Fox Nut : मखाना मिथिलांचल की पहचान

Fox Nut : हजारों साल पहले मखाना चीन से चला और जापान को लांघते हुए पूर्वोत्तर भारत होते हुए बिहार के मिथिलांचल में आ कर रुक गया. मिथिलांचल में जहां पानी का भरपूर भंडार है, वहां की आबोहवा और मिट्टी भी मखाने की उम्दा खेती के लायक है. मिथिलांचल के दरभंगा, मधुबनी, सहरसा, पूर्णियां, कटिहार, सुपौल और सीतामढ़ी जिलों में मखाने की भरपूर खेती होती है. मिथिलांचल के जिलों में करीब 16 हजार तालाब हैं, जिन में मखाने का भरपूर उत्पादन होता था, पर पिछले कुछ सालों से ज्यादातर तालाबों का इस्तेमाल ही नहीं हो रहा है. मखाने की खेती ठहरे हुए पानी के तालाब में ही होती है. डेढ़ से 2 मीटर गहराई वाले तालाब मखाने की खेती के लिए काफी मुफीद होते हैं. कृषि वैज्ञानिक ब्रजेंद्र मणि कहते हैं कि मिथिलांचल में मखाने की अच्छी व कुदरती खेती होती है.

समूचे भारत में मखाने का कारोबार 800 करोड़ रुपए का है और देश भर में करीब 15 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाने की खेती होती है, जिस में से 80 फीसदी पैदावार बिहार में होती है. बिहार में भी 70 फीसदी पैदावार मिथिलांचल में होती है. तकरीबन 12.50 लाख टन मखाने की गुर्री पैदा होती है, जिस में से 45 हजार टन मखाने का लावा निकाला जाता है.

मखाने का उत्पादन करने वाले मधुबनी के किसान अजय मिश्रा बताते हैं कि मिथिलांचल में भरपूर पानी होने की वजह से यहां मखाने की उम्दा और काफी पैदावार होती है. मखाने की बोआई दिसंबर से जनवरी के बीच पूरी कर ली जाती है और अप्रैल महीने तक तालाब का ऊपरी हिस्सा पूरी तरह से मखाने के बड़े और कंटीले पत्तों से भर जाता है. मई महीने में पानी में ऊपर बैगनी रंग के फूल आने शुरू हो जाते हैं, जो 2-3 दिनों में खुद ही पानी के भीतर चले जाते हैं. जुलाई महीने के आखिर तक मखाने की फसल तैयार हो जाती है और हर पौधे में 12 से 20 फल लगते हैं. फटने के बाद मखाने तालाब की निचली सतह पर जमा हो जाते हैं.

पानी के अंदर से मखाने को निकालने का काम काफी मुश्किल और जोखिम भरा होता है. प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में करीब 15 माहिर मजदूर पानी के भीतर गोता लगा कर मखाने को निकालते हैं, जिस में कम से कम 15 दिनों का समय लगता है. पानी के नीचे सतह पर जमे मखाने के बीजों को बुहार कर जमा किया जाता है और बांस से बने गांज के जरीए उसे बाहर निकाला जाता है. बीजों को हाथों और पैरों से मसलमसल कर उस के ऊपरी छिलके को हटाया जाता है. गुर्री को भून कर एकएक दाने को हथौड़ी जैसी लकड़ी से फोड़ा जाता है. कृषि वैज्ञानिक सुरेंद्र नाथ बताते हैं कि दाने को फोड़ना बड़ी कारीगरी और सावधानी का काम है. दाने पर अच्छी चोट पड़ती है तो उस से बड़े साइज का मखाना निकलता है.

मखाने को पानी के अंदर से निकालना काफी मुश्किल भरा काम होता है. मखाने के बीज को पानी के भीतर सतह से बुहार कर निकालना हर किसी के बस की बात नहीं है. इसे माहिर मल्लाह ही कर सकते हैं, पर इस काम में ज्यादा जोखिम और कम मुनाफा होने की वजह से मल्लाह इस काम को छोड़ रहे हैं. पिछले 27 सालों से मखाने निकालने का काम कर रहे देवेश साहनी बताते हैं कि गंदे पानी में घुस कर मखाने निकालने से मजदूर कई तरह के चर्म रोगों व निमोनिया जैसी बीमारी की चपेट में आ जाते हैं. बीमार पड़ने पर किसानों या सरकार द्वारा कोई मदद नहीं दी जाती है, जिस से सैकड़ों मजदूर घुटघुट कर मर जाते हैं. मल्लाह अपने बच्चों को यह काम नहीं करने देते हैं. इस वजह से अब माहिर मल्लाह इक्केदुक्के ही बचे हैं.

पिछले 20 सालों से मखाने की खेती कर रहे असलम आलम बताते हैं कि तालाबों को भर कर मकान बनाने से मखाना उत्पादन पर बहुत ही बुरा असर पड़ रहा है. मखाने की खेती को बचाने और बढ़ाने के लिए सरकार ने दरभंगा में मखाना शोध संस्थान तो खोला पर वह सफेद हाथी बन कर रह गया है. हर फसल का अच्छे किस्म का बीज तैयार किया जाता है, पर मखाने का अच्छा बीज अभी तक तैयार नहीं किया जा सका है और न ही सरकारी और गैरसरकारी लेवल पर इस की खेती को प्रोत्साहन देने के कदम उठाए जा रहे हैं. इस के भंडारण और बाजार का कोई ठोस नेटवर्क नहीं होना भी किसानों के लिए परेशानी का सबब है. इस से होता यह है कि किसान थोक व्यापारियों या बिचौलियों को औनेपौने भाव में मखाना बेच देते हैं. कई किसानों की तो पूंजी भी नहीं निकल पाती है. ऐसे में मखाने की खेती करने वाले कई किसान इस से मुंह मोड़ने लगे हैं.

सरकार और प्राइवेट सेक्टर से भी मखाना उद्योग को किसी तरह की मदद नहीं मिल पा रही है. इस से पिछले कुछ सालों में खेती का आकार घट गया है और लगातार इस में कमी आती जा रही है. अब मखाने की खेती और पैदावार दम तोड़ रही है. ज्यादातर किसान कहते हैं कि अगर मिथिलांचल की पहचान मखाने को बचाने के लिए सरकार ने जल्द ही कोई ठोस कदम नहीं उठाया तो मखाने की खेती दम तोड़ सकती है.

Plum Trees : बेर के पेड़ों की काटछांट और हिफाजत

Plum Trees : पश्चिमी राजस्थान की आबोहवा व जमीन बेर की पैदावार के लिए बहुत अच्छी मानी जाती है, इसीलिए इस क्षेत्र में बेर की खेती टिकाऊ साबित हो रही है. गरमी व कम पानी में बेर की पैदावार अच्छी होती है. लेकिन बेर के पेड़ों में सही कटिंग व पौध संरक्षण न करने पर फलों की पैदावार व उस की क्वालिटी पर बुरा असर पड़ता है, जिस से किसानों को बहुत नुकसान सहना पड़ता है. अगर सही समय पर फल वाले पेड़ों में काटछांट व फसल की देखभाल पर ध्यान दिया जाए तो कीट व बीमारियों से होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है.

बेर के पेड़ों में काटछांट : बेर के पेड़ों में हर साल काटछांट करना बहुत जरूरी है. इस काम को हर साल मई के महीने में किया जाना चाहिए. अप्रैल में फलों की तोड़ाई के साथ ही बेर का पौधा गरमी के मौसम में ज्यादा तापमान, नमी की कमी व लू से बचे रहने के लिए सोने वाली स्थिति में चला जाता है. इस दौरान इस में काटछांट करने से पेड़ों को काटछांट का एहसास नहीं हो पाता है. जून में मानसून के साथ ही पेड़ों में नया फुटाव शुरू हो जाता है.

बेर में काटछांट करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि जो शाखाएं पिछले साल निकली थीं, उन के ऊपर का लगभग आधे से तीनचौथाई हिस्सा काट देना चाहिए. 5 से 6 सालों में जब पेड़ ज्यादा घना होने लगे तो गहरी काटछांट करनी चाहिए.

