जो काम कई दशकों तक करोड़ों रुपया खर्च कर के ना हो पाया, वो काम मात्र 21 दिन के लौकडाउन ने कर दिया था. दिल्ली में यमुना का काला पानी अचानक आईने की तरह साफ हो गया, यमुना जी उठी. यमुना फिर से सांस लेने लगी, उस का खूबसूरत नीला रंग वापस आ गया, जिस में अठखेलियां करती मछलियां लोगों को पुल के ऊपर से नजर आ रही थीं. ये कमाल 21 दिन में खुदबखुद हो गया था.

यमुना को साफ करने के लिए केंद्र और दिल्ली सरकार ने बड़ी मशक्कतें कीं, इस की सफाई के लिए करोड़ों का बजट फूंक दिया गया, मगर कोई सकारात्मक परिणाम कभी नहीं निकला, लेकिन कोरोना महामारी फैलने पर हुए लौकडाउन में यमुना ने खुद अपने को साफ कर लिया. 21 दिन के बंद में ना तो यमुना में औद्योगिक कचरा गिरा, ना लोग अपना मैल धोने यहां आए और ना पूजापाठ, पुष्प, दीया प्रवाह इस में हुआ. शवदाह, अस्थि या मूर्ति विसर्जन जैसे उपक्रम भी इस दौरान यमुना के घाटों पर नहीं हुए. नतीजा यमुना खुश हो कर अपने अति पुराने सुंदर नीले रूप में निखार गई. यमुना के इस बदलाव को विशेषज्ञों के स्तर पर काफी गंभीरता से लिया गया.

लौकडाउन ने यमुना ही नहीं, देश की बाकी नदियों को भी जीवनदान दिया. गंगा, गोमती, ब्रह्मपुत्र आदि तमाम नदियों का जल अपना रंग बदल कर स्वच्छ नीला नजर आने लगा था. इन में जलीय जीवों की तादाद भी काफी बढ़ गई थी.

गौरतलब है कि दिल्ली में यमुना को साफ करने के लिए सरकारी योजनाएं वर्ष 1975 से बनती आ रही हैं. इन योजनाओं का आज तक कोई परिणाम नहीं निकला. इन योजनाओं पर जनता के करोड़ोंअरबों रुपए स्वाहा हो चुके हैं. वर्ष 2011 मई में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार से यमुना उद्धार की रिपोर्ट भी मांगी थी, मगर तत्कालीन सरकार कोई उत्साहवर्धक रिपोर्ट पेश नहीं कर पाई. सरकार द्वारा दिल्ली के 22 किलोमीटर हिस्से की यमुना नदी की सफाई के लिए पिछले दशक में 2,000 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च हो चुके हैं, परंतु यमुना जस की तस गंदी बनी रही. सारा पैसा नेताओं और सरकारी अधिकारियों की जेबों में चला गया. गंदगी, गाद और औक्सीजन की भयंकर कमी ने यमुना की मछलियों का जीवन भी दुश्वार कर दिया. बीते कई सालों से यमुना में मछलियों का टोटा पड़ गया था.

यमुना को शुद्ध करने के लिए बाकायदा ‘यमुना बचाओ आंदोलन’ चला. इस आंदोलन में भारतीय किसान संघ ने अग्रणी भूमिका निभाई. प्रयाग से दिल्ली तक यमुना भक्तों ने पद यात्राएं कीं, जंतरमंतर पर हजारों लोगों ने एकत्रित हो कर अपना मत सरकार के सामने रखा. उधर बृज की गलीगली में घूम कर आंदोलनकारियों ने यमुना को बचाने के लिए भजनकीर्तन के जरीए चेतना जाग्रत करने की कोशिश की कि लोग किसी तरह नदियों में अपने घर का कूड़ाकचरा, पूजा सामग्री इत्यादि प्रवाहित करने से तौबा कर लें, लेकिन सारा प्रयास विफल रहा. ना लोग सुधरे, ना सरकार का कोई जतन काम आया.

