 330 दिन में पक कर तैयार हो जाती है.

बोएं उन्नतशील किस्में

भारत में सफेद पत्तागोभी अधिक लोकप्रिय है. किसानों को अधिक उत्पादन लेने के लिए अपने क्षेत्र की प्रचलित, उन्नत और अधिक उत्पादन देने वाली किस्मों का चयन करना चाहिए.

अगेती किस्में (सितंबर माह) : अर्ली ड्रम हैड, प्राइड औफ इंडिया, चौबटिया अर्ली, गोल्डन एकड़, पूसा, मुक्ता, क्रांति, मित्रा (संकर) आदि प्रमुख किस्में हैं.

मध्य व पछेती किस्में (अक्तूबर माह) : अर्ली, क्विस्टो, पूसा ड्रम हैड, लेट लार्ज ड्रम हैड, श्री गणेश गोल, मिड सीजन मार्केट, कोपेनहेगेन मार्केट, लेट ड्रम हैड, ऐक्सप्रैस, हाईब्रिड 10 (संकर), सलैक्शन 8 आदि प्रमुख किस्में हैं.

पत्तागोभी का व्यावसायिक व सफल बीज उत्पादन की दृष्टि से गोल्डन एकड़ और ग्रीन ऐक्सप्रैस 2 प्रमुख किस्में हैं. इन दोनों प्रजातियों के बंद ठोस, गोल आकार के और स्वाद वाले होते हैं. बंद का औसत वजन 750 ग्राम से 1,000 ग्राम तक होता है.

प्रमुख कीट की रोकथाम

माहू

नियंत्रण : माहू कीट के नियंत्रण के लिए फूल आने से पहले मार्च माह में 15 मिलीलिटर रोगोर नामक रसायन 15 लिटर पानी में घोल कर छिड़कें.

गोभी की सूंड़ी

नियंत्रण : गोभी की सूंडी के नियंत्रण को इमिडाक्लोप्रिड नामक रसायन के 0.04 फीसदी घोल को छिड़क कर नष्ट किया जा सकता है.

कटुआ अथवा कटवर्म कीट

नियंत्रण : कटवर्म कीट के नियंत्रण के लिए क्लोरोपाइरीफास नामक रसायन के 0.2 फीसदी घोल को छिड़क कर नष्ट किया जा सकता है.

बीमारियों (रोगों) की रोकथाम

आर्द्र्र गलन : रोग नर्सरी अवस्था में लगता है. इस में पौधे गलने लगते हैं.

नियंत्रण : * रोग के नियंत्रण के लिए मिट्अी का केप्टान या फार्मलिन से रासायनिक उपचार करते हैं.

* क्यारियों में समुचित जल निकास की व्यवस्था होनी चाहिए.

* बीज घना नहीं बोना चाहिए.

* प्रतिवर्ष पौधशाला का स्थान बदलते रहें.

काला विगलन : इस रोग के बीजाणु बीज की सतह पर, उस के अंदर और पौधे के मलबे में पाए जाते हैं.

नियंत्रण : * रोग के नियंत्रण के लिए रोगरहित बीजों को लगाना चाहिए.

* लंबा फसलचक्र अपनाना चाहिए.

* बीज को गरम पानी से उपचार करना चाहिए.

प्राकृतिक खेती में नवाचार की जरूरत

उदयपुर : 30 जून, 2023 को महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के अनुसंधान निदेशालय में टिकाऊ कृषि के लिए प्राकृतिक खेती पर 2 दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम शुभारंभ हुआ.

इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में कुलपति, महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर, डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए बताया कि पूरेे विश्व में रासायनिक उर्वरकों एवं हानिकारक कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग व एकल फसल प्रणाली से मिट्टी की गुणवत्ता में कमी, जैव विविधता का घटता स्तर, हवा की बिगड़ती गुणवत्ता और दूषित पर्यावरण के कारण हरित कृषि तकनीकों के प्रभाव टिकाऊ नहीं रहे हैं.

उन्होंने आगे बताया कि अत्यधिक उर्वरक के उपयोग से इनसान की सेहत, पशुओं की सेहत और बढ़ती लागत को प्रभावित कर रहे हैं और अब वैज्ञानिक तथ्यों से भी यह स्पष्ट है कि भूमि की जैव क्षमता से अधिक शोषण करने से एवं केवल रासायनिक तकनीकों से खाद्य सुरक्षा एवं पोषण सुरक्षा प्राप्त नहीं की जा सकती है.

उन्होंने यह भी कहा कि जैव विविधता को संरक्षित करते हुए प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना चाहिए, जिस से कि लाभदायक कीट जैसे मधुमक्खीपालन को कृषि में बढ़ावा मिल सके.

कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने प्राकृतिक खेती के 4 मूल अवयव ‘बीजामृत, जीवामृत, आच्छादन, नमी संरक्षण’ एवं जैव विविधता के बारे में विस्तृत रूप से प्राकृतिक खेती के परिपेक्ष में चर्चा की.

डा. एसके शर्मा, सहायक महानिदेशक, मानव संसाधन विकास, भारत कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली ने विशिष्ट अतिथि के रूप में संबोधन करते हुए बताया कि प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने से कृषि उत्पादन में टिकाऊपन आ सकता है. प्राकृतिक खेती गांव आधारित समन्वित खेती है, प्रदूषणरहित खेती है, अतः स्वस्थ भोजन के लिए ग्राहकों में इस की मांग बढ़ रही है. बढ़ती मांग के मद्देनजर प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है, जो गांवों में रोजगार बढ़ाने में भी सहायक होगी.

उन्होंने इस बारे में जानकारी देते हुए बताया कि प्राकृतिक खेती को देश को कृषि के पाठ्यक्रम में चलाने के साथसाथ नईनई तकनीकों को आम लोगों तक पहुंचाना समय की आवश्यकता है. इस के तहत आने वाले समय में देश के तकरीबन एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती की तरफ ले जाना है, जो कि वर्तमान में देश के कृषि वैज्ञानिकों के सामने एक मुख्य चुनौती है. प्राकृतिक खेती में देशज तकनीकी जानकारी और किसानों के अनुभवों को भी साझा किया.