Plum Trees

काटछांट करने के 7 से 10 दिनों बाद बेर में गहरी गुड़ाई कर के जरूरत के हिसाब से खाद व उर्वरक मिला देना चाहिए. जून में बारिश नहीं होने की स्थिति में 1 बार सिंचाई कर देनी चाहिए, जिस से नई कोपलें गरमी से झुलसेंगी नहीं व अधिक संख्या में फूल व फल लगेंगे.

जानकारी की कमी की वजह से कुछ किसान बेर में सही समय पर काटछांट नहीं करते हैं, जिस से फलों के उत्पादन व क्वालिटी पर असर पड़ता है.

बेर में काटछांट नहीं करने से नई शाखाएं कम निकलती हैं, जिस से फूल व फल बहुत कम होते हैं. समय से पहले (अप्रैल महीने में) काटछांट करने से पौधों की नींद की स्थिति जल्दी खत्म हो जाती है व नई शाखाएं जल्दी निकल कर ज्यादा गरमी के कारण झुलस जाती हैं, जिस से उत्पादन पर गलत असर पड़ता है.

ज्यादा देरी से (जुलाई महीने में) काटछांट करने से पेड़ की नींद खत्म हो जाती है, जिस से काटछांट वाली जगहों से पौधे का कोशारस निकल जाता है और नई शाखाएं बहुत कम  निकलती हैं. नतीजतन फूल और फल बहुत कम होते हैं. इसीलिए ज्यादा उत्पादन प्राप्त करने के लिए 15-30 मई के बीच बेर में काटछांट कर देनी चाहिए. यह भी ध्यान रखना चाहिए कि काटछांट बहुत कम या बहुत ज्यादा नहीं हो.

Employment Opportunities :कृषि क्षेत्र में रोजगार की अपार संभावनाएं

Employment Opportunities : विश्व में सब से बड़ी अर्थव्यवस्था वाला भारत चौथा देश होने के साथ ही 140 करोड़ आबादी वाला देश भी हो चुका है. ऐसे में बेरोजगारी का रास्ता भी इस जमीन से ही निकलेगा यानी कृषि क्षेत्र और इस में अपार संभावनाएं भी हैं आवश्यकता बस नजरिया बदलने की है. खेती के साथ चलने वाले व्यवसाय को पहचानने की जरूरत है वरना इतने बड़े मैनपावर को हम कहां खपाएंगे? यह बात पंजाब के राज्यपाल गुलाब चंद कटारिया ने कही.

पंजाब के राज्यपाल गुलाब चंद कटारिया राजस्थान कृषि महाविद्यालय परिसर में नवनिर्मित परीक्षा सभागार के उद्घाटन के बाद नूतन सभागार में समारोह को संबोधित कर रहे थे. कीट विज्ञान विभाग में बने इस परीक्षा सभागार के लिए उन्होंने खुद अपने विधायक फंड से 20 लाख रुपए दिए थे.

गुलाब चंद कटारिया ने कहा कि भारत को अन्न की दृष्टि से हमारे कृषि वैज्ञानिकों ने ही आत्मनिर्भर बनाया वरना हम अमेरिका से आयातित पीएन 48 गेहूं पर आश्रित थे. यह लाल गेहूं भी कंट्रोल की दुकानों से लाना पड़ता था. हमारे कृषि वैज्ञानिकों की क्षमताएं अपार हैं. उपज को बढ़ातेबढ़ाते आज हम अपना पेट ही नहीं भर रहे हैं, बल्कि कई देशों की भूख को भी शांत कर रहे हैं.

उन्होंने आगे कहा कि उदयपुर आदिवासी बहुल इलाका है. यहां किसानों के पास छोटीछोटी जोत है. आदिवासी बारिश होने के बाद खेत में मक्का बीज डालकर मजदूरी के लिए गुजरात चला जाता है. फिर बाद में फसल पशु चट कर जाते हैं या हरे भुट्टे लोग तोड़ ले जाते हैं. छोटी जोत वाले किसानों की मानसिकता को बदलना होगा. एमपीयूएटी वैज्ञानिकों को ऐसा मौडल तैयार करना होगा जिसे अपनाकर छोटी जोत के किसान परिवार अपना भरण पोषण कर सकें. वो चाहे नीबू, आम, आंवले का बगीचा हो या फूल की खेती. खेती का पेटर्न बदलने की जरूरत है.

आज दुख इस बात का है कि हमने खेती करने वाले को हमेशा अपमानित किया है. विश्वविद्यालय अभियान चलाकर एक गांव एक किसान का चयन कर बगीचा लगाएं, ताकि आसपास के किसान भी देख कर आत्मनिर्भर बन सकें. आज कीटनाशकों के दुष्प्रभाव सामने है. हर तीसरे घर में कैंसर मरीज है. प्रयास यह हो कि आदमी की सेहत भी ठीक रहे और अच्छी आमदनी भी हो.

गुलाब चंद कटारिया ने समारोह में मौजूद कृषि विद्यार्थियों से आह्वान किया कि देश तुम्हें देख रहा है. तीसरी अर्थव्यवस्था से भारत को प्रथम पायदान पर लाने की क्षमता आप सभी में है और पूरे मनोयोग से डटे रहे तो यह उपलब्धि भी जल्दी हासिल कर लेंगे.

इस कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि नई शिक्षा नीति के आलोक में 2 साल पहले ही राजस्थान कृषि महाविद्यालय में 60 सीटें बढ़ाई गईं. वर्तमान में एक ही परीक्षा हाल होने से 192 छात्रों की तीन पारियों में परीक्षाएं लेनी पड़ती थी. अब नया परीक्षा सभागार बनने से विद्यार्थियों को बेहतर सुविधाएं मिलेगी.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि इस क्षेत्र का पहला कृषि महाविद्यालय की स्थापना 1960 में हुई. जबकि उदयपुर का कृषि महाविद्यालय 5 साल पहले यानी 1955 में ही शुरू हो चूका था.

उन्होंने आगे कहा कि इस महाविद्यालय से निकले छात्र आज देशदुनिया में ऊंचे पदों पर आसीन है. देशभर में कुल 73 कृषि विश्वविद्यालयों में एमपीयूएटी का नाम शीर्ष में गिना जाता है. अनुसंधान, नवाचारों पर यहां खूब काम हुए हैं. एमपीयूएटी को अब तक 58 पेटेंट मिल चुके हैं, इन में 2 साल 8 माह के उन के कार्यकाल में ही 41 पेटेंट हुए हैं. अनुसंधान का इंडेक्स आज 37 से बढ़कर 81 हो चुका है.

डा. अजित कुमार कर्नाटक ने कहा कि विश्वविद्यालय वैज्ञानिकों ने प्रताप संकर मक्का 6 विकसित की है, जिस की उपज 60-65 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. जबकि वर्तमान में 30-35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर ही उपज मिल रही थी. विश्वविद्यालय ने 6 कंपनियों से समझौता कर संकर मक्का 6 का ब्रीडर सीड तैयार करने को कहा है, ताकि किसानों को लाभ मिल सके. इस के अलावा सौर ऊर्जा, ग्रीन एनर्जी, खरपतवार प्रबंधन, जैविक व प्राकृतिक खेती के साथसाथ अनुसंधान, कौशल विकास में भी विश्वविद्यालय ने उल्लेखनीय कार्य किए  हैं.

शुरुआत में राजस्थान कृषि महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. आरबी दुबे ने कहा कि साल 1987 में उदयपुर कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर चला गया तो जन आंदोलन में गुलाब चंद कटारिया के प्रयासों से ही 1999 में महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की नींव रखी गई. राजस्थान कृषि महाविद्यालय देश का सब से पुराना कृषि महाविद्यालय है. अब तक यहां से 4,441 बी.एससी, 3,815 एम.एससी और 2,528 छात्रछात्राएं पी.एच.डी. उपाधि ले चुके हैं.

