गरमियों में बिकने वाले लजीज फलों में लीची सब से ज्यादा पसंद किया जाने वाला फल है. यह बहुत स्वादिष्ठ और रसीला फल है. इस के खाए जाने वाले भाग को ‘एरिल’ कहते हैं. लीची को भारत में ताजा फल के रूप में खाया जाता है, जबकि लीची को चीन और जापान में यह सूखे फल के रूप में खाया जाता है.

लीची को पकाने के लिए किसी भी कैमिकल की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि यह कुदरती रूप से ही पकता है, इसलिए इसे स्वाद और सेहत का खजाना माना जाता है.

फलों के राजा आम से ठीक पहले बाजार में आ जाने के चलते किसानों के लिए आर्थिक लिहाज से काफी महत्त्वपूर्ण माना जाता है. लीची का फल लाल रंग का होता है, इसीलिए इसे ‘फलों की रानी’ कहते हैं.

अगर क्षेत्रफल के लिहाज से देखा जाए, तो भारत चीन के बाद पूरी दुनिया में दूसरे नंबर पर है. जबकि चीन पहले स्थान पर है. भारत फलों के क्षेत्रफल और उत्पादन की नजर से दुनिया में 9 वें नंबर पर है.

भारत में लीची का औसत उत्पादन 6 टन प्रति हेक्टेयर है, देश में बिहार लीची उत्पादन में पहले नंबर पर है, जबकि पश्चिम बंगाल दूसरे नंबर पर है.

लीची के फल की ऋतु बहुत छोटी होती है, जो 45 से 60 दिन की होती है. इस के ठीक बाद आम की फसल आ जाती है. कभीकभी कम समय में लीची के अधिक उत्पादन से किसानों को भारी माली नुकसान उठाना पड़ता है.

बाजार में लीची के फलों की बाढ़ आ जाती है. लीची का फल चूंकि पकी अवस्था में तोड़ा जाता है, इसलिए यह लंबे समय तक टिक नहीं पाता और किसान को इसे औनेपौने दाम पर बेचना पड़ता है.

इस नुकसान से बचने के लिए हमारे किसानों को फल की तुड़ाई के प्रबंधन की जानकारी होनी चाहिए. फल प्रबंधन में फल तोड़ने के बाद प्रीकूलिंग, सल्फरिंग और कम तापमान पर स्टोर करना होगा.

बागबानी के लिए मुफीद आबोहवा

लीची समशीतोष्ण फल है. यह कम ऊंचाई और अच्छे जल निकास वाली भूमि में आसानी से उगाया जा सकता है.

लीची की खेती हलकी अम्लीय मिट्टी में बहुत अच्छे तरीके से की जा सकती है, इसलिए ऐसे क्षेत्रों में, जहां का तापमान 7 डिगरी से 40 डिगरी सैल्सियस के मध्य होता है, वहां लीची का उत्पादन बहुत अच्छा होता है. फ्लावरिंग के समय वर्षा जहां न होती हो, वहां पर लीची का अच्छा उत्पादन होता है.

देश में लीची त्रिपुरा से ले कर जम्मू तक, हिमालय के तलहटी क्षेत्र में जहां जलोढ़ भूमि है, इस की खेती बहुत सुगमता से होती है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तक इस की खेती का विस्तार हुआ है.

लीची की उन्नत किस्में

अगर हम देश में उगाई जाने वाली लीची की उन्नत किस्मों की बात करें, तो हमारे देश में प्रचलित प्रमुख जातियों में चाइना, शाही, मुजफ्फरपुर, अर्ली बेदाना, लेट बेदाना और इलायची कोलकाता जैसी उन्नत किस्मों की बागबानी की जाती हैं.

खेत की तैयारी

लीची के पौधों की रोपाई के पूर्व भूमि को समतल कर लेना चाहिए. नए पौधे की स्थापना के लिए पहले गहरी जुताई जरूरी है. पौधों की रोपाई से पहले हैरो से जुताई कर 10 3 10 मीटर की दूरी पर पौधों को लगाना चाहिए. पौधों को रोपने के पहले एक मीटर लंबे, एक मीटर चौड़े और एक मीटर गहरे आकार के गड्ढे खोद लेने चाहिए.

इन गड्ढों में 20 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद, 2 किलोग्राम हड्डी का चूर्ण, 300 ग्राम पोटाश और 20 किलोग्राम लीची के खेत की मिट्टी इन गड्ढों में भरनी चाहिए.

लीची के बाग की मिट्टी में माइकोराइजा नामक कवक होता है, जो लीची के पौधों को जरूरी पोषक तत्त्व भूमि से उपलब्ध कराता है और लीची की जड़ों के विकास में सहयोग करता है. इन गड्ढों के मध्य में जुलाईअगस्त के महीने में या फिर सिंचाई की सुविधा अगर उपलब्ध है, ड्रिप इरीगेशन है, तो वसंत ऋतु में भी इस के पौधे लगाए जा सकते हैं.