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि डा. चंद्रेश्वर तिवारी, पूर्व निदेशक प्रसार शिक्षा, वीर चंद्र सिंह गढ़वाली, उत्तराखंड औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, भरसार, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड ने बताया कि प्रकृति और पारिस्थितिक कारकों के कृषि में समावेश कर के ही पूरे कृषि तंत्र का ‘शुद्ध कृषि’ की तरफ बढ़ाया जा सकता है.

उन्होंने बताया कि भारतीय परंपरागत कृषि पद्धति योजना के तहत राज्यों में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है. इस से कम लागत के साथसाथ खाद्य पोषण सुरक्षा को बढ़ावा मिलेगा. जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों के तहत खेती को सुरक्षा प्रदान करने के लिए प्राकृतिक खेती के घटकों को आधुनिक खेती में समावेश करना आवश्यक है.

डा. अरविंद वर्मा, अनुसंधान निदेशक ने कार्यक्रम की आवश्यकताओं एवं उद्देश्य के बारे में चर्चा करते हुए बताया कि प्राकृतिक खेती की नवीनतम तकनीकों का विकास करना आवश्यक है. इस के लिए विद्यार्थियों को अभी से ही जागरूक होने की आवश्यकता है. साथ ही, किसानों एवं कृषि बाजार को जोड़ कर किसानों एवं पर्यावरण को फायदा पहुंचाना आज के समय की जरूरत है. प्राकृतिक खेती और जैविक पशुपालन को वर्तमान कृषि पद्धति के साथ जोड़ कर अपनी आय को बढ़ा सकते हैं.

डा. रोशन चौधरी, कार्यक्रम सहसंयोजक ने कार्यक्रम का संचाालन करते हुए बताया कि 2 दिवसीय प्रशिक्षण के दौरान प्राकृतिक खेती पर विशेषज्ञों द्वारा व्याख्यान हुए.

इस कार्यक्रम में डा. एसएस शर्मा, अधिष्ठाता, राजस्थान कृषि महाविद्यालय, डा. पीके सिंह, अधिष्ठाता, कृषि अभियांत्रिकी महाविद्यालय, डा. महेश कोठारी, निदेशक, आयोजना एवं परिवेक्षण निदेशालय, डा. मनोज कुमार महला, निदेशक, छात्र कल्याण अधिकारी, डा. बीके शर्मा, अधिष्ठाता, मात्स्यिकी महाविद्यालय, डा. विरेंद्र नेपालिया, विशेष अधिकारी, डा. अमित त्रिवेदी, क्षेत्रीय निदेशक अनुसंधान, कृषि अनुसंधान केंद्र, उदयपुर, डा. रविकांत शर्मा, उपनिदेशक अनुसंधान उपस्थित थे.

सब्जी का बीज ऐसे करें तैयार

भारत में किसान परिवारों की संख्या बहुत सारे पश्चिमी देशों की कुल जनसंख्या से भी ज्यादा है. ऐसे में किसानों को अधिक पैदावार के लिए अच्छी क्वालिटी वाले बीज सही मात्रा में सही समय पर सही कीमतों के साथ मुहैया कराना जरूरी है.

कुछ सब्जियां, जिन का इस्तेमाल किचन गार्डन के रूप में भी किया जाता है, जैसे टमाटर, बैगन, मिर्च, मटर, मूली, चुकंदर, लहसुन, प्याज, मेथी, चौलाई, पत्ता गोभी, फूल गोभी, भिंडी वगैरह के बीज उत्पादन की तकनीक व उन की क्वालिटी के बारे में वैज्ञानिक तरीके यहां बताए जा रहे हैं:

टमाटर

बीज के लिए टमाटर की खेती उसी तरह से होती है, जिस तरह सब्जी के लिए करते हैं.  बीज के लिए स्वस्थ पौधे का चुनाव करते हैं और पूरी तरह से पक जाने के बाद बीज के लिए फल को तोड़ते हैं. फल तोड़ने के बाद 2 तरीकों से बीज को अलग करते हैं:

किण्वन विधि : इस विधि का इस्तेमाल छोटेछोटे फलों, जिन में ज्यादा बीज होते हैं, के लिए किया जाता है. इस में टमाटर के गुच्छे को मिट्टी या लकड़ी के बरतन में 1-2 दिनों के लिए रख देते हैं.

इस के बाद उस बरतन में पानी भर देते हैं, जिस में पके टमाटर के गुच्छे रखे होते हैं. इस में टमाटर का गूदा और छिलका तैरने लगता है और बीज नीचे तली में बैठ जाते हैं. इन्हें छान कर अलग कर लिया जाता है. इस काम में टमाटर का कोई भी भाग खाने के काम में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. इस विधि से मिले बीजों में अंकुरण अच्छा होता है.

अम्लोपचार विधि : बड़े स्तर पर बीज हासिल करने के लिए इस विधि का इस्तेमाल होता है. इस में टमाटर का गूदा खाने में इस्तेमाल किया जा सकता है. इस के लिए 14 किलोग्राम पके टमाटर के फल में 100 मिलीलिटर हाइड्रोक्लोरिक एसिड गूदे के साथ अच्छी तरह मिला कर 30 मिनट तक रख देते हैं.

इस तरह बीज व गूदा लसलसे पदार्थ से अलग हो जाता है. उस के बाद बीज व गूदे को साफ पानी से अच्छी तरह साफ कर लेते हैं और बीज को सुखा लेते हैं.

बैगन

फूल आने के पहले, फूल आते समय और फूलों के तैयार होते समय पौधों की जांच करते रहें. अच्छे स्वस्थ पौधों पर लगे फूलों को बीज के लिए छोड़ते हैं. बीमार पौधों को पहली जांच में ही हटा देना चाहिए.

बीज के लिए छोड़े गए फल जब पक कर पीले पड़ जाते हैं तब उन्हें तोड़ लेना चाहिए. फल का छिलका हटा दें और फल के चाकू से पतलेपतले टुकड़े कर के बीज को गूदे से निकाल कर पानी में डुबो देते हैं.

इस के बाद बीज को धूप में सुखा लेते हैं, नहीं तो बीज के फूटने का डर बना रहेगा.

मटर

बीज के लिए मटर की खेती उसी तरह की जाती है जैसे सब्जी फसल के लिए की जाती है.