इस कार्यक्रम में विश्वविद्यालय प्रबंध समिति के सदस्य, डीन डायरेक्टर डा. अरविंद वर्मा, डा आरएल सोनी, डा. सुनील जोशी, डा. आरए कौशिक, डा. कविता जोशी, डा. एस रमेश बाबू सहित बड़ी संख्या में छात्र छात्राएं उपस्थित थे. इस कार्यक्रम का संचालन डा. कपिल देव आमेटा ने जबकि डा. एसएस लखावत ने धन्यवाद ज्ञापित किया.

Employment Opportunities

जल संरक्षण में उदयपुर की अनोखी मिसाल

राज्यपाल पंजाब एवं प्रशासक चंड़ीगढ़ गुलाब चंद कटारिया ने कहा कि मैं भी देशदुनिया घूमा हूं लेकिन जल संरक्षण का उदयपुर जैसा उदाहरण कहीं भी देखने को नहीं मिला. तब न तो विज्ञान ने इतनी तरक्की की थी और न ही पढ़ाईलिखाई थी. उस जमाने में महज 200 मीटर पाल बांध कर उदयपुर ने एशिया की सब से बड़ी मीठे पानी की झील बना दी जो सालभर भरी रहती है. यहां के महाराणाओं की पैनी सोच का ही परिणाम यह है कि तालाब के पास तालाब बना कर जल का संरक्षण किया गया.

उन्होंने देवास परियोजना का जिक्र करते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री मोहन लाल सुखाड़िया को याद करते हुए कहा कि 1965 में ही सुखाड़िया ने देवास परियोजना के 4 चरणों के खर्च का एक मौडल तैयार कर लिया था. पहला और दूसरा चरण पूरा होने के बाद केवल उदयपुर ऐसा शहर है, जहां अप्रैल में आकोदड़ा बांध से पानी छोड़कर झीलों को भरा जाता है. तीसरा व चौथा चरण पूरा होने पर देवास पूरे मेवाड़ को  हराभरा रखने के साथ ही बीसलपुर तक पानी पहुंचाने में सक्षम है.

उन्होंने आगे बताया कि मेवाड़ में सब से अधिक बारिश गोगुंदा में होती है, लेकिन वहां के लोग प्यासे हैं. गोगुंदा का पानी उदयपुर के लोग पी रहे हैं. ऐसे में जल संरक्षण की दिशा में हमें प्रभावी प्रयास करने होंगे.

Aromatic Oil : किसान खुशबूदार तेल बना कर ज्यादा कमाई करें

Aromatic Oil : हमारे देश में खेती तो बहुत होती है, लेकिन ज्यादातर किसान गेहूं, गन्ना, चावल, दाल, फल, सब्जी, मसाले व तिलहन आदि फसलें ही उगाते हैं. यह चलन शुरू से चला आ रहा है. लगातार प्रति हेक्टेयर लागत बढ़ने व उपज की सही कीमत न मिलने से ज्यादातर किसानों की माली हालत दिन पर दिन खराब हो रही है.

लिहाजा अमीर होने के लिए बदलते दौर में खेती से जुड़े नए व ऐसे कामधंधे करने बहुत जरूरी हैं, जो खेती से होने वाली आमदनी व गांवों में रोजगार बढ़ा सकें. उदाहरण के तौर पर किसान सुगंध वाले पौधे उगाएं या जिस इलाके में जो उपज ज्यादा होती हो, उसे देखें कि उस के किस हिस्से से सुगंधित तेल निकाला जा सकता है. उस की ट्रेनिंग लें. उपज की प्रोसेसिंग करें. कटाई बाद की वैल्यू एडीशन तकनीक सीखें. कीमती इत्र व तेल आदि बनाएं व उन्हें बाजार में बेचें तो खेती से ज्यादा कमा सकते हैं.

बड़ा दायरा

तेल व परफ्यूम यानी इत्र कई तरह के होते हैं. मच्छर भगाने को यूकेलिप्टस का तेल, दांत के दर्द में लौंग का तेल, ताकत के लिए बादाम का तेल व उल्टियां रोकने के लिए इलायची का तेल इस्तेमाल होता है. खस, केवड़ा व गुलाबजल का इस्तेमाल मुगल काल से शरबतों में हो रहा है. खानेपीने की बहुत सी चीजों में जायके के लिए वनीला जैसे एसेंस इस्तेमाल किए जाते हैं. इन के अलावा बहुत सी दवाओं व सिंगार सामग्री में भी इत्र, एसेंस व अर्क आदि का इस्तेमाल होता है.

केरल से मशहूर हुई देशी इलाज की एरोमा पद्धति अब देशविदेश में तेजी से अपनाई जा रही है. लिहाजा देशविदेश में अब भारतीय सुगंध व इत्र आदि की मांग लगातार बढ़ रही है. इस मांग को पूरा करने के लिए सगंध पौधों की खेती भी तेजी बढ़ रही है. इसे अपना कर किसान मौके का भरपूर फायदा उठा सकते हैं.

खेती के माहिरों ने सुगंधित पौधों की नई किस्में व खेती के खास व बेहतर तरीके निकाले हैं. इसलिए कम समय में अच्छी क्वालिटी की भरपूर पैदावार मिलने लगी है. सरकार व कारोबार के जानकारों ने सुगंधित पौधों, फूलों व मसालों आदि से अलग तरह के उत्पाद बनाने पर अब खास ध्यान देना शुरू किया है. आसवन से एशेंशियल आयल, ओलियोरेजिन व सत आदि निकालने की मशीनें अपने देश में ही मिलने लगी हैं.

सहूलियत मौजूद है

सुगंधित पौधों में किसान मैंथा मिंट, जावा घास, नीबू घास, पामा रोजा, खस, तुलसी, पचौली, कैमोमिल, सिट्रोनिला व जिरेनियम आदि की खेती व उपज की प्रोसेसिंग आसानी से कर सकते हैं. यह बात अलग है कि बहुत से किसान सुगंधित पौधों की अहमियत नहीं समझते. इसलिए किसानों को जागरूक करने व खुशबू उद्योग को बढ़ावा देने के लिए केंद्रीय औषधि एवं सगंध पौधा संस्थान सीमैप, लखनऊ में चल रहा है. सीमैप के 4 में से 2 सेंटर उत्तराखंड के पुराड़ा बागेशवर व पंतनगर में हैं. 1 सेंटर बेंगलूरू व 1 हैदराबाद में भी चल रहा है.

मसलन वनीला की खुशबू का इस्तेमाल आइसक्रीम वगैरह में जायके के लिए किया जाता है, लेकिन वनीला को भारत सरकार के मसाला बोर्ड ने हमारे देश के 60 मसालों की सूची में शामिल कर रखा है और मसालों से तेल निकालने की जानकारी सचिव, भारतीय मसाला बोर्ड, पल्लारीवट्टम, एनएच बाईपास, कोच्चि, केरल से हासिल की जा सकती है.

गुलाबजल बनाने का सुधरा उपकरण नेशनल बाटनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट, एनबीआरआई, सिकंदरबाग, लखनऊ के वैज्ञानिकों ने विकसित किया है. लिहाजा उस की जानकारी एनबीआरआई से मिल सकती है. चंदन का तेल महंगा होता है, लेकिन चंदन की लकड़ी जंगल के महकमे के तहत आती है. चंदन के पेड़ों से जुड़ी जानकारी भारतीय वन अनुसंधान संस्थान, एफआरआई, देहरादून से हासिल की जा सकती है.

सरकारी सेंटर

भारत सरकार के लघु उद्योग मंत्रालय ने साल 1991 में एक खास सेंटर सुगंध एवं सुरस विकास केंद्र, एफएफडीसी खोला था. हालांकि यह हमारे देश में सब से बड़ा सेंटर है, लेकिन सच यह है कि प्रचारप्रसार की भारी कमी से बीते 25 सालों में ज्यादातर किसान कन्नौज, उत्तर प्रदेश के मकरंदनगर इलाके में चल रहे एफएफडीसी से वाकिफ नहीं हैं. लिहाजा किसानों को जागरूक होने की जरूरत है, ताकि सेंटर से फायदा उठाया जा सके.