लीची के पौध रोपने के तुरंत बाद सिंचाई कर देनी चाहिए. पौधों को गरमी से बचाने के लिए विंड ब्रेक का निर्माण करना चाहिए. इस के लिए दक्षिण दशा और पश्चिम दिशा में गरम हवा रोकने वाले लंबे पौधों को लगाना चाहिए. लीची का पौधा अच्छे आकार का हो, इसलिए ट्रेनिंग और प्रूनिंग जरूर करनी चाहिए.

लीची के पौधे का सफल उत्पादन लेने के लिए 10 साल से व्यावसायिक उत्पादन प्रारंभ हो जाता है. उस समय 50 से 60 किलोग्राम गोबर की खाद, 2 किलोग्राम फास्फोरस और 600 ग्राम पोटाश अच्छे तरीके से जितने में पौधे की छाया हो, मिला देनी चाहिए. लीची बहुत ही हार्डी पौधा है, इसलिए कम से कम सिंचाई में भी अच्छा उत्पादन हो जाता है.

लीची की उन्नत बागबानी (Litchi Horticulture)

फूल का रखें ध्यान

जब लीची में फूल आने वाले हों, उस के 2 महीने पहले सिंचाई बंद कर देनी चाहिए और जब उन की फलियां मटर के दाने के बराबर हो जाएं, तो हर 15 दिन पर उचित नमी बनाए रखने के लिए सिंचाई करते रहना चाहिए.

लीची में सिंचाई की 3 प्रमुख विधियां हैं, बेसिन या ताला विधि, अंगूठी विधि और आधुनिक सिंचाई विधि में ड्रिप इरीगेशन या टपक सिंचाई बहुत उपयोगी है.

सिंचाई और जल प्रबंधन के साथ भूमि संरक्षण के लिए मल्चिंग का बहुत बड़ा योगदान है. इसलिए एक हेक्टेयर में जो भी फसल अवशेष हों, उस पर 20 से 30 किलोग्राम कैल्शियम नाइट्रेट का छिड़काव प्रत्येक फसल अवशेष के ऊपर करने से यह अवशेष जल्दी अपघटित हो जाते हैं और जल संरक्षण के साथ खरपतवार से बचाव, रोगों से बचाव और कीड़ों से बचाव में अहम भूमिका निभाते हैं.

सहफसली के रूप में ले सकते हैं अधिक मुनाफा

लीची के बाग में खाली जगह पर गरमी के महीने में कद्दूवर्गीय फसलें और जाड़े के महीने में मटर, चना, मूली जैसी फसलें लगा कर अतिरिक्त लाभ लिया जा सकता है, जबकि लीची के बड़े पौधे हो जाने पर छाया में हलदी और अदरक की खेती कर अतिरिक्त लाभ उठाया जा सकता है.

कीट व बीमारियों की रोकथाम

लीची की फसल में फल बेधक कीट अधिक नुकसान पहुंचाते हैं. लीची में कोई विशेष रोग नहीं लगता है, लेकिन फल गिरने और फटने की समस्या आमतौर पर देखने को मिलती है. इस के लिए हमेशा सजग रहना चाहिए.

लीची की शाही प्रजाति फल फटने की समस्या से ज्यादा ग्रसित पाई गई है. यह चाइना की अपेक्षा शीघ्र पकने वाली प्रजाति है. इस के नियंत्रण के लिए खेत में नमी बनाए रखना चाहिए और 20 पीपीएम तक एनए नामक हार्मोन का प्रयोग लाभदायक है.

जब लीची के फल मटर के दानों के बराबर हो जाएं, तो 0.4 फीसदी बोरिक एसिड या 10 फीसदी, तो 10 पीपीएम तक टू4डी का पर्णीय छिड़काव करना चाहिए.

फलों की तुड़ाई फलों के हलके गुलाबी रंग की शुरुआत होने पर करनी चाहिए. लीची नौनक्लाइमेट्रिक फल है, इसलिए यह पकी अवस्था में तोड़ा जाता है. यह 1-2 दिन में ही खराब होने लगते हैं. इस के चलते किसान को किसी भी दाम पर बेचने और भेजने के लिए मजबूर होना पड़ता है.

आधुनिक तकनीकी में 1.6 से 1.7 डिगरी सैंटीग्रेड और सापेक्ष आर्द्रता 85 से 90 फीसदी रख कर लीची को 8 सप्ताह तक स्टोर किया जा सकता है, इसलिए बहुत ध्यान से लीची की तुड़ाई, कुछ पत्तियों के साथ गुच्छे में करने से इस की गुणवत्ता बनी रहती है. लीची का व्यावसायिक उत्पादन 10 साल से होने लगता है. लीची में कार्बनिक खेती बहुत ही लाभदायक है.

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