बीमारी व कीट वाले पौधों को भी उखाड़ कर खत्म कर देना चाहिए.

पकी हुई फलियों को तोड़ कर दानों को छिलकों से अलग कर लें. बीज से टूटेफूटे दानों को अलग कर देना चाहिए.

मूली

मूली की एशियाई किस्मों से मैदानी और पहाड़ी इलाकों में बीज तैयार हो सकता है, परंतु यूरोपियन किस्मों के बीज केवल पहाड़ी इलाकों में ही होते हैं. जापानी व्हाइट किस्म का बीज मैदानी इलाकों में भी तैयार किया जा सकता है.

मूली के बीज तैयार करने के 2 तरीके

बीज से बीज : इस विधि में मूली को खेत में ही छोड़ देते हैं. जड़ पकने के बाद फूल आते हैं और बीज बनते हैं. इस विधि में बीज अधिक बनते हैं, परंतु बीज की क्वालिटी अच्छी नहीं होती है, क्योंकि इस विधि में बीज पौधों का चुनाव संभव नहीं हो पाता है.

जड़ से बीज : इस विधि में मूली की स्वस्थ और पूरी तरह तैयार जड़ों को नवंबरदिसंबर महीने में, जब मूली खाने के लिए तैयार हो जाती है, तो उखाड़ लिया जाता है. आधे से तीनचौथाई भाग जड़ का और एकतिहाई हिस्सा पत्तियों का काट दिया जाता है. पत्ती सहित कटी हुई जड़ों को तैयार खेत में 75×30 सैंटीमीटर की दूरी पर फिर से लगाते हैं. इन्हें लगाने का सही समय मध्य नवंबर से दिसंबर मध्य तक का होता है. देरी से लगाने के कारण बहुत सी जड़ें सड़ जाती हैं. इन में से कुछ ही जड़ें फूटती हैं जिस के कारण कम बीज मिलता है.

नवंबरदिसंबर माह में लगाई जड़ों में मार्चअप्रैल में फलियां तैयार हो जाती हैं. फलियों को कुछ समय तक छाया में सुखा लेते हैं. इस विधि से उन्नत बीज हासिल किया जा सकता है.

मूली की तरह ही गाजर और शलजम के भी बीज तैयार कर सकते हैं.

भिंडी

बीज वाले खेत से बीमार पौधों को उखाड़ कर खत्म कर दें. बीज के लिए स्वस्थ फल को पकने के लिए छोड़ देते हैं. अगर भिंडी को 2-3 बार तोड़ने के बाद बीज के लिए पकने के लिए छोड़ा जाता है तो बीज की मात्रा और क्वालिटी में कमी आ जाती है. भिंडी की बोआई करते समय पौधे से पौधे की दूरी 45×15 सैंटीमीटर रखनी चाहिए.

लहसुन

लहसुन की बोआई बीज से नहीं होती है. बोआई के लिए इस के जवों का इस्तेमाल करते हैं और बीज के लिए कोई खास तकनीक इस्तेमाल नहीं की जाती है. सब्जी या मसालों के लिए उपजाई गई फसल में से स्वस्थ, अच्छे और बड़े कंदों को बीज के लिए रखते हैं.

बीज वाली फसल के लिए लाइन से लाइन की दूरी 40 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 10-12 सैंटीमीटर रखते हैं.

सभी फसलों के बीज के लिए खेती करते समय खेती के वैज्ञानिक तरीकों को ही अपनाना चाहिए. खाद व पानी का भी इस्तेमाल इलाकेवार वैज्ञानिकों द्वारा तय मात्राओं के मुताबिक ही करना चाहिए. बीज उत्पादन के लिए केवल संबंधित फसल के लिए संस्तुत की गई दूरियों पर खास ध्यान देना चाहिए. इन तरीकों को अपना कर किसान अपनी जरूरतों के लिए बीज तैयार कर सकते हैं.

मशरूम खाएं इम्यूनिटी बढ़ाएं

इम्यूनिटी को हिंदी में प्रतिरोधक क्षमता या प्रतिरक्षा कहा जाता है. यह किसी भी तरह के सूक्ष्म जीवों जैसे रोग पैदा करने वाले जीवाणुओं, विषाणुओं आदि से शरीर को लड़ने की क्षमता देती है.

शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में खाद्य पदार्थ अहम भूमिका निभाते हैं. मशरूम एक तरह की फफूंदी हैं, जो हमारे आहार का अंग बन गई है.

यह एक शाकाहारी आहार है. इस से विभिन्न व्यंजन जैसे सब्जी, सूप, अचार, पकोड़े, मुरब्बा, बिरयानी, बिसकुट, नूडल्स बनाए जाते हैं.

मशरूम में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, खाद्य रेशा, वसा, खनिज लवण, विटामिन प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. यह एक कम ऊर्जा वाला आहार है. इस में कोलेस्ट्रौल नहीं पाया जाता है, जबकि आर्गेस्टेराल प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, जो खाने के बाद मानव शरीर में विटामिन डी में बदल जाता है.

कई रिसर्च से पता चला है कि विटामिन डी वायरल संक्रमण व स्वास्थ्य संबंधी संक्रमण को रोकने में लाभदायक साबित होता है, इसलिए कई बीमारियों में मशरूम का इस्तेमाल दवा के रूप में किया जाता है.

मशरूम में कई खास खनिज और विटामिन पाए जाते हैं. इन में विटामिन बी, डी, पोटैशियम, कौपर, आयरन, सैलेनियम की पर्याप्त मात्रा होती है. मशरूम में कोलीन नाम का एक खास पोषक तत्त्व पाया जाता है, जो मांसपेशियों की सक्रियता और याददाश्त बरकरार रखने में बेहद फायदेमंद रहता है.

मशरूम के फायदे

* मशरूम में एंटीऔक्सीडैंट भरपूर मात्रा होते हैं. इन में से खास है अरगोजियोनीन, जो बढ़ती उम्र के लक्षणों को कम करने और वजन घटाने में सहायक होता है. एंटीऔक्सीडैंट सूजन रोकने, फ्रीरैडिकल के कारण शरीर में होने वाले नुकसान और संक्रमण से बचाते हैं व शरीर में रोगों से लड़ने वाली कोशिकाओं को भी बढ़ाते हैं.