एफएफडीसी की एक इकाई फैजलगंज, कानपुर में व दूसरी इकाई केवड़े को बढ़ावा देने के लिए जिला गंजम, उड़ीसा के बरहामपुर में चल रही है. यह केंद्र किसानों को सुगंधित पौधों के बीज, रोपण सामग्री व रायमशविरा आदि मुहैया कराता है. साथ ही सगंध खेती व प्रोसेसिंग इकाइयों को बढ़ावा देने के लिए प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाने, इकाई लगाने व चलाने आदि में भी पूरी मदद करता है. इस केंद्र का मकसद किसानों व कारोबारियों को नई जानकारी दे कर नई तकनीक सिखाना व उस की बिक्री आदि से जुड़ी सभी जरूरी सहूलियतें देना है. लिहाजा किसान इस के माहिरों से तालमेल बना कर भरपूर फायदा उठा सकते हैं.

उत्तर प्रदेश के कन्नौज इलाके में खुशबूदार तेल व इत्र वगैरह उत्पाद बनाने की बहुत सी छोटीबड़ी इकाइयां चल रही हैं. सारे कारखाने कारोबारियों के हैं. किसान अगर अपनी इकाई लगाएं तो उन्हें कच्चा माल बाजार से नहीं खरीदना पड़ेगा. लिहाजा इच्छुक किसान अपनी यूनिट लगाने से पहले वहां काम सीख कर के भी तजरबा हासिल कर सकते हैं.

ऐसा करें किसान

सगंध पौधों की खेती करने, उपज की कीमत बढ़ाने व उस की प्रोसेसिंग करने वगैरह के इच्छुक किसान एफएफडीसी से ट्रेनिंग ले कर अगरबत्ती, धूपबत्ती बनाने व खुशबूदार उत्पादों की बिक्री व उन का निर्यात वगैरह करने का काम आसानी से सीख सकते हैं. कुदरती सौगात से सुगंध व सुरस बनाने के लिए इस केंद्र पर बेहतरीन लैब व सारा साजोसामान है. इसलिए यह केंद्र खुशबू उद्योग व किसानों बीच की कड़ी साबित हुआ है. इस केंद्र पर कच्चे व तैयार माल की जांचपरख व आसवन वगैरह होता है.

खास सगंध पौधे

Aromatic Oil

लेमनग्रास : करीब 120 दिनों में इस की पहली कटिंग होती है. तकरीबन 50-60 हजार रुपए लागत से प्रति हेक्टेयर सालाना 250 क्विंटल तक की पैदावार मिल जाती है, जिस से 150 किलोग्राम तक तेल मिल जाता है. दूसरे व तीसरे साल तेल ज्यादा मिलता है. आसवन विधि से तेल निकाला जाता है और तेल का भाव बाजार दरों के हिसाब से तय होता है, लेकिन फिर भी इस का औसत भाव लगभग 1000 रुपए प्रति किलोग्राम रहता है. नतीजतन पैसा अच्छा मिल जाता है.

पामारोजा : 120 दिनों में फूल आने पर पहली कटिंग के बाद साल में इस की 3-4 कटाई हो जाती हैं. प्रति हेक्टेयर सालाना 350 क्विंटल तक पैदावार मिल जाती है. इस की पत्तियों व तनों से हर साल 125 किलोग्राम तक तेल मिल जाता है. आसवन विधि से तेल निकाला जाता है और तेल का भाव लगभग डेढ़ हजार रुपए प्रति किलोग्राम के आसपास रहता है.

खस : करीब 18 महीने में जड़ें पकने पर इस की मीठी खुशबू आने लगती है. सालाना प्रति हेक्टेयर 25-30 क्विंटल तक जड़ें मिल जाती हैं, जिन से 20 किलोग्राम तक तेल मिल जाता है. आसवन कर के खस की जड़ों से तेल निकाला जाता है. तेल का औसत भाव करीब 15 से 20 हजार रुपए प्रति किलोग्राम रहता है.

सिट्रोनिला : बोआई के बाद यह 4-5 सालों तक चलती है. पहले साल में प्रति हेक्टेयर सालाना 125 क्विंटल तक की पैदावार मिल जाती है, जिस से 125 किलोग्राम तक तेल मिल जाता है. दूसरे व तीसरे साल 175 किलोग्राम तक भी तेल मिल जाता है. आसवन विधि से ही इस का भी तेल निकाला जाता है. तेल का भाव औसतन 1000 रुपए प्रति किलोग्राम रहता है.

मेंथा : करीब 120 दिनों में इस की पहली व उस के 80 दिनों बाद दूसरी कटिंग होती है. किस्म के मुताबिक प्रति हेक्टेयर हासिल मेंथा की सालाना पैदावार से 200 किलोग्राम तक मेंथा आयल मिल जाता है. मेंथा तेल का भाव बाजार में मांग व आपूर्ति के हिसाब से घटताबढ़ता रहता है, लेकिन औसत भाव 750 रुपए से 1500 रुपए प्रति किलोग्राम तक रहता है. उत्तर प्रदेश के बारबंकी, संभल, चंदौसी, मुरादाबाद व बरेली वगैरह जिलों में मेंथा की खेती बहुतायत से होती है और किसानों ने मेंथा आयल निकालने की यूनिट खेतों में ही लगा रखी है.

तुलसी : इस की फसल से प्रति हेक्टेयर करीब 60 टन तक उपज मिल जाती है. इस की ताजी पत्तियों से लगभग 90 किलोग्राम तक तेल निकल आता है, जो 200 रुपए प्रति किलोग्राम तक में आसानी से बिक जाता है. तुलसी का तेल निकालने का प्लांट कूवत के मुताबिक 1 से 4 लाख रुपए तक में लग जाता है. लिहाजा किसान मिल कर भी अपनी इकाई लगा सकते हैं.

नई यूनिट लगाने में सब से पहले मशीनों की जरूरत पड़ती है. एफएफडीसी मशीनें डिजायन करने से ले कर उन्हें लगाने तक का काम करता है. लिहाजा किसान चाहें तो वे खेती से जुड़े इस सहायक रोजगार में उतर कर कमाई कर सकते हैं.

सुगंधित पौधों की खेती और सुगंध व सुरस निकालने की तकनीक व ट्रेनिंग वगैरह के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए किसान इस पते पर संपर्क कर सकते हैं:

प्रधान निदेशक

सुगंध व सुरस विकास केंद्र, एफएफडीसी, मकरंद नगर, कन्नौज 209726, उत्तर प्रदेश. फोन-05694-234465, 234791

मशीनों के लिए संपर्क करें :

मै. बास नेचुरल फ्लावर प्रा.लि.

इंजीनियरिंग डिवीजन, एशियन हाउस, एनएच बाईपास, पुलिचोड़े, एलूवा, कोचिन, केरल

मो. : 9495046114, 9287245999.

Medicinal Plants : किसान औषधीय पौधे लगा कर ज्यादा कमाएं

Medicinal Plants : फसलों के साथ लगाए हुए पेड़ बहुत फायदेमंद होते हैं, क्योंकि पेड़ों के बड़े हो जाने पर उन से मोटी रकम मिलती है. इसलिए बहुत से किसान खेती से ज्यादा कमाई करने के लिए अकसर अपने खेतों की मेंड़ों पर शीशम, साल, सागौन या पापुलर आदि के पेड़ लगाते हैं.

बदलते दौर में किसान खेती के साथ औषधीय पौधे लगा कर अच्छी कमाई कर सकते हैं. यह बात अलग है कि ज्यादातर किसान इन के बारे में नहीं जानते. औषधीय पौधों के बीज, पौध, रोपण सामग्री व तकनीकी जानकारी भी हर किसी को आसानी से नहीं मिलती. इसलिए ज्यादातर किसान औषधीय पौधे नहीं लगाते.

