कचरी राजस्थान और आसपास के प्रदेशों की एक सुपरिचित तरकारी है. कचरी से बनी हुई लौंजी (सब्जी) अत्यंत स्वादिष्ठ और रुचिकर होती है. मरु प्रदेश में बहुत ज्यादा पैदा होने के चलते कचरी का एक नाम ‘मरुजा’ भी है.

कचरी के साथ मिर्च या आलू इत्यादि का मिश्रण कर के सब्जी बनाने का चलन भी है. जब यह फल कच्चे होते हैं, तो हरे व सफेद रंग लिए हुए चितकबरे दिखते हैं और अत्यंत कड़वे होते हैं. पकने पर यही पीले पड़ जाते हैं. अधपकी व पूरी तरह कचरियों से भीनीभीनी खुशबू आती रहती है.

बहुत से लोग केवल सुगंध के लिए ही कचरियों को अपने पास रखते हैं और बारबार सूंघ कर इस की सुगंध का मजा लेते रहते हैं. कचरी को उगाया नहीं जाता है. इस की बेल बारिश के मौसम में विशेष रूप से खरीफ की फसल के समय खेतों में खुद ही उग जाती है. सितंबर व अक्तूबर महीनों में यह मिलती है.

विभिन्न नाम

वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार, कचरी का पौधा ‘कुकुरबिटेसी’ कुल के अंतर्गत आता है. संस्कृत में कचरी को चित्रकला, मृगाक्षी, चिभट इत्यादि नामों में संबोधित किया जाता है. हिंदी में भी इसे आंचलिकता के आधार पर विविध नामों से जाना जाता हैं, जैसे काचर, कचरिया, सेंध, पेंहटा, गुराड़ी वगैरह.

मारवाड़ी में कचरी को काचरी व सेंध कहा जाता है. पंजाबी में चिंभड़, मराठी में टकमके रौंदणी, चिभूड़ बंगला में बनगोमुक, कुंदुरुकी फुटी नामों से कचरी को जाना जाता है.

इंगलिश भाषा में इसे ककुंबर, प्युबेसैंट और लेटिन में क्युक्युमिस प्युबेसैंट कहा जाता है. चूंकि कचरी को गौपालक (ग्वाले) बहुत खाया करते हैं, इसलिए कचरी का एक नाम ‘गोपाल कर्कटी’ भी है.

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