* मशरूम में मौजूद तत्त्व रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं. इस से सर्दीजुकाम जैसी बीमारियां जल्दीजल्दी नहीं होती हैं. मशरूम में मौजूद सैलेनियम इम्यून सिस्टम के रिस्पौंस को बेहतर बनाता है.

* मशरूम विटामिन डी का भी अच्छा स्रोत है. विटामिन डी हड्डियों को मजबूत बनाता है.

* इस में बहुत कम मात्रा में कार्बोहाइड्रेट होता है, जिस से वजन और शुगर का लैवल नहीं बढ़ता है.

* मशरूम में वसा बहुत कम होती है व कोलेस्ट्रौल नहीं होता है. इस के अलावा मशरूम त्वचा और बालों के लिए भी फायदेमंद है.

ताजा मशरूम में 80 से 90 फीसदी पानी पाया जाता है. मशरूम के शुष्क भार का 46 से 82 फीसदी कार्बोहाइड्रेट, 12 से 35 फीसदी प्रोटीन, 8 से 10 फीसदी फाइबर, एक से 4 फीसदी वसा और विटामिन व खनिजलवण होता है.

मशरूम में इम्यूनिटी

मशरूम की कोशिका भित्ति पोलीसैकेराइड (बीटा ग्लूकांस) की बनी होती है जो प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है. इस के अलावा मशरूम में मिलने वाले गैनोडरमीक एसिड, एरगोथियोनीन व कार्डीसेवीन भी प्रतिरक्षा क्षमता को बढ़ाते हैं.

मशरूम में कैंसर रोधी क्षमता

बटन मशरूम और ओयस्टर मशरूम में प्रोस्टेट व ब्रैस्ट कैंसर रोधी क्षमता पाई जाती है. 5 अल्फा रिडक्टेज और एरोमाटेज एंजाइम, जो कैंसरकारी ट्यूमर वृद्धि के लिए उत्तरदायी है, इसे रोकने के गुण ताजा मशरूम में पाए जाते हैं. कैंसर के उपचार में प्रयोग होने वाली प्रमुख दवा पौलिसैकेराइड-के (क्रेसीन) मशरूम से ही बनाई जाती है.

धान की नर्सरी प्रबंधन

खरीफ में धान की फसल की खास अहमियत है. धान की ज्यादा पैदावार लेने के लिए बहुत से कारक उत्तरदायी हैं, जिन में से अच्छे बीज का चुनाव, नर्सरी में पौध की देखरेख, रोपाई की विधि, पोषक तत्त्व प्रबंधन, पानी की उपलब्धता खास हैं. स्वस्थ व निरोगी पौध तैयार करने के लिए यह जरूरी है कि जरूरी उम्र की पौध की रोपाई की जाए इस से धान की फसल से भरपूर पैदावार मिल सकती है.

आमतौर पर संकर धान की नर्सरी 21 दिनों व दूसरी प्रजातियों की नर्सरी 25 दिनों में तैयार हो जाती है. तैयार नर्सरी की रोपाई अगर एक हफ्ते के अंदर हो जाए तो पौधों में कल्लों की तादाद ज्यादा निकलती है, जो पैदावार बढ़ाने में सहायक होती है.

खेत का चुनाव

धान की पौध ऐसे खेत में डालनी चाहिए जो सिंचाई के स्रोत के पास हो. धान की खेती के लिए पानी रोकने की क्षमता रखने वाली चिकनी या मटियार मिट्टी वाले इलाके ज्यादा सही रहते हैं. सिंचाई की सुविधा मुहैया होने पर धान हलकी भूमि में भी कामयाबी के साथ उगाया जा सकता है.

खेत की तैयारी

नर्सरी के लिए चुने हुए खेत की जुताई करने के बाद पाटा चला कर जमीन को समतल कर लेना चाहिए. पौध तैयार करने के लिए खेत में 2-3 सैंटीमीटर पानी भर कर 2-3 बार जुताई करें, ताकि मिट्टी लेह युक्त हो जाए और खरपतवार नष्ट हो जाएं.

आखिरी जुताई के बाद पाटा लगा कर खेत को समतल करें, ताकि खेत में अच्छी तरह लेह बन जाए, जो पौध की रोपाई के लिए उखाड़ने में मदद मिले और जड़ों का नुकसान कम हो.

नर्सरी के लिए खाद

पौध तैयार करने के लिए 1.25 मीटर चौड़ी व 8 मीटर लंबी क्यारियां बना लें और प्रति क्यारी (10 वर्गमीटर) 225 ग्राम यूरिया, 400 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट और 65-70 ग्राम पोटाश मिलाएं. यह ध्यान रहे कि पौध  जितनी स्वस्थ होगी, उतनी ही अच्छी उपज मिलेगी.

बोआई का समय

जून महीने के पहले हफ्ते से आखिरी हफ्ते तक बीज की बोआई करें, जबकि सुगंधित प्रजातियों की नर्सरी जून के तीसरे हफ्ते में डालें.

बीज की मात्रा

एक एकड़ क्षेत्रफल की रोपाई के लिए धान की महीन चावल वाली किस्मों का 12  किलोग्राम, मध्य दाने वाली किस्मों का 14 किलोग्राम और मोटे दाने वाली किस्मों का 16 किलोग्राम बीज सही होता है, जबकि संकर प्रजातियों के लिए प्रति एकड़ 7-8 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है.

बीजोपचार

जीवाणु  झुलसा की समस्या वाले क्षेत्रों में 25 किलोग्राम बीज को 4 ग्राम स्टै्रप्टोसाइक्लीन दवा में मिला कर रातभर पानी में भिगोएं. दूसरे दिन बीज को छाया में सुखा कर नर्सरी डालें.

जहां इस रोग की समस्या न हो उस क्षेत्र में बीज को 12 घंटे तक पानी में भिगोएं और पौधशाला में बोआई से पहले बीज को कार्बेंडाजिम या थीरम की 2 ग्राम मात्रा प्रति किलोगाम बीज की दर से उपचारित करें और उस के बाद बीज को समतल छायादार जगह पर फैला दें व भीगी जूट की बोरियों से ढक दें. बोरियों के ऊपर पानी का छिड़काव करें, जिस से नमी बनी रहे.