माहिरों की खोजबीन के मुताबिक पहचाने गए औषधीय पौधों का कुनबा बहुत बड़ा है. इस पर 3 नई किताबें भारत सरकार की चिकित्सा अनुंसधान परिषद ने पिछले दिनों छापी हैं. इन में शामिल औषधीय पौधों व किस्मों की गिनती 1100 से ऊपर है, लेकिन फिलहाल इन में से सिर्फ 35 औषधीय पौधों की क्वालिटी के लिए ही मानक तयशुदा हैं.

ऐसा करें किसान

अशोक, अश्वगंधा, अर्जुन, अतीस, बायबिड़ंग, बेल, ब्राह्मी, चंदन, चिरायता, गिलोय, गूगल, इसबगोल, जटा मांसी, कालमेघ, कुटकी, शतावर, शंखपुष्पी, सफेदमूसली, दालचीनी, हरड़, बहेड़ा, आंवला, सौंफ व सनाय वगैरह की मांग आमतौर पर ज्यादा रहती है. औषधीय पौधों से मिली कई चीजें हमारे देश से दूसरे मुल्कों को भेजी जाती हैं, लेकिन इस में ज्यादातर  हिस्सा रसायनों के बगैर उगाए गए औषधीय पौधों से मिली आरगैनिक सामग्री का रहता है.

मेरठ के किसान महेंद्र सिंह ने बताया कि ज्यादातर किसान अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए पैसा आने के इंताजर में रहते हैं, जबकि औषधीय पौधों से पैसा काफी देर से मिलता है, लेकिन तुलसी की फसल सब से जल्दी सिर्फ 3 महीने में पक कर तैयार हो जाती है. लिहाजा किसान हिचक छोड़ कर इस काम की शुरुआत कर सकते हैं.

इस के अलावा अश्वगंधा, आंवला, ब्राह्मी, चिरायता, गुडुची, कालमेघ, मकोय, पाषणभेद, सनाय, मेहंदी व बच आदि 1 साल में तैयार हो जाते हैं. लिहाजा किसान अपनी पसंद व कूवत के मुताबिक पेड़ चुन सकते हैं. देसी, यूनानी व होम्योपैथिक वगैरह दवाएं औषधीय पौधों से मिली चीजों से बनती हैं. लिहाजा बहुत सी दवाओं के लिए कच्चे माल की भारी मांग रहती है. नतीजतन औषधीय पौधे बहुत तेजी के साथ घट रहे हैं, जबकि औषधीय पौधों की खेती उतनी तेजी से नहीं बढ़ रही, जितनी कि जरूरत है. इस के मद्देनजर सरकार औषधीय पौधे उगाने को बढ़ावा दे रही है, ताकि देसी दवाएं बनाने वाली कंपनियों को उम्दा क्वालिटी का कच्चा माल व किसानों, बागबानों को उन की मेहनत का वाजिब मुनाफा मिल सके.

औषधीय पौधों को बचाने व बढ़ाने के लिए साल 2000 से केंद्र सरकार का स्वास्थ्य महकमा राष्ट्रीय औषध पौध बोर्ड (एनएमपीबी) के जरीए कई स्कीमें चला रहा है.

अपने देश में औषधीय पौधों पर चल रही सरकारी स्कीमों की कमी नहीं है. मसलन राज्य बागबानी मिशन के जरीए चल रही केंद्र पुरोनिधानित स्कीम में भी औषधीय पौधे उगाने को बढ़ावा दिया जाता है, लेकिन ज्यादातर किसान इतना भी नहीं जानते कि दूसरी फसलों के मुकाबले औषधीय पौधों की खेती ज्यादा फायदेमंद है. यदि सरकारें ध्यान दें तो औषधीय पौधों से किसानों की माली हालत जल्दी व ज्यादा सुधर सकती है.

इस के लिए जरूरी है कि किसान औषधीय पौधे उगाने से ले कर उन के तैयार होने तक की पूरी तकनीक ठीक से जानते हों. हालांकि यह काम कोई मुश्किल या नामुमकिन नहीं है. लखनऊ की सरकारी संस्था सीमैप से ट्रेनिंग ले कर किसान औषधीय पौधे उगाना सीख सकते हैं व उन से हासिल सामग्री बेच कर अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं.

चलन पुराना

देसी, यूनानी, सिद्ध व होम्योपैथिक दवाएं बनाने में जड़ीबूटियों का इस्तेमाल सदियों से किया जाता रहा है. औषधीय पौधों से हासिल फल, फूल, बीज, छाल, तना, पत्ती व जड़ के हिस्से जड़ीबूटियां हैं. हमारे देश में 3 हजार से ज्यादा छोटीबड़ी कंपनियां देसी दवाएं बनाती हैं. अगर जानकारी हो तो औषधीय पौधों के उत्पाद बिकने में दिक्कत नहीं होती. फिर भी बेहतर होगा कि पहले ही किसी दवा कंपनी या खरीदार से बात कर ली जाए. हरिद्वार की पतंजलि फार्मेसी रोज सैकड़ों टन ग्वारपाठा व आंवला वगैरह कई चीजें खरीदती है.

दिल्ली जैसे बड़े शहरों में भी औषधीय उत्पादों के बाजार हैं. यह बात अलग है कि आम किसानों को यह जानकारी नहीं है कि औषधीय पौधों के उत्पाद कहां, कब, कैसे व कितनी कीमत में बिकते हैं. लिहाजा किसान पूरी जानकारी के बाद ही औषधीय पौधे लगाएं, ताकि उन्हें बाद में उपज बेचने के लिए परेशान न होना पड़े. इस के लिए जागरूकता जरूरी है.

उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में सहकारिता महकमे के रजिस्ट्रारों ने किसानों की मदद व सहूलियत के लिए जड़ीबूटी संग्रह व बिक्री के सहकारी संगठन भी बना रखे हैं. इस के अलावा औषधीय एवं सगंध पौधा उत्पाद संघ नाम की संस्था बी 83, अशोकपुरा, हजपुरा डेली रोड, पटना, बिहार में भी चल रही है. साथ ही देसी दवा बनाने में काम आने वाले कच्चे माल के अनेक खरीदारों के पते इंटरनेट पर भी मौजूद हैं.

Medicinal Plants

खोजबीन

दिल्ली में भारत सरकार की एक मशहूर संस्था है वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद, जिसे सीएसआईआर भी कहा जाता है. इस संस्था के तहत उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर में केंद्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान काम कर रहा है, जिसे सीमैप भी कहते हैं.

इस संस्थान ने औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देने का काफी काम किया है.

सीमैप ने औषधीय पौधों की उम्दा किस्में मुहैया कराने, प्रसंस्करण करने, किफायती उपकरण निकालने, ट्रेनिंग व सलाहमशविरा देने से ले कर बाजार उपलब्ध कराने तक हर पहलू पर काम किया है. लिहाजा किसान इस संस्था से मदद ले सकते हैं. सीमैप औषधीय पौधों की जानकारी देने के लिए किसान मेले एवं प्रदर्शनी लगाती है, ताकि किसान सीधे वैज्ञानिकों से मिल कर सवाल पूछ सकें.

इस के अलावा सीमैप संस्था फार्म बुलेटिन, प्रोसेसिंग पर पुस्तिका व बाजार के लिए मार्केटिंग डायरेक्टरी वगैरह मुहैया कराती है. किसान डायरेक्टरी में खरीदारों के पते देख सकते हैं. इस के अलावा किसानों की सहूलियत के लिए सीमैप की बुकलेट ओस ज्ञान्या में भी 70 खरीदारों के पते छापे गए हैं.

उत्तर प्रदेश के जंगल महकमे की नर्सरी में भी लगभग 85 किस्मों के औषधीय पौधे किसानों को वाजिब कीमत पर मुहैया कराए जाते हैं. किसान अकेले या मिल कर स्वयं सहायता समूह, सहकारी समिति या उत्पादक कंपनी आदि बना कर औषधीय खेती व उस की उपज बेचने का काम कर सकते हैं. जरूरत पहल करने की है.