‘यमुना बचाओ आंदोलन’ से लंबे समय तक जुड़े रहे सोशल एक्टिविस्ट एनएन मिश्रा कहते हैं, ‘यमुना में घरेलू कूड़ाकरकट से इतना प्रदूषण नहीं होता, जितना इस के घाटों पर पूजापाठ करने वाले, फूल और पूजा सामग्री प्रवाहित करने वाले, प्लास्टिक की थैलियों में गंद फेंकने वाले, मरे हुए जानवरों और इनसानों के शवों को यमुना में बहाने वाले, रोजाना इस के घाटों पर अपने गंदे कपड़े धोने वाले लोग इस को गंदा करते हैं और इस से भी ज्यादा प्रदूषण औद्योगिक मिलों द्वारा पैदा किया जाता है, जो रोजाना लाखों लिटर औद्योगिक कचरा इस में उंडेलती हैं. इसी के साथ स्लौटर हाउसेस से निकला रक्त, रसायन, गंदगी सब यमुना में गिरती है. लेकिन लौकडाउन में लोग घरों में बंद रहे, यमुना किनारे बसी झुग्गियों में रहने वाले लोग अपने घर चले गए, फैक्टरियों में ताले लटके रहे तो चंद दिनों में यमुना साफ हो गई. लौकडाउन ने दिल्ली की मृतप्राय यमुना को नया जीवन दे दिया है. वर्ष 1990 के बाद यमुना स्वच्छ रूप में फिर दिखाई दी.

उल्लेखनीय है कि यमुना की नई रंगत देख कर यमुना निगरानी समिति की ओर से केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) को इस पर अध्ययन कर एक रिपोर्ट तैयार करने को कहा गया था, ताकि यह बदलाव भविष्य में भी यमुना में सुधार का आधार बन सके. यमुना से जुड़ी योजनाएं भी इसी रिपोर्ट को आधार बना कर तैयार की गईं. इसी निर्देश के मद्देनजर सीपीसीबी की एक टीम ने विभिन्न स्थानों से राजधानी में यमुना के पानी के नमूने भी उठाए.

गौरतलब है कि दिल्ली में पल्ला से बदरपुर तक कुल 54 किलोमीटर तक यमुना बहती है, लेकिन वजीराबाद से ओखला के बीच 22 किलोमीटर के क्षेत्र में यह सब से ज्यादा प्रदूषित है. यमुनोत्री से प्रयाग (इलाहाबाद) के बीच 1,370 किलोमीटर लंबी यमुना का यह हिस्सा कहने को तो थोड़ा सा है, लेकिन 76 फीसदी प्रदूषण इसी हिस्से में दिखता है. वजह, पानीपत और दिल्ली की औद्योगिक इकाइयों का कचरा और रसायनयुक्त पानी नालों के जरीए सीधे यमुना में गिरता है.

दिल्ली सरकार के उद्योग विभाग ने पिछले कुछ समय में सीधे नालों में गंदगी फैलाने को ले कर 900 से अधिक औद्योगिक इकाइयों पर कार्रवाई भी की थी. प्रदूषण नियंत्रण उपायों में दिल्ली के 28 औद्योगिक क्लस्टरों में से 17 को 13 कौमन एफ्लूएंट ट्रीटमेंस प्लांट (सीईटीपी) से जोड़ा गया है, जबकि 11 इस से जुड़े हुए नहीं हैं.

इधर यमुना के पानी का शोधन भी कम हो रहा था. उल्लेखनीय है कि यमुना में 748 एमजीडी पानी गिरता है, इस में से मात्र 90 एमजीडी पानी का शोधन ही हो पा रहा है और 290 एमजीडी पानी यमुना में ऐसे ही गिर रहा है.

दिल्ली में हिंडन का पानी भी लौकडाउन में साफ हो गया था. हालांकि घरेलू सीवरेज की गंदगी उस में जरूर जा रही थी, मगर औद्योगिक कचरा गिरना बंद होने से पानी की गुणवत्ता में सुधार हुआ था.

लौकडाउन में गंगा के पानी की गुणवत्ता में भी काफी सुधार हुआ. टेनरी यानी चमड़ा उद्योग पूरी तरह बंद होने से कानपुर के आसपास गंगा का पानी बेहद साफ हो गया.

गौरतलब है कि और्गेनिक प्रदूषण तो नदी के पानी में घुल कर खत्म हो जाता है, लेकिन औद्योगिक इकाइयों से होने वाला रासायनिक कचरा घातक किस्म का प्रदूषण है, जो नदी की खुद को साफ रखने की क्षमता को ही खत्म कर देता है. लौकडाउन के दौरान नदी की खुद को साफ रखने की क्षमता में सुधार के कारण ही जल की गुणवत्ता में सुधार हुआ.

सोचिए कि जिन नदियों को साफ करने के लिए सरकारों ने करोड़ों रुपए खर्च कर दिए, उसे मात्र 21 दिनों के लौकडाउन ने एकदम पाकसाफ कर दिया. अगर कोरोना का प्रकोप नहीं होता तो हम अपने बच्चों को यह यकीन नहीं दिला पाते कि नदियों का पानी नीला होता है.

कोरोना महामारी ने तबाही तो बहुत मचाई, मगर ये संदेश भी दिया है कि हे मानव, अब जाग जा और नदियों में अपना कचड़ा डालना बंद कर दे. अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति से खिलवाड़ ना कर.

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