24 घंटे के बाद बीज अंकुरित हो जाएगा, फिर अंकुरित बीज की समान रूप से बोआई कर दें. ध्यान रखें कि बीज की बोआई शाम को करें, ताकि अगर तापमान ज्यादा हो तो अंकुरण नष्ट न होने पाए.

नर्सरी की देखरेख

अंकुरित बीज की बोआई के 2-3 दिनों के बाद पौधशाला में सिंचाई करें. खैरा रोग से बचाव के लिए एक सुरक्षात्मक छिड़काव  500 ग्राम जिंक सल्फेट को 2 किलोग्राम यूरिया या 250 ग्राम बु झे हुए चूने के साथ 100 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति 1000 वर्गमीटर क्षेत्रफल की दर से पहला छिड़काव बोआई के 10 दिन बाद और दूसरा छिड़काव 20 दिन बाद करना चाहिए.

सफेदा रोग के नियंत्रण के लिए 400 ग्राम फेरस सल्फेट को 2 किलोग्राम यूरिया के साथ 100 लिटर पानी में घोल बना कर 1,000 वर्गमीटर क्षेत्रफल में छिड़काव करें.

कम लागत और जल संरक्षण के लिए सीधी बोआई है उपयोगी

सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय में पिछले दिनों अंतर्राष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान फिलीपींस मनिला के 2 सदस्य दल डाक्टर अमिलिया हेनरी और डाक्टर जसवंत विश्वविद्यालय पहुंचे. इन्होंने फसल अनुसंधान केंद्र पर पहुंच कर परियोजना के अंतर्गत लगाए गए परीक्षणों की जांच की और वहां पर मृदा के परीक्षण और फील्ड की जांच की.

फिलीपींस से आए प्रतिनिधिमंडल ने कुलपति प्रो. केके सिंह से मुलाकात की और भविष्य में दोनों देशों के सहयोग से किए जाने वाले शोध कार्यों के बारे में चर्चा की.

कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफैसर केके सिंह ने कहा कि चावल उत्पादन के लिए सही विधि का चयन करना चाहे सीधी बीजारोपण विधि हो या नर्सरी विधि एक महत्वपूर्ण निर्णय है, जो कई कारकों पर निर्भर करता है. सीधी बीजारोपण विधि में लागत की बचत होती है और ट्रांसप्लांटिंग और अंकुर प्रबंधन के लिए कम श्रम प्रविष्टियां आवश्यक होती हैं.

कृषि विश्वविद्यालय ने फिलीपींस के बीच एक अनुबंध किया है, जिस में धान उत्पादन की तकनीकी एवं उस के विकास के क्षेत्र में अनुसंधान कार्य किए जाएंगे.

परियोजना की मुख्य अन्वेषण डाक्टर शालिनी गुप्ता ने बताया कि कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के प्रयास से अंतर्राष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान फिलीपींस के बीच इस बार एक अनुबंध हुआ है, जिस में शिक्षा शोध एवं प्रसार के कार्यों को बढ़ावा दिया जाएगा.

इस अंतर्राष्ट्रीय परियोजना की प्रधान अन्वेषक डाक्टर शालिनी गुप्ता ने यह भी बताया कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए यह पहली परियोजना है, जिस के अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान फिलिपींस मनिला और यह कृषि विश्वविद्यालय मिल कर धान की स्क्रीनिंग और उन की उपयोगिता की जांच के लिए कार्य किया जाएगा. इस से यह पता चलाया जा सकेगा कि कौन से जर्म प्लाज्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए लाभकारी है.

उन्होंने आगे यह भी बताया कि कृषि विश्वविद्यालय में किए जा रहे इस प्रकार के अनुसंधान से सीधी बोआई की उपयोगिता का पता आसानी से लगाया जा सकेगा. उस के उपरांत उपयुक्त विधि का चयन करने से उत्पादन की संभावना को अधिकतम किया जा सकेगा.

उन्होंने कहा कि किसी दवाई से खरपतवार नियंत्रण में दिक्कतें आती हैं. खरपतवार खेत में अधिक हो जाता है. उस के नियंत्रण के लिए भी तकनीक विकसित करने पर विचार किया जाएगा. साथ ही साथ इस विधि से बोआई करने पर जल संरक्षण हो सकेगा.

उन्होंने आगे कहा कि इस प्रकार के अनुसंधान से चावल की उत्पादकता और उत्पादन को और भी अधिक बढ़ाया जा सकेगा.

डाक्टर शालिनी गुप्ता ने बताया कि इस परियोजना के अंतर्गत प्राप्त विभिन्न जर्म प्लाज्म की खेत में सीधी बोआई की गई है. इस परियोजना के अंतर्गत लगभग आधा एकड़ क्षेत्रफल में धान की विभिन्न प्रजातियों की सीधी बोआई की गई है. यहां पर जो जर्म प्लाज्म लगाया गया है, उस की गुणवत्ता की जांच की जाएगी. साथ ही, देखा जाएगा कि पश्चिम उत्तर प्रदेश के वातावरण में कौन सा जर्म प्लाज्म अच्छा उत्पादन देता है.

इस दौरान विश्वविद्यालय के निदेशक शोध प्रोफैसर अनिल सिरोही, निदेशक, ट्रेनिंग और प्लेसमेंट और विभागाध्यक्ष प्रोफैसर आरएस सेंगर, परियोजना के सहअन्वेषक डाक्टर आदेश कुमार और एमएससी और पीएचडी के शोध छात्र भी मौजूद रहे.

मिर्च की फसल में लगने वाले कीट और रोग

मिर्च एक ऐसा मसाला है, जो लोगों की जिंदगी को तीखा और चटपटा बना देता है. यह हर घर की रसोई में पाई जाती है, इसलिए दुनियाभर में इस की मांग बनी रहती है. बहुत से किसान इस की खेतीबारी से रोजीरोटी कमाते हैं. पर इस में कुछ कीट और रोग ऐसे लग जाते हैं, जो फसल को नुकसान पहुंचाते हैं. आइए, जानते हैं उन के बारे में :

पीली माइट कीट

यह पीले रंग की छोटी माइट है. यह आकार में इतनी छोटी होती है, जो आसानी से दिखाई नहीं देती है. इस का प्रकोप होने पर परर्ण कुंचन (लीफ कर्ल) की तरह पत्तों में सिकुड़न आ जाती है.