औषधीय पौधों की किस्म, रोपण तकनीक, औजार, मशीनों व प्रोसेसिंग आदि के बारे में अधिक जानकारी के लिए किसान व उद्यमी सीमैप के नीचे दिए पते पर संपर्क कर सकते हैं:

निदेशक, केंद्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान, सीमैप, कुकरैल, लखनऊ : 226015, फोन 0522-2359623.

सरकारी स्कीमों में छूट, सहूलियत व माली इमदाद आदि के लिए निम्न पते पर संपर्क कर सकते हैं:

मुख्य कार्यकारी, राष्ट्रीय औषध पौधा बोर्ड, आयूष भवन, तीसरा तल, बी ब्लाक, जीपीओ कांप्लैक्स, आईएनए, नई दिल्ली 110023.

खास औषधीय पौधे

अश्वगंधा, गिलोय, रुद्राक्ष, काला सिरस, अशोक, भूमि आंवला, चिरायता, पंगारा, हारसिंगार, मुलैहटी, गूलर, वन तुलसी, सफेद तुलसी, रामा तुलसी, सदाबहार, तुन, पीला वासा, पोई, कचनार, पत्थर चूर, पलाश, कट करंज, प्रियंगू, मद, भांग, देवकिली, अजवायन, कसामर्द, सफेद मूसली, काली मूसली, कालमेघ, इसबगोल, घृतकुमारी, सनाय, बच, भृंगराज, आंवला, तगर, जंगली अरंड, सेहुंड, दूधी, कैंथा, बरगद, बबूल, बेच, चंदन, सप्तपर्णी, अंबाहलदी, पीली हलदी, हरी चाय, तेजपात, लघुपाठा, हाड़जोड़, नीबू, भाट, अपराजिता, कुंदरू, लसोड़ा, वरुन, सुदर्शन, जमालघोटा, पीपल, गुड़मार, गुड़हल, रतनजोत, आम, नीम, जामुन, इमली, बकैन, मौलश्री, जल ब्राह्मी, शहतूत, लाल कनेर, सर्पगंधा, सेमल, सागौन, सतावर, कदंब, ईश्वरमूल, दमनक, कटहल, काली मकोय, मोथा, शीशम, काला धतूरा, कनक धतूरा, गेंठी, जापानी पोदीना, वाराहीकंद, अनंतमूल, कुचैला, नागेश्वर, गोखरू व कैंच.

कुछ बड़े खरीदारों के पते

* मै. पतंजलि फार्मेसी, हरिद्वार, उत्तराखंड.

*  मै. डाबर इंडिया लि., 8/3 आसफअली रोड, नई दिल्ली-110001. फोन : 011-23253488.

* मै. बैद्यनाथ आर्युवेद भवन, प्रा. लि. लादीनगर, पटना. फोन : 0612-2353143.

*  मै. हिमालय ड्रग कंपनी, मकाली, बेंगलूरू, फोन : 080-23714444.

*  मै. झंडू इमामी लि., तीसरा तल, गोल्डन चैंबर, नया लिंक रोड, अंधेरी पश्चिम, मुंबई,

फोन : 022-26709000.

* मै. मेहता फार्मास्यूटिकल, छीहरता, जीटी रोड, अमृतसर, पंजाब.

Mango Festival : पटना में आम महोत्सव : खुशबू और मिठास की बहार

Mango Festival : यह कोई नई बात नहीं है कि भारतीय फलों में आम की एक खास पहचान है. वसंत ऋतु में इस के पेड़ों में मंजरी आने के साथ ही इस की मदमाती खुशबू फिजा में फैलने लगती है. ज्योंज्यों गरमी बढ़ती है, आम के टिकोरे निकलने लगते हैं. इसी आम की सैकड़ों ही नहीं, हजारों वैराइटी हैं.

बिहार सरकार ने राजधानी पटना के भव्य सभागार ज्ञान भवन में 2 दिन के आम महोत्सव का आयोजन 28-29 जून, 2025 को किया, जिस में बिहार के विभिन्न जिलों के आम उत्पादक किसान सम्मिलित हुए.

उन्हीं में से एक भागलपुर के राकेश कुमार भी अपने खास जर्दालु आम की खेप के साथ आए थे. उन्होंने जानकारी दी कि जर्दालु आम को साल 2018 में जीआई टैग मिल चुका है, जिस से वे जोश में हैं. इस साल उन्होंने 5 टन आम खास पैकेजिंग कर दुबई भिजवाया है.

भागलपुर के गांव पीरपैंती के राकेश कुमार के खुद के 3 एकड़ के आम बागान में तकरीबन 300 आम के पेड़ हैं. इस के अलावा उन्होंने तकरीबन 300 आम बागान के मालिकों का सहकारिता समूह बना लिया है¸ जिस से उन्हें अपनी योजना को पूरा करने में कामयाबी मिल रही है. सरकार ने आम के निर्यात पर बढ़ावा दे कर उन का काम आसान किया है.

राकेश कुमार की तरह उत्तर बिहार के सैकड़ों आम बागान के किसानों ने आम महोत्सव में अपने स्टाल लगा रखे थे. वहां आम से बने विविध उत्पादकों की भी प्रदर्शनी लगी थी. यह भी व्यवस्था थी कि इच्छुक व्यक्ति उचित मूल्य पर वे उत्पाद खरीद सके. इस के अलावा इस महोत्सव की एक खासीयत यह भी थी कि विविध वैराइटी के आमों के पौधों की भी खरीदबिक्री की व्यवस्था थी.

सीतामढ़ी के जयप्रकाश सिंह पिछले 25 सालों से इस बिजनैस को कर रहे हैं. वे 22 एकड़ में विभिन्न किस्मों के आम उपजाते हैं. उन्होंने जानकारी दी कि वे हर साल तकरीबन 35 टन आम बेच लेते हैं.

इसी तरह भागलपुर के किसान आदित्य मिश्रा, नीरज, शिवम ने जानकारी दी कि वे लोग साल 2012 से आम की बागबानी में लगे हुए हैं और दूसरे देशों जैसे कनाडा, बेलारूस आदि में आम का निर्यात करते हैं. उन का आम कनाडा में 1,300 रुपए प्रति किलो, तो बेलारूस में 2,000 रुपए प्रति किलो तक बिकता है.

इस समारोह का मुख्य थीम था ‘पुराने बागों का जीर्णोद्धार, भावी पीढ़ी को उपहार’. इस आयोजन का मुख्य उद्देश्य राज्य की पारंपरिक आम के किस्मों और बागबानी की संस्कृति को पुनर्जीवित करना था. तकरीबन 5,000 किस्मों के आमों से सजे स्टालों में मालदा, लंगड़ा, अल्फांसो, दशहरी, चौसा, फजली, सुकुल, सिंदूरी, महमूद बहार, आम्रपाली से ले कर बिजू तक आम की अनेक किस्में मौजूद थीं. एक रोचक बात यह थी कि वहां 100 रुपए प्रति किलो से ले कर 2 लाख रुपए प्रति किलो तक के आम रखे गए थे.

इस समारोह के पहले दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उद्घाटन किया था. महोत्सव में मौजूद हजारों किस्म के आमों को देख कर उन्होंने इस की सराहना की और इसे और आगे ले जाने की जरूरत पर बल दिया. इस अवसर पर उन के साथ उपमुख्यमंत्री विजय कुमार सिन्हा के अलावा उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी, कृषि मंत्री मंगल पांडेय और कृषि सचिव संजय अग्रवाल भी वहां मौजूद थे.

Mango Festival

बिहार के उपमुख्यमंत्री और कृषि मंत्री विजय कुमार सिन्हा ने समारोह के समापन भाषण में जानकारी दी कि सरकार आम उत्पादकों को प्रोत्साहित करने के लिए पैकेजिंग अनुदान देगी. उद्यानिक फार्मों में आकर्षक वाटिकाओं का निर्माण कर बच्चों को प्रकृति से जोड़ने और पर्यावरण के प्रति जागरूक किया जाएगा.