इस कीट के शिशु और प्रौण दोनों ही पत्तियों का रस चूस कर हानि पहुंचाते हैं. इस का अत्यधिक प्रकोप होने पर पौधों की बढ़वार एकदम रुक जाती है और फलनेफूलने की क्षमता अकसर समाप्त हो जाती है.

मिर्च का रसाद कीट (थ्रिप्स)

प्रौण कीट 1 मिलीमीटर से कम लंबा, कोमल और हलके पीले रंग का होता है. इस के पंख झालरदार होते  हैं. ये अल्पायु कीट पंखरहित होते हैं. ये सैकड़ों की संख्या में पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर छिपे रहते हैं और कभीकभी ऊपरी सतह पर भी पाए जाते हैं.

शिशु और प्रौण कीट मार्च से नवंबर माह तक मिर्च की पत्तियों का रस चूस कर हानि पहुंचाते हैं, जिस से पत्तियां मुड़ जाती हैं और ऊपरी भाग सूख जाता है.

प्रबंधन : यदि फसल में दोनों कीट नहीं आए हैं, तो नीम तेल 1500 पीपीएम की 3 मिलीलिटर दवा प्रति लिटर पानी में घोल बना कर 15-15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करते रहें.

यदि दोनों कीट आ गए हैं, तो इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 10 मिलीलिटर दवा प्रति 15 लिटर पानी में घोल बना कर तुरंत छिड़काव करें.

आर्द्र गलन रोग

अंकुरण का कम होना, बीज का अंकुरण से पहले गल जाना, नर्सरी में अंकुरण के बाद पौधा सड़ कर गिरने लगता है आदि इस बीमारी की प्रमुख लक्षण हैं.

प्रबंधन : बीज का उपचार बोने से पहले थीरम 2.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से बीज को शोधित कर के बोना चाहिए.

जमाव होने के बाद 2 ग्राम कौपर औक्सीक्लोराइड को प्रति लिटर पानी में घोल बना कर नर्सरी में पौधों पर छिड़काव करना चाहिए.

शीर्ष मरण रोग (डाई बैक) या फल सड़न

इस में पौधों के शीर्ष का भाग और शाखाएं ऊपर से नीचे की ओर सूखने लगती हैं. ऐसे पौधों के फल सड़ने लगते हैं और पौधे बौने रह कर सूख जाते हैं.

प्रबंधन : बीज को कार्बंडाजिम के 2.5 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोएं.

खड़ी फसल में लक्षण दिखाई पड़ते ही मैंकोजेब एम 45 की 3 ग्राम दवा प्रति लिटर पानी में घोल बना कर तुरंत छिड़काव करें.

बुकनी रोग

इस में पत्तियों के निचले भाग पर सफेद चूर्ण जम जाता है, जिस से प्रभावित पौधे मुरझाने  लगते हैं.

प्रबंधन : इस रोग की रोकथाम के लिए रोग रोधी किस्म का चयन करें. रोग का प्रकोप होने पर सल्फैक्स 3 ग्राम को प्रति लिटर पानी में घोल कर 10 दिन के अंतराल पर 2 से 3 बार छिड़काव करें.

गुरुचा या पत्ती मरोड़ रोग

यह बीमारी विषाणुजनित होती है, जो सफेद मक्खी द्वारा एक पौधे से दूसरे पौधे पर पहुंचाई जाती है.

इस रोग के प्रकोप से पत्तियां सिकुड़ कर कुरूप हो जाती हैं. प्रभावित पौधे में फल कम या नहीं लगता है.

प्रबंधन : इस रोग रोधी पौधों को उखाड़ दें और गड्ढा खोद कर इन बीमार पौधों को मिट्टी में दबा देना चाहिए.

सफेद मक्खी पर अच्छी तरह से नियंत्रण पाने के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 10 मिलीलिटर दवा प्रति 15 लिटर पानी में घोल बना कर तुरंत छिड़काव करें.

अधिक जानकारी के लिए कृषि विज्ञान केंद के वैज्ञानिकों से संपर्क करें.

अदरक की खेती

आमतौर पर अदरक की खेती  सभी प्रकार की जमीन में  की जा सकती है. लेकिन उचित जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी, जिस में जीवांश की अच्छी मात्रा हो, अदरक की खेती के लिए उपयुक्त होती है. इस की अच्छी पैदावार के लिए जमीन का पीएच मान 5.0 से 6.0 के बीच होना चाहिए.

खेत की तैयारी

खेती योग्य भूमि तैयार करने के लिए 1-2 जुताई मिट्टी पलटने और 2-3 जुताई देशी हल से करनी चाहिए. मिट्टी को अच्छी तरह से समतल व भुरभुरा कर लेना चाहिए.

प्रमुख प्रजाति

सुप्रभा, सुरभि, रजाता, हिमगिरि, महिमा आदि खास प्रजाति हैं. इस के अलावा किसान लोकल प्रजाति का भी चयन खेती हेतु प्रयोग करते हैं.

बोआई का समय

अदरक की बोआई का सब से उचित समय 20 अप्रैल से 25 मई तक अच्छा माना जाता है.

बोआई के पहले डाईथेन एम 45 के 0.30 फीसदी के घोल से इस के कंदों को अच्छी तरह से उपचारित कर लेना चाहिए और छाया में सुखा लेना चाहिए.

बीज की मात्रा

अदरक की बोआई के लिए कंदों के आकार के अनुसार 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है.

बोने की नाली विधि

इस विधि का प्रयोग सभी प्रकार की जमीनों में की जा सकती है. पहले से तैयार खेत में 60 या 40 सैंटीमीटर की दूरी पर मेंड़ या नाली को हल या फावड़े से तैयार किया जाता है और बीजों को 5 से 6 सैंटीमीटर की गहराई में बोया जाता है व ऊपर से मिट्टी चढ़ा दी जाती है.

तैयार पैदावार

अदरक की फसल की अच्छी तरह सिंचाईं, निराई और देखभाल समयसमय पर की जाए, तो 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार मिलती है.

सबसौयलर मिट्टी  को बनाए हवादार

आज भारीभरकम मशीनों को जुताई, फसल की कटाई व दूसरे जरूरी कामों के लिए खेत में चलते देखना आम बात है. इस तरह की खेती में खेत की लगभग 25 सैंटीमीटर से ज्यादा गहराई तक की परत कड़ी बनती जा रही है.

खेत की निचली सतह में इस तरह की कड़ी परत बन जाने की वजह से मिट्टी में पानी व हवा का आनाजाना कम हो जाता है. मिट्टी के कड़ा होने के कारण पानी जमीन में नीचे की ओर नहीं जा पाता और खेतों में पानी भराव जैसी परेशानी पैदा होने लगती है.

इतना ही नहीं, इन्हीं सख्त परतों के चलते पौधों की जड़ें भी मिट्टी में ज्यादा गहराई तक नहीं जा पाती हैं. सख्त परतों के नीचे मौजूद पोषक तत्त्वों व पानी का इस्तेमाल भी नहीं कर पाती हैं. नतीजा पैदावार कम होती है.

खेत में बनी इन सख्त परतों से नजात दिलाने के लिए एक मशीन तैयार की गई है, जिस को सबसौयलर  कहते हैं. यह सबसौयलर  कई आकार, प्रकार व नामों से बाजार में उपलब्ध हैं. इस मशीन के इस्तेमाल से खेत की निचली सतहों में मौजूद कठोर परतों को तोड़ कर मिट्टी को मुलायम व हवादार बना दिया जाता है, जिस से खेत में पानी भराव जैसी स्थिति पैदा नहीं होती व पैदावार भी अच्छी मिलती है.

इस मशीन का इस्तेमाल किसी भी तरह की मिट्टी में हो सकता है, लेकिन हलकी बलुई दोमट, दोमट व चिकनी मिट्टी में इस का इस्तेमाल ज्यादा किया जाता है, क्योंकि इस  तरह की मिट्टी में ही ज्यादातर सख्त परतें बनती हैं.

सबसौयलर से जुताई के फायदे

इस मशीन का खास काम मिट्टी में बनी सख्त परतें तोड़ना है व जब ये परतें टूट जाती हैं, तो उस के कई फायदे होते हैं.

* सख्त परतें टूट जाने से मिट्टी में हवा का आवागमन बढ़ता है और मिट्टी में मौजूद फायदेमंद छोटे जीवों की काम करने की ताकत बढ़ जाती है.

* मिट्टी में पानी का आवागमन बढ़ता है, जिस से खेत की पानी सोखने की कूवत बढ़ जाती है व खेत में पानी भराव के हालात पैदा नहीं होते.

* कड़ी परतें टूट जाने के बाद पौधों की जड़ें खेत में ज्यादा गहराई तक जा कर पोषक तत्त्वों व पानी का अवशोषण करती हैं, जिस से उन के विकास में बढ़वार तो होती ही है, साथ ही खेत में मौजूद पोषक तत्त्व व पानी का सही इंतजाम भी होता है.

*  इस मशीन के इस्तेमाल से खेत में दीमक का असर भी कम हो जाता है, क्योंकि मशीन चलने से दीमक के घर खत्म हो जाते हैं.

* जब सबसौयलर खेत चले में तो पौधों की जड़ें ज्यादा गहरी जाती हैं, इसलिए आंधीतूफान व बाढ़ वगैरह की स्थिति आने पर फसल गिरने की समस्या कम हो जाती है.

* ज्यादा लवण वाली मिट्टी में इस मशीन को चलाने से मिट्टी की ऊपरी सतह में मौजूद लवण की फालतू मात्रा पानी के साथ रिस कर जमीन के काफी नीचे चली जाती है और खेत ऊसर नहीं बनता.

ऐसे करें मशीन का इस्तेमाल

इस मशीन को ट्रैक्टर के पीछे लगा कर खेत में चलाया जाता है. हालांकि इस का खास काम मिट्टी की कड़ी परतों को तोड़ना है, लेकिन इस के मूल ढांचे में थोड़ा सा बदलाव कर इस को ज्यादा कारगर बना दिया गया है. अब इस मशीन से परत तोड़ने के साथसाथ खेत में गहराई पर खाद देने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

सबसौयलर का इस्तेमाल करते समय कुछ जरूरी बातों का खयाल रखें :

*      सबसौयलर के टाइंस की दूरी ठीक होनी चाहिए.

*      खेत में नमी बहुत ज्यादा या बहुत कम नहीं होनी चाहिए.

*      सबसौयलर चलाने के बाद खेत में भारी मशीनों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.

घर के आंगन में  आदर्श गृह वाटिका

आजकल बाजार में बिकने वाली चमकदार फलसब्जियों को रासायनिक उर्वरक का प्रयोग कर के उगाया जाता है. रसायनों का इस्तेमाल खरपतवार, कीड़े व बीमारियों रोकने के लिए किया जाता है.

इन रासायनिक दवाओं का कुछ अंश फलसब्जी में बाद तक भी बना रहता है. इस के कारण इन्हें इस्तेमाल करने वालों में बीमारियों से लड़ने की ताकत कम होती जा रही है.

इस के अलावा फलों व सब्जियों के स्वाद में अंतर आ जाता है, इसलिए हमें अपने घर के आंगन या आसपास की खाली जगह में छोटीछोटी क्यारियां बना कर जैविक खादों का इस्तेमाल कर के रसायनरहित फलसब्जियों को उगाना चाहिए.

स्थान का चयन

इस के लिए स्थान चुनने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती, क्योंकि अधिकतर ये स्थान घर के पीछे या आसपास ही होते हैं. घर से मिले होने के कारण थोड़ा कम समय मिलने पर भी काम करने में सुविधा रहती है.

गृह वाटिका के लिए ऐसे स्थान का चुनाव करना चाहिए, जहां पानी पर्याप्त मात्रा में मिल सके, जैसे नलकूप या कुएं का पानी, स्नान का पानी, रसोईघर में इस्तेमाल किया गया पानी पोषण वाटिका तक पहुंच सके.

स्थान खुला हो, ताकि उस में सूरज की भरपूर रोशनी आसानी से पहुंच सके. ऐसा स्थान हो, जो जानवरों से सुरक्षित हो और उस स्थान की मिट्टी उपजाऊ हो.