इस अवसर पर बच्चों के लिए ‘आम खाओ प्रतियोगिता’ और ‘चित्रकला प्रतियोगिता’ का भी आयोजन किया गया था. प्रतियोगिता में चयनित 31 विजेताओं को उपमुख्यमंत्री द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित किया गया.

इस समारोह में कृषि मंत्रालय के प्रधान सचिव पंकज कुमार ने कहा कि आम सिर्फ एक फल नहीं, हमारी सांस्कृतिक और पारंपरिक धरोहर है और किसान आम के बागानों को अपनी धरोहर की तरह सींचें और संरक्षित करें.

इस अवसर पर उद्यान निदेशक अभिषेक कुमार, अपर निदेशक (शष्य) धनंजयपति त्रिपाठी, संयुक्त निदेशक (उद्यान) राधा रमण, रोहित रंजन और ‘किसान चाची’ के नाम से मशहूर राजकुमारी देवी ने भी अपने विचार सब के सामने रखे.

इन लोगों के माध्यम से जानकारी मिली कि बिहार में आम के उत्पादन में पिछले 20 सालों में 82 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. आज 1.65 लाख हेक्टेयर बागों में 16 लाख टन आम का उत्पादन हो रहा है. सरकार किसानों को बेहतरीन बीज, पौधे, खाद मुहैया करा रही है. इस के साथ ही पौधों और वृक्षों के रखरखाव से संबंधित विभिन्न जानकारियां दे रही है.

Agricultural Machines : कृषि मशीनों का करें इस्तेमाल

Agricultural Machine: गाजर बिजाई के लिए मजदूरों की कमी से परेशान किसानों के लिए खुशखबरी है कि अब उन्हें गाजरमूली और दूसरी सब्जियों की बिजाई के लिए अधिक समय और पैसा नहीं खर्च करना पड़ेगा. इस के लिए तमाम कृषि यंत्र बाजार में मौजूद हैं. हरियाणा के अमन विश्वकर्मा इंजीनियरिंग वर्क्स के मालिक महावीर प्रसाद जांगड़ा ने खेती में इस्तेमाल की जाने वाली तमाम मशीनें बनाई हैं, जिन में गाजर बोने के लिए गाजर बिजाई मशीन भी शामिल है.

बैड प्लांटर व मल्टीक्रौप बिजाई मशीन

यह मशीन बोआई के साथसाथ मेंड़ भी बनाती है. इस मशीन से गाजर के अलावा मूली, पालक, धनिया, हरा प्याज, मूंग, अरहर, जीरा, गेहूं, लोबिया, भिंडी, मटर, मक्का, चना, कपास, टिंडा, तुरई, फ्रांसबीन, सोयाबीन, टमाटर, फूलगोभी, पत्तागोभी, सरसों, राई और शलगम जैसी तमाम फसलें बोई जा सकती हैं.

मशीन से करें गाजर की धुलाई

खेत से निकालने के बाद गाजरों की धुलाई का काम भी काफी मशक्कत वाला होता है, जिस के लिए मजदूरों के साथसाथ ज्यादा पानी की जरूरत भी होती है. जिन किसानों के खेत किसी नहर आदि के किनारे होते हैं, उन्हें गाजर की धुलाई में आसानी हो जाती है. इस के लिए वे लोग नहर के किनारे मोटर पंप के जरीए पानी उठा कर गाजरों की धुलाई कर लेते हैं. लेकिन सभी को यह फायदा नहीं मिल पाता. महावीर जांगड़ा ने जड़ वाली सब्जियों की धुलाई करने के लिए भी मशीन बनाई है. इस धुलाई मशीन से गाजर, अदरक व हलदी जैसी फसलों की धुलाई आसानी से की जाती है. इस मशीन से कम पानी में ज्यादा गाजरों की धुलाई की जा सकती है. इस मशीन को ट्रैक्टर से जोड़ कर आसानी से इधरउधर ले जाया जा सकता है.

लोगों में इंजीनियर के नाम से चर्चित महावीर प्रसाद जांगड़ा को राह ग्रुप बेस्ट इंजीनियर का अवार्ड मिल चुका है. कृषि विभाग, हरियाणा सरकार व दूसरी सामाजिक संस्थाओं की ओर से वे कई बार सम्मानित हो चुके हैं.

इस मशीन के बारे में यदि आप ज्यादा जानना चाहते हैं, तो अमन विश्वकर्मा इंजीनियरिंग वर्क्स के फोन नंबरों 09896822103, 09813048612, 01693-248612 व 09813900312 पर बात कर सकते हैं.

Dairy Industry : डेरी खोल कर बने युवाओं के रोल मौडल

Dairy Industry : उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले की हरैया तहसील का परशुरामपुर ब्लाक खेती के लिहाज से धनी इलाका माना जाता है. इसी ब्लाक के परशुरामपुरलकड़मंडी मार्ग पर पड़ने वाले गांव वेदीपुर के युवा किसान ध्रुवनारायन ने ग्रेजुएशन की पढ़ाई के बाद नौकरी न करने की ठानी और वे अपनी पारिवारिक खेतीबारी को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी ले कर आगे बढ़े.

उन्होंने खेतों में काम करते हुए पाया कि फसलों में उत्पादन बढ़ाने के लिए अंधाधुंध रासायनिक खादों व कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिस की वजह से पैदावार सही नहीं मिल पा रही है.

कृषि के उत्पादन को बढ़ाने के लिए उन्होंने अपने खेतों में जैविक खादों व जैविक कीटनाशकों का इस्तेमाल करने की ठानी. इस के लिए उन्हें जरूरत थी पशुओं के गोबर की. लेकिन उन के पास केवल 2 गायें और 1 भैंस होने की वजह से यह मंशा पूरी होती नहीं दिख रही थी. फिर उन्होंने सोचा कि क्यों न खेती के साथसाथ डेरी का कारोबार भी किया जाए. इस से न केवल जैविक खेती के लिए गोबर की व्यवस्था होगी, बल्कि दूध से आमदनी भी बढ़ेगी.

सब से पहले उन्होंने 5 गायों से डेरी उद्योग शुरू करने की ठानी. उन्होंने पशुपालन विभाग व उस से जुड़े दूसरे विभागों से जानकारी इकट्ठा करने के बाद डेरी के लिए जरूरी टीनशेड, पशुशाला व रखरखाव का इंतजाम किया. फिर उन्होंने 5 गायों से अपनी डेरी की शुरुआत की.

शुरू में हर गाय से करीब 14 से 16 लीटर दूध मिल रहा था. इस तरह उन्होंने रोजाना करीब 80 लीटर दूध का उत्पादन करना शुरू किया. लेकिन जितनी लागत आती थी, उतना मूल्य नहीं मिल पाता था. इसलिए उन्होंने अपनी डेरी के दूध से डेरी उत्पाद बनाने की सोची. उन की डेरी से मिलने वाला दूध डेरी कारोबार शुरू करने के लिए काफी नहीं था. इस के लिए उन्हें और अधिक दूध की जरूरत थी, जिस से वे डेरी उत्पाद बनाने की शुरुआत कर सकें. उन्होंने सरकार द्वारा चलाए जा रहे डेरी उद्योगों में जा कर वहां की मशीनों और उत्पादन तकनीकी की जानकारी ली और फिर घर वापस आने के बाद आसपास के दूसरे दूध उत्पादकों से दूध की खरीदारी कर बड़े स्तर पर डेरी उद्योग की शुरुआत करने का मन बनाया.

ध्रुवनारायण ने गांवगांव जा कर दूध उत्पादकों से मुलाकात की. उन्होंने दूध उत्पादकों को यकीन दिलाया कि वे सरकार द्वारा तय दूध की कीमत से ज्यादा पर उन के दूध को खरीदेंगे, जिस से उन्हें अच्छा मुनाफा मिलेगा. इस के बाद जब लोगों ने उन्हें भरोसा दिलाया कि उन के द्वारा शुरू किए जा रहे डेरी कारोबार के लिए बड़ी मात्रा में दूध उपलब्ध हो जाएगा, तो उन्होंने 5 लाख रुपए की लागत से चिलिंग प्लांट व प्रेस मशीन की खरीदारी की और डेरी उत्पादों को बनाने का काम शुरू किया.

शुद्धता बनी पहचान : शुरू में ध्रुवनारायन ने अपने डेरी उद्योग में पनीर, दही, खोआ, पेड़ा आदि बनाने की शुरुआत की और वे खुद अपनी बनाई हुई चीजों को मार्केट में बेचते थे. धीरेधीरे उन के द्वारा बनाए गए डेरी उत्पादों की शुद्धता की वजह से दूरदराज के ग्राहक उन के यहां से खरीदारी करने लगे, जिस की वजह से लोगों को उन के दूध का अच्छा दाम भी मिलना शुरू हो गया.

इस समय ध्रुवनारायन के डेरी उत्पाद भारतीय खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकरण द्वारा प्रमाणित और लाइसेंसशुदा हैं, जिस की वजह से उन के डेरी उत्पादों की मांग पूर्वी उत्तर प्रदेश के फैजाबाद, गोंडा, अंबेडकरनगर, सिद्धार्थनगर, बस्ती, संतकबीरनगर सहित तमाम जिलों में है.

बेरोजगारों को रोजगार से जोड़ने में सफलता :  उन के यहां डेरी उत्पादों को तैयार करने के लिए आईटीआई डिगरी धारक तकनीकी रूप से जानकार कर्मचारी की देखरेख में कई लोग इस व्यवसाय से जुड़े हैं, जो उत्पादों को तैयार करने, पैकेजिंग व गुणवत्ता निर्धारण की जिम्मेदारी निभाते हैं, जिस से उन्हें अच्छी आमदनी हो रही है.

जैविक खादों की बिक्री से दोगुना फायदा : अपनी खेती को जैविक तरीके से करने के लिए शुरू किए गए इस डेरी कारोबार से ध्रुवनारायन इस मुकाम तक पहुंचेंगे, उन्होंने कभी सोचा भी न था.

उन के द्वारा बनाई गई जैविक खाद डी कंपोस्ट को गोबर, राख, लकड़ी का बुरादा, सुपर फास्फेट व माइक्रोबायो कंट्रोल एजेंट मिला कर बनाया जाता है. इस के प्रयोग से फसल की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी हुई है, साथ ही मिट्टी की उर्वरा शक्ति में भी इजाफा हुआ है. इस के अलावा उन के यहां फसलों को कीटों व बीमारियों से बचाने के लिए तंबाकू, लहसुन, नीम की पत्ती, धतूरा, मदार की जड़, गोमूत्र वगैरह मिला कर तमाम तरह के जैविक कीटनाशक व दवाएं बनाई जाती हैं, जिन की किसानों में भारी मांग है.

अगर कोई भी किसान डेरी उत्पाद तैयार करने के लिए जानकारी हासिल करना चाहता है, तो धु्रवनारायन के मोबाइल नंबरों 09565163909, 9984407515 या 9918616970 पर संपर्क कर सकता है.

Women Farmers: महिला किसानों और वैज्ञानिकों के लिए कार्यशाला

Women Farmers : बिहार कृषि विश्वविद्यालय सबौर में 25 जून को IRRI-ISARC, वाराणसी एवं बिहार कृषि विश्वविद्यालय के सहयोग से महिला किसान और वैज्ञानिकों के लिए चावल आधारित कृषि खाद्य प्रणाली पर एक दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया. इस कार्यशाला में चावल आधारित कृषि खाद्य प्रणाली पर महिला वैज्ञानिकों और महिला किसानों की क्षमताओं की कमी और आवश्यकताओं की पहचान कराई गई.

इस अवसर पर कुलपति डा. डीआर सिंह ने कहा कि भारत में कृषि प्रमुख रूप से रोजगार का साधन है और इस में महिलाएं महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. पर उन महिलाओं के पास अधिकांशत पर्याप्त संसाधन और प्रशिक्षण की कमी होती है. इस कार्यशाला के माध्यम से महिला किसानों को धान की कृषि तकनीकी की जानकारी प्रदान की जाएगी तथा महिलाओं को कृषि में फसल तकनीक में हो रहे नवाचार, कृषि में सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी की जानकारी, कृषि क्षेत्र में महिला उद्यमियों के लिए अवसर एवं फसल प्रबंधन आदि विषयों पर जानकारी प्रदान की जाएगी.

इस कार्यशाला में डा. आरके सोहाने, निदेशक प्रसार शिक्षा, डा. अनिल कुमार सिंह, निदेशक अनुसंधान, डा. अजय कुमार साह, अधिष्ठाता कृषि, डा. श्वेता शाम्भवी, निदेशक छात्र कल्याण सहित अन्य पदाधिकारियों ने भाग लिया.

IRRI-ISARC, वाराणसी के वैज्ञानिकों की टीम द्वारा द्वारा क्षमता, आवश्यकता, मूल्यांकन द्वारा महिला किसानों और महिला वैज्ञानिकों को धान आधारित कृषि खाद्य प्रणालियों का मूल्यांकन किया गया. इस कार्यशाला का मुख्य पहलू महिला किसानों को सशक्त बनाना, प्रशिक्षण, आवश्यकताओं का समाधान, बाजार संबंध एवं मूल्य संवर्द्धन ज्ञान के आदानप्रदान को प्रोत्साहित करना, धान आधारित कृषि खाद्य प्रणाली को मजबूत करना तथा खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देना था.

इस कार्यक्रम के दौरान कई तरह की गतिविधियों जैसे SWOT विश्लेषण, विशेषित समूह वात्र्ता (IGT) विधि में क्षमताओं की प्राथमिकताओं का चयन किया गया. कार्यक्रम के अंत में महिला किसानों और महिला वैज्ञानिकों से प्रतिक्रिया भी प्राप्त की गई. इस कार्यक्रम में बांका, मुंगेर, खगड़िया, पूर्णियां एवं भागलपुर जिले की 25 से ज्यादा महिला किसानों ने भाग लिया.

Mango : आम उत्पादन की उन्नत तकनीक पर प्रशिक्षण

Mango : कृषि विज्ञान केंद्र (KVK), सबौर के सभागार में जून के अंतिम सप्ताह में ‘आम में उन्नत तकनीक एवं विपणन’ विषय पर एक दिवसीय किसान प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया गया. इस कार्यक्रम में कुल 30 किसानों ने भाग लिया. प्रशिक्षण का उद्घाटन वरीय वैज्ञानिक एवं प्रधान डा. राजेश कुमार और जिला कृषि पदाधिकारी, भागलपुर ने किया.

उद्घाटन सत्र में जिला कृषि पदाधिकारी ने किसानों को गुणवत्तापूर्ण खेती अपनाने और आधुनिक तकनीकों के माध्यम से आम उत्पादन को व्यावसायिक स्तर तक पहुंचाने का आग्रह किया. डा. राजेश कुमार ने किसानों से कृषि विज्ञान केंद्र से जुड़ कर वैज्ञानिक तरीकों को अपनाने की अपील की.

इस अवसर पर जिला उद्यान पदाधिकारी अभय मंडल ने बागबानी से जुड़ी सरकारी योजनाओं की जानकारी दी. सहायक निदेशक (पौधा संरक्षण) ने फसल सुरक्षा तकनीकों और लाभकारी सरकारी योजनाओं पर प्रकाश डाला.

प्रशिक्षण में डा. रविंद्र कुमार और डा. ममता कुमारी ने आम में पोषक तत्त्व प्रबंधन, कटाईछंटाई और समसामयिक देखभाल पर व्याख्यान दिया. डा. पवन कुमार ने आम में कीट प्रबंधन के विविध पहलुओं पर जानकारी साझा की.

कार्यक्रम में नवगछिया क्षेत्र से आए किसान अंगद कुमार राय, मृगेंद्र प्रसाद सिंह, विद्या चौधरी, ललन राय सहित कई अन्य प्रगतिशील किसान शामिल हुए. यह प्रशिक्षण आम की उन्नत खेती को बढ़ावा देने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पहल सिद्ध हुआ.