पोषण वाटिका का आकार

जहां तक पोषण वाटिका के आकार का संबंध है, तो वह जमीन की उपलब्धता, परिवार के सदस्यों की संख्या और समय की उपलब्धता पर निर्भर होता है.

लगातार फसल चक्र, सघन बागबानी और अंत:फसल खेती को अपनाते हुए एक औसत परिवार, जिस में 1 औरत, 1 मर्द व 3 बच्चे यानी कुल 5 सदस्य हों, ऐसे परिवार के लिए औसतन 250 वर्गमीटर की जमीन काफी है. इसी से अधिकतम पैदावार ले कर पूरे साल अपने परिवार के लिए फलसब्जियां हासिल की जा सकती है.

बनावट

आदर्श पोषण वाटिका के लिए उत्तरी भारत विशेषकर उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में उपलब्ध 250 वर्गमीटर क्षेत्र में बहुवर्षीय पौधों को वाटिका के उस तरफ लगाना चाहिए, जिस से उन पौधों की अन्य दूसरे पौधों पर छाया न पड़ सके. साथ ही, इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि ये पौधे एकवर्षीय सब्जियों के फसल चक्र और उन के पोषक तत्त्वों की मात्रा में बाधा न डाल सकें.

पूरे क्षेत्र को 8-10 वर्गमीटर की 15 क्यारियों में विभाजित कर लें और इन बातों का ध्यान रखें :

* वाटिका के चारों तरफ बाड़ का प्रयोग करना चाहिए, जिस में 3 तरफ गरमी व वर्षा के समय कद्दूवर्गीय पौधों को चढ़ाना चाहिए और बची हुई चौथी तरफ सेम लगानी चाहिए.

* फसल चक्र व सघन फसल पद्धति को अपनाना चाहिए.

* 2 क्यारियों के बीच की मेंड़ों पर जड़ों वाली सब्जियों को उगाना चाहिए.

* रास्ते के एक तरफ टमाटर और दूसरी तरफ चौलाई या दूसरी पत्ती वाली सब्जी उगानी चाहिए.

* वाटिका के 2 कोनों पर खाद के गड्ढे होने चाहिए, जिन में से एक तरफ वर्मी कंपोस्ट यूनिट और दूसरी तरफ कंपोस्ट खाद का गड्ढा हो, जिस में घर का कूड़ाकरकट व फसल अवशेष डाल कर खाद तैयार की जा सके.

इन गड्ढों के ऊपर छाया के लिए सेम जैसी बेल चढ़ा कर छाया बनाए रखें. इस से पोषक तत्त्वों की कमी भी नहीं होगी और गड्ढे भी छिपे रहेंगे.

फसल की व्यवस्था

पोषण वाटिका में बोआई करने से पहले योजना बना लेनी चाहिए, ताकि पूरे साल फलसब्जियां मिलती रहें. योजना में निम्नलिखित बातों का उल्लेख होना चाहिए :

फलसब्जियों के नाम

इन के अलावा अन्य सब्जियों को भी जरूरत के मुताबिक उगा सकते हैं :

* आलू, लोबिया, अगेती फूलगोभी.

* मेंड़ों पर मूली, गाजर, शलजम, चुकंदर, बाकला, धनिया, पोदीना, प्याज व हरे साग वगैरह लगाने चाहिए.

* बेल वाली सब्जियां जैसे लौकी, तुरई, चप्पनकद्दू, परवल, करेला, सीताफल वगैरह को बाड़ के रूप में किनारों पर ही लगाना चाहिए.

* वाटिका में पपीता, अनार, नीबू, करौंदा, केला, अंगूर, अमरूद वगैरह के पौधों को सघन विधि से इस प्रकार किनारे की तरफ लगाएं, जिस से सब्जियों पर छाया न पड़े और पोषक तत्त्वों के लिए मुकाबला न हो.

इस फसल चक्र में कुछ यूरोपियन सब्जियां भी रखी गई हैं, जो कुछ अधिक पोषण युक्त होती हैं व कैंसर जैसी बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक कूवत रखती हैं.

पोषण वाटिका को और अधिक आकर्षक बनाने के लिए उस में कुछ सजावटी पौधे भी लगाए जा सकते हैं :

*      पछेती फूलगोभी, लोबिया, लोबिया (वर्षा)

*      पत्तागोभी, ग्वार, फ्रैंच, बीन

*      मटर, भिंडी, टिंडा

*      फूलगोभी, गांठगोभी (मध्यवर्ती), मूली, प्याज

*      बैगन के साथ पालक, अंत:फसल के रूप में खीरा

*      गाजर, भिंडी, खीरा

*      ब्रोकली, चौलाई, मूंगफली

*      स्प्राउट ब्रसेल्स, बैगन (लंबे वाले)

*      खीरा, प्याज

*      लहसुन, मिर्च, शिमला मिर्च

*      चाइनीज कैबेज, प्याज (खरीफ)

*      अश्वगंध (सालभर), अंत:फसल लहसुन

*      मटर, टमाटर, अरवी

पोषण वाटिका के लाभ

* जैविक उत्पाद (रसायनरहित) होने के कारण फलसब्जियों में काफी मात्रा में पोषक तत्त्व मौजूद रहते हैं.

* बाजार में फलसब्जियों की कीमत अधिक होती है, जिसे न खरीदने से अच्छीखासी बचत होती है.

* परिवार के लिए हमेशा ताजा फलसब्जियां मिलती रहती हैं.

* वाटिका की सब्जियां बाजार के मुकाबले अच्छी क्वालिटी वाली होती हैं.

* गृह वाटिका लगा कर महिलाएं अपनी व अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को मजबूत बना सकती हैं.

* पोषण वाटिका से प्राप्त मौसमी फल व सब्जियों को परिरक्षित कर के सालभर इस्तेमाल किया जा सकता है.

* यह बच्चों के प्रशिक्षण का भी अच्छा साधन है.

* यह मनोरंजन और व्यायाम का भी एक अच्छा साधन है.

* मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी खुद उगाई गई फलसब्जियां बाजार की फलसब्जियों से अधिक स्वादिष्ठ लगती